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द्विसन्धान महाकाव्य
( विशेष रूपसे श्लोक संख्या ४३ से आगे ) में लेखकने अनेक शब्दालंकारोंका चित्रांकन किया है, जैसा कि भारवि, माघ तथा अन्य कवियों में समान रूपसे मिलता है; श्लोक संख्या १४३ सर्वगत प्रत्यागतका उदाहरण हैं। यह मान कर कि सगँके अन्तमें दिये हुए पुष्पिका वाक्य (१, २, १६ वें सगमें उपलब्ध नहीं हैं ) लेखक के स्वयंके हैं, यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना नाम धनंजय, या धनंजय कवि, अथवा द्विसन्धान कवि दिया है तथा अपनी कृतिको द्विसन्धान काव्य अथवा अपर नाम राघवपाण्डवीय महाकाव्य कहा है। प्रत्येक सके अन्त में अन्तिम पद्य में श्लेषसे अपना नाम धनंजय दिया है जैसा कि विषापहार स्तोत्रमें । इसका अनुकरण राजशेखर के नामसे अभिहित पद्य में जल्हणने किया हूँ ।
यदि द्विसन्वान नाम रचना पद्धतिको व्यक्त करता है, जैसे प्रत्येक श्लोकके दो अर्थ या व्याख्या की जा सकती है, तो दूसरा नाम राघवपाण्डवीय काव्यकी विषयवस्तुका आभास देता हूँ कि यह एक साथ राम तथा पाण्डवोंकी कथा कहता है । इन दोनोंसे सम्बद्ध कथा-परम्परा भारतीय सांस्कृतिक विरासतका एक ऐसा अपरिहार्य अंग है कि कोई भी कवि जो एक साथ दो विषय लेना चाहता है, उस ओर अभिमुख होता है, विशेषतया इसलिए कि उन दोनोंका वर्णन करने वाले तथा वैकल्पिक चुनाव प्रस्तुतिकरणके लिए बड़ी संख्या में विस्तृत विवरण प्रदान करने वाले महाकाव्य उपलब्ध हैं । राघवपाण्डवीय नाम पर्याप्त प्रचलित है । धनंजय के अतिरिक्त कविराज, श्रुतकीति आदि कवियोंने इसे चुना है तथा इसी तरह के शीर्षक राघव यादवीय, राघवपाण्डव यादवीय उपलब्ध है ।
धनंजय काव्यका प्रथम शीर्षक द्विसन्धान है और वण्डिके बाद वह इस विधाके पुरस्कर्ता प्रतीत होते हैं: राघव पाण्डवीय मात्र दूसरा शीर्षक है ।
धनंजय तथा कविराज कृत राघव पाण्डवीय
धनंजय तथा कविराजके काव्यकी तुलना रुचिकर है। घनंजयके काव्यका एक नाम राघवन्पाण्डवीय है जो कि कविराजके काव्यका मूल शीर्षक है । धनंजय के काव्य में अठारह सर्ग तथा ११०५ पद्य हैं, जबकि कविराजके काव्यमें तेरह सर्ग तथा ६६४ पद्य हैं । धनंजयने श्लेषसे अपने नामका उल्लेख किया है जब कि कविराजने प्रत्येक सर्गके अन्तिम पथमें अपने आश्रयदाता कामदेवका नामोल्लेख किया है । वास्तवमें उनका काव्य कामदेवांक है । इन दोनों काव्योंकी विषयवस्तुकी पूर्ण तुलना एक प्रबन्धका विषय है । साधारणतया पढ़ने पर लगता है कि इन दोनों काव्यों में कोई बहुत बड़ी समानता नहीं है । घनंजयमें वर्णन अधिक है जब कि कविराजने श्लेषकी बाध्यता के बावजूद अपनी कथाके विवरणोंको सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है (देखें १.५४, ६९ आदि ) । जहाँ तक श्लेषका सम्बन्ध है कविराज भाषा पर अधिक योग्यता तथा अधिकार व्यक्त करते हैं । धनंजयका काव्य सर्वोच्च काव्यका प्रतीक स्मारक कहा जाता है, निःसन्देह उनका पाण्डित्य विशाल है, विशेषरूपसे नीतिशास्त्रका और उनके कतिपय अर्थान्तरन्यास वास्तव में गम्भीर एवं प्रभावकारी हैं । कविराजको शैली सहज तथा संक्षिप्त है जबकि धनंजयने प्रायः कठिन संस्कृत लिखी है, जिसे समझने के लिए प्रायः प्रयत्नको अपेक्षा होती है। उनके वर्णोंकी प्रस्तुतिमें द्वघर्थक श्लोक बहुत कम हैं जब कि कविराजकी रचनायें यह सामान्य बात है। जहाँ तक हमने देखा है इन दोषों काव्यों में किंचित् हो ऐसा होगा जिसे एक दूसरेका अनुकरण कहा जा सके ।
श्रुतकीर्ति और उनका राघव पाण्डवीय
एक और कवि हैं श्रुतकीर्ति त्रैविद्य जिन्होंने गत- प्रत्यागत पद्धति से जो विद्वानोंके लिए आश्चर्य और औत्सुक्यको वस्तु है, जैसा कि नागचन्द्र या लिखित रामचन्द्रचरित पुराण ( पाण्डुलिपि ) या पम्परामायण ( १ २४- ५, बंगलोर, १९२१ ) लिखा है
आवादिकथाrयप्रवणदोळ्" विद्वज्जनं मेचे वि द्यावष्टंभमन के परवादिक्षोणिभृत्पक्षभं । देवेंद्र दिदि कडिदं स्याद्वादविद्यास्त्रदि
राघव- पाण्डवीय की रचना की, अभिनव पम्पने अपने कन्नडमें
कीर्ति दिव्यमुनिवोल विख्यातियं वादिदं ॥२४॥
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