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________________ सप्तदशः सर्गः ३३३ परं न दृष्ट्वाक्रममाणमिन्दुं प्रपूरयामास पयोधिराशाः । लावण्यधामा च्युत्तमानसीमा रागोऽप्यसंभान्हदये जनस्य ॥५३॥ पमिति-- परं पलं पूरयामास पूरितवान्. फोऽसो ? पधिः समुद्रः, का! भाशा दिशः, किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट लोक्य, उन्न् ? इन्दु यर द्रम्, किं कुणिम् ? छाकमकारणमुक्यन्तम्. कायम्भूतः ? जापयामा पुनश्च्यु: मारसोग, हि कुर्वन् ? समान काम नः, बम निस्य हृदये । बागोऽपि मपुर , ना? अशा वा:, कि कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्वा, कम् ? इन्दुम्, ति: कुणिम् ? भाक्रममाणम्, में थम्भूतः ? वाम'. पुन: च्युटमा , कि हुन् ? नाम:, स्व ? अनस्य हो' ।।५३. श्रणालिनेक्षणेन शुक्त्या प्रियवार्ता विधुमार विचन्त्यः । मधुरवपसेवथे। जाता हदि वध्यः समधातपरिचरेण ॥५४॥ श्रदहि--, ध्यः वामन्य नाम:, थम्भूताः ? समधातवः, थम् । चिया बहुतरकासम्, ? हुद हृदये. येव : मधुशायद, कुर्वन्स्य: ? पिबम: आस्वाद , म् ? जिपजाती बल्लमवात्तम्.ि बैर ? श्रवगा मलिना मिनिला, तथा पिपरयः ५.म् ? विधु' चन्द्रम्, न ? ईक्षणेन लोच. नेन, तथा शुवस्या यषणानचं मद्यम् पिन्त्यः ।।५४.) रत्नाजिनेवाजिमरावशेषाद्विषादवद्वाष्पजलाविलानि ।। श्रेणं सान्छवासारङ्गितानि सीधूनि योधाः समपाययन्त ॥५५॥ पलायति...मरायनर मपाय स्न, के : योधः धाध, पान ? धनि मद्यानि, किम् ? स्त्रैणं सदीरम्३षु ? ग्ला नेषु मारणमय यतं स्त्रान् ? विषादव, भस्मात् ? आजारावशेषाद थम्भूतानि नि ? बाप्पाथिलान अश्रुजलभिवाणि, पुनः समुच्छदातरङ्गितानि अनुच्छ्या तरङ्गा, संजःता येषु तानियोक्तानि ! ५५३५ जलमार्ग के विशेषज्ञों तथा भोगरूपी समुद्री यात्राझे डकैतों अर्थात् कामुकौंफो जोलनेके लिए ही शस्त्र उठाये हुए कामदेवने चन्द्र भण्डलरूपी छोटी-सी नौकापर सवार होकर प्रयाग किया था। जलमार्ग के विशेषज्ञ समुद्री बोरोंके समान कामुक भी अविवेकी ( उलयोरमेदः अतएव जड़मार्ग) जीवनके यापनमें पारंगत होते हैं ॥ १२ ॥ चन्द्रमाके ऊपर (कामदेवको ) आक्रमणको देख कर ही खारे ( लावण्य ) पानीका भण्डार समुद्र ही ज्वाररूपसे किनारोंके ऊपर नहीं पाया था और समस्त विशाओं में ही नहीं फैला या अपितु लोगों के मन में न सनाते हुए प्रेमने भी अपनी सब घाशाएँ ( अभिलाषाएं ) पर्ण कर ली थी क्योंकि चन्द्रमाके उदय (नाम) होते ही ज्वारके समान राषका भी प्रमाण या सोना नहीं रहती है तथा सारी हार हो सुन्दर ( लावण्यमय) प्रतीत होने लगती है ॥ ५३॥ मानो पोती बालेको सुनती, आँखोस चकिाका पान परती तथा शुक्तिके पानसे बासबको पोतो हुई बहूले हृदय में बहुत समय बाद, तीनों मधुरोंका सेवन करनेके कारण समस्त पातुओंज्ञा सामञ्जस्य हो गया था ॥ ५४॥ युद्धकालीन मानसिक त्रासके हावशेष स्तरूप विषादक सूचक प्रासुमोंसे मटमैले तथा १. उपजातिश्रुत्तम् । २. औपच्छन्दसिक वृत्तम् । ३. -ययन्ते स्म । ४. चित्रकम्बलेपूपयुक्तः पाठः । ५. उपजातिसम् ।
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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