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________________ षोडशः सर्गः २९६ स्थानिमेऽन्ये च समं नरेन्द्राः प्रपूरिताशानथवाजियुक्तान् । आपूरयन्ति स्म मनोरथांश्च किं नोद्यतामामुपपद्यते च (वा) ॥१७॥ रथानिति-बापूरयन्ति म, के ? इमे अन्ये च नरेन्द्राः, कान् ? रयान्, कथम् ? समं युगपत् प्रपूरिताशान् प्रपूरिता आशा दिशो यस्ते तथोक्तास्तान् पुनः वाजियुक्तान वा अथवा मायूरयन्ति स्म नरेन्द्राः कान् ? मनोरयान् वाथम्भूतान् ? प्रपूरिताशान् प्रपूरिता अशा वाञ्छा स्तान् पुनः आजियुक्तान सङ्ग्रामयुक्तान्, घुत्तमात्, वा अपवा उद्यानास उद्य तवज्ञा पुंसा मिनीपाद्यते किन्न जायते, अपि तु सर्वमप्युपपद्यते, इति शेषः 11१७॥ स्वयं परान्ना(पुरा ना-)मयसीति भर्ता स्त्रीनवोठेब पुरन्ध्रिवर्गः । बलात्कृता राजविरङ्गलग्ना वक्रय भूयो धनुषः खरस्य ॥१८॥ स्वयमित-बलात्कृता दाइयं नीता, का कर्मसापन्ना? ज्या मार्यो, कयम् ? भूर: पुनः, कथमिति ? स्वयं पुरा नामयसि भर्तुरिति स्वामिन: स्वयमात्मना पुरा पूर्व नम्रा भविष्यसि । कैलात्कृता? राजमिनरेन्द्रः, काथम्ता मनी ? अगलग्ना, कस्य ? धनुषः, कथम्भूतस्य ? वस्य पुनः खरस्य निष्ठुरस्य, केव बलात्कृता ? नवोटा नानपरिणीता स्त्रीव, कैः ? पुरन्निवर्गः प्रौढमहिलाजन, कथमिति ? स्वयं पुरा नामयसि भर्तुरिति शेपं सुगमम् ॥१८॥ जीवाभिघातं कृतधर्मपीडं न्याय्येषु मार्गेषु निषक्तचित्ताः । ते सत्यसन्धाः मुधियोऽपि चक्रुर्यो यादृशः कर्म च तस्य तादृक् ॥१६॥ जीवेति-न्याय मार्गेपु निषक्तपित्ताः ते सत्यसन्धाः सत्यप्रतिज्ञाः सुधियोऽपि सन्तः जीवाभिधातं कुतधर्मपीडमिति विशेषणं चनुरिति, विरोध परिहरति न्याय्येषु मार्गेषु न्याच्याश्च ते इपुमाश्चि न्याय्येषुमार्गास्तेषु श राणा मा टिमुष्टिसन्धानध्यायेषु दत्तवेतस्का इत्यर्थः, पुनः सत्यसन्धाः सत्यं सन्दधते बाणान युद्ध के लिए तैयार, दिगन्त विख्यात, महान् यशस्वियोंमें श्रेष्ठ तथा कवचधारी द्रोणाचार्य ( गुरु ) के मुख से निकली रोषके कारण अस्पष्ट सिंहगर्जनाको कृष्ण ( स्वयम् ) भगवान ने भी सहन नहीं किया था। ( पंचमार्थ ) अत्यन्त कुपित तथा उत्तेजित, यशस्वियोंके प्रमुख, शान्त पुरुषों के द्वारा स्तुत कृतवर्माके मुखसे निकली हुंकारको स्वयम् भगवान् तथा वृहस्पति (गुरु) ने भी नहीं सहा था ॥ १६ ॥ घोजोंसे युक्त समस्त दिशाओं में व्याप्त रथोंपर पूर्वोक्त राजा तथा और दूसरे राजा लोग भी एक साथ बैठ गये थे। मानो युद्ध में लीन इनके अभिलषित मनोरथ ही पूर्ण हो गये थे। ठीक ही है, पुरुषार्थी पुरुषों के लिए क्या नहीं प्राप्त होता है ? ॥ १७॥ टेढ़े तथा तीक्ष्ण धनुबके ऊपर राजाओं-द्वारा चढ़ारी गधी डोरोको उनकी पत्नियोंने इसलिए खूब कसा तथा कड़ा किया था कि नव-विवाहिला खोके समान वह उनके पतियोंके शत्रुओंको स्वयं झुका देगी [प्रौढ़ खियोंके द्वारा विमुख और रुष्ट पतिके पास भेजी गयो तथा जबरदस्ती उसकी देहसे चिपटी वय-विवाहिता बहू भी बादमें पतिको सर्वचा भुका लेती है ] ॥१८॥ न्याय मार्गपर चलनेके लिए कृत-संकल्प और सच्चे प्रतिज्ञा पालक विवेकी पुरुषांने भी धर्मको विनाशक जीवहिंसा को थी [ विरोधाभास है। परिहार ] शवविद्या-सम्मत १. ही नहीडेव टोकासम्मतः पाठः। मूलपाठोऽपि जमाक्षे अम्लीः, नवोदापक्षे पदच्छेदेन योज्यः ।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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