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________________ Ani B महाकविधनञ्जय विरचितम् द्विसन्धानमहाकाव्यम् कविदेवरभट्टकृत 'पदकी मुदा' टीकासमन्वितम् श्रीमान् शिवानन्दन ईशवन्द्यो भूयाद्विभूत्यै मुनिसुव्रतो वः । सद्धर्मसम्भूतिनरेन्द्र पूज्यो भिन्नेन्द्रनीलोल्लस दङ्गकान्तिः ॥ १ ॥ जीयान्मृगेन्द्रो विनयेन्दुनामा संवित्सदाराजित कण्ठपीठः । प्रक्षीबवादीभकपोलभित्तिं प्रमाक्षरैः स्वरैर्विद्वार्य ॥ २ ॥ तस्याथ' शिष्योऽजनि देवनन्दी सद्ब्रह्मचर्यव्रतदेवनन्दी | पदाम्बुजद्वन्द्वमनित्यमच्यं तस्योत्तमाङ्गन नमस्करोमि ॥ ३ ॥ मैलोक्यकीर्तेश्वरणारविन्दं पारे नयार्णोऽधितरां प्रणम्य । "विवासतां राघवपाण्डवीयां टीकां करिष्ये पदकौखुद ताम् ॥ ४ ॥ इदानीम् “नास्तिकत्वपरिहारः शिष्टाचारप्रपालनं पुण्यावाप्तिनिर्विभञ्च शास्त्रादौ तेन संस्तुतिरिति मनसि नृत्येक्ष्वाकुवंशोत्तंसीभूतस्य सकल भूतलैकछत्रितयशोमण्डलस्य दशरथतनयस्य सलक्ष्मणो लक्ष्मणान्वितस्य त्रैलोवयष्टकभानमर्दनस्य रामस्य धीरोदात्तगुणास्पदस्व तथा पाण्डुराजस्य राजाधिराजनमन्मुकुटतटजटितमणिगणकरनिकररक्षितपादारविन्दानां सोमवंश्यानां धीरोदात्तानाश्च (रायां) कथोद्योतनार्थं भगवतोर्मुनिसुव्रतनेम्योनंमत्कारं कुर्वतो द्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य काव्यस्य नान्दीश्लोकं व्याख्यास्यामः | अन्तरंग तथा वहिरंग लक्ष्मीके स्वामी अतएव इन्द्रके द्वारा वन्दित शिवादेवीके नन्दन. श्री मुनिसुव्रतनाथ [ की भक्ति ] आप लोगोंकी सम्पत्तिका कारण हो । इनके शरीरका रंग तुरन्त तोड़े गये इन्द्रनीलमणिके समान है तथा रत्नत्रयमय समीचीन धर्मके प्रकाशक होनेके कारण वे चक्रवर्तियोंके द्वारा पूजे जाते हैं ॥१॥ आचार्य विनयचन्द्र रूपी सिंह चिरजीबी ही जिन्होंने न्याय वाक्य रूपी अपने नखोंके द्वारा मदान्ध वादी ( शास्त्रार्थंकर्ता ) रूपी हाथियोंके मस्तकों को फोड़ ( झुका ) दिया था तथा जिनके कंठरूपी सिंहासन पर भगवती शारदा सदा विराजमान थीं ||२|| इनके शिष्य देवनन्दी हुए थे जो निरतिचार ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें ही स्वर्ग सुख मानते थे। सबके द्वारा प्रार्थित तथा पूज्य इनके चरणकमलों के गुगलको मस्तक झुका कर प्रणाम करता हूं ॥३॥ देवनन्दी की कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त | न्यायरूपी समुद्रको पार करनेके इच्छुकोंके लिए उनके चरणकमल नौकाके समान हैं । इन चरणको भलीभांति प्रणाम करके राघव पाण्डव कथामय इस द्विसन्धान काव्यकी 'पदकौमुदी' नामकी टीका करता हूं, जो कि इसके पढ़नेवालों को पार लगायेगी सम्प्रति "नास्तिकता के परिहार, शिष्टाचारका पालन, पुण्यकी वृद्धि तथा विघ्नोंके विनाशके लिए शास्त्र के प्रारम्भ में इष्टदेवकी स्तुति करनी चाहिए ।" ग्य भावनाको मनमें लाकर इक्ष्वाकु वंशके मुकुट, सकल भूतलपर छत्र के समान छाये यशके स्वामी, शुभ लक्षण समन्वित, लक्ष्मी से बेष्टित, तीनों लोकोंके उपद्रवोंके मर्दक तथा धीरोदात्त नायक महाराज दशरथ के पुत्र रामचन्द्रजी तथा नमस्कार करते हुए राजाधिराजाओंके सुकुटीपर जड़े मणिसमूहसे निकली किरणोंकी राशिसे रञ्जित चरणकमलघारी, चन्द्रवंश में उत्पन्न, धीरोदात्त नायक पाण्डु राजाओंकी कथाको प्रसिद्ध करनेके लिए द्विसन्धानकाव्य के निर्माता कवि धनञ्जय-द्वारा किये गये भगवान् मुनिसुव्रतनाथ तथा नेमिनाथके नमस्कार के द्योतक मंगलश्लोककी व्याख्या करता हूँ । १. पाठः प० । २. त्र प०, द० । ३. पादा- १०, ६० । ४. प्रन्यमिति शेषः । अन्यपारं गन्तु मिच्छता मित्यर्थः । ५. मनसिकृत्य प० । ६. भुवस्त- प०, ६० ।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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