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________________ सप्तदशः सर्ग: ३२१ विरथश्चिरेण विहितोऽपि विततधनुषामुना रिपुः । जातमिव बहुमुखं सुकृतं विविधं स मूलविभुजं व्यलङ्घयत् ॥२०॥ विरथ इति--स रिपुविपक्षः मूलविभुजं मुलरथं सुकृतमिव पुण्यमिव भ्यलङ्घयत् बतिक्रान्तवान्, कथम्भूतम् ? जातं समुत्पन्नं पुन: बहुमुखं प्रचुरकारणं पुनः विविथं नावाप्रकारम्, कथम्भूतः ? विहितोऽपि कृतोऽपि पुनः विरथः रथरहितः अमुना विभिर्ग:पुणा, कथम्भूतेन ? विततधनुषा भारोपितचापेन, कथम् ? चिरेण बहुकालम् ॥२०॥ अवलोकितुं हरिविघातमसह इव गन्तुमुद्यतः। संख्यरुधिरमवलोक्य चिरं स मदादपप्तदिव तीव्रगुः सदा ॥२१॥ अवलोकितुमिति- तीव्रगुः सूर्यः पूर्व सङ्ख्यरुधिरं रणरक्त मिरं बहुतरकालम् अवलोक्य निरीक्ष्य सदा सर्वकालं मदादिव अपात्तत् पतितवान्, कथम्भूतः ? गन्तुमुद्यतः पुनः हरिविषातम् अवलोदितुम् असह इव असहमान इव ॥२१।। स विपन्नबन्धुमुपदृश्य नपलनमशेषमंशुमान । दुःखजलमवतरीतुमिव प्रतिपश्चिमार्णवतटं व्यलम्पत ॥२२॥ स इति-सः अंशुमान् सूर्यः पश्चिमाणवतट पश्चिमसमुद्रतीरं व्यलम्बत अवलम्बितवान्, कि कर्तुमिव ? दुःखजलं दुःख मेव जलं तत् अवतरीतुमिब, कि कृत्वा ? अश्वेषं नृपजनं नृपतिलोकं विपन्नबन्धु पृतबान्धवम् उपदृश्य दृष्ट्वा ।।२२।। सवितापि संहतिमियाय नियतदिवसातिलानः । हन्त किमु किल निषेकदिनं जगति व्यतिक्रमितुमक्षमो जनः ॥२३॥ सवितेति--सवितापि मूर्योऽपि संहति संहारम् इयाय गतवान्, कयम्भूत: ? नियत दिवसातिलङ्घन: निश्चितदिवसातिक्रमः, युक्तमेतत्, हन्त कष्टं किल लोकोक्तौ किमु बहो जगति लोके निषेकदिनं मृत्यु व्यतिक्रमित वितुमक्षमः असमर्थो जनः, यत्र यत्र सवितापि संहति प्रामवान्, तत्रान्ये जना निषेकदिनं व्यतिक्रमितुं कथमलं समर्था भवेयुरिति भावो विभावयते ॥२३॥ (रावण-जरासन्ध)] पुण्य तथा पायके सजीव देरके समान एक-दूसरेपर प्रहार कर रहे थे, तो भी उनमें से किसीका भी वेग रंचमात्र नहीं घट रहा था ॥१९॥ बहुत समय तक धनुष चलाकर इस नारायणके द्वारा रथहीन (खण्डित-रथ) किया गया भी वह शत्रु सब तरफसे खुले बहुमुख तथा लक्ष्य भेदनके लिए अनुकूल अवसरपर भी (विविध) मूलनायकके रथके सामनेसे निकल गया था और पुण्यको समानताको प्राप्त हुआ था क्योंकि पुण्यका फल भी अनेक (बहु) सापन (मुख) जुटा देता है तथा अनेक प्रकारसे सहायक होता है ॥२०॥ बहुत समय तक युद्ध में बहती रक्तधाराको देखकर प्रखर फिरणोंके सदेव स्वामी सूर्यका भी अहंकार (उष्मा) अपने-आप हलने लगा था। और नारायणके वधको (अथवा वानरों और यादवोंके संहारको) देखने के लिए तैयार न होनेके कारण ही उसने भी (प्रस्ताचलकी प्रोर) चलनेकी तैयारी कर ली थी ॥२१॥ ___ समस्त राजाओंके प्रात्मीय-जनयुद्ध में मर चुके थे। ऐसे इन राजामोंको देखकर सूर्य भी दुखी होकर जलमें उतरने (डूबने) के लिए ही (प्रथवा अन्त्येष्टिके यादका स्नान करनेके लिए ही) पश्चिम सागरके किनारेकी मोर मुड़ गया था ॥२२॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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