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________________ ३२६ विसन्धानमहाकाव्यम् भरतः स्थितः स खलु यत्र तदिदमथवातिरागतः । स्थानमसुखमलिनो न्यगदन्नलिनोदरं निशि निबद्धमीलनम् ॥३७॥ भरत इति-यत्र स्थाने भरत: कैकेयीनन्दनः स्थितः तदिदं स्थानं सः वातिः वातस्यापत्यं वातिः हनूमान् आगतः, कयम् ? खलु निश्चयेन कस्याम् निशि रात्री अथ स्थानगमनानन्तरम्, न्यगदत् कथितवान्, कोऽसौ ? वातिः, कम् ? नलिनोदरं लक्ष्मणम्. कयम्भूतम् ? निबद्धमीलनम् कश्यम्भूतः ? असुखमलिनः दुःखम्लानः । भारतीयः-अथवा स मारुतः न्यगदत् किम् ? तदिदं मलिनोदरं कमलकोशम्, कयम्भूतम् ? निबद्धमीलनं प्राममंकोषम्, कस्याम् ? निशि, पुन: कथम्भूतम् ? अलिनो भ्रमरस्य स्थानम्, कथं यथा भवति न्यगदत् ? असुखं दुःखं यत्र नलिनोदरे स्थितः, कः? सोऽलिः, कपम् ? भरतः तत्परतया कस्मात् ? अतिरागतः अत्यन्तप्रीतेः, कथम् ? खलु दियेतिध्याहार्यम् ? ॥३७॥ भुवि कोकनिष्ठ इव तत्र सहजपरिपीडनोऽभवत् । यः सः तपनपरितापगुणः स्वयमस्तमेत्य सह एवमुद्यतः ।।३।। द्विः भुवीति-लत्र तस्यां भुवि य: तपनपरितापगुणः तपनस्येव परितापगुणस्तपनपरितापगुणोऽभवत् संजात:, कपम् उद्यतः ? सहजपरिपीडनः सहजातः सहगो भ्राता लक्ष्मण: सहज परिपीडयतीति सहजपरिपीडनः, "नन्द्यादिभ्यः [ जै० म० २।१।१०६ ]" इति कर्तरि ल्युः, अकनिष्ठो महान्, कः? सः, असह इव इसहिष्णुरिव स्वयमस्तमेति, कथम्भूतः ? उद्यतः, कथम् ? एवं विनाशं सहज नेष्यामीत्यङ्गीकारे। ही अाकाशमें गमन किया था। किन्तु इनके प्रस्थानमें न तो शोर हुआ था और न वेगके कारण धक्का ही लगा था । गोकि यह प्रस्थान इन्होंने जनक-नन्दन भामण्डलके साथ किया था और अंगद भी (रास्तेमें) मिल गये थे। __ जुटे हुए शरीरके धारक (मिलितांग) जरासंध दम्पतिके लिए विश्रामदायक तथा इनके हितैषी (स-हित) लोगोंके (जनकीय) आनन्दका कारण पवन प्राकाशमें धीरेधीरे चल रहा था। उसका वेग बहुत हलका था तथा वह जरा भी जल्दी नहीं कर रहा था ॥३६॥ प्रयाण के बाद जहाँ भरतजीके उस स्थानपर पहुंचते ही (प्रागतः) दुःख से मुरझाये उन पवनसुतने भरतजीको समाचार दिया था कि वे लक्ष्मणजी (शक्ति लगनेके कारण) रात्रिमें आँख बन्द किये (मूच्छित) पड़े हैं। उक्त प्रकारसे शत्रुपक्षके (प्रथ) रातको सो माने पर (निबद्ध मीलनं) यह पाण्डव (भारत) श्रीकृष्ण (नलिनोदरं) के स्थानपर ना पहुंचा था तथा मित्रोंको जहाँ-जहाँ कष्ट था यह सब उनको बता दिया था क्योंकि उन सबपर उसका स्नेह था ॥३७॥ इस प्रकारसे (एवं) उस रणभूमिपर जो सगे भाई (सह-ज) पर भयंकर प्रहार हना था वह [रात्रिमें भी] सूर्यके प्रखर तापके समान जला रहा था। तथा परम पुरुषार्थी (उद्यतः) सबसे छोटेसे बेड़ा (प्रकनिष्टः) भाई उस प्रहारको सहने में असमर्थ (असह) के समान स्वयमेव अस्त-सा हो रहा है। १..मरुत, वायु-बहुलं शरीरं यस्य स मारुतः भीमः । २. खलु दिवेति साध्याहार्यम्-द० । खलु दिवेति साध्याहार्यम्-ज० ।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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