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________________ षोडशः सर्गः २६१ अन्योन्यमुत्पीडयतोः सखीव ज्याधन्वनोमध्यमनुप्रविश्य । निवारयन्तीव युगं त्रिदुरं तदायतेषुः पृथगाचकर्ष ॥२३॥ अन्योन्यमिति--आचकर्ष अाकृवती, का ? इपुर्याण:, किम् ? तद् द्वितयं पृथक्, कथम्भूता सती ? आयता दीर्घा, कि कुर्ब तीब ? निवारयन्तीव, किम् ? युगं युद्धम्, कथं यथा भवति तथा वि (दूर) दूरतरम्, केच ? सखीव, कि कृत्वा ? अनुप्रविश्य, धिम् ? मध्यम्, कयो: ? ज्याधन्वतो: मौर्वीचापयोः, कि कुर्वतोः ? उत्पीडयतोः कदय नोः, कथम् ? अन्योन्यमित रेत रमिति ।।२३।। परस्परं वेपिनमाप्नुवन्तो न पेतुरुद्भिद्यशरा हयाश्च । तेऽन्योन्यसेनामुभयेऽप्यनाप्य स्वं श्लाघमाना इस तीक्ष्णभावम् ॥२४॥ परस्परभिति-से उभयेऽपि द्विरयेऽपि मरा हयाश्च न पेतुः न पतिताः, किकृत्या ? पूर्वमनाप्या:प्राप्य, काम् ? अन्योन्यसेनामितरतरसम्यम्, कि त्वा ? नुदिमध अब मित्या, कथन् ? परस्परम्, कि कुर्वन्तः सन्तः ? आप्नुवन्तः, किम् ? वेगितम्, कि कुर्वन्त इव ? साघमाना इव, कम् ? तीक्ष्णभावं स्वमात्मीयमिति शेषः ।।२४।। इयत्तशा वक्ताहं न शक्तः स्यदानिपूणां युधि ये गिरिभ्यः । स्थवीयसोऽध्याशु विभिद्य नागानिबद्धकोषा इत्र रक्तरक्ताः ॥२५॥ इयत्तपति-युधि सलामे, तेयामित्यध्याहार्यम्, इषूणां बाणानां स्यदान वेगान् इयत्तया वक्तुं न शक्तोऽहम्, ये : इषके निबद्धकोष! इव रक्तरक्ताः रक्तेन रुधिरेण रक्ता: शोणिता इत्यर्थः, बभूवुः, कि कृत्वा ? पूर्व विभिध विशेषेण भित्या, कान् ? नागान हस्तिनः, कथम् ? आशु शीघम्, कथम्भूतान् ? गिरिभ्यः पर्वतेभ्यः स्थवीयसः स्थूलतरागपि ॥२५।। आस्येषु जिह्वा हृदयेषु हस्तानसेषु शूराः श्रवणान् पृषकैः । समस्तमन्पुष्करिणां पिशाचान् स्तम्मेषु कीलैरिव मन्त्रसिद्धाः ॥२६॥ आध्येथिति-शूरा: भटा: पृषत्वोः बाग: पुष्करिणां हस्तिनाम् आस्येपु मुखेषु जिह्वा: समस्त भन् कील याभाशुः, तथा हृदये हस्तान् शृण्डा बण्डान्, तथा अंसे स्कन्धेषु श्रयणान्, क इव ? मन्त्रसिद्धा इव, यथा मन्त्रिणः पिशाचान की लै; स्तम्भेषु संस्तन्नमति शेषः ।।२६।३। एक-दूसरेको परस्पर में पोड़ा देते हुए धनुष और ज्याके बीच में पाये हितैषी मित्रके समान लम्बे-लम्बे बाल ऐसे लगते थे मानो उन दोनोंके संघर्षको दूर करनेके लिए ही उन्हें अलग-अलग खींचकर रोक रहे थे ॥ २३ ॥ अपनी-अपनी तीक्ष्णता और जनताको प्रशंसा करते हुए और प्रतिक्षस वेगको बढ़ाते हुएके समान वे दोनों अर्थात् योद्धाओं के बाण तथा घोड़े पक्ष और विपक्ष की सेनाओं तक बिना पहुँचे परस्परम्ने हो टकराकर नहीं गिर गये थे ॥२४॥ उन पारणोंकी तेजो या गतिको नहीं कहा जा सकता है, जो युद्ध-भूमिपर प्राये और पहाड़ोंसे भी विशालकाय हाथियोंको पलक मारनेके समय में ही छेदकर निकल जाते थे । और रक्तसे ऐसे लाल हो जाते थे, मानो तीन शोधले हो भभक रहे हैं ॥ २५ ॥ वीर योद्धानोंने अपनी बाप-वकेि द्वारा हथिनियोंको जोसोको मुखोंने, शुण्डा दण्डको छातीपर और कानोंको शन्दोंपर उसी तरह टोक दिया था जिस प्रकार मन्नोको जगानेवाले सिद्ध पुरुष कोलों के द्वारा पिशाचोंको खम्भोंपर कीलित कर देते हैं ॥२६॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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