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________________ ३०२ विसन्धानमहाकाव्यम् पुनः मर्मावित् मर्म विध्यतीति तत्, अपारिषद्यो जनोऽपि कयम्भूतः ? गुणेन शास्त्राभ्यासादिना मुक्तः पुनः गुरुपर्वरिक्तः सूरिपरम्परया हीनः पुनः मुखेन तीक्ष्णः परुषः । शेषं सुगमम् ।।५२। तान्प्रावृपेश्याम्बुदमासि पांशी मध्ये दृशं रुन्धति शब्दलक्ष्यः । शरोऽभिनत्पूगतिथानरातीको वा निषेद्वा भवितव्यतायाः ॥५३॥ तानिति-शरी बाणः तानरातीन अभिनत् भिनत्ति स्म, कयन्सुतान् ? पुतियान पुमानां पूरणाः मतिया: "बहुगगणनव-य लिया स्त्रियोक्तान सङ्घारणान्, कथम्भूतः ? शब्दलक्ष्यः शब्दवेध्यः, क्न सति ? पशिौ रेखो, कि कुर्वति सति ? दृशं दृष्टि रुन्धति सति, आवृगवति सति, क्व ? मध्ये, कथम्भूते पांशी ? प्राकृ याम्बुदभासि प्राधि नवः आवृषेण्यः स चासाबम्बुदश्च तस्येवं भाः सादृश्य यस्य स तस्मिन् मजलजलदसा इत्यर्थः, युनामेतत्, वायवा भवितव्यतायाः प्राप्तव्यतायाः, वो निषेद्धा, अपितु न कोऽपि ।।५३३॥ तथाविधेऽप्युद्यति धूलिजाले नृपा रिपून्यापुरभी यथास्वम् । सर्वस्य पूर्वानुभवोऽनुबन्धी को विध्वणन्मुह्यति नक्तमास्ये॥५४॥ तथेति-अमी नृपाः रिपून यथास्वं यथायोग्यं प्रापुः, क्व सति ? तथाविधे ताशेऽपि भूलिकाले उचलि ऊर्ध्वं गच्छति सति, सुक्तमेतत्, नवतं रात्री विष्वणन् भुजानः सन् आस्ये मुखे को मुह्यति भोहं गच्छति अपि तु न मोऽपि, सर्वस्य पूर्वानुभवः पूर्वसंस्कारः अनुबन्धी प्रेरक इति ॥५४॥ सधोभयेषामपि भूपतीनां चित्तात् प्रकोपश्चिरकालरूढः । परस्परं भार इवारतीणों जज्ञे लघुर्विश्रमदित्सयेव ।।५५|| तथेनिया तेनैव प्रकारेण उनयेषामपि द्वयेषामपि पतीनां नरेन्द्रःणां चित्तादवतीर्णः प्रकोपो जज्ञे जातः, कत्र ? विश्रमदित्येव विश्रमं दातुमिच्छयेव, कथम् ? परस्परमन्योन्यम्, कथम्भूतः ? चिरकालरूढः पुन. लघुः, क बाबतीगः ? भार इवेति ।।५५ । समूह प्रशिष्ट पुरुषको तुलनाको प्राप्त हुआ था। [असंस्कृत मनुष्य भी गुरणों से होन होता है, प्राचार्य (गुरु) परम्परा (पर्व) से शून्य होता है, कठोर वचन बोलता है, विरुद्ध मार्ग (प्रतिपक्ष) में लीन रहता है तथा तत्त्वके रहस्य (मर्म) को नहीं जानता है ] ॥ ५२ ॥ वर्षा ऋतुमें उमड़ते मेघोंके समान धने घले रंग युक्त धूल के छा जानेपर योद्धाओंको प्राँखें अपने प्राय मुंद गयो थीं। तो भी शत्रुकी पायाखको निशाना करके चलाये गये बारणोंने, कुण्ट के कुण्ड मात्रुओंको भेद दिया था। ठोक ही है, भवितव्यताको रोकने में कौन समर्थ है ॥ ५३॥ __उस प्रकारले दूलझा बम्पर छा जानेपर भो ये योमरामा यथायोग्य प्रकारसे अपने-मापने शत्रुको पा जाते थे। अचित ही है क्योंकि सबझा पुराना संस्कार प्रेरक होता है जैसे कि रातको भोजन करनेवाले किसी भी व्यक्तिको अपने मुँहके विषय में धोखा नहीं होता है ॥ ५४॥ दोनों पक्षों के राजाओंके मनमें भारशे समान बहुत समयसे जमा क्रोध इस घोर संप्राममें भी एक दूसरेको नाराम नेको इच्छाले हो उतर गया (बरस पड़ा) था और यह हलका प्रतीत होने लगा था ॥ ५५॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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