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________________ षोडशः सर्गः २६३ भारतीयः पक्ष:---राद् यदुना यादवानां बलं परिवर्तते स्म, कथम्भूतानाम् ? अधिष्ठितानाम्, कथम्भूतं बलम् ? स्थिरासिकापेयं स्थिरमासितुं पर्यायः स्थिरासिका सा अपेया परित्याज्या यस्य तत् तथोक्तम् । शेष प्राग्मत् ॥३०॥ तथा हरीणां कलहायमाना सेना मुखं दातुमपारयन्ती। सुधातिसुप्ता बहुवासराणि क्षणं न वेश्येच ययौ न तस्यौ ॥३१॥ द्विः तथेति-सपा तेनैव कारण ही मां बाराणां सेना न ययौ न गता न च तस्यीन स्थिः वती, येोग ? वेश्येव, कथम् ? क्षणं मुहुर्तमम्, कथं सी? अनि सुप्ता अतिनिदामा गुस्सासक नेत्यर्थः, कानि ? बहुवासरा रिण प्रचुराणि दिनानि, कथम् ? मुधा एकमेव, कयम्भूता ? कलहायमाना कलहे कुणा पुनः मुखं दातुम् अत्यन्ती पराल मुशीभवन्ती । भारतीयः-हरीणां यादवाना सेना। शेष पावत् ।।३१।। तदाशशंसे रणमूभिरेषां प्राज्योषिताङ्गा एतिमातराणा । परासुमजातिकृतावलेपा पतिवराभ्यङ्गविधि गते ॥३२॥ तदेशि-तदा तस्मिन् काले रणभूमिः पति स्वमिनम् बाशशंसे इलाधते स्म, वेषाम् ? एषां नरेन्द्राम्, कथम्भूता? प्रज्योचिताङ्गा प्राज्यानि प्रचुताणि उचितानि योग्यानि अङ्गानि गजवाजिर थपदातिर.क्षणानि यस्यां सा तयाँका, पुतः यायाशा ? भातवारणा गृहीताशाः, पुनः कथम्ला ? परासुमज्जातिकृतायलेगा परासून शवाना मज्जा संवा अतितोऽवलंपोऽवलेपने यस्याः सा, के पतिमः शशं मे रणभूमिः ? पतिबरेव विवाहोचिचा पान्येब, कवा सती? अभ्यविधि र जनक्रियां गता, पुनः प्राज्यांचिताङ्गा प्रहारमाज्यं प्राज्यं प्रकृष्ट एनं प्राजास्मोचितझं (प्रामानि पुर्णविकसितानि उचितानि आनुपातिक निशानि) यस्मा सा, पुन: आतबाणा (पवित्वेन गृहीहीमारहरः) पुनः परामुमज्जातिकृतानले.पा परा सम्पूर्ण लक्ष लक्षिता ( श्रेष्ठा ) या असुमतां जाति: प्राणिजातिः, तस्यां सोऽवलेपो गर्यो यया सा तथोक्ता ॥३२।। को वा वानरसेना यचपि संस्थाकी दृष्टिसे कुछ हीन (ऊना) अवस्थाको प्राप्त हुई थी तथापि शन्नोंफे द्वारा आपात होते ही फिर वैसे ही टूट पड़ी थी जैसे जलचर जन्तुओंकी उछल-कूदके कारण समुद्र का पानी चंचल हो उठता है [एक स्थानपर टहरने (स्थिरासिका) की प्रकृतिले दूर (प्रपेयं) प्रति अत्यन्त उद्योगी हद अनुगामी राजारोंकी यादवसेना विशेष प्रयस्था प्राप्त कर लेनेपर भी शत्रुओंके द्वारा प्रहार होनेपर दूसरी पोरसे वैसे ही चढ़ बैठी थी जैसे जलचर 'चंधल हो उठता है] ॥३०॥ इस कारसे युद्ध में लीन वानरसेना अथवा यादवासेना (हरीणां सेना ) शत्रुओंसे उटकर, सम्मुस-युद्ध करने में सफल हो सकी थी अर्थात् व्यूह-युद्ध कर रही थी। धेश्याके समान कई दिन तरुन सो सझी थी और न क्षण-भरके लिए भी स्थिर ही रह सकी थी और न मागे बढ़ सकी थी (वेवा भी विसे लह करती है, मुख छूने नहीं देती है, रातें जाग-जागर दिसा देती है और न भागती है और न क्ष-भर पास ही बैठती है) ॥३१॥ प्रचुर हस्ती, अश्व, रथ और पदाति सेनाके उपाय मंगोंसे पूर्ण, बारणोंसे व्याप्त तथा मृत सैनिकोंकी च से लिपी हुई फललः विवाहके लिए उबटन लगाये वधूके समान रग लिने राजानोंके नायतोंशी प्रशंसा की थी [वधूके भी अंग पुष्ट, भानुपातिक रीतिसे पूर्ण विकसित तथा सुन्दर होते हैं। प्राहि-जगलको श्रेष्ठ जाति (मनुष्य गति) को भी ऐसी सुन्दरीका लद गौरव होता है जब यह प्रेमीको पतिरूपले स्वयं वरण करनेके लिए उबटन नादि लगाकर तैयार होती है] ॥३२॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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