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________________ द्वादशः सर्गः २२१ सबलाकिका नववृणा जगती मृदु निझरं वहति वाति मरुन् । सवितावृतश्च विपिनैरिह किं जलदागमः सततसंनिहितः ॥२१॥ सबला किकेति-इहास्मिन्प्रदेशे वहति, का ? पृथ्वी जगती, कम् ? निरिम् , कथम् ? यथा मृदु मन्दम् , कथाभूता ? सवलाकिका बलाकाभिः सह वर्तमाना पुनर्नवतृणा नवानि नूतनानि तृणानि यस्यां सा तथोक्ता, तथा वाति, कः ? गरुत्, तथा वृतस्तिरोहितः, कः ? असौ सविता सूर्यः, कैः १ विपिनैः कान्तारैः, अतः किं विद्यते जलदागमः प्रावृट् , कयम्भूतः १ सततसन्निहितोऽनवरतनिकटवर्तीति शेषः ॥२१॥ द्विपदन्तपत्रमदमौक्तिकवधतः श्रवोभुजगलं शबरान् । करिणां न केवलमसन्मनुवे हरतोऽमुतः सकलसारमपि ॥२२॥ द्विपेति-इह केवलं मनुवे जानेऽहम् , कान ? शबरान् किरातान् , किं कुर्वतः सतः १ दधतः, किम् ? अवोभुजगलं कर्णबाहुकण्ठम् , कथम्भूतम् ? द्विपदन्तपत्रमदमौक्तिकवत् । अत्रेदं तात्पर्थम-दन्तिदन्तपत्रं कर्णयोः, मदं भुजकक्षयोः, मौक्तिकानि गले । हरतोऽपि मनुबे, कान् ? असू-प्राणान , केषाम् ? करिणाम सकलसारम् , क १ अनुतोऽमुस्मिन्प्रदेश इति शेषः ।।२२।। अभिपेचकं निपतता हरिणा पुरतः क्रमेण पदयोर्द्विरदः । स्थितवानिहोन्नमितकुम्भकरः क्षणमङ्कुशेन विनिरुद्ध इव ॥२३॥ अभिपेचकमिति-इहास्मिन्प्रदेशे स्थितवान् , कोऽसौ १ द्विरदो हस्ती, के इवोत्प्रेक्षितः ? अंकुशेन विनिरुद्ध इव, कथम् ? क्षणं मुहूर्तमेकम् , कथम्भूतः सन् ? उन्नमितकुम्भकरः, केन् ? निपतता हरिणा सिंहेन, केन् ? पदयोः क्रमेण चरणयोः फालेन, कथम् ! पुरतः, कथं निपतता ? अभिपेचकं पुच्छमूलं लक्षीकृत्येति शेषः ||२३|| तरवो न सन्त्यफलिनो न लताः कुसुमोज्झिता न विरत तयः । सरितोऽलिहंसशुककोकिलकध्वनिवर्जितोऽत्र न परोऽस्ति रवः ।।२४॥ तस्व इति-अत्रेह प्रदेशे तरवो वृक्षा अफलिनः फलरहिता न सन्ति, तथा लताः कुसुमोज्झितरः प्रसूनशून्या न सन्ति, तथा सरितो नद्यः विरतसुतयः जलनिझरोविझता न सन्ति, तथा परोऽन्यो रवी ध्वनिरलिहंसशुककोकिलध्वनिवर्जितः भ्रमरादिशन्दवर्जितो नास्ति ॥२४॥ इह भान्ति. मण्डपभुवः सलताः सवितर्दिका गिरिपतत्सलिलाः । वनदेवताभिरपदिश्य मिथः पथिकान्प्रपा इव शुचौ रचिताः ॥२५॥ इस वनकी भूमिपर धीरे-धीरे बहते झरनोंके तुषारयुक्त हवा बहती है, सर्वदा सारस उहते रहते हैं, नूतन कोमल दूध उगती रहती है तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंके कारण सूर्य छिपा रहता है अतएव ऐसा लगता है कि यहां वारहों महीना वर्षा ऋतु रहता है ॥२१॥ मेरा विचार है कि इस घनमें हाथियोंके दन्तपत्रोंको कानों में पहिने, मदको दोनों भुजाओंमें आत्मसात् किये तथा मस्तकके मुक्ताओंको गलों में धारण किये हुए भीलोंने दाधियों के केवल प्राण ही नहीं लिये हैं अपितु उनकी समस्त सारभूत सम्पत्ति (वस्तुएँ ) भी हर ली है ॥२२॥ इस यनमें सामनेसे ही पूँछ के हिस्सेको लक्ष्य करके उछलते हुए सिंहके पंजोंका घचाव करनेकी दृष्टिसे हाथी गण्डस्थलों तथा सूंडको तानकर क्षणभर वैसा ही जमके खड़ा रहता है जैसा कि महावतके अंकुशके संकेतपर निश्चल हो जाता है ॥२३॥ इस प्रदेशमें ऐसे वृक्ष नहीं हैं जिनपर फल न आते हों, सब लताएँ ऐसी हैं जो फूलती है, एक भी नदी ऐसी नहीं है जिसकी धार टूट जाती हो तथा भौंरा, हंस, शुक, कोफिल, अदिकी मधुर कूजके सिवा दूसरी ध्वनि नहीं सुनायी पड़ती है ॥२४॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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