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द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सत्यसन्धा: पुरिपोपि दETE की विहितचापकदर्शनं यया भवति जीवाभिधात प्रत्यञ्चाविस्फार चः कृतवन्तः, युक्तमेतत्, यो यादृशः तागेव तस्य कर्म जायते, चकारोऽत्रावधारणे बोद्धव्योऽव्ययानामनेकार्थत्वात् ॥१९॥
उत्कर्ण्य मौर्वीनिनदं नृपाणां तनुलता कण्टकिताऽनुरागात् ।
उत्सेकतो चोररसैकसारादभूद्विरूढेव समं रिपूणाम् ।।२०।। उत्कण्येति-अनुरागादानन्दभरात् कण्टकिता सती तनूलता सममेव हेलयाऽभुत् संजाला, केपाम् ? नृपाणाम्, केव? विरूदेव अङ्कुरितेव, कस्मात् ? उत्सेकतो गति, कथम्भूतात् ? वीररसैकसारात, कि वृत्त्वा ? पूर्व कण्टकिता तनूलता उत्कर्ण्य ऊध्र्धकरणं श्रुत्वा, कम् ? मौििमनदं ज्याध्वनितम्, केपाम् ? रिपूणामिति ॥२०॥
ज्याचक्ररूद्ध स्थितमङ्गमेव रवरिवोच्चैः परिवेषभाजः ।
तेजो जगद्वथाप तु राजकस्य रोढुं परं ज्योतिरहो न शक्यम् ॥२१॥ ज्येति-स्थितमझ मेव, कथम्भूतम् ? ज्याचक्ररुद्ध मौमण्डलनियन्त्रितम्, कस्व ? राजकस्य नरेन्द्रसमूहस्य, कस्येव ? रवैरिव, ययोच्चैः परिवेषभाजो रवेरङ्गमेव स्थितं तु पुनाप व्याप्नोति स्म, कि कर्तृ ? तेजः, कि फर्म ? जगत् लोकम्. कस्य ? राजकस्य, फस्येव ? रवेरिव, यथा रदेस्तेजो जगद्व्याप्नोति, युक्तमेतत्. अहो परं निरुपम ज्योति: रोद्धं न शक्यं स्यादिति शेषः ॥२१॥
घाताय कत द्विषतां प्रवीरैः शरोऽनमुक्तान्मनसो रथाच । प्रागम्यमित्रो जनि पश्चिमोऽपि पश्चान्न शीघ्रः प्रथमोऽपि मन्दः ॥२२||
घातायेति ---अत्र चकारेण सम्भावनाओं निवेद्यते । द्विषतां शत्रूगा घाताय कर्तुं प्रवीरैः सुझट: रथात् मनसोयन मुक्तान् अभ्यमित्र्यः शत्रुसम्मुखः सन् शरः प्राक् पूर्वोजनि, युक्तमेतत्, शीतः पश्चिमोऽपि न पश्चात् स्यात् मन्दः प्रथमोऽपि न प्रथमः स्यात् इति शेषः ॥२२॥ शर संचालनको विधि ( न्याय्य इषुमार्गेषु ) में तल्लोन, तथा ठीक लक्ष्य (सन्ध) को साधते हुए सन्मति योद्धा धनुष ( धर्म ) को पूरा खोंचते थे तथा ज्याको फटकारते थे । उचित ही है जो जैसा होता है उसका कर्म भी वैसा होता है ॥ १६ ॥
शत्रु राजाओंकी ज्याकी टंकारको सुनकर शुद्ध वीर रसका उद्रेक होनेसे सपक्षी राजानोंके इकहरे शरीर एकाएक वैसे ही रोमांचित हो उठे थे जिस प्रकार धन-गर्जनाके साथ-साय वृष्टि के सेकसे खेलें अंकुरित हो उठती हैं ॥२०॥
योद्धा राजामोंका तना हुमा उत्तम शरीर हिची वाफे गोलेसे घिर गया था तथा उसका प्रताप सारे विश्वमें फैल गया था। हातएक वे परिवेशसे घिरे और संसारको प्रकाशित करते सूर्य-बिम्बके समान लगते थे। उचित ही है क्योंकि सर्वोपरि ज्योति या पराब्रमको कोन रोक सकता है ? ॥२१॥
शनोंपर प्रहार करने के लिए महान योद्धानों द्वारा छोड़ा गया बारण, अपने से पहले चले योद्धाके रथ और मनसे भी जल्दो शत्रुके सामने जा धमका था। उचित हो है बादमें घला वेगशाली भी पीछे नहीं रहता और पहले चला धीमा भी आगे नहीं जा पाता है ॥ २२॥
.... अभ्यमिभ्यः इति र कास्थः पाठ इचित्तः ।