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________________ सप्तदशः सर्गः ३१६ स्वरुषा सहोच्छ्वसितस्तगतिरथ हरिश्च कम्पनैः । वस्य भुजमिव सदाशरथी रणशान्तिमिच्छुरिव केतुमच्छिदत् ॥१४॥ (द्वि:) स्वेति-अथानन्तरं स दाशरथिः रामो हरिश्व लक्ष्मणोऽपि कम्पनः वाणविशेषः तस्य रावणस्य भुजमिव फेत जम् अच्छिदत् छिन्नवान्, तिमिशिद ? नातिनियुरिट लिमित्र, कथम्भूतो रामो हरिश्व ? उच्छवधिभूतगतिः उच्छ्वसिता सुतस्य सारगतिश्चेष्टा येन स तथोक्तः, कथम् ? सह सार्द्धम्, कया ? स्वरुपा आत्मकोपेनेति । भारतीयः पक्ष:-तस्य जरासन्थाप, कशम्पूतो हरिः ? समाशरथी सती स्मीचीना आशा वाञ्छा येषां ते सदाशाः सदाशा रयिनो यस्य सः, कथम्सुतः ? उच्छ्वसितमतिः इच्छ्यविता सूतानां भटानां गतिर्येनेति ॥१४॥ घवलातपत्रमपि तस्य इतमपतदिन्दुमण्डलम् । द्रष्टुमुपगतगिवाजिगतः परुषं रिपुः प्रतिजगर्ज वर्जयन् ॥१५॥ घवलेति--हरिणा हतं तस्य परिगः धवलालपरमपि अपतत् प्रभ्रम, किमिवोत्प्रेक्षितम् ! इन्दुमण्डलमिव चन्द्रविम्ममिच, कयम्भूतम् ? अजि संग्राम द्रष्टुमवलोकितुमागनम् । अतः कारणात् रिपुः परुष कर्कश तर्जयन् तिरस्कुर्वन् प्रतिजगजं गजितवान् ।।१५।। विमुखः फलं विधिरिवाशु खल इव कृतं स तं यशः । लोभ इस मद इवोपशमं गुरुशक्तिशस्त्रनान्नियोजयन् ।।१६।। ____ विमुख इति-अरु जत् तुनरोद. कोऽसौ स रिपुः कम् ? तं विष्णुम्, किं कुर्वन्निध ? शक्तिशस्त्रम् माशु शीघ्र नियोजयन्, कथम्भूतम् ? गुरु गरिष्टम्, क इवारुजत् ? विगुजओ विधिरिद फलम, तथा खुल इव कृतं दुर्जन इवोपकारम्, तया लोम इव यशः कात्तिम्, तपा मद इवोपशमम् । भारतीयः-स जरासन्धः तं नारायणम् शेषं प्राग्वत् ।।१६।। मेघोंको गर्जनाको सुनकर हिरण प्रा जाते हैं । किन्तु कारणों की वर्षा पड़ते हो, इनके रथसे कोशों दूर तक सब विशानोंमें भागते नजर आये थे ॥१३॥ अपने क्रोधके साथ-साथ सारथीको गतिको भी बढ़ाते हुए तथा रगको शान्ति (समाप्ति) के इच्छुकके समान दाशरथि रामने तथा लक्ष्मराजे रावणको भुजाके समान उसके रथपर उठी हुई उसको ध्वजाको 'झम्पन' जातिके बारषोंसे काट दिया था। अपने क्रोयके साथ-साथ दूतवृपतिक प्रगतिको करते हुए तथा सदाशयरथी पोद्धाओं [सदाश-रथो] से घिरे हरि कृष्णाने जरासंघकी प्राक्रमणके लिए उठी भुजाके समान ध्वजाको रण समाप्तिको इच्छाले सपनों के द्वारा काट दिया था ॥१४॥ नारायणके द्वारा प्राघात किये जानेपर उस (शत्रु रावण-जरासंध) का श्वेत छत्र भी गिर गया था। गिरता हुआ यह छत्र ऐसा बालम देता था कि चन्द्रमण्डल ही युद्ध देखनेके लिए उतर पाया है। इन गिरते ही शत्रु भी धमकाने के लिए कठोर गर्जना करने लगा था ॥१५॥ जिस प्रकार विपरीत देव पुण्य कर्म के फलको, दुष्ट पुरुष उपकारको, लोभ यशको मोर अहंकार प्रशान्तिको नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार विचार करके शत्रुके द्वारा वेगके साथ नारायणपर छोड़े गये 'शक्ति' नामके महान शस्यने उन्हें माहत कर दिया था ॥१६॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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