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________________ द्विसन्धानमहाकाव्यम् भारतीयः---एषा धाम्या वधूः भाति । कथम् १ पद्मोदयस्थितिः लक्ष्यभ्युदयस्थानम् ॥ ७४ ।। रोमराजिलतावृद्धेरालवाली कृतामिव । कपित्थवृन्तसंस्थाननिम्नां नाभिमुपागताम् ।। ७५ ।। वनराजी प्रवालोष्टश्रिया पल्लवितामिव । नीलोत्पलमयीं दृष्टया स्मितैर्मुकुलितामिव ।। ७६ ॥ । कैश्येन कुर्वती मुक्तप्ररोहमिव चालकैः। सृङ्गीमयीं पदन्यासैः स्थलपद्ममयीमिव ।। ७७ ।। चक्रशीला भ्रवोरेच कुचयोरेव कर्कशाम् । चपलां नेत्रयोरेव केशेषु कुटिलस्थितिम् ॥ ७८ ।। अविलिप्तकृतामोदामपीतासवमन्थराम् । अरुष्टां रक्तलोलाक्षीमतुष्टां विकसन्मुखीम् ।। ७९ ॥ किञ्चित्पूर्वप्रियाद्वाल्यं दधती यौवनं भरात् । मडग्रौढान्तरावस्थां साभ्रे पशिनीमिव ।। ८० ।। लूनम्लानमृणालाभकर्णपालीसमुन्नतिम् । तालवृन्तानिलेनेव विघ्नती पक्ष्मणा मुखम् ।। ८१ ॥ गौरक्षिकामिमां सष्टु' नूनमधं हृतं विधोः । रम्यं धानान्यथा चन्द्रः कथमर्द्धत्वमीयिवान् ॥ ८२ ॥ (कुलकम् ) श्लोकाष्टकेन कुलकं व्याख्यास्यामः रोमेति-नूनमहमेवं मन्ये धात्रा ब्रहाणा इमां सीता स्रष्टुं विधातु विधोश्चन्द्रस्य रम्यं मनोहरमर्दै खण्डं हृतमपनीतम् । कथम्भूताम् १ गोरक्षिकां रामं विहायान्येषु पुरुषेषु चञ्चलत्वाद्विजम्भमाणे गावी नेत्रे रक्षतोति गोरक्षिका ताम् । यद्राऽन्येभ्यः पुरुषेभ्यो व्यावृत्य रामवृत्तानां गवां स्पर्शादीनामिन्द्रियाणां रक्षिका निरोधिका तस्मिन्नेव सा गोरक्षिका ताम् । एतेन जानक्याः पातिव्रत्यमुपदर्शितम् । व्यतिरेकः अन्यथा- अन्येन प्रकारेण कथं चन्द्रोऽर्धत्वभेयिवान् गतः ? कथम्भूतां सीताम् ? कपित्थवृत्तसंस्थान निम्नां कपित्थवृन्ताधारवद् गम्भीरां नाभिनुपागताम् | कथम्भूताम् ? रोमराजिलतावृद्धः रोमावलीरूपलताया दृद्धिमुद्दिश्य आलवालीकृताभित्र । पुनः कामिव ? प्रवालोऽश्रिया पल्लवितां नूतनपल्लवसदृशाधार वाहनपर चलती हुई समस्त दिशाओंको ज्ञानसे जागृत करती है तथा श्लमीकी वृद्धि तक ही रहती है ] ॥७॥ कैथके डण्ठल को गहरे स्थान के समान इसकी गम्भीर नाभि पेटपर उगी रोमावलिके लिए क्यारी सदृश प्रतीत होती है, नूतन पत्रोंकी शोभायुक्त सुन्दर मोठोंके द्वारा पल्लवित, नेत्र शोभाके द्वारा नील कमल सय, मधुर स्मितों के द्वारा कलियोंसे युक्त बनमालाके समान है। लम्बे केशजालके द्वारा नीचे लटकते प्ररोह मय, धुंघराले बालों द्वारा भौरोंसे व्याप्त तथा सुकुमार चरण विन्यालके द्वारा गुलाब-मयी सी है । इसकी कुटियोंका ही स्वभाव टेढ़ा है, कुचों में ही कठोरता है, नेत्रों में ही चंचलता है, तथा बालों में ही टेढ़ा (घुघराला) पन है। बिना लेप लगाये ही इसके शरीरसे सुगन्ध निकलती है, बिना मदिरा पानके ही इसमें मादक शिथिलता है, क्रोध यिना ही इसके नेत्र लाल हैं तथा धिना तृप्त किये ही १, इलेपः-२०, ना।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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