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________________ - - - - - - - - - - - - - - . । .. . । । । द्विसन्धानमहाकाव्यम् अभिमुखमवलम्बितोऽम्बुना निचितकुचद्वयसंप्रियाजनः । स्तनजघनभरेण पीडितः स्फटिकमयीमिव भित्तिमाश्रितः ॥३७॥ अभीति-अम्बुना वारिणा कर्या प्रियाजन: अवलम्बितः अभिमुखमिति क्रियाविशेषणमेतत् निचितकुचद्वयसम् कुची परिमाणं कुचद्वयसम् "परिमाणे द्वयसहनमात्रट." [जै० सू० ३।४११५९] इत्यनेन सूत्रेण द्वयसडिति प्रत्ययः, निचितं कुचयसं यस्मिन् अवलम्बनलक्षणे कर्मणि तद्यया भवति तथा, क इवोत्प्रेक्षितः ? आश्रित इव, काम् ? भित्तिम्, कथंभूताम् ? स्फटिकमयीं स्फटिकनिर्वृत्ताम्, कथंभूतः प्रियाजनः ? स्तन. जघनभरेण पीडितः ।।३७।। परिचितमभिगम्य लीलया कुचभुजयोविंशतान्तरं मिथः । परिपजादिव योषितो जलं चलवलिबाहुयुगेन निर्बभौ ॥३८॥ परिचितमिति–जलं निभी भाति स्म, कि कुत्रंदिव ? अङ्गना: कामिनी: परिषदिव आलिङ्गदिव, केन कृत्वा ? चलवलिवाहुयुगेन तरङ्ग मुजद्वन्द्वेन, कयम् ? मिथः परस्परम्, कि कुवंता सता ? अन्तरं मध्यं विशता, कयोः ? कुचभुजयोः, कया ? लीलया अनायासेन, किं कृत्वा ? पूर्वमभिगम्य प्राप्य, कथंभूतम् अन्तरम् ? परिचितं संस्तुतमिति ।।३८।। अधिजलमधिकङ कुमं बभौ करधृतमङ्गनया स्तनद्वयम् । कनककलशयुग्ममम्भांस स्मरमभिषेक्तुमिवावतारितम् ॥३६॥ अधीति–अङ्गनया कामिन्या कैरधृतं हस्त रुवं स्तनद्वयं कुचयुगं बभी रेजे, कथंभूतम् ? अधिकुकुम प्रचुरकुडकुमचचितम्, क्व वनो? अधिजलं जलमध्ये, किमिव ? कनककलशयुग्ममिव शातकुम्भकुम्भद्वि तयमिव, कर्थभूतम् ? कन्दमभिपेक्तुम् । अम्भसि जले अक्तारितम् ।।३९॥ करतलपिहितं प्रियाननं प्रियमृदुसिक्तविषक्तशीकरम् । मुकुलितमिव परमुल्लस द्विरलतुपारजलं व्यराजत ॥४॥ करेति-प्रियाननं भामिन्या मुलं व्यराजत, बभी, कथंभूतम् ? करतलपिहितं हस्ततलप्रच्यादित पुनः नियमृदुसिक्त-विषक्तशीकर प्रियेण मृदु यथा भवति पूर्व सिक्ताः पश्चाद् विषवता लग्नाः शीकरा पानीकी लहरें दुगुनी सहश हो गयी थीं। इस प्रकार कामिनियोंके सम्पर्कसे पानीने भी अनेक भव ( रूप ) धारण किये थे ॥३६॥ पुष्ट एवं कठोर कुच-युगल-प्रमाण गहरा पानी जलक्रीड़ामें विभोर इन प्रेयसियोंके मुखके सामने आ गया था [ मुखका भी धुम्बन कर रहा था ] ! और इस पानी में डूबी नायिकाएं ऐसी लगती थीं कि अपने स्तन और जंघानोंके भारसे पीड़ित होकर इन्होंने स्फटिकमरिणको भीतिका सहारा ले लिया है ॥३७॥ पूर्व-परिचितके समान रतिलीला करता हुमा पानी नायिकायोंको सब तरफसे प्रावेष्टित करके उनके स्तनों और बाहुलतानोंके बीचमें भी घुस गया था। तथा चपल तरंगों रूपी भुजाओंके द्वारा उनका प्रालिंगन करते हुएके समान सुशोभित हो रहा था॥३८॥ पानीमें उतरती हुई नायिकाोंने अपने-अपने स्तनोंको कंकुमसे रंगे हाथों-द्वारा सम्हाल लिया था। इस प्रकारसे सम्हाली गयी स्तनोंकी जोड़ीको देखकर लगता था कि ये स्तन नहीं हैं, अपितु कामदेवके अभिषेक के लिए पानीमें डुबाये गये कुंकुम-चर्चित दो सोनेके सुन्दर कलश ही हैं ॥३६॥ Hamarrin wunnarunmunnnnnnninrnment Autnanagar
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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