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प्रधान सम्पादकीय प० १८५) तथा क. ता. न. पृष्ठ १३१-२)। देवरको टोकाकी एक प्रति ताडपत्र पर कन्नड लिपिमें जैन सिद्धान्त भवन, रामें है ( देखें, जन हितषी १५, पृ० १५३-५४)। पूर्वप्रकाशन तथा यह संस्करण
धनंजय कृत द्विसन्धान सन् १८९५ में निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे काव्यमाला संख्या ४९ में बद्रीनाथकी टीका, जो कि विनयचन्द्रके प्रशिष्य तथा देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्रकी दीकाका संक्षिप्तीकरण है, के साथ प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत संस्करण में विनयचन्द्र के प्रशिष्य तथा देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र कृत पदको मुदी टीका शामिल की गयी है। प्रत्यक्ष ही काव्यमाला संस्करणमें दी गयी बद्रीनाथको टीका इस टीका पर आधारित है। सूक्ष्म रूपसे तुलना करने पर पता चलता है कि बद्रीनाथने कतिपय विस्तारको छोड़ दिया तथा संक्षिप्त किया और अपना ध्यान मूलको व्याख्या करने में अधिक रखा। धनंजयको कृतियाँ
परम्परानुसार धनंजयकी तीन कृतियाँ मानी जाती है : (१) विषापहार स्तोत्र (२) नाममाला तथा (३) द्विसन्धान या राघव-पाण्डवोय ।
विण पहारस्तोत्र कात्यपाला , मम्स १०:२: साजिन की स्तुतिरूप लिखित एक ४० पद्यों (३९ उपजाति तथा अन्तिम पुष्पिताया ) की धार्मिक स्तुति है। यह पूर्ण रूपसे सरल शब्दावली में प्रभावकारी कल्पना और उपराओं में रची गयी है। अन्तिम पर इलेषसे धनंजयका नामोल्लेख करता हुआ इस प्रकार है:
वितरति विहिता यथाकथंचिज्जिन विनताय मनीषितानि भक्तिः ।
स्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषाद् दिशति सुखानि यशो धनं जयं च ।।४।। दक्षिण कर्नाटकमें मूडबिद्रीकै जन मठमें इसकी एक संस्कृत टीका उपलब्ध है ( देखें, क० ता०प० पृष्ठ १९२-३ ) । सम्भवतया इसका नाम इसके १४वें श्लोकके प्रथम शब्दसे पड़ा और इस पद्यके साथ एक अनुश्रुति सम्बद्ध हो गयी कि इसका पाठ विषका नाश करता है। इसके कुछ विचार संकेत जोकि अपनी संचेतनामें पर्याप्त रूपसे परम्परागत है, आदिपुराणमें जिनसेनने तथा, सोमदेवने यशस्तिलवामें ग्रहण किये हैं (देखें प्रेमी कृत जन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ १०९, ff बम्बई १९५६ )।
नाममाला ( भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९५०) जिसे कुछ पाण्डुलिपियोंमें धनंजय निघण्टु भी कहा गया है, पर्यायवाची शब्दोंका एक संस्कृत शब्दकोश है । इन्हीं के नामसे एक बनेकार्थनाममाला भी मानी जाती है । नाममालाके अन्तमें निम्नलिखित तीन पद्म है
प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । द्विसन्धानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥२०१॥ कर्वेधनंजयस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः । प्रमाणं नाममालेति श्लोकानां हि शतद्वयम् ॥२०२॥ ब्रह्माणं समुपेत्य वेदनिनदव्याजात् तुषाराचलस्थानस्थावरमोश्वरं सुरनदीच्याजात्तथा केशवम् । अप्यम्भोनिधिशायिनं जलनिधिध्वानोपदेशादहो ।
फूत्कुर्वन्ति धनंजनस्य च भिया शब्दाः समुत्पीडिताः ॥२०३।। कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें निम्नलिखित दो श्लोक सम्भवतया २०१ प्रमाण इत्यादिके बाद प्राप्त
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जाते जगति वाल्मीको शब्द: कविरिति स्मृतः । कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति दण्डिनि ॥