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________________ २२६ . द्विसम्धानमहाकाव्यम् शिलामिव, कथम्भूतः ? गोमिनी लक्ष्मी परिणिनीषुः परिणेतुमिच्छुः, किं कृत्वा ? समुदक्षिपत् ? परिधार्य सामस्त्येन धृत्वा, किं कृत्वा ? पूर्व प्रसार्य, किम् ? भुजयो होः द्वितयं युगम् , कथम् ? परितः सामस्त्येन पुनर्निपीड्य, केन ? उरसा वचसा ॥३९|| कृतपाणिपीडनविधिः प्रथमं पुरुषोत्तमेन समुदृढतनुः विरराज कोटिकशिला भयतः परिकम्पिता नववधूरिब सा ॥४०॥ कृतेति-विरराज शुशुभेतराम् , काऽसौ ? सा कोटिशिला, कथम्भूता सती ? पुरुषोत्तमेन विष्णुना समुढतनुः समुदतमूर्तिः, पुनः कृतपाणिपीडनविधिः, कथम् ? प्रथमम् , पुनरपि कथम्भूता ? भयतः परिकपिता, के विरराज ? नववधूरिव, कथम्भूता ? समुदृढतनुः, केन ? पुरुषोत्तमेन नरप्रधानेन सम्भोगचातुरीचतुरेण, पुनः प्रथम कृतपाणिपीडनविधिः विहितपरिणयनविधाना ||४०॥ परितः पतभुजगपक्तिरसौ गलितान्त्रजालजटिलेव बभौ । परिभिन्ननिर्झरजला हरिणा विधृतानिलेन धनमूर्तिरिव ॥४१॥ परित इति--असौ कोटिशिला मौ । केव ? गलितान्त्रजालजटिलेव च्युतान्त्रमाला जटावलम्बिनीवेत्यर्थः, कथम्भूता सती ? पतद्भुजङ्गपंक्तिः क्षरत्सर्पश्रेणिः, कथम् ? परितः सामस्स्येन, पुनः परिभिन्ननिरजला सवन्निरपानीया, पुनः हरिणा विधृता, केव ? अनिलेन विधृता घन मूर्तिरिय मेघमूतिरिव ॥४१॥ दिवि दुन्दुभिः प्रणिननाद दिवः कुसुमाञ्जलिः प्रणिपपात तथा । तमुदीक्ष्य विस्मयमिवोच्चलितास्तरवोऽपि पुष्पमभितश्चकरुः ॥४२॥ दिवीति-दिवि गगने दुन्दुभिः देवतूर्य प्राणननाद ध्वनितवान् , तथा कुसुमाञ्जलिः घुष्पवृष्टिः दिवः गगनात् प्रणिपपात, तथा तरवो वृक्षाः अपि अभितः सामत्येन पुष्पं चकमः विक्षिप्तधन्तः । अत्र जात्यपेक्षयकवचनम् । के इवोत्प्रेक्षिताः, तं विष्णुम् उदीक्ष्य विलोक्य विस्मयमाश्चर्यम् उच्चलिता इव ||४२॥ द्विषतां भयेन सुहृदा प्रमुदा युनिवासिनापतिशयेन हरेः । अपि साहसैरभवदुघृषितं ननु वस्त्वनेकविधमेकविधम् ॥४३॥ द्विषतामिति-अपिशब्दः समुच्चये 1 द्विषतां शत्रूणां भयेन उद्धृषितं रोमाञ्चितम् अभवत् जातम् , लक्ष्मण अथवा कृष्णने कोटिशिलाको उसी प्रकार उठा दिया था जैसे लक्ष्मीके साथ विवाह करनेको उद्यत विष्णुने विवाहशिलाको उठाया था ॥३९॥ पुरुषोत्तम लक्ष्मण अथवा कृष्णकी भुजाओं द्वारा कसके दवायी गयी, और गोद में उठायी गयी वह कोटिशिला काँपती हुई [पाणिग्रहण होनेके बाद पहिले पहिले आलिंगन की गयी अतएव भयसे काँपती हुई ] नव वधूके समान सुशोभित हुई थी ॥४०॥ निकलकर चारों ओर भागते हुए साँपोंके गुच्छोंके कारण यह कोटिशिला ऐसी लगती थी मानो इसकी आँत ही फैल गयी हैं। लक्ष्मण अथवा कृष्णके द्वारा उठानेसे सब तरफ फूटकर बहते झरनोंके पानीके कारण वह शिला वायुसे उड़ाये गये मेघके समान प्रतीत होती है ॥४॥ मूर्तिमान आश्चर्यके समान बढ़ते हुए लक्ष्मण अथवा कृष्णको देखकर स्वर्गमें देवॉकी दुन्दुभियां गरज उठी थीं, आकाशसे पुष्पवृष्टि हो पड़ी थी तथा वृक्षोंने भी स्वयमेव सर्वत्र पुष्पोंको विखेर दिया था ॥४२॥ __आतंकके कारण शत्रुओंके रोम खड़े हो गये थे, हर्षातिरेकमें मित्रोंका शरीर पुलफित हो उठा था, आश्चर्यकी अतिने स्वर्गवासी देवोंको रोमांच ला दिया था तथा अपने साहसकी
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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