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द्विसन्धान महाकाव्य धनंजय भी था । "अतएव यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि हेमसेन राघवपाण्डवीय स्थवा द्विसन्धान काव्यके कर्ता है और यह काव्य ९६०-१००० ई० में लिखा गया है।"
श्रुतकीतिका काव्य प्रकाशमें नहीं आया। वह निश्चित ही संस्कृतमें लिखा गया होगा। वेरदाल और श्रवणबेलगोल शिलालेख के श्रुतकीर्ति ११२३ ई. में विद्यमान थे और इनका राघवपाण्डवीय १०६० ई. के पूर्व नहीं लिखा गया ।
अभिनव पम्प द्वारा उल्लिखित श्रुतकीर्वि वही नहीं जिनका उल्लेख शिलालेखमें आया हुआ है, क्योंकि वे भिन्न-भिन्न परम्पराओंसे सम्बद्ध है। इन दोनों श्रुतकीर्ति नामक प्राचार्योने राघवपाण्डवीयको रचनाएं कीं और वे गतप्रत्यागत प्रकारक पद्यों में थीं. यह कल्पना तथ्यसंगत नहीं। मतयह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उक्त दोनों श्रुतकीर्तियों में कोई एक श्रुतकीर्ति ग्रन्थके रचयिता थे और इन श्रुतकीर्तिकी प्रशंसामें भी पम्परामायण में अथवा श्रवणबेलगोल शिलालेख में इन पद्योंका उपयोग किया है ताकि द्वितीय श्रुतकीर्ति भिन्न सिद्ध हो सकें। और चूंकि अभिनय पम्प जैसे उच्चकोटिके कविके सन्दर्भ में यह सोचना व्यर्थ है कि उन्होंने अन्य कवियों द्वारा निर्मित पद्योंको अपने ग्रन्थमें सम्मिलित किया होगा, अतः यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गतप्रत्यागत प्रकारक राघवपाण्डवीय पम्प रामायणमें उल्लिखित श्रुतकीति द्वारा रचा गया था न कि उक्त शिलालेखमें उल्लिखित श्रुतकीर्ति द्वारा।"
धनंजय और श्रुतकीर्तिके राघव पाण्डवीय भिन्न-भिन्न अन्य हैं, और उसमें कोई एक पूर्ववर्ती होंगे। परन्तु मुझे लगता है कि गतप्रत्यागत राघवपाण्डवीय द्विसन्धानको अपेक्षा अधिक कठिन है और इसलिए उसरवर्ती काव्य पहले लिखा गया और श्रुतकीर्तिने अपना ग्रन्थ धनंजयके अनुकरण पर बाद में लिखा। यदि यह विचार तथ्ययुक्त माना जाये तो श्रुतकीर्ति निश्चित रूपसे धनंजयके उत्तरवर्ती होंगे और उन्होंने अपना अन्य १०००-१२२५ ई० में लिखा होगा।"
पाठकके मतको विस्तृत समीक्षा करनेके बाद वेंकट सुब्बय्या कविराज और उनके राघवपाण्डवीयके सन्दर्भ में इन निष्कर्षापर पहुँचे : कविराजका आश्रयदाता कदम्बवंशीय कामदेव द्वितीय है। कविराज धनंजयके उत्तरवर्ती हैं, और उनका राघवपाण्डवीय १२३६ और १३०७ ई. के बीच लिखा गया है न कि १९८२. ९७ ई० के बीच जैसा कि पाठकने सुझाया है । बेंकट सुब्वियके निष्कर्षोंकी समीक्षा
__ वेंकट सुध्वियका यह विचार स्वीकार्य है कि श्रुतकीर्ति और उनका राघवपाण्डवीय धनंजय और उनके राघवपाण्डवी यसे भिन्न है। परन्तु उनका यह निष्कर्ष कि तेरदाल और श्रवणबेलगोल शिलालेखमें उल्लिखित श्रुतकीर्ति अभिनव पम्प द्वारा उल्लिखित श्रुतकीर्तिसे भिन्न होंगे, संदिग्ध सम्भावित और भ्रमित प्रमाणोंपर आधारित है । उन्होंने जो कहा वह सही हो सकता है परन्तु जैन आचार्य इतने संकीर्ण विचारधाराके नहीं रहे कि उन्होंने संघ, गण, गच्छ और बलिसे बाह्य साहित्यकारोंको सम्मान न दिया हो । वादिराजने अपने काव्यमें अपने पूर्ववर्ती लेखक और आचार्योका उल्लेख किया है। वे आचार्य और लेखक वादिराजके पारम्परिक पूर्ववर्ती हों, यह आवश्यक नहीं। धनंजय वादिराजके पारम्परिक पूर्व आचार्य थे और हेमसेन व धनंजय एक थे, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता । यह एक अन्य पहचान वैसी ही आधारहीन और प्रमाण रहित है जैसी कि पाठककी कल्पना जिसकी बेंकटसुम्वियने कटु आलोचना की है। प्रथम, धनंजय गृहस्थ थे। उन्होंने मुनि अवस्थाका कोई वर्णन नहीं किया और न आचार्य परम्पराका । अतः वे वादिराजके निकट पूर्ववर्ती होंगे, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। द्वितीय, धनंजयने अपने किसी भी ग्रन्यमें अपना दूसरा नाम हेमसेन सूचित नहीं किया, और अन्तिम यदि विद्या-धनंजय नाम उपयुक्त माना जाये ( क्योंकि उसे "विद्याधनंजयपदं विशदं दधानों' भी पढ़ा जा सकता है ) तो 'विद्या' शब्द ही हेमसेनको किसी अन्य पूर्ववर्ती धनंजयसे पृथक कर देता है । अथवा यदि धनंजयको अर्जुन रूपमें स्वीकारा जाये तो हेमसेन विद्या धनंजय माने जा सकते हैं । अतएव उनकी यह पहचान और तिथि ९५०-१००० ई० स्वीकार नहीं की जा सकती।