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________________ २० द्विसन्धान महाकाव्य विषयक । यह जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला ३, बनारस १९१७ में प्रकाशित है। २-नावि शान्तिराज कृत स्वोपज्ञ टीका सहित पंचुसंधान काव्य उपलब्ध है । जैन मठ कारकल ( सा० के० ) में इसकी दो पाण्डुलिपियर्या जपला मोलाती है। इन साइशिता नहीं जुटा है ( देखें, कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसुत्री, बनारस १९४८, पृष्ठ २९१ )। ३-चिदम्बर कृत रायव-पाण्डवीय-यादवीय ( विन्टरनिरज हि. ई० लि. भाग ३, आई, पृष्ठ ८३ ) त्रिसन्धान काव्य है, प्रत्येक पद्यसे तीन अर्थ निकलते है-एक रामायण से सम्बन्धित, दूसरा महाभारत तथा तीसरा भागवतपुराणसे सम्बन्धित । द्विसन्धानको विशेष लोकप्रियता द्विसन्धान पद्धति अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित है और भसके कुछ नमूने हमारे समक्ष है। (१) मिनाथचरित एक साथ ऋषभ और नेमि जिनकी जीवनीको व्यक्त करनेवाला एक संस्कृत द्विसन्धानकाव्य है । धार नरेश भोज के समय १०३३ में द्रोणाचार्यके शिष्य सुराचार्यने इसको रचना को थी ( देखें जि० को पृ० २१६ )। (२) रामपालचारत काव्य सन्ध्याकरनन्दिने रचा है। इसके प्रत्येक पद्यके दो अर्थ हैं एक नायक नामसे सम्बन्धित, दूसरा राजा रामराल से सम्बन्धित, जो ग्यारहवीं शताब्दीमें बंगाल के शासक ये { विन्टरनित्म, हिइं. लि भाग तीन, खण्ड १, पृष्ठ ८२)। (३) नाभेय-नेमिकाव्य (ईसवो बारहवों शतीका प्रारम्भ अनुमानित ) स्वोपज्ञ टोका युक्त एक द्विसन्धान काव्य है। इसके लेखक मुनिचन्द्र सूरिके प्रशिष्य तथा अजितदेव मूरिके शिष्य हेमचन्द्र सूरि है। कवि श्रीपालने, जो सिद्धराज तथा कुमारपाल राजाओंके समकालीन थे, इस रचनाको संशोधित किया था। इसमें ऋषभ तथा नेमि जिनके चरित्रका वर्णन है । (४) सूरि या पण्डित नामसे ज्ञात कविराज, जिनका सही नाम सम्भवतया मापन भट्ट था, कूत राघवपाण्डवीय एक द्विसन्धान काव्य है । यह एक साथ रामायण तथा महाभारतको कथा कहते है । जयन्तीपुरके कदम्बवंशीय नरेश कामदेव (१९८३-९७ ई.) उनके आश्रयदाता थे, जिनकी उन्होंने खुलकर प्रशंसा की (१.१३ ) । उन्होंने उनको तुलना धाराके मुंज ( ९७३-९५ ई० ) से की है। उनका समय ईसाकी बारहदों शतीका अन्तिम चरण माना जा सकता है। (५) हरदत्त जिनका समय निश्चित नहीं है, ने राघव नेपघीयकी इस प्रकारकी पद्य रचना की है कि प्रत्येक पदके दो अर्थ है-एक रामसे सम्बन्धित. दसरा नलसे सम्बन्धित । इस प्रकारको कुछ और भी रचनाएँ है । (६) वेंकटाधरिन् कृत यादवराघवीय रामकी कथा कहती है, किन्तु उलटा पढ़नेपर कृष्ण कथा कहती हैं। (७) पार्वती रुक्मिणीयमें दो विवाहोंकी कहानी है-एक शिव और पार्वतीकी तथा दूसरी कृष्ण और रुक्मिणीको (विटरनिरज, हि० ६० लि. भाग ३, आई, पृष्ठ ८३ )। धनंजय कृत द्विसन्धान १-- पाण्डुलिपियाँ तथा टोकाएं-धनंजयकृत द्विसन्धानम् ( द्विसं० ) द्विराधानकाव्य अथवा राघवपाण्डवीय ( रा. पा० ) यदि उपलब्ध सर्वाधिक प्राचीन द्विसन्धान न भी माना जाये तो भी प्राचोनों में से एक अवश्य है । धनंजयके समय तक यह ( द्विसम्मा- म पर्याप्त प्रचलित हो चुका होगा। इसकी पाण्डुलिपियां पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध हैं (जि० को० पृ० १८५, क० ता. न. पृ० १२१-२ ) इसको कतिपय टीकाओं का भी पता चलता है। १-~-विनयचन्द्र के प्रशिष्य देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र कात पदकौमुदी । २-पुष्यसेन शिष्य कृत टीका । ३-कवि देवर कृत टोका। वे रामघट (परचादि धरट्टके मामसे ख्यात) के पुत्र थे। यह नन्होंने अपने आश्रयदाता अरल थेष्ठिन्के लिए लिखी थी। कहा जाता है कि इस टोका का नाम राघव पाण्डवीयपरीक्षा है। अरलु श्रेष्ठिन् कीति कर्नाटकके एक बड़े व्यापारी तथा जैन धर्म के प्रति तीव्र आस्थावान् तथा जयाके पुत्र थे। उनमें नैसर्गिक अच्छे गुण थे तथा वे कवियोंके आश्रयदाता (संरक्षक ) थे। देवरने प्रारम्भमें अमरकोति, सिंहनन्दि, धर्मभूपण, श्री वधंदेव तथा भट्टारकमुनिको नमस्कार किया है (जि. को
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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