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________________ सप्तमः सर्गः १२५ भारतीयः-अयं देशस्तन्वीः बिभर्ति । क ? अस्मिन् स्थाने । कथम्भूताः १ कुशलताभागैश्चातुर्यप्राचुर्यः युक्ताः पुनः उत्कटाक्षा उद्गतापानाः पुनः शुभाननाः रम्यवदनाः कान्ताः कमनीयाः पुनरुच्चैस्तलोदरीचैरतीव तलं क्षाममुदरं यासां ताः सदसन्मध्यप्रदेशा इत्यर्थः ॥३६॥ विक्षिप्तपुष्पशयनाः सुरतापातसम्भ्रमात् । कुसुमेषुचिताः कामसङ्ग्रामरचना इव ॥३७॥ विक्षितेति-कुलकसम्बन्धेन व्याकरिष्यामः । भो देव भान्तीति क्रियाऽध्याहार्या । उपवने उद्यानवने एताः दिव्यस्त्रीणां सुराङ्गनानां क्रीडाः । कथम्भूताः ? सुरतापातसम्भ्रमात् सुरतस्य आपातेन यः सम्भ्रमस्तस्मात् सम्भोगप्रथमारम्भव्याकुलत्वात् विक्षितपुष्पायनाः विकीर्णकुसुमतल्पाः पुनः कुमुगेषुचिताः पुष्पवाणपुष्टाः । का इव ? कामसङ्ग्रामरचना इव स्मरसमरसन्निवेशा इन !! ३९०१५ अलीककलहाकृष्टसूत्रशेषीकृतस्रजः। अन्योन्यबन्धनानीतविशसूत्रयुता इव ॥३८॥ अलीकेति--धुनः कथम्भूताः ? अलीक कलहाटसूत्रशेषीकृतसजः अलीककलदेनाकृष्टाः पश्चात् सूत्रशेपीकृताः सजो यासु ताः प्रेमकलहाशिततन्तुशेषीकृतकुसुममालाः । क्रिविशिष्टा इवोत्प्रेक्षिताः ? अन्योन्यबन्धनानीतविशसूत्रयुता इव परस्परयन्त्रणानायितपद्मिनीकन्दतन्तुबद्धा इवेत्यर्थः ॥३८॥ सलाक्षिकपदन्यासाः कुङ कुमै रञ्जिता इव । एताश्चोपवने दिव्यस्त्रीणां क्रीडाः सुरान्विताः ॥३९॥ सलाक्षिकोति-साक्षिकपदन्यासाः लाक्षारत्तचरणान्यासेन सह वर्तमानाः | का इवोमेक्षिताः ? कुङ्कुमैः घुसूणैः रञ्जिता इव विलिसा इव पुनः सुरान्विताः देययुताः । भारतीयः-ढे दिव्य ! मनोहर उपवने स्त्रीण कामिनीनामेताः क्रीडाः भान्ति । कथम्भूताः ! कुसु__ मेचिताः कुमुमेषु सुमनस्मु पुष्टाः कुसुमबहुला इत्यर्थः । अथवा कुमुमेधुः कामस्तेन चिताः पुष्टाः कन्दर्प पुष्टाः । पुनः सुरान्यिताः चारणीयुताः । शेष समानम् ॥३९|| पड़ गयी हैं, इनमें अवगाहनादिका आनन्द लिया जा रहा है, आस-पास खिले फूलोकी सुगन्धसे व्याप्त है। (३४) अत्यन्त गोल एवं विशाल मोड़ों युक्त हैं, गहरी भँवरोंके कारण इनमें कूप (पाताल) पड़ गये हैं, घे सुन्दर है और पृथ्वीके पेटके समान है। किनारेपर उगी वनस्पतियों के अंकुरोंकी शोभा अद्भुत है । (३५) दूर दूर तक कुश तथा लताकुओंसे व्याप्त हैं, किनारोंपर ऊँचे बहेडेके पेड खड़े हैं, उनका तल गहरा और विस्तृत है तथा ये सर्वदा सुन्दर और जलपूर्ण है। ३६। . इस देशकी गुफाएं देव वर्गके अवतरणके प्रसंगसे फैले फूलोंकी शय्या ही प्रतीत होती है, विविध पुष्पोंसे व्याप्त होनेके कारण कामदेवकी व्यूहरचना सी प्रतीत होती हैं (३७) परस्परके गुंजनसे आकृष्ट भौरोंकी मालामें केवल सूत्रकी ही कमी है, अथवा परस्पर में सन्निकट आ जानेसे मृणाल-तन्तुमें पिरोयेसे लगते हैं (३८)। निकटस्थ छोटे पर्वतोपर लाक्षा फैली हुई है । फलतः कुंकुमसे रंगेसे लगते हैं। इनके उपवनोंमै देवताओं के साथ स्वर्गकी अप्सराओंकी क्रीडाएं चलती है । (३१) [ प्रथम प्रारब्ध संभोगके भयसे पुष्पशव्या इधर-उधर हो गयी है। फलतः पुष्प रूपी वाणों से व्यात सुरत संग्रामको स्थलीके समान हैं। (३७) दिखावटी कलहमें खींची गयी मालाओंके सिर्फ सूध ही शेष रह गये हैं, वे पेसे लगते है मानो एक दूसरीको बाँधने के लिए मृणाल सूत्र हो। ( ३८) पालता युक्त पैरोंके चिह्नोंसे व्याप्त है और कुकुमसे रंगी-सी हो रही हैं ऐसी कामिनियोंकी अलौकिक क्रीडाएँ इन उपधनोंमें होती है । ३९।] १. इलेपः-५०, ना० । २. श्लेष:-ब, ना ।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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