SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रधान सम्पादकीय संस्कृत भाषा का अर्थ-सामर्थ्य संस्कृत भाषामें ऐसी उर्वरा सामर्थ्य है कि उसमें एक उक्ति एकसे अधिक अर्थों को व्यक्त करती है। सर्वप्रथम एक ही शब्द, चाहे वह क्रिया हो या संज्ञा, विभिन्न अर्थ रखता है जिसका सही निश्चय सन्दर्भके अनसार किया जा सकता है। इस प्रकारके पद संस्कृत कोशों में जिन्हें अनेकार्य या नानार्थकोश कहा जाता है, संग्रहीत है। दूसरे एक दीर्घ समस्त पद अक्षरोंके विभिन्न प्रकारसे वर्गीकृत वियोजित होनेपर भिन्न शब्दों और भिन्न अर्थोको प्रकट करते हैं। तीसरे, एक एक संयुक्त पदको विभिन्न प्रकारसे व्याख्या की जा सकती है और संयोजित शब्दों के सम्बन्धके अनुसार सनका अर्थ बदल जाता है । संस्कृत कवियोंके निर्माणमें यह अनिवार्य उपस्करण था कि उन्हें शब्दकोश तथा व्याकरणके सूत्र कण्ठस्थ होने चाहिए। इस प्रकारसे दक्ष कपि (विदग्ध कवि ) संस्कृतको इस प्रकृतिका लाभ सहज हो ले सकता था। यह प्रवृत्ति उसनी ही पुरानी है जितना संस्कृतका उपयोग । जैसे 'इन्द्रशत्रु' इस समस्त पदमें स्वरचिह्न कैसे और क्यों सही सम्बन्ध अभिव्यक्त करते हैं। संस्कृतके इस पक्षने दोहरी अर्थवत्ता या श्लेषको तथा घुमावदार कथन या वक्रोक्तिको जन्म दिया जो काव्यालंकरण माने जाते थे जब मितव्ययिता ओर प्रभावकारी ढंगसे सुबन्धु और बाण जैसे नैसर्गिक प्रतिभाशाली कवियों द्वारा उपयोग किये गये। सविशेष रूपसे दक्षता प्राम प्रतिभा तथा कतिपय कवियोंके श्रमपूर्ण प्रयलोंने संस्कृतके इस लचोलेपनको बेहिसाब हद तक विकृत किया है जिसका परिणाम संधान काव्योंमें स्पष्ट रूपसे देखा जाता है। राघवपाण्डवीय ( १.३७.८, काव्यमाला, ६२, बम्बई १८९७ ) में कविराजने ठोक ही कहा है प्रायः प्रकरणक्येन विशेषण-विशेष्ययोः । परिवृत्या क्वचित्तद्वदुपमानोपमानयोः ।। क्वचित्पदैपच नानार्थे: क्वचिद्वक्रोक्तिभङ्गिभिः । विधास्यते मया काव्यं श्रीरामायणभारतम् ।। प्राप्त विवरणसे पता चलता है कि जब अकबर १५९२ ई० में कश्मीर जाते हए लाहौर रुके तो उनके आमन्त्रण पर जिनचन्द्र सूरि उनको विद्वत्सभामें गये। वहां उनके एक शिष्य समयसुन्दरने उनके द्वारा बनायी गयी एक कृति ( अष्टलक्षार्थी ग्रन्थः) को बादशाहके सामने पढ़ा। यह अटलक्षी थी। उन्होंने बादशाहको स्पष्ट किया कि इसमें तीन साधारण संस्कृत शब्दोंका एक वाक्य है--'राजानो ददते सोख्यम्' जिसकी व्याख्या आठ लाख प्रकारसे की जा सकती है। यह कृति प्राप्य है तथा मुद्रित और प्रकाशित हो चुकी है ( देखें भानुचन्द्रचरित, प्रस्तावना, पृष्ठ १३, सम्पा० एम० डी० देसाई, सिन्धी जैन सीरीज, संख्या १५, बम्बई १९४१ ) । सो अर्थ देनेवाले एक पन, जिन्हें शतार्थी कहा जाता है, के उदाहरण उपलब्ध है, उदाहरणके रूपमें सोमप्रभ रचित को लिया जा सकता है (ई० ११७७-७९, एम० विन्टरनित्ज, हिस्टरी आँव इण्डियन लिटरेचर, गाग २ पृष्ठ ५७३, तथा एच० डी० बेलणकर, जिनरत्नकोश, पूना १९४४, पृष्ठ ३७१) । सन्धान काव्य १- हेमचन्द्र ( १०८९-११७२ ई.), जिनके द्वयाश्रय काव्य संस्कृत तथा प्राकृत दोनोंमें सुविदित है, मे एक सप्तसन्धान काव्य रचा बताते हैं (देखें जि० को० पृष्ठ ४१६ ), किन्तु अभी तक यह प्रकाशमें नहीं आया । इसी नामका एक और काव्य मेवधिजयगणि (१७०३ ई०) द्वारा लिखित है। यह मो सों का पला संक्षिप्त काव्य है। इसके प्रत्येक नोकरी सात अर्थ निकलते हैं पांच तीर्थकरोंके तथा राम और कृष्ण
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy