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________________ पञ्चदशः सर्गः प्रणयकलह कैतवं प्रणामं शपथमसत्यमुपागमं विलज्जम् । प्रतिमिथुनमिदं निरूप्य रेजे स्फुटदिव तत्सकलं हसेन पुष्पम् ॥ ७ ॥ प्रणयेति तत्सकलं समस्तं पुष्पं रेजे शुशुभे किं कुर्वदिन ? हसेन हास्येन स्फुटदिव किं कृत्वा ? प्रतिमिथुनं मिथुनं मिथुनं प्रति प्रणामं प्रणिपात प्रणयकलहकैतवं प्रणवकल्हेन केतनं दम्भो यत्र तं तथा विलज्जं विगतालज्जा यत्र तन् उपागमम् आलिङ्गनम् इदं सर्व निरूप्यावलोक्य ॥ ७ ॥ २६७ अवचितकुसुमावशिष्टवृत्तं वनमबलाकृतिविस्मयेन हस्तम् । विकसितम कृते तन्महान्तो ननु रुजतामपि सुग्रहा गुणेन ॥ ८ ॥ अवचितेति तद्वनं हस्तम् अवलाकृतिविस्मयेन अबलानामाकृतिः अबलाकृतित्तस्यां विस्मयेन कामिनीकायाद्भुतेन निकशित अकृतेव चकारेव, कथम्भूतं वनम् ? अवचितकुसुमावशिवृन्तम् अवचितकुसुमैरवशिटानि तानि यत्र वात् श्रेोटित पुष्पोज्झितप्रसवबन्धनमित्यर्थः, युक्तमेतत् ननु अहो जायन्ते, के ? महान्तः सन्तो नराः । कथम्भूताः सुग्रहाः सुखेन ग्रहीतुं शक्याः, केपामपि १ रुजतामपि पीडाकारिणामपि केन कृत्वा ? गुणेन ॥ ८ ॥ कथमपि नमयन्त्युपेत्य शाखा करयुगलेन लतान्तमुच्चिचीषुः । स्तनकलशभरेण भग्नमध्या तरुमवलम्ब्य निषेदुषीव काचित् ॥ ९ ॥ कथमिति-काचित् कामिनी त वृक्षं करयुगलेन हस्तन्द्वेन अवलम्ब्य अवयस्य, कथमपि मद्दता कष्टेन शाखां नमयन्ती निषेदुपी स्थितवती, कथम्भूता ? उपेश्य सभीपमागत्य लतान्तं कुसुमम् उच्चिचीपुः उच्चेतुमिच्छुः, केवोत्प्रेक्षिता ? स्तनकलशभरेण कुचकुम्भमारेण मग्नमध्येव ॥ ९॥ निकटसुलभमुद्रमं विहाय श्लथवलिनीव विदूरगं ललडे । प्रथमुदरं परा स्त्रिया हि प्रियतमविभ्रमगन्धनोऽन्यसङ्गः ।। १० । निकटेति परा अन्या काचित् कामिनी उद्गमं पुष्पं ललचे अतिकान्तयती, कथम्भूतम् ? विदूरगम् अनिकटतरम् कथं यथा भवति १ दलथलिनी विशिथिलितवलिपरिधानमन्थि, किं कृत्वा ? पूर्व निकटसुलभम् उद्गमं विहाय नुवा, कि कत्तुम् ? उदरं जटरं प्रथयितुं प्रकटयितुम् युक्तमेतत् स्यात् कः ? अन्यसङ्गः कथम्भूतः १ प्रियतमविभ्रमगन्धनः वल्लभकटाच सूचकः, कस्याः स्त्रियाः कामिन्याः, कथम् ? छिं स्फुटमिति ||१०|| प्रणय कलह और उसका दम्भ दूर करनेके लिए पैरोंमें पड़ना, झूठे शपथ तथा अनुकूल होकर निर्लज रूपसे आलिंगन, आदि प्रत्येक युगलकी क्रियाओं को देखकर ही वह समस्त पुष्प समूह हँसीके मारे फटते ( खिलते ) के समान सुन्दर लगता था ॥ ७ ॥ फूल तोड़ लेनेके बाद शेष बचे डंटलोंसे पूर्ण वह बन सुकुमारांगी नायिकाओंकी लोकोत्तर आकृतिको देखकर उत्पन्न हुए आश्चर्यके कारण खुले हुए इस्तों ( रोमांचों ) से युक्त के समान प्रतीत होता था। ठीक ही है महापुरुष गुणोंके कारण कष्टदाताओंके भी में हो जाते हैं ||८|| कोई नायिका दोनों हाथोंसे पकड़कर लताके ऊपर विकसित पुष्पको तोड़नेकी इच्छा से बड़े परिश्रमपूर्वक शाखा तक पहुँच कर उसे झुकाती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानो स्तनरूप कलशोके भारसे कमर टूट जाने के कारण पेड़ पकड़कर ही खड़ी रह गयी है || २ || दूसरी कामिनी पास ही विकसित अतएव सुलभ पुष्पको छोड़कर अपने कृश उदरको प्रकट करने के लिए ही नीवीको शिथिल करती समान बहुत ऊपर खिले पुष्पके लिए उच्चक रही थी । उचित ही है क्योंकि स्त्रियोंके व्यर्थ कार्य परम प्रिय वल्लभके कटाक्षोंके प्रेरक होते हैं | १०|| १. उचिकीर्षुः- ० ।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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