SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ द्विसन्धानमहाकाव्यम् गतवत्यरौ तमनुमत्य परमपुरुषं महोदयः । व्याप्य निशिततमसंप्लवगैः स्थितमर्जुनप्रकृति तत्र राजकम् ॥२४॥ गतेति- राजकं सुग्रीवप्रभृतीनां राज्ञां समूहः तत्र रणे स्थितम्, किं कृत्वा ? तं परमपुरुषं मक्ष्मणं निशिततमसं निशितं तमो यस्य तं तीक्ष्ण तिमिरोपहतं विनष्टचेतनम् अनुमत्य शात्दा, कस्मिन् सति? घरी गतवति सति, कि कृत्वा स्थितम् ? महोदयः प्लवङ्गः वानरेः व्याप्य वेष्टयित्वा, कथम्भूतं राजकम् ? बर्जुनप्रकृति शुद्धस्वभावम् । भारतीयः- अर्जुनप्रकृति मध्यमाण्डवप्रधानं राजक स्थितम्, किं कृत्वा ? परमपुरुषं नारायण पूर्वम् अनुमत्य, किं कृत्वा व्याप्य, कस्याम् ? निशि रात्री, कथम्भूतं राजकम् ? असंप्लवगैः शिष्टवीरयागैः महोदयः ततें व्याप्तम् क्व सति ? असे गत बति ॥२४॥ न किलास्ति कोऽप्यवनिमानमवगत इतीरितोद्यमः । पादपरिगणनया भुवनं रविरेष मित्सुरिव दरमत्यगात् ॥२५॥ नेति-रविः सूर्यः दूरं यथा तथा अत्यगात् अतिशयेन गतवान् इबोत्प्रेक्षितः ? भुवनं जगत् पादपरिगणनया कृत्वा मित्सुरिब, कथम्भूतः? ईरितोद्यमः, कथमिति कृत्वा प्रकाश्यते, किल लोकोक्ती परामर्श च, न कोऽप्यस्ति, फथम्भूतः ? अवनिमानं भूमिमा अवगतः ज्ञातवान् ॥२५॥ सदृशोदयास्तमयवृत्तिरजनि तपनोऽनुरागतः । संपदियमिह विपच्च परं परिवर्तते नहि महीयसः स्थितिः ॥२६॥ सदृशेति-तपनः सुर्यः अनुरागतः अनुरागात् सदृशोदयास्तमयवृत्तिः सदृशी उदास्तमययो. त्तिर्यस्य स तथोक्तोऽजनि संजातः, एकरूपोजनीत्यर्थः, युक्तमेतत्, इह लोके परं केवलम् इयं संपद् विपन्च परिवर्त्तते महीयसः स्थितिर्न परिवर्तते हि स्फुटम् ॥२६॥ दिनकी समाप्ति (प्रतिलंघन) को निश्चित करनेवाला सूर्य भी (मस्त) विनाशको प्राप्त हुआ था। यही खेदको बात है कि संसारमें मृत्युको वेलाको टालने में कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं होता है ऐसा निश्चय है ॥२३॥ शत्रुके घले जानेपर परम प्रतापी वानरोंने यह जाना था कि परम पुरुष लक्ष्मण तोरण शक्ति लगनेके कारण अचेतन पड़े हैं। स्वभावसे सरल (अर्जुन-प्रकृति) समस्त राजा लोग यह जानते ही शोकमग्न होकर उसको घेरकर बैठ गये थे। __अत्यन्त सम्पन्न तथा शिष्टवीरों (असंप्लवगैः) से च्याप्त (ततं) अर्जुनके अनुयायो (प्रकृति) राजाओंका समूह वात्रुमोंके लौट जानेपर रात्रिको परमपुरुष कृष्णको घेरकर जा बैठा था। तथा उनको सम्मतिको जाननेके लिए प्रतीक्षा करने लगे थे ॥२४॥ कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसने पृथ्वीको स्वयं नापा हो इस,लोकोक्तिसे प्रेरित होकर पुरुषार्थो सूर्य पगों (कदमों) से गिनकर पृथ्वीको नापनेके लिए ही दूर तक चला गया था [सन्ध्या समय सूर्यको किरणें (पाद) संख्यात रह जाती हैं और वह अस्त हो माता है ] ॥२५॥ सन्ध्याकालीन लालिमाके कारण सूर्य उदय और प्रस्तके समय एक समान स्वभाव (लालिमा, आदि) का धारक हो गया था। उचित हो है-संसारमें यह सम्पत्ति और विपत्ति ही खूब बदलती हैं किन्तु इससे महापुरुषोंकी स्थिति रंचमात्र भी नहीं बदलती है ॥२६॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy