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सप्तदशः सगः
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सुतः सन् ? अभ्युदितः समुत्पन्नः कस्मात् ? ततस्तस्माल्लोकोत्तराद्विधुतश्चन्द्रात् युक्तमेतन्नाम किती पराद्युतिः कं नोपप्लवं हन्ति अपितु सर्वमेव हन्तीति भावः ॥४१॥ परिमोहयमाणवाशयं व्यसनाम्भोधिभिवोचरंस्तमः ।
सुखरोचिरतः सलक्ष्मणः क्षणमुल्लाव इवोदतिष्ठत ॥ ४२ ॥
परीति- गोपत. अविरेण कालेन उदतिष्ठतािन् क इव ? उल्लाघ इव व्याधिमुक्तम् ? व गुहूर्तमेकम् कथम्भूतः ? सुखः ढहारी अथवा सुखरः सुखदः, किं कुर्वन् ? व्यसनमामि जाशयं चेतः परिषोयमाणं समोचकारम् उतरन् सन् चन्द्रः सलक्ष्मणः सह लक्ष्मण वर्तत इति सः परिपूर्णत्वात् । पामपूर्ववत्॥४२॥
भारतीय:-: दिवानाः ।
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निजया रुपिपारुचा परनाल्योपधिपतिवरया ।
वायकानामधिकं रुरुचे न महस्त्रिसङ्गतिषु कस्य रुचिः ||४३||
विजेवियर नामक राजपुत्रा अधिकं रुरुचे शुशुभे किं कृत्वा ? पूर्व तं मात्र अथवा तं पतिमवाप्येति सम्बन्धः कथम्भूतया ? रुपाख्यान पुनः परमाशा उत्कृष्टबाच्या तु सर्वेषामपीतिशेषः ।
निजपूर्ववानिपूर्ण
युक्लमेल हरुन
नारायण (वि) से शक्तिका संचार रात में हो समस्त दिशाधों में व्याप्त हो गया था। इसके पेहर का भी फैल गयी थी । परब्रह्मकी प्रभा किस उपद्रवको चाय नहीं करती है ! अर्थात् लब उप मिटा देती हैं । चन्द्रासि विगु-वन्तराणों में व्याप्त हो गयी थी तथा इस मनोहर प्रकाश से रात्रि में लोगों को प्राप्त हो गया था। पूर्ण प्रकाश किस अम्यकारको दूर नहीं करता है ॥४१॥ अत्यन्त तो बोद्धा श्री लक्ष्नने इसे खाते हो चित्तको पूर्ण रूपसे सूच्छित करनेमें समर्थ शक्ति को तुरन्त वैसे हो शान्त कर दिया था जैसे गुणी व्यसनोंके सागरको पार कर लेता है। और क्षरा भरमें ही ऐसे उठ बैठे थे मानो कुछ हुआ ही न था ।
धूत, आदि वस सागरको पार करने के समान चितको मोह जाल में फँसाते हुए कलुषिर भावको श्री कृष्द्ने तत्काल सुखद कर दिया था और पाण्डव उत्साहित होकर उठ खड़े हुए थे ।
कान्त कान्ति पारण शत चिह्नमा चन्द्रमा भी सबको अचेत ( सुषुप्त ) करनेवाले सम्यकारको नाश करता हुआ और उसको बढ़ाता हुआ ऊपर था गया या ॥४२॥ श्रेष्ठ के द्वारा लायी गयी लक्ष्मणकी पहली कान्ति ( निजपूर्वया ) दुर्बला का सफेद ( पाच्छु ) होकर भी मनोहर लगती थी । तथा विशाल मनोबलको द्योतक थी । यह पाष्ड छवि भी ( दिलाई ) सुन्दर बनाको पाकर और जगमगा उठी थी। उचित ही है प्रतापियोंकी संगतिमें कौन नहीं चमकता है ?"
परनामा एवं औषधीश श्रीकृष्णपर अनुरक्त और प्रकृतिस्थ ( निजपूर्वया ) पाण्डवों के मनोहर प्रतापने जगन्मोहन (कान्त ) श्रीकृष्णको पाकर अपनी शोभाको प्रत्यधिक कर लिया था। ठीक है, प्रतापियोंके साथ रहकर कौन प्रतावी नहीं हो जाता है ।
१. वैतालीयं छन्दः
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