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________________ पञ्चदशः सर्गः २७७ वारिकणा यस्मिन् तत्, किमिय? मुकुलितं संकुचितं पद्ममिव, कथंभूतम् ? उल्लसद्विरलतुपारजलम् उल्लसद् विजृम्भमाण विरलं हिमवारि यति ॥४०।। निचितमलकमल्पमौक्तिकग्रथितमिवाम्बुकणैर्नतभ्रवः । नयनबहलपक्ष्म चारुचत् प्रणयजयाप्पविशङ्कितप्रियम् ॥४१॥ निचितमिति–अलकम् अरुचत्. जात्यपेक्षयकवचनम्, आविष्टलिङ्गत्वानपुंसकलिङ्ग च केशपाश इत्यर्थः, कयंभुतम् ? अम्बुकर्णः उदबिन्दुभिः निचितम् निभृतम्, कस्या अलकम् ? नत ध्रुवः नत्ते ध्रुवी पस्याः तस्याः, नत्र लाजा व्यङ्गया, किमिवारुचत् ? अल्प मौक्तिकग्रयितमिव पुनः नयनबलपक्षमलोचनमोलकच्छदघनकेशः पुन: प्रणयजवाष्पविशतिप्रियं प्रणयजेन वाष्पेण कृत्वा विशङ्कितः प्रियो येन तत् स्नेहोद्भवाश्रुविशङ्कितवल्लभमिति ।।४।। किमु विलुलितकुङ्कुमावलि किमधिकुचं नखरक्षतं नवम् । विमतिरिति विपक्षसेचनेन च कुपितोऽकुपितोऽवलाजनः ॥४२॥ किमिति-घकारोऽत्र संभावनाओं भागते न गुमायजाम लगते, अकुपितोऽपि सन् अबलाजनः कुपितः, केन ? विपक्षसेचनेन सपत्नी जनोक्षणेन, कथंभूतः ? विमतिः विशङ्कितमना:, कथम् ? इति कृत्दा दर्शयति, उ अहो कि विलुलितकुङ्कुमावलिः आघाततया प्रकटीभूता घुसृणरेखेयमित्यर्थः, कथम् ? अधिकुचं कुचयोरपरि, अथवा नसरक्षतं नखक्षतम्, किंभूतम् ? नवं नूतनम् ।।४२।। सपदि न तदवेयुषो वधूरघिदयितायतबाहु विप्लुता। रमणसलिलयोः किमीयतः पुलकितमङ्गमिति प्रसङ्गतः ।।४३|| सपदीति-न अवेयुषी न ज्ञातवती, का ? कन्दः, किम् ? तत्, कथम् ? सपदि शी नम्, कथम् ? इति प्रवाटयते, पुलकित रोमाञ्चितम्, किम् ? अङ्गम्, कस्मात् ? प्रसङ्गतः संबन्धात्, कयो: ? रमणसलिलयोः भर्तृजलयोः, कथंभूतात् प्रसङ्गात् ? किमीयतः कस्यायं किमीयः तस्मात् कस्य संबन्धिनः, कथम् ? अधिदयितायतबाहु आयती च तो बाहू च आयतबाहू दयितस्य आयत बाहू दयितायतबाहू दयितायतबाह्वोरुपरि अधिदपितायतबाहु रमणस्योद्दण्डदोर्दण्डयोरुपरि विप्लुता ।।४३॥ बल्लभको पानीकी बौछारसे बचनेके लिए बल्लभाने अपना मुख हाथोंसे ढक लिया था। तो भी प्रेमी-द्वारा धीरे-धीरे उछाले गये पानीको कुछ बूंदे उसके मुखपर रह गयी थों। फलतः उसका मुख क्वचित्-क्वचित्, प्रोसको बूदोंसे युक्त विकसित कमलको कलीके समान कान्तिमान हो गया था ॥४०॥ जलक्रीड़ामें रत नायिकाके पलक झपके हुए थे। उसके गुंथे हुए सुन्दर जूड़ेपर पानीको कुछ बूंदे सक गयी थी और इनके कारण वह ऐसा सुन्दर लगता था मानो थोड़े-से मोतियों से सजाया गया हो । प्रांखोंके घने पलकोंपर भी कुछ जलबिन्दु रुक गये थे। वे भी पतिपर हुई शंकाके कारण आँखोंमें छलक पाये शोकके आँसुओंकी छटा दिखा रहे थे ॥४१॥ सपत्नीके द्वारा पानी डाले जानेपर प्रसन्नतासे जलक्रीड़ा करती हुई नायिकाएं भी अप्रसन्न हो गयी थीं। और कह उठी थों, मेरा कुंकुमका लेप क्यों पोंछ डाला ? और तुम्हारे कुचपर नया नखक्षत कहाँसे आ गया ? ॥४२॥ पतिने अपनी प्राजानु लम्बी भुजामोंपर पत्नीको पानीमें तेरा दिया था। इसके कारण नायिकाको तुरन्त रोमांच हो गया था। किन्तु वह मुग्धा यह न समझ सकी कि यह ( रोमांच ) पतिके स्पर्श और जलक्रीड़ामें से किसके कारण हुआ था ॥४३॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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