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________________ ३१६ द्विसन्धानमद्दाकाव्यम् तनुरक्षया परिणतेव कुपितमपि हेतिरूपताम् । यातमिव निशितशख (मत्र) मपि ज्वलनात्मतां गतमिवास्य चक्रिणः ॥ ४॥ तनुरिति — अस्य चक्रिणः तनुः शरीरं परिणतेव प्राप्तवार्द्धश्या वतितेय बभूवेति क्रियाध्याहार्य्या, कथम्भूता ? अक्षमा न विद्यते क्षमा यस्यां सा क्रोधरूपेत्यर्थः, कथम्भूता परिणता ? वार्द्धकवशात् अक्षया गन्तुमशक्ता तथा कुपितमपि हेतिरूपतां शस्त्रसारूप्यं यत्तं गतमिव निशितं तीक्ष्णं शस्त्र ( अस्त्र ) मपि ज्वलनात्मतां वह्निरूतां गतमिव ॥॥४॥ रुषायुधं विषमिवाहिरशनमिव तोयदोऽसृजत् । क्षौद्रपटलपतितैरिव तच्छरधैः शिरखनिवहैर्मही बभौ ||५|| स इति — मारिः आयुधं शस्त्रं रुषा कोपेन असृजत् मुक्तवान् कः कमिव ? अहिः रूपः विषमिव गरलभित्र पुनः अशनिवज्रं तोयदो मेघ इव तत्तस्मात् शिरस्त्र-निवहै. शिरांसि स्थायन्त इति शिरस्त्राणि तेपां हैः समूहैः मही मेदिनी बभी रेजे, कैरिव ? क्षोद्रपटलपतितैः मधुच्छत्रच्युतैः शरधैरिव मधुमक्षिकाभिरिव ॥ ५ ॥ दहनापाणिरमूर्थं विदधदरिसैन्यमाजजुः । वेदनं भयर समित्य शिरः पुरतः स दिव्यमधृतेव नाकिनाम् ||६|| दहुनेति - गोरिः घृतेव तत्रानिव किम् ? दिव्यम् कथम्भूतम् ? अशिरो न शिरो यस्य तदशिराः प्रतिद्वन्द्वरहितमित्यर्थः पुरतः अग्रतः केषाम् ? नाकिनां देवानाम्, कथम् ? इति कृत्वा प्रकाश्यते, भी मानो देवाः न वेद न वेदम्यहम् कम् भयरसम् कथम् ? आजनु राजन्म कि कुर्वन् ? अरिसेन्यम् अपमूर्द्धन् अपगतमस्तकं वित्तः सन् ? ज्वलनाणहस्त इति ॥६॥ सेनारहित तथा उद्धत इस शत्रु ( रावण जरासन्ध ) को युद्धके अनुरागी देवताओंोंने बिना धुएँको आके समान प्रथवा केंचुली छोड़नेके बाद बाहर आये 'दृष्टिविष' (जिसकी दृष्टिमें ही विष होता है) सौंपके समान अथवा बाहरके दाँतोंसे रहित हामीके समान देखा था ॥३॥ चक्रधारी अथवा चक्रवर्ती इस शत्रुका शरीर वृद्धा स्त्रीके समान श्रशक्त हो गया था । अथवा क्षमाहीन हो गया था । अत्यन्त क्रुद्ध होकर भी यह शस्त्र (हेति ) के समान ( पराधीन) हो गया था तथा तीक्ष्ण शस्त्रोंका ( लक्ष्यहीन ) प्रहार करके भी वह ( भभकती, किन्तु न जलाती) ज्वालाके सदृश प्रतीत होता था [बुढ़िया के शरीरमें भी सामर्थ्य नहीं रहती है, गुस्सा होनेपर 'हा, हा' (हा - इति) करने लगती है तथा तथा हथियार पास रहनेपर भी, प्रयोग न करके अपने मन ही मन जलती रहती है ] ॥४॥ जैसे सांप विषका वमन करता है अथवा जैसे मेघ वस्त्र बरसाते हैं उसी प्रकार रुष्ट हो कर यह शत्रु शत्र चला रहा था । बिखरे हुए शिरवालोंके कारण युद्धस्थलीकी वही दशा हो गयी थी जो मधुमक्षियोंके छत्तेसे गिरी मधुमक्खियोंके भूमिपर पड़े रहनेसे होती है ॥५॥ अग्निवाको हाथोंसे छोड़ते हुए इस शत्रुने प्रपने शत्रुत्रोंकी सेनाको बिना मस्तकका अथवा बिना नेताका कर दिया था। मैंने जन्मसे हो कभी भी भयका रसास्वादन नहीं किया है यही दिखाने के लिए इसने अपनी बेजोड़ (प्र-शिर) अथवा बिना मस्तकको दिव्य देहका रणके रसिया देवों के सामने रख दिया था । ( अर्थात् अपनेको मरा समझकर युद्ध में शुरु गया था ) ॥६॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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