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________________ सप्तदशः सर्गः ३३५ विकारैः मत्तमत्तगिव, कासाम् ? मानवतीनाप्त, यद्यपि स्वच्छवृत्ति तथापि रसिक रसोऽस्यास्तीति रसिक रसवन तथा मृदुशरीरमार्दवविधायित्वात् तत्तयोक्तं तथा कार्दै द्रवरूपत्वात् तथोक्लाम् ॥५९॥ मानो व्यतीतः कलह व्यपेतं गतानि गोत्रस्खलितच्छलानि । गुरून्प्रहारान्मधु सन्दधीत क्षतं पुनः कामिषु तयिता ॥६०|| मान इति-गानो व्यतीतः प.लहं व्यपेतं तय गोमाससकानि नामालिनक्षमाः महानि तथापि मधु गुरुन् प्रहारान् सन्दधीत तत्क्ष कियद्वा स्यात् पुनः, केए ? सामु १:६० । परिपीडितमुक्तमङ्गनायाः परिरम्भेषु चिरादिव प्रियेग । हृदयोच्छ्वसितोष्मणा सहैव प्रतिसर्पत्कृचयुगामुन मज ॥६॥ परीति----ङ्गनायाः प्रशरूमङ्गमस्याः पामादित्य क्षमा माया मा कुचयुग्मं स्तनसानुम् उन्ममा नाम उन्नभितम्, कपम्भूतं कुजयुग्मम् ? परिसम्पु कालिङ्गपु प्रियण परिपीडित पश्चान्मुक्तम्, कि कुर्वदिव ? प्रतिसर्पदिव, कणम् ? चिरहित र कालेल, पम् ? सहैव सार्द्धमेव, केन ? हृट्योछ्वसितोष्णः ॥६॥ निरुत्तरां कर्तुमनिरत दोषी योषामुपालिप्सुरनेकमाणः । वाक्कमणोरन्यतरस्य मोहमन्यस्य रक्षत्पभवावबोधः ||६२।। . निरुत्तरामिति-अनिस्त चुचुम्ब, कोऽमो ? दोषी, काम् ! यं यां वरमाम् कि कर्तुम् ? निरुतरां बर्तन, शम्भूतो दोषी दोपवान् बल्लम: ? उपालिप्सुः प्रोभिः दिन् ? मागीपरचम, थम्भूतम् ? अनेक नानावित्रम् अथवा युक्तमत्त्, वाचन मणोर्मध्येरातरस्थ एदस्य नोहमा यस्याश्यामपरस्याकोशे ज्ञानं रक्षनीति ॥६२॥ in-rrr-mm यद्यपि मदिरा अत्यन्त स्वच्छ थी, रसीली थी, कोमल (हरतो ) थी और शीतल भी तयापि मानवती ( रुष्ट ) नायिकाओं के सौन्दर्य, पौवाद और अहंकारले प्रावेशके कारण भारान्त उन्मतझे समान अनर्गल मालापका कारण हुई थी HE धीरे-धीरे रोष शान्त हो गया था, कलह समाप्त हो गयी थी तथा दूसरे नायकनापिकाका नाम लेकर चिढ़ानेकी प्रक्रिया भी नहीं चल सकी थी। मदिराके मादेशमें कामी सुग्गल परस्पर में पूरो शक्तिसे उलझ रहे थे । ऐसी स्थिति दन्तक्षत और मसक्षतकी चिन्ता ही किसे थी । ६०॥ आलिंगनफे समय प्रोतमके द्वारा पहले दवाया गया और बादमें छोड़ दिया गया पाल्पारणाझी नायिकाका कुचयुगल हृदयके उच्छ व्यासकी उमा साथ-साथ फैलले हुए के समान ही काफी देर में ऊपर उठा था ॥ ६१ ॥ भनेक अपराधों के कारण दोषी प्रोतमने अपने अपराधोंडो क्षमा करानेकी इच्छासे प्रपनी प्रियताका खुम्बन कर लिया था ताकि यह कुछ वाहन सके । उधित हो है बचन और कर्ममें से किसी एकके मोहको दूसरेकी नाति छिा देती है ।। ६२ ॥ १. शिराप्त इति शेषः---५० ६०, स्वागतासृत्तम् । २. उपजाति रडू । ३. औपर छन्दसिक वृत्तम् । १, ४५जारित्तम् ।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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