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प्रधान सम्पादकीय
इन इलोकोंसे वीर राघवाचारियरने यह अनुमान लगाया है "कि दण्डी (६०.ई.के बाद नहों ) और धनंजयके बीच पर्याप्त अन्तर रहा है।" यह अम्सर ६०० और ८०० ई. के मध्य रखा जा सकता है।
कविराज वामन ( ८वीं शती ) की काव्यालंकार वृत्तिमें उल्लिखित है। उनका समय सुबन्धु और पाणभट्ट (५९०-६५० ई०) के दाद ठहरता है जिनका उल्लेख कविराजने वक्रोक्तिमें दक्ष कविके रूपमें किया है। द्विसन्धान कलापूर्ण है और ऐसा होने पर यदि कविराज धनंजय अथवा उनके द्विसन्धानसे परिचित होता तो निश्चय ही वे उन्हें भी यहाँ ( राधवपाण्डबीय, १.४१ ) सम्मिलित कर लेते । धनंजयका द्विसन्धान काव्यत्य प्रदर्शनकी भव्यता लिये हुए है। वह कविराजके राघवपाण्डवीयसे किसी भी प्रकार हीन नहीं, सम्भवतः ( अथवा निश्चित हो ) उच्च श्रेणीका ही बैठे। धनंजयने पूर्ववर्ती कवियोंका उल्लेख नहीं किया, अतएव कविराजका उल्लेख नहीं किया होगा, अथवा यह भी कहा जा सकता है कि धनंजय कविराज अथवा उनके कान्यसे अपरिचित रहे हों। इसका कारण उपेक्षा अथवा समयका अन्तराल हो सकता है। अतएव कविराजका समय ६५०-७२५ और निघण्टुक धनंजयका समय ७५०-८०० ई. नियोजित किया जा सकता है। राघवाचारियरके मतको समीक्षा F राघवाचारियर बार की निषेशगर प्रमानेमा काते है। यह उल्लेखनीय है कि जल्हण ( १२५७ ई० ) ने राजशेखर ( ९०० ई० ) के नाम पर धनंजयके पद्यको उद्धृत किया है। इसके बाद कविराज अपने राघवपाण्डवीय ( १.१८ ) में स्पष्टतः धार ( ९७३.९५ ई.) के मुंजका उल्लेख करते है
और अपने आश्रयदाता कदम्बवंशीय कामराज ( १.१३) के विषय में पर्याप्त कहते है। यह समसमें नहीं माता वीर राघवचारियरने इन तथ्योंकी उपेक्षा क्यों को । कविराजका कालनिर्णय करनेके लिए उनका समय आधार रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता।
बैंकटसुश्वियका खण्डन और विचार
वेंकट सुन्चिय 'दो आधसं आव दी राघवपाण्डवीय एण्ड गद्यचिन्तामणि' नामक शोषपत्र (जर्नल आफ ६ बी० बी० एस० सीरोज न्यु सोरीज ३, ६२, १९२५ १० १३४ ) में पाठकके निष्कर्षका विरोध करते हैं (१) तेरदाल शिलालेखके श्रुतकीति राघवपाण्डवीयके फतक रूपमें पम्परामायणमें उल्लिखित श्रुतकीतिसे अभिन्न होना चाहिए (२) श्रुतकीति कविका मूल नाम था और धनंजय मात्र संक्षिप्त नाम था, और (३) वह तथ्य अभिनव पम्प जानते थे जिन्होंने उनका उल्लेख उनके वास्तविक नाम रामायणसे किया है।
बी० सुम्वियके अनुसार अभिनव पम्पकी रामायणका रचनाकाल १९०० ई. के बाद और १०४२ ई. के पूर्व नहीं हो सकता। अतएव श्रुतकीर्तिका राघवपाण्डवीय १०४२ ई० के पूर्व लिखा गया होगा। उन्होंने आर० नरसिंहाचार्यके मतका उल्लेख किया है कि "श्रुतकीतिको रचनाका वर्णन जो पम्पको रामायणमें किया गया है, गत-प्रत्यागत काव्य प्रकारका है, यदि ऐसा काय जिसके एक ओर पढ़नेसे रामकथा और दूसरी ओर पढ़नेसे पाण्डकथा निकलती है, यह धनंजयके हिसन्धान काव्यमें लागू नहीं होता। यहाँ यद्यपि एक ही पद्यमें राम और पाण्डुकी कथा शब्द-चमत्कृति दिखाते हुए कही गयी है। फिर भी उसे गतरत्यागत काव्य नहीं कहा जा सकता अतएव धनंजयका राघवपाण्डवीय व श्रुतकोतिका राघवपाण्डवीय अभिन्न नहीं और इसलिए धनंजय और श्रुतकीर्ति एक नहीं कहे जा सकते ।।
बादिराज द्वारा पाश्र्वनाथ चरित ( समाप्तिकाल बुधवार, २७ दिसम्बर १०२५ ई.) में उल्लिखित पूर्वकवि सुम्वियके अनुसार वादिराजके पूर्ववर्ती रहे होंगे। अतएव अधिक सम्भावित यही है कि राघवपाण्डवोयके रचयिता धनंजय वादिराजके पूर्ववर्ती थे। श्रवणबेलगोल शिलालेख नं. ५४ (६७) में प्राप्त आचार्य परम्परामें मतिसागरके पश्चात् हेमसेन ( ९.५ ई० ) का नाम आता है। इन्होंका दूसरा नाम विद्या