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द्विसन्धान महाकाय
कवयः कवयश्चेति बहुत्वं दूरमागतम् । विनिवृत्तं चिरादेतत् कली जाते धनंजये ॥
में
ये पद्य श्री एस० बी० वी० वीर राघवाचेरियरने अपने निबन्ध, जिसकी नीचे समीक्षा की गयी है, 'पुनरुद्धृत किये हैं। यह एक मजेकी बात है कि पहला पद्य ( तीसरे पाद में किचित् अन्तर के साथ —- व्यासे जाते कवी घेति ) जल्हणने अपनी सूक्ति मुक्तावलि ( बड़ौदा १९३८ ) में कालिदासका बताया है। इसमें efuser सन्दर्भ है इसलिए यह कालिदासका बनाया नहीं हो सकता ।
द्विसन्धानकी रचनाये धनंजयको कवि योग्यताएँ प्रमाणशास्त्र में अकलंक तथा व्याकरण में पूज्यपादके समकक्ष सिद्ध होती हैं, एक वास्तविक रत्नत्रय सभी विशिष्ट तथा अप्रतिम । इन पद्योंमें तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि दिसन्धान तथा नाममालाका लेखक एक ही व्यक्ति है । यह स्वाभाविक है कि एक कवि जिसका संस्कृत शब्दों के समुद्रपर अधिकार हो, वह हिसन्धान काव्य सहज ही लिख सकता है ।
धनंजयका व्यक्तिगत परिचय
धनंजयने अपनेको अकलंक तथा पूज्यपादके समकक्ष बतानेके अतिरिक्त अन्य कोई परिचयात्मक जानकारी नहीं दी । द्विसन्धानको टीकामें नेमिचन्द्र ने द्विसन्धान सर्ग १८, श्लोक १४६ जिसमें अत्यधिक कोष है, के गवापर निम्नलिखित परिचयात्मक विवरण निकाला है। धनंजय वासुदेव तथा श्रीदेवी के पुत्र ये । उनके गुरुका नाम दशरथ था। वे दशरूपक के लेखकसे भिन्न हैं । धनंजय तथा उनकी कृतियोंके विषयमें सन्दर्भ
धनंजय तथा उनके काव्यको पर्याप्त प्रशंसा प्राप्त हुई है और उनको कविताको वह वैशिष्ट्य प्राप्त हुआ है कि वह द्विसन्धान कवि कहलाने लगे । द्विसन्धान शब्द या नाम दण्डि (७वीं शताब्दी अनुमानित) जितना प्राचीन तो प्रतीत होता ही है, तथा भोजके निम्नलिखित उद्धरण स्पष्ट बताते हैं कि धनंजय की तरह efore भी द्विसन्धान प्रबन्ध रचा था, जो यद्यपि हमें उपलब्ध नहीं हुआ । सम्भवतया काव्यादर्श और दशकुमारचरितके अतिरिक्त यह उनका तीसरा ग्रन्थ था ।
जैसा कि आर० जी० भण्डारकर ( नीचे देखें ) ने स्पष्ट किया है कि वर्धमान ( ११४१-११४९६० ) वे अपने गुणरत्नमहोदधि पृष्ठ ४३५, ४०९ तथा ९७ एगलिंग एडीशन में धनंजय कृत द्विसन्धानके पद्य ४६, ९/५१ तथा १८२२ उद्धृत किये हैं ।
भोज ( ११वीं शती ईसवीका मध्य ) के अनुसार द्विसन्धान उभयालंकार के कारण होता है । यह तीन प्रकारका है - वाक्य प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्यगत श्लेष है, द्वितीय अनेकार्थक स्थिति है तथा तीसरा राघवपाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथाओंको कहने वाला है । भोजने यहाँ एक महत्वपूर्ण सूचना दी है कि दण्डिने रामायण तथा भारतकी कथा पर द्विसन्धान काव्यकी रचना की थी ।
तृतीयस्य यथा दण्डिनो धनंजयस्य वा द्विसन्धानप्रबन्धो रामायणमहाभारतार्थावनुबध्नाति । जिल्द २, पृष्ठ ४४४ ( वी० राघवन्, भोजकृत - शृंगारप्रकाश, पृ० ४०६, मद्राउ, १९६३) हमारे लिए सर्वाधिक ofen यह है कि भोजने धनंजय और उनके सिन्धानका उल्लेख किया है । साथ साथ दण्डिके दिसन्धानप्रबन्ध का उल्लेख है ।
प्रभाचन्द्र ( ११वीं शती ईसवी ) अपने प्रमेयकुमलमार्तण्ड ( निर्णयसागर संस्करण, बम्बई १९१२, पृ० ११६, पंकि एक बम्बई १९४१ पृ० ४०२ ) ।
ननु व्याकरणाद्यभ्यासाल्लौकिकप दया क्या र्थप्रतिपत्ती तदविशिष्टवैदिकपदवाक्यार्थ प्रतिपत्तिरपि प्रसिद्धेरश्रुतकाव्यादिवत् । सन्न प्रतिपत्तावतीन्द्रियार्थदर्शिना किंचित्प्रयोजनमित्यप्यसारम् । लौकिक वैदिकपदानामेकत्वेध्यनेकार्थत्वव्यवस्थितेरन्यपरिहारेण व्याचिस्यासितार्थस्य नियमयितुमशकेः । न च प्रकरणादिभ्यस्तन्नियमस्तेषामप्यनेकप्रवृत्तिद्विसन्धानादिवत् ।
वादिराजने १०२५ ई० में लिखे अपने पार्श्वनाथचरित ( बम्बई, १९२६ ) में धनंजय तथा एकसे afe सन्धानमें उनकी प्रवीणताका उल्लेख किया है ( १।२६ ) ।