Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक:१ आराधना वीर जैन श्री महावी कोबा. अमृतं अमृत तु विद्या तु श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 For Private And Personal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत भैषज्य रत्नाकर [द्वितीय भाग] रसवेद्य नगीनदास छगनलाल शाह. ऊंझा (गुजरात) For Private And Personal Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 3o CIUTO ON OUR WATOTO CA SA TALABAL ABUELENLAAL HARIANA GREAT ADLALTAYINARIL MENDOHERT भारत-भैषज्य-रत्नाकर: तस्याऽयं द्वितीयो भागः गुर्जरप्रान्तान्तर्गत 'ऊंझा' जनपदनिवासिना ऊंमा आयुर्वेदिक फार्मसी नामक आयुर्वेदीयौषधालयाध्यक्षेण श्री नगीनदास छगनलाल शाह रसवैयेन संगृहीत: E NTU BIH DAHULUAN ANTARA SA ATALAR ARADALA GUERLAINS MALAYALA मनुष्यका आहारादि पुस्तकप्रणेत्रा, श्री काशीनागरी-प्रचारिणीसभा प्रभृतितो लब्धपदकेन, 'आरोग्य-दर्पण'–सम्पादकेन, बिजनौरमण्डलान्तर्गत हल्दौरवास्तव्येन श्री वैद्य गोपीनाथ भिषग्रत्नेन कृतया भावप्रकाशिकाख्यव्याख्यया समूलङ्कृत : BATELE 1941B ARUANDEGREATE प्रकाशक : ऊंझा आयुर्वेदिक फार्मसी रीचीरोड; अहमदाबाद मूल्य वीरसम्वसं. २४५४ ) ईस्वीसन् १९२८ ॥ वैक्रमाब्द १९८४ ६॥) For Private And Personal Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra : प्रकाशक : कैसा आयुर्वेदिक फार्मसी पीरोड अहमदाबाद www.kobatirth.org सर्वाधिकार प्रकाशकके लिये सुरक्षित हैं। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत - भैषज्य रत्नाकर, प्रथम भाग ( पक्की जिल्द) मू० ४ || ) For Private And Personal : सुद्रणस्थान : आदित्यमुद्रणालय रायसड, अहमदाबाद : मुद्रक : गजानन विश्वनाथ पाठक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir HH THE MKHKKKJK SKYKJIRKO GEEKWKR 0 当到9944 4 44 44. For Private And Personal Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ................................................... ....reamin e nemininem a ............. ... ........................................ 7 समर्पण पत्रिका ............... 000000...... सेवामें विश्व विश्रुत, अखण्ड प्रौढ प्रतापी श्रीमंत सरकार सयाजीराव गायकवाड़ सेना स्वासखेल समशेर बहादुर, _G.C. S. I., G. C. I. E., LL. D., फरज़न्दे-खास, दौलते-इंग्लिशिया, बड़ौदा राज्य, बड़ौदा. महामान्य! संसार के बुद्धिशाली व्यक्तियों में आपका स्थान है, आप भारत के अग्रगण्य राज्य कर्ता हैं, श्री और सरस्वती दोनों आपके आधीन हैं. आप विद्या और विद्वानों को आश्रय दान देकर वर्तमान भोजकी उपाधि के पात्र हुवे हैं, आपने अपनी प्रजाकी आर्थिक तथा सामाजिक अवस्था सुधारनेके लिए भगीरथ प्रयत्न किया है. आपने देशकी अवनतिके सत्य काराणों को खोजा है और उनके दूरी करणका यथोचित यत्न किया है। प्रजाकी शारीरिक स्थिति सुधारनेके लिए आयुर्वेदको आश्रय प्रदानकर, आपने प्राचीन चिकित्सा पद्धति को सजीव किया है. आप के इन गुणों से प्रेरित होकर आयुर्वेदका यह । अभिनव ग्रन्थ श्रीमानकी भेंट करते हुवे आपके इस प्रजाजनको अत्यानंद होता है। ऊंझा (गुजरात.) । आपका कृपाभिलाषा बड़ौदा राज्य रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह ता. ४-१-२०. ) मालिक-ऊंझा आयुर्वेदिक फार्मसी ................................................................ एम. बाडीलालकी कं.-अहमदाबाद. ............................... For Private And Personal Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ऊंझा आयुर्वेदिक फार्मसी अहमदाबादके स्वामी. BEC रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह. ફીની પ્રીન્ટીંગ વર્કસ. અમદાવાદ, For Private And Personal Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विज्ञप्तिः - भारत-भैषज्य-रत्नाकरका प्रथम भाग प्रकाशित होते ही विद्वानोंने उसका जिस प्रेम और उत्साहसे स्वागत किया, उसकी हमें कदापि आशा न थी; हमारी तुच्छ कृति विद्वानोंमें इतना आदर पा सकेगी इसका हमें ध्यान भी न था; अब भी हम तो इसे केवल उन महानुभावोंकी उदारता ही मानते हैं; नहीं तो हमारे जैसे अल्पमति व्यक्तियोंकी कृति को इतना आदर प्राप्त होना सम्भव ही नहीं था। चाहे हमें प्रतीत हों या न हों पर निस्सन्देह इसमें दोषोंकी भरमार होगी, जिन्हें हंसमति विद्वानोंने दृष्टिच्युत् करके अपनी उदारबुद्धि का परिचय दिया है, जिसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं । विद्वानोंके उत्साहवर्द्धनसे ही आज हम अत्यधिक आर्थिक हानि उठाते हुवे भी इसके द्वितीय भागको पाठकोंकी सेवामें समर्पित करनेमें समर्थ हो सके हैं। प्रथम भागकी भूमिकामें हमने विशेष रूपसे निवेदन किया था कि “यदि विद्वान वैद्य हमें इसकी त्रुटियोंसे अवगत करनेकी कृपा करेंगे तो हम उनके अत्यन्त कृतज्ञ होंगे।" इस प्रार्थनाके अनुसार कई महानुभावोंने हमें अमूल्य परामर्श देकर कृतार्थ किया है । उनमें से श्रीयुक्त वैद्यराज शंकरलालजी, सम्पादक वैद्य, मुरादाबाद; श्रीयुक्त पं. रविशङ्कर जटाशङ्कर वैद्यराज, सम्पादक वैद्यकल्पतरु और श्रीयुक्त पं. बलवन्त शर्माजी वैद्यराज, महलई विशेष धन्यवादके पात्र हैं। हमें आशा है कि इस भागके विषयमें भी विद्वन्मण्डल हमें अवश्य ही समुचित परामर्श प्रदान करेगा कि जिससे अगले भाग अधिकसे अधिक उत्तम बनाए जा सकें। प्रथम भागकी अपेक्षा इसमें कई विशेषताएं हैं जिनमेंसे मुख्य यह हैं(१) प्रत्येक प्रयोग जितने ग्रन्थोंमें मिलता है, लगभग उन सभीके नाम लिखे गए हैं। (२) शास्त्रीय मानके साथ ही साथ ओषधियोंकी वर्तमान तोल भी लिखी गई है। (३) प्रायः प्रयोगोंकी वर्तमान् कालोचित मात्रा और अनुपान लिखा गया है। आशा है यह सुधार पाठकोंको विशेष रुचिकर होगा। पहिले भागकी अपेक्षा इसमें कागज़ भी कहीं अधिक उत्तम लगाया गया है और उसको अपेक्षा पृष्ठ संख्या ड्योढी होनेपर भी मूल्यमें थोड़ी ही वृद्धि की गई है। ___ हमने यह कार्य किसी आर्थिक लाभकी आशासे नहीं अपितु आयुर्वेदकी सेवाके विचारसे ही हाथमें लिया है. इस लिए हम आशा करते हैं कि वैद्यसमाज इसके प्रचारमें हमें पूर्ण सहायता देगा। विनीतःनगीनदास छगनलाल शाह. गोपीनाथ. For Private And Personal Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमाणिका विषय, पृष्ठ. गकारादि कषाय प्रकरण १ गुटिका ,, गुग्गुलु १९० पाक विषय. पृष्ठ | विषय. चकारादि तैल प्रकरण १७३ आसव ,, ण ३१४ लेप , १८६ , अञ्जन ,, ३१४ , धूप , रस , ३१४ .. मिश्र ३१५ अञ्जन १९१ कप १९५ १९७ डकारादि रस प्रकरण मिश्र, २३६ तकारादि कषाय प्रकरण ३१७ लकारादिकषाय प्रकरण २३७ । . __, चूर्ण , २३९ गुटिका ,, २३९ गुग्गुल ,, , रस , २४० ३६३ ३१७ घृत तेल आसव चूर्ण , ३३२ धूप अञ्जन नस्य कल्प रस ന m0 നനെ ന ന ന + Vmmon ० ० ന ന ന ന मिश्र जकारादि कषाय प्रकरण २४१ अरित्र लेप धकारादि कषाय प्रकरण १३० गुटिका ,, अवलेह , ३८० ३८२ ३९० ३९० ३९५ ३९६ १३१ अञ्जन गुटिका, १३१ घृत नस्य , तैल Trurur , कल्प रस अरिष्ट سس വ WWW लेप मिश्र, لليل मिश्र धूप .११ धूम्र अञ्जन , नस्य , रस कल्प मिश्र, चकारादि कषाय प्रकरण १३४ चूर्ण १४१ , गुटिका ,, १५१ ,, लेह , १५८ , घृत , १६६ चिकित्सा पथप्रदर्शिनी । (रोगानुसारिणी सूची) ११ २७४ धातुशोधनमारण ५७६ ३०९ ओषधिकल्प ३१० मिश्राधिकारः ५७८ २७५ For Private And Personal Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शुद्धिपत्र م م م पृष्ठ कालम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कालम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २ २ १० कड़वी तूंबीके मुण्डीके पत्तोंके । ४९ १ ३ आधी बराबर ३ २ १२ नीलोफर फूलप्रियङ्ग ५२ २ २० खम्भारी श्योनाक ३ २ १५ कमलनाल भारङ्गी ५३ १ १३ (बनफशा) २ २७ कालेवासको कटसरैया को ५४ २ १ चेदेवं पचेदेवं ११ १ १८ १२९०५ ५५ १२८ चन्दन पिठवन, चन्दन १३ १ २७ कटैली कटाई ५६ १२५ द्राक्षास्थि द्राक्षास्थिरा १३ २ ८ (बनफशा ) ६२ २ ४ भुईआमला आमला ६५ १ २८ मालकंगनी गजपीपल १ २५ मेषपर्णी भेकपर्णी ६५ २ २८ भगन्दर शोथ, भगन्दर १८ १ २४ हंसराज हंसपादी ६९ १ २७ नागरमोथा । केवटीमोथा १८ २ २४ कचरेकी ककड़ीकी .७० १ ७ १२२४ १४२४ १२७ राल राल, धायके फूल ७२ १ २३ श्रीवास कमीला, श्रीवास २१ २ १८ धायके फूल धायके फूल, लोध | ७६ १ २२ चूर्णको चूंर्णकी बत्ती बना २३ २ ९ केसर केसर, अगर कर उसे २०४ १ २२ राल नेत्रबाला ७७ १ ६ पारद पारद,सुहागा,सुर्मा ३० १ १४ योनिमें शहद में मिलाकर ७७ १ १७ कनेर कोयल योनिमें ७८ १ १२ , ३० २ १२ ईखकी जड़ तालमखाना ७८ २ २ संभालु सहजने ३० २ २८ ( हारसिंगार ) ( गुडहर) ७८ २ ३ पत्तोंका फूलोंका ३१ २ १६ मिलाकर मिलाकर घी शहद | ८० १ १ कनेर कोयल के साथ ८३ २ १५ लोहभस्म । लोहभस्म,ताम्रभस्म २ ६ बहेड़ा ८५ २ २ बसलोचन श्वेत दूब ३४ १२४ वह्निजा वह्निजान् ८९ १ ४ दूध क्षारमें ३४ २ २५ जलके उष्ण जलके ८९ २ १४ हरताल मनसिल ३७ २ ( प्रयोगसंख्या १३१९ छूट ९० २ २५ अतिसारमें रक्तातिसारमें गया है) ९३ ११२ सेंधे समुद्र ४६ २ २१ गोखरु गोखरु,तालमखाना २५२१ ४८ २ १० आमला आमला, पीपल ९५ १ १३ १३२५ له .० ० १५२५ For Private And Personal Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पृष्ठ कालम पंकि ९६ १०० १.२ १०२ अशुद्ध शुद्ध १ प्रथमकी दो पंक्तियां इस प्रकार है तैलमें पिसा हुआ शुद्ध गन्धक खिलाएं और चिरचिटेके क्षारके पानी में गन्धक, तेल और स्वादमिर्च ९८ २ २६ क्षीरं ९९ क्षीरे १ २६ अग्नि जलाइये । २ पहर अनि जलाइये | १ १२ १४४१ १ ५ लीजिए १५४१ रख लीजिए १ २०.२११ भाग शुद्ध) ८भाग मीठे तेलिये मीठा तेलिया मिका काथ मिलाकर लाकर घोटिये ) पकाइये | १०३ २ १ कोयलों की बेके कायलोंकी १०५ १ २१ पीपल, जीरा १०५ २ १२ जायफल १०५ २ २६ दोनों को १०६ १२२ गिलोय १०७ २ १६ शङ्खमिमं १०८ १ ७ शंखभस्म १०८ १ १५ सबकेवरावर ११४ २ १४ दोनोंको ११५ १ १५ घोटकर ११५ २ ११ गोंद, ११७ १२० पौदीने के १२२ ४ शालिघान काला जीरा जावित्री तीनोंको www.kobatirth.org ताम्र भस्म गिलोय निर्भ सबसे दो गुनी तीनोंको ३ बार घोटकर गोंद, धनूग नाड़ीशाकक शालिशाक करञ्जकी गिरी १२२ २ २५ राल १२८ १ ४ वराहक्रान्ता असगन्ध १२८ २ ९ विदारीकन्द १२९ १ १९ कपायसे विदारीकन्द, अमगन्ध कषाय और अन्य कटु अम्ल, क्षार तथा तीक्ष्ण पदार्थों पृष्ठ कालम पंक्ति १३१ २ १० २६३५ १३२ २ २३ हल्दी १३५ १ ४ सफेद सारिवा १३६ १ ११ लालचन्दन १३६ २ ५ शतावर १३६ ૨ ७ मस्तिष्क की निर्बलता १३६ २ १८ नल १४६ २ १६ सौंठ १५३ २ ९ गजपीपल १६६ १७१ १७२ अशुद्ध १५४ २ ८ चिरायता, १५४ २ १२ ५५ माझे १५४ २ १४ २० माशे १५८ २ २१ कुड़ेकी छाल १६२ १ २४ भिलावे १२० ( बनफशा ) १ ३ सटी २ १९ १९८४ १८२ २ ९ और रम १८७ १८७ For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १ ११ १७२३ २ २३ नलद २ २७ करने से २ १६ ८ भाग २ १५ शुद्धसीसा २ १३ थाली ३ फिटकी १८९ १९० १९१ १९९ २०६ २ २.८ ११४ ६ सो. २१० १२३ भूधरयन्त्र में २१९ १ १७ रजं २२१ १ १८ गिरिकर्णिका २२४ १ १० गोंदनी के शुद्ध १६३५ पलि अभ्रककी भस्म कोयल लालचन्दन, खस मुलेठी शतावर मस्तिष्कका छोरा हो जाना खस गजपीपल, रास्ना चिरायता, गिलोय ३||| माझे १५ माझे देवदारु टोपी उतरे भिलावे ० हुवे खरी, तगर १७८४ और आक का दूध १८२३ खस करके धूप में बैठने से ९ भाग सुरमा, शुद्धसीसा जाली सौराष्ट्री २ तोल भूधरपुटमें रसं कोयल मोथेके Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पृष्ठ कालम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कालम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २२४ १ २८ रखकर चूनेके बीचमें रखकर | ३०२ १ २४ १ कालीमिर्च २१ काली मिर्च २३१ २ १३ पकाइये लोहपात्रमें पकाइये । ३०४ १ प्रयोग संख्या २१६८ के अर्थमे औषधों २३२ २ ७ १७३६ १९३६ के नाम छूट गए हैं जो इस प्रकार हैं२३३ १ १२ भेदन मेद स्याह मिर्च, सुहागा, शंखभस्म, पारा, २३४ २ ८ भांगेरकी गन्धक, शुद्ध ब्रह्मपुत्र विष । सब समान जड़के रस भारंगी के क्वाथ २३६ १ ९ त. ८१ ३०६ १ ११ तितली शंखिनी २४१ २ १६ चौलाई जलचौलाई ३०६ २२२ ४ भाग १ भाग २४२ १ ७ गुलसकरी गरहेड्डुवा ३०७ १ ६ १ भाग २ भाग २४५ १ ४ बांसेकीछाल से और बड़की छाल ३१३ १ १० कुटकी चन्दन, कुटकी २४७ १ ९ सुगन्धवाला चन्दन ३२० २ १ मजीठ लालचन्दन २५२ १ ६ मोथा तालीसपत्र, मोथा ३२४ १ ६ सोंठ आमला २५८ २ १ धनिया रसौत, धनिया ३३३ १ १६ चावलोंके साथ चावलोंके मांडके " " , वंसलोचन बंसलोचन और साथ गन्धशटा २६० २ १ १०३८ ३३४ ११६ हरताल २०३८ शिलारस ३३५ १ २६१ १ ५ काकजंधा गिलोय ३ चमेलीकीकली चमेलीकी कोपल ३३५ १ १६ जीवनीय गण काकाली २६५ १ ७ सफेदगुलाब चिरचिटा २७० २ ७ चीता बड़ी इन्द्रायन , १ १८ पटोलपत्र पित्तपापड़ा, पटोल २७० २ ८ शालाचावल कलमीधान , १ १९ फटकी सौराष्ट्री स्वरभ्रंशे २७२ १ ५ २ माम ३५३ १ ४ ज्वरभ्रंशे ६ मास करच २७६ ३६० १ १५ हल्दी २ १५ षष्ठी यष्टी २७६ २ २६ यन्त्रमें ३६२ पुटमें १ ८ सेर ४ २५ पल २८७ १ २० अजमोद गन्धक ३६५ १ २६ १ प्रस्थ ४ प्रस्थ २८० २ १९ नीलोत्पल ३७१ २ २१ शुकनासा २८१ २ १ जीवनीयगण काकोली ३८२ १ १६ सुरमा रसौत २८९ १२५ मालकंगनी . २४९२ २९१ २ १ ३ पहर १ दिन २९१ २ ४ देनेसे देनेसे ३ दिनमें ३८४ १ २५ फटकी सौराष्ट्री २९३ १२० रस रसे ३८६ १ १४ पीपल पिलखन २९३ १ २९ एक एक ३९४ १ १२ २७४३ भाग पाग और एक भाग ४०१ १ २२ १-१ दिन ३-३ दिन नोट-पाठाका अर्थ कई स्थानोमें जलजमनी लिखा गया है, वहां अम्बष्ठा समझना चाहिए । अरल For Private And Personal Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः द्वितीयो भागः श्री धन्वन्तरये नमः अथ मङ्गलाचरणम् धृतं विश्वं विश्वं नियमततिभिर्येन सुधिया; समग्रो सामग्री सकलसुखदात्री विहितवान् । रुजाक्रम्यन्ते वै खल स्खलितनियमा यस्य हि जनाः; अपायापायाद्वः सकलभुविभतो स हि पिता ॥ त्वत्कारुण्यकणैर्जनोपकरणैः कारुण्यरत्नाकर; रेखामात्रमपि स्खलेम न वयं, त्वीश त्वदीयात्पथः । येन स्याम सदैव नीरुजशरीरा ऋद्विमन्तो वयम् : दिव्यं कुर्म तथा सदा सुखमयं नो मानुषं जीवनम् ।। ० - ० 0 अथ गकारादि कषायप्रकरणम् (दृष्टव्य-कषाय प्रयोगों में जिन ओषधियोंकी मात्रा न लिखी हो वह सब समान भाग मिलाकर, २ तोले लीजिए और आधा सेर पानीमें पकाकर आध पाय शेष रहने पर छान लीजिए। विशेष व्याख्याके लिए भा. भै. र. प्रथम भाग पृ. १ अवलोकन कीजिए ।) For Private And Personal Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि (११०८)गङ्गाधरकाथ: (भा.प्र.,ग.नि.।अति०।)(१११३) अलम्बुपादलोद्भूतात्स्वरसावेपलेकश्चटदाडिमजम्बूशनाटकपत्रबहिष्ठम् ।। पिबेत् जलधरनागरसहितं गड़ामपि वेगवाहिनीं । अपच्चागण्डमालायाःकामलायाश्च नाशन: रुन्ध्यात ॥ बरनेकी जड़की छाल के काथमें शहद डालकर चौलाई, अनार, जामुन और सिंपाईके पत्ते अनेक बार ( बहुत समय तक ) सेवन करनेसे पुरानी तथा नेत्रबाला, नागरमोथा और सोएका काथ सेवन गण्डमाला भी शीघ्र नष्ट होजाती है । करनेसे गङ्गाके समान वेगवान् अतिसार गी रुक कचनारकी १ पल (५ तो०) अथवा अर्द्धपल जाता है। • छालको चावलों के पानीमें पीसकर सेवा करनेसे (११०९)गङ्गावतीमूलयोगः(बृ. मा.। अम०) गण्डमालाका नाश होता है। गङ्गावल्या मूलं कथितं घृततैलसैन्धवै मिश्रम् । मूत्रमतिरुद्रं वेगात्पपीतमात्र प्रवर्तयति ॥ कड़वी तूंबीके २ पल (१० तोले) स्वरसको गङ्गावतीकी जड़के काथमें घृत, तैल और (नित्य प्रति) पीनेसे अप ची, गण्डमाला और कामसेंधा नमक मिलाकर पीनेसे रुद्ध (रुका हुवा) मूत्र | लाका नाश होता है। तुरन्त आ जाता है। गन्धर्वतैलसिद्धहरीतकी (बं. से. । श्ली. चि०) (१११०)गजपिप्पल्यादि काथः (रा.मा.वा.रो.) (५७८ संख्यक प्रयोग अवलोकन कीजिए) मातङ्गपिप्पलीवारिलोध्रधातकीश्रीफलैः।। गन्धर्वादि काथ: (बं. से. । वा. र.) सर्वातिसारहृत्काथः शिशोस्तच्चूर्णमेव वा॥ (संख्या ५४६ “एरण्डादि" अवलोकन कीजिए) ___ गजपीपल, नेत्रवाला, लोध, धायके फूल और (१११४) गम्भारिकादुग्धः (यो. र. । शी. पि.) वेटगिरीका काथ अथवा चूर्ण, बालकों के समस्त गम्भारिकाफलं पक्वं शुष्कमुत्स्वेदितं पुनः । प्रकारके अतिसारोंका नाश करता है। | क्षीरेण शीतपित्तघ्नं खादितं पथ्यसेविना ॥ - (प्रयोग विधिः .-आठ, दस वर्ष तक के बाल ___ गम्भारीके पके और शुष्क फोको दुग्धमें कोंको आधेसे एक माशे तक चूर्ण प्रातः सायं शरबत पकाकर सेवन करने तथा पत्र्यपूर्वक रहनेसे शीतपित्त रोग नष्ट होता है। हब्बुलास या शहदमें मिलाकर चटाना चाहिए ।) (१११५) गरुडीमलयोगः--- (११११) गण्डमालाहरकषायाः (रा. मा.। अ. मा. अ. २८, ग. नि. । सर्प. चि.) (बृ. यो. त.। त. १०८; यो. त. । त. ५) पुष्यनिपीतं गरुडीसमुत्थं मूलं नृणां पन्नगदंशमाक्षिकाव्यः सकृत्पीत काथो वरुणमलजः।। भीतिम् । गण्डमालां निहन्त्याशु चिरकालानुवन्धिनीम् ।। संवत्सरार्ध हरति प्रसह्य का वृश्चिकाद्यैर्गणनैव तेषां॥ (१११२)पलमर्धपलं वापि पिष्ट्वा तण्डुलवारिणा। नस्याञ्जनालेपनपानयोगैर्भुजङ्गदष्टस्य विषंनिहन्ति। काञ्चनारत्वचं पीत्वा गण्डमालां व्यपोहति मूलं गरुड्याः परिघृष्यमाणं' न श्यामलत्वं पतिप यते चेत् ॥ For Private And Personal Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३] गिलोयकी जड़को पुष्य नक्षत्रमें उखाड़ कर गर्भिणी द्वादशेमासि पिबेच्छलनमौषधम् ॥ (पीसकर) पीनेसे ६ मास तक सर्पदंशका भय नहीं एवमाप्यायते गर्भस्तीबारुकचोपशाम्यति ॥ रहता फिर बिच्छू आदि तो हैं ही किस गणनामें । निम्नलिखित १२ प्रयोगोंसे सिद्ध दुग्ध क्रमशः ___ यदि सर्प काटनेके पश्चात् शरीर श्यामवर्ण । पहिले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें छठे, सातवें न हो गया हो तो गिलोयकी जड़को धिसकर नस्य आठवें, नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें मासमें लेने, अञ्जन लगाने, लेप करने और पीनेसे विष नष्ट होने वाले गर्भस्राव, गर्भपात और गर्भिणीके शूलको हो जाता है। । शान्त, एवं गर्भको पुष्ट करता है(१११६ २७) गर्भरक्षका योगाः (१) मुलेठी, सागोनके बीज, क्षीरकाकोली (यो. र.। यो. रो.; यो. त. । त. ७५) और देवदारु । (१) मधुकं शाकबीजञ्च पयस्यां सुरदारु च। (२) पत्थरचटा, काले तिल, मजीठ और (२) अश्मन्तकः कृष्णतिलास्ताम्रवल्ली शतावरी।। शतावर । (३) वृक्षादनी पयस्यां चलता चोत्पलसारिवा। (३) बन्दा, क्षीरकाकोली, नीलोफर और (४) अनन्ता सारिवा रास्ता पमा मधुकमेव च ॥ सारिवा । (५) वृहतीद्वय काश्मर्यक्षीरिभृङ्गास्त्वचो घृतम् । (४) अनन्तगूल, सारिवा, रास्ना (रायसनाय ), (६) पृश्निपर्णी बलाशिनःश्वदंशामधुपर्णिका॥ पद्मा (मजीठ या कमलनाल) और मुलैठी। (७) शृङ्गाटकं विसं द्राक्षा कसेरु मध सिता। (५) कटेली, कटेला, खम्भारीकी छाल (वा सप्तैतान्पयसायोगानर्धश्लोकसमापितान् ॥ फल ), क्षीरकाकोली, भंगरा, दारचीनी और धी। क्रमात्सप्तसु मासेषु गर्भे स्रवति योजयेत। (६) पृष्ठपर्णी (कबरा), खरैटी, सहजनेकी (८) कपित्थ बिल्ववृहतीपटोलेक्षुनिदिग्धिजैः॥ छाल, गोखरु और खम्भारी ( अथवा गिलोय )। . . (७) सिंघाड़ा, कमलनाल, मुनका, कसेरु, ____ मूलैः शृतं प्रयुञ्जीत क्षीरं मासे तथाऽटमे। - मुलैठी और मिश्री। (९) नवमे मधुकानन्तापयस्थासारिवाःपियेत् ॥ सारिखापत् ।। (८) कैथकी छाल, बेलगिरी, कटेला, पटोल(१०)क्षीरं शुण्ठीपयस्याभ्यां सिद्धंस्थादशमेहितम्। पत्र, इखकी जड़ और कटेलीकी जड़। सक्षीरावा हिता शुण्ठी मधुकं सुरदारु च ॥ (९) मुलैठी, अनन्तमूल, क्षीरकाकोली और (११)क्षीरिकामुत्पलं दुग्धं समझामूलकं शिवाम्। सारिवा । पिबेदेकादशे मासि गर्भिणी शूलशान्तये॥ (१०) सांड और क्षीरकाकोली । अथवा सोंठ, (१२)सिताविदारिकाकोलीक्षीरिकाश्चमृणालिकाः। मुलैठी और देवदारु ।। (पिछले पृष्ठका नोट) १ परिपीयमानमिति पाठभेदः । २ पयसेति पाठान्तरम् । ३ वयस्यति पाठान्तरम्। ४ कृष्णति पाठान्तरम् । ५ शृङ्गेति च पाठः। For Private And Personal Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra और सोंठ | [ ४ ] (११) क्षीरकाकोली, नीलोफर, मजीठकी जड़, www.kobatirth.org भारत 1- भैषज्य ( १९२८ - ३५) गर्भरक्षका योगाः (यो. र. । योनि ० ) २ - प्रयोगकी सब ओषधियां समान भाग मिलाकर २ तोले लीजिए और उसमें १६ तोले दूध तथा ६४ तो० पानी मिलाकर दुग्ध शेष रहने तक पकाइये | ) (१२) मिश्री, बिदारीकन्द, काकोली, क्षीरकाकोली और कमलनाल । द्वितीये मासि गर्भस्य चलनश्च भवेद्यदि । पयसा च तदा पेयं मृणालं नागकेशरंम् ॥ तगरं कमलं बिल्वं कर्पूरेण समन्वितम् । (प्र० वि०-१-घृत अथवा मिश्रीको पीनेके अजाक्षीरेण तत्पिष्ट्वा क्षीरेणाऽऽलोड्य पूर्ववत् ॥ समय मिलाना चाहिए । (१) चलनं प्रथमे मासि गर्भस्थ यदि जायते । औषधञ्च तदा देयं विचक्षण भिषग्वरैः ॥ मृद्वीका ज्येष्ठका चैव चन्दनं रक्तचन्दनम् । गवाश्च पयसा पेयं स्थिरता जायते ध्रुवम् ॥ नीलोत्पलं सबालञ्च शृङ्गाटश्च कसेरुकम् । शीततोयेन विष्ट्वा तु क्षीरेणाऽलोडच तत्पिवेत् ॥ एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति ॥ - रत्नाकरः यदि प्रथम मास में गर्भस्राव होता हो तो चतुर चिकित्सकको चाहिए कि-गर्भिणीको-मुनक्का, मुलैठी, सफेद चन्दन, और लाल चन्दन को गोदुग्धमें पकाकर पिलाए। इससे अवश्य ही गर्भ स्थिर हो जाता है। अथवा नीलोफर, नेत्रवाला, सिंघाड़ा और कसेरुको शीतल जलमें पीसकर, दूधमें मिला कर पीने से भी गर्भस्राव और गर्भिणीका शूल रुक है। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि यदि दूसरे मास में गर्भस्त्राव होता हो तो कमलनाल और नागकेसरको दूधमें पीसकर अथवा तगर, कमल, बेलगिरी और कपूरको बकरीके दूध में पीसकर और फिर (गो) दुग्धमें मिलाकर पीना चाहिए । (३) तृतीये मासि चलनं जायते गर्भजं यदि । पसाssलोडितं पेयं शर्करानाग केशरम् ॥ पद्मकं चन्दनं चैव बालकं पद्मनालकम् । पिष्ट्वा शीतेन तोयेन क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिवेत् ।। एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति ।। यदि तीसरे मास में गर्भस्त्राव होता हो तो मिश्री और नागकेशरको दूधमें पीसकर पिलाना चाहिए अथवा – पद्माख, लाल चन्दन, नेत्रबाला और पद्मनालको ठण्डे पानी में पीसकर दूध में मिलाकर पीनेसे भी गर्भस्राव और गर्भिणीका शूल शान्त होता है । For Private And Personal (४) यदिगर्भस्य चलनं चतुर्थे मासि जायते । तृष्णाशूल विदाहैश्च ज्वरेण च निपीडनम् ॥ क्षीरच कदलीमूलमुत्पलं बालकं तथा । आलोड्य समभागेन पिबेद्रोगोपशान्तये || Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [५] यदि चतुर्थ मासमें गर्भस्राव होता हो या गर्भिणी को तृष्णा, शूल, दाह और ज्वर हो जाय तो | सप्तमे मासि गर्भस्य चलनं जायते यदा। केलेकी जड़, नीलोफर और नेत्रबाला समान भाग | उशीरं गोक्षुरघनः समगा नागकेशरम् ॥ लेकर दूधमें पीसकर पिलाना चाहिए। सपद्मकं समधुना पाययेच्च विचक्षणः॥ . यदि सातवें मासमें गर्भपातका भय हो तो खस, गोखरू, नागरमोथा, मजीठ, नागकेशर और पञ्चमे मासि गर्भस्य चलनं कुत्रचिद्भवेत् ।। | पद्माखके चूर्ण ( अथवा कल्क ) को शहदमें मिलादना च मधुना पेयं दाडिमीपत्रचन्दनम् ॥ कर पिलाना चाहिए। नीलोत्पलं मृणालश्च कौन्ती क्षीरी तथैव च । केशरं पद्मकं चैव तोयेनाऽऽलोडय तत्पिबेत् ॥ एवं न पतते गर्भः स च शूल: प्रशाम्यति ॥ अष्टमे मासि चलनं गर्भस्थ यदि जायते । लोध्रमागधिकाचूर्ण मधुना पयसा पिबेत् ॥ यदि पांचवे मासमें गर्भपातका भय हो तो नवमे सुप्रसूतिः स्यादेवं गर्भस्य पोषणम् ॥ अनारके पत्ते और लाल चन्दनको पीस कर दही आठवें मासमें गर्भपात होता हो तो लोध और शहदमें मिलाकर सेवन कराना चाहिए। अथवा नीलोफर, कमलनाल, रेणुकाबीज, बिदारीकन्द, नाग और पीपलके चूर्णको शहद और दूधमें मिलाकर केशर और पद्माख को जलमें पीसकर पिलानेसे भी पिलाना चाहिए। इस प्रकार गर्भपोषण होकर नवम मासमें भली भांति प्रसव हो जाता है। गर्भपात रुक जाता है और गर्भिणीसा शूल शान्त होता है। । (११३६-५३ ) गर्भिणीशूलहरोपायाः (भै. र. । स्त्री. रो.) षष्ठे मासि तु गर्भस्य चलता जायते यदा। । प्रथमे मासि गर्भ तु यदा भवति वेदना। गैरिका गोमयं भस्म कृष्णा मृत्स्ना तथैव च ॥ चन्दनं शतपुष्पा च शर्करा मदयन्तिका ॥ एतेषां साधितं प्राज्ञभिषजा चामृतं तदा। एतानि समभागानि पिष्ट्या तण्डुलवारिणा । पेय शीतं परं साकं सितया चन्दनेन च ॥ पाययेत् पयसालोडय गर्भिणी मात्रया भिषक्॥ ___ यदि छठे मासमें गर्भपातकी आशङ्का हो तो | तथा तिलान् पकञ्च शालूकं शालितण्डुलान् । सोनागेरू, गोमय भस्म ( गायके गोबर की राख ) क्षीरेण पिष्ट्वा क्षीरेण सिताक्षौद्रान्वितेन च ॥ और काली मिट्टीसे सिद-जलमें मिश्री और चन्दन | आलोडव्य पाययेनारी ततः सम्पयते शुभम् । का चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिए। । तस्मिन्सुजीर्णे दातव्यं भोजनं क्षीरसंयुतम् ॥ . १ देयमिति साधुः। For Private And Personal Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि यदि गर्भिणीको प्रथम मासमें पीड़ा ( शूल) गर्भिगीको तीसरे मासमें गर्भशूल होनेपर, हो तो--लाल चन्दन, सौंफ, खांड (मिश्री), और क्षीरकाकोली, काकोली, और आमलेको उष्ण जलमें मोगरा (पुष्प विशेष ) समान भाग लेकर तण्डुल पीसकर पिलाना और औषध पचनेपर दुग्ध मिश्रित जलसे. पीसकर और दूधमें मिलाकर यथोचित् भात खिलाना चाहिए। मात्रानुसार पिलाना चाहिए । अथवा-तिल, पनाख, अथवा–कमल, नीलोफर, कूठ, कमलनाल कमलनाल और शालि तण्डुल (बासमती या साठीके और मिश्रीको जलमें पीसकर दूधमें मिलाकर पीनेसे चावल ) समान भाग लेकर दूधसे पीसकर और शूल शान्त होता है, और गर्भ व्यथित नहीं होता। दूधमें ही मिलाकर मिश्री तथा शहद डालकर (४) पीनेसे भी लाभ होता है। चतुर्थे तु विधानज्ञ पाययेदिदमौषधम् । औषधके भली भांति पच जाने पर क्षीरयुक्त पिष्ट्वोत्पलश्च शालूकं कण्टकारी त्रिकण्टकम् ।। आहार देना चाहिए। नोट तण्डुल जलविनि,' प्रथम भागके यथाग्निमात्रया काले गर्भिणी पयसा सह । परिशिष्टमें देखिए । . तथा गोक्षुरकसिंहीं बालकं नीलमुत्पलम् ।। पिष्ट्वा क्षीरेण पातव्यं गर्भशूलनिवारणम् ।। द्वितीये मासि गर्भे तु यदा भवति वेदना । गर्भिगीको चतुर्थ मासमें पीड़ा होने लगे तो तदोत्पलस्थ कलकन्तु शृङ्गाटककसेरुकम्॥ नीलोफर, कमलनाल, कटेली और गोखरुको दृधमें तण्डुलोदकपिष्टन्तु पाययेत्तण्डुलाम्बुना। पीसकर अग्निबलानुसार पिलाना चाहिए। निवार्य गर्भशूलश्च स्थिरं गर्भ करोति च ॥ अथवा-गोखरु, कटेली, नेत्रबाला और नीलो ___ यदि गर्भके दूसरे मासमें गर्भिणीको पीड़ा फरको दृधमें पीसकर पिलाना चाहिए। होने लगे तो नीलोफर, सिंघाड़ा और कसेरुको तण्डुल-जलमें पीसकर तण्डुल जल (चावलों के पश्चमे मासि गर्भे तु यदा भवति वेदना। पानी धोबन-) के साथ ही पिलानेसे गर्भशूल नष्ट होकर गर्भ स्थिर हो जाता है। तत्र नीलोत्पलं वीरां पिष्ट्वा क्षीरेण पाचनम् ॥ घृतक्षौद्रान्वितं पीत्वा गर्भस्य च रुजां हरेत् । ततीये श्रीरकाकोली काकोल्यामलकीफलम। तथा नीलोत्पलं नारी काकोली समभागिकम् ॥ पिनमगोदकेनैतत्पाययेत गर्भिणी भिषक ॥ शीततोयेन पिष्ट्वा च क्षीरेणालोडय पाययेत । शाल्यानं पयसा जीर्णे भोजयेदनु गर्भिणीम्। अनेन विधिना गर्भस्थिरः स्याद्वक् प्रशाम्यति ॥ तथा पमोत्पलं कुष्ठं शालूकश्च समांशिकम् ॥ गर्भिणीको पांचवे महीनेमें शूल उत्पन्न हो तो सितोदकेन पिष्वा तु क्षीरेणालोडय पाययेत्। नीलोफर और खसको दृधमें पकाकर और उसमें तेन शूलं निवर्तत न गर्भो व्यथते ध्रुवम् ॥ . घृत तथा शहद मिलाकर पिलाना चाहिए। For Private And Personal Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। अथवा-नीलोफर और काकोलीको शीतल कैथ और सुपारीकी जड़ (जड़की छाल) और जलसे पीसकर दूधमें मिलाकर पिलाना चाहिए। .खीलोंको शीतल जलसे पीस, दूधमें मिलाकर और इल प्रयोगोंसे गर्भिणीका शूल शान्त, और खांडसे मीठा करके पिलाना चाहिए । गर्भ स्थिर होता है। इससे गर्भविकारज शूल शीघ्र ही शान्त हो जाता है। (प्र. वि... शहद इतना डालना चाहिए कि दूध मीठा हो जाय । द्वितीय प्रयोगमें दूधको । मिश्रीसे मीठा कर लेना चाहिए ।) अमे तु यदा मासि गर्भ भवति वेदना । तदा पिष्वा तु धन्याकं पाययेत्तण्डुलाम्बुना ॥ षष्ठे मासि यदा गर्भ वेदना जायते तथा। शूलं निवर्तते तेन गर्भः सन्धार्यते स्त्रिया । मातुलुङ्गस्थ बीजानि प्रियङ्गचन्दनोत्पलम् ॥ एवंपलाशस्पदलंसुपिउंसपीय तोयेन सुशीतलेन।। क्षीरेणालोड्य पातव्यं गर्भशूलनिवारणम्। अत्यन्त घोराष्टममासगर्भव्यथातुरा यान्ति तथा प्रियालबीजानि मृद्वीकालाजसक्तवः ॥ सुखं तरुण्यः॥ एतत्सुशीतलं काले पीत्वा च सुखमश्नुते ॥ यदि गर्भिगीको अष्टम मासमें पीड़ा उत्पन्न हो यदि षष्ठ मासमें गर्भिणीको पीडा उत्पन्न हो तो चावलोंके पानीमें धनिया पीस कर पिलाना तो निम्नलिखित दो प्रयोगोंमेंसे कोई एक सेवन चाहिए । अथवा शीतल जलके साथ ढाक (पलाश) कराना चाहिए। के पत्ते पीस कर पीनेसे भी अष्टम मासमें होने वाली (१) मातुलुङ्ग (बिजौरे) नीबूके बीज, फूल अत्यन्त भयङ्कर गर्भव्यथा शान्त हो जाती है। प्रियङ्गु, लाल चन्दन और नीलोफरको दुध पीसकर पिलावें। गर्भिण्या नवमे मासि यदा भवति वेदना । (२) पियाल बीज (चिरौंजी ), मुनक्का, और एरण्डमूलं काकोलीं पिष्ट्वा शीतोदकेन च ।। खीलोंके सतूको शीतल जलमें मिलाकर यथा समय पिलाना चाहिए। पीत्वा शूलाद्विमुच्यते तदा नारी न संशयः । तथा पलाश बीजश्च सकाकोलीकुरण्टकम् ।। सप्तमे शतपुत्रीश्च मृणालसहितां पिबेत् । भक्तेन बारिणा पिष्ट्वा गर्भशूलं व्यपोहति ॥ पिटाक्षीरेण शुला गर्भिणी या सुखार्थिनी॥ नवम मासमें गर्भिगीको वेदना होने पर अरकपित्थक्रमुकान्मूलं सलाजं शर्करायुतम् । • ण्डमूल, और काकोलीको शीतल जलसे पीसकर शीततोयेन संपिट क्षीरेणालोडय पाययेत॥ (पानीके साथ) पिलानेसे अवश्य लाभ होता है । पीत्वा हन्त्य(?) बला शीघ्रं शूलं गर्भसमुद्भवम्॥ अथवा----ढाकके बीज (ढक पन्ने), काकोली ___ सप्तम मासमें गर्भिगीको शूल-शान्तिके लिए और काले बासेको चावलोंके पानीके साथ पीसकर शतावर और कमलनालको दूधमें पीसकर, अथवा- पीनेसे भी गर्भशूल शान्त होता है । For Private And Personal Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि -. तलवार इत्यादि शस्त्रोंसे उत्पन्न घावमें तुरन्त ही अथवा दशमे मासि वेदना जायते यदा।। गेंगेरनकी जडका स्वरस भर देनेसे वेदना शान्त तदा नीलोत्पलं यष्टीमधुकं मुद्गसंयुतम् ॥ हो जाती है। ससितं चाम्भसा पिटवा क्षीरेणालोड्य पाययेत्। (११५६) गायत्र्यादिकाथ: (भा.प्र.। वि. चि.) दोषश्च नाशयेदेष शूलं गर्भसमुद्भवम् ।। गायत्री त्रिफला निम्बाकटुका मधुकं समम् । __ दशम मासमें गर्भशूल शान्ति के लिए नीलोफर, त्रिवृत्पटोलमूलाभ्यां चत्वारोंशाः पृथक् पृथक्॥ मनूरान्निस्तुपान्दद्यादेष काथो ब्रणाञ्जयेत । मुलैठी, मूंग और मिश्रीको पानीसे पीस कर दूधमें विद्रधिगुल्मवीसर्पदाहमोहज्वरा पहः॥ मिलाकर पिलाना चाहिए। त्रिण्मूच्छच्छिर्दिहृद्रोगपित्तासृक् कुष्ठकामला ॥ - खैरसार, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) नीमकी तथा चैकादशे मासि गर्भ भवति वेदना । छाल, कुटकी और मुलहटी प्रत्येक एक एक भाग मधुकं पद्मकञ्चैव मृणालं नीलमुत्पलम् ॥ तथा निसोथ और पटोलको जड़ एवं तुष (छिलके) शीततोयेन पिठ्या तुक्षीरेणालोडय पाययेत् ॥ रहित मसूर चार चार भाग लेकर काथ बनाएं । ___ एकादश (११ वे) मासमें गर्भशूल शान्तिके यह काथ ब्रण, विद्रधि, गुल्म, विसर्प, दाह, मोह, लिए मुलैठी, पनाक, कमलनाल और नीलोफरको । ज्वर, पिपासा, मूर्छा, वमन, हृद्रोग, रक्तपित्त, कुष्ट शीतल जलसे पीसकर दूधमें मिलाकर पिलाना चाहिए। (प्र. वि. दूधको मीठा करनेके लिए मिश्री | (११५७) गायत्र्यादि काथः (वृ.नि.र. । ज्व. चि.) मिलाई जा सकती है।) . गायत्रीत्रिफलानिम्बपटोलीबासकामृता। (११५४) गवाक्षीकल्कः (ब. से.. ग. नि. । उ.रो.) । काथोमधुधृताभ्यांश्च रक्तदोषेति शस्थते ॥ गवाक्षीशविनीदन्तीनीलिनीकल्कसंयुतम् ।। खैरसार, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) नीमकी सर्वोदरविनाशाय गोमूत्रपानमाचरेत् ॥ छाल, पटोलपत्र, बाँसा (अडूसा) और गिलोय के काथमें शहद और धीका प्रक्षेप देकर पीना रक्त इन्द्राथन, शङ्खपुष्पी, दन्ती और नीलिनी, के विकारों के लिए अत्यन्त हितकर है। (प्र. वि.-शहद कल्कको गोमूत्रमें मिलाकर पीनेसे सर्व प्रकारके और घी एक एक तोला मिलाने चाहिएँ और शहद उदरविकार नष्ट होते हैं। उस समय मिलाना चाहिए कि जब कषाय विल्कुल (११५५) गाङ्गेरुकीस्वरसः ठण्डा हो जाय ।) (शा. ध. । खं. २ अ. १) (११५८)गिरिकर्णिकामूलयोगः (ग. नि.। ग्रन्ध्य) खड्डादिछिन्नगात्रस्य तत्कालपूरितो ब्रणः। प्रातः पिवेच्छिपां पिष्ट्वा गण्डमालां व्यपोहति । गानेरुकीमूलरसैर्जायते गतवेदनः॥ गिरिकाः सितायास्तु घृतेन परिमिश्रिताम्॥ १ नीलितिल्वकेति पाठभेदः और कामलाका नाश करता For Private And Personal Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [९] गिरिकर्णिका ( कोयल ) की जड़को पीस कर (११६१) गुडाईकयोगः (ग. नि. । अर्श० ) उसमें मिश्री और घृत मिलाकर प्रातःकाल सेवन गुडाकं भक्षयित्वा मदिरातर्पणं पिषेत् । करनेसे गण्डमालाका नाश होता है (प्र. वि. कोयट सस्नेहै : सतभिर्युक्तं बद्धविटगुदजातुरः।। की जड़ ६ मा० मिश्री ६ मा० और धी १ तोला अद्रक और गुडको मिलाकर मदिरा और सत्तु लेना चाहिए।) से निर्मित धृतयुक्त तर्पगके साथ सेवन करनेसे (११५९)गिरिमलिकायंक्षीरम (वं.से. अति.) बवासीर रोगमें होनेवाला कब्ज नष्ट होता है। निकायमूलममलं गिरिमल्लिकायाः (११६२-६४) गुडाईकाद्यास्त्रयो योगाः सम्पफलं द्वितयमम्बु चतु शरावे । (ग. नि. । शोफ०) नत्पादशेषसलिलं खलु शोषणीयं गुडाईकं वाऽथ सदारुविश्वं क्षीरे पलद्वयमिते कुशलैरजायाः॥ ___ सनागरं वाऽथ किराततिक्तम् । प्रक्षिप्य माषकानष्टौ मधुनस्तत्र शीतले। योगत्रयं श्रेष्ठतमं पदिष्ट रक्तातिसारी तत्पीत्वा नैरुज्यमिह विन्दति ।। मित्यौषधं शोफहरं नराणाम् ।। ___ कुड़ेकी जड़की छाल और द्वितीय त्रिफला सूजनको नष्ट करनेके लिए ( १ ) गुड़ और (खम्भारी, फालसा, और मुनका) १---१ पल (सब अद्रक (२) देवदारु और सोंठ तथा (३) सोंठ और मिलाकर ४ पल) लेकर कूटकर ३२ पल पानी में चिरायता; यह तीन प्रयोग अत्युत्तम हैं । पकाएं. और चौथा भाग जल शेष रहने पर छानलें। ( ११६५) गुडूचिकादि काथः । तत्पश्चात उसमें २ पल बकरीका दूध डाल कर (हा. सं. । स्था. ३ अ. २) पुनः पकाएं, जब समस्त काथ जल जाए तो उतार गुडूचिका निम्बदलानि शुण्ठी कर ठण्डा करके उसमें ८ माशे शहद मिलाकर पिएं। मुस्तश्च कुस्तुम्बरु चन्दनानि । इससे रक्तातिसार नष्ट होता है। काथं विदध्यात्कफपित्तवात ज्वरं निहन्याच्च गुडूचिकाय ।। गिरिमालापञ्चककषायः (ग.नि. । ज्व. चि.) प.) एष सर्वज्वरान्हन्ति हल्लासाधानरोचकान्। ( आरग्वधादि कवाय देखिए।) प्रतिश्यायपिपासानः शोषदाहनिवारणः॥ (११६०) गुडदुग्धयोगः (यो.र.। मू. कृ. चि.) गिलोय, नीमके पत्ते, सोंठ, नागरमोथा, कुस्तुगुडेन मिश्रितं दुग्धं कदुष्णं कामतः पिबेत् । बरु (नैपाली धनिया) और लाल चन्दनका काथ मूत्रकृ षु सर्वेषु शर्करावातरोगनुत् ॥ सेवन करनेसे वातज, पित्तज और कफज इत्यादि किश्चित् उ०॥ दुग्धको गुड़से मीठा करके सर्व प्रकारके ज्वर, हृल्लास (उबकाइ, जी मचलाना) यथेच्छ मात्रामें पीनेसे सब प्रकारके मूत्रकृच्छ्, शर्करा अरुचि, जुकाम, पिपासा, शोष और दाह आदि (ग) और वातरोगों (उष्ण वात) का नाश होता है।। रोग नष्ट होते हैं । भा. २ For Private And Personal Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [गकारादि (११६६) गुडूचीकाथः (वै. जो । वि० ३) । गुहच्या रचितं हन्ति हिमं मधुसमन्वितम्। विलासिनी विलासेन विलासिहृदयं यथा । दुनिवारामपि छदि त्रिदोषजनिता बलात् ।। तथा गुडूची विश्वेन हरेदामसमीरणम् ।। गिलोय के हिममें शहद मिलाकर पीनेसे त्रिदोष जिस प्रकार विलासिनी, बिलाससे विलासी जनित. कष्टसाध्य छति ( वमन ) भी अवस्य नष्ट पुरुषका हृदय हर लेती है उसी प्रकार शुण्ठि- हो जाती है । चूर्णयुक्त गुडुची काथ आमवातको हर लेता है। (प्र. वि० हिम ( खेसान्दा ) बनानेकी विधि ( ११६७ ) गुडूचीस्वरमः । बं. से. । ज्व. प्रथम भागमें देखिए । इसकी मात्रा साधारणतः ५ तोलेसे १० तोले तककी है । शहद सया पिप्पलीमधुसम्मिश्रं गुडूचीस्वरसं पिवेत् ।। | तोलेसे २॥ तो० तक मिलाया जा सकता है । जीर्णज्वरकफप्लीहकासारोचकनाशनम् ॥ गिलोयके स्वरसमें पीपलका चूर्ण और शहद (११७१ ) गुडूच्यनुपानम् (भा. प्र. | म. ग्व. वा. र.) मिलाकर पीनेसे जीर्णज्वर, कफ.प्लीह रोग [ तिल्ली ] घृतेन वातं सगुडा विवन्धं खांसी और अरुचि का नाश होता है। प्र वि०-पीपल का चूर्ण १ माशा और पित्तं सिताढया मधुना कफश्च । वातासगुग्रं रुधुतैलमिश्रा शहद कायका चतुर्थांश मिलाना चाहिए । शुण्ठ्यामवातं शमयेद् गुडूची। (११६८ ) गुडूचीस्वरसः (वं. सेन । प्र. अ.) गिलोय, क्रमशः घृत, गुड़, मिश्री, शहद. गच्या स्वरसः पेयो मधुना सह मेह जित् । एरण्ड तेल और शुण्ठिके साथ सेवन करनेसे यथा(दो तोले ) गिलोयके स्वरसमें (६ मा.) । क्रम. बायु, मलावरोध, पित्त, कफ प्रबल वातरक्त शहद डालकर सेवन करनेसे प्रमेह रोग नए और आमवातका नाश करती है । होता है। ( ११७२ ) गुडूच्यादि कल्कः (वं. से. । इली.) ( ११६५ ) गुडूची स्वरसादि प्रयोगः । पिधेदेवं गुहूची या नागरं भद्रदारु य । (३. मा। बा. र.), पिबेत्सर्पपनैलेन उलीपदानां निवृत्तये ।। गुडूच्या स्वरसं कल्कं चूर्ण वा काथमेव वा। दीपदकी निवृत्ति के लिए गिलोय, अथवा प्रभूतकालमासेव्यं मुच्यते वातशोणितात् ।। मोट और देवदारुक कन्कको सरसों के तेल में गिला गिलोयका स्वरस. क क अथवा चूर्ण, वा काथ कर सेवन करना चाहिए । दीर्घ काल तक सेवन करनेमे वातरकका नाग ( ११७३ ) गुडूच्यादि क्वाथः । होता है। ( भा. प० । छर्दि, बं० से ० । अ. पि.) (११७० ) गुडूची हिमः । गुडूचीत्रिफलानिम्बपटोलेः कथितं जलम् । ( भा. ५.. . . । छर्दि०) पिधेन्मधुयुतं तेन छर्दिर्नश्यति पित्तजा ।। For Private And Personal Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । कषायप्रकरणम् ] गिलोय, त्रिफला [ हैड़, बहेड़ा, आमला ], नीम की छाल, और पटोलपत्र के काथमें [ आठवां भाग ] शहद मिलाकर पीने से पित्तज छर्दि [वगन) होती है। ( यही काथ बंगसेनके मतानुसार अम्लपित्त तथा पित्तरोग नाशक है । ) । (११७४ ) गुडूच्यादि काथः (ग.नि. । ज्य. चि.) गडूच्यतिविषाधान्यशुण्डि बिल्वान्दवालकैः पाठाभूनिम्बकुटजचन्दनोशीर पद्मकैः 0 कषायः शीतलः पेयो ज्वरातिसारशान्तये । हल्लासारोचकच्छर्दिपिपासादाहनाशनः ॥ गिलोय, अतीस, धनिया, सांठ, बेलगिरी, नागरमोथा, नेत्रबाला, पाठा ( जलजमनी) चिरायता, कुड़ेकी छाल, लाल चन्दन, खुस और पद्माखका शीत कषाय' सेवन करने से ज्वरातिसार, हल्लास [ उबकाई - बमनेच्छा ] अरुचि, वमन, पिपासा और दहका नाश होता है । (१२७५ ) गुडूच्यादि काथः (बृ. नि. र. । वा० २० ) गुडूची वाकुची चक्रमर्दश्च पिचुमन्दकः । हरीतकी हरिद्रा च धात्री वासा शतावरी ।। बालं नागबला यष्टिः मधूकं क्षुरकोषि च । पटोलस्य लतोशीरं मञ्जिष्ठा रक्तचन्दनम् || गुच्यादिरयं काथो वातरक्तान्तकारकः । कुष्ठानामपि संहर्त्ता कण्डूमण्डलखण्डनः ॥ वातिकान् रौधिकान्सर्वान्विकारानाशु नाशयेत् मुनिभिः करुणाकीर्णैः कषायोयं प्रकाशितः ।। । १ शीतकप्राय विधि प्रथम भाग में देखिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११ ] गिलोय, बाबची, पर्वोंडके बीज, नीमकी छाल, हैड़, हल्दी आमला, अडूसा (बाँसा ) शतावर, नेत्रबाला, नागवला [ कंधी भेद ] मुल्हटी, महुआ, तालमखाना, पटोलकी बेल, खस, मजीठ और लाल चन्दन | इनका काथ वातरक्त, कुष्ठ, खुजली, tree [ चकते ] और समस्त वातज तथा रक्तज रोगोंको शीघ्र नष्ट कर देता है । ( ११७६) गुडूच्यादि काथः (भै० २० । ० नि० ) गुडूची मुस्तभूनिम्बं धात्री क्षुद्रा व नागरम् । विल्वादि पञ्चमूलञ्च कटुकेन्द्रयवासकम् ॥ निशाभवं ज्वरं वातकफपित्तसमुद्भवम् । चिरोत्थं द्वन्द्वजं हन्ति सकणं मधुसंयुतम् ॥ गिलोय, मोथा, चिरायता, आमला, कटैली, सोंठ, विवाद पचमू ( बेलकी छाल, सोनापाठा, खम्भारी, पाढ़ल, और अरणी ) कुटकी, इन्द्रजौ और जवासेके काथमें पीपलका चूर्ण और शहद मिलाकर पीने से रात्रि के समय बढ़ने वाले वातज, पित्तज, कफज और पुराने इन्द्रज ज्यरका नाश होता है । (प्र० वि० पोपलका चूर्ण एक माशा और शहद २ तोले मिलाकर प्रातः सायं पीना चाहिए । ) . (१९७७) गुडूच्यादि काध: (वृ.नि. र. । उयर) गवस्तधान्याक मधुकं कटुरोहिणी । तृष्णाशूलारु चिच्छर्दि पित्तज्वरहरो गणः || गिलोय, नागरमोथा, धनिया, मुलहटी, और कुटकीका काथ पीनेसे तृषा, शूल, अरुचि, बमन और पित्तज्वर नष्ट होता है । For Private And Personal Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि (११७८ ) गुडूच्यादि काथः गिलोय, लालचन्दन, खस, धनिया और सोंठके (बृ. नि. र.। ज्व. प्र.) काथमें मिश्री और शहद मिलाकर पीनेसे तृतीयक गुडूचीपद्मलोध्राणां सारिवोत्पलयोस्तथा। | ज्वर (तिजारी) शान्त होता है। शर्करामधुरः काथः पीतः पित्तज्वरापहः ।। । (११८२ ) गुडूच्यादि काथः (वृ.नि. र. । ज्व.) गिलोय, पद्माख, लोध, सारिवा, और नीलो गुडूची सारिवा द्राक्षा वला चांशुमती तथा। फरके काथको मिसरीसे मीठा करके पीनेसे पित्त- एषोऽपि परमः सिद्वो वातज्वरविनाशनः ॥ ज्वरका नाश होता है। गिलोय, सारिवा, मुनक्का, खरैटी और शाल पर्गीका काथ भी वातज्वरको नष्ट करनेके लिए (११७९ ) गुरुच्यादि काथ: अत्यन्त उत्तम है। (वृ. नि. र.। मसू० चि० ) (११८३ ) गुडूच्यादि काथः गुडूचीपर्पटानन्ताकटुकाकथितं पिबेत् । (वृ० नि० र० 1 ज्व० प्र.) वातपित्तमसूयान्तु घारोपद्रवभाजि च ॥ गुडूच्यामलकीयुक्तः केवलोवापि पर्पटः। घोर उपद्रव-युक्त वातपित्तज मसूरिका (छोटी | पित्तज्वरं हरेत्तूर्ण पित्तशोषभ्रमान्वितम् ॥ माता ) में गिलोय पितपापड़ा, अनन्तमूल और __ गिलोय, आमला और पितपापड़ेका अथवा कुटकीका काथ पीना हितकर है। केवल पितपापड़ेका काथ दाह, शोष और भ्रमयुक्त (१९८०) गुडूच्यादि काथ: पित्तज्वरको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देता है। (कृ. नि. र. । ने. चि.) (११८४ ) गुडूच्यादि काथः (व. नि. र. । ज्व) गुडूचीत्रिफलाकाथो मधुना सह योजितः।। गुडूची चन्दनं पनं नागरेन्द्रयवासकम् । पीतःसर्वाक्षिरोगन्नः कृष्णाचूर्णावचूर्णितः॥ अभयारग्वधोशीरपाठाधान्याब्दरोहिणी ।। गिलोय और त्रिफले (हैड, बहेड़ा, आमला) कषायं पाययेदेतत्पिप्पलीचूर्णसंयुतम् । के काथमें शहद और पीपलका चूर्ण मिलाकर तन्द्राकासज्वरश्वासपिपासा दाहनाशनः ।। पीनेसे आखोंके सम्पूर्ण रोग नष्ट होते हैं। विण्मूत्रानिलविष्टम्भत्रिदोषप्रभवस्य च । गुडूच्यादि गणो ह्येष पाचनो दीपनः परः।। (प्र० वि० पीपल १ मा. और शहद २ तो. गिलोय, लाल चन्दन, पद्माख ( अथवा मिलाना चाहिए।) पोहकर मूल ) सोंठ, इन्द्रजौ, जवासा, हर्र, अमल(११८१ ) गुडूच्यादि काथः तासका गूदा, खस पाठा (जल जमनी ) धनिया (वृ० नि० र० । बा० रो०) | नागरमोथा और कुटकी । इनके काथमें पीपलका गुडूचीचन्दनोशीरधान्यनागरतो यदि। चूर्ण मिलाकर पीनेसे तन्द्रा, कास, ज्वर, श्वास, कार्थः तृतीयकं हन्याच्छर्करामधुमिश्रितः॥ पिपासा, दाह, मलमूत्र और अपान वायुका अवरोध For Private And Personal Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१३] ( रुकना) एवं सन्निपातज्वरका नाश होता है। टिपणो-जो ओषधि दो बार आती है वह यह काथ अत्यन्त दीपन पाचन (अग्निकी वृद्धि द्विगुण ली जाती है यथा इस प्रयोगमें कटेली । करने और आहार तथा दोषादिको पचाने वाला) है। (११८७ ) गुडूच्यादि काथ: (प्र० वि० पीपलका चूर्ण १ माशा डालना (हा० सं० । स्था. ३, अ. २) चाहिए।) गुडूची शतपुष्पा च द्राक्षा रास्ता पुनर्नवा । (११८५) गुडूच्यादि काथः (वं. से. । मे.रो.) प्रायमाणककाथश्च गुडैतिज्वरापहः॥ गिलोय, सौंफ, मुनक्का, राना, पुनर्नवा और गडूचीत्रिफलाकाथस्तथा लोहरजो युतः । अश्मजं महिषाक्षं वा तेनैव विधिना पिवेत्॥ त्रायमाणा ( बनफशा ) के काथमें गुड़ डालकर पीनेसे वातज्चर नष्ट होता है। गिलोय और त्रिफलेके काथमें लोह चूर्ण (० वि० गुड़ एक तोला मिलाना चाहिए। ) अथवा शिलाजीत और मैंसिया गूगल मिलाकर (११८८ ) गुडूच्यादि काथ: सेवन करनेसे मेदरोग नष्ट होता है। (हा० सं० ! स्था. ३ अ. २) (प्र० वि०-लोह चूर्णके स्थानमें एक रत्ती गुडूचिनिम्बत्वग्वासकश्च लोह-भस्मका प्रयोग किया जाय तो विशेष उत्तम शठी किरातं मगधा वृहत्यौ। है। शुद्ध लोह-चूर्ण भी उचित मात्रानुसार प्रयोग दावर्षी पटोली कथितं कषायं करनेमें कोई हानि प्रतीत नहीं होती । शिलाजीत पिबेन्नरः पित्तकफज्वरश्च ॥ और गूगलकी शास्त्रोक्त मात्रा ४ माशे है, परन्तु पित्तज और कफज वरमें गिलोय, नीमकी आज कल रोगियोंके बलानुसार आधेसे १ माशे छाल, बासा ( अडूसा ), कचूर, चिरायता, पीपल, तक ही सेवन कराना पर्याप्त है । ) छोटी और बड़ी कटेली, दारुहल्दी और पटोलपत्र (११८६ ) गुडूच्यादि काथः का काथ सेवन करना लाभदायक है। (बं० से० । मसू० चि०) (११८९) गुडच्यादि काथः (ग. नि. । व्यरा.) गुडूची मधुकं रास्ना पश्चमूलं कनिष्ठकम्। गृडूच्यतिविपोशीरं गिरिमल्ली च मोचकः । चन्दनं काश्मर्यफलं बलामूलं विकङ्कतम् ।। कुष्ठं लज्जावतीयष्टीमधुचन्दनसारिवाः॥ पाककाले मसूर्यान्तु वातजायां प्रयोजयेत् ।। एषां कषायः कथितो मधुना च विमिश्रितः । वातज मसूरिकाके पकनेके समय गिलोय, हन्तिज्वरातीसारं सकुक्षिशूलं निषेवितः ।। मुलहटी, रास्ना, लघु पञ्चमूल (शालपर्णी, पृष्टपर्णी, गिलोय, अतीस, खस, कुड़ेको छाल, मोचरस, बड़ी कटैली, कटैली, गोखरू), लाल चन्दन, कूट लज्जालु, मुलहटी, लाल चन्दन और सारिवाके खम्भारीके फल, खरैटीकी जड़ और कटैलीका काथमें शहद मिलाकर पीनेसे कुक्षि शूल युक्त काथ पिलाना हितकर है। वरातिसार नष्ट होता है । १ ज्वरे चेति साधुः For Private And Personal Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ १४ ] ( ११९० ) गुडूच्यादि काथः ( हा० सं० । ३ स्था. अ. १४ ) गुडूची नागरं भार्गी व्याघ्रीकाथः कणायुतः । कासश्वासौ जयत्याशु गुडेन सैन्धवेन च ॥ भारत- भैषज्य रत्नाकरः । गिलोय; सोंठ, भारंगी और कटहली के काथ में पीपलका चूर्ण और गुड़ अथवा सेन्धा नमक मिलाकर सेवन करनेसे खाँसी और श्वास अत्यन्त शीघ्र नष्ट होते हैं । ( प्र० वि० पीपलका चूर्ण १ माशा गुड़ १ तो० और सेन्धानमक १ से ४ माशे तक आनश्यकतानुसार मिलाना चाहिए । ) (११९१) गुडूच्यादि काथः (वृं. मा. । ज्वरा.) गुडुचीचित्रवित्वान्दरक्तचन्दनवालकैः । कलिङ्गकैः समायुक्तैर्ज्वरातीसारशोफनुत् || गिलोय, चीता, बेलगिरी, नागरमोथा, लाल चन्दन ने बाला और इन्द्रजौका काथ सेवन करने से ज्वरातिसार और शोफ (सृजन) का नाश हो जाता है। (१९९२) गुडूच्यादि काध: (यो. चि. । अ. ४) गुडूचीधान्यमुस्ताभिश्चन्दनोशीर नागरैः । कृतं कथं पिबेत्क्षौद्रसितायुक्तं ज्वरातुरः ।। fगलोय, धनिया, नागरमोथा, लाल चन्दन, खस और सोंठके क्काथमें शहद और मिश्री मिलाकर पीने से ज्वर न होता है (प्र. वि. शहद वात पित्त और कफज्वर में यथाक्रम काथका सोलहवाँ, आठवा, और चौथा भाग, और मिश्री क्रमशः चौथा, आठवाँ और सोलहवाँ भाग मिलानी चाहिए | ) (१९९३) गुडूच्यादि काथः (बृ. यो. चि. अ.पि.चि. ) Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि गुडूचीचित्रकारिष्ट पटोलैः कथितं पिबेत् । क्षौद्रयुक्तं निहन्त्येतच्छर्दि पित्ताम्लसम्भवाम् ॥ गिलोय, चित्रक ( चीता), नीमकी छाल और पटोल पत्रके काथमें शहद डाल कर पीने से अम्लपित्तज छर्दिष्ट होती है । (प्र. वि. शहद का का आठवाँ भाग मिलाना चाहिए । (१९९४) गुडूच्यादि काथः (रा.मा. 1 व.) वातज्वरोपशमनाय पिबेद्गुडूची दुस्पर्शनागरघनकथितं कषायम् ॥ TTER शान्तिके लिए गिलोय, जवासा its और नागरमोथेका काथ पीना चाहिए । (१९९५) गुडूच्यादि काथा (चं. से. | मरा. अ.) गुडुची मधुकं द्राक्षा मोरटं दाडिमैस्सह । पाककाले प्रदातव्यं भेषजं गुडसंयुतम् ॥ तेन पार्क व्रजत्याशु न च वायुः प्रकुप्यति ॥ गिलोय, मुलहटी, मुनक्का, ईखकी जड़, और अनार (वृक्ष) की छाल के काथमें गुड़ मिलाकर मसूरिका पकने के समय सेवन कराया जाय तो वह शीघ्र पक जाती है और वायु कुपित नहीं होने पाती । (प्र. विधि - गुड़ १ तो. मिलाना चाहिये ।) (१९९६) गुडूच्यादि काथः (यो. र. । कुष्ठा.) गुडूची त्रिफला दाव काथ उष्णैश्च वारिभिः । त्वग्दोषत्रणशोफघ्नः पीतो मासं सगुग्गुलुः ॥ एक मास पर्यन्त, गिलोय, त्रिफला (हैड, बहेड़ा आमला) और दारूहल्दीका काथ अथवा उष्ण जल के साथ गूगल सेवन करनेसे त्वग्दोष, ar (घा) और सुजनका नाश होता है । (प्र. वि. गूगल रोगी अग्नि बलानुसार १ से | ३ माशे तक सेवन कराया जा सक्ता है ।) For Private And Personal Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । कषायप्रकरणम् ] (१९९७) गुडूच्यादि काया (वै. जी. | वि. १) माधुर्यजितामृतेऽमृतता लक्ष्मीशिवाने शिवा विश्वं विश्ववरे घन घनकुचे सिंहीच सिंहोदरि ? एभिः पञ्चमिरौषधैर्मधुकण मिश्रः कषायः कृतः पीतद्विषमज्वरः किमु तदा तन्वङ्गि न क्षीयते ॥ : हे सुमधुर भाषिणी, लक्ष्मी, शिवा विनिन्दित कान्तिमते, हे विश्वप्रभामिनी, पीनपयोधरे, सिंहोदरि तन्वङ्ग: क्या अमृता (गिलोय) शिवा (हैड ) विश्वा (स) घन (मोथा) और सिंही ( कटहली ) का पिप्पली चूर्णयुक्त काथ पीनेसे विषम ज्वर नट नहीं हो सकता ? (१९९८) गुडूच्यादि काथः (यो. र. । स्त्रीरो.) गुडूचीत्रिफलादन्तीकथितो दकधारया । योनि प्रक्षालयेत्तेन ततः कण्डूमशाम्यति ॥ गिलोय, त्रिफला, और दन्तीमूलके काथकी धारा (तरैड़ा) देने से स्त्रियोंके गुह्याङ्गी कण्ड (खुजली) शान्त होती है । (११५५) गुडूच्यादि काथः (वैद्याप्रत । अलं. ३) गुडूच्यतिविषामुतनागरैः कथितं जलम् । मन्दानामसंयुक्ते हितं हि संग्रहणीगदे || मन्दाग्नि और आमयुक्त संग्रहणी रोग में गिलोय, अतीस, नागरमोथा और सांठका काथ लाभदायक है । (१२००) गुडूच्यादि काथः (मा. प्र. । स्व० ) गडूची भूमिनिम्बश्च बालं वीरणमूलकम् । लघुमुस्तं त्रिवृद्धात्री द्राक्षा वासा च पर्वटः ।। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५ ] writer हरत्येव ज्वरं पित्तकृतं द्रुतम | सोपद्रवमपि प्रातर्निपीतो मधुना सह || गिलोय, चिरायता, नेत्रवाला, खस, सफेद दूब, नागरमोथा, निसोध, आमला, मुनक्का, बासा (अइसा ) और पित्तपापड़े के काथ में मधु मिलाकर प्रातःकाल सेवन करने से उपद्रवयुक्त पित्तजज्वर अवत्र्य नष्ट होता है । (प्र. वि. शहद काथका आँरवा भाग लेना चाहिए 1) (१२०१) गुडूच्यादि काथः (ग. नि. । ज्व.) गुडूची नागरं मुस्तं पटोलारिष्टवत्सकम् । त्रिफला च कषायः स्वात्पाचनोज्वर नाशनः ॥ गिलोय, सोंड, नागरमोथा, पटोलपत्र, नीमकी छाल, कुड़ेकी छाल और त्रिफलेका काय ज्वरको पकाता और शान्त करता है 1 (१२०२) गुडूच्यादि काथः (ग. नि. व.) गुडूची त्रायमाणा च द्राक्षा काश्मर्यसारिवे । कषायो गुडसंयुक्तः सयो वातज्वरं जयेत् ॥ गिलोय, त्रायमाणा (बनफशा) मुनक्का, खम्भारी की छाल और सारिवाके काथमें गुड़ मिलाकर पीनेसे वातञ्चर शीघ्र नष्ट होता है । (प्र. वि. गुड़ एक तोला मिलाना चाहिए ।) (१२०३) गुडूच्यादि काथः (ग. नि. । ज्व०) गुडूचीनागरकाथः सो वातज्वरं हरेत् । गिलोय और सूटका काथ सेवन करने से वातवर शीघ्र नष्ट होता है । (१२०४) गुडूच्यादि काथः (ग. नि. । व.) For Private And Personal Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि गुडूच्यंशुमतीदारुबलामधुकसारिवे। गिलोय, पितपापड़ा, मण्डूकपर्णी, हुलहुल रास्त्रापरूषकं द्राक्षात्रिफला शैलवालुकम्॥ और पटोलत्रका स्वरस पुटपाक विधिसे निकालकर कोष्णं सगुडसर्पिष्फ पिघद्वातज्वरापहम् ॥ शहद मिलाकर सेवन करनेसे वातपित्त जनित गिलोय, शालपर्णी, दारुहल्दी खरैटी, मुलहटी, भयङ्कर जीर्णञ्चरका नाश होता है। दोनों सारिवा, रास्ना, फालसेकी छाल, मुनक्का, त्रिफला । (१२०८) गुरुपञ्चमूलीकाथः (वै. जी. । वि.३) (हर, बहेड़ा, आमला) और शैवाल (सिरवाल) के अतः परं कोमलवाणि कासकिञ्चित् उष्ण काथमें गुड़ और घृत मिलाकर पीनेसे श्वासप्रतिकारमुदीरयामः। वातःवर नष्ट होता है। निहन्ति कासं गुरुपञ्चमूली (प्र. वि. गुड़ और घुत ६-६ मासे मिलाने कृतः कषायश्चपलासहायः ॥ चाहिये ।) अयि मृदुभाषिणि ? अब मैं कास श्वास प्रति(१२०५) गुडूच्यादि क्वाथः (ग. नि. । स्व.), कार बतलाता हूँ। वृह पञ्चमूल (बेलकी छाल, सोनागुडूच्यतिविषामू मञ्जिष्ठाधन्वयासकैः। पाठा, ग्वम्भारी, पाढल और अरणी)के काथमें पीपल वासारखदिनिम्बैश्च पिवेत्काथं हि वातिके॥ का चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे कास श्वास नष्ट होते हैं। गिलोय, अतीस, मूर्वा. मजीर धमासा, बाँसा (१२०९) गृहधूमादि काथः (यो. र. । भु. रो.) (अडूसा) खैरसार और नीमका. काथ वातज्वर में - गृहधूमारनालेन काथं समधुसैन्धवम् । हितकर है। पाणिना मर्दयेच्चाऽऽस्ये उपजिहापशान्तये ॥ (१२०६ ) गुडूच्यादिगणः धरका धुवां काजीमें पकाकर उसमें शहद (सु० सं० । सू. अ. ३८) और संधानमक मिलाकर उँगलीसे इसकी मालिश गुडूचीनिम्बकुस्तुम्बरुचन्दनानि पमकठचेति। करनेसे उपजिह्वा रोग नष्ट होता है। एष सर्वज्वरान्हन्ति गुहूच्यादिस्तु दीपनः ।। गिलोय, नीमकी छाल, कुस्तुम्बुरु (नेपाली (१२१०)गैरिकादिकाथः ( वृ.नि.र. । उप०) धनिया ) लाल चन्दन और पद्माख । यह गुडूच्यादि गैरिकाञ्जनमञ्जिष्ठामधुकोशीरपद्मकैः । गण सर्व ज्वर नाशक, और दीपन है । | चचन्दनोत्पलैः स्निग्धैः पेयः पित्तोपदंशहा ।। ( १२०७ ) गुडूच्यादि पुटपाकः (आ.वे. वि.) गेरू, सुर्मा, (अथवा रसौत ) मजीट, मुलहटी गुडूची पर्पटं मेषपर्णी च हिलमोचिका। खस, पाख, लाल चन्दन और नीलोफर के क्वाथ पटोलं पुटपाकेन रस एषां मधुप्लुतः॥ में घृत भिलाकर सेवन करनेसे पित्तजनित उपदंश वातपित्तज्वरं हन्ति चिरोत्थमपि दारुणम्॥ | नष्ट होता है । .१ पुटपाक विधि प्रथम भागके परिशिष्ट में अवलोकन कीजिए For Private And Personal Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१७] (१२११) गोकण्टकादि क्वाथ: मूल सहित गोखरूके काथमें मिश्री और (वृ. नि. र.; यो. र. । अति.) | शहद मिलाकर पीनेसे मूत्रकृळू और उष्णवात गोकण्टकगुहाव्याघ्रीकषायं सुशतं पिबेत् । । (सूजाक) नष्ट होते हैं। आमश्लेष्मातिसारघ्नं दीपनं पाचनं परम् ॥ (१२१५) गोक्षुरक्वाथः (यो. र.। मू. कृ.) गोखरू, पृष्टपर्णी और कटहलीका काथ पीनेसे | काथो गोक्षुरबीजानां यवक्षारयुतः सदा । आमातिसार (कच्चे दस्त) और श्लेष्मातिसार नष्ट मूत्रकृच्छं शकृज्जातं पीतः शीघ्रं निवारयेत् ।। होता है । यह काथ अत्यन्त दीपन पाचन है । | गोखरूके काथमें यवक्षार मिलाकर पीनेसे (१२१२) गोकण्टकादिभिःसिद्धपयःमल रोकनेसे उत्पन्न मूत्रकृळू शीव नष्ट हो जाता है। (वा. भ. । चि. स्था.। र. पि. चि.) (प्र० वि० यवक्षार १ मा० मिलाना चाहिए।) गोकण्टकाभीरुशतं पणिनीभिस्तथा पयः। (१२१६) गोक्षर काथः (व. यो. त.) हन्त्याशु रक्तं सरुजं विशेषान्मूत्रमार्गगान् ॥ पीतो गोकण्टककाथः सशिलाजतुकौशिकः। गोखरू और शतावरी तथा शालपर्णी, पृष्ठ मूत्रकृच्छ्रान्मूत्रशुक्रान्मूत्रोत्संगाद्विमुच्यते ॥ पर्णी, मुद्गपणी और माषपर्णीसे सिद्ध दुग्ध वेदना ___ गोखरूके काथमें शिलाजीत और गूगल युक्त रक्तपित्त और विशेषतः मूत्र मार्गसे जाने वाले मिलाकर पीनेसे मूत्रकृष्ठ. मूत्रशुक्र और मूत्राधात रक्तपित्तको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देता है ।। (प्र० वि० २० तोले दूधमें २॥ तोले (पेशाब बन्द होना )का नाश होता है । औषध और ८० तोले पानी मिलाकर दुग्ध शेष (प्र० वि० गूगल २ माशे और शिलाजीत रहने तक मन्दाग्निसे पकाना चाहिए ।) | ४ रत्ती मिलानी चाहिए ।) (१२१३) गोकर्णादि योगः (वै. म. प. ६.) (१२१७) गोक्षुरादि काथः गोकर्णत्वङमुस्तानमस्करीधातकीकुटजसिद्धम्। __(ग. नि. । प्र० अ०) .. ज्वरातिसारंजयति जलं चतुः पञ्चषड्भिर्दिवसैः।। गोक्षुरो वंशसारश्च कासमर्दनलाडिजः । ___ आसगन्ध दालचीनी, नागरमोथा, लजालु | काथः पित्तप्रमेहं च निहन्ति सितया सह ।। (अथवा सफेद दूर्वा) धायके फूल और कुड़ेकी । गोखरू, बंसलोचन, कसौंदी और नलके छालका काथ पीनेसे ५, ६ दिनमें ज्यरातिसार नष्ट | काथमें मिश्री डालकर पीनेसे पित्तज प्रमेहका नाश हो जाता है। होता है । (१२१४) गोक्षुरकाथः (यो. र.। मू. कृ.) (प्र० वि० मिश्री काथसे चौथाई डालनी समूलगोक्षुरकाथः सितामाक्षिकसंयुतः। | चाहिए और बंसलोचन काथमें पीसकर प्रक्षेप नाशयेन्मूत्रकृच्छाणि तथा चोष्णसमीरणम् ॥ । रूपसे डालना उचित प्रतीत होता है । भा०.३ For Private And Personal Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि - (१२१८) गोजिह्वादि काथः | (१२२०) गोधावन्यादि काथः (वृ. नि. र. । सन्नि० चि०) (वृ. नि. र.। मू. घा.; यो. र. । मू. कृ.) गोजिह्वामूलमेकं द्विगुणवर्हि शिखा- गोधावन्यामूलं कथितं घृततैलगोरसोन्मिश्रम् । - मूलकुस्तुम्बरुणा-।। पीतमविरुद्धमचिरात भिनत्ति मूत्रस्य संघातम् ।। मष्टांशे कायतोये मधुसितारजो पाषाणभेदी, और मुद्गपर्गीकी जड़के काथमें मिश्रमन्ते पिबेत्तत् ।। घृत, तैल, और गोदुग्ध मिलाकर पीनेसे मूत्राघात तस्याः षडविधोपि हरति गुदरुजस्राव रोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है। ____ मामानुबन्धम् ।। (१२२१) गोधूमादि प्रयोगः कीलं कण्डू ग्रहण्यां शूलमति भिषजा (?) (सु. सं. । चि. वाजी. क.) मण्डलात्पथ्यसेवी ॥ क्षीरपकांस्तु गोधूमानात्मगुप्ताफलैस्सह । गोजिया घासकी जड़ १ भाग, मोर शिखा- | शातान् घृतयुतान् खाद | शीतान् घृतयुतान् खादेत्ततः पश्चात्पयःपिवेत्॥ मूल २ भाग, और कुस्तुम्बुरु (नैपाली धनिया) गेहूँके चूर्ण (आटा) और कौचके बीजोंको ८ भाग इनके क्वाथमें शहद और मिसरी मिलाकर दूधमें पकाकर ठण्डा करनेके पश्चात् घृत मिलाकर पीनेसे ६ प्रकारका अर्शरोग, गुदाकी पीड़ा, रक्तस्राव, | पियें और ऊपरसे दुग्ध पान करें । आम, मस्से, खुजली, ग्रहणी और शूल रोगका (इससे बल और कामशक्ति बढ़ती है) नाश होता है । इसे एक मण्डल अर्थात् ४८ दिन (प्र० वि० गोधूम चूर्ण और कौंचके बीजोंका तक पथ्य पूर्वक सेवन करना चाहिए । चूर्ण १ एक तोला, दूध १६ तो० पानी ६४ तो० (१२१९) गोधापदीमूलादि योगः मिलाकर दुग्ध शेष रहने तक पकावें और एक तो० घो डालकर पियें।) (ग. नि. । मूत्रा. ) (१२२२) गोपालकर्कटी योगः गोधापदीमूलमनल्पसर्पि (यो० र. । अश्म.) स्तैलान्वितं गोक्षुरसंयुतश्च । गोपालकर्कटीमूलं पिर पर्युषिताम्भसा । निहन्ति सम्यक् कथितं निपीत पोयमानं त्रिरात्रेण पातयत्यश्मरी हठात् ॥ मृत्युत्कटां मूत्रनिरोधपीडाम् ॥ कचरेकी जड़ बासी जलमें पीसकर तीन दिन . हंसराज और गोखरूके काथमें पर्याप्त घृत तक सेवन करनेसे पथरी अवश्य निकल जाती है। अथवा तैल मिलाकर पीनेसे मरणासन्न कर देने । (१२२३) गोमयरसादि योगः वाली मूत्रावरोध पीड़ा भी नष्ट हो जाती है। (ग. नि.। पां. रो.) ___(प्र. वि. दोनों औषधे १-१ तोला लेकर गोमयस्य रस सपिडं तण्डुलवारि च । काथ बनावें और s=क्काथमें २॥ तोले घृत मिलाएं।) | पाण्डसंगविनाशाय प्रायद्भिषगातुरम् । For Private And Personal Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायमकरणम्] द्वितीयो भागः। [१९] wwvvvurvvvvvvvvvvvvvvvvvvve वैद्यको चाहिये कि पाण्डु रोगीको गोमय काथो हन्यात्सन्निपातान्समग्रान् । रस (गायके गोबरका स्वरस) धी, गुड़ और बुद्धिभ्रंशं स्वेदशैत्यालापान् ॥ चावलोंके पानीको एकत्र करके सेवन करावे ।। शूलाध्मानं विद्रधिश्लेष्मवातान् । (प्र० वि० चावलोंका पानी १२ तो० और वातव्याधीन मूतिकानाञ्च तद्वत् ॥ अन्य ओषधियाँ एक एक तोला लेनी चाहिएं। पीपलामूल, इन्द्रजौ, देवदार, बायबिडंग, तण्डुल जल विधि प्रथम भागके परिशिष्टमें अव- भारंगी, भांगरा, त्रिकुटा [ संठ, मिर्च, पीपल ] लोकन कीजिए ।) चीता, कायफल, पोखरमूल, रास्ना, हरी, दोनों (१२२४ ) गोमूत्रयोगः (धू. मा. । शोथोदर.) कटहली, अजवायन, निर्गुण्डी, चिरायता, बच, गोमूत्रयुक्तं महिषीपयो वा क्षीरं गवां वा त्रिफलाविमिश्रम् । चव्य और पारेका काथ सब प्रकारके सन्निपात, क्षीरामभुक्केवलमेव गव्यं बुद्धिभ्रंश, स्वेद, शीत, प्रलाप, शूल, अफारा, मत्रं पिबेद्वा श्वयथदरेष ॥ विद्रधि, कफवात रोग, वातव्याधि, और सूतिका भैंसके दूधमें गोमूत्र मिलाकर, अथवा त्रिफला रोगोंका नाश करता है। युक्त गोदुग्ध वा केवल गोमूत्र सेवन करने और ( १२२७ ) ग्रन्थिकादि क्वाथः केवल क्षीरान ( दूध भात ) खानेसे शोथोदर (वृ. नि. र. । सन्नि., यो. र. ज्व.) ग्रन्थिककलितरुपथ्याकृतमालशिवाटरूपकै( उदरकी सूजन) रोग नष्ट होता है। विहितः। (प्र० वि० ३ से ६ माशेकी मात्रानुसार | एरण्ड तैलयुक्तः काथो हन्यान्मरुन्मांधम् ॥ त्रिफलेका चूर्ण अथवा त्रिफलेसे यथा विधि दुग्ध पीपलामूल, बहेड़ा, हर्र, अमलतासका गूदा, सिद्ध करके पिया जा सकता है।) आमला और अडूसेके काथमें अरण्डका तेल (कास्टर (१२२५) ग्रन्थिकादि काथः आइल) डालकर पीनेसे वातविकार नष्ट होता है । (यो० र०। उरु० चि०) (प्र. वि. एरण्ड तेल उष्ण काथमें, और ग्रन्थिकारुष्क कृष्णानां काथं क्षौद्रान्वितं पिबेत्। १ तोलेकी मात्रासे मिलाना चाहिए तथा उष्ण पीपलामूल, भिलावा और पीपलके काथमें ही पीना चाहिए । ) शहद डालकर पीनेसे उरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है। (१२२८ ) ग्रन्थिकादि काथ: (प्र० वि० शहद काथका सोलहवां भाग | (वृ. नि. र.। ज्वर०) मिलाना चाहिए।) ग्रन्थिकं पर्पटो वासा भार्गी विश्वा गुडूचिका। ( १२२६ ) ग्रन्थिकादिकाथः (यो. र.। सन्नि.) एभिः सुसाधितं तोयं तीब्रवातज्वरापहम् ।। ग्रन्थीन्द्रजामरतस्कृमिशत्रुभार्गी, पीपलामूल, पितपापड़ा, अडूसा, भारंगी, सोंठ भृङ्गत्रिकट्वनलकटफलपौष्कराणां ।। - और गिलोयका काथ तीव्र वातज्वरका नाश करता है। रास्नाभयाहतिकाद्वयदीप्यभूत इति गकारादि कषायपकरणम् । केशीकिरातकवचाच्चविकाकीणाम् ॥ For Private And Personal Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [२०] www.kobatirth.org भारत 1- भैषज्य रत्नाकरः । अथ गकारादि चूर्णप्रकरणम् (१२२९) गगनायस चूर्णम् (यो. चिं. । चूर्णा.) त्रिकटु त्रिसुगन्धञ्च लवङ्ग जातिकाफलम् । तुगाक्षीरी शटी शृङ्गी वाजिगन्धा च दाडिमी ॥ एतानि समभागानि सर्वतुल्यमयोरजः । आयसेन समं देयं गगनं च सुशोधितम् ।। यावन्त्येतानि चूर्णानि तावद्दद्यात्सितोपला । कर्षप्रमाणं दातव्यं खादयेच्च यथावलम् ॥ अनिञ्जननं हृद्यं प्रमेहं हन्ति दारुणम् । अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रञ्च धातुस्थं विषमज्वरम् ॥ नाशयेच्च त्रिदोषश्च राजयक्ष्मज्वरापहम् । पीनसं कासश्वासनं रुच्यं श्वासहरं परम् ।। त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पीपल), त्रिसुगन्ध ( दालचीनी, इलायची, तेजपात ) लौंग, जावित्री, जायफल, बंसलोचन, कचूर, काकड़ासिंगी, असगन्ध और अनार दाना समान भाग और इन सबके समान शुद्ध लोह चूर्ण तथा अभ्रक भस्म एवं इन सबके बराबर मिश्री लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें । इसे १ कर्ष ( १ | तोले ) अथवा अग्निबलानुसार मात्रा से सेवन करना चाहिए । यह चूर्ण अग्निवर्द्धक, हृद्य, भयङ्कर प्रमेह, अमरी, मूत्रकृच्छ्र, धातुगत विषमज्वर, सन्निपात, यक्ष्मा, पीनस, खांसी और श्वास नाशक तथा रोचक है। (लोह चूर्णके स्थान में लोह भस्म डालना उत्तम है ।) ( १२३० ) गंङ्गाधर चूर्णम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कट्वङ्गमुस्ते कुटजस्थ बीजमाम्रास्थि शुण्ठी जलरोध्रपाठा । जम्बूफलं कोमल बिल्वधात्रीविषायष्टयप्यथ धातकी च ॥ गङ्गाधरं नाम वदन्ति चूर्ण सर्वानतीसारगदान्निहन्ति ॥ (नोट- वैद्यजीवन में पाठ भिन्न है, प्रयोग यही है | ) [ गकारादि सोना पाठा, नागरमोथा, इन्द्रजौ, आमकी गुठलीका गर्भ (गिरी), सोंठ, नेत्रबाला, लोध, पाठा ( जलजमनी) जामन ( जामनकी गुठली ), बेलका कच्चा फल ( बेलगिरी ), आमला, अतीस, मुलैठी और घायके फूल । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । यह गङ्गाधर नामक चूर्ण हर प्रकारके अतिसार रोगको नष्ट करता है । मात्रा - १ माशा, अनुपान - मथित ) । ( १२३१ ) गङ्गाधरचूर्णम् (भा. प्र. । अति.) मोचरसमुस्तानागरपाठारलुधातकीकुसुमैः । चूर्णमथितसमेतं रुणद्धि गङ्गाप्रवाहमपि सद्यः ॥ मोचरस, मोथा, सोंठ, पाठा ( जलजमनी ) अरलु ( सोना पाठा ) और धायके फूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे मथित ( जलरहित, वस्त्रसे छने हुवे दही) के साथ सेवन करनेसे गङ्गाके समान वेगअतिसार भी नष्ट हो जाता है । (ग. नि. । अति ; वै. जी. । १ वि . ) सेवन कराएं। ) For Private And Personal ( मात्रा १ माशा, दिन भरमें २-३ वार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२१] (१२३२) गङ्गाधरचूर्णम् (द्वितीयम् ) सेभलकी छाल, भांग, और भांगरा समान भाग तथा (भा. प्र. । अति.) कुडेकी छाल सबके बराबर लेकर चूर्ण बना लीजिए। मुस्तावत्सकबीजं मोचरसो बिल्वधातकीलोध्रम् । इसे बकरीके दूध, मण्ड अथवा शहदके साथ गुडमथितसंप्रयुक्तं गङ्गामपि वेगवाहिनी रुन्ध्यात्।। चाटनेसे नानावर्णसंयुक्त (रंग बिरंगा) पुराना और नागरमोथा. इन्द्रजौ. मोचरस, बेलगिरी. अनेक प्रकारका अतिसार, कष्टसाध्य ग्रहणी, तृष्णा. धायके फूल और लोधके चूर्णको गुड़ और मथित भयङ्कर खांसी, अनेक प्रकारके ज्वर, दुस्साध्यशोथ, (जलरहित, कपड़ेसे छना हुवा दही)के साथ सेवन अरुचि और पाण्डु रोग अवश्य नष्ट होता है । ( मात्रा-१॥ माशा दिनमें ३-४ बार ) करनेसे वेगवान् गङ्गोपम अतिसार भी नष्ट हो (१२३४ ) गङ्गाधरचूर्णम् (वृद्धम् ) जाता है। (भा. प्र. | अति.) (मात्रा-१ माशा। दिनमें २-३ बार खिलाएं।) मुस्तारलुकशुण्ठीभिर्धातकीलोध्रवालकैः । (१२३३ ) गङ्गाधरचूर्णम् ( मध्यम ) बिल्वमोचरसाभ्याश्च पाठेन्द्रयववत्सकैः।। (भै. र. । ग्रहण्य.) आम्रवीजसमङ्गातिविषायुक्तैश्च चूर्णितः । बिल्वं शृङ्गाटकदलं दाडिमं दलमेव च। मधुतण्डुलपानीयं पीतं हन्ति प्रवाहिकाम् ॥ समुस्तातिविषाचैव सर्जश्वेतश्च धातकी॥ हन्ति सर्वानतीसारान्ग्रहणी हन्ति वेगतः। मरिचं पिप्पलीशुण्ठी दावी भूनिम्बनिम्बकम्। वृद्धं गङ्गाधरं चूर्ण रुन्ध्याद्गीर्वाणवाहिनीम् ॥ जम्बूरसाञ्जनश्चैव कुटजस्य फलं तथा ॥ नागरमोथा, अरलु (सोना पाठा), सोंठ पाठा समझा हीवेरं शाल्मली वेष्टमेव च।। धायके फूल, नेत्रबाला, बेलगिरी, मोचरस, पाठा शक्राशनं भृङ्गराजचूर्ण देयं समं समम् ॥ (जलजमनी), इन्द्रजौ, कुडेकी छाल, आमकी कुटजस्य खचूर्ण सर्वचूर्णसमें मतम् ।। गुठलीका गर्भ [ गिरी], मजीठ और अतीस । समान एसत्गङ्गाधरं नाम महचूर्ण महागुणम् ।। भाग लेकर चूर्ण बनाएं। __इसे (१ माशेकी मात्रानुसार ) शहदमें मिलानानावर्णमतीसारं चिरजं बहुरूपिणम् । कर तण्डुल जल [चावलोंको पानीमें भिगोकर दुर्वारां ग्रहणी हन्ति तृष्णां कासदुर्जयम् ॥ नितारा हुवा जल )के साथ सेवन करनेसे प्रवृद्ध. ज्वरश्च विविधं हन्ति शोथश्चैव सुदारुणम् । । प्रवाहिका (पेचिश), सब प्रकारके अतिसार, और अरुचिं पाण्डुरोगश्च हन्यादेव न संशयः॥ ग्रहणी रोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट होते हैं। छागीदुग्धेन मण्डेन मधुना वाथ लेहयेत् ॥ । गङ्गाधरचूर्णम् (बृहद् ) (भे.र. प्र.) ___ बेलगिरी, सिंघाड़े और अनारके पत्ते, मोथा, रस प्रकरणमें अवलोकन कीजिए. अतीस, सफेद राल, स्याह मिर्च, पीपल, सोंठ, (१२३५) गङ्गाधरचूर्णम् (भै. र. । ग्रह.) दारुहल्दी, चिरायता, नीमकी छाल, जामनकी मुस्तसैन्धवशुण्ठीभिर्धातकीलोध्रवत्सकैः। (गुठली), रसौत, इन्द्रजौ, पाटा, मजीठ, नेत्रबाला, । बिल्वमोचरसाभ्याश्च पाठेन्द्रयववालकैः ।। For Private And Personal Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [गकारादि आम्रबीजमतिविषा लज्जाचेति सुचूर्णितम् । शुद्ध आमलासार गन्धक और त्रिफले (हैड़, क्षौद्रतण्डुलतोयाभ्यां जयेत्पीखा प्रवाहिकाम् ॥ बहेड़े, आमले )का चूर्ण समान भाग लेकर उसमें सर्वातिसारशमनं सर्वशूलनिषूदनम्। सबके बराबर मिश्री मिलाकर खरल करें । संग्रहग्रहणीं हन्ति मूतिकातङ्कमेव च ॥ | इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ३ माशेकी मात्रा___नागरमोथा, सेंधा, सोंठ, धायके फूल, लोध, | नुसार शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे ३ सप्ताहमें कुडेकी छाल, बेलगिरी, मोचरस, पाठा [जलजमनी], उपदंश अवश्य नष्ट हो जाता है । इन्द्रजौ, नेत्रबाला, आमकी गुठलीका गर्भ (गूदामज्जा), अतीस और लज्जालु । समान भाग लेकर (१२३८) गन्धक योगः (वृ. यो. त.।त. ७३) चूर्ण बना लीजिए। गन्धकं गुडसंयुक्तं कर्ष भुक्त्वा पयःपिबेत् । ___ इसे शहद और चावलोंके पानीके साथ | विंशतिस्तेन नश्यन्ति प्रमेहपिडिका अपि ॥ सेवन करनेसे प्रवाहिका, सब प्रकारके अतिसार, । (शुद्ध आमलासार) गन्धकके चूर्णको समान शूल, संग्रहणी और सूतिका रोगोंका नाश होता है। | भाग गुडमें मिलाकर १ कर्ष (१। तोले ) की ___(मात्रा १॥ से ३ माशे तक। चावलोंका | मात्रानुसार दूधके साथ सेवन करनेसे बोसों प्रकापानी बनानेकी विधि प्रथम भागके परिशिष्टमें | रको प्रमेह पिडिकाएं नष्ट हो जाती हैं । देखिए ।) (व्यवहा० मात्रा-१ माशा) (१२३६) गन्धकचूर्णम् (१२३९) गन्धक योगः (र. र. । र. ख.) (यो. र. । कुष्ट, वृ, नि. र. । त्वग्दोष) गन्धपाषाणचूर्णन्तु कटुतैलेन योजयेत् ।। | गन्धकं कटुतैलेन धर्म भाव्यं दिनावधि। लेपनादथ पानाद्वा कच्छूपामाविनाशनम् ॥ | तत्पलाधै सदाखादेदिव्यकायकरं नृणाम् । (शुद्ध) गन्धकके चूर्णको ( 3 माशेकी मात्रा- ! जायते स्वर्णवदेहो वत्सरात्वलिवर्जितः॥ नुसार ) कड़वे तैलमें मिलाकर पीने अथवा लेप गन्धकके चूर्णको कड़वे तैलमें मिलाकर दिन करनेसे कच्छू और पाभा (खुजली) का नाश भर धूपमें रखिये । इसे अर्धपल मात्रानुसार सेवन होता है। करनेसे शरीर कान्तिवान् (त्वग्रोग रहित) हो (१२३७) गन्धकयोगः (र. चं. । उप. चि.) जाता है । यदि एक वर्ष पर्यन्त निरन्तर सेवन शुद्धं बलिं च त्रिफला समभागानि चूर्णयेत। किया जाय तो मनुष्यकी देह काञ्चनसदृश सुन्दर तत्समं शर्करा ग्राह्या सर्वमेकत्रमर्दयेत्॥ और वलि (झुर्रा ) रहित हो जाती है। तचूर्ण च त्रिभाषश्च प्रातमधुयुतं लिहेत् । (प्र० वि० तैल इतना डालना चाहिए कि सप्तकत्रयसेवान्ते उपदंशं विनाशयेत् ॥ गन्धकसे एक अंगुल ऊपर रहे । व्यवहारिक सत्यं सत्यं पुनःसत्यं योगोऽयं मुनिभाषितः॥ मात्रा-१ माशा तक । अनुपान-गोदुग्ध । ) For Private And Personal Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२३] (१२४०-४२) गन्धक प्रयोगाः शुद्ध गन्धक सेवन कालमें क्षार, अम्ल, तैल, (र. र. स. । पू. ख. अ. ३) सुरा, विदाही पदार्थ [ मरिचादि ] और सब प्रकाघृताक्ते लोहपात्रे तु विद्रुतं शुद्धगन्धकम्।। रकी दालेसे परहेज़ करना चाहिए। घृताक्तदर्विकाक्षिप्तं द्विनिष्कपमितं भजेत् ॥ (१२४३) गन्धद्रव्याणि (च. द. । वातव्या.) हन्तिक्षयमुखान् रोगान्कुष्ठरोग विशेषतः। गन्धकस्तुल्यमरिचः षड्गुणत्रिफलान्वितः ॥ | एलाचन्दनकुङ्कुमागुरु मुराककोलमांसीशटी श्रीवासच्छदग्रन्थिपर्णशशभृत्क्षौणीध्वजोशीरकम् । घृष्टः शम्पाकमूलेन पीतश्चाखिलकुष्ठहा। तन्मूलं सलिले पिष्ट लेपयेत्प्रत्यहं तनौ ॥ कस्तूरीनखपूतिगन्धजलमुङ्मेथी लवङ्गादिकम् गन्धद्रव्यमिदं प्रदेयमखिलं श्रीविष्णुतैलादिषु ।। दृष्टप्रत्यययोगोऽयं सर्वत्राप्रतिवीर्यवान् ।। श्रीमतासोमदेवेन सम्यगत्र प्रकीर्तितः ॥ इलायनी, सफेद चन्दन, केसर, मुरामांसी, क्षाराम्लतैलसौवीरविदाहिद्विदलं तथा । मुरमुकी ] कंकोल, जटामांसी [ बालछड़ ], कचूर, शुद्धगन्धकसेवायां त्याज्यं योगयुतेन हि ॥ चीड़के पत्ते, ग्रन्थिपर्णी, कपूर, भूरिछरीला, ताल शुद्ध गन्धकको घृताक्त (घृतसे चिकने) । (ताड़ ] खस, कस्तूरी, नख, खट्टाशी [जुन्द बेदस्तर], लोहपात्र में पिधलाकर घृतसे चिकनी कीहई नागरमोथा, मेथी और लवङ्गादि गन्धद्रव्य कहलाते करछलीमें निकाल लें। हैं। यह सब द्रव्य विष्णुतैलादिमें प्रयुक्त इसे २ निष्क (८ माशे )की मात्रानुसार करने चाहिएं। सेवन करनेसे क्षय इत्यादि और विशेषतः कुष्ठ (१२४४ )गन्धद्रव्याणि (भै. र. वा. व्या.) रोगोंका नाश होता है। कुष्ठश्च नलिका पूतिरुशीरं श्वेतचन्दनम् । शुद्ध गन्धक १ भाग, स्याह मिर्च १ भाग | जटामांसी तेजपत्रं नखी मृगमदः फलम् ।। और त्रिफला ६ भाग लेकर चूर्ण करके अमलता- ककोलं कुडकुम चोचं लताकस्तूरिका वचा । सकी जड़के रसमें धोटकर रख लीजिए। मूक्ष्मैलागुरुमुस्तश्च कपरं ग्रन्थिपर्णिकम् ॥ इसे ( ३ माशेकी मात्रानुसार दूधके साथ) श्रीवासःकुन्दुरुर्देवकुसुमं गन्धमात्रिका । सेवन करने और साथ ही अमलतासकी जड़को | सिहको मिषिका मेथी भद्रमुस्तं तथा शटी। पीसकर लेप करनेसे समस्त प्रकारके कुष्ट नष्ट | जातिकोषं शैलजश्च देवदारु सजीरकम् । होते हैं। एतानि गन्धद्रव्याणि तैलपाकेषु युक्तितः ॥ ___ श्रीमान् सोमदेव महाशय द्वारा प्रकट, यह कूठ, नाली, जुन्दबेदस्तर, खस, सफेद चन्दन, प्रयोग अनुभूत और अन्य समस्त प्रयोगोंकी अपेक्षा | जटामांसी, तेजपात, नखी कस्तूरी, जायफल, अत्यन्त प्रभावशाली है। | कंकोल, केशर, दालचीनी, लताकस्तूरी, वच, छोटी For Private And Personal Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। . [गकारादि - इलायची, अगर, नागरमोथा, कपूर, ग्रन्थिपर्णी, | इन्द्रायन, बेल, काकोली, तिलकी जड़ और श्रीवास [धूपसरल], कुन्दुरु, लौंग, गन्ध मात्रिका, खांडके चूर्णको शहद और घीमें मिलाकर पीनेसे शिलारस, सोया, मेथी, मोथा, कचूर, जावत्री, भूरी मूषक ( चूहेका ) विष नष्ट हो जाता है । छरीला, देवदारु और जीरा । यह गन्धद्रव्य हैं। (१२४८) गवाक्ष्यादि चूर्णम् इन्हे तैलपाकमें प्रयुक्त करना चाहिए । (च. सं. । उदर. चि.) (१२४५) गर्भस्तम्भनः प्रयोगः गवाक्षी शशिनी दन्ती तिल्वकस्थ त्वचं वचाम् । (र. मं. । अ. ९) | पिबेद्राक्षाम्बुगोमूत्रकोलकर्कन्धुशीधुभिः॥ समभागं सितायुक्तं शालितण्डुल चूर्णकम् । इन्द्रायन, शङ्खा होली (शंखपुष्पी ), दन्तीउदुम्बरशिफाकाथे पीतं गर्भ सुरक्षति ॥ मूल, लोध, और बचके चूर्णको अंगूरके रस, समान भाग चावल और मिश्रीके चूर्णको । गोमूत्र, कोल, कर्कन्धु (बेर ) से निर्मित सीधुके गूलरकी जड़की छालके काथके साथ सेवन करनेसे साथ सेवन करनेसे उदर रोग नष्ट होते हैं । गर्भ सुरक्षित रहता है। (१२४९) गाढीकरणयोगः [मात्रा-६ मासे १ तोले तक । (यो. स. ५ समुद्देशः) गिलरकीछाल २ तोले लेकर 5॥ पानीमें पकावें ।] वेतसस्य च मूलानिकाथयेन्मृदुवदिना । (१२४६ )गर्भस्तंभनःप्रयोगः [र. मं. अ. ९] भगप्रक्षालनात्तेन गाढत्वमुपगच्छति ॥ पतन्तं स्तंभयेगम कुलालकरमृत्तिका। ___ मन्दाग्नि पर बनाए हुवे वेतकी जड़के काथसे मधुच्छागीपयःपीत्वा किं वाश्वेताद्रिकर्णिका॥ धोनेसे स्त्रीके गुह्य अङ्गकी शिथिलता नष्ट होती है। ललना शर्करा पाठा कन्दश्च मधुनान्वितः । (१२५० ) गाढीकरणयोगः भक्षितो वारयत्येव पततं गर्भमंजसा ॥ (. यो. स. । ५ समुद्देशः) ___ कुम्हारके यहांकी ( कमाई हुई, तैयार ) मिट्टी, बचा नीलोत्पलं कुष्ठं मरीचानि तथैव च। शहद में मिलाकर बकरीके दूधके साथ पीनेसे, अश्वगन्धा हरिद्रा च गाढीकरणमुत्तमम् ।। अथवा- सफेद कनेर, राल ( या चिरौंजी ) खांड, बच, नीलोफर, कूठ, काली मिर्च, असगन्ध पाठा ( जलजमनी) और विदारीकन्द के चूर्णको और हल्दी काथसे प्रक्षालन करनेसे स्त्रीके गुह्य शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे गिरता हुवा गर्भ अङ्गकी शिथिलता दूर होती है । रुक जाता है। (१२४७ ) गवाक्षी चूर्णम् ( बं. से. । विष.) (१२५१) गुडक्षारयोगः (ग. नि. म. कृ. २७) गवाक्षीबिल्वकाकोलीतिलमूलाः सशर्कराः। गुडेन मिश्रितं क्षारं कदृष्णं कामतःपिबेत् । मध्वाज्यसंयुताः पीताः मूषिकाविषनाशनाः॥ । मुत्रकृच्छ्रेषु सर्वेषु शर्करावातरोगजित् ॥ For Private And Personal Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२५]. (१२५१) गुडक्षारयोगः (ग. नि. । मू. कृ. २७) बेल गिरीके चूर्णको गुड़में मिलाकर सेवन गुडेन मिश्रितं क्षारं कदुष्णं कामतःपिबेत् । करनेसे रक्तातिसार, आम, शूल, मलावरोध और मूत्रकृच्छेषु सर्वषु शर्करावातरोगजित् ॥ उदरविकारोंका नाश होता है । यवक्षारको, गुड़में मिलाकर ( उष्ण जलके (१२५६) गुडशुण्ठ्यादि योगः साथ ) पीनेसे सर्व प्रकारके मूत्र कृच्छू और शर्करा (ग. नि., भा. प्र. । अति.) (पेशाबकी रेंग ) तथा वातज रोग नष्ट होते हैं। गुडेन शुण्ठीमथवोपकुल्यां (१२५२) गुडचतुष्टयः (शा. सं.)। पथ्यां तृतीयामथ दाडिमं वा । आमेषु सगुडां शुण्ठीमजीर्णे गुडपिप्पलीम् । आमेष्वजीर्णेषु गुदामयेषु, कृच्छ्रे जीरगुडं दद्यादर्शःसु सगुडाभयाम् ॥ वर्चाविबन्धेषु च नित्यमयात् ।। ___आममें गुड़ और सोंठ, अजीर्णमें गुड़ और ___ आम, अजीर्ण, गुदरोग (बवासीर इत्यादि) पीपल, मूत्रकृच्छ्रमें जीरा और गुड़ तथा अर्शमें। और कब्जमें, नित्य प्रति सोंठ, दन्तीमूल, हर्र और गुड़ और हर्र मिलाकर खिलाना चाहिये। दाडिममेंसे एक एकका चूर्ण गुड़में मिलाकर (१२५३) गुडजीरकयोगः (वृ.नि. र. । ज्वर.) सेवन करना चाहिए। जीरकं गुडसंयुक्तं विषमज्वरनाशनम् ।। (मात्रा-३ माशे। अनुपान उष्णजल )। अग्निमांद्यं जयेच्छीतं वातरोगहरं परम् ॥ (१२५७ ) गुडहरीतकीयोगः ___ जीके चूर्णको गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे (ग. नि.; बं. से. । अर्श.) विषमज्वर, अग्निमांद्य, शीत और वातरोग नष्ट पित्तश्लेष्मप्रशमनी कच्छकण्डूरुजापहा। होते हैं। (प्र. वि. प्रत्येक वस्तु ३से ६ माशेतक गुदजान्नाशयत्याशु योजिता सगुडाऽभया । लेकर दिनमें ३-४ बार उष्ण जलसे सेवन करें।) हर्रके चूर्णको गुड़के साथ सेवन करनेसे (१२५४) गुडदीप्यकयोगः(.मा. । शो.पि.) पित्त, कफ, कच्छू , कण्डू (खुजली) और अर्श सगुडं दीप्यकं यस्तु खादेत्पथ्यानभुड्नरः । | (बवासीर )का नाश होता है। तस्य नश्यति सप्ताहादुदर्दः सर्वदेहजः ॥ (१२५८)गुडादि चूर्णम् (वृ.नि. र. । बा. रो.) __ अजवायनके चूर्णको गुड़में मिलाकर पथ्यपालन पूर्वक सेवन करनेसे १ सप्ताहमें सर्वाङ्गगत सगुडं नागरं बिलं यः खादति हिताशनः । उदर्द रोग (रक्त विकारज रोग विशेष) नष्ट हो त्रिदोषग्रहणीरोगान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ जाता है। सोंठ और बेलगिरीके चूर्णको गुड़में मिलाकर (१२५५) गुडबिल्वम् (आ.वे. वि.। अ.२१, पथ्यपालन पूर्वक सेवन करनेसे त्रिदोषज संग्रहणी भा. प्र, भै. र.। अति; हा. सं.। स्थान ३ अवश्य नष्ट हो जाती है । । । अ. ३, धन्व. । अति.) (प्र. वि. सोंठ और बेलगिरी १॥-१॥ माशा गुडेन खादितं बिल्वं रक्तातीसारनाशनम् । तथा गुड़ ३ माशे मिलाकर दिनमें ३-४ बार आमशूलविबन्धघ्नं कुक्षिरोगविनाशनम् ॥ उष्ण जलसे सेवन करें) भा०४ For Private And Personal Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२६] . भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [गकारादि (१२५९) गुडादि चूर्णम् । इसे प्रतिदिन १ कर्ष (१। तोला ) की (० मा., बृ. नि. र., बं. से., यो. र., ग. नि. | मात्रानुसार शहद और धीमें मिलाकर भोजनके शोथ ३३ ) आदि, मध्य और अन्त में सेवन करनेसे अन्नद्रवशूल, मुडपिप्पलीशुण्ठीनां चूर्ण श्वयथुनाशनम् ।। जरपित्त और परिणाम शूल नष्ट होता है । आमाजीर्णप्रशमनं शूलघ्नं बस्तिशोधनम् ।। (१२६२) गुडादि योगः गुड़, पीपल और सोंठका चूर्ण; सूजन, ( यो. र. । पीन., वृ. यो. त. । त. १३०) आमाजीर्ण और शूल नाशक तथा बस्तिशोधक है। गुडमरिचविमिश्रं पीतमाशु प्रकामम् । (१२६०) गुडादि चूर्णम् (भा. प्र.। शो. चि.) | हरति दधि नराणां पीनसं दुनिवारम् ।। गुडात्पलत्रयं ग्राह्यं शृङ्गधेरपलत्रयम् । यदि तु सघृतमन्नं श्लक्ष्णगोधूमचूर्णैः । शृङ्गबेरसमा कृष्णा लोह वितिलयोः पलम् ।। कृतमुपहरतेऽसौ तत्कुतोऽस्यावकाशः ॥ चूर्णमेतत्समुद्दिष्टं सर्वश्वयथु नाशनम् ॥ ___ गुड़ और मिर्च (स्याह मिर्च ) के चूर्णको दहीमें मिलाकर यथेच्छ मात्रामें पीनेसे कष्टसाय गुड ३ पल (१५ तोले ), अदरक (सोंठ) पीनस भी नष्ट हो जाती है। ३ पल, पीपल ३ पल और मण्डूर ( भस्म ) तथा यदि इस प्रयोगके साथ साथ महीन गोवूम तिल १-१ पल लेकर चूर्ण बना लीजिए । इसके चूर्ण ( बारीक गेहूं के आटे) से निर्मित अन्नमें घृत सेवनसे सर्व प्रकारके शोथ नष्ट होते हैं। डालकर (हलवा बनाकर ) सेवन कियाजाथ तो फिर ( मात्रा ४ माशे । अनुपाल त्रिफला काथ, तो पीनस होनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। गोमूत्र वा उष्ण जल) (१२६३) गुडाचं चूर्णम् (वं. से. । अर्श.) __ (१२६१) गुडादि मण्डूरम् गुडभल्लातकं शुण्ठी विडङ्गं वृद्धदारुकम् । (र. का. घे., भा० प्र., यो. र., वं. से. । शू., त्रिगुणं दीपनं वृष्यमर्शसो विड्बन्धनुत् ।। ___ वृ. यो. त. । त. ८५) ___ गुड़, भिलावा ( शुद्ध ), सोंठ, और बायबिडंग गुडामलकपथ्यानां चूर्ण प्रत्येकशः पलम् ।। १-१भाग तथा विधारा ३भाग लेकर चूर्ण बनावें। त्रिपलं लोहकिट्टस्प तत्सर्व मधुसर्पिषा ॥ यह चूर्ण दीपन (अग्निवईक), वृष्य और समालोड्य समश्नीयादक्षमात्रप्रमाणतः।। अर्श संबन्धी मलावरोध नाशक है। (मात्रा ३ आदिमध्यावसानेषु भोजनस्थ निहन्ति तत् ॥ | माशे। उ॥ जल अथवा त्रिफलाकाथके साथ अन्नद्रवं जरत्पित्तं परिणामरुजन्तथा ॥ । सेवन करें।) गुड़, आमला और हर्रका चूर्ण १-१ पल (१२६४)गुडामलकयोगः (वृं.मा.,ग.नि.भू.कृ.२८ (५ तोले) और मण्डूर भस्म ३पल लेकर एकत्र गुडेनाऽमलकं वृष्यं श्रमघ्नं तर्पणं प्रियम् । मर्दन कर लीजिए। पित्तासृग्दाहशूलघ्नं मूत्रकृच्छनिवारणम् ॥ For Private And Personal Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [२७ ] आमलेके चूर्णको गुडमें मिलाकर सेवन करनेसे, (१२६६) गुडाकाद्यास्त्रयो योगाः वीर्यवृद्धि, श्रमनाश, तृप्ति रक्तपित्त (नकसीर आदि), ( ग. नि. । शो०) दाह, शूल और मूत्रकृच्छू ( पेशाबका कष्टसे होना) गुडाकं वाऽथ सदारुविश्वं का नाश होता है । . सनागरं वाऽथ किराततिक्तम्। (१२६५) गुडाईकयोगः योगत्रयं श्रेष्ठतमं प्रदिष्ट (यो. र., च. द., . मा. । शोथ,वृ.यो.त.। त०१०६) मित्यौषधं शोफहरं नराणाम् ॥ गुडाकं वा गुडनागरं वा; (१) गुड़ और अदरक । (२) देवदारु और गुडाभयां वा गुडपिप्पली वा। | सोंठ । तथा (३) सोंठ और चिरायता । यह तीनों कर्षाभिवृद्ध्या त्रिपलप्रमाणं; | योग शोथ रोगके लिए अत्यन्त प्रभावशाली हैं। खादेनरः पक्षमथापि मासम् ।। (१२६७) गुडाष्टकम् शोफपतिश्यायगलास्य रोगान् । (वृ.यो. त.। त.७१, वृ. नि. र. । अजी., र. र. । सश्वासकासारुचिपीनसादीन् । - उदा०, वं. से. । उदा० ) जीर्णज्वरा ग्रहणीविकारान् व्योषदन्तीत्रिवृचित्राकृष्णामूलं विचूर्णितम् । हन्यात्तथान्यानपि वातरोगान् ॥ तच्चूर्ण गुडसंमिश्रं भक्षयेत्मातरुत्थितः॥ अद्रक, सोंठ, हैड़ और पीपल में से किसी एतद्गुडाष्टकं नाम बलवर्णाग्निवर्धनम् । एक वस्तुके चूर्णको गुड़में मिलाकर १५ दिन | शोथोदावर्तशूलघ्नं प्लीहपाण्डवा मयापहम् ।। अथवा १ मास पर्यन्त प्रतिदिन १-१ कर्ष (१। त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल ) दन्तीमूल, तोले) मात्रा बढ़ाकर १२ कर्षकी मात्रा पर्यन्त निसोत, चीतेकी जड़की छाल, और पीपला मूल । पहुंचने तक सेवन करने से सूजन, जुकाम, गले समान भाग लेकर चूर्ण करके गुड़में मिलाकर प्रातः और मुखके रोग, श्वास, खांसी, अरुचि, पोनस, काल सेवन करनेसे बल, वर्ण, अग्निकी वृद्धि तथा जीर्णज्वर, बवासीर और ग्रहणी विकारादि तथा शोथ, उदावर्त, शूल, तिल्ली और पाण्डु रोगका अन्य वातज रोगोंका नाश होता है। नाश होता है। (प्र. वि.---१२ कर्ष मात्रातक पहुंचने के प्र. वि. गुड सबके बराबर मिलाकर ३ माशेसे पश्चात् प्रतिदिन १-१ कर्ष मात्रा घटानी चाहिए। ६ माशे तककी मात्रानुसार उष्ण जलके साथ यदि १२ कर्ष मात्रा सहन न हो सके तो | सेवन करना चाहिए । रोगी और रोग के बलाबलका विचार करके अधि- | (१२६८) गुडूचीलौहम् कसे अधिक जितनी मात्रा सहन हो सके उतनी (र, का. धे., भै. र. । वा. र., रसें. चि. । अ. ९. तक बढ़ाना चाहिए अथवा एक कर्षके स्थानमें | र. रा. मुं., रसें. सा. सं । पित्त. रो. आधा या चौथाई कर्ष मात्रा नित्यं बढ़ानी चाहिए। गुडूचीसत्वसंयुक्तं त्रिकत्रययुतं त्वयः । अनुपानमें उष्ण जलका व्यवहार किया जा सकता है।) . वातरक्तं निहन्त्याशु सर्वरोगहरं तथा ॥ For Private And Personal Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।. [गकारादि - - गिलोयका सत, सोंठ, मिर्च, पीपल, हैड, बहेड़ा जाती है कि वह सैकड़ों स्त्रियों के साथ रमण आमला, दालचीनी, तेजपात, और नागकेसर ?--2 कर सकता है। भाग तथा शुद्ध लोहचूर्ण ( अथवा भस्म ) १० (१२७२) गुडूच्यादि चूर्णम् (भै. र. । प्ली.) भाग लेकर चूर्ण करके ( शहद और घृतमें मिला- गुडूच्यतिविषाशुण्ठीभूनिम्बो यवतिक्तकम् । कर ) सेवन करनेसे वातरक्त नष्ट होता है। मुस्तऋणायवक्षारः कासीसं भ्रमरातिथिः ।। (१२६९) गुडूच्यादि चूर्णम् (वृ. नि.र । शु.रो.) एतेषां समभागेन चूर्णमेव विनिर्दिशेत् । पीतमुष्णाम्भसा चूर्ण, गुडूचीमरिचोद्भवम् । यकृतप्लीहपाण्डुरोगमनिमान्यमरोचकम् ।। हृच्छलं वातशूलश्च ,हन्ति पथ्याशनो नरः॥ ज्वरमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा। पथ्यपालन पूर्वक गिलोय और मिर्चका चूर्ण नानादेशोद्भवं चैव वारिदोषभवं तथा ॥ गरम पानीके साथ पीनेसे हृदयका शूल और वातज विरुद्धभेषजभवं ज्वरमाशु व्यपोहति ॥ शूल नष्ट होता है। ___ गिलोय, अतीस, सोंठ चिरायता, यवतिक्ता, नोट-इसी ग्रन्थमें अन्यत्र कथित इसी प्रयोग मोथा, पीपल, यवक्षार कसीस और चम्पा। सब को जम्बीरी नीम्बूके साथ सेवन करनेका विधानहै। ओषधियां समान भाग लेकर चर्ण कर लीजिए। (१२७०) गुडूच्यादिगणः (हा. सं. । क्ष. रो.) यह यकृत , प्लीहा, पाण्डुरोग अग्निमांद्य, अरोचक, गुडूची च बले द्वे च, धात्री च मरिचानि च। आठ प्रकारके साध्य तथा असाध्य ज्वर, नाना चूर्ण गुडेन संयुक्त राजयक्ष्मापहं नृणाम् ॥ देशों के जलदोषसे उत्पन्न ज्वर तथा विरुद्ध औषध ___ गिलोय, खरैटी, कंधी आमला और मिर्चके से उत्पन्न ज्वरको शीत्र नष्ट कर देता है। वर्णको गुड़के साथ सेवन करने से राजयक्ष्मा का (१२७३) गुडूच्यादि चूर्णम् (बं से. । श्ली.) नाश होता है। पिवेदेवं गुडूची वा नागरं भद्दारु च । (१२७१) गुडूच्यादि चर्णम् (यो. चि. । वाजी.) पिबेत्सर्षपतैलेन श्लीपदानां निवृत्तये ॥ सत्वं गुडूच्या गगनं सलौहं, गिलोय, सोंठ और देवदारु के चूर्ण को ___एलासितामागधिका समेतम् ।। (गोमूत्र ) अथवा सरसों के तेलके साथ पीनेसे एतत्समस्तं मधुनावलीढं, स्लीपद रोग नष्ट होता है। रामाशतं सेवयतीह षण्ढः।। (१२७४) गुडूच्यादि प्रयोगः (यो. र. । मेद.) __ गिलोय का सत्व, अभ्रकभस्म, लोह भस्म, गुडूचीभद्रमुस्तानां प्रयोगखैफलस्तथा।। इलायची, मिश्री और पीपल समान भाग लेकर। . तक्रारिष्टप्रयोगश्च प्रयोगो माक्षिकस्य च ॥ चर्ण बना लीजिए। इसे शहद में मिला कर गिलोय, भद्रमुस्ता ( नागरमोथा ), त्रिफला, (आधेमाशे की मात्रानुसार) सेवन करनेसे नपुंसक तक्रारिष्ट अथवा शहद सेवन करनेसे मेद रोग मनुष्य में भी इतनी अधिक कामशक्ति उत्पन्न हो नष्ट होता है। For Private And Personal Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२९] (१२७५) गुडूच्यादि रसायनचूर्णम् । इसे काञ्जी, शुक्त, मधु अथवा यूषके साथ (वं. मा.। रसा., यो. चिं.। चूर्ण अ.; वंग. से. । रसा.)। पीनेसे गुल्म और अश्मरीका नाश होता है। गुडूच्यपामार्गविडङ्गशविनी . (१२७७) गुल्महरचूर्णम् (यो, त.। त,४५) वचाभयाशुण्ठिशतावरी समम् ।। क्षारद्वयानलव्योषनीली लवणपञ्चकम् । घृतेन लीढं प्रकरोति मानवं चूणितं सर्पिपा पेयं सर्वगुल्मोदरापहम् ॥ त्रिभिर्दिनैः श्लोकसहस्रधारिणम् ।। दोनों क्षार (सजी क्षार, जवाखार), चीना, गिलोय, चिरचिटा, बायबिडंग, शंखाहोली | त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) नील और पाचा (शंखपुष्पी), बच, हर्र, सोंठ और शतावर समान लवण । (समान भाग लेकर ) चूर्ण करके वृतमें भाग लेकर चूर्ण करें। इसे घृतमें मिलाकर चाट- मिलाकर पीनेसे सर्व प्रकारके गुम और उदर रोग नेसे ३ दिनमें ही स्मरण शक्ति इतनी हो जाती | नष्ट होते हैं। है कि प्रतिदिन १ सहस्र श्लोक कण्ठ किए जा | (प्र. वि. ३ माशे पूर्ण १ तोला. चुतमें सकते हैं। मिलाकर प्रातःसायं सेवन करें।) प्र. वि. ३ माशा 'चूर्ण १ तोला धृतमें। (१२७८) गुह्यदौर्गन्ध्यनाशनः योग: मिलाकर प्रातः सायं चाट कर ऊपरसे मिश्री युक्त (यो. स. । स. ५) दूध पीना चाहिए। उशीरमांसीजलचन्दनैश्च सपद्मकै केसरकुष्ठयुक्तैः। (१२७६) गुल्मनाशकचूर्णम् (च. सं.) . त्रिरात्रिमुद्वर्तनकं वराङ्गप्रक्लेददुर्गन्धविनाश हेतुः।। त्रुटिं सुराहां लवणानि पञ्च, खस, जटामांसी, सुगन्धवाला, सफेदचन्दन, यवाग्रज कुन्दुरुकाश्मभेदौ। पद्माख, केसर (जाफरान या नागकेसर) और कम्पिल्लक गोक्षुरकस्य बीज- . । कूल समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। इसे मेरवारुबीजं त्रपुषस्य वीजम् ॥ मर्दन करने से स्त्रियोंके गुह्य भाग की दुर्गन्ध चूर्णीकृतं चित्रकहिङ्गमांसी और क्लेद (आर्द्रता)का ३ दिनमें नाश हो जाताहै। यवानितुल्यं त्रिफला द्विभागम् । (१२७९) गृहधूमादि चूर्णम् (वं.से.। विष.अ.) अम्लैः सशुक्तैः रसमद्ययषैः गृहधूमं हरिद्रे द्वे समूलं तण्डुलीयकम् । पेयं हि गुल्माश्मरीभेदनार्थम् ॥ अपि वासुकिना दंष्ट्रः पिबेदधिनप्लुतम् ।। छोटी इलायची, देवदारु, पांचों नमक, यव- घरका धुवां, दोनों हल्दी (हल्दी, दारु हल्दो) क्षार, कुन्दरु, पत्थरचटा, कबीला, गोखरु, ककड़ी और मूल सहित चौलाई का पौदा समान भाग और खीरेके बीज, चीता, हींग, · जटामांसी और | लेकर पीसकर दही और घृतमें मिलाकर पिलाना अजवायन एक एक भाग तथा त्रिफला दो भाग सर्प दंश ( सापसे काटे हुवे रोगी) के लिए लेकर चूर्ण बना लीजिए। हितकर है। १ ब्राह्मी वचेति पाठभेदः । For Private And Personal Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि (१२८०) गृहधूमादि चूर्णम् (वं.से.। ब्र.रो.अ.) गोक्षुरकःक्षुरकाशतमूलीगृहधूमः सलवणः सकिण्वतिलचित्रकः। वानरीनागबलातिवला च । मेदोदुष्टत्रणान्याशु शोषयेन्मधुमिश्रितः॥ धरका धुवां, सेंधानमक, सुराबीज और तिल । वाजिकरं परंम मनुजानाम्॥ (अथवा तिलकी खल) और चित्रकके चूर्णको गोखरु, तालमखाना, शतावर, कौंचकेबीज, शहद में मिलाकर लेप करनेसे (अथवा इनकी पट्टी | नागवला (खरैटी भेद ) और खरैटी के चूर्णको लगानेसे) मेदसे दुष्ट व्रण शीत्र शुष्क हो जाते हैं । गत्रिके समय दृधके साथ सेवन कीजिए। यह अत्यन्त बाजीकरण है। (१२८१) गैरिकादि चूर्णम् ( यो. र. । यो. कन्द, चि. ) . । (१२८५)गोक्षुरादि चूर्णम् (वा. भ.। वाजी०) गैरिकाम्रास्थिजठर जन्यञ्जनकटफलाः । श्वदंप्रेचरमापामगुप्ताबीजशतावरी । परयेद्योनिमेतेषां चूर्गः क्षौद्रसमन्वितः ।। पिबन्क्षीरेण जीर्णोऽपि गच्छति प्रमदाशतम् ।। गेरु, आमकी गुठलीकी गिरी (गर्भ), ह दी, ___गोबरु, ईखकी जड़, उड़द, कौंचकेबीज और सरमा (अथवा रसौत ) और कायफल के चर्णको | शतावर के चूर्णको दृधमें मिलाकर पीनेसे वृद्ध पुरुषमें भी सैंकडों स्त्रियोंके साथ रमण करनेकी योनिमें भरने से गोलिकन्द नष्ट होता है। शक्ति आ जाती है। (१२८२) गोक्षुरचूर्णम् । (१२८६) गोक्षुरादि पञ्चमूलम् ( नि. र. ) (यो, र.। नपुंसका,, बं, से । रसा, ) गोक्षुरो बदरी चेन्द्रवारुणी कासमर्दिका। शमयति गोक्षुरचूर्ण छागीरेण साधितं समधु। गोक्षुरायं पश्चमूलं शिरीषेण समन्वितम् ॥ भुक्तक्षपयति पाण्डयं यज्जनितं कुप्रयोगेण ।। गोक्षुरादिकपश्चानां मूलं कुष्टार्शनाशनम् । गोखरू के चूर्णको बकरी के दृधमें पकाकर | वृष्यं वातं कर्फ गुल्मं व्रणं चामश्च नाशयेत्।। मधु मिलाकर पीनेसे कुप्रयोगों से उत्पन्न हुआ गोखरू, बेर, इन्द्रायण, कसौंदी और सिरस । नपुंसकत्व नष्ट होता है। . इन पांचोंकी जड़के समूहका नाम “ गोक्षुरादि (१२८३)गोक्षुरादि चूर्णम्(हा.सं.स्था.३अ.३५) पञ्चमूल " है । यह कुष्ट अश, वात, कफ, गुल्म, गोक्षुरकस्य बीजानां धातुमाक्षिकं संयुतम् । व्रण, तथा आम नाशक और वृष्य है। चूर्ण महिषीदुग्धेन पानं चाश्मरिपातनम् ॥ (१२८७) गोजिहादि चूर्णम् (बृ.नि.रं.। ज्व.) गोखरू और सोनामक्खीके चूर्ण ( भस्म) को गोजिह्वा च जपामूलं पिष्ट्वा तण्डुलवारिणा । भैसके दूधके साथ सेवन करनेसे अश्मरी (पथरी) | पीतं शीतज्वरं हन्ति पाठाद्भिर्मरिचानि च । निकल जाती है। गोभी, और जपा ( हारसिंहार ) की जड़को (१२८४) गोक्षुरादि चूर्णम् तण्डुल जलमें पीसकर अथवा पाठाके काथमें मिर्च (नपुंसका. त. ३ यो. त. । त. ८४) मिलाकर पीनेसे शीतज्वर नष्ट होता है। For Private And Personal Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । कषायप्रकरणम् ] (१२८८) गोधूम चूर्णम् (यो.र., वृ.यो.त. भग्न. चि.) ईप द्विदग्धगोधूमचूर्ण पीतं समाक्षिकम् । कटसन्धिषु भग्नेषु भग्नेष्वस्थिषु पूजितम् ।। किञ्चिद्दग्ध ( अधजले ) गेहूं का चूर्ण शह दमें मिलाकर पीने से कमर, सन्धि और हड्डीके में अत्यन्त हित करता है । (१२८९) गोधूमपार्थचूर्णम् (वं. मा . । ह.) तैलाज्यगुट विपकं चूर्ण गोधूमपार्थजं वाऽपि । पिवति पयोनु च सभवेज्जितसकलहदामयः पुरुषः ॥ गेहूं या अर्जुनकी छाल चूर्णको तेल, घृत और गुड़में पकाकर दूधके साथ सेवन करने से सर्व प्रकार के हृद्रोग नष्ट होते हैं । (१२९०) गोधूमादिचूर्णम् ( वृं. मा.; वृ. नि. र. ह. रोग ) गोधूमककुभचूर्ण छागपयोगव्यसर्पिषा पकम् । मधुशर्करासमेतं शमयति हृद्रोगमुद्धतं पुंसाम् ॥ | गेहूं और अर्जुनकी छाल चूर्णको बकरी के दूध और गायके में पकाकर ( टण्डा होनेपर) शहद और मिश्री मिलाकर सेवन करने से अत्यन्त प्रवृद्ध हृद्रोग भी नष्ट हो जाता 1 (१२९१) गोधूमादिचूर्णम् (बृ.नि.र. । स्नायु.) गोधूमशणवीजस्य चूर्ण ग्राह्यं समांशकम् । gauri गुडेनातं त्रिदिनात्स्नायुकापहम् ॥ गेहूं और सनके बीजांके, समान भाग चूर्णको धीमें पका कर गुड़ मिलाकर ३ दिन तक सेवन करनेसे स्नायु (नहरुआ ) नष्ट हो जाता है । (१२९२) गोमूत्रमण्डूरम् (वं. से.यो. र. शो.) गोमूत्रसिद्धमण्डूरं सुरभीरसभावितम् । माणका कन्दानां रसेष्वपि च भावयेत् !! Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३१] त्रिफला कटु चन्यानां चूर्ण पाणितलद्वयम् । निहन्ति सर्वजं शोफं सर्वाङ्गं च विशेषतः || गोमूत्र सिद्ध मण्डूरको तुलसी, मानकन्द और rash स्वरस की भावना देकर उसमें संभ भाग मिश्रित त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) कुटकी और चयका चूर्ण (मण्डर के बराबर ) मिला लीजिए । इसे २ कर्ष की मात्रानुसार सेवन करने से सर्वदोषज और विशेषतः सर्वागगत शोष नष्ट होता है । (१२९३) गोमूत्रसिद्धमण्डूरम् ( च द । शूला. २६) गोमूत्रसिद्धं मण्डूरं त्रिफला चूर्णसंयुतम् । विहन्मधुसर्पिभ्यां शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ।। गोमूत्र सिद्ध (गोमूत्र में पक) मण्डर और हर्र, बहेड़ा तथा आमलेका चूर्ण समान भाग मिलाकर सेवन करने से त्रिदोषज शूल नष्ट होता है । (१२९४) गोमूत्र हरीतकीयोगः (वृ.वि.र.पां.) त्रिसप्ताहं गवां मूत्रैरभयां च विभावयेत् । एकैका भक्षिता नित्यं पाण्डुरोगविनाशिनी ॥ (पीटी-बड़ी) हैडको २१ दिन तक गोमूत्र में भिगोए रखनेके बाद नित्य प्रति १ हैड़ (पीस कर- उष्ण जलके साथ ) सेवन करनेसे पाण्ड रोग नम्र होता है । (प्र. वि. हैड़ों को गुठली रहित करके भिगोना चाहिए और प्रतिदिन नया गोमूत्र बदलते रहना चाहिए ) (१२९५) गोरोचनचूर्णम् ( र. र. । विप.) नृणां मृत्रेण संपिट गोपित्तमधुसंयुतः । For Private And Personal Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि शगालैरथमार्जारैमण्डूकैरथवाहिमिः ॥ (१२९९)ग्रन्धिकादि चूर्णम् (वृ.नि.र.का०) कालेनापि हि दष्टस्य मृतसञ्जीवनो ह्ययम् ॥ । ग्रन्थिकमागधिमहौषधै रुचितं____ गोरोचनको मनुष्यके मूत्रमें पीसकर शहदमें चूर्णमिदं मधुना युतम् । मिलाकर प्रयुक्त करनेसे, गीदड, बिल्ली, मेंडक और हरति कासभवं दरमाततं विविधदोषहरं च निषेवितम् ।। सांपका विष नष्ट होता है। पीपलामूल, पीपल, बहेडा और सोंठके चूर्णको (१२९६) गोरोचनचूर्णम् (यो. र.,भा.१।ज्वर.)। शहदमें मिलाकर चाटनेसे खांसीसे उत्पन्न होनेवाले गोरोचनं च मरिच रास्ना कुष्ठं च पिप्पली। विकार नष्ट होते हैं। उष्णोदकेन पीतं च सर्वज्वरविनाशनम् ।। | (१३००)ग्रन्थिकाद्यं चूर्णम् (ग.नि०म०रो०३) ___ गोरोचन, स्याह मिर्च, रारना, कूट और सग्रन्थिकं त्रिकटुक लवणत्रयं च । पीपलके चूर्णको ( ३ माशेकी मात्रानुसार ) उष्ण क्षारद्वयं सचविकं च सचित्रकं च । जलके साथ सेवन करनेसे सब प्रकारके चर नष्ट | सानाजीदीप्यमिशिहिङ्गु विधाय चूर्णम् हो जाते हैं। सद्वीजपूरकरसप्लुतमेतदेषाम् ॥ तक्रेण कोष्णसलिलेन तुषाम्बुना वा । (१२९७) गोरोचनादि चूर्णम् (यो. र. । ने. रो.) पीतं कुलत्थयवकोलरसेन चापि। रोचनाक्षारतुत्थानि यिप्पल्यः क्षौद्रमेव च ।। मन्दानलेषु नृषु दीप्तिकरं ग्रहण्याप्रतिसारणमेकैकं भिन्ने लगणे इष्यते ॥ मर्शस्सु गुल्मिषु च भेषजमेतदेव।। लगण ( नेत्रकी पलकमें होनेवाली फुसी पीपलामूल, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल ) (पिटिका ) विशेष )के फूट जाने पर गोरोचन, सेंधानमक, कालानमक, सांभरनमक, जवाखार, यवनार, तृतिया, और पीपलमसे किसी एकके | जजीरवार, चव, चीता, जीरा, अजवायन, सौंफ, और हींग (धीमें भुना हुवा ) समान भाग लेकर चर्णको शहद में मिलाकर प्रतिसारण करना (रगड़ना) चर्ण बना लीजिए और फिर उसे बिजौरे नीबूके चाहिए। रसमें घोटकर रख लीजिए। (१२९८)गोङ्गवचादिचूर्णम् वै.म.।पटल १६) इसे ( १॥ माशेकी मात्रानुसार) तक, किश्चिमहिषीनवनीतयुतं गोशृङ्गवचाश्वगन्धबहुलम् । दुष्णजल, काजी, जौके अथवा कुलथीके क्वाथ के सांथ सेवन करने से मन्दाग्नि दीम होती और अर्श दिनकरतप्तं कुर्यादंसस्थललम्बिनौ कर्णौ । तथा गुल्म रोग नष्ट होता है। ___ गायकासींग बच और असगन्धके चूर्णको ग्रहणीशालचर्णम् (भै. र. । ग्रहण्य० ) भैसके घृतमें मिलाकर थोड़े समय तक धूपमें | रस प्रकरणमें अवलोकन कीजिए । रक्खा रहने दीजिए। ग्रीष्मौ .विरेचनम् (यो. त. । ७ त.) इसकी मालिश करनेसे कान बहुत अधिक त्रिवृद्विरेचन अवलोकन कीजिए। बड़े हो जाते हैं। इति गकगदि चूर्णप्रकरणम् । For Private And Personal Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३३] अथ गकारादि गुटिकाप्रकरणम् त्रिफला, चित्रक ( चीता ) केलेकी जड़, चनाके क्षुपक ( वृक्ष ), मन्दारका पञ्चाङ्ग । इनके गगनगर्भा वटी (र. र. स. उ. ख. । अ. २१) जुदे जुदे क्षार बनाले । और नवसादरको डमरु (रस प्रकरणमें देखिए ।) यन्त्रमें रखकर दो पहरकी अग्निसे उसका फूल गगनगर्भिता वटी (र. का. धे. । अ. ३७) उड़ाले । इन सब क्षारोंको समान समान लेकर (रस प्रकरणमें देखिए ।) प्रतिसारणीय क्षारके साथ घोटकर हंडिया के गगनादि वटी (र. सा. सं. वातव्या.) संपुटमें रखकर कुक्कुट पुट में फूंकदे तो अपूर्व क्षार. (रस प्रकरणमें देखिए । बन जायगा । इस क्षारके समान पाँचों नमक (१३०१) गन्धकवटी (र. सा. सं. । अजीर्ण.) (सेंवानोन, कालानोन सांभरनोन, खारीनोन, सा'शुद्धगन्धकं भागैकं सत्वं शुण्ठयाश्चतुर्गुणम् । मुद्रनोन ) डालकर और कुल चीजोंसे आधी शुद्ध निम्बुनीरेण समर्थ सप्तवारं विशेषतः ॥ गन्धक डालकर बिजौरे नीबूके रस के साथ घोटे। पुनश्च सैन्धवं क्षेप्यं यथारुचि भिषग्वरैः। | बाद सोंठ, मिर्च, पोपल, चित्रक, घीमें भुनी हुई चणकपमिता कुर्याद्वटिकां रुचिदायिनीम् ॥ हींग और घोमें भुना हुवा सफेद जीरा, ये सब भोजनान्ते सदा देया गन्धकाख्या वटी शुभा।। औषधे गन्धकसे चतुर्गुण लेकर अम्लबेतके काथके ....शुद्ध गन्धक १ भाग और सोंठका सत ४ भाग साथ और घीमें छौके हुवे लशुनके रसके साथ लेकर दोनोंको नीबूके रसकी सात भावना देकर घोटकर गोलियां बनाले । ये गोलियां अजीर्ण, यथारुचि सेंधानमक मिलाकर चने के बराबर अतिसार, हैजा, संग्रहणी आदि अनेक रोगोंके नष्ट गोलियां बना लीजिए। करने वाली हैं और बहुत स्वादिष्ट हैं । __ यह “ गन्धकवटी " नित्य भोजनके अन्तमें ___ (मूल पुस्तकसे उद्धृत) सेवन करनेसे रुचि और अग्निवृद्धि करती है। (१३०३) गन्धकवटी (वै. र. । अग्नि. मां.) (१३०२) गन्धकवटी (रसायनसार पृ. ५१०) | गन्धकं मरिचं चुकं सौवर्चलसमन्वितम् । चराग्निरम्भाचणकार्कजातं, टङ्कप्रमाणगुटिकां बद्धकोष्ठेऽग्निदीपनी ॥ क्षारश्च पुष्पं नवसादरस्य । - गन्धक, स्याहमिर्च, और सौंचल नमक को सुधाम्बुघृष्टं पुटितं वितस्तो, चुक्र में पीसकर एक एक टङ्क (४ माशे ) की पुटे समानं पटुपञ्चकश्च ॥ गोलियां बना लीजिए। यह कोष्ठ बद्धता नाशिनी तदर्धगन्धं च चतुर्गुणाश्च, और अग्नि दीपिनी हैं। व्योषाग्निसंभर्जितजीरवाहीः। (१३०४) गन्धकवटी (वै. र. । अग्नि मां.) घृष्ट्वाज्यभृष्टे लशुनेऽम्लजीरे, गन्धकं मरिचं शुण्ठी सैन्धवं यवजं लवम् । वटी:करोत्वग्निमयीरजीणे॥ । निम्बूरसेन वटिका चणमात्राग्निदीपिनी॥ भा० ५ For Private And Personal Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [गकारादि ..गन्धक, स्याहमिर्च, सोंठ, सेंवा, यवक्षार (प्र. वि.-गुड़ अन्य समस्त चूर्णके बराबर और लौंग समान भाग लेकर चूर्ण करके नीबूके मिलाना चाहिए। मात्रा ३ माशे । अनुपान -- रसमें धोटकर चनेके बराबर गोलियां बना लीजिए। उगजल) .... यह गोलियां अग्निको प्रदीप करती हैं। (१३०७) गुडपिप्पलीमोदक (भै. ,धन्व.ली.) (१३०५) गन्धकादिवटी (हा.स.स्था.३अ.४) विडॉ यूषणं कुष्ठं हिगुलवणपञ्चकम् । गन्धकं सैन्धवं व्योषं निम्बरसविमर्दितम् । त्रिक्षारं फेनकं वह्निः श्रेयसी चोपकुञ्चिका ॥ आतुरो भक्षयेच्छीघ्रं विषचीनां निवारणम् ।। तालपुष्पोद्भवं क्षार नाड्याः कृष्माण्डकस्य च । गन्धक, सेंधानमक और त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, अपामार्गस्थ चिञ्चायाश्चर्णानि चिक्कणानि च॥ पोपल) का चूर्ण समान भाग लेकर नीबके रममें सर्वचूर्णसमं देयं चूर्णमत्र कणोद्भवम् । घोटकर गोलियां बना लीजिए। एतस्माद्विगुणाच्चूर्णात्पुराणो द्विगुणो गुडः।। ___ विचिका (हैजा) होने पर तुरन्त ही इन मर्दयिन्वा दृढे पात्रे मोदकानुपकल्पयेत् । गोलियांका सेवन प्रारम्भ कर देना चाहिए। भक्षयेदुष्णतोयेन प्लीहानं हन्ति दुस्तरम् ॥ गुग्गुल गुटिकां (ग. नि.) यकृतं पञ्चगुल्मञ्च उदरं सर्वरूपकम् ।। गुग्गुलवटकः (यो. र., भा. प्र.) जीर्णज्वरं तथा शोथं कासं पञ्चविधं तथा ॥ गुग्गुल वटिका (भा. प्र., र. र.) अश्विभ्यां निर्मिता श्रेष्ठाबालानां गुडपिप्पली।। गुग्गुलवटी (वं. से.) ... बायबिडङ्ग, सोंठ, मिर्च, पीपल, कृठ, हींग, गुग्गुल्वादि वटी (. नि. र.) पांचो नगक यवक्षार. सजीक्षार, सुहागा. समुद्रफेन, गुग्गुल प्रकरणमें देखिए चीता. सौंफ, कलौंजी, नालपुष्प और पेटेकी बेलका गुञ्जागर्भरसायनम् (यो. र.) क्षार, अपामार्ग (चिरचिटे) का क्षार और इमल्टीका गुनारमेन्द्रवटी (भै. र.) खार, एकएक भाग तथा पीपलका पूर्ण समस्त ग्स प्रकरणमें अवलोकन कीजिए। ओषधियों के बराबर लेकर खूब महीन खरल कीजिए (१३०६) गुडचतुष्टयावटिका (यो.चिं.अ.३) और समस्त चर्णसे चार गुना पुराना गुड मिलाकर गुडविश्वौषधं पथ्यामागधीदाडिमैः कृता । कृटकर मोदक बना लीजिए। - गुटिहन्ति भक्ष्यमाणागुल्मार्शोवहिजागदान॥ अधिनी कुमारों द्वारा आविष्कृत इस गुड .. सोंठ, हर्र पीपल और अनार दानेके समान पिपलीको जल के साथ सेवन करनेसे यकृत भाग चूर्ण को गुड़ में मिलाकर गोलियां बना (जिगर), प्लीह (तिल्ली), पांच प्रकारके गुल्म रोग, लीजिए। सर्व प्रकारके उदररोग, जीर्णज्वर, शोथ और पांच इनके सेवनसे गुल्म, बवासीर और अग्निदोष प्रकारकी खासीका नाश होता है। नष्ट होते हैं। यह बालकों के लिए विशेष लाभदायक है। For Private And Personal Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकामकरणम्] द्वितीयो भागः। । ३५] wnाम प (पूर्ण मात्रा--१ तोला तक) (१३११) गुडादि मोदकः (१३०८) गुडपिप्पलीमोदकः (र. र. । प्ली.) (यो. र. । अ. पि., ग. नि.) . पलैकं गुडमादाय पिप्पलीश्च तथैव च । गुडपिपलीपथ्याभिस्तुल्याभिर्मोदकः कृतः। हिंगुत्रिकटुकादीनां सैन्धवानां द्विमाषिकम् ।। पित्तश्लेष्महरःमोक्तो मन्दाग्नित्वं च नाशयेत् ॥ चित्रकश्च विडठचैव द्वौक्षारौ शिखरी तथा। समान भाग गुड़, पीपल और हैइसे निर्मित तालपुष्प कोकिलाक्ष चिश्चाक्षार सफनकम्॥ मोदक पित्त, कफ . और अग्निमांद्यका नाश स्नुहीक्षारसमायुक्त प्लीहज्वरविनाशनम् ॥ करते हैं। __गुड़ १पल, पीपल १पलं, हींग, सोंठ, मिर्च, (मात्रा--६ माशेसे १ तोले तक । उष्ण जलके साथ; प्रातःसायं सेवन कीजिए.) सज्जीखार, अपामार्ग (चिरचिटे) का क्षार, ताल-: (१३१२) गुडादि मोदकः (बं. से. । विरे.) पुष्ष, तालमखाना, इमलीका खार, समुद्रफेन, और गुडस्याष्टंपलं पथ्या विंशतिः स्युः पलानि च । थोहरका क्षार प्रत्येक २-२ मासे लेकर यथा दन्तीचित्रकयोः कर्षों पिप्पलीत्रिवृतोर्दश । विधि मोदक बना लीजिए। . इनके सेवनसे निल्ली रोग और वर नष्ट । कृत्वैतान्मोदकानेकं दशमे दशमेऽहि । होता है। स खादेदुष्णसेवी चाहारे नियन्त्रणास्त्वमी ।। " (मात्रा---- १ तोले तक । अनुपान उष्णजन्न ।) | दोषना ग्रहणीपाण्डुरोगार्श कुष्ठनाशनाः॥ (१३०९) गुडादि गुटिका (शा. सं.। गुटि.अ.) गुड़ ८ पल (८ छटांक), हैड(पोली)२० पल, गुडशुण्ठीशिवामुस्तैर्गुटिका धारयेन्मुखे। | दन्तीमल, चौता, २॥ २॥तोले, पीपल और निसोत : श्वासकासेषु सर्वेषु केवलं वा विभीतकम ॥ १०.१० कर्ष(१२।। तोले)लेकर चूर्ण करके मोदक गुड, सोंठ, हर्र और मोथा समान भाग | बनाएं । हर दसवें दिन एक मोदक उष्ण जलके लेकर (पानीसे पीसकर) गोलियां बना लीजिए। साथ सेवन करने से ग्रहगी, पाण्डु, अर्श, और कुष्ठ इन्हें अथवा केवल (घीमें भुने हुवे) बहेडेको रोग नष्ट होता है । इसके सेवन कालमें उष्ण पदार्थ मुखमें रखकर (रस चूसनेसे ) सर्व प्रकारके स्वास सेवन करने चाहिए अन्य किसी प्रकारके परहेज़की कास रोग नष्ट होते हैं। आवश्यक्ता नहीं है। (१३१०) गुडादि मण्डूरम (र. का.धे.। पाण्डु) . (व्यवहारिक मात्रा १ तोला) गुडनागरमण्डूरतिलशान्मानतः समान् । (१३१३) गुडूचीमोदका*( भा. प्र. । च.) पिप्पली द्विगुणा दत्वा गुटिका पाण्डुरोगिणाम अमृतायाः शतं चूर्ण वाससा परिशोधितम् । गुड, सोंठ, मण्डर, और तिल १.... भाग | पृथक्षोडशभागाः स्युर्मुडमाक्षिकसर्पिषा ॥ तथा पीपल दो भाग लेकर यथा विधि गुटिका यथाग्निभक्षयेदेतन्नरो हितमिताशनः । बनाकर सेवन करनेसे पाण्डुरोग नष्ट होता है। नास्यकश्चिद्भवेयाधिन जरा पलितं न च ।। यह प्रयोग अकारादि गुटिका प्रकरणमें सम्मिलित होनेसे. टूट गया है । For Private And Personal Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv [३६] भारत-भैषज्य-रत्माकरः। [गकारादि न ज्वरा विषमा नैव मोहा नानिलरक्तकम् ।। सा भक्षणीया किलजीर्णतापे, न च नेत्रगतारोगा परमेतद्रसायनम् ॥ शीतोदकं मुद्गरसं च पथ्यम् ।। मेधाकरं त्रिदोषघ्नं प्रयोगादस्य बुद्धिमान् । घरके धुको आकके दूधमें भली भांति जीवेद्वर्षशतं साग्रं तथैवादितिजस्तथा ॥ घोटकर गोलियां बना लीजिए । गिलोयका कपड़छन चूर्ण १०० भाग तथा | यह गोलियां जीर्ण ज्वरमें हितकर हैं । इनके गुड़, शहद और घृत प्रत्येक १६-१६ भाग सेवन कालमें शीतल जल और मंगका यूष पथ्य है। लेकर यथाविधि मोदक बना लीजिए । इन्हें पथ्य | . (मात्रा–१ रत्तीसे २ रत्ती तक ) एवं मिताहार पालनपूर्वक अग्निबलोचित मात्रा | (१३१५) गोक्षुरकादि वटी (यो.र. प्रमे. चि.) नुसार सेवन करनेसे मनुष्य व्याधि, जरा ( वृद्धा त्रिकटु त्रिफला तुल्यं गुग्गुलं च समांशकम् । वस्था), पालित्यं (बाल सफेद होना ), विषमज्वर, गोक्षुरकाथं समायुक्तां गुटिकां कारयेद्बुधः॥ मोह, वातरक्त और नेत्ररोगोंसे सुरक्षित रहता है देशकालबलापेक्षी भक्षयच्चानुलोमिकाम् । यह महारसायन मेधावर्द्धक और त्रिदोषनाशक | न चात्र परिहारोस्ति कर्मकुर्याद्यथेप्सितम् ।। है । इसके सेवनसे मनुष्य प्रतिष्ठापूर्वक १०० वर्ष | प्रमेहान्वातरोगांश्च वातशोणितमेव च । पर्यन्त जीवित रह सकता है। मूत्राघातं मूत्रदोषं प्रदरं चानु नाशयेत् ॥ गुडूच्यादि मोदकः ( वृ. नि. र.) ___ सोंठ, मिर्च, पीपल, हैड, बहेड़ा, और रस प्रकरणमें देखिए । आमला एक एक भाग तथा ( शुद्ध ) गूगल ६ गुडूच्यादिवर्तिः (च. सं. । ने. चि.) भाग लेकर (चूर्ण करके ) गोखरुके काथमें अञ्जन प्रकरणमें अवलोकन कीजिए । घोटकर गोलियां बना लीजिए। गुणावतीवर्तिः (धन्व. । ब्र. चि.) इन्हें देश, काल और बलके अनुसार सेवन लेप प्रकरणमें अवलोकन कीजिए । करनेसे प्रमेह, वातव्याधि, वातरक्त, मूत्राघात, मूत्र दोष और प्रदर रोग नष्ट होता है । गुल्मवज्रिणी वटी (र. रा. मुं.) इन गोलियोंके सेवन कालमें किसी प्रकारके रस प्रकरणमें देखिए । परहेजकी आवश्यकता नहीं है; यथेच्छ आहार विहार गुल्महरिवर्तिः ( सु. सं. । उत्त. अ. ४२) कर सकते हैं। मिश्र प्रकरणमें अवलोकन कीजिए । (टिप्पणी साधारण मात्रा-३ माशे । अनु(१३१४) गृहधूमगुटिका (यो. स. । समु. ३) पान उष्णजल । विशेष परहेज़ न भी कियाजाय अर्कस्य दुग्धेन गृहस्य धूम, तथापि साधारण पथ्यापथ्यका ध्यान अवश्य रखना संमर्थ सम्यग्गुटिका विधेया। चाहिए । ) For Private And Personal Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गुटिकामकरणम् ] गोरक्षवटी रस प्रकरण में देखिए । www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । कुर्यान्मोचरसान्वितं समजये लोध्रं समङ्गारजाः ॥ चातुर्जातकचव्यजीरकयुगं, व्योषारलूग्रन्थिकम् । (१३१६)ग्रहणीकपाटवटिका (यो.चिं.। गुटिका. ३) (१३१७) ग्रहणी शार्दूलवटिका (भै.र. प्र. चि. जातीफलं देवपुष्पमजाजीकुष्ठटङ्कणम् । विडन्त्वगेलाधत्तूरं फणिफेनसमं समम् ॥ प्रसारिणीरसेनैव संमद्ये वटिका कृता । यथा दोषानुपानेन सेविता ग्रहणीं हरेत् ॥ नानावर्णमतीसारं दारुणाञ्च प्रवाहिकाम् । नाना ग्रहणीशार्दूलवटिका ग्राहिणी परम् ॥ श्रीवृक्षांतिविषाजमोदयुगलं, चूतास्थि पाठाम्बुदम् || यष्टी चेन्द्रयवालिकास्थिकवचा, द्वासावनो तद्गुहान् ॥ आवध्य ग्रहणीकपाट टिका नक्षप्रमाणान्भजेत् । साध्याया ग्रहणीविकाररुधिरा तिसारविच्छित || चातुर्जात (तेजपात, दाल चीनी, इलायची, नागकेसर ) चत्र्य, सफेद जीरा, स्याहजीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, अरल (सोनापाठ) की छाल, पीपलामूल, बेलगिरी, अतीस, अजमोद, अजवायन, की गुठली ( का गूदा ) पाठा ( जलजमनी), नागरमोथा, मुलैठी, इन्द्रयव, इम्लीके बीज, बच, लोध मजीठ और मोचरस समान भाग लेकर चूर्ण करके सबके समान गुड़ में मिलाकर एकएक कर्ष (१ । तोले) की गोलियां बना लीजिए | यह 'ग्रहणी कपाट' नामक वटिका साध्यासाध्य ग्रहणो विकार और रक्तातिसारका नाश करती हैं। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३७ ] ग्रहणीगजेन्द्रवटिका (भै. र. र. सा. सं. (ग्रह) ( रस प्रकरण में देखिए ) जायफल, लौंग, जीरा, कूठ, सुहागेकी खील, बायबिडङ्ग, दारचीनी, इलायची, धतूरे के बीज और अफीम बराबर बराबर लेकर प्रसारिणी ( खीप) के रस में घोटकर गोलियां बना लीजिए । .. इन्हें यथा दोष अनुपान और उचित मात्रानुसार सेवन करनेसे ग्रहणी, अनेक वर्ण संयुक्त अतिसार और प्रबल प्रवाहिका, नष्ट होती है । इसका नाम " ग्रहणीशार्दूल वटिका " है । (१३१८) ग्रह नाशिनी गुटिका ( र. र. स. बा.रो.) राजीकरञ्जपुन्नाटशिरीषार्क निशाद्वयम् ।. प्रियंङ्गत्रिफलादारुहिंगुव्योषकुचन्दनम् ॥ मञ्जिष्ठोग्राजमूत्रं च गुटिका ग्रहणाशिनी । पाननस्याञ्जनालेपस्नानोद्वर्त्तनधूपनात् ॥ राई ( अथवा बाबची ), करञ्जकी गिरी, पवाड़ के बीज, सिरसकी छाल, अर्क (आक), हल्दी, दारूहल्दी, फूल प्रियङ्गु, त्रिफला ( हर्र, बहेड़ा, आमला ) देवद्वार, हींग, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), पतङ्ग, मजीठ और बचके महीन चूर्णको बकरी के मूत्र में पीसकर गोलियां बना लीजिए । इन्हें पान, नस्य, अञ्जन, लेप, स्नान, उद्वर्तन, (मात्रा ६ माशे । तक्रके साथ प्रातः सायं और धूमद्वारा प्रयुक्त करनेसे ग्रहदोष नष्ट होता है । सेवन करें। ) इति गकरादि गुटिका प्रकरणम् For Private And Personal Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि अथ गकारादि गुग्गुलप्रकरणम् । वातरोगे(१३२०) गुग्गुलुकल्पः (ग. नि.। औ. क.; रास्ना गुडूची चैरण्डो दशमूलं प्रसारिणी । हा. सं. । स्था. '५ अ. ५) काथं तेषां यथायोग्यं यवान्या वातिके पिबेत् ।। हिमवच्छिखरे रम्ये सिद्धचारणसेविते । पित्तरोगेतत्रस्थं भिषजां श्रेष्ठमात्रेयमृषिपुङ्गवम् ॥ पृथकतैर्जीवनीयैः पिबेत्पित्तामयादितः । देदीप्यमानं तपसा ज्वलन्तमिव पावकम् ।। वासाचन्दनहीबेरं मृद्रीका तिक्तरोहिणी ॥ विनयादुपसंगम्य हारीतः परिपृष्टवान् ॥ खजूरश्च परूषश्च तथा जीवकर्षभको । भगवन् ! गुग्गुलोर्नामयोगवीर्यमथोगुणाः। सपित्तरोगे पानाय काथास्याद गुग्गुल्वन्वितः।। वक्तुमर्हसि रोगेषु येषु वापि प्रशस्यते ॥ कफरोगे--- एवमुक्तस्तु शिष्येण प्रत्युवाच महातपाः। त्रिफलाव्योपगोमूत्रनिम्बधान्यकपुष्करैः। मरुभूमौ प्रजायन्ते प्रायशः पुरपादपाः ॥ अमृता दीप्यकाकाथः पटोली च कफार्दितः॥ भानोर्मयुखैः सततं ग्रीष्मे मुश्चन्ति गुग्गुलुः। व्रणादौहिमादिता वा हेमन्ते, विधिवत्तं समाहरेत् ॥ नाडीदुष्टत्रणग्रन्थिगण्डमालार्बुदान्वितः। जातरूपनिभं शुभं पद्मरागनिभं कचित् । त्रिफलाकाथसंयुक्तं पिबेन्मेही व्रणी तथा ।। कचिन्महिषनेत्राभं यक्षदैवतवल्लभम् ।। किरातकामृतानिम्बवृषाव्याघ्रीदुरालभाः। विज्ञानं तस्य विधिवनिवोध गदतो मम । एषां काथेन संयुक्तं गुग्गुलं पाययेद्भिषक ।। गुग्गुलोर्गुणाः गुल्मे कासे क्षते श्वासे विधावरुचौ व्रणे। त्रिदोषशमनो वृष्यः स्निग्धोवृंहणदीपनः ।।। कण्डवादौगुग्गुलुः कटुकः पाके वर्ण्यश्च बलवर्धनः । दाऊपटोलक्काथेन संयुतं गुग्गुलं पिबेत् ।। . आयुष्यः श्रीकरः पुण्यः स्मृति मेधाविवर्धनः ॥ कण्डपिटकशोफाये पिबेद् वातकफापहम् । पापप्रशमनः श्रेष्ठः शुक्रात्तेवकरः स्मृतः। पाण्डवादौगुग्गुलोप्रयोगविधिः पथ्यापुनर्नवादावींगोमूत्रममृता तथा ॥ वर्णगन्धरसोपेतो गुग्गुलुर्मात्रया युतः॥ एषां काथो हितः पाण्डौ शोथोदककिलासिनाम् । भेषजैः सह निःकाथ्यो यथा व्याधिहरैः पृथक्। गुग्गुलोर्मात्रामात्रावशिष्टं तं दृष्ट्वा गालयेच्छुक्लबाससा ॥ भवेन्मात्रां पलं यावत्कर्षादारभ्य यत्नतः ।। मृण्मये हेमपात्रे च राजते स्फाटिकेऽपि वा। जीर्णेऽश्नीयान्मुद्गरैः.......... पुण्ये तिथौ शुभे ये च जीर्णाहारक्षमान्विते ॥ पयसा षष्टिकानं च शालीनामोदनं मृदुः।। हुत्वाग्नि पर्युपासीत देवब्राह्मणभक्तितः। दिनानि सप्त प्रथमा मध्यमा द्विगुणा स्मृता। प्रविश्य कुमुमाकीर्णे मन्दिरे च समाश्रितः ॥ त्रिगुणा परमा मात्रा विज्ञेया योगचिन्तकैः।। For Private And Personal Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गुगुलु प्रकरणम् ] www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । सेवनफलम् - ।। सेवते गुग्गुलं यो वै वर्षेणापि नरः क्रमात् । स्थावराज्जङ्गमाच्चैव न स्थादस्थ क्षतिर्विषात् ॥ निर्मुक्तो बलितवचोपि पलितो वृद्धो युवा जायते Share goatfari वृद्धत्वहीनो भवेत् ॥ गुल्माष्ठीलकमामवातशमनः कुठं प्रमेहाश्मरीं । शूलानाहविसर्परक्तशमनो भूतोपसृजे हितः ।। सिद्धचारणसेवित, रम्यस्थल हिमगिरि शिखरपर विराजमान्, भिषग्श्रेष्ट, ऋषिपुङ्गव, तपतेजसे देदीप्यमान् महर्षि आत्रेयके निकट अत्यन्त विनम्रभाव से जाकर श्री हारीतने प्रश्न किया- "महाराज गुग्गुलु (गूगल) का प्रयोग, वीर्य, गुण और यह कि वह किन किन रोगों में प्रयुक्त किया जा सकता है बतलाने की कृपा कीजिए।" यह सुनकर महर्षि आत्रेयने उत्तर दिया कि गूगल के वृक्ष प्रायः मरुभूमि (रेगिस्तान), में उत्पन्न होते हैं । गुगुल (इन्ही वृक्ष गोंदका नाम है जो ) निरन्तर सूर्य के तापसे उत्तप्त होकर ग्रीष्म ऋतुमें और शीतके प्रभावसे हेमन्त ऋतु में निकलता है । इसे यथाविधि संग्रहीत करना चाहिए । (गुग्गुल आकृति भेदसे अनेक प्रकारका होता है), • किसीका रंग स्वर्ण सदृश उच्चल, किसीका पद्मरागमणिके समान, और किसी जातिके गुग्गु लुका रंग भैंस के नेत्र के समान नीलवर्ण संयुक्त होता है । यह यक्ष और देवताओंको अत्यन्त प्रिय है । अब में गुग्गुल वैधविधानका वर्णन करता हूं, सुनो [३९] - संस्कारक), बलवर्द्धक, आयुष्य, (आयुकी वृद्धि करनेवाला), कान्ति, मेधा और स्मृतिवर्द्धक, पाप (पीड़ा) नाशक, तथा शुक्र और आर्तत्र शोधक है । प्रयोग विधिः - यथोचित वर्ण, गन्ध और रस संयुक्त गुग्गुलु यथोचित मात्रानुसार लेकर ( जिस रोग में सेवन करना हो उस ) रोगको शान्त करनेवाली औषधियों के साथ पकाइए । जब पीने योग्य जलशेष रह जाय तो उतारकर स्वच्छ वस्त्रसे मृत्तिका, स्वर्ण, रजत अथवा स्फटिक के पात्रमं छान लीजिए । इस भांति निर्मित गुग्गुलुकाको शुभकाल आहार पचजानेके पश्चात् क्षमतापूर्वक, अग्निहोत्र और भक्तिपूर्वक देव-ब्राह्मण - पूजा करके पुष्पोंसे सुसज्जित मन्दिर में प्रवेश करके पीना चाहिए । araरोगोंकी शान्ति के लिए रास्ना, गिलोय, अरण्डमूल, दशमूल, प्रसारिणी और अजSatara काके साथ सेवन करना चाहिए । पित्तरोगोंकी शान्तिके लिए जीवनीय गणकी औषधियों में से किसी एकके काथके साथ अथवा बासा, लाल चन्दन, नेत्रवाला, मुनक्का, कुटकी, खजूर, फालसा, जीवक और ऋषभक के काधके साथ पीना चाहिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कफरोगी शान्ति के लिए - त्रिफला, (हरे, बहेड़ा, आमला), त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पोपल), गोमूत्र, नीमकी छाल, धनिया, पोखरमूल, गिलोय, अजवायन और पटोलपत्र के काथके साथ सेवन करना चाहिए | व्रण, नामूर, ग्रन्थि, गण्डमाला, अर्बुद और प्रमेही शान्ति के लिए त्रिफला के काथके गुग्गुलोर्गुणाः - गुग्गुल त्रिदोषनाशक, वृष्य, स्निग्ध, वृंहण, दीपन, पाकमें कटु, वर्ण्य ( वर्ण । साथ सेवन करना चाहिए । For Private And Personal Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। - [गकारादि __ गुल्म, कास, क्षत, श्वास, विद्रधि अरुचि नोट-उपरोक्त मात्रा वर्तमान कालके लिए और व्रणमें-चिरायता, गिलोय, नीमको छाल, अधिक है अतएव आधा माशासे ३ माशे तक बासा, कटेली और धमासेके काथके साथ सेवन सेवन कराना चाहिए। कराना चाहिए। (१३२१) गुग्गुलुकल्पः (सु.सं.।चि.स्था.अ.५) कण्डू (खुजली), पिडिका, शोफ और सुगन्धि सुलघुः मूक्ष्मस्तीक्ष्णोष्णः कटुको रसः। वातकफकी शान्तिके लिए दारुहल्दी और कटुपाकसरो हृयो गुग्गुलु स्निग्धपिच्छिलः॥ पटोलपत्रके काथके साथ सेवन कराना चाहिए। सनवो वृंहणो वृष्यःपुराणस्त्वपकर्षणः।। पाण्डु, शोथ, जलोदर और किलास कुष्ठको तैष्ण्योष्ण्यात्कफवातनःसरत्वान्मलपित्तनुत् ॥ नष्ट करने के लिए हर्र, पुनर्नवा, दारुहल्दी, गोमूत्र सौगन्ध्यात प्रतिकोष्ठनः सौक्ष्म्याच्चानलदीपनः । और गिलोय के क्वाथके साथ सेवन करना चाहिए। तम्प्रातत्रिफलादावीपटोलकुशवारिभिः॥ गुग्गुलोर्मात्रा---गुग्गुलु १ कर्ष (१। तोले) पिबेदावाप्य वा मूत्रैः क्षारैरुष्णोदकेन वा। से प्रारम्भ करके १ पल (५ तोले) तककी मात्रा- | जीर्णे यषरसक्षीरैर्भुञ्जानो हन्ति मासतः ॥ नुसार यत्नपूर्वक सेवन कराना चाहिए। प्रथम गुल्मं मेहमुदावर्तमुदरं सभगन्दरम् । सप्ताहमें प्रथमा मात्रा (१ कर्ष), दूसरे सप्ताहमें कृमिकण्ड्वरुचिश्वित्रायदग्रन्थिमेव च ॥ मध्यमा मात्रा और तृतीय सलाहमें उत्तमा मात्रा नाड्याढयवातश्वयथुकुष्ठदुष्टत्रणांश्च सः। सेवन करानी चाहिए। कोष्ठसन्ध्यस्थिगं वायुं वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ मध्यमा मात्रा प्रथमा भात्रासे द्विगुण और गुग्गुल, सुगन्धित, लघु, सूक्ष्म, तीक्ष्ण, उष्ण उत्तमा त्रिगुण समझनी चाहिए। और रसपाकमें कटु तथा सर, हृद्य स्निग्ध और पथ्यः----गुग्गुलु पच जानेपर मुंगके यूष | पिच्छिल है। नवीन गुग्गुलुवंहण, और वृष्य तथा अथवा दूधके साथ षष्ठि (साठी) अथवा शालि | पुरातन अपकर्षक (कृश करनेवाला) होता है। चावलोंका मृदु भात खाना चाहिए। यह तीक्ष्णता ओर उष्णतासे कफनाशक, गुग्गुलुसेवन फलम् --जो मनुष्य एक वर्ष | सर होनेके कारण मल और पित्त सारक, सुगन्धि पर्यंत क्रमपूर्वक गुग्गुलु सेवन करता है उसे स्थावर | से दुर्गन्धनाशक तथा सूक्ष्मता के कारण अग्नि अथवा जङ्गम विषसे हानि नहीं पहुंच सकती। | दीपक है। वृद्ध पुरुष भी बलिपलित रहित युवकके समान हो । गुग्गुलुको प्रातःकाल एकमास पर्यन्त त्रिजाता है । इसके सेवनसे मेधा, दृष्टि, बल, ओज | फला, दारु हल्दी पटोलपत्र और कुशाके काथ, और वीर्य की वृद्धि तथा, जरा, गुल्म, अष्ठीला, आम- | गोमूत्र, क्षारजल अथवा उष्ण जलके साथ सेवन वात, कुष्ठ, प्रमेह, अश्मरी, शूल, आनाह विसर्प, | करने और उसके पचने पर (मूंगांदिका) यूष तथा ‘रक्तदोष और भूतवाधाका नाश होता है । | दुग्धाहार करनेसे गुल्म, प्रमेह, उदावर्त, उदररोग, For Private And Personal Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४१ ] - भगन्दर, कृमि, कण्डू (खुजली), अरुचि, श्वित्र, गोमूत्रके साथ गूगल अथवा अरण्डीका तैल अर्बुद ( रसौलो ) ग्रन्थि, नाडीव्रण, आढ्यवात, पीनेसे पुरातन वातज अण्डवृद्धिरोग शीघ्र नष्ट शोथ, कुष्ट, दुष्टब्रण, कोष्ठगतवायु तथा सन्धि और | होता है । अस्थिगत वायु अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है। । (१३२४) गुग्गुलप्रयोयः (रा. मा.।भगन्द१७) (१३२२) गुग्गुलगुटिका काथोदकेन मिलितत्रिफलोद्भवेन । (ग. नि. । परिशिष्ट, गुटि. ४) पीतः प्रणाशयति तत्खलु गुग्गुलुर्वा ।। गुग्गुलु कुडवाद ककुभत्वगयोरजोविडङ्गानि। त्रिफलाके क्वाथके साथ गुग्गुलु सेवन करने भल्लातकगोक्षुरको त्रिता त्रिफलाद्वितीयाधम्॥ से भगन्दर रोग नष्ट होता है ।। भुक्तवैनांगुटिकां यथेष्टचरितः षण्मासयोगात्पुमान् (मात्रा २ माशे । प्रोतः सायं सेवन करें।) सव्याधीसभगन्दरान्सपिटिकानीसि- (१३२५) गुग्गुलुप्रयोगः (ग. नि. । शोफा.) दुष्टत्रणान् ॥ पुनर्नवादारुशुण्ठीकाथे मूत्रेऽथ केवले । खालित्यं पलितं जरामपि तनोर्जित्वाप्रदीप्तानलः। दशमूलरसे वापि गुग्गुलुः शोफनाशनः ॥ सौभाग्याप्तसुखो निरामयतनु वेत्समानांशतम्॥ गूगलको पुनर्नवा, देवदार और सोंठके ___ गूगल २ पल (१० तोले), अर्जुनकी छाल, क्वाथके साथ अथवा केवल गोमूत्रके साथ या दशलोहचूर्ण (भस्म), बायबिडङ्ग, शुद्धभिलावा, गोखरु, मूलके क्वाथके साथ सेवन करने से शोथ रोग निसोत, और द्वितीय त्रिफला ( हस्व त्रिफला- नष्ट होता है। खम्भारी, मुनक्का और फालसेके फल) आधा आधा (१३२६) गुग्गुलरसायनम् (वं. से.। रसाय.) कुडव (१०-१० तोले) लेकर यथाविधि गुटिका त्रिफलाशनखदिरामृतवर्षाभूभृङ्गगोक्षुरकाथे। बना लीजिए। साढिकेतु गुग्गुलुःपलानि त्रिंशश्च लेहवद्विपचेत॥ इन्हें ६ मास पर्यन्त यथेच्छाहार विहारपूर्वक मधुघृतसिताविमिश्रंलिहेन्नरःकान्तिबलबुद्धियुतः सेवन करनेसे भगन्दर, पिडिका, अर्श, कुष्ठ ब्रण, तथा गदैविमुक्तो जीवति सम्वत्सरास्त्रिशतान् ।। खालित्य (गंज), पालित्य (बाल श्वेत होना) और त्रिफला, असन, खैर, गिलोय, पुनर्नवा, जगका नाश होकर अग्नि प्रदीप्त होती है, तथा | भांगरा और गोखरुके १॥ आढक (६ सेर) काथ मनुष्य सौभाग्य और सुखपूर्वक १०० वर्ष पर्यन्त | में ३० पल (७१॥-) गूगल मिलाकर अवलेहके जीवित रहता है। | समान पाक सिद्ध करके उसमें यथोचित मात्रानु(१३२३) गुग्गुलुप्रयोगः (बृ.मा.।वृद्धय. ४.) सार शहद, घृत और मिश्री मिला लीजिए। गुग्गुलुं रुबुतैलं वा गोमूत्रेण पिबेन्नरः। इसके सेवनसे मनुष्य कान्ति, बल और बुद्धि वातद्धिं निहन्त्याशुचिरकालानुबन्धिनीम्॥ युक्त होकर ३०० वर्ष पर्यन्त जीवित रहता है। भा०६ For Private And Personal Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1- भैषज्य -- - रत्नाकरः [ ४२ ] (१३२७) गुग्गुलुरसायनम् ( र. र. स. । उ. खं अ. २६ ) कान्ताभ्रत्रिफलाविडङ्गरजनी ताप्याद्धदेव द्रुम व्योपैलाग्नपुनर्नवा प्रिगिरिजाङ्कोलैः समंगुग्गुलुम् | पिट्राभृङ्गजलेन सूक्ष्मगुटिकां खादेद्यथासात्म्यतो मेदः श्लेष्मसमीरणोल्वणगदेष्वन्येषु वा पुरुषः।। कान्तलोह भस्म, अभ्रक भस्म, त्रिफला (हरे, बहेड़ा, आमला), बायबिडंग, हन्दी, स्वर्णमाक्षिक म, नागरमोथा, देवदारु, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) इलायची, चीता, पुनर्नवा, शिलाजीत और अङ्कल (अङ्कोट) एक एक भाग तथा गूगल सबके समान लेकर भांगरेके स्वरस ( अथवा काथ) में घोटकर गोलियां बना लीजिए । | भारत इन्हें यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ सेवन करने से मेदरोग और कफ वातज रोग नष्ट होते हैं 1 (साधारण मात्रा १ ॥ से ३ माशे तक । उष्ण जल के साथ ) (१३२८)गुग्गुलुवटकः (यो.र. भा. २.भा.प्र.) त्र.रो.) त्रिफला चूर्णसंयुक्तो गुग्गुलुर्वटकीकृतः । निषेवितो विबन्धनो व्रणशोधनरोपणः || समान भाग त्रिफला चूर्ण और गुग्गुल मिलाकर टक बना लीजिए । इनके सेवन से मलावरोध नष्ट होता तथा धाव शुद्ध होकर भर आता है I (मात्रा ३ माशे । अनुपान त्रिफला काय या उष्ण जल ) (१३२९) गुग्गुलुवाटिका (भा.प्र. र. र. (बणरो.) विडङ्गत्रिफलाव्योषचूर्ण गुग्गुलुना समम् । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि effer anी कृत्वा खादेद्वा हितभोजनः ॥ दुष्टव्रणापची मेहकुष्ठनाडी विशोधनम् ॥ बाय बिड़ङ्ग, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) और त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) का चूर्ण १-१ भाग तथा इन सबके समान शुद्ध गुग्गुल लेकर घृतमें कूटकर गोलियां बना लीजिए । इन्हे पथ्य - पालनपूर्वक सेवन करनेसे दुष्टव्रण, अपची, प्रमेह, कुष्ठ और नाड़ीत्रणरोग नष्ट होता है । ( मात्रा २ माशे, अनुपान त्रिफलाका या बायबिडंगका काथ अथवा उष्ण जल | ) (१३३०) गुग्गुलुवटी (बं.से.; भा. प्र. । वातरक्ता.) गुग्गुल्वमृतवल्लीभिर्द्राक्षालुङ्गरसेन वा । त्रिफलाया रसैर्युक्ता गुटिका कोलसम्मिता ॥ भक्षयेन्मधुनाऽऽलोड्य शृणु कुर्वन्ति यत्फलम् । पादस्फोटं महाघोरं स्फोटं सर्वाङ्गजञ्च यत् ।। तत्सर्वं नाशयत्याशु ह्यसाध्यं वातशोणितम् ॥ गिलोय के स्वरस अथवा काथ, या मुनक्का के काथ अथवा बिजौरे नीबू के रस या त्रिफले के काथमें गूगलको घोटकर १–१ कोल (४-४ माशे) की गोलियां बना लीजिए । इन्हें शहद में मिलाकर सेवन करने से पैर अथवा शरीरका भयङ्कर स्फोट ( फटना ) और असाध्य ( कष्टसाध्य ) वातरक्त शीघ्र नष्ट होता है । (१३३१) गुग्गुलुशोधनम् (र.सा.सं. पृ.सं.) gattarai क्षीरे चैव विशेषतः । पकत्वा च खण्डशः शुद्धं गृह्णीयान्मृदुगुग्गुलम् ॥ arest चूर्ण करके गिलोय, और त्रिफला के काथ तथा दूधमें (पृथक् पृथक् ) पकाकर (छान ऐसे) वह शुद्ध हो जाता है । For Private And Personal Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुपकरणम् ] द्वितीयो भागः। ४३ ] (१३३२) गुग्गुलुशोधनम् (र.र.।उप.१०) (१३३५) गुग्गुल्वादिवटी (वृ.नि.र.।अर्श.चि.) दशमूलकाथ उष्णे पूते गुग्गुलुं लशुनं निम्बबीजरामठनागरैः । गुग्गुलुं परिक्षिप्यालोड्य च । गुटी शीतोदकेनोक्ताअर्शान् हन्ति च तत्क्षणात्।। वस्त्रपूतं विधाय चण्डा गूगल, लशुन (ल्हसन ), निबौली, हींग तपे विशोष्य घृतं दत्वा पिण्डिम् ॥ (घीमें भुना हुवा ) और सोंठ समान भाग लेकर गूगलको दश मूलके स्वच्छ (वस्त्रपूत) और चूण करके गोलियां बना लीजिए। उष्ण काथमें मिलाकर कपड़ेसे छानकर तेज धूपमें । इन्हें शीतल जलके साथ सेवन करनेसे सुखानेके पश्चात् घृत डालकर कूटनेसे वह शुद्ध अश रोग (बवासीर ) अत्यन्त शीघ्र नष्ट होती है। हो जाता है। (मात्रा १॥ माशा) (१३३३) गुग्गुल्वादिप्रयोगचतुष्टयः (१३३६) गुडूच्यादिगुग्गुलुः (यो.र.वा.व्या.) (वं. मा. । शोथा. ) गुडूचीत्रिफलाकाथैर्गुग्गुलुः पिण्डितो वरः। परं मत्रेण संसेव्यं पिप्पली वा पयोन्विता। क्रोष्टशीर्ष निहन्त्युच्चैः सेवितो मासमात्रतः ।। गुडेन वाऽभया तुल्या विश्वं वा शोथरोगिणाम् ॥ गिलोय और त्रिफलेके काथमें गूगलको कूटशोथ रोगकी शान्तिके लिए गोमूत्रके साथ कर गोलियां बना लीजिए। इन्हें एक मास पर्यन्त सेवन करनेसे भयङ्कर गूगल, वा दृधके साथ पीपलका चूर्ण, या गुड़के क्रोष्टुशीर्षका भी नाश हो जाता है । साथ समान भाग हैड़ अथवा गुड़ और सोंठ समान | ___(मात्रा- १||माशा, अनुपान त्रिफला या भाग मिलाकर सेवन करना चाहिए। गिलोयका काथ) ( मात्रा प्रत्येक ३ माशे । ) (१३३७) गोक्षुरादिगुग्गुलुः (१३३४) गुग्गुल्धादियोगः ( वृ. नि. र. । प्रमेह., शा. सं. । खं. २ अ. ७; ( वा. भ. । उ. स्था. अ. २८, ग. नि. । भग.) यो. चि. । मिश्र. अ. ७; वै. र. । मूत्रकृ.; ग. गुग्गुलुपञ्चपलं पलांशकामागधिका त्रिफलातथैव। नि. । प्र०; वृ. यो. त.। १०० त.; व. मा. प्र.) त्वत्रुटिकर्षयुतमधुलीढं कुष्ठभगन्दरगुल्मगतिघ्नम्।। अष्टाविंशति संख्यानि पलान्यानीय गोक्षुरात्। गूगल ५ पल (२५ तोले ) पीपलका चूर्ण विपचेत्पड्गुणे नीरे काथो ग्राह्योऽर्धशेषितः ॥ १ पल, त्रिफलाका चूर्ण १ पल तथा दालचीनी ततः पुनः पचेत्तत्र पुरं सप्तपलं क्षिपेत् । और छोटी इलायचीका चूर्ण १-१ कर्ष (१।तोला) गुडपाकसमाकारं ज्ञात्वा तत्र विनिःक्षिपेत् ।। लेकर एकत्र कृट लोजिए। इसे शहदके साथ त्रिकटु त्रिफला मुस्तं चूर्णितम् पलसप्तकम् । चाटनेते कुष्ठ, भगन्दर और गुल्म रोगकी वृद्धि | ततः पिण्डीकृतं चास्य गुटिकामुपयोजयेत् ।। रुक जाती है। हन्यात्पमेहं कृच्छं च प्रदरं मूत्रघातकम् । (मात्रा-१॥माशंसे ३ माशे तक) वातासं वातरोगांश्च शुक्रदोषं तथाश्मरीम् । For Private And Personal Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि vvvvvvvvvvvvvira २८ पल (१४० तोले ) गोखरुको ६ । क्षयेण च गृहीतानां परमेतद्भिपग्जितम् । गुने पानीमें पकाकर आधा शेष रहनेपर छान कासं श्वासं ज्वरं हिकां हन्तिच्छर्दिमरोचकम् ॥ लीजिए। इसके पश्चात् उसमें सात पल ( ३५ गुड्कूष्माण्डकं ख्यातमश्विभ्यां समुदाहृतम् । तो०) शुद्ध गूगल मिलाकर अवलेहके समान खण्डकूष्माण्डवत्पात्रं स्वित्रकूष्माण्डकद्रवः॥ पका लीजिए और फिर त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, ठेके उबाले और छिलके तथा बीजादि पीपल ), त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ) और रहित टुकड़े १०० पल (६। सेर) लेकर १-१ मोथेका ७ पल चूर्ण ( प्रत्येक वस्तुका १-१ पल प्रस्थ (१ सेर) घृत और तिलतैलमें भून लीजिए। चूर्ण ) मिलाकर कूटकर गोलियां बना लीजिए। और फिर १ तुला (१०० पल) गुड़की चाशनी इनके सेवनसे प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, प्रदर, मूत्रा बनाकर उसमें उक्त पेठा तथा दालचीनी, तेजपात घात, वातरक्त, वातव्याधि, शुक्रदोष और अश्मरी धनिया, सोंठ, मिर्च, पीपल, जीरा, छोटी इलायची, (पथरी) रोगका नाश होता है । बड़ी इलायची, चीता, पीपलामूल, चव्य, गजपीपल, इति गकरादि गुग्गुलु प्रकरणम् अदरक (सोंठ), सिंघाड़ा (शुष्क) कसेरु, तालवृक्ष की शाखा और तालमस्तकका १-१ पल (५तोले) अथ गकारादिलेहप्रकरणम् चूर्ण मिलाइये; तथा शीतल होने पर ८ पल शहद मिलाकर सुरक्षित रखिए । (१३३८) गुडकूष्माण्डकावलेहः अश्विनि कुमारों द्वारा आविष्कृत यह " गुड (वृं. मा.; धन्वन्तरि; बं, से.; भै. र.; र. र.। वाजी० | कूष्माण्ड" कफ, पित्त और वायुनाशक, अग्निदीपक, च.द। वृष्या.;.यो.त.। त.१४७; ग.;नि.लेहा.५) कृश (दुबले) मनुष्योंके लिए पौष्टिक, अत्यन्त कूष्माण्डकात्पलशतं सुस्विन्नं निष्कुलीकृतम् । वाजीकरण ( कामशक्तिको उत्तेजित करने वाला), प्रस्थश्च घृततैलस्य तस्मिंस्तप्ते प्रदापयेत् ॥ कास, स्वास, ज्वर, हिक्का छर्दि और अरुचि नाशक, त्वक्पनधान्यकव्योषजीरकैलाद्वयानलम् ।। तथा कामासक्त, क्षीणवीर्य और क्षयग्रस्त व्यक्तियों ग्रन्थिकं चव्यमातङ्गपिप्पल्यः शृङ्गवेरकम् ॥ के लिए अत्युपयोगी है। शृङ्गाटकं कसेरुश्च प्रलम्ब तालमस्तकम् ।। इस प्रयोगमें खण्डकुष्माण्डके समान १ पात्र चूर्णीकृतं पलांशं तु गुडस्य तुलया पचेत् ॥ | (१ आढक-४ सेर) पेठेका पानी (जिस पानीमें शीतीभूते पलान्यष्टौ मधुनः सम्पदापयेत् ।। | पेठा पकाया गया है) डालकर (गुड़की चाशनी कफपित्तानिलहरं मन्दाग्नीनाश्च दीपनम् ॥ बनानी चाहिए। कृशानां बृंहणं श्रेष्ठं वाजीकरणमुत्तमम् । (प्र. वि.-चाशनी न बनाकर पेंठ और प्रमदासु प्रसक्तानां ये च स्युः क्षीणरेतसः॥ गुड़को पेठेके पानीमें एकसाथ पकाकर भी गाढ़ा १ तिलनैलस्येति पाटान्तरम् । २ जीवलेति पाठ भेदः । ३ प्रवालमिति पाटभेदः For Private And Personal Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेहप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [४५] होने पर ओषधियोंका चूर्ण मिलाया जा सकता। (मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक। अनुपान है। मात्रा १ तोला । अनुपान दृध ।) दृध । तेल, खटाई और गर्म पदार्थों तथा धूप और (१३३९) गुडभल्लातकः (च. द. । अर्शा. ५) अग्नितापादिसे बचना चाहिए।) भल्लातकसहस्से द्वे जलद्रोणे विपाचयेत। (१३४०) गुडादिलेहः (वृ.नि. र. । श्वास.) पादशेषे रसे तस्मिन्पचेद गुडतुलां भिषक ॥ गुडोषणानिशारास्नाद्राक्षामागधिकासमाः । भल्लातकसहस्रार्ध छित्वा तत्रैव दापयेत् ।। तैलेन चूर्णिता लीढास्तीब्रश्वासनुदः स्मृताः।। सिद्धेऽस्मित्रिफलाव्योषयमानीमुस्तसैन्धवम् ॥ गुड़, स्याह मिर्च, हल्दी, रास्ना, मुनक्का, कोशसंमितं दद्यात्वगेलापत्रकेशरम् ।। और पीपल समान भाग लेकर चूर्णकरके तेलमें खादेदमिवलापेक्षी प्रातरुत्थाय मानवः ।। मिलाकर चाटनेसे तीव्र श्वास नष्ट होता है। कुष्ठाशः कामलामेहग्रहणीगुल्मपाण्डुताः।। (प्र. वि.---मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक। हन्याप्लीहोदरं कासक्रिमिरोगभगन्दरान् ।। कटु तैलमें मिलाकर प्रातः, दोपहर, सायम् सेवन 'गुडभल्लातको' ह्येष श्रेष्ठश्चाशेविकारिणाम् ।। करें ।) (१३४१) गुडाद्यं मण्डूरम् २ हज़ार (शुद्ध) भिलावोंको १ द्रोण (१६ (र. चं. । उदावर्त., वै. र. । शूल.) सेर) जलमें पकाइये, जब ४ सेर जल शेष रह गुडामलकपथ्यानां चूर्ण प्रत्येकशः पलम् । जाय तो छानकर उसमें १ तुला (१०० पल-६। त्रिपलं लौहकिदृस्य तत्सर्व मधुसर्पिषा ॥ सेर) गुड़ और ५०० शुद्ध भिलावोंकी पिट्ठी मिला समालोडय ततः खादेदक्षमात्राप्रमाणतः । कर पुनः पकाइये । जब अवलेहके समान गाढ़ा आयमध्यावसानेषु भोजनस्य निहन्ति तत ।। हो जाय तो उसमें त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) अन्नद्रवं जरत्पित्तमम्लपित्तं सुदारुणम् । त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) अजवायन, मोथा परिणामसमुत्थं च शूलं संवत्सरोत्थितम् ।। सेंधा नमक, दारचीनी, इलायची, तेजपात और गुड़, आमला और हर्रका चूर्ण १-१ पल नागकेसरका १-१ कर्ष (१। तोला) चूर्ण मिला | (५ तोले ) और मण्डूरका चूर्ण ( भस्म ) ३ पल कर सुरक्षित रखिए। लेकर सबको शहद और घीमें मिला लीजिए। इसे प्रातःकाल अग्नि बलानुसार सेवन करनेसे इसे भोजनके आदि मध्य और अन्तमें १ कुष्ट, अर्श, कामला, प्रमेह, ग्रहणी, गुल्म, पाण्डु, अक्ष (१। तोले ) की मात्रानुसार सेवन करनेसे प्लीहोदर, कास, कृमिरोग, और भगन्दरका नाश अन्नद्रव, जरत्पित्त, (शूलभेद), भयङ्कर अम्लपित्त, होता है। और १ वर्षका पुराना परिणाम शूल नष्ट होता है। ... यह " गुडभल्लातक" अर्श विकारको शान्त ( व्यवहारिक मात्रा १ माशा) करनेके लिए अत्यन्त उत्तम है । । (१३४२) गुडाचवलेहः (वृ. नि. र. । श्वास.) For Private And Personal Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [गकारादि गुडदाडिममृद्वीकापिप्पलीविश्वभेषजैः। हन्त्याशु मूत्रपरिदाहविवन्धशुक्रमातुलुङ्गरसं क्षौद्रं लीढं श्वासनिबर्हणम् ॥ .. कृच्छ्राश्मरीरुधिरमेहमधुप्रमेहान् ॥ ___ गुड़, अनारदाना, मुनक्का, पीपल और सोंठके मूल, पत्र, फल सहित १०० पल (६। सेर) चर्णको जम्बीरो नीबूके रस और शहदमें मिलाकर गोखरुको कूटकर एक द्रोण (१६ सेर ) जलमें चाटनेसे श्वास रोग नष्ट होता है। । पकाइये, जब चौथा भाग शेष रहजाय तो काथको ( मात्रा–३ माशे । नीबूका रस और शहद छानकर उसमें ५० पल खांड मिलाकर चाशनी १-१ तोला । प्रातः सायं, दोपहर सेवन करें।) बना लीजिए और फिर उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, (१३४३)गुडावलेहः(वृ.यो.त.।त.८;व.मा.हिक्का.) पान, दालचीनी, इलायची, जावित्री, अर्जुनकी गुडं कटुकतैलेन मिश्रयित्वा समं लिहेत् । छाल और खीरेका चूर्ण २-२ पल तथा बंसलोचन त्रिसप्ताहमयोगेण श्वासं निःशेषतो जयेत् ॥ का चूर्ण ८ पल मिला लीजिए । गुड़को समान भाग कटु तैलमें मिलाकर इसे नित्य प्रति १ पल ( ५ तोले) की ३ सप्ताह तक सेवन करनेसे श्वास रोग समूल नष्ट मात्रानुसार ( दूधके साथ ) सेवन करनेसे मूत्रकी होता है। दाह, मूत्रावरोध, मूत्रशुक्र, मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, रुधि( मात्रा-१-१ तोला । प्रातः सायम् सेवन | रमेह और मधुमेहका शीघ्र नाश होता है। करें।) (व्यवहारिक मात्रा १ तोला ) (१३४४) गोकण्टकाद्यवलेहः (१३४५)गोक्षुरादिलेह (भा.प्र.।ख.३ बाजी.) ( यो. चि. । पाका. १; 4. से. । प्रमे.; भा. प्र.। गोक्षुरेक्षुरवीजानि वाजिगन्धा शतावरी। प्र.; वृ. नि. र. । म. कृ) मुसलीबानरीबीजं यष्टी नागबलावला ॥ गोकण्टकं सदलमूलफलं ग्रहीत्वा एषां चूर्ण दुग्धसिद्धं गव्येनाज्येन भर्जितम् । सङ्कुट्टितं पलशतं कथितं तु तोये। सितया मोदकं कृत्वा भक्ष्यं वाजीकरं परम् ॥ पादस्थितेन सलिलेन पलानि दत्वा गोखरु, असगन्ध, शतावरी, मूसली, कौंचके पञ्चाशतं तु विपचेदय शर्करायाः ।। बीज, मुलेठी, नागबला (खरैटी भेद ) और तस्मिङ्घनत्वमुपगच्छति चूर्णितानि खरेंटी के समान भाग चूर्णको ४ गुने दृधमें दद्यात्पलद्वयमितानि मुभाजनानि । | पकाकर खोया बना लीजिए और फिर उसे गोशुण्ठीकणामरिचनागदलत्वगेली । घृतमें भूनकर समान भाग मिश्रीकी चाशनीमें मिला. जातीयकोषककुभत्रपुसीफलानि ॥ । ना लीजिए। वांशीपलाष्टकमिह प्रणिधाय नित्यम् यह अत्यन्त बाजीकर (कामशक्ति वर्धक) हैं। लेह्यं तु शुद्धममृतं पलसंमितन्तु । (मात्रा १ से २ तोले तक । दूधके साथ) १ टिजवाजकेसराणि संपातीनिपाठभेदः । For Private And Personal Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir থামন্ধ ] द्वितीयो भागः। [४७] (१३४६) ग्रहणीविजयावलेहः(यो.स.।ममु.४) अब्धेःशोषमजाजियुग्मरजनीधात्रीकणाकेसरम् । सिन्धून्थकृष्णाधनधातकीनां जातीकोषफले सदीप्यनलदं शुण्ठीकुबेराक्षकम् ।। सम्यग्रजोभिर्विपचेद्धितावत् । तुल्यं शर्करया तदर्द्धविजया प्रस्थार्धकं गोघृतम् । लेहत्वमुपगच्छति यावदेव युक्तया वैद्यवरेण निर्मितमिदं प्रौढाङ्गनादर्पनुत । सुशीतलः क्षौद्रयुतोऽतिसारं ॥ वीर्यस्तम्भकरं च पुष्टिजनकं वाजीकर कामिनाम् । लेहो हरेदाममथो विपकम् भुक्तोगोक्षुरपाक एप हरिणीनेत्राविलासात्पदम्।। मवेदनं वा वहुवर्णमयं __ गोग्वरुके १ प्रस्थ (१ सेर) महीन चूर्णको प्रवाहिका च ग्रहणी चिरोत्थाम् ॥ १ आढक ( ४ प्रस्थ ) दूधमें पकाकर खोया बना अशाशि सम्यग्विलयं प्रयान्ति लोजिए. फिर उसे आधा प्रस्थ गोधृतमें भून पापानि विष्णोरिव चिन्तनेन् ।। लीजिए। इसके पश्चात समस्त ओषधियोंके समान मंधानमक. पीपल्ट, नागरमोथा. और धायके मिश्रीकी चाशनी बनाकर उसमें उक्त खोवा और फूल समान भाग लेकर चूर्ण करके चार गुने खैग्मार (कथा), लौंग, लोहभस्म, स्याह मिर्च, कपूर, पानीमें पकाइये । जब चतुर्थांश शेष रह जाय तो सफेद आककी जड़की छाल, समुद्रसोख, सफेद उतारकर छान लीजिए और फिर पुनः पकाकर जीग, स्याह जीरा, हल्दी, आमला, पीपल, नागलेहके समान गाढ़ाकर लीजिए एवं शीतल होने | केसर, जावित्री, जायफल, अजवायन खस, सोंठ पर यथोचित मात्रानुसार शहदमें मिलाकर सेवन | और करञफलका चूर्ण समान भाग तथा भांग कीजिए। । सबसे आधी महीन चूर्ण करके मिला दीजिए । इसके सेवनसे आमातिसार, पक्वातिसार, वेदना- यह पाक वीर्यस्तम्भक, पौष्टिक, वाजीकर, युक्त और अनेक रंगका रक्तातिसार. प्रवाहिका ! और अत्यन्त कामशक्तिवर्द्धक है । (पेचिश) पुरानी संग्रहणी और अर्श रोग इस प्रकार (१३४८) गोक्षुरपाकः (वृ. यो. त.। १४७) नष्ट हो जाते हैं जैसे विष्णुक चिन्तनमे पाप ) । (मात्रा ६ माशेसे १ तोले तक ।। प्रस्थं गोक्षुरमूक्ष्मचूर्णमुदितं दुग्धाढके पाचितम् । जातीपत्रलवङ्गलोहमरिचं कर्परमाकल्लकम् ॥ इति गकारादिलेहप्रकरणम् । अब्वे शोषमनाजियुग्ममुसलीधात्रीकणाकेशरम् जातीकोशकले मदीप्यनलदं शुण्ठीकुबेराक्षजम् ।। अथ गकारादिपाकप्रकरणम् विपत्रं करिकेसरं गजकणारात्रिबलाबीजकम्। (१३४७) गोक्षुरकादिपाकः यो. न.।त.८०) चीनीकन्दयवानिकुङ्कमतुगाकर्षद्वयं योजयेत् ॥ पस्थं गोक्षुरमूक्ष्मचूर्णमुदितं दुग्धाढ के पाचितम् । तुल्यं शर्करया तदर्धविजयां प्रस्थाकं गोघृतम् । गायत्रीसलवङ्गलोहमरिचं कपूरमन्दारकम् ॥ युक्त्या वैद्यवरेण निर्मितमिदं प्रौढाङ्गनादर्पनुत् ।। For Private And Personal Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir NAAAAAAAnnivAAAAAVRANA [४८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि वीर्यस्तम्भनतुष्टिपुष्टिजनकं वाजीकरं कामिनाम्। क्षीणे पुष्टिकरं क्षयहरं वाजीकरं कामिनाम् । भुक्तो गोक्षुरपाक एषहरिणीनेत्राविलासात्पदम्॥ एतद्गर्वितमानिनीमृगरिपुर्याार्तिजित्वौषधम्॥ ____ गोखरुके १ प्रस्थ (१ सेर) महीन चूर्णको १ प्रस्थ ( १ सेर ) गोखरूके सूक्ष्म चर्णको १ आढक (४ सेर) दूधमें पकाकर खोया बन १ आढक दृधमें पकाकर खोवा बना लिजिए और जानेपर आधा प्रस्थ गोघृतमें भून लीजिए। इसके | फिर उसे २ प्रस्थ गोघृत में भूनकर निम्न लिखित पश्चात् खोया सहित समस्त ओषधि-के बराबर ओषधियोंके चर्ण सहित समान भाग मिश्रीकी मिश्री की चाशनी करके उसमें यह खोया और चाशनीमें मिलाकर मोदक बना लीजिए । निम्न लिखित ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित ___जावित्री, लौंग, लोध, मिर्च (स्याह) कपूर, रखिए। सेमलका गोंद, समन्दरसोख, धतूरेके बीज, हल्दी, जावित्री, लौंग, लोहभस्म, स्याहमिर्च, कपूर, आमला केसर, दालचीनी, तेजपात, नागकेसर, अकरकरा, समन्दरसोख, दोनों जीरे, मुसली (स्याह) इलायची, शुद्ध अफीम, कौंचके बीज और करञ्ज आमला, पीपल, केशर, जावित्री, जायफल, अज (करञ्जवे) की गिरो एक एक कर्ष । और भांग वायन, खस, सोंठ, करञ्जफल (करञ्जवेकी गिरी) सबसे आधी । दालचीनी, तेजपात, नागकेसर, गजपीपल, हल्दी खरैटीके बीज (बीजबन्द), चीनीकन्द, अजवायन, इसे यथोचित (३से ६ माशे तक) मात्रानुकेसर और बंसलोचन प्रत्येकका चूर्ण २-२ कर्ष | सार प्रातःकाल सेवन करनेसे अर्श, प्रमेह और (२॥ तोले) तथा सब ओषधियोंसे आधी भांग । क्षयका नाश होता है तथा क्षीणव्यक्ति पुष्ट होते यह 'गोक्षुरपाक' प्रौढाङ्गनादर्पनाशक, वीर्य हैं, कामियोंमें कामशक्ति प्रबल होती है। प्रमदास्तम्भक, बाजीकर, तथा तुष्टि और पुष्टिजनक है। प्रसङ्गसे स्त्री स्खलित होती है एवं मानिरी कामि(मात्रा १ तोला। दूधके साथ) नीका मद चूर चूर हो जाता है । (१३४९) गोक्षुरपाकः (यो. चि. म.। अ. १) (१३५०) गोक्षुरपाकः (वै. र. । अमेह०) प्रस्थं गोक्षुरसूक्ष्म चूर्णमुदितं दुग्धाढ के पाचितम्। चूर्णगोक्षुरतश्चतुःकुडविकनिक्षिप्य दुग्धाढके । जावित्री च लवङ्गलोध्रमरिचैःकर्पूरके शाल्मली॥ श्रीसंज्ञोषणलोहजातित्रिफलाकूपारशोषोषणा ॥ अधिशोषसुवर्णबीजरजनीधात्रीं कणाकेशरम् । एलेन्दृष्ट्रकजातिपत्ररजनीधाच्यः कुवेराक्षतो। चातुर्जातमथाहिफेनममलं कच्छूकुबेराख्यकम् ।। बीजंसर्पजफेनजात्यखिलमित्येतत्पृथक्कार्षिकम् ॥ तत्तुल्या च सिता तदर्धविजया प्रस्थद्वयं गोघृतम् । श्वेतासर्वसमाईतश्च विजयासपिः पुनःप्राश्य । प्रोक्तं वैद्यवरेण निर्मितमिदं मन्दाग्निना पाचयेत्। पक्त्वायुक्तितएतदक्षतुलितं मातर्भजेभेषजम् ।। प्रातःसेव्यमिदंहिमानवमितव्याधेश्चविध्वंसनम् । मेहस्तम्भनपोषतोषकदति प्रौढाङ्गनासंगमोअशीसेविहितं प्रमेहशमनं संङ्गेऽङ्गनाद्रावकम् ॥ हामानेकमनोजसंगरभिधातव्यं तु तेजःपदम् ।। For Private And Personal Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] 'द्वितीयो भागः। [४९] १ प्रस्थ (१ सेर) गोखरूके चूर्णको ४ सेर (प्र० वि० - घी १ सेर, जल ४ सेर और दूधमें पकाकर खोवा बना लीजिए; तत्पश्चात् इसे कक द्रव्य समान भाग मिश्रित पाव सेर लेकर १ प्रस्थ धीमें भूनकर समस्त ओषधियोंसे आधी घृत शेष रहने तक पकाएं।) मिश्रीकी चाशनीमें मिला लीजिए और साथ ही (१३५२) गव्यघृतादियोगः (च. द.। वृद्ध्य.) निम्नलिखित ओषधियोंका चूर्ण भी मिलाकर सुर गव्यं घृतं सैन्धवसंप्रयुक्तं क्षित रखिए-लौंग, पीपल, लोहभस्म, जायफल, शम्बूकमाण्डे निहितं प्रयत्नात् । त्रिफला, समुद्रशोष, काली मिर्च, इलायची, कपूर, सप्ताहमादित्यकरैविपक्वं । तालमखाना, जावित्री, हल्दी, आमला, करञ्जकी निहन्ति कूरण्डमतिप्रवृद्धम् ॥ ४ भाग गोधृत और १ भाग सेंधानमकको गिरी, और अफीम, प्रत्येक एक एक कर्ष (१३तो.) एकत्र करके शंखमें भरकर ७ दिन तक धूपमें और भांग समस्त ओषधियोंसे आधी । रक्खा रहने दीजिए । इसे प्रातःकाल १ कर्ष मात्रानुसार (दूध के इसे ( मर्दन, पानादि द्वारा ) सेवन करनेसे साथ) सेवन करनेसे प्रमेह रोग नष्ट होता और अत्यन्त प्रवृद्ध अण्डवृद्धि रोग भी नष्ट हो जाता है। तेज तथा स्तम्भनशक्ति बढ़ती है। (१३५३) गुग्गुलुतिक्तकंघृतम् (ग.नि. । घृता.) | निम्बामृतापटोलानां कण्टकार्या वृषस्य च। अथ गकरादिघृतप्रकरणम् पृथग्दशपलान्भागान् जलद्रोणे विपाचयेत् ।। तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् । (१३५१) गरविषहरघृतम् (अमृतघृत) त्रिकटु त्रिफला मुस्ता रजनीद्वयवत्सकम् ।। (ग० नि० । गर विष०) शुण्ठी दारुहरिद्रा च पिप्पलीमूलचित्रकम् । अपामार्गस्य बीजानि शिरीषस्य फलानि च । | भल्लातकं यवक्षारं कटुकातिविषा वचा ।। श्वेते द्वे काकमाची च गवां मूत्रेण पेषयेत् ॥ विडङ्ग स्वर्जिकाक्षारः शतपुष्पाजमोदकम् । । एषामक्षसमै गर्गुग्गुलो पञ्चभिः पलैः॥ सपिरेतेषु संसिद्धं विषसंशमनं परम् ।। सिद्धं पीयमानञ्च एतद्गुग्गुलुतिक्तकम् । . अमृतं नाम विख्यातमपि संजीवयेन्मृतम् ॥ विद्रधि हन्ति सद्यो हि त्वग्दोषानपि दारुणान् ॥ चिरचिटे और सिरसके बीज, दोनों प्रकारकी कुष्ठानि स्वापसङ्कोचवेगवन्ति स्थिराणि च । श्वेता (कोयल) और काकमाची (मकोय)के गोमूत्र वातश्लेष्मसमुत्थानि मारुतास्रक्प्रभेदि च। पिष्ट कल्क (और चतुर्गुण जल)के साथ सिद्ध घृत गण्डमालार्बुदग्रन्थिनाडीदुष्टभगन्दरान् । अत्यन्त विषनाशक है । यह विषसे मृततुल्य दशा कासं श्वासं प्रतिश्यायं पाण्डुरोगं ज्वरं क्षयम् ॥ को प्राप्त प्राणीको जीवनदान देनेके लिए अमृतके विषमज्वरहृद्रोगलिङ्गदोषविषक्रिमीन् । समान है। प्रमेहामुग्दरोन्मादशुक्रदोषगदान् जयेत् । भा० ७ For Private And Personal Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [गकारादि काथ-नीमको छाल, गिलोय, पटोलपत्र, पादशेषे रसे तस्मिन् घृतमस्थं विपाचयेत् । कटेली और बसा । प्रत्येक १०-१० पल (५० कल्कैरक्षसमै रुत्रिफलात्र्यूषणाग्निभिः॥ तोले) लेकर कूटकर १ द्रोण (१६ सेर) जलमें पृथ्वीपतिविषापाठा चव्येन्द्रयवदीप्यकैः। ४ सेर शेष रहने तक पकाकर छान लीजिए। मूर्वाक्षारद्वयाजाजीवचाकृमिहरैयुतैः ॥ कल्क द्रव्य-सोंठ, मिर्च, पीपल, हैड, बहेडा, कटुकासप्तपर्णाभ्यां पुरस्थाष्टपलेन च। आमला, मोथा, हल्दी, दारुहल्दी, इन्द्रजौ, सोंठ, | कुष्ठानि रक्तपित्तश्च वीसर्पपूतिकुष्ठताम् ।। दारुहल्दी, पीपलामूल चित्रक, शुद्धभिलावा, यव- पानात्मशमयेदेतद्गुग्गुलु पश्चतिक्तकः । क्षार, कुटकी, अतीस, बच, बायबिडंग, सजीखार सिद्धमेतेन विधिना सर्पिः प्रस्थं सगुग्गुलुम् ।। सोया और अजमोद प्रत्येक १-१ कर्ष (१॥ पानाभ्यजननस्येषु तचोक्तानाप्नुयादगुणान् ॥ तोला) और गूगल ५ पल (२५ तोले)। पटोलपत्र, इन्द्रजौ ( कड़वे ), चिरायता, काथ कौर कल्क तथा १ प्रस्थ धृतको अग्नि करावा. और गिलोय २०-२० पल (१०० पर चढ़ाकर उसमें गूगलको दोलायन्त्र विधिसे तोले) लेकर १ द्रोण (१६ सेर) जलमें चतुर्थांशालटका दीजिए। घृत सिद्ध हो जानेपर छानकर | वशेष पर्यन्त पकाकर छान लीजिए। उसमें उक्त गूगल डालकर पुनः पकाइये और तत्पश्चात् इस काथ और निम्न लिखित गूगल घृतमें मिल जानेपर उतारकर मुरक्षित ओषधिर्याके कल्कके साथ १ प्रस्थ (१ सेर) घृत रखिए। पाक सिद्ध कर लीजिए ।-कल्क द्रव्य-....दारु इसके सेवनसे विद्रधि; भयङ्कर त्वदाष; हल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, और भयङ्कर, स्थिर तथा वातकफज कुष्ठ, गण्ड चीता, कालाजीरा (अथवा बड़ी इलायची) अतीस, माला, अर्बुद, प्रन्धि, दुष्ट नाडीव्रण (नासूर), पाठा, चव्य, इन्द्रजौ, अजवायन, मूर्वा, यवक्षार, भगन्दर, खांसी, श्वास, प्रतिश्याय, पाण्डुरोग, सज्जीखार, सफेदजीरा, वच, बायबिडंग, कुटकी ज्वर, क्षय, विषमज्वर, हृद्रोग, लिङ्गदोष, विष, और सतौना वृक्षकी छाल, १-१ कर्ष (१।तोला) कृमि, प्रमेह, रक्तप्रदर, उन्माद और शुक्रदोष | तथा गूगल ८ पल। नष्ट होते हैं। काथ, कल्क और घृतको एकत्र करके पका(मात्रा १ तोला अनुपान-गर्म दूध या उये तथा पाक कालमें उसमें गूगलकी पोटलीको गिलोयका काथ ।) दोलायन्त्र विधिसे लटका दीजिए। पाक सिद्ध (१३५४) गुग्गुल्लुपश्चतिक्तघृतम् (वं.से ०।कु.) हो जाने पर घृतको छानकर पुनः उक्त गूगल पटोलवत्सकातिक्तनक्तमालसहामृताः। मिलाकर पकाइये और जब घृतमें गूगल भली निकाथ्य सलिलद्रोणे पलैविशतिर्भागिकैः॥ भांति मिल जाय तब उतारकर सुरक्षित रखिए । For Private And Personal Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [५१] इस " गुग्गुलुपञ्चतिक्तघृत' को सेवन | ( १६ सेर ) पानीमें २ सेर जल अवशेष रहने करनेसे कुष्ट, रक्तपित्त, विसर्प, और गलित्कुष्ट तक पकाकर छान लीजिए । रोग नष्ट होता है। कल्क----पाठा, बायबिडंग, देवदारु, गजइसे पान, अभ्यञ्जन (मर्दन ) और नस्य पीपल, यवक्षार, सन्जीखार, सोंठ, हल्दी, सौंफ, द्वारा प्रयुक्त करना चाहिए। चव, कुठ, तेजोवती ( मालकंगनी ), काली मिर्च, ___ (मात्रा-१ तोला। अनुपान गर्म दूध ।) इन्द्रयव, अजवायन, चीता, कुटकी, शुद्ध भिलावा, (१३५५) गुग्गुलुपश्चतिक्तकं घृतम् बच, पीपलामूल, मजीठ, अतीस, त्रिफला और (ग. नि. । घृता., र. र. । कुष्ठा., वृ. यो. त. । अजमोद समभाग मिश्रित पारसेर, शुद्ध गूगल ५ पल ( २० तोले ) त. १२०, बूं. मा. । कु.) विधिः--काथ, कल्क और १ प्रस्थ (८० निम्बामृतादृषपटोलनिदिग्धिकानां तोले) घृतको एकत्र मन्दाग्नि पर पकाइये और ___ भागानिमान्दशपलान्विपचेद्घटेऽपाम् ।। पकते समय गूगलको कपड़े की पोटलीमें बांधकर अष्टांशशेषितशृतेन पुनश्च तेन दोलायन्त्र विधिसे उसीमें लटका दीजिए । पाक __प्रस्थं घृतस्य विपचेद् घृतभागकल्कैः ।। सिद्ध होनेपर घृतको छानकर पुनः गूगलके साथ पाठाविडासुरदारुगजोपकुल्या पकाइये और जब गूगल उसमें भलीभांति मिल द्विक्षारनागरनिशामिशिचव्यकुष्ठः। जाय तो उतारकर सुरक्षित रखिए । तेजोवतीमरिचवत्सकदीप्यकाग्नि ___ इसके सेवनसे सन्धि, अस्थि और मजागत __रोहिण्यरुष्करवचाकणमूलयुक्तैः ॥ प्रबल वात तथा कुष्ठ एवं नाडीव्रण ( नासूर ) मञ्जिष्ठयाऽतिविषया वरया यवान्या । अर्बुद ( रसौली ), भगन्दर, गण्डमाला, उर्ध्वजत्रु ___ संशुद्धगुग्गुलुःपलैरपि पश्चसंख्यैः। ( गलेसे ऊपर ) गत समस्त रोग, गुल्म, अर्श, तत्सेवितं विधुवति प्रबलं समीरं । प्रमेह, राजयक्ष्मा, अरुचि, श्वास, पीनस, कास ___सन्ध्यस्थिमज्जगतमप्यथ कुष्ठमीहक् ।। ( खांसी ), शोथ, हृद्रोग, पाण्डु (पीलिया), मद, नाडीव्रणाचुदभगन्दरगण्डमाला विद्रधि और वातरक्तका नाश होता है। ___ जसवंगदगुल्मगुदोत्यमेहान् । ( मात्रा ? तोला । अनुपान गर्मदूध या यक्ष्मारुचिश्वसनपीनसशोफकास । गिलोयका काथ । ) हृत्पाण्डुरोगमदविद्रधिवातरक्तान् ॥ (१३५६) गुडघृतम् ( वृं. मा. । वा. . ) काथ--नीम, गिलोय, बासा, पटोलपत्र कफरक्तप्रशमनं, कच्छूवीसर्पनाशनम्।। और कटेली १०-१० पल लेकर कूटकर १ द्रोण वातरक्तपशमनं हृद्यं गुडघृतं स्मृतम् ।। For Private And Personal Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । ५२ j भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि می یا د بي بيه به بی کی بی بی بی بی بی کی له ره ی ب نية يا بي يا بيه فيه ان فيه بره یه کی به کیه وه به يه ره حه مه وه به ته نها ده مه نی هه یه و نمره ای، یہ وه ی ته بیا به بیه به بیا سه یری می کرد که همه به ای مه مه ني نيه به له مه مه یه کی به به و هي حاليا الامامیه بیخی ... गुड़ और घृत ( बराबर बराबर ) मिलाकर गुडूचीकृतम् ( महा ) ( भा. प्र. । वातर.) सेवन करनेसे कफ, रक्त, कन्छु , विसर्प और | 'महागुडूचीबृतम्' अवलोकन कीजिए वातरक्तका नाश होता है। यह प्रयोग हृदयके (१३६०) गुडूचीघृतम् लिए भी हितकर है। (. मा.; च. द.; वृ. नि. र.; वं. से.; भा. प्र. (१३५७) गुडपिप्पलीघृतम् खं. २.; ग. नि.; । वा. र.; च. सं. वा. र. चि.; . ( वंगसे., च. द. । परि. शू०) वं. से.; ग. नि. यो. र. । पाण्डु. ) सपिप्पलीगुडं सर्पिः पचेत्क्षीरे चतुर्गुणे।। गुडूचीकाथकल्काभ्यां सपयस्कं घृतं शृतम् । विनिहन्त्यम्लपित्तश्च शुलश्च परिणामजम् ॥ हन्ति वातं तथा रक्तं कुष्ठं जयति दुस्तरम् ॥ पीपल और गुड़के कल्क तथा चार गुने गुडूचीके कक, काथ और दूधके साथ सिद्ध दूधके साथ सिद्ध घृत अम्लपित्त और परिणाम धृत वातरक्त तथा भयङ्कर कुष्ठका नाश करता है। शूलका नाश करता है। (प्र. वि.---गुडूची ( गिलोय )का काथ ४ (१३५८) गुडादिघृतम् (वृ.नि.र.।अ.पि. ) सेर, गिलोयका कल्क पावसेर, दूध १ सेर और गुडजीरकणासिद्धं सपिरत्र प्रयोजयेत् ।। घृत १ सेर । यथाविधि पाक सिद्ध करें। । (१३६१) गुडूच्यादिघृतम् (वं.से. । स्त्री रो.) सवाते सविबन्धेऽस्मिन्हिता कंसहरीतकी। गुडूचीत्रिफला भीरुशुकनासानिशाहयैः। - वातजन्य अम्लपित्तकी शान्तिके लिए गुड़, श्रीपर्णीशैर्यकद्राक्षाकासमर्दकबिल्वकैः ॥ जीरा और पीपलके कल्कसे सिद्ध घृत एवं मल परुषकान्वितैरक्षसमैः प्रस्थो घृतः शृतः। मूत्राघरोध युक्त अम्लपित्तके निवारणार्थ कंसहरी योनिवातविकारघ्नो गर्भदः परमो भवेत्॥ तकी सेवन करनी चाहिए। गिलोय, हर, बहेड़ा, आमला, शतावर, (१३५९) गुडूचीघृतम् ( भा. प्र. । वातर.) खम्भारो ( अरलु ), हल्दी, अरणी, कालाबासा, गुडूचीस्वरसे सर्जीिवनीयैश्च साधितम् । दाख ( मुनक्का ) कसौंदी, बेलगिरी और फालसेकी कल्कैश्चतुर्गुणैः क्षीरैः सिद्धं वाऽजस्रवातनुत् ॥ छाल १–१ कर्ष ( १। तोला ) लेकर इनके कल्क गिलोयके स्वरस अथवा चतुर्गुण दुग्ध और ( और ४ सेर जल ) के साथ १ सेर घृत सिद्ध जीवनीय गणके कल्कसे सिद्धघृत वातरक्तका नाश कर लीजिए। यह घृत वातज योनिरोग नाशक करता है। और गर्भस्थापक है। गुडूचीघृतम् ( आ. वे. वि. । वातर.) (१३६२) गुडूच्यादिघृतम् (वं. से. । रसा. ) १५६ संख्यक · अमृनादिवत ' अवलोकन गुडूच्यपामार्गविडङ्गशंखिनी कीजिए। वचाशतावर्यभयामहौषधैः । ५.जीवनीय गण जकारादि कषाय प्रकरणमें देखिए। For Private And Personal Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [५३] घृतं विपक्वं पिबतां प्रशस्तं इस घृतके सेवनसे वातज कास नष्ट होती और वस्तु येषां विकलञ्च जल्पताम् ॥ । अग्नि प्रदीप्त होती है । गिलोय, अपामार्ग ( चिरचिटा) बायबिडंग, (१३६५) गुडूच्यादि घृतम् शंखाहोली (शंखपुष्पी), बच, शतावर. हैड़ और (च० सं० । चि० स्था० अ० १२) सोंठके कल्कसे सिद्ध घृत वाणीकी विकलता गुडूचीं पिप्पली मूवी हरिद्रां श्रेयसीं वचाम् । (गदगद-हकलापन ) के लिए हितकर है। निदिग्धिकां कासमर्द पाठां चित्रकनागरम् ।। (१३६३) गुडूच्यादिघृतम् (सु.सं.। उत्त. ज्व.) जले चतुर्गुणे पक्त्वा पादशेषेण तत्समम् । गुडूचीत्रिफलावासात्रायमाणायवासकैः। सिद्धं सर्पिःपिबेद्गुल्मश्वासार्तिक्षयकासनुत् ॥ कथितैर्विधिवत्पकमेतैः कल्कीकृतैःसमैः॥ . गिलोय, पीपल, मूर्वा, हल्दी, हर्र, बच, कटेली, द्राक्षामागधिकाम्भोदनागरोत्पलचन्दनैः। कसौंदी, पाठा जलजमनी] चीता और सोंठ समान पीतं सर्पि.क्षयश्वासकासाजीर्णज्वराञ्जयेत् ॥ भाग मिश्रित १ सेर लेकर ८ सेर जलमें पकाएं _ गिलोय, हर्र, बहेड़ा आमला, बासा, त्राय- और २ सेर जल शेष रहने पर छानकर उसमें आध माणा (बनफशा) और जवासेके काथ तथा मुनक्का, सेर घृत मिलाकर घृत मात्र शेष रहने तक पकाइये। पीपल, नागरमाथा, सोंठ, नीलोफर और लाल इसके सेवनसे गुल्म, श्वास और क्षयरोग चन्दनके कल्कसे विधिवत् सिद्ध घृत पीनेसे क्षय, नट होता है। श्वास, खांसी, अजीर्ण और ज्वरका नाश होता है। (१३६६) गुडूच्यादिघृतम् (प्र० वि०-काथकी ओषधियां समभाग (वृ. नि. र.; च. द.; बं. से. । ज्वरा., वा, भ.। मिश्रित २ सेर । १६ सेर जलमें पकाकर ४ सेर चि. स्था. अ० १) शेष रक्खें । कल्ककी औषधं समभाग मिश्रित | गुडूच्यारसकल्काभ्यां त्रिफलाया रसेन तु । पावसेर । घी १ सेर। मृद्वीका वा बलायाश्च सिद्धास्नेहा ज्वरच्छिदः।। ... (मात्रा--१ तोलेसे २ तोले तक अनुपान गिलोय, त्रिफला, मुनक्का और खरैटीमेंसे गर्म दूध ।) किसी भी ओषधिके कल्क और काथसे सिद्ध घत (१३६४) गुडूच्यादितम् । ज्वरका नाश करता है। ( वा. भ. । चि. स्था. कास.) (१३६७) गुडूच्यादिघृतम् (यो. र.) । गुडूचीकण्टकारीभ्यां पृथक्त्रिंशत्पलादसे। सर्पिगुडूचीकृषकण्टकारी प्रस्थःसिद्धो घृताद्वातकासनुद्वह्निदीपनः॥ काथेन कल्केन च सिद्धमेतत् । ___ गिलोय और कटेलीके ३०-३० पल ग्म पेयं पुराणज्वरकासशूल (काथ) के साथ १ प्रन्थ धूत सिद्ध कर लीजिए। प्लीहाग्निमान्यग्रहणीगदेषु । . १ त्रिफलाया वृषस्य चेति पाठभेदः - - For Private And Personal Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [गकारादि .drivnxxvvvvvvvvvvvvvvvvv पुरातन ज्वर, कास, शूल, प्लीहा (तिल्ली) घृतप्रस्थं चेदेवं क्षीरं दत्वा चतुर्गुणम् । अग्निमांद्य और ग्रहणो रोगकी शान्तिके लिए गिलोय, मृद्वग्निना च सिद्धे तु द्रव्याण्येतानि निक्षिपेत् ॥ बासा और कटेलीके काथ तथा कल्कसे सिद्ध घृत त्वगेले पिप्पली धान्यं कर्परं नागकेशरम् । पीना उपयोगी है। यथालाभं विनिक्षिप्य सिता क्षौद्रं पलाष्टकम् ॥ गोक्षुरादिघृतम् (यो. र. । यक्ष्मा.) दत्वेक्षुदण्डेनालोड्य विधिवद्विनियोजयेत् । श्वदंष्ट्रादिघृतम् देखिये। | केवलस्य पिबेदस्य पलमात्रं प्रमाणतः॥ गोक्षुरादिघृतम् (बृ.नि.र.क्षया.वा.भ.चि.कास.)। न चास्य लिङ्गशैथिल्यं न च शुक्रक्षयो भवेत् । श्वदंष्ट्रादिघृत अवलोकन कीजिए। बल्यं परं वातहरं शुक्रसंजननं परम्॥ गोक्षुरादिघृतम् (च.सं.। चि. स्था. प्रमे.अ. ६) मूत्रकृच्छ्रप्रशमनं वृद्धानाश्चापि शस्यते । त्रिकण्टकादि घृत देखिए। पलद्वयं तदश्नीयात् दशरात्रमतन्द्रितः॥ (१३६८) गोघृततर्पणम् (बृ. मा. । नेत्र.) खीणां शतश्च भजते पीत्वा चानु पिबेत्पयः। गव्यक्षीरोत्थितं सपिस्तर्पणार्थ विधीयते।। अश्विभ्यां निर्मितश्चैव गोधूमाद्यं रसायनम् ॥ दृष्टिप्रसादनं श्रेष्ठं तिमिरस्यापकर्षणम् ॥ अभिष्यन्दाधिमन्थाभ्यां कर्षतेऽक्षिणीबलावहरा जलद्रोणेऽत्र गोधूमकाथे तच्छेषमाढकम् । दोषानुत्सादयत्याशु तथैवाश्रुनियच्छति ॥ मुञ्जातकस्य स्थाने तु तद्गुणं तालमस्तकम् ॥ कल्कद्रव्यसमं मानं त्वगादेःसाहचर्यतः ॥ ___ गोघृतके तर्पण (धूम धूलि आदिरहित स्थान सामग्री-(१) काथ--१०० पल (६। सेर) में लिटाकर रोगीकी आंखोंमें घृत पूर्ण करने ) से दृष्टि स्वच्छ होती है, तिमिर, अमिष्यन्द, अधि गेहूं लेकर १ द्रोण (१६ सेर) पानीमें पकाइये । और ४ सेर जल शेष रहने पर छान लीजिए। मन्थ, और दोष नष्ट होकर दृष्टि शक्ति बढ़ती है तथा अश्रुपात ( अधिक आंसू बहना) शान्त (२) क-कद्रव्य-गेहूं का सत्व (नशास्ता) होता है। । मुजातफल (अभावमें तालफल), उर्द, दाख (मुनक्का) (१३६९) गोधूमायं घृतम् | फालसा, काकोलो, क्षीरकाकोली, जीवन्ती शतावरी (मै. र, वं. से; वृं. मा. । वाजी.; नपुं. मृता. । त.२.: असगन्ध, खजूर, मुलैठी, सोंठ, मिर्च, पीपल, च. द. वृष्या.; वृ. यो. त. । त. १४७) _ मिश्री, शुद्ध भिलावेकी गिरी और कौंचकेवीज. गोधमात्तु पलशतं निष्काथ्य सलिलाढके। समभाग मिश्रित २० नोले लेकर पानीके साथ पादशेषे च पूते च द्रव्याणीमानि दापयेत् ॥ । पीस लीजिए। गोधुममुजातफलं माषा द्राक्षा परूषकम् । (३) घी १ सर (४) दूध ४ सेर । काकोली क्षीरकाकोली जीवन्ती सशतावरी॥ (५) प्रक्षेपद्रव्य-दालचीनी, इलायची, पीपल, अश्वगन्धा सखजूरा मधुकं व्यूषणं सिता। धनिया, कपूर और नागकेसर। इनमेंसे जितनी भल्लातकमात्मगुप्ता समभागानि कारयेत् ॥ ओषधियां मिल सकें सबका समभाग मिश्रित चूर्ण For Private And Personal Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् द्वितीयो भागः । २० तोले । (६) मिश्री और शहद ४०-४० काथसे सिद्ध धृत विषम ज्वर, क्षय, शिरशूल, तोले । विधिः---काथ; कक द्रव्य, घृत और पार्श्व पीड़ा, अरुचि वमन, शोथ और हलीमकका दूधको एकत्र मिलाकर घृतमात्र शेष रहने तक नाश करता है। मन्दाग्निपर पकाइये, तत्पश्चात् छानकर उसमें प्रक्षेप | (१३७१) गौराद्यवृतम् । द्रव्योंका महीन (कपड़ छन) चूर्ण तथा मिश्री (भै. र.; धन्वं.; यो. र.; ग. नि.; वृ. मा.; र. र., और शहद डालकर इक्षुदण्ड (गन्ने) से मिलाकर च. द. । व्रणा० . यो. तः । त. ११२) सुरक्षित रखिए। गौरा हरिद्रा मञ्जिष्ठा मांसी मधुकमेव च । ___ आश्विनिकुमारों द्वारा आविष्कृत यह गोधू- प्रपौण्डरीकं हीवेरं भद्रमुस्तं सचन्दनम् ।। मादि रसायन घृत दूधमें डालकर सेवन करनेसे जातीनिम्बपटोलश्च करजं कटुरोहिणी। लिङ्ग शैथिल्य और शुक्र क्षय नहीं होता। यह मधृच्छिष्टं समधुकं महामेदा तथैव च ॥ अत्यन्त बन्य, वायुनाशक, शुक्रोत्पादक, और मूत्र पञ्चवल्कलतोयेन घृतपस्थं विपाचयेत् । कृच्छ नाशक तथा वृद्धोंके लिए हितकारी है। एष गौरो महायोगः सर्व व्रणविशोधनः ॥ इसे २ पल (१० तोले) की मात्रानुसर आगन्तुसहजाश्चैव सुचिरोत्थाश्च ये व्रणाः। सावधानीपूर्वक १० दिन पर्यन्त दूधके साथ सेवन | विषमामपिनाडीन्तु शोधयेच्छीघ्रमेव तु ॥ करनेसे सैंकड़ों रमणियोंके साथ रमण करने की कक द्रव्य-सफेद सरसों, हल्दी, मजीठ, शक्ति प्राप्त होती है। जटामांसी (बालछड़) मुलैठी, पुण्डरिया, नेत्रबाला यदि यह घृत केवल (भातादि रहित) सेवन नागरमोथा, लालचन्दन. चमेली के पत्ते, नीमके पत्ते, करना हो तो ५ तोलेकी मात्रानुसार सेवन करना पटोलपत्र. करञ्ज ( करञ्जवे ) की गिरी, कुटकी, चाहिए। मोम, मुलैठी, और महामेदा समभाग मिश्रित २० तो. (व्यवहारिक मात्रा-१ से २ तोले तक) ____ काथ द्रव्य-पञ्चवल्कल (बड़, गूलर, बेत, (१३७०) गोपीडयादिघृतम् पीपल ( अश्वत्थ ) वृक्ष और पिलखनकी छाल) समभाग मिश्रित २ सेर ।। (वृ. नि. र. । चरा.) विधिः--काथद्रव्योंको कूटकर १६ सेर गोपीड्यामलकीस्थिरामगधजातिक्तापयपालिनी। पानीमें पकाकर ४ सेर रहने पर छान लीजिए द्राक्षाश्रीफलधावनीहिमविषामुस्तेन्द्रजःसाधितम्।। तत्पश्चात् १ सेर गोघृत, यह क्वाथ और उपरोक्त स्यादाज्यं विषमज्वरक्षयशिरःपार्श्वव्यथारोचक- कल्क द्रव्य मिलाकर पकाइये । जब घृत शेष रह च्छीशोषहलीमकपशमनं लीलालतामञ्जरी ॥ जाय तो उतारकर छान लीजिए। .. सारिवा, आमला, शालपर्णी, पीपल, कुटकी, यह गौरादिधृत आगन्तुक, सहज, और नेत्रबाला, मुनक्का, बेलगिरी, चन्दन, लालचन्दन; अत्यन्त पुराने घावोंका तथा विषम मार्गगामिनी अतीस, नागरमोथा और इन्द्रजौके कक तथा नाडी (नासूर) को अत्यन्त शीघ्र शुद्ध कर देता है। For Private And Personal Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। লিঙ্কারি - - - (१३७२) गौराद्यं सर्पिः प्रस्थं विपक्कं परिषेचनेन (वृ. यो. त. । त. १२४; यो. र.; वं. से.। पैत्तीनिहन्यात्तु विसर्पनाडीम् ।। ___ विसप; शा. सं. । धृता.) विस्फोटदुष्टब्रणशीषरोगान् द्वे हरिद्रे स्थिरा मूर्वा सारिवा चन्दनद्वयम् । पाकं तथास्यस्य निहन्ति पानात् । मधुकं मधुपर्णी च पद्मकं पद्मकेसरम् ॥ ग्रहादिते शोषिणि चापि बाले उशीरमुत्पलं मेदा त्रिफला पञ्चवल्कलम् । घृतं हि गौर्यादिकमेतदिष्टम् ॥ कल्कैरक्षसमैरेभिघृतपस्थं विपाचयेत् ॥ हदी ( अथवा मजीठ ) मुलैठी, कमल, विषवीसर्पविस्फोटकीटलूतात्रणापहम् । लोध, नेत्रबाला, खिरनी वृक्षकी छाल, गेरु, जीवक, गौराद्यमिति विख्यातं सर्पिःश्लेष्ममरुत्पणुत् ॥ ऋषभक, पद्माख, सारिवा, काकोलो, मेदा, कुमुद, हल्दी, दारुहल्दी, शालपर्णी, मूर्वा, सारिवा, । नीलोफर, चन्दन, शहद, मिश्री, दाख ( मुनक्का ), लाल चन्दन, सफेद चन्दन, मुलैठी, गिलोय, पद्माख, । शालपर्णी, पृश्निपर्णी और सौंफ के कल्क, और कमलकेसर, खस, नीलोफर, मेदा, हैड़, बहेड़ा, न्यग्रोधादिगण तथा दशमूलके चतुर्गुण काथ और आमला, और पश्चवल्कल (पीपल, पिलखन, गूलर, चतुर्गुण दूधसे १ प्रस्थ ( १ सेर ) घृत सिद्ध सिरस और बड़की छाल) एक एक अक्ष (१। तो.) | कर लीजिए । लेकर इनके कल्क और चतुर्गुण जलसे १ प्रस्थ इसे विसर्प जन्य नासूरके भीतर लगानेसे (१ सेर) घृत पका लीजिए। वह नष्ट हो जाता है एवं पीनेसे विस्फोटक, दुष्ट ___ यह घृत विष, विसर्प, विस्फोटक, मकड़ी । व्रण ( घाव ) शिरोरोग, मुखपाक, और ग्रहपीड़ाके आदिका विष, धाव और कफवातनाशक है। कारण बालकोंका सूखना आदि रोग नष्ट होते हैं । (१३७३) गौश्यादितम्(सु.सं.चि.स्था.अ.१३) (१३७४) गौर्याचं घृतम् (ग. नि. घृता. १) घृतस्य गौरीमधुकारविन्द गौर्यारिष्टपटोलरोधफलिनीयष्टयाहनीलोत्पलैरोधाम्बुराजादनगैरिकेषु । मञ्जिष्ठाकटुकेन्द्र वारुणिजपामूर्वानिशाचन्दनैः। तथार्षभे पद्मकसारिवासु जातीक्षोरकपत्रकेशरदलैः पूतीकघोटाफलै काकोलिमेदाकुमुदोत्पलेषु ।। स्तुल्यैःसिक्थकसारिवाद्वययुतैर्गव्यं घृतं पाचयेत्।। सचन्दनायां मधुशर्करायां यष्टिक्षीरसपश्चकोलजलदकाथैश्च गौर्यादिभिः द्राक्षास्थिपृश्निशतावयासु । सिद्धं सर्पिरिदं हितं त्रिषु भवेत्सयःक्षतेषु ध्रुवम् । कल्कीकृता सूदकमत्र दत्त्वा येगूढाश्चिरकालजातगतयःमोच्छिन्नमांसा व्रणाः न्यग्रोधवर्गस्य तथास्थिरादेः॥ सस्रावासरुजःसदाहपिडिकाःशुष्यन्तिरोहन्तिच।। गणस्य बिल्वादिकपञ्चमूल्या हल्दी, नीमके पत्र, पटोलपत्र, लोध, मेंहदीके चतुर्गुणं क्षीरमथापि तद्वद् । पत्र, मुलैठी, नीलोफर, मजीठ, कुटकी, इन्द्रायणकी For Private And Personal Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। VVVVVvvvvvvvvvvv जड़, जपापुष्प ( औंडू पुष्पी ) मूर्वा, हल्दी, लाल मजीठ, चीता, हाऊबेर, सरपोखा (शरपुंखा) चन्दन, चमेलीके पत्ते, क्षीरकपत्र (क्षीरमोरट लता की जड़, मुंज, पिप्पलीमूल और सोंठके काथ तथा नामक वृक्षके पत्र), मौलसिरीके पत्र, पूतिकरच | इलायची, सोंठ, पीपल, और मिर्च (स्याह)के कल्क (करा भेद) घोटाफल (गोपघोण्टा-बदर भेद-क्षुद्र- सिद्ध तैल मुखके समस्त रोगोंका नाश करता है । वेर), मोम, सारिवा, और कृष्ण सारिवाके कल्क तथा (१३७७) गण्डरािदि तैलम् मुलैठी, क्षीरक, पञ्चकोल (पीपल, पीपलामूल, चव्य, (वं. से.; . मा.; च. द. । कुष्ठा.) चीता, सोंठ) और नागरमोथेके काथसे सिद्ध गव्य गण्डीरिकाचित्रकमार्कवार्कघृत तीनो प्रकारके क्षतों में हितकर है। कुष्ठद्रुमत्वग्लवणैः समूत्रैः। ___ यह ‘गौरादिघृत गले सड़े, पुराने और अन्त- तैलं पचेन्मण्डलदद्रुकुष्ठ र्मुख, छिन्नमांस, स्रावयुक्त, पीडायुक्त, दाह और दुष्टवणारुक्किटिभापहारी॥ पिड़िकायुक्त घावोंको भर कर सुखा देता है। मजीठ, चीता, भृगराज (भंगरा) आक, कूट, (प्र. वि.-घृत १ सेर, कल्क द्रव्य समभाग कुडेकी छाल और सेंधानमक सब समान भाग लेकर मिश्रित पावसेर, काथद्रव्य समभाग मिश्रित २ सेर, | इनके (१ सेर कल्क) और १६ सेर गोमूत्रके साथ काथ करनेके लिए जल १६ सेर, शेष ४ सेर। ४ सेर तैल पका लीजिए । इस घृतको घाव पर लगाना चाहिए। ___यह तैल मण्डल, दाद, कुष्ठ, दुष्ट व्रण, और इति गकरादिघृतप्रकरणम् । ) | किटिभका नाश करता है। (१३७८) गन्धकतैलम् अथ गकरादितैलप्रकरणम् । (बृ. नि. र.; वं. से.; यो. र.; q. मा. । कर्ण., (१३७५) गण्डमालापहं तैलम् (बृ.मा. ग. गं.) यो. त. । त. ७० कर्ण. रो. ) गण्डमालापहं तैलं सिद्धं शाखोटकत्वचा। चूर्णेन गन्धकशिलारजनीभवेन बिम्ब्यश्वमारनिर्गुण्डीसाधितं वाऽपि नावनम् ॥ मुष्टयंशकेन कटुतैलपलाष्टकन्तु । शाखोट (सिहोड़े)की छाल, कन्दूरी, कनेर धत्तूरपत्ररसतुल्यमिदं विपक्वं और संभालूसे सिद्ध तैलकी नस्य लेनेसे गण्डमाला नाडी जयेचिरभवामपि कर्णजाताम् ।। नष्ट होती है। “गन्धकादीनामत्र मिलित्वा पलं प्रायम्" (१३७६) गण्डीरादिंतैलम् (वै.म. । पट. १६) गन्धक, मनसिल, और हल्दीका समान भाग गण्डीराख्यज्वलनहपुफावाणपुलायिवाण- | मिश्रित चूर्ण १ पल और धतूरेका रस ८. पल शौण्डीमूलैः सममिति समैविश्वमेषां कषाये। लेकर यथाविधि ८ पल तैल सिद्ध करें । सिद्धं तैलं वदननिहितं वक्त्ररोगानशेषा- . ___इसे कानमें डालनेसे कानका पुराना नासूर नेलाशुण्ठीमगधमरिचोद्भूतकल्कं निहन्ति ॥ | भी नष्ट हो जाता है। भा० ८ For Private And Personal Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org [५८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि (प्र. वि.--पाककी उत्तमताके लिए इसमें | ___ भग्ना., ग. नि. । तै. अ.; सु. सं. ) ३२ पल पानी भी डालना चाहिए ।) . रात्रौ रात्रौ तिलान् कृष्णान् वासयेदस्थिरे जले। (१३७९) गन्धकतैलम् (र.मं.।अ.३;र.र.स.अ.३)| दिवादिवैव संशोप्य क्षीरेण परिभावयेत् ॥ अर्कक्षीरैः स्नुहीक्षीरैर्वस्त्रं लेप्यं तु सप्तधा। तृतीयं सप्तरात्रं वा भावयेन्मधुकाम्बुना। गन्धकं नवनीतेन पिटवा वस्त्रं लिपेत्तु तत् ॥ ततःक्षीरान् पुनःपीतान् शुष्कान् सूक्ष्मान् विचूर्णयेत् तद्वतिर्चलिता वंशेर्पता धार्या त्वधोन्मुखी। काकोल्यादि सयष्ट्याई मञ्जिष्ठां शारिवां तथा। तैलं पतत्यधोभाण्डे ग्राह्यं योगेषु योजयेत् ॥ कुष्ठं सर्जरसं मांसी सुरदारु सचन्दनम् ।। अनिसन्दीपनं श्रेष्ठं वीर्यवृद्धिं करोति च ॥ शतपुष्पं च संचूर्ण्य तिलचूर्णानि योजयेत् । __ वस्त्रके टुकडेको सात सात बार अर्कदुग्ध और पीडनार्थ च कर्त्तव्यं सर्वगन्धैः श्रुतं पयः॥ थोहरके दूधमें भिगोकर सुखा लीजिए फिर उसपर | चतुर्गुणेन पयसा तत्तैलं पाचयेत्पुनः। नवनीत (मस्का नौनी) धीमें पीसे हुवे गन्धकका एलामंशुमती पत्रं जीवन्तीं तुरंगं तथा ॥ लेप करके बत्ती बना लीजिए। इस बत्तीको जला- लोभ्रं प्रपौण्डरीकश्च तथा कालानुसारिवाम् । कर एक चिमटेसे पकड़कर उल्टी लटका दीजिए शैलेयकं क्षीरशुक्लामनन्तां समधुलिकाम् ॥ और उसके नीचे एक पात्र रख दीजिए । इस पिष्ट्वा शृङ्गाटकञ्चैव मागुक्तान्यौपधानि च । पात्रमें जो तैल एकत्र हो जाय उसे सुरक्षित रखिए। एभिश्चविपचेत्तैलं शास्त्रविन्मृदुनाग्निना ।। इस तैलके सेवनसे अग्नि दीप्त और वीर्यवृद्धि एतत्तैलं सदा पथ्यं भग्नासां सर्वकर्मसु । होती है। आक्षेपके पक्षघाते तालुशोषे तथार्दिते ।। (प्र. वि.-प्रा. सा.-१०-१५ बूंद दूधमें | मन्यास्तम्भे शिरोरोगे कर्णशूले हनुग्रहे । डाल कर पिएं। वाधिर्ये तिमिरे चैव ये च स्त्रीषु क्षयंगताः ।। (१३८०) गन्धकतैलम् (र. र. । कर्ण. ) पथ्यं पाने तथाभ्यो नस्यबस्तिषु भोजने । निशागन्धपले द्वे तु कटुतैलं पलाष्टकम् । ग्रीवास्थन्दोरसां वृद्धिरनेनैवोपजायते ॥ धूर्तपत्ररसे सिद्धं कर्णनाडीजिदुत्तमम्॥ मुखं च पद्मप्रतिमं ससुगन्धिसमीरणम् । हल्दीका चूर्ण १ पल (५ तोले) और गन्धकका गन्धतैलमिदं नाम्ना सर्ववातविकारनुत् ॥ चूर्ण १ पल लेकर इनके कल्क और धतूरेके पत्र- राजाहमेतत्कर्तव्यं राज्ञामेव विचक्षणः । स्वरससे ८ पल कटु तैल पका लीजिए । | तिलचूर्णसमं त्वत्रमिलितं चूर्णमिष्यते ।। इसे कानमें डालनेसे कानका नासूर नष्ट होता है। काले तिलोंको कपड़ेमें बांध कर ३ अथवा (१३८१) गन्धतैलम् ७ दिन तक गत्रि भर बहते पानीमें डाले रखिए (धन्वं.; च. द.; भै. र.; भा. प्र.; वं. सेन। और दिनको सुखा लिया कीजिए । इसके पश्चात् १जीवकमिति पाठभेदः । २ तगरमिति पाठान्तरम् । ३ सैरेयकमिति च पाठः । For Private And Personal Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [५९] उन्हें इसी प्रकार एक दिन दूध और मुलैठीके काथमें । ___ गन्धकपिष्टी को कड़वे तैलमें पकाकर तैंल रात्रि भर भिगोकर प्रातःकाल सुखाइये फिर गोदु- छानकर रख लीजिए। इसकी मालिशसे पामा ग्धसे एक रात भिगोकर चूर्ण कर लीजिए । तत्पश्चात् । (खुजली) नष्ट होती है। काकोल्यादि गण, मुलैठी, मजीठ, सारिवा, कूठ, (प्र. वि.-गन्धक पिष्टी १ भाग, तैल ४ भाग, राल, जटामांसी, देवदारु, चन्दन, और सोया बरा- पानी १६ भाग लेकर तैलावशेष पर्यन्त पकाइये।) बर बराबर लेकर चूर्ण करके उपरोक्त तिल चूर्णमें (१३८३) गन्धर्वहस्तौलम् . उसके समान मात्रामें मिला लीजिए। तत्पश्चात् (भै. र.; धन्वं.; र. र.; ग. नि.; वं. से. । वृद्धि. इस चूर्णको सर्वगन्धं सिद्ध दुग्धसे आई ( गीला) ग. नि. । परिशिष्ट ते. २) . . करके कोल्हूमें पिलवाकर तैल निकलवा लिजिए। शतमेरण्डमूलस्य पले शुठया यवाढकम् । इस तैलको चतुर्गुण जल और इलायची, जलद्रोणे विपक्तव्यं यावत्पादावशेषितम् ॥ शालपर्णी, तेजपात, जीवन्ती, असगन्ध, लोध, | तेन पादावशेषेण पयसा तत्समेन च । पुण्डरिया, तगर, भूरिछरीला, क्षीर बिदारी, दूब, मूर्वा, | प्रस्थमेरण्डतैलस्य तन्मूलाच चतुष्पलम् ॥ सिंघाड़ा और पूर्वोक्त काकोल्यादिगण, मुलैठी इत्यादि त्रिपलं शृङ्गबेरश्च गर्भ दत्वा विपाचयेत् । समस्त ओषधियोंके कल्कके साथ मन्दाग्नि पर पका | तत्पिबेत्मयतः शुद्धो नरःक्षीरानभुक्सदा ॥ लीजिए। अन्त्रवृद्धि जयत्याशु तैलं गन्धर्वहस्तकम् ॥ इसे पान, अभ्यङ्ग, नस्य, बस्ति और भोज- अरण्डमूलकी छाल १०० पल (६। सेर ) नमें प्रयुक्त करनेसे भग्न, आक्षेपक, पक्षाघात, तालु- सोंठ २ पल और जौ ४ सेर लेकर कूटकर १ द्रोण शोष, अर्दित, मन्यास्तम्भ, शिरोरोग, कर्णशूल, हनुग्रह, (१६ सेर) पानीमें पका लीजिए । जब चार सेर वाधिर्य, तिमिर, अधिक स्त्री प्रसंगसे उत्पन्न क्षीणता, पानी शेष रहे तो छान लीजिए । तत्पश्चात् यह और गरदनका हिलना इत्यादि रोग नष्ट होते हैं। काथ और ४ सेर दूध तथा १ सेर अरण्डका तैल नृप-व्यवंहार योग्य इस गन्धतैलके व्यवहारसे और चार पल अरण्डमूलकी छाल, एवं ३ पल मुख कमलके समान सुन्दर एवं सुगन्धित हो जाता है। (१५ तो.) अदरखका कल्क एकत्र करके पकाइये। (१३८२) गन्धपिष्टीतलम् (र.र.स.।उ.ख.अ.२०) जब केवल तैल शेष रह जाय तो उतारकर छान विपका कटुतैलेन पामाहृत् गन्धपिष्टिका। । लीजिए । १-सर्वगन्ध गन्धद्रव्याणि अवलोकन कीजिए । २-ओषधियोंसे ८ गुना द्ध और दूधसे चार गुना पानी एकत्र मिलाकर दुग्ध शेष रहने तक पका लीजिए । ३-काकोल्यादि गण-भा. भै. र., भाग १ में ककारादि क्वाथ प्रकरणमें अवलोकन कीजिए । ४-गन्धकको अमलतासके गूदेमें घोट लीजिए अथवा ५ तोले गन्धक और १ तोला पारदको देवदाली (पिंडाल डोढे) के रसमें घोट लीजिए । इसीका नाम गन्धक पिष्टी है। For Private And Personal Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [गकारादि कोष्ठ शुद्धिके पश्चात् इसे यथोचित मात्रानु- | समान भाग चूर्णको चारगुने तैलमें मिलाकर तेज़ सार सेवन करने और दुग्ध भात भोजन करनेसे | धूपमें रखिए । अन्त्रवृद्धि रोग नष्ट हो जाता है। इस तैलकी मालिशसे कुष्ठ रोग नष्ट होताहै। . (मात्रा–६ माशेसे १ तोला तक, सोंठके | (प्र. वि. तैलसे चारगुनाजल मिलाकर जल काथकै साथ ।) शुष्क होने तक धूपमें रक्खा रहने दीजिए। ) (१३८४) गर्भविलासतैलम् (१३८६) गुञातैलम् - (मै. र. । स्त्रीरो., धन्व. । सूतिका.) (ग. मा. । शिरो. रो., यो. त. । त. ७३) विदारी दाडिमं.पत्रं रजनी च फलत्रयम् । मार्कवस्वरसभावितगुञ्जा शृङ्गाटकस्य पत्रश्च जातीकुसुममेव च ॥ वीजचूर्णपरिपाचिततैलम् । वरी नीलोत्पलं यमं तैलमेतैः पचेत्सुधीः । मिश्रितं त्रुटिजटामुरकुष्ठैः एतद्गर्भविलासाख्यं गर्भसंस्थापनं परम् ॥ केशभारजननं वनितायाः॥ निहन्ति गर्भशूलञ्च शोणितस्रुतिसंहरम् ।। गुञ्जा (चौंटलो) के चूर्णको भांगरेके रसकी परं वृष्यतरं ह्येतत् काशीराजेन निर्मितम् ॥ भावनादे लीजिए तत्पश्चात् इस चूर्ण और इलायची ___विदारीकन्द, अनारके पत्ते, हल्दी, हैड़, (छोटी) जटामांसी (बालछड़) मुर (मुरमुकी) और बहेड़ा, आमल।, सिंघाड़ेके पत्ते, चमेलीके फूल, कूठके चूर्णके साथ तैल सिद्धकर लीजिए। शतावर, नीलोफर और कमलपुष्पके काथ तथा इसके व्यवहारसे स्त्रियोंके केश अत्यधिक कल्कसे तैल सिद्ध कर लीजिए। बढ़ जाते हैं। ... यह काशीराज निर्मित 'गर्भविलास' नामक (प्र. वि.-समस्त वस्तुओंका समभाग मिश्रित तैल गर्भसंस्थापक, गर्भशूल और रक्तस्राव नाशक | चूर्ण १ भाग, तैल ४ भाग, पानी-१६ भाग मिलातथा अत्यन्त वृष्य है। कर पकावें ।) (१३८५) गुग्गुल्वाधं सूर्यपाकतैलम् (१३८७) गुञ्जातैलम् (भै. र.; धन्व.। शिरो.) - (ग. नि. । तैला० २) विशुद्धं तिलतैलञ्च तत्समं काञ्जिकं भवेत् । गुग्गुलुमरिचविडङ्गैः सर्पपकासीसमुस्तसर्जरसैः आरनालसमं भृङ्गद्रवं कृखा पदापयेत् ॥ श्रीवेष्टतालगन्धैमनःशिलाकुष्ठकम्पिल्लैः॥ मन्दाग्निना ततः पाच्यं यावत्तैलं स्थितं भवेत् । उभयहरिद्रासहितैः कटुतैलं विमिश्रितैरेभिः। तैलमध्ये प्रदातव्यं पिट्वा गुञ्जापलद्वयम्॥ आदित्यरश्मिपक्वैः कुष्ठं विनिहन्ति संस्पर्शात्।। उत्तार्य तैलशेषं तु दिनैकं तत्तु रक्षयेत् । गूगल, मिर्च (स्याह) बायबिडंग, सरसों, । शिरोरोगेषु दुष्टेषु अर्द्धशीर्षे सुदारुणे॥ कसीस, मोथा, राल, तारपीन, हरताल गन्धक, भ्रूशङ्खकर्णपीडाश्च नश्यन्ति नात्र संशयः। मनसिल, कूठ, कमीला, हल्दी और दारु हल्दीके | गुञ्जातैलमिति ख्यातं दत्तं हन्ति शिरोव्यथाम्॥ For Private And Personal Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [६१] शुद्ध तिलतैल ८ पल, काञ्जी ८ पल, भांग- | (बृ. नि. र.; यो. र.; बं, से.; भा. प्र. । गं. मा.; रेका रस ८ पल, पानीमें पिसी हुई गुञ्जा (चोंटली) । यो. चि. । तैला. वृ. यो. त. । त. १०८). २ पल । सबको एकत्र करके तैल शेष रहने पर्यन्त गुञ्जामूलफलैस्तैलं तोयद्विगुणितं पचेत् । पकाकर, छानकर एकदिन तक सुरक्षित रखिए, । तस्याभ्यङ्गेन शमयेद्गण्डमालां सुदारुणाम् ।। तत्पश्चात् काममें लाइये। गुञ्जा (चोंटली) की जड़ और फलके कल्क इस (गुञ्जातैल) के व्यवहारसे. (मर्दन करनेसे) और द्विगुण जलके साथ सिद्ध (कटु) तैलकी . भयङ्कर शिरोरोग, अर्द्धशीर्ष (आधासीसी) भ्र, शंख मालिशसे भयङ्कर गण्डमाला रोग नष्ट होता है। और कर्णपीडा अवश्य नष्ट हो जाती है। (१३९१) गुञ्जाद्यं तैलम् (१३८८) गुञ्जातैलम् (भे. र. । इली; र. र., च. द. गलगं.) (व. मा.; र.र.; धन्वं., यो, र.; मा०प्र.; भै. र.; वं. | गुञ्जाहयारिश्यामार्कसर्षपैमूत्रसाधित्तम् । से. । क्षु. रो.; आ. वे. वि. । उत्तरा. अ. ८१) तैलं तु दशधां पश्चात्कणालवणपश्चकम् ॥ गुञ्जाफलैः श्रुतं तैलं भृङ्गराजरसेन च। मरिचैश्चूर्णितैर्युक्तं सर्वावस्थागतां जयेत् । कण्डूदारुणहत्कुष्ठकपालव्याधिनाशनम् ॥ अभ्यङ्गादपचीमुग्रां वल्मीकार्योधंदवणान् ।। ___ भांगरेके रस और गुञ्जा (चोंटली)के कल्कसे गुजामूल, कनेरकी जड़, बाबची, अर्कमूल सिद्ध तैल कण्डू (खुजली) दारुण और कपाल- | (आककी जड़) और सरसों के कल्क तथा गोमूत्र कुष्ठका नाश करता है। से दशबार सिद्ध (कड़वे) तैलमें पीपल, पांचों (प्र. वि.-तैल १ सेर भांगरेका रस ४ सेर, · नमक और मरिचका महीन चूर्ण मिलाकर मालिश गुञ्चाका कल्क पाव सेर । तैल शेष पर्यन्त पकाएं।) करने से बज्मीक, अर्श, अर्बुद ब्रण और प्रत्येक (१३८९) गुञ्जातैलम् (बृ. यो. त.। त. १२७) अवस्थामें पहुंची हुई भयङ्कर अपची (गण्डमाला भेद) नष्ट होती है। त्रिफलायोरजोमांसीमार्कवोत्पलसारिवैः। . . (प्र. वि. कल्क द्रव्य २० तोले, तैल ८० ससैन्धवैः पचेत्तैलमभ्यगादरूंषि जयेत् ॥ तोले ( १ सेर ). गोमूत्र ४ सेर लेकर तैलशेष . त्रिफला (हैड़, बहेड़ा, आमला) लोहचूर्ण, पर्यन्त पकावें। तैल छानकर पुनः पुनः इसी जटामांसी, भांगरा, नीलोफर, सारिवा, और सेंधा प्रकार १० बार पकावें । और अन्तमें पीपल नमकके कल्कसे सिद्ध तैल अरुंषि (शिरोरोग इत्यादिका चूर्ण मिलाएं ।) विशेष) का नाश करता है। (१३९२) गुलाफलतैलम् (रा. मा.। कर्णरो. ) (प्र. वि. समस्त वस्तुओका सम भाग मिश्रित गुञ्जाफलैर्विदलितैः कथितान्महिष्याः। कल्क-पिट्टी १ भाग, तैल ४ भाग, पानी १६ क्षीरात्क्रमेण जनितं घतमाहतानाम् ।। भाग । एकत्र मिश्रितकर तैलावशेष पर्यन्त पकाइये।) अभ्यञ्जनादनुदिनं कुरुते मृदुत्वं ।। (१३९०) गुञ्जातैलम् विस्तीर्णताश्च परमामिह कर्णपाल्याः ॥ For Private And Personal Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि -nawwwvvvvvvvvvvvvvvvvvvy .. (१ सेर) भैसके दूधमें ४ सेर पानी और । छड़) नख, नखी (सुगन्धित द्रव्य विशेष) रेणुका (१० तोले) गुजा फल (चौंटली) का कल्क मुण्डी, सोंठ, मिर्च, पीपल, सोया, काकड़ा सिंगी, (पिठी) मिलाकर दुग्धशेष रहने पर्यन्त पकाकर | सारिवा, दालचीनी, तेजपात, अर्जुन वृक्षकी छाल, वही जमा दीजिए और उसका मन्थन करके घृत | वराहक्रान्ता, शालपर्णी, भुइ आमला, तगर, नेत्रनिकाल लीजिए। बाला, नागकेशर, पद्माख, नीलोफर, और लाल प्रतिदिन इसकी मालिशसे कर्णपाली (कानोकी चन्दन प्रत्येक १-१ कर्ष (१॥ तोला)। सबको लो) कोमल और विस्तीर्ण होती है। पानीके साथ पीसकर तैलमें पकते समय मिलाइये।. (१३९३) गुडूचीतैलम् ___ इस गुडूच्यादि तैलको पान, मर्दन, अथवा (र. र.; बं. से.; भा. प्र.। वा. र.; ग. नि. । तेला.) अनुवासन बस्ति द्वारा, प्रयुक्त करनेसे समस्त धातुतुलां पचेजलद्रोणे गुडूच्याः पादशेषितम् ।। वोंमें व्याप्त वातरक्त, स्वेद, कण्डू, शिरोकम्पन, क्षीरद्रोणन्तु ताभ्याश्च पचेत्तैलाढकं शनैः॥ अर्दित (लकवा) और व्रणदोष (घावसे उत्पन्न कल्कैर्मधुकमञ्जिष्ठा जीवनीयगणस्तथा।। विकार) नष्ट होते हैं। कुष्ठ्ठलागुरुमृद्वीकामांसीव्याघनख नखी ॥ | गुडूचीतैलम् (अमृताख्यं तैलम् ) भा.प्र.। च. सं. हरेणुं श्रावणी व्योषं शताहा निशारिवे। "अमृताख्यं तैलं" अवलोकन कीजिए। त्वक्पत्रार्जुनविक्रान्तास्थिरामामलकी तथा॥ (१३९४) गुडूचीतैलम् (वं. से. । बस्ति क.) नतं हीवेरकेशरं पद्मकोत्पलचन्दनम् । गुडूच्येरण्डपूतीकभाीषकरौहिषम् ।। सिद्धं कर्षसमैर्भागैः पानाभ्यङ्गानुवासनैः॥ शतावरी सहचरं काकनासां पलोन्मितान् ।। सेव्यं वातास्रजो हन्ति सर्वधात्वन्तराश्रयाः। यवमाषातसीकोलकुलित्थान प्रस्तोन्मितान् । स्वेदकण्डूरुजाया सशिरः कम्पामयादितः॥ चतुर्दोणेऽम्भसः पक्त्वा द्रोणशेषेण तेन च ॥ हन्यावणकृतान्दोषान् गुडूचीतैलमुत्तमम् ॥ पचेत्तैलाढकं पेष्यैर्जीवनीयैः पलोन्मितैः। ... १ तुला (६। सेर) गिलोयको कूटकरं १ | अनुवासनमेतद्धि सर्ववातविकारनुत् ॥ द्रोण (१६ सेर) पानीमें चतुर्थीश शेष रहने तक गिलोय, अरण्डमूल, पूतिकरञ्ज, भारंगी, बासा, पकाकर छान लीजिए । तत्पश्चात् इस काथ, | रोहिष तृण (मिर्चियागन्ध) शतावर, काला बासा १ द्रोण दूध और निन्न लिखित कल्कके साथ । और काकनासा १-१ पल (५ तोले) तथा जौ, १ आढक (४ सेर) तैल मन्दाग्नि पर पकाइये। उर्द, अलसी, बेर और कुलत्थ २-२ पल लेकर ___ कल्क द्रव्य-मुलैठी, मजीठ, जीवनीय 'गण सबको एकत्र कूटकर चार द्रोण (६४ सेर) पानीमें कूठ, इलायची, अगर मुनक्का, जटामांसी (बाल | पकाइये, और १ द्रोण शेष रहने पर छान लीजिए। ___ १ जीवन्ती, काकोली, श्रीरकाकोली, मेदा महा मेदा, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवक, ऋषभक और मुलैठी। For Private And Personal Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ६३ ] vrsusnnyvvvvvvvurna VVVVVvvvnrn. _इस काथ और १-१ पल जीवन्ती, काकोली, । द्वे पले सैन्धवात्पश्च शुण्ठ्या ग्रन्थिकचित्रकात् । क्षीरकाकोली, मेदा, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवक, द्वे पले भल्लात्कास्थीनि विंशतिद्वे तथाढके ॥ ऋषभक और मुलैठीके कल्कके साथ १ आढक आरनाले पचेत्प्रस्थं तैलस्यतैरपत्यदम्। . (४ सेर) तैल सिद्ध कर लीजिए । गृध्रस्यूरुग्रहार्मोन्तः सर्ववातविकारनुत् ॥ ___ इसे अनुवासन बस्तिद्वारा प्रयुक्त करनेसे सम- सैन्धव २ पल (१० तोले) सोंठ ५ पल, स्त वातविकार नष्ट होते हैं। पीपलामूल २ पल, चीता २ पल और भिलावेकी (१३९५) गुडूचीतैलम् गिरी ४० पल लेकर इनके कल्क और १ आढक (४ सेर) काजीके साथ १ प्रस्थ (१ सेर) तैल (र. र.; भै. र.; च. द.; यो. र., च. सं. । ___चि. स्था. वा. र.) पका लीजिए। यह तैल सन्तानप्रद, तथा गृध्रसी, उरुग्रह, गुडूचीकाथकल्काभ्यां तैलं लाक्षारसेन वा। अर्श और समस्त वातरोगनाशक है। सिद्धं मधूककाश्मयरसे वा वातरक्तनुत्॥ (१३९८) गृहधूमादितैलम् गिलोयके काथ और कल्कसे अथवा लाखके • (र. र.; ग. नि.; भा. प्र.; यो. र. । नासा. रो.) काथके साथ या महुवा और खम्भारीके काथसे गृहधूमकणादारुक्षारनक्ताहसैन्धवैः । सिद्ध तैल वातरक्तको नष्ट करता है। सिद्धं शिखरीबीजैश्च तैलं नासार्शसे हितम् ।। (१३९६) गुडूच्यादि तैलम् (च.सं.। चि.अ.३०) घरका धुवां, पीपल, देवदारु, यवक्षार करञ्ज, गुडूचीमालतीव्याघी श्रेयसीसुरदारुभिः।। सेंधानमक, और चिरचिटेके बीजोंके क-क तथा बलाचित्रक्रयष्टयाहयूथिकाभिश्च कार्षिकैः॥ क्वाथसे सिद्ध तैल नासाशके लिए हितकर है। तैलपस्थं गवां मूत्रे क्षीरे च द्विगुणे पचेत् । (१३९९) गृहधूमादितैलम् (र. र. । उप.) वातार्तायैः पिचुं तस्माद्योनौ च प्रणयेत्सदा॥ | गृहधमनिशाकिण्वैरेकद्विव्यंशकैःक्रमात् । ___गिलोय, चमेलीके पुष्प, कटैलो, रास्ना देव- तैलं सिद्धं सकण्डूश्च शोथं चैवोपदंशनुत् ॥ दारु, खरैटी, चीता, मुलैठी, और जूहीके फूल १-१ घरका धुवां, १ भाग, हल्दी २ भाग और कर्ष (१।-११ तोला) लेकर इनके क-क और २ किम्व (सुराबीज अथवा खल) ३ भाग लेकर इनके प्रस्थ (२ सेर) गोमूत्र तथा २ प्रस्थ दूधके साथ क-क और काथसे तैल सिद्ध कर लीजिए। १ प्रस्थ तैल पका लीजिए। यह तैल खुजलीसहित सूजन और उपदंशका वातपीडिता योनिमें सदैव इस तैलका फाया | नाश करता है। रखना चाहिए। गोक्षुराद्यं तैलम् (वं. से. । वा. र.) (१३९७) गृध्रसीहरतैलम् (वृ. नि. र.। वा.व्या.)। श्वदंष्टादि तैलम् अवलोकन कीजिए। गुडूचीक्वाथदुग्धाभ्यामिति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । ६४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि (१४००) गोजिह्वातैलम् (वं. से.,भा.प्र.उपदंश.) कुटजत्वकषायेण धान्यककथितेन वा। गोजीविडङ्गयष्टीभिः सर्वगन्धैश्च संयुतम्। बुवादोषगति वैद्यो यथा स्वौषधवारिणा॥ एतत्सर्वोपदंशेषु श्रेष्ठं रोपणमिष्यते ॥ एतद्रसायनं तैलं वलीपलितनाशनम् । गोजिया घास, बायबिडंग और मुलैठी से | हन्ति सर्वानतीसारान् ग्रहणी सर्वजामपि। सिद्ध तैल में सर्व गन्ध मिलाकर प्रयुक्त करनेसे सर्व ज्वरं तृष्णां तथा श्वासं तथा हिक्कांवमिं भ्रमम् । प्रकारके उपदंशवण (आतशकके धाव) भर जाते हैं। सोपद्रवां कोष्ठरुजं नाशयेत्सय एव हि । (१४०१) गोमयाद्यतेलम् (र.र.,भै.र.।नेत्ररोगा.) ग्रहणामि | ग्रहणीमिहिरं नाम तैलं भुवनदुर्लभम् ॥ क क द्रव्य-धनिया, धायके फूल, लोध, गवां शकृत्काथविपकमुत्तमं । मजीठ, अतीस, हर्र, खस, मोथा, नेत्रबाला, मोचहितञ्च तैलं तिमिरेषु नस्थतः। रस, रसौत, बेलगिरी नीलोफर, तेजपात, नागकेशर, गोशकृत् (गोबर)के क्वाथ (अथवा स्वरस) से | कमलकेशर, गिलोय, इन्द्रजौ, कालानिसोत, पद्माक, सिद्ध तैलकी नस्य लेनेसे तिमिररोग नष्ट होता है। कुटकी, तगर, भूरी छरीला, भंगरा, काला भंगरा, (१४०२) ग्रन्थिकादि तैलम् (वं. से. । वा.व्याः) पुनर्नवा, आमकी छाल, जामनकी छाल, कदम्बकी ग्रन्थिकानिकणाशुण्ठीरास्नासैन्धवकल्कितम्। छाल, कुड़ेकी छाल, अजवायन, और जीरा १-१ माषकाथाम्बुना तैलं पक्षाघातं व्यपोहति ॥ | कर्ष (१। तोला)। पीपला मूल, चीता, पीपल, सोंठ, रास्ना इनके कल्क और तक अथवा कुड़ेकी छालके और सेंधेके कक तथा उर्दके क्वाथसे सिद्ध तैल | काथ या नवीन धनियेके काथ अथवा दोषके अनुपक्षाघातका नाश करता है। सार किसी अन्य ओषधिके काथके साथ १ प्रस्थ (१४०३) ग्रहणीमिहिरतैलम् । (१ सेर) तैल पका लीजिए। यह भुवनदुर्लभ ‘ग्रहणीमिहिर' नामक तैल (भै. र.; धन्वन्त; र. र. । ग्रह.) रसायन बली (त्वचाकी झुर्रियां) पलित (बालोंकी धान्यं धातकी लोधं समङ्गातिविषाःशिवा। सफेदी) नाशक और सब प्रकारके अतिसार, ग्रहणी, उशीरं मुस्तकश्चैव जलमोचरसाञ्जनम् ॥ ज्वर, तृष्णा, श्वास, हिक्का, वमन, भ्रम, और उपबिल्वं नीलोत्पलं पत्र केशरं पमकेशरम् । । द्रवयुक्त उदररोगोंका अत्यन्त शीघ्र नाश करता है। गुडूचीन्द्रयवश्यामाः पद्मकं कटुरोहिणी ।। (प्र. वि.-इसे ३ से ६ माशे तक यथोचित तगरं जटिलाभृङ्गकेशराजपुनर्नवाः। अनुपानके साथ पिलाना और पेट पर मलना चाहिए । आम्रजम्बूकदम्बानां वचः कुटजवल्कलम् । यवानीजीरकञ्चैव कार्षिकाणि प्रकल्पयेत् । - इति गकारादितैलप्रकरणम् तैलपस्थं पवेत्तेन तक्रेणान्यतमेन वा ॥ For Private And Personal Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टकरणम् ] द्वितीयो भागः । अथ गकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् चीज़ोंका महीन चूर्ण और शहद २० तोले उप रोक्त जलमें मिलाएं। (१४०४) गण्डिकाद्रोणः (ग. नि. । आस. ६) | (१४०५) गण्डीराद्यारिष्टः दद्यात्सलिलद्रोणं कृतमन्थेक्षुगण्डिकाद्रोणम् । (च. सं. । चि. स्था. श्वयथु.) धान्ययवानीदीप्यकपृथ्वीकाश्चेति कुडवांशाः॥ गण्डीरभल्लातकचित्रकश्चि, द्वि पलीनाः स्युर्देयास्तेजवती चव्यचित्रकाजाज्यः। व्योषं विडङ्ग वृहतीद्वयश्च । मधुनः कुडवं दत्वा घृतरूढे भाजने स्थाप्यः।।। द्विपस्थिकं गोमयपावकेन; एष काञ्जिकराजो लवणयुतः कत्तृणाकसुगन्धः। द्रोणे पचेत्काञ्जिकमस्लुनस्तु । दशरात्रात्पातव्यः सलिलश्च पुनः पुनर्देयम् ॥ त्रिभागशेषश्च सुपूतशीतम्। अर्शीभगन्दरगदग्रहणीमेदाप्रमेहदोषांश्च ।। द्रोणेन तत्पाकृतमस्तुनस्तु । नाशयति सेव्यमानो वह्निकरो गण्डिकाद्रोणः ॥ सितोपलायाश्च शतेन युक्तं; १ द्रोण कुटेहुवे ईखके टुकड़े और १ द्रोण लिप्ते घटे चित्रकपिप्पलीनाम् ॥ (१६ सेर) पानीको घृतके चिकने पात्रमें (जिसमें वैहायसे स्थापितमादशाहात्; बहुत काल तक घृत रक्खा रहा हो उसमें) भरकर प्रयोजयंस्तद्विनिहन्ति शोकान् । उसमें निम्न लिखित ओषधियां मिला कर यथा भगन्दराशेः क्रिमिकुष्ठमेहान्; विधि मुख बन्द करके १० दिन तक रक्खा । वैवर्ण्यकार्यानिलहिकनश्च ॥ रहने दीजिए । तत्पश्चात् छानकर उसमें सेंधा थोहर, भिलावा, चोता, त्रिकुटा ( सोंठ, मिलाकर तथा सुगन्धतृण ( मिर्चिया गन्ध ) और | मिर्च, पीपल) बायबिडंग और दोनों कटेली २-२ अद्रकसे सुगन्धित करके सेवन करना चाहिए। प्रस्थ (२ सेर) लेकर कूटकर १ द्रोण (१६ सेर) इस काजीमें पुनः पुनः पानी डालते रहना । काजीमें कण्डों की अग्नि पर पकाइये । जब त्रिचचाहिए । अर्थात् जब पानी कम हो जाय तो उसे तुर्थांश (पौना भाग) काजी शेष रहे तो शीतल पूर्ण करके पात्रका भुग्व पूर्ववत् बन्द करके १० होनेके पश्चात् छानकर उसमें १ द्रोण साधारण दिन तक रक्खा रहने दें और फिर आवश्यक्तानुसार मस्तु (द्विगुण जलयुक्त तक्र) और १०० पल मिश्री काममें लाएं। मिलाकर चित्रक और पिप्पलीके चूर्णसे लिप्त मटइसके सेवनसे अर्श, भगन्दर, ग्रहणी, मेदगेग, केमें भर कर मुख बन्द करके दश दिन पर्यन्त और अमेहका नाश तथा अग्निदीत होती है। रक्खा रहने दीजिए । तत्पश्चात् छानकर काममें लाइये। प्रक्षेप द्रव्य ...धनिया, अजवायन, अजमोद | इसके सेवनसे भगन्दर, अर्शः, क्रिमि, कुष्ट, और कलौंजी २०-२० तोले, तेजवती (मालकंगनी) | प्रमेह, वैवर्ण्य, कृशता. वायु और हिक्का रोग नष्ट चय, चीता और जीरा १०-१० तोले । सब | होता है । भा०९ For Private And Personal Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [गकारादि (मात्रा १। तोला । समान भाग पानीमें मिला दशमूल ६। सेर, कुड़की छाल २५ पल (१२५ कर भोजनके पश्चात् पियें ।) . तोले), भिलावा, इन्द्रजौ, बायबिडंग और नागर(१४०६) गन्डीरामवः (ग. नि. । आस. ६) मोथा आधा आधा प्रस्थ (४० तोले), पाठा, मूर्वा, जातसारं तु गण्डीर सपुष्पं परिशोपयेत । दन्तीमूल, बच और चीता १० १० पल तथा खण्डशः क्षोदितं कृत्वा तस्य पञ्चाढकं पचेत् ॥ मुनका १ आढक (४ सेर)। सबको कृटकर १० त्रींश्चैव त्रिफला प्रस्थान दशमली तुलां तथा। द्रोण (१६० सेर) पानीमें पका लीजिए, जब दो दद्यात्कुटजबलकस्य पलानां पञ्चविंशतिम् ३४३ द्रोण पानी शेष रह जाय तो उतारकर छान लीजिए । भल्लातकानीन्द्रयवं विडङ्गं घनमेव च। तत्पश्चात इसमें १ तुला (६। सेर) शुद्ध गुड़, २ अर्धप्रस्थसमान् भागानेकैकस्यसमावपेत्।३४४ प्रस्थ (२ सेर) शहद और निम्न लिखित प्रक्षेप पाठा मधुरसा दन्ती षड्ग्रन्था चित्रकस्तथा।। द्रयोंका चूर्ण मिलाकर घृताक्त ( चिकने ) मटकेमें एषां दशपलान्भागान्मृद्वीकायास्तथाढकम्।३४५ (कि जिसके भीतर मरिच चूर्ण मिश्रित भधुका लेप तोयद्रोणेषु दशसु पचेद् द्विद्रोणशेषितम् । कर दिया गया हो) भर कर यथाविधि मुख बन्द तस्मिन्कषाये पूते तु गुडस्यैकां तुलां क्षिपेत् ॥ करके १मास पर्यन्त रक्खा रहने दीजिए और उसके तथा तु शोधितस्यापि शुभे भाण्डे निधापयेत् । पश्चात् छानकर रोगी और रोगके बलाबलका विचार द्रौ प्रस्थौ मधुनश्चैव द्वावयोरजसस्तथा ॥३४७ करके यथोचित मात्रानुसार सेवन कगना चाहिए । अर्ध प्रस्थो विडङ्गानां कुडवो मरिचस्थ च। यह गण्डीरारिष्ट शोष, प्रमेह, गुल्म, उदररोग, एतयोः मूक्ष्मचूर्णानि प्रतिवापार्थमाहरेत् । ३४८ कृमि, कुष्ट, प्लीहाभिवृद्धि, अर्श, भगन्दर, शोथ, चूर्ण मरीचकानाश्च मधुना सह योजयेत् । पाण्डु, ग्रहणी, प्रन्धि, गलगण्ड, गण्डमाला, विषम भाण्डमलेपः कर्त्तव्यः समासिच्य निधापयेत् ।। ज्वर, खांसी, विद्रधि और वातरक्तको इस प्रकार एष मासस्थितः पेयो यथाव्याधि बलाबलम् । नष्ट करता है जिस प्रकार युद्ध में - असुरोंका गडिरारिष्ट इत्येष व्यासतः परिकीत्तितः।३५० संहार करता है। एष शोषान् प्रमेहांश्च गुल्मांश्च जठराणि च । | प्रक्षेप द्रव्य..... शुद्ध लोहाचूर्ण २ प्रस्थ, बायक्रिमिकुष्ठानि वानि प्लीहासि भगन्दरम् ॥ बिडंग आधा प्रस्थ, और म्याह मिर्च २० तोले । श्वयथून पाण्डुरोगांश्च ग्रहणीदोषमेव च। सबका महीनचूर्ण करके उपरोक्त काथमें मिला । ग्रन्थींश्च गलगण्डं च गण्डमालां तथैव च ॥३५२ (१४०७) गुग्गुल्वासवः (ग. नि. । आमवा.) विषमज्वरकासांश्च विद्रधीन वातशोणितान् । शनं हरीतकीनान्तु विभीतकशतं तथा । अरिष्टःशमयत्याशु युधि शक्र इवासुरान् ।३५३ प्रस्थमामलकानाञ्च गुग्गुलोश्च चतुप्पलम् ॥ काथ द्रव्य---सार और पुष्पयुक्तः शुष्क त्वगेलापिप्पलीमूलचपचित्रकीयकम् ।। मजीठ २० सेर (१६०० तोले), त्रिफला ३० सेर, | तालीसपत्रत्रिकटुमुस्तकेसरकटफलम् ॥ For Private And Personal Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [६७] जलद्रोणे विपक्तव्यं पादशेषे जले ततः। यह गुग्गुल्वासव आयु और सात्म्यादिका धातक्याः प्रस्थमेकन्तु तथा गुडशतद्वयम् ॥ विचार करके सभी रोगोंमें भोजनके आदि, अन्त, द्राक्षादाडिमखण्डानां भागान्दशपलोन्मितान्। मध्य, प्रत्येक ग्रास अथवा हर दूसरे ग्रासके पश्चात् सर्वमेतत्समालोड्य स्थापयेद्भाजने शुभे ॥ (यथोचित मात्रानुसार) सेवन कराया जा सकता है । यदा युक्तरसः स्याञ्च सुजातो गन्धवर्णतः। यह उदररोग, तिल्ली, उरुस्तम्भ, कामला, तम्बूरयेत्तदा भाण्डे मुक्तस्येक्षुरसस्य तु ।। पुराना श्वास, कास, शोथ, भगन्दर, कृमि, कुष्ठ षण्माससंयुतो ह्येष द्रवो पेयः प्रयोगतः। | और प्रमेह रोगका नाश तथा अग्नि प्रदीप्त करता है। गुग्गुल्वासव इत्येष देयः सर्वेषु रोगिषु ॥ (१४०८) गुडतक्रम् (शुक्तम् ) (वं. से. । रसा.) पाग्भक्तं मध्यभक्तं वा ग्रासे ग्रासान्तरे तथा। गुडमधुकाजिकतक्रम् , दद्यात्क्रमेण योगं तु वयः सात्म्यमपेक्ष्य च ।। यथोत्तरं द्विगुणभागसंवृद्धम् ॥ नाशयेदुदरं प्लीहामूरुस्तम्भं सकामलम् । न्यस्तन्तु धान्यराशी, चिरोत्थितमपिश्वासं कासशोफभगन्दरान् ।। त्रिदिवसमिति भवेच्छुक्तम् । कृमिकुष्ठप्रमेहेषु हितश्चैवाग्निदीपनः ॥ गुड़ १ भाग, शहद २ भाग, काजी ४ ___ क्वाथ द्रव्य हर्र और बहेड़ा १००...१००/ भाग और तक ८ भाग एकत्र करके मटकेमें भरकर नग (अथवा (१००-१०० पल), आमले (शुष्क) मुंह बन्द करके अनाजके ढेरमें दबा देनेसे ३ १ प्रस्थ (१ सेर), गूगल ४ पल (२० तोले) दिनमें शुक्त तैयार हो जाता है । दारचीनी, इलायची, पीपलामूल, चव्य, चीता, अज- (१४०९) गुडारिष्टः (च. सं. । चि. स्था. पाण्डु.) वायन, तालीसपत्र, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), मञ्जिष्ठारजनीद्राक्षाबलामूलान्ययोरजः । मोथा, नागकेसर और कायफल । २०-२० तोले। | रोधं चैतेषु गौडः स्थादरिष्टः पाण्डुरोगिणाम ॥ प्रक्षेप द्रव्य - -धायके फूल १ प्रस्थ (१ सेर), मजीठ, ह दी, द्राक्षा (मुनक्का), खरैटीकी जड़ गुड २०० पल, द्राक्षा ( मुनका), और अनारके - शुद्ध लोहचूर्ण, लोध और गुडसे निर्मित गौडः टुकड़े १० --20 पल । (गुडारिष्ट) पाण्ड्डरोगीके लिए हितकर होता है । विधिः-क्वाथ द्रव्योंको कूटकर २ डोण (३२ (प्रा. वि. ---समस्त ओषधियोंका चूर्ण ४-४ सेर) जलमं पकाकर ८ सेन शेष रहने पर छान पल, और जल १ द्रोण (१६ सेर) लेकर पकाकरलीजिए । और फिर उसमें प्रक्षेप द्रव्यांका चूण उसमें १०० पल गुड मिलाकर मिट्टी के मटकेमें मिलाकर घृतसं चिकन मटकेमें भरकर मुग्व बन्द भरकर १ मास तक रक्ग्वा रहने दीजिए, तत्पश्चात् करके रख दिजिए । जब उसमें ओषधियोंका ग्स | छानकर काममें लाए । मात्रा १। तोला, समान वर्णादि प्रकट हो जाय तो उसे इक्षुरसके पात्रमें | भाग पानी मिलाकर भोजनके पश्चात पियें ।) भर कर मुख बन्द करके रख दीजिए और ६ मास | इति गकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् । पश्चात् निकालकर काममें लाइये । For Private And Personal Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ गकारादि अथ गकारादिलेपप्रकरणम् मांगन ) और जमालगोटेकी गिरी समान भाग लेकर नीबूके रसमें घोट लीजिए । (१४१०) गदादिलेपः (वृ. नि. र. । ग्रन्थि.) गण्डमाला और अपचीको शस्त्रशे चीर कर उनके ऊपर यह लेप लगाकर ऊपरसे अरण्डका पत्ता सर्वेषामेव ग्रन्थीनां रक्तस्रावः प्रशस्यते।। । बांध दीजिए । इससे तीन दिनमें गांठे फूट जायगी गदार्कदुग्धतालेन जैपालेन विनाशयेत् ।। तब उन पर दहीभातकी पुल्टिस बांध दीजिए । सर्व प्रकारकी ग्रन्थियोंमें रक्तस्राव कराना इस क्रियासे गण्डमाला और अपचीकी गाठे बाहर हितकर होता है। निकल जाती हैं। प्रन्थिपर कूठ, आकका दूध, हरताल और (१४१३)गन्धकादिलेपः(वृ.नि.र.;यो.र.।गं.मा.) जैपाल ( जमालगोटे )का लेप करनेसे वह नष्ट हो गन्धकं मूतकं तुल्यं अर्कक्षीरं ससैन्धवम् । जाती है ॥ पिटवा च काश्चनीमूलं लेपोयं गण्डमालिके ।। (१४११) गन्धकादिलेपः गण्डमालामें गन्धक, पारा, अर्कदुग्ध, सेंधा(वृ. नि. र.। त्वक्दोष; वृं.मा.;ब.से. यो.र.।कुष्टा०) नमक और हल्दीको पीसकर लेप लगाना चाहिए। (प्र. वि. )—प्रथम पारे और गन्धकको गन्धपाषाण मिश्रेण यवक्षारेण लेपितम् ।। | एकत्र घोटकर कजली बना लीजिए, तत्पश्चात अन्य सिध्मं नाशमुपैत्याशु कटुतैलयुतेन च ॥ ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर आरके दूधमें धोटिए।) गन्धक और यवक्षारको कड़वे तैल में मिलाकर (१४१४) गन्धकादिलेपः (यो. र. । अर्बुद) लेप करनेसे सिध्म ( चेपा-सीप) नष्ट होता है। गन्धाशिलाविश्वौषधविडङ्ग (१४१२) गंधकादिलेपः(वृ.नि.र.;यो.र.ग.मा.) नागभस्मभिः समैश्चूर्णम् । गन्धकं टङ्कणं सिन्धुकाश्चनी नवसारकम् ।। कृकलासरक्तयुक्तं सौवर्चलं यवक्षारं काचं रक्तं सुवर्चलम् ॥ लेपात्सद्योऽर्बुदध्वंसि ॥. सितंरक्तश्च पाषाणं मूषकोत्थं नियोजयेत् । गन्धक, मनसिल, सोंठ, बायबिडंग और जेपालबीजमज्जा च सर्व जम्बीरपीडितम् ॥ | सीसेकी भस्म बराबर बराबर लेकर चूर्ण करके लेप शस्वैश्छिवा प्रदातव्यं वेष्टयमेरण्डपत्रकैः। करनेसे रक्तयुक्त कृकलास ( कुष्ठ भेद ) और एवं व्यहात्स्फुटन्त्यत्र दध्यन्नं बन्धयेत्ततः॥ अर्बुद ( रसौली ) का नाश होता है । गण्डमालाग्रन्थ्यपच्यो बहिनिर्यान्ति नान्यथा॥ (१४१५) गन्धकादि लेपः (रसें.चिं.म.अ.९) ___ गन्धक, सुहागेकी खील, सेंधानमक, हल्दी, | गन्धकं मूलकक्षारमाईकस्य रसैदिनम् । नवसादर, कालानमक ( सौंचल ) जवाखार, कंच, | मर्दितं हन्ति लेपेन सिध्मं तु दिनमेकतः ॥ शिंगरफ ( अथवा सिन्दूर ) सजीखार, सफेद गन्धक और मूलीके खारको एक दिन अद्रकके और लाल संखिया, मूषाकर्णी ( अथवा चूहेकी । रसमें घोटकर लेप करनेसे सिध्म रोग ( त्वक् For Private And Personal Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। - - विकार विशेष चेपा-सीप ) एकही दिनमें नष्ट (१४२०) गिरिकर्णिकादिलेपः हो जाता है। (वैद्यामृत । विषय ३४ ) (१४१६) गन्धकादिलेपः (यो. २. कुया.) मूलं सिताया गिरीकर्णिकाया बलिवेल्लाग्निभल्लातदन्तीशम्पाकनिम्बकैः। मूलं विशालाभवमुग्रगन्धा। काजिकैः पेपितैर्लेपः श्वेतकुष्ठविनाशकृत् ॥ गोमूत्रपिष्टत्रितयस्य लेपागन्धक, बायबिडंग, चीतेकी जड़, भिलावा, सोपद्रवा गच्छति गण्डमाला ॥ दन्तीमूल, अमलतास, और नीमकी छालको कानीमें सफेद कोथलकी जड़, इन्द्रायणकी जड़ और पीसकर लेप करनेसे श्वेत कुष्ट नष्ट होता है। | बच, बराबर बराबर लेकर गोमूत्रमें पीसकर लेप (१४१७)गन्धपाषाणलेपः(वृ.यो.त.।त.१२०) करनेसे उपद्रवयुक्त गण्डमाला भी नष्ट हो जाती है। पाषाणचूणेन्तु कटुतलेन याजितम् । (१४२१) गिरिकर्णिपुष्पलेपः (वै.म.।प.१६) लेपनादथ पानाद्वा कच्छूपामाविनाशनम् ॥ । अन्तर्वहिनयनयोगिरिकर्णिकायाः (शुद्ध) गन्धकको कटुतैलमें मिलाकर लेप करने पुष्पं गवां पयसि पेपितमर्भकानाम् । और पीनेसे कच्छू और पामा रोग नष्ट होता है। संयोजयेद्दशनजन्मनिदानभूतम् ।। (१४१८) गाढीकरणो लेपः (यो. चिं.।अ.७) रोगं कुकूणकमपोहति शीघ्रमेव ।। नूकर धातुकी जाङ्गी सौराष्ट्रफुल्लकं तथा।। गिरिकर्णिका ( कोयल अथवा अमलतास ) माजूफलं हौहबेरलोधं दाडिमत्वक् तथा ॥ ! के फूलोंको गायके दूध में पीसकर बच्चोंकी आंखके कादंवर्या भगे लेपो गाढीकरणमुत्तमम् ॥ बाहर लेप करने और भीतर आंजनेसे दांत निक नीलोफर धायके फूल, काबली (पीली) हैड, लनेके कारण उत्पन्न कुकूणक नामक नेत्ररोग शान्त फिटकरीकी खील, माजूफल, हाऊबेर, लोध और होता है । अनारकी छाल, के चूर्णको कादम्बरी ( सुरा ) में (१४२२) गिरिकर्णिमूललेवः (रा.मा.। कुष्ठ.) मिलाकर लेप करनेसे स्त्रीका गुह्याङ्ग दृढ़ होता है। मूलेन पिष्टेन सिताद्रिका(१४१९) गायत्र्यादिलेपः शीताम्बुयुक्तेन विलिप्य गाहम् । ( वृ. नि. र.; यो. र.; वं. से. । विसर्प.) पक्षात्प्रणाशं सितमेति कुष्ठं गायत्रीसप्तपर्णाहवासारखधदारुभिः। चिरमरूढं द्विगुणैर्दिनैस्तु । कुटन्नटैर्भवेल्लेपो विसर्प श्लेष्मसम्भवे ॥ सफेद कोयलकी जड़को शीतल जलमें खैरसार, सतौना, बासा, अमलतास, देवदारु पीसकर लेप करनेसे नूतन स्वेत कुष्ट १५ दिनमें और नागरमोथा समान भाग लेकर पीसकर कफज और पुराना १ मासमें नष्ट हो जाता है। विसर्पमें लेप करना हितकर है। (१४२३) गिरि कादिलेपः(वृ.नि.र.। वि.चि.) For Private And Personal Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७० ] www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । गिरिकर्णिद्वयं शेलुः पाटला द्वे पुननवें । कपित्थश्च शिरीषश्च लेपो लूतां विषापहः ॥ दोनो प्रकारकी कोयल, हिसोड़ा (रीठा ) पाढल, दोनों प्रकारका पुनर्नवा, कैथ और सिरसकी छालका लेप करनेसे मकड़ीका विष नष्ट हो जाता है 1 (१२२४) गुग्गुल्वादिलेपः ( वा. भ. । चि. स्था. कुटा. १९ ) गुग्गुलुमरिच विडङ्गैः सर्षप कासीससर्जरसमुस्तैः। श्रीवेष्ठकालगन्धैर्मनः शिलाकुष्ठुकम्पिल्लैः ॥ उभय हरिद्रासहितैश्चाक्रिक तैलेन मिश्रितैरेभिः दिनकरकरामितप्तैः कुष्ठं घृष्टश्च नष्टश्च ॥ गूगल, स्याह मिर्च, बायबिडंग, सरसों, कसीस, राल, मोथा, श्रीवेष्ट (धूप सरळ), हरताल, गन्धक, मनसिल, कूठ, कबीला, हल्दी, और दारु हल्दो, के समान भाग चूर्णको पंबाड़के तैलमें मिलाकर धूप में गरम करके लेप करनेसे घृष्ट ( धरोंट ) और कुछ नष्ट होता है । * (१४२५) गुञ्जादिलेप: (बृ.नि.र. ब. दोष.) गुआं कुष्ठवचानिम्बैर्वारिपिष्टैः प्रलेपनात् । श्वेतपराजितामूलं हन्ति श्वित्रमसंशयम् ॥ गुञ्जा ( चौंटली ) कूठ, बच, नीमको छाल और सफेद अपराजिता ( कोयल ) की जड़की पानी में पीसकर लेप करनेसे सफेद को अवश्य नष्ट हो जाता है । (१४२६) गुञ्जादिलेप: (ग.नि. रा. मा. कुश.) अपगततुषगुञ्जाचूर्ण हैयङ्गवीनं प्रमृदितमुपशान्ति कुष्ठिनो याति कुष्ठम् । * अथवा कुष्टको खुजाकर लेप करनेसे वह नष्ट होता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि यदि तु भवति लिप्तं सर्वतस्ताम्रपात्रे गृहितमथितस्तन्नभूयो भवेत्तु ॥ छिलके रहित गुञ्जा ( चौंटली ) के चूर्णको नवनीत ( नौनी - मस्का ) में घोटकर मालिश करने से कुष्ट नष्ट होता है । और यदि मन्थकी गाद (जल रहित छानी हुई दहीकी तलछट ) को ( कुछ समय तक ) ताम्रपात्र में रक्खा रहने देनेके बाद समस्त शरीर में उसकी मालिश की जाय तो पुनः कुछ होने का भय नहीं रहता । (१४२७) गुञ्जादिलेप: (यो. र. । कुष्ट) गुञ्जाचित्रकशलभस्मरजनीदुर्वाभयालाङ्गली स्नुक्सिन्धूत्थकुमारिकाजलधरार्क क्षीरधू मेशजैः । बल्यू एडगजविडङ्गमरिचक्षौद्रैश्च वारियुतैः कार्य वै गजचर्मदरसा कण्डुघ्नमुद्वर्त्तनम् ॥ For Private And Personal चौंटली (गुञ्जाफल ), चीतेकी जड़, शंख भस्म, हल्दी, दूब घास, हर्र, कलिहारी, थोहरका दूध, सेंधानमक, घीकुमार, नागरमोथा, अर्क दुग्ध, धरका धुवा, पारा, बाबची, पंवार, बायबिडंग और स्याहमिचेका समान भाग चूर्ण एकत्र करके शहद में मिलाकर मलने से गजचर्म, दाद, रकस और खुजली, नए होती है । ( विधिप्रथम पारदको घरके वेंके साथ. घोटकर कजली कर लीजिए पहचान अन्य वस्तु ओंका चूर्ण मिलाइये | ) (१४२८) गुञ्जापत्रादिलेप: (वं. से. रो.) गुञ्जापत्रं विषं तैलं तिला मधुककाञ्जिकम् । पतन्त्यनेन नो केशा लेपाद्रोहन्ति चाद्भुतम् ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ७१] - - चौंटलीके पत्ते, मीठातेलिया, तिलतैल, तिल | गुञ्जाफल ( चौंटली ) और चीतेके चूर्णका और मुलैठीके चूर्णको काञ्जीमें पीसकर शिरपर लेप अथवा मनसिल और चिरचिटे (अपामार्ग-पुटकण्डे) करनेसे ( अथवा इस मिश्रगसे शिर धोनेसे ) बाल की राखका लेप करनेसे श्वेतकुष्ट ( सफेद कोढ़ ) नहीं गिरते और इतने अधिक बढ़ते हैं कि देवकर । नष्ट होता है । आश्चर्य होता है। । (१४३२) गुज्जालेपः(यो.त.।त.७३,रा.मा.शिरो) (१४२५) गुजाफललेपः ( यो. र.) मार्कवस्वरसभावितगुञ्जाबीजचूर्णपरिपाचितौलम तक्षयित्वा क्षुरेणा केवलानिलपीडितम् । मिश्रितत्रुटिनटासुरकानैः केशभारजननं जनतायाः तत्र प्रदेहं दद्याच पिष्वा गुञ्जाफलैः कृतम् ॥ काले भांगरेके स्वरमसे ( कईबार ) भावित नेनापबाहुजा पीडा विश्वाची गृध्रसी तथा। गुना ( चौंटली ) और छोटी इलायची, जटामांसी अन्यापि वातजा पीडा प्रशमं याति वेगतः ॥ ( बालछड़ ) और देवदारके क क तथा काथसे यदि किसी अङ्गमें केवल वातज पीड़ा हो | सिद्ध तैल (शिरमें लगाने ) से अत्यधिक केशवृद्धि तो वहां नशतर लगाकर चौंटलीको पीसकर लेप । होती है। कर देना चाहिए । इस क्रियासे अपबाहुक, विश्वाची, । (१४३३) गुनासरणलेपः (वृ. नि. र. अर्श.) गृध्रसी और अन्य वातज पीडाणं शीघ्र नष्ट होती हैं। गुञ्जाशरणकूष्माण्डबीजैर्वतिस्तथा गुणाः। (१४३०) गुजाफललेपः (ग. मा. । शिगे.१) गुञ्जाफल ( चौंटलो ) जिमीकन्द और पेठेके मच्छानपूर्व परिपिष्टगुञ्जा बीजोंको पीसकर बती बनाकर गुदमार्गमें रखनेसे फलै.समालेपितमिन्द्रलुप्तम् । । अर्श नष्ट होती है। प्रणाशमायात्यचिरेण पुंसा । (१४३४) गुडगृहधूमलेपः (वै.ग.। ५.१७) मल्पैदिनैदारुण मुघोरम् ॥ गुडगृहधूमचूर्णसमुदायविलिपमिदम् । ( जोकादिसे ) रक्तस्राव करानेके पश्चात् कफपवनोद्भवग्रथितशोफरुजाबहुलम् ॥ गुञ्जाफल ( चौंटली) को भलिभाति पीसकर लेप व्रणमथ हन्त्यनवं जनयेत् सुखमाशुतरम् ॥ करनेसे इन्द्र लुप्त ( बाल नष्ट हो जाना--गन ) गुड़ और घरका धुवां समान भाग मिलाकर और भयङ्कर दारुण रोग अत्यन्त शी ( कुछ ही लेप करनेसे कफवातज सूजन और पीडायुक्त दिनोंमें ) नष्ट हो जाता है। | पुराना ब्रण ( धाव ) अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता (१४३१) गुजाफलादिलेपः है और पीडा तुरन्त शान्त हो जाती है । (वृ.नि. न.. त्वग्दाष;रस.चि.म.। अ..र..सु.।कुष्ठा.) (१४३५) गुडादिलेपः (रा.मा.।पादरोगा.) गुञ्जाफलाग्निचूर्णस्य लेपनं श्वेतकुष्ठनुत ।। गुडगुग्गुल सर्जरसँगैरिक सिन्धृत्थसिक्थकाक्षौंद्रैः शिलापामार्गभस्मादिलेपान्त्रिविनाशनम्॥ सिद्धार्थक मधुकघृतेन स्फुटनो लेपितावधी ।। For Private And Personal Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि गुड़, गूगल, राल, गेरु, संवानमक, मोम, (१४३८) गृहधूमादिलेपः(ग.नि.।कुष्टाधिकार.) शहद, सरसों, मुलैठी और घृतका मरहम बनाकर | गृहधमपश्चलवणक्षारद्वयचक्रमर्दशशिरेखा। लगानेसे पैर नहीं फटते । व्योषविषयहिहतीरात्रिद्वयकुष्ठकम्पिल्लैः ॥ ( विधि-मोमको पिधलाकर उसमें घृत उग्राशिलालसर्षपन्तकसिन्दरतुत्थकासीसैः। और शहद मिलाइये तत्पश्चात् अन्य वस्तुओंका गोमूत्रसंपपिष्टैः स्नुगर्कपयसान्वितैर्लेपः॥ चूर्ण मिला लीजिए। कुष्ठमपहन्त्यशेषं समुत्थितं मण्डलं समुल्लिखति। (१४३६) गुडूच्यादिलेपः नाशयति स्तब्धसुप्ति चिरजमपि सवर्णयेचित्रम्।। ( वृ. नि. र.; यो. र. । दलीपदा.) धरका धुवां, पांचों नमक (सेंबा, कालागुडूची कटुकी शुण्ठी देवदारु विडङ्गकम् । नमक, सामुद्रनमक, खारीनमक, काचलवण ) पिष्टा गोमूत्रसंयुक्तं लेपं श्लीपदनाशनम् ॥ यवक्षार, सजीखार, पंघाड़के बीज, बाबची, सोंठ, __ गिलोय, कुटकी, सोंठ, देवदारु और बाय- मिर्च, पीपल, मीठातेलिया, चीता, कटेली, हल्दी, बिडंगके समान भाग चूर्णको गोमूत्रमें पीसकर दारुहन्दी, कृट, कमीला, बच, मनसिल, हरताल, लेप करनेसे क्लीपद (फीलपा) रोग नष्ट होता है। सरसों, पारा, सिन्दूर, नीलाथोथा, और कसीस । (१४३७) गुणवतीवर्तिः (धन्वं. । .रो.चि.) सब चीजें बराबर बराबर लेकर गोमूत्रमें भलीभांति तुल्यं सर्जरसं लोधं सिन्दूरातिविषा निशा। धोटकर थोहर और आकके दूधमें धोट लीजिए । अक्षकम्पिल्लश्रीवासगुग्गुलुघृततैलकैः ॥ इसको ( गोमूत्रमें मिलाकर ) लेप करनेसे तुल्यांशं पेषयेत्पिण्डं तत्तुल्यं सिक्थकं भवेत् । सर्व प्रकारके कुष्ट, मण्डल और त्वचाकी मुमि (वे. मदग्निना पचेत्पात्रे मिश्रितं तं समुद्वरेत् ॥ हिस होना--मुन्नबहरी) नष्ट होती है एवं पुराना वत्तिर्गुणवतीनाम्नी योज्या शीतैलान्विता । वता । सफेद कुष्ठरोग भी नष्ट होकर त्वचाका रंग पूर्ववत् दुःसाध्यत्रणगण्डेषु हिता नाडीत्रणेषु च ॥ शोधने रोपणे चैव स्वास्थ्यमुत्पादयत्यलम् ।। (१४३९) गृहधूमादि लेपः (यो.चि.।मिश्र.) गल, लोध, सिन्दूर, अतीस, हदी, बहेडा. श्रीवासधूप ( धृपमाल ), गूगल, घी और तेल गृहधूमं कम्पिल्लं च टङ्कणं मरिचं निशा । समान भाग लेकर पीसकर सबको बराबर मोभमें घृतपिष्टपलेपोयं सर्वव्रणनिवृत्तये ॥ मिलाकर मन्दाग्नि पर पिधलाकर एकजीव कर लीजिए। घरका धुवां, कमीला, सुहागा, स्याह मिर्च इस मरहमको शीतल जलसे ठण्डा करके और हल्दीका चूर्ण समान भाग लेकर धीमें पीसधावपर लगानेसे दुम्साध्य बण (धाव ) और कर लेप करनेसे सर्व प्रकारके | ( धाव ) नष्ट नासूर शुद्ध होकर भर आता है। होते हैं। For Private And Personal Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir nnnnnnniv.runninhni.rue.. लेपपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [७३] (१४४०) गृहधूमादिलेपः फिटकरी, 'गेरु, नीलाथोथा, पुष्पकासीसं ( बं. से.; ग. नि.; यो. र.; वं. मा. । बा. रो.) ( कसीस ) सेंधानमक, लोध, रसौत, हरताल, गृहधूमनिशाकुष्ठस केन्द्रयवैः शिशोः।। मनसिल, रेणुका ( संभालूके बीज ) और इलायची चन्दनोशीरपद्मश्च' सिध्मपामाविचर्चिनुत् ॥ समान भाग लेकर चूर्ण करके शहदमें मिलाकर उपदंशके व्रणोंपर लगाना लाभदायक है । घरका धुवां, हल्दी, कूठ, राल और इन्द्रजौ (१४४४) गैरिकादिलेपः ( र. र. । उपदंश) अथवा चन्दन ( सफेद ) खस और कमलपुष्पका गैरिकाञ्जनमञ्जिष्ठामधुकोशीरपद्मकैः। लेप करनेसे बालकोंका पामा र खुजली ) और सचन्दनोत्पलैः स्निग्धैः पैत्तिकं संपलेपयेत्॥ विचर्चिका रोग नष्ट होता है । पैत्तिक उपदंश (आतशक ) के व्रणपर गेरु, (प्र.वि. तक्रमें मिलाकर लेप करना चाहिए।) सुरमा, मजीठ, मुलैठी, खस, पद्माख, सफेदचन्दन (१४४१) गृहधूमादिलेपः और नीलोफरके चूर्णको घृतमें मिलाकर लगानेसे ( भा. प्र. । म.; वं. से. । वा. र.) लाभ होता है। गृहधूमो वचा कुष्ठं शताहा रजनीद्वयम् । - (१४४५) गोक्षुरादिलेपः प्रलेपः शूलनुद्वातरक्ते वातकफोत्तरे ॥ ( वृ. नि. र.; वं. से. । क्षु. रो.) घरका धुवां, बच, कूठ, सोया, हल्दी और | गोक्षुरसतिलपुष्पाणि तुल्ये च मधुसर्पिषी। दारुहल्दीका लेप करनेसे वातकफ प्रधान वात रक्तकी शिरपलेपितं तेन केशैः समुपचीयते ॥ पीड़ा शान्त होती है। समान भाग गोखरु और तिलपुष्पोंके चूर्णको (१४४२) गैरिकादिलेपः (भा. प्र. । कर्णमूल.) | बराबर बराबर शहद और घीमें मिलाकर शिरपर गैरिकं कठिनी शुण्ठी कट्फलारग्वधैः समैः। । लेप करनेसे अत्यधिक बाल उत्पन्न होते हैं। उष्णैः काञ्जिकसम्पिष्टैर्लेपः कर्णकमूलनुत् ॥ गोक्षुरादिलेपः (वृ. नि. र.; यो. र. । मू. कृ.) गेरु, खिड़िया मिट्टी, सोंठ, कायफल और (श्वदंष्ट्रादि लेप अवलोकन कीजिए । ) अमलतासका गूदा समान भाग लेकर गर्म काजीमें । (१४४६) गोजिहायोगः (रा.मा. । अधि. २८) पीसकर लेप करनेसे कर्णमूल नष्ट होता है। पिष्टा जलेन मधुना मिलिता ततोऽनु (१४४३) गैरिकादिलेपः (वं. से. । उपदंश) | गोजिहिका हरति लेपविधौ प्रयुक्ता । सौराष्ट्री गैरिकं तुत्थं पुष्पं काशीशसैन्धवम् । सर्वाणि दन्तनखजानि विषाणि पुंसालोधं रसाञ्जनं वापि हरितालं मनः शिलाम् ॥ मभ्युद्धमो दिनकरस्थ यथा तमांसि ।। हरेणुकैले च तथा समांशान्यपि चूर्णयेत् । गोजिया घास ( अथवा गोभी) को पानीमें तच्चूर्ण क्षौद्रसंयुक्तमुपदंशेषु योजितम् ॥ पीसकर शहदमें मिलाकर लेप करनेसे समस्त १ लेपस्तकेण हन्त्याशु इति पाठान्तरम् । भा० १० For Private And Personal Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि प्रकारके दन्त और नख विष (-जंतुओंके काटने (१४५०) गोरोचनादिलेपः (भा. प्र.मु.रो.) या नोंचनेसे शरीरमे प्रवेश करने वाले विष ) इस तद्वद् गोरोचनायुक्तं मरिचं मुखलेपितम् । प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार कि सूर्योदयसे । गोरोचन और स्याहमिर्च समान भाग पीसकर अन्धकार । मुख पर लेप करनेसे यौवन पिडिका (युवावस्थामें (१४४७) गोदन्तलेपः (धन्व. । व्रण.) । उत्पन्न होनेवाली पिडिका-मुंहासे) नष्ट होती हैं । गवां दन्तं जले घृष्टं बिन्दुमात्रं प्रलेपतः । (१४५१)गोशकृदादिलेपः(वृ.यो.त.।त.१२०) अत्यन्तकठिने चापि व्रणे पाचनभेदनम् ॥ । गोशकृत्सिन्धुसंयुक्तं रजनीमाक्षिकेण तु । - गायके दन्तको जलमें घिसकर एक बिन्दु । पिष्ट्वाप्रलेपनं योज्यं पामाकच्छूविनाशनम् ।। मात्र लेप करदेनेसे ही अत्यन्त कठिन व्रण (कच्चा गायका गोबर, सेंबा और हल्दीके चूर्णको शहदमें मिलाकर लेप करनेसे पामा (खुजली) और घाव-फोड़ा ) भो पककर फूट जाता है। | कच्छ्ररोग नष्ट होता है। (१४४८) गोपीचन्दनलेपः (यो.र.।उपदंश) (१४५२) गौरसर्षपलेपः (भा.प्र.ख.२.वा.र.) गोपीचन्दनतुत्थे च समभागेन मर्दयेत् । . गौरसर्षपकल्केन प्रदेहो वा रुजापहः। कजली जलसंयुक्ता व्रणानां लेपने हिता॥ सफेद सरसोंको पिठीकी भांति पीसकर मोटा गोपीचन्दन और नीलाथोथा समान भाग | मोटा लेप करनेसे वातरक्तकी पीडा शान्त होती है। लेकर खरल करके कजलके समान बारीक कर (१४५३) गौरीपाषाणलेपः (वृ. नि.र.।अर्श.) लीजिए। गौरीपाषाणकर्षकं स्नुहिकाण्डे विनिःक्षिपेत् । इसे पानीमें मिलाकर लेप करनेसे उपदंशत्रण पाचयेत्पुटपाकेन तत उद्धत्य यत्नतः ॥ ( आतशकके घाव ) नष्ट होते हैं । रेवाचिनी च कुष्ठं च कल्की कृत्य त्रयं समम्। (१४४९) गोमूत्रादिलेपः(ग.नि. रा.मा.।कुष्ट.) लेपयेत्तेन अर्शीशि निवार्यते न संशयः ॥ आरण्यगोमयनिघृष्टमति प्रलिप्तं ।। थोहरके डण्डेको थोड़ी दूर तक चाकूसे काटगोमूत्रतक्रलवणैः कथितैः प्रयत्नात् ॥ | कर भीतरका गूदा निकाल दीजिए और फिर उसमें नाशं प्रयाति रकसं चिरसम्परूढ-। १। तोला सफेद संन्या भरकर उसके मुख पर वही थोहरका कटा हुवा टुकड़ा लगाकर भली भांति मप्याशु पापंमिव संस्मरणेन शम्भोः॥ कपडमिट्टी करके भूबलमें दबा दीजिए । जब वह सेंधानमकको गोमूत्र और तक्रमें पकाकर पकजाय तो संख्येको निकाल कर पीस लीजिए । गाढाकर लीजिए । फिर रकस ( सूखी खुजली ) उसमें समान भाग रेवन्द चीनी और कृठका चूर्ण को अरण्य गोमय (गायके अरने उपले )से रगड़. मिलाकर पानी में पीसकर लेप करनेसे मस्से अवश्य कर उपरोक्त काथका लेप कर दीजिए। इस प्रयोगसे नष्ट हो जाते हैं। रकस अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । For Private And Personal Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir धूपप्रकरणम् ] द्वतीयो भागः। । ७५] अथ गकरादिधूपप्रकरणम् | सांपकी कांचली, हाथीदांत, सींग, हींग और मरिच (स्याह मिर्च)का समान भाग चूर्ण एकत्रित करके (१४५४) गुग्गुलधूपनम् ( रा. मा.। विष. ) | धूप देनेसे स्कन्दापस्मार, उन्माद, पिशाच, राक्षस, सुरावेश और ग्रहबाधा इत्यादि नष्ट होती है। दष्टं नरं रक्तककीटकेन इति गकरादिधूपप्रकरणम् । प्रधृपयेद्गुग्गुलुना प्रकामम् । प्रस्वेदनाशे सघृतार्कपत्रपिण्डी अथ गकारायञ्जनप्रकरणम् च दंशे विधिवत्पदेया ॥२८१॥ रक्तकीट (लालबर-ततैये) के दंश स्थानको (१४५७) गन्धकद्रुतिः ( अञ्जनम् ) गूगलकी धूप देकर पसीना निकल जानेके बाद (र. र. स. । उ. खं. अ. २३) अर्क (आक)के पत्तोंकी घृतयुक्त पिण्डी बांधदी आर्द्रकस्य रसे पिष्टं गन्धकेन विमिश्रितम् । जाय तो पीड़ा शान्त हो जाती है। तुत्थं तु निष्कदशकं तन्मानं चाभ्रक भिषक् । (१४५५) गुग्गुल्वादि धूपः (अपराजितधूपः) । दशनिष्केन तन्मानं तानं च शकलीकृतम् । (वं. से.; वृ. नि. र.; च. द. । ञ्चरा. ) भर्जयेत्खपरे सिस्वा दहेत्तदनु चूर्णयेत् ॥३९॥ पुरध्यामवचास निम्बार्कागुरुदारुभिः । तन्मिश्रं कन्दुकस्थेन चूर्णमेतेन भर्जयेत् । सर्वज्वरहरो धूपः श्रेष्ठोऽयमपराजितः ॥ | गन्धकं चूर्णितं कृत्वा कर्ष तु विधिना शनैः।।४० __गूगल, गन्धतृण, बच, राल, नीमके पत्ते, । मदितं तज्जलप्रस्थे नीलश्चापि शिलाजतु । अर्क ( आक ), अगर और देवद्वार । समान भाग कर्षप्रमाणं निक्षिप्य मर्दयेत्भावयेत्पुनः॥४१॥ लेकर चूर्ण कर लीजिए । इसकी धूपसे सर्व प्रकारके प्रसादं श्रावयेत्पश्चादातपे परिशोषयेत् । ज्वर नष्ट हो जाते हैं। | गन्धकद्रुतिरेषा सर्वनेत्रामयापहा ॥४२॥ (१४५६) ग्रहनधूपः (र.र.स.।उत्तर खं.।अ.२३) । विशेषाद् व्रणकुष्ठश्च पिल्लं काचं कुक्कूणकम् । कार्पासास्थिमयरपिच्छवृहतीनिर्माल्यपिण्डीतक जयेत्स्तन्यघृतक्षौद्रैः सर्व तत्परिकल्पयेत् ॥४३ त्वङ्मांसीपदंशवितुषवचाकेशाहिनिर्मोचकैः व्रणान्कृच्छ्रान् सूक्ष्मायानपि शीघ्रं निवर्तयेत् । नागेन्द्रद्विजशृङ्गहिगुमरिचैस्तुल्यैस्तु धूपः कृतः तत्किटं दद्रुकिटिभपामादीलेपनाजयेत्॥४४॥ स्कन्दोन्मादपिशाचराक्षससुरावेशग्रहघ्नः परम्।। गन्धकका चूर्ण, नीला थोथा,. अभ्रकभस्म कपासके बीज (बिनौले )की गिरो, मोरका- और ताम्र चूर्ण १०-१० निष्क (४० माशे ) पंख, बड़ी कटेलीके फल, शिव निर्माल्य, तगर, लेकर अद्रकके रसमें भली भांति घोटकर मिट्टीके दारचीनी. जटामांसी (बाल छड़), बांसा, मक्खीकी एक खर्पर (ठीकरे )में भरकर अग्निपर रखिए और विष्टा, तुष (धानका छिलका--भूसी), बच, बाल, । चलाते रहिए, जब जलांश शुष्क हो जाय तो For Private And Personal Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि उतारकर उसमें १ कर्ष गन्धकका चूर्ण मिलाकर | जेपालं मरिचं चतुःशतयुतं वातारिबीजं लस-। घोटकर कन्दुक यन्त्रमें स्वेदित कीजिए तत्पश्चात् युक्तं पष्ठिसु खल्विदं दृढ़तरैर्जम्बीरनी रैर्वरैः॥ उसमें १ कर्ष नीला थोथा (अथवा सुरमा ) और कुर्यान्माषवदाकृतिश्चवटिकांछायासुशुष्कीकृताम् १ कर्ष शिलाजीत मिलाकर १ प्रस्थ पानीमें भली | राज्यन्धं ग्रहसर्पसन्धिसकलं शीतज्वरं दुर्धरम् ॥ भांति घोटकर निथरनेके लिए रख दीजिए और सन्नेत्राञ्जनमात्रकञ्च भुवने चाजीर्णदोषापहम् । फिर ऊपरसे स्वच्छ पानी नितारकर फेंक दीजिए, नश्यन्ति प्रबलं महागुणायुतं श्रीपूज्यपादोदितम्।। एवं शेष भागको धूपमें सुखा लीजिए । ___पारा, चूना कलई और घरका धुव्रां, ६-६ यह गन्धकद्रुति समस्त नेत्ररोग और विशेषतः माशे लेकर धतूरेके स्वरसमें खरल कीजिए, पश्चात् व्रण, कुष्ट, पिल्ल, काच, और कुकूणक रोगका नाश उसमें १०० माशे फिटकरी, जमालगोटा और करती है। | स्याहमिर्च चारचार सो, और अरण्डीके बीज ६० इसे घृत, शहद अथवा स्त्रीके दूधमें घिसकर नग मिलाकर जम्बीरी नींबूके रसमें अच्छी तरह आंखमें लगाना चाहिए। इसका लेप करनेसे कष्टसाध्य और सूक्ष्म घोटकर उर्दके बराबर गोलियां बना लीजिए। मुखवाले व्रण, दाद, किटिभ और पामादि नष्ट इन्हें आंखमें आंजनेसे रतौंधा, ग्रह, सर्प विष होते हैं। भयङ्कर शीतज्वर, और अजीर्ण दोष नष्ट होता है। (१४५८) गरुडवर्तिः (वं. मा. । ने. रो.) इस महागुणयुक्त औषधका आविष्कार पूज्यपाद पिप्पली सतगरोत्पलपत्रां महानुभावद्वारा हुवा है। वर्तयेत्समधुकां सहरिद्राम् । एतया सततमञ्जयितव्यं | (१४६०) गरुडाञ्जनम् (र.र.स. उ.खं,अ.२३) __ यासुपर्णसममिच्छति चक्षुः ॥ कतकसैन्धवतुत्थरसाञ्जनं पीपल तगर, नीलोफरके पत्र, मुलैठी और। त्रिकटुकस्फटिकाब्दवराटकम् । हल्दीके समान भाग चूर्णको नित्यप्रति आंखोंमें त्रिपटुताम्रमयोहिमरोहिणी आंजनेसे दृष्टि सुपर्ण ( स्वर्ण चूड नामक पक्षी जलधिफेनवचानृकरोटिका ॥ विशेष ) की दृष्टिके समान तीक्ष्ण हो जाती है । उरगपारदटङ्कणमञ्जनम् (१४५९) गरुडाञ्जनम् ( यो. र. । विषचि.) त्रिफलया मधुकेन च संयुतम् । सूतं चूर्णमगारधूममलं प्रत्येकगद्याणकम् । । करञ्जवल्करसेन सुपेषितं धत्तरस्य रसेन मर्दितमलं पश्चाच्छतं भासुरम् ॥ गरुडदृष्टिसमां कुरुते दृशम् ॥ १ एक हाण्डीमें पानी भरकर उसके मुखपर कपडा अथवा घाम रखकर उसके ऊपर स्वेदनीय औषध रख कर दूसरे पात्रसे ढक दीजिए। तत्पश्चात् उसे अग्निपर चढ़ाकर औषधिको स्वेदित कर लीजिए। इस यन्त्रको कन्दुक यन्त्र कहते हैं। For Private And Personal Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम्] द्वितीयो भागः। [७७ ] निर्मलीके बीज, सेंधानमक, शुद्ध नीलाथोथा, (१४६३) गुटिकाञ्जनम् (सु०सं.उत्तर.अ.१९) रसौत, सोंठ, मिर्च, पीपल, फिटकरीकी खील, नागर व्योषं पलाण्डु मधुकं लवणोत्तमञ्च । मोथा, कौड़ीभस्म, तीनों नमक (सेंधा, काला नमक, लाक्षाञ्च गैरिकयुतां गुटिकाञ्जनं वा ॥ सांभर नमक ) ताम्रभस्म, लोहमम्म, कपूर, मांस ___ सोंट, मिर्च, पीपल, प्याज, मुलैठी, सेंधानमक, रोहिणी, समुद्रफेन; बच, मनुष्यको कपालास्थि, लाख और गेरु समान भाग लेकर महीन पीसकर सीसाभस्म, पारद, हैड,बहेड़ा, आमला और मुलैठी (पानी की सहायतासे) गोलियां बना लीजिए। सबका महीन चूर्ण करके करञ्ज (करञ्जवे ) के इन्हें आंखमें आंजनेसे कुकूणक रोग नष्ट स्वरसमें घोटकर अञ्जन तैयार कर लीजिए। होता है। यह अञ्जन दृष्टिको गरुड़की दृष्टिके समान (१४६४) गुटिकाञ्जनम् तीक्ष्ण कर देता है। __(वै. र. । ने. रो., वृ. यो, त. । त. १३१) (१४६१) गिरिकर्ण्याक्षिपूरणम् पिप्पलीत्रिफलालाक्षालोध्रसैन्धवसंयुतम् । (रा. मा. । ने. रो.) भृङ्गराजरसे घृष्टं गुटिकाञ्जनमिष्यते ॥ श्वेताद्रिकर्ष्याः सपुनर्नवाया अर्म सतिमिरकाचं कण्डूशुक्रं तथार्जुनम् । मूलैः प्रपिटैर्यवचूर्णयुक्तैः। अञ्जनं नेत्रजान्रोगान् निहन्त्येतन संशयः ॥ विलोचनपूरितमम्बुयुक्तै पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, लाख, लोध विमुच्यते पुष्पकृतोपसर्गात् ॥ और सेंधा नमक के महीन चूर्णको भंगरेके रसमें सफेद कनेर और पुनर्नवाकी जड़ तथा जौ घोटकर गोलियां बना लीजिए। को पानीमें पीसकर आंखमें डालनेसे पुष्प (फूला) इन्हें ( पानीमें पीसकर ) आंखमें आंजनेसे नष्ट होता है। अर्म, तिमिर, काच, खुजली, 'फूला और अर्जुनादि (१४६२) गुञ्जामूलाञ्जनम् नेत्र रोग अवश्य नष्ट हो जाते हैं। । (१४६५) गुटिकाञ्जनम् (च.द. नेत्ररोग. ५८) (ग. नि., रा. मा., यो. र. । नेत्ररो.) नलिनोत्पलकिञ्जल्कं गोशकृद्रससंयुतम् । गुञ्जामूलं बस्तमूत्रेण पिष्टं गुडिकाञ्जनमेतत्स्यादिनरात्र्यन्धयोहितम् ।। निघृष्टा वा वारिणा भद्रमुस्ता । कमलकेसरको गायके गोबरके रसमें पीस आन्ध्यं सद्यस्तैमिरं हन्ति । 'कर गोलियां बना लीजिए। इन्हें (पानीमें घिसकर) पुंसामत्युद्धादं नेत्रयोरञ्जनेन ॥ आंखमें आंजनेसे दिवान्ध्य और नक्तान्ध्य (रतौंधा) गुञ्जा (चौंटली)की जड़को बकरेके मूत्रके | नष्ट होता है। साथ अथवा नागर मोथेको पानीके साथ घिसकर (१४६६) गुटिकाजनम् (भै. र. । नेत्र.) अञ्जन लगानेसे अत्यन्त प्रवृद्ध तिमिर और आन्ध्य गैरिकं सन्धवं कृष्णा तगरश्च यथोत्तरम् । रोग नष्ट होता है। पिष्टं द्विरंशतोऽद्भिर्या गुडिकाञ्जनमिष्यते ॥ For Private And Personal Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ गकारादि - vvvvvvvvvvvvvvvvvv.... गेरु १ भाग, सेंधानमक २ भाग, पीपल ४ इसे पुनः पकाइये और गाढ़ा होनेपर १ कर्ष भाग, और तगर ८ भाग लेकर महीन चूर्ण करके श्वेतमरिच (संभालुके बीज) और १ पल चमेलीके पानीमें पीसकर गोलियां बना लीजिए। | नवीन पत्तोंका चूर्ण मिलाकर बत्तियां बना लीजिए। इस गुटिकाञ्जनके प्रयोगसे नेत्राभिष्यन्द रोग यह बतियां समस्त नेत्ररोगों का नाश (आंख दुखना) नष्ट होता है। करती हैं। (१४६७) गुटिकाञ्जनम् (वं, सेन । विषून्या.) (१४६९) गुडूच्याद्यञ्जनम् ( यो. र.। नेत्र.) गुडपुष्पसाराशिखरीतण्डुलं गुडूचीस्वरसः कर्षः क्षौद्रः स्यान्माषकोन्मितम् । गिरिकणिका हरिद्रे द्वे । सैन्धवं क्षौद्रतुल्यं स्यात्सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ अञ्जनगुटिका विलयति अञ्जयेन्नयनं तेन पिल्लार्मतिमिरं जयेत् । विचिकां त्रिकटुकसनाथा ॥ काचं कण्डूलिङ्गनाशं शुक्लकृष्णजातान्गदान् । गुड़, शहद, अपामार्ग (चिरचिटे) के बीज, गिलोयका स्वरस १ कर्ष और शहद तथा कनेरकी जड़, हल्दी, दारु हल्दी और त्रिकुटेका | सेंधानमक १-१ माषा (स्वरसका १६ वां भाग) चूर्ण करके गोलियां बना लीजिए। मिलाकर अञ्जन लगानेसे पिल्ल, अर्म, तिमिर, काच, इसे ( पानीमें घिसकर) आंखमं आंजनेसे | कण्ड (खुजली), लिङ्गनाश और शुक्ल तथा कृष्ण विषूचिका नष्ट होती है। पटल गत नेत्ररोग नष्ट होते हैं। (१४६८) गुडूच्यादिवतिः । (१४७०) गुहामूलाद्यञ्जनम् (च. सं. । चि. स्था.; ने. चि.) (बृ. मा. नेत्ररो.) अमृताहा विसं बिल्वं पटोलं छागलं शकृत् । ताम्रपात्रे गुहामूलं सिन्धूत्थमरिचान्वितम् । प्रपौण्डरीकं यष्टया दार्वी कालानुसारिवा ॥ आरनालेन संघृष्टमजनं पिल्लनाशनम् ॥ सुधौतजर्जरीकृत्य कृत्वा चापलांशकम् । शालपर्णी अथवा पृष्टपर्णाकी जड़, सेंधानमक तोये पक्त्वा रसे पूते भूयः पक्थे घने रसे ।। और काली मिर्चको काञ्जीके साथ ताम्र पात्रमें कर्ष च श्वेतमरिचाज्जातिपुष्पानवात्पलम् । घिसकर अञ्जन लगानेसे पिल नामक नेत्र रोग चूर्ण कृत्वा कृता वत्तिः सूक्षिरोगनुत् ॥ नष्ट होता है। गिलोय, कमलनाल, बेलगिरी, पटोलपत्र, (१४७१) गोपयः सर्पिषोर्योगः(ग.नि.नेत्रा.) बकरीको मांग (मल). पुण्डरिया, मुलैठी, दारुहल्दी, कृष्णाया कृष्णवत्साया गोपयः सपिरेव च। हल्दी और सारिवा आधा आधा पल लेकर सबको पानेऽक्षिण तर्पणे नस्ये परमं चक्षुषोहितम् ॥ भली भांति धोकर, कूटकर (४० पल-२॥ सेर) ___ कृष्णवत्सा (काले बच्चेवाली) काली गायका पानीमें पकाइये । और (जब १० पल पानी शेष | दूध और घृत पोना, आंखोंमें डालना और उसकी रहे तो उतारकर) छान लीजिए । इसके पश्चात् । नस्य लेना आंखोंके लिए हितकर है। For Private And Personal Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [७९ ] - - - (१४७२) ग्रहोपशमनार्थमञ्चनम् (रा.मा.अप.) मूलको शहदमें मिलाकर उसकी नस्य लेनेसे गण्डकूष्माण्डीफलसलिलेन पुष्यसंज्ञे माला नष्ट हो जाती है। नक्षत्रे महणतरां प्रपिष्य दावीम् ।। (१४७५) गण्डमालाहरनस्यम् कर्तव्यं नयनयुगेऽञ्जनं प्रशस्तं (वृ. यो. त. । त. १०८) निश्शेषग्रहरजनीचरोपशान्त्यै ॥ गण्डमालाभयानां नस्पकर्मणि योजयेत् । दारुहल्दीको पुष्य नक्षत्रमें कुष्माण्डीफल | निर्गुण्ड्यास्तु शिफां सम्यग्वारिणा परिपेषिताम्।। (क्षुद्र कुष्माण्ड-छोटा पेठा) के स्वरसमें महीन पीस- निष्पीड्य तद्रसान्नस्य गण्डमालापचीहरम् ॥ कर दोनों आंखोंमें आंजनेसे समस्त ग्रह और राक्षस निर्गुण्डी (संभालु) की जड़को पानीमें पीसकर शान्त होते हैं। रस निकाल कर नस्य लेनेसे गण्डमाला और अपची (१४७३) ग्रहोपशमनार्थमञ्चनम् रोग नष्ट होता है। (रा. मा. अपस्मारोन्मादाधिकारः ) (१४७६) गान्धार्यादिघृतनस्यम् गोपित्तसिन्धुभवमागधिकाप्रमत (वृ. नि. र. । शिरो.) चूर्णैः कृतं समरिचैर्नयनाञ्जनं यत् । गान्धारी च जटामांसी घृतेन सह पाचयेत् । भूतग्रहशमनं तदुदाहरन्ति तदाज्यं नस्यमात्रेण निहन्त्यर्धशिरोरुजम् ॥ संत्रासनञ्च रजनीचरसंहतानाम् ॥ कोली और जटामांसी (बालछड़) के कल्क गोरोचन, सेंधानमक, पीपल और मरिच और चतुर्गुण जलसे सिद्ध घृतकी नस्य लेनेसे आधे (स्याह मिर्च) के चूर्णको आंखोंमें आंजनेसे भृत, शिरकी पीड़ा (आधासीसी) शान्त होती है । ग्रह और राक्षसोंका भय नष्ट होता है। (१४७७) गिरिकर्णिकानस्यम् इत्यजनप्रकरणम् - (यो. र., वृ. नि. र. । शिरो.) गिरिकीफलं मूलं सजलं नस्यमाचरेत् । . अथ गकरादिनस्यप्रकरणम् मूलं वा बन्धयेत्कणे निहन्त्यर्धशिरोरुजम् ।। (१४७४) गण्डमालाहरनस्यम् इन्द्रायनकी जड़ या फलको पानीमें पीस कर (वृ. यो. त. । त. १०८) नस्य लेनेसे अथवा उसकी जड़को कानमें बांधनेसे कोशातकीनां स्वरसेन न | अर्धशीर्ष (आधासीसी-आधे शिरका दर्द ) नष्ट होता है। तुम्ब्यास्तु वा पिप्पलिसंयुतेन । (१४७८) गिरिकर्णीमूलयोगः (रा.मा.।उन्मा.) तैलेन वारिष्टभवेन कुर्यात् संपिष्य तन्दुलजलेन सिताद्रिकर्णी . ___ वचोपकुल्ये सह माक्षिकेण ॥ मूलं घतेन सह नस्पविधौ प्रयुक्तम् । ___ कड़वी तोरीके स्वरस अथवा पिप्पली चूर्णयुक्त __ भूतग्रहोपशमनं, मुनिवृक्षपुष्पतूंबीके रस या नीमके तैल अथवा बच और दन्ती जातो रसः समरिचश्च तथैव दृष्टः॥ For Private And Personal Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । . [गकारादि सफेद कनेरकी जड़को पानीमें पीसकर धीमें (गोय) का विष इस प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे मिलाकर नस्य लेनेसे अथवा मरिच (स्याह मिर्च) सूर्यकी तीक्ष्ण किरणोंसे मेघमाला छिन्नभिन्न हो चूर्णयुक्त अगस्ति (अगथिया) के पत्तों के स्वरसकी जाती है। नस्य लेनेसे भूतबाधा और ग्रहदोष शान्त होते हैं। (१४८३) ग्रहोपशमनार्थ नस्यम् (१४७९) गुडनागरादिनस्यम् ( रा. मा. । अपस्मारोन्मादा.) (यो. र. भा. २. । शिरो.) गोमूत्रेण तु सहितं सम्यक्पकं फलं विशालायाः। गुइनागरेकल्कस्य नसतं मस्तकशूलनुत् । नस्येन हन्ति भूतान् रक्षांसि ब्रह्मपूर्वपदान् । ___गुड़ और सों के चूर्णको मिलाकर नस्य लेनेसे इन्द्रायणके फलको गोमूत्रमें पकाकर नस्य मस्तकशूल नष्ट होता है । लेनेसे भृतबाधा और ब्रह्मराक्षसोंका नाश होता है। (१४८०) गुडादिनस्यम् (वृ. नि. र. । शिरो.) इति नस्यप्रकरणम् गुडं करञ्जबीजञ्च नस्यमुष्णजले हितम् ॥ ___ गुड़ और करन बीज (करञ्जवेकी गिरी) को अथ गकरादिकल्पप्रकरणम् उष्ण जलके साथ पीसकर नस्य लेनेसे आधासीसी । (१४८४) गुडुचीकल्पः (र. चि. । स्त. ९) शान्त होती है। रसभस्मगुडूच्याश्च सत्त्वमेकत्र च द्वयम् । (१४८१) गुडादिनस्यम् (बृ. नि. र. । शिरो.) ततः शाल्मलिजेनैव रसेन परिभाव्यते ॥ नावनं सगुडं विश्वं पिप्पलीसैन्धवाम्बुना। पञ्चाशद्भावनास्तस्य मासार्धमधिकस्य च । भुजस्तम्भादिरोगेषु सर्वमूर्द्धगदेषु च ।। टकद्वयमितं चूर्ण सेव्यं प्रतिदिनं नरैः ।। गुड़, सोंठ, पीपल और सेंधानमकके समान दिने प्रभातसमये शाल्मलीरससंयुतम् । भाग चूर्णको जलमें पीसकर नस्य लेनेसे भुजग्तम्भ, तीक्ष्णं मयं तथा क्षीरं लवणां परिवर्जयेत् ।। अर्दित (लकवा) और सब प्रकारके शिरोगेग शान्त तक्रदुग्धाशनप्रीतो भूमीशायी जितेन्द्रियः । होते हैं। एकासनः स्वच्छचित्तः सन्मित्रो भक्तवत्सलः।। (१४८२) गोधेरकविषापहं नस्यम् मुखासनसमासीनः सत्यधर्मपरायणः। (ग. नि. । गर वि. ९) निश्चिन्तो निर्विकारश्च कल्पमेनं भजेन्नरः॥ उष्णोदकेन मसणं दृषदि प्रपित त्रिमासादृयतः केशा भ्रमरीगणसन्निभाः। कन्थारिपादपजटां कृतनावनानाम् ।। जायन्ते तच्छरीरस्था निश्चलाः शवलाः कलाः।। गोधेरकस्य गरलं नयति प्रशान्ति षण्माषमात्राभ्यासाच्च शरीरमजरामरम् । माशुतापभरमम्बुदमालिकेव ॥ अनंगसदृशं रूपं दशमासेन जायते ॥ कन्थारीकी जड़की छालको उष्ण जलसे पन्थर वर्षमात्राभ्यासवशाद् वर्द्धन्ते धातवोऽखिलाः । पर अत्यन्त महीन पीसकर नस्य लेनेसे गोधेरक | इच्छाहारविहारी च स्वर्गतिर्मतिमान्नरः ॥ For Private And Personal Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - कल्पप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [८१] एवं कल्पो विधातव्यो सुखं जीवितुमिच्छभिः। कषायश्च्छिन्नरोहाया निहन्याद्विषमज्वरम् । अमृतायाःशिवः सौम्यो धमृतोपमलाभदः ॥ रात्रिज्वरं ज्वरं जीर्ण तृतीयकचतुर्थको ॥ मकरध्वज (अथवा रस सिन्दूर) और गिलोयका सत समान भाग लेकर एकत्र खरल करके निःक्काथोऽमृतवल्लयास्तु शुण्ठीचूर्णसमन्वितः । उसे संभलके रसकी ५० भावना दे लीजिए। पीतो हन्ति कटीपृष्ठपादजोरुजां रुजम् ।। ___ इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ८ माशेकी मात्रानुसार सेंभलके रसके साथ सेवन करनेसे ३ मास के अमृतायाः पलशतं चूर्णीकृत्य तुलाधृतम् । पश्चात् बाल भौं रेके समान काले हो जाते हैं, ६ घृतक्षौद्रगुडं चाथ सर्वमेकत्र संलिहेत् ।। मासके सेवनसे शरीर अजर अमर और १० मास यथाग्न्यभ्यवहारस्तु नरो हितमिताशनः । पर्यन्त सेवन करनेसे रूप कामदेवके समान सुन्दर नास्थकश्चिद्भवेद्याधिन जरा पलितं न च ॥ हो जाता है, तथा १ वर्ष पर्यन्त सेवन करनेसे न गृध्रसी न घातामृङ् न चैव विषमज्वरः । न च नेत्रगता रोगा परं चैतद्रसायनम् ॥ शरीरके समस्त धातुओंकी वृद्धि होती है। मेधाकर त्रिदोषघ्नं, प्रयोगादस्य बुद्धिमान् । सुखाभिलाषी यथेच्छाहार विहारी बुद्धिमान् ! मनुष्यको इस अमृतके समान लाभदायक, और जीवेद्वर्षशतं पूर्ण यथैकं दिवसं तथा ॥ सौम्य अमृताकल्पका व्यवहार करना चाहिए। स्वरसममृतवल्लया यः पिपेन्मासमेकम् प्रयोगकालमें तीक्ष्ण पदार्थ, मद्य, क्षार और परिसृतघृतभक्षः क्षीरयूषौदनाशी । लवणका परित्याग करके तक अथवा दुग्धाहार | वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तो करना चाहिए, एवं भूमिमें शयन करना चाहिए तरुरिवनवपत्रः स्नेहकान्तिर्विभाति ॥ और स्वच्छ चित्त, सन्मित्रयुक्त, भक्तवत्सल, सत्य गिलोयके, अंगूठेके पोरवे ( पर्व ) के समान धर्म परायण, निश्चिन्त, निर्विकार, और ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक रहना चाहिए। भोटे और बड़े टुकड़े करके धीमें भून लें और ( नि औषधिकया। उनमें से सात या नौ टुकड़े रोज़ खा लिया करें, तामष्ठपर्वमात्रां गुडूची परिकल्पिताम् । एवं इच्छानुसार आहार विहार करें । इस प्रयोगसे खण्डानि सर्पिषा भृष्टा खादेत्सप्त नवाथ च॥ तृष्णा, भ्रम, श्वास, कास शूल और कम्पनका नाश पुनः पुनः प्रतिदिनं यथेष्टाहारचेष्टितम् ।। होता है। जयेतृष्णां भ्रमं श्वासं सकासं शूलवेपथुम् ॥ ___ गुडूचीके काथमें अरण्डीका तेल मिलाकर पिबेन्नरोऽपि तत्काथमेरण्डस्नेहयोजितम् । । पीनेसे गृध्रसी, उदार्त और वातरक्त का समूल जयेद्गृध्रस्युदावर्त्त वातरक्तमशेषतः ॥ नाश हो जाता है। १ भा० ११ For Private And Personal Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ८२ ] गुडूचीका काथ विमज्वर, रात्रिज्वर, जीर्णज्वर, तिजारी और चौथिया ( चातुर्थिक ) ज्वरका नाश करता है । www.kobatirth.org frates कामें सांका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे कमर, पीठ, पैर, जंबा और उरु प्रदेशकी पीड़ा नष्ट होती है । भारत-भैषज्य रत्नाकरः । १०० पल ( ६ । सेर) गिलोय के चूर्णको घृत शहद और गुड़ में मिलाकर रखें इसे प्रतिदिन अग्नि लोचित मात्रानुसार सेवन करने और पथ्य पालनपूर्व रहने से जरा व्याधि, पलित, गृध्रसी, वातरक्क विषमज्वर और नेत्ररोग नहीं होते । यह प्रयोग रसायन, त्रिदोषनाशक और बुद्धिवर्धक है । हसको सेवन करने से मनुष्य पूरे १०० वर्ष तक १ दिनकी भांति जीवित रहता है । शरता निलमेघपड़के एक मास पर्यंत गिलोय के स्वरसको पीने और घृत, शहद तथा दूध, मूंगका यूष और मात खानेसे मनुष्य बलिपलित रहित, सर्व रोगमुक्त और वृक्षोंकी नवीन कोंपलोंके समान कान्तिमान हो जाता है । (१४८६) गोक्षुरकल्पः (ग. नि. । औ. क. २) अरिष्टपाषाणपथि श्मशान - जीर्णलाये गोक्षुरकं प्रजातम् । अपास्य सुक्षेत्र नदीतडाग गोष्ट समुपाददीत ॥ चूर्णीकृतं सान्द्रपटान्तपूत फलान्वितं गोक्षुरकं समूलम् । मथैनमत्यन्तविशुद्धकायः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि तिथौ प्रशस्ते पयसा लिहेत्तत् कर्णाभिवृद्धया द्विपलं तु यावत् । दिने दिने सार्धपलं तु नित्यं जीर्णे पयः षष्टिक भोजनश्च ॥ aagara कामं यः कुकुमानिव गोकुलेषु । कामकामः प्रमदा सहस्रं भजेदुदीर्णेन्द्रिय सर्वचेष्टः ॥ यां चापि गच्छेत्प्रमदां स वृद्धां हिमेन्दुगङ्गामलकुन्दकेशीम् । सा चापि कौमारमुपैति भावं रूपान्विताऽथाप्सर सेव भाति ।। निकृष्ट पथरीले मार्ग, दमशान और पुराने खण्डहरों में उत्पन्न गोखरुका परित्याग करके नदी तड़ागादिके तटवर्ती उत्तम प्रदेशमें वायु, आकाश, कीचड़ आदि दूर होने पर शरद ऋतु में उत्पन्न सफलमूल गोखरु लेकर चूर्ण करके मोटे कपड़ें से छान लीजिए। For Private And Personal वमन विरेचनद्वारा शरीरशुद्विके पश्चात् प्रशस्त तिथि १ || कर्षकी मात्रासे दूधके साथ सेवन प्रारम्भ करें और प्रतिदिन १ कर्ष (१| तो.) बढ़ाते जायें, यहां तक कि २ पल (१० तोले ) मात्रा तक पहुंच जाए | औषध पचने पर साठी चावल और दूधका आहार करें । इस प्रकार आठ दिन तक यह प्रयोग करने से ater अत्यधिक प्रबल हो जाती है । इस प्रयोगका प्रयोगी यदि किसी वृद्धाके साथ रमण करता है तो वह भी अपसरा समान रूप लावण्ययुक्त प्रतीत होती है । इति गकारादिकल्पप्रकरणम् Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसमकरणम् ] www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । अथ गकरादिरसप्रकरणम् (१४८७) गगनगर्भरस: (रसे. मं. ( अ. ३ ) अभ्रं तालकताम्रतीक्ष्ण मुरभं मृतं समानांशकम् । भार्गीकट्फलधान्यकाम्बु नि वचा शृङ्गी च शुण्ठी शिवा ॥ एषां पर्यटकद्रवेण रचिता गद्याण मात्रावटी । लीढा सा मधुना निहन्ति सहसा श्लेष्मान्वितं मारुतम् ।। ९ ।। अभ्रक भस्म, हरताल भस्म, ताम्र भस्म, लोह भस्म, गन्धक ( शुद्ध ), शुद्ध पारद, और भारंगी, कायफल, धनिया, नेत्र बाला, बच, काकड़ासिंगी, सोंठ और हैड़का चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए, तपदचात् अन्य समस्त ओषधियां मिलाकर पित्तपापड़े स्वरस या काथमें घोटकर ६-६ माशेकी गोलियां बना लीजिय । इन्हें शहद में मिलाकर चाटने से कफयुक्त वायु अत्यन्त शीघ्र नष्ट होती है । ( व्यवहारिक मात्रा १ माशा ) (१४८८) गगनगर्भावडी ( रस: ) ( र. र. स. । उ. खं. अ. २१; र. रा. सुं. । वा. व्या. मृताभ्रं तीक्ष्णताम्रं च मृतं तालकगन्धकम् । भार्गी शुण्ठी वा धान्यकम्पिल्लं चाभयाविषम् avinashi भक्षयेद्वटीम् । arasलेष्महरा ह्या वटी गगनगर्भिता || १ तारमिति रसकामधेनौ । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८३ ] शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, हरताल भस्म, शुद्ध गन्धक और भारंगी, सोंठ, बच, धनिया, कबीला, हैड़ और मीर तेलिये का चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारद और गन्धकको घोटकर कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर पित्तपापड़ेके काथ या स्वरसमें घोटकर ४-४ माशेकी गोलियां बना लीजिए । यह " गगनगर्भितावटी " वातकफको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देती है । ( मात्रा १ माशा । अनुपान मधु ) (१४८९) गगनमुखरस : (रमे. मं. । अ. ३) गगनं स्याद्र से जीर्ण तीक्ष्णं शुल्वं सुरायसम् । वज्रामयरसे घृष्टं सूर्यावर्त्तविनाशनम् ॥ २०५ अभ्रक ग्रास युक्त पारद, तीक्ष्ण लोहभस्म, और कान्त लोहभस्म ( समान भाग लेकर ) स्नुही ( सेंड के दूध में पीसकर सेवन करने से सूर्यावर्त मस्तकशूल भेद ) रोग नए होता है । (१४९०) गगनसुन्दरो रसः For Private And Personal (भै. र. र. रा. सुं. । व्यराति. ) टङ्कणं दरदं गन्धुमभ्रकञ्च समं समम् । दुग्धिकाया रसेनैव भावयेच्च दिनत्रयम् ॥ द्विगु मधुना देयं श्वेतसर्जस्य वल्लकम् । विविधं नाशयेद्रक्तं ज्वरातीसारमुल्वणम् ॥ पथ्यं तपच्छागमामशूलं विनाशयेत् । अद्धिकरो ह्येष रसो गगनसुन्दरः ॥ सुहागेकी खील, शुद्ध हिंगुल ( शंगरफ) शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म, समान भाग लेकर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि ३ दिन पर्यन्त दूधीके रसमें धोटकर २-२ रत्तीकी शुद्ध पारद समान भाग लेकर जम्बीरी नीबूके गोलियां बना लीजिए। रसमें भली भांति घोट लीजिए। - १-१ गोली शहदमें मिलाकर चाटने और इसे १ माशेकी मात्रानुसार खाकर पश्चात् तत्पश्चात् सफेद रालका ३ रत्ती चूर्ण खानेसे घृतमें मिलाकर स्याह मिर्चका चूर्ण चाटनेसे ग्रहणी ज्वरातिसार में आने वाला रक्त और आम शूल नष्ट रोग नष्ट होता है। होता है तथा अग्निकी वृद्धि होती है। पथ्य----तक भात। पथ्य- तक और बकरीका दूध । (१४९३) गगनादिलोहम् (१४९१) गगनसुन्दरो रसः । (रसें. चि. म. । अ. ९; र. चं. । स्त्रीरो., र. सा. (रसें. चिं. म. । अ. ९) सं. र. रा. सुं.; धन्वं. । सोमरोग ) रसगन्धाभ्रकाणाश्च भागानेकद्विकाष्टवान् । गगनं त्रिफला लोहं कुटज कटुकत्रयम् । संचूर्य सर्वरोगेषु युञ्जयाद्वल्लचतुष्टयम् ॥ पारदं गन्धकश्चैव विषटङ्कणसर्जिका ॥ ग्रहणीक्षयगुल्मझेमेहधातुगतज्वरान् । त्वगेला तेजपत्रं च वङ्गं जीरकयुग्मकम् । निहन्ति मूतराजोयं मण्डलैकस्य सेवथा ॥५४ एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत्॥ . शुद्ध पारा, १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग तदर्ध चित्रकं चूर्ण कपैकं मधुना लिहेत् । और अभ्रकभस्म ८ भाग लेकर पारेगन्धक की अवश्यं विनिहन्त्याशुमूत्रातीसारसोमकम् ।। कजली करके अभ्रक भस्म मिलाकर घोट लीजिए। ___अभ्रकभस्म, हर्र, बहेड़ा, आमला, लोहभस्म, इसे ४ वल्ल (८ रत्ती )की मात्रानुसार ४० कुड़ेकी छाल, सोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध पारद, दिन पर्यन्त सेवन करनेसे, ग्रहणी, क्षय, गुल्म, शुद्र गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया, मुहागेकी खील, बवासीर, प्रमेह, धातुगत ज्वर और अन्य समस्त सजीखार, दालचीनी, इलायची, तेजपात, बंगभस्म, रोग नष्ट होते हैं। सफेद जीरा और स्याह जीरा समान भाग लेकर (व्यवहारिक मात्रा २ रत्ती । अनुपान शहद ।) महीन चूर्ण बना लीजिए । तत्पश्चात् इसमें इस (१४९२) गगनसुन्दरो रसः समस्त चूर्णमे आधा चीतेका चूर्ण मिला लीजिए। . (र. का. धे. । संत्र. चि.) | इसे १ कर्ष (१। तोले )की मात्रानुसार शहदग्ध्वा कपर्दिकामिष्टां यूपणं टङ्कण विषम्। । दमें मिलाकर चाटनेसे मूत्रातिसार और सोमरोग मर्दयेच्छुद्धमृतञ्च तुल्यं जम्बीरजैवैः ॥१०३ । अवश्य नष्ट होता है। मर्दयेद्भक्षयेन्मापं मरिचाज्यं लिहेदनु (१४९४) गगनादिवटी (रसः) निहन्ति ग्रहणीरोगं पथ्यं तक्रोदनं हितम् ॥ (र. सा. सं., र. रा. मुं., धन्वं. । वा. व्या.) ___ उत्तम जातिकी कौड़ियोंकी भस्म, सोंठ, मिर्च, | मृतगगनरसार्क मुण्डतीक्ष्णं सताप्यम् । पीपल, सुहागेकी खील, शुद्ध मीठा तेलिया और सबलिसममिदं स्यायष्टितोयपपिष्टम् ॥ For Private And Personal Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [८५] तदनु सलिलजातैर्वासकैर्गोस्तनिभिर् । । सोनामक्खी भस्म, शुद्र मीठा तेलिया, चीता, मर्दितमनु विदारीवारिणा घस्रमेकम् ॥ बंसलोचन, काकड़ासिंगी, संभालुके पत्ते गन्धक, घृतमधुसहितेयं निष्कमात्रा वटीति । मुलैठी, सेंधानमक, मुहागेकी खील, यवक्षार, क्षपयति गुरुवातं पित्तरोगं क्षयश्च ।। बांझ ककोड़े की जड़, पृष्टपर्णी, नीमछाल, इन्द्राभ्रममदकफशोषान्दाह तृष्णासमुत्थान् । यनकी जड़, अद्रख और अम्लवेत १-१ शाण मलयजमिह पेयञ्चानुपेयं सचन्द्रम् ॥ (४-४ माशे) लेकर चूर्ण योग्य ओषधियोंका __ अभ्रक भस्म, शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, मुण्ड कपड़छन महीन चूर्ण कर लीजिए । तत्पश्चात् पारे लोहभस्म, तीक्ष्ण लोहभस्म, सोनामक्खी भस्म, और गन्धककी कजली करके उसे पर्पटीकी भांति और गन्धक (शुद्ध ) समान भाग लेकर पारे और पका लीजिए और किर समस्त ओषधियोंको एकत्र गन्धककी कजली करके समस्त औषधीको एकत्र घोटकर (पानीसे ) छोटे बेरके समान गोलियां . मिला लीजिए। तत्पश्चात् १-१ दिन मुलैठी, बना कर छायामें सुखा लीजिए । बासा, मुनक्का और बिदारी कन्दके क्वाथ में धोटकर इलके सेवनसे समस्त प्रकारके सन्निपात और ४-४ माशेकी गोलियां बना लीजिए। कुष्ठ रोग नष्ट होते हैं। इसे धी (६ माशे) और शहद (२ तोला) (१४९६) गगनायस-रसायनम् में मिलाकर चाट कर पश्चात् श्वेतचन्दन और (र. चिं. । स्तब. ८) कपूरको धिस कर पीनेसे प्रबल वायु, पितरोग, | कृत्वा धान्याभ्रक श्लक्ष्णं मुस्ताकाथेन मर्दयेत्। क्षय, भ्रम, मद, कफ, शोरोग, दाह और तृष्णा दिनैकमातपे तप्तं पूपं कृत्वा ततः परम् ॥ नष्ट होती है। शरावसम्पुटे क्षिप्त्वा देयश्चोपरि खर्परः । (१४९५) गगनाद्यो रसः (रसें. मं. । अ. ३) वस्त्रमृत्तिकया लेप्य पुटं दद्यात्ततः परम् ॥ गगनकनकतानं शाणमात्रं च धृत्वा । स्वाङ्गशीतलतां याते तच्चूर्ण पेषयेत्पुनः । रसवरकृतपिष्ट्या सौरभान्ते विपक्खा॥ । मुस्तानीरेण च क्षुण्णं पूपं कुर्यात्पुनः पुनः ॥ समयुतकृतमेभिस्तालकं वोलतापं । एकविंशतिवारांश्च दद्यायुक्त्या नया पुटम् । विषमनलसुपः शृङ्गिका सिन्दुवारम् ॥ बार बारश्च संचूर्ण्य शरावस्थं तदभ्रकम् ॥ सुरभिमधुकसिन्धुष्टङ्कणक्षारवन्ध्या । एवं हि पुटितं व्योम भवेनिश्चिन्द्रिकं परम् । कलशिपिचुविशालाशृङ्गवेराम्लवेतम् ॥ एकं कान्तायसं सिद्धमेतनिश्चन्द्रमभ्रकम् ॥ लघुवदरफलाभा छायया शोषिता हि । समं क्षिप्याथ खल्वे तवयं पिष्वैकतां नयेत् । हरति सकलजातं सन्निपातं च कुष्ठम् ॥ रसायनं द्वयोर्योगानिष्पन्नं गगनायसम् ।। अभ्रक भस्म, सुवर्ण भस्म, ताम्र भस्म, | प्रातरुत्थाय गवाणो ग्राह्यः शीतजलान्वितः । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, हरताल भम्म, बीजाबोल; | अष्टादशसु मेहेषु वातश्लेष्मादि रोगिषु । For Private And Personal Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - - [८६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [गकारादि अतिसारेषु पित्तेषु देयमेतद्रसायनम् । भक्षयेच पिवेत्क्षीरं कर्फेकं त्रिफलामनु । प्रत्यहं प्रातरुत्थाय यः करोति सदा नरः ॥ रात्रौ शुण्ठी कणांखादेवकादमरो भवेत् ॥ तेजस्वी वलवाञ्छरो बलेन गजसन्निभः । जीवेद् ब्रह्मदिनं वीरः स्याद्रसो गगनेश्वरः।। स्तम्भितो तेन वा हस्ती पदमेकं न गच्छति ॥ शुद्ध पाग्द, अभ्रक भम्म, कान्त लोहभम्म धान्याभ्रकका सूक्ष्म चूर्ण करके उसे एक दिन और तीक्ष्ण लोहभम्म, समान भाग लेकर सबको मोथेके रस में घोट कर टिकिया बना लीजिए और ३ दिन तक भागंग और आमलके रसकी छायामें धूपमें सुखाकर दो शरावोंमें बन्द करके ऊपरसे भावना दीजिए । पश्चात् उसमें समान भाग मिश्री, कपर मिट्टी करके सुखाकर गजपुटमें फूंक दीजिए। शहद और घी मिलाकर मिट्टी के बरतनमें भरकर स्वांगशीतल होने पर निकालकर पुनः मोयेके रसमें अनाजके ढेरमें दबा दीजिए और एक मास पश्चात घोटकर पुट दीजिए। इसी प्रकार २१ पुट देनेसे निकालकर काममें लाइये। अभ्रक निश्चन्द्र हो जायगा। __इसे प्रति दिन ३ निष्क ( १२ माशे ) की इस प्रकार निर्मित असककी निश्चन्द्र भम्म मात्रानुसार खाकर पश्चात १ कर्ष (१। तोला) १ भाग और कान्त लोह भस्म १ भाग लेकर त्रिफला चूर्ण दृधके साथ सेवन कीजिए । और दोनोंको खरल में धोटकर एक जीव कर लीजिए। रात्रिको सोंठ और पीपल ( १॥ माशेकी मात्रानुइसी का नाम " गगनायस रसाया " है। सार ) भक्षण करते रहिए । इस प्रकार १ वर्ष इसे प्रति दिन प्रातःकाल ६ माशकी मात्रा- तक सेवन करनेसे मनुष्य वीर होकर १ ब्रह्म दिन नुसार शीतल जलानुपानसे सेवन करनेसे अठारह ( २००० दिव्य युग ) पर्यन्त जीवित रहता है । प्रकारके प्रमेह, वातकफज रोग, और पित्तन । (१४९८) गाधरचूर्णम् (रमः) अतिसार नष्ट होता है। (बृहद ) ( #. र. । ग्रह.) इसे सदैव सेवन करते रहनेसे मनुष्य तेजस्वी, बिल्वं मोचरसं पाठा धातकी धान्यमेव च । शुर और हस्तीसदृश बलशाली हो जाता है। समगा नागरं मुसतं तथैवातिविषा समम् ।। यदि वह हाथी को रोक ले तो हाथी एक पग भी अहिफेनं लोधकश्च दाडिमं कुटजं तथा । नहीं चल सकता। पारदं गन्धकश्चैव समभागं विचूर्णयेत् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-२-४ रत्ती) तक्रेण खादयेत्पातश्चर्णगङ्गाधरं महत् । । (१४९७) गगनेश्वररमः (र. र. रसा. । उ. २) ज्वरमष्ट विधं हन्यादतीसारं सुदुस्तरम् ।। पारदो गगनं कान्तं तीक्ष्णं च मारित समम् । वेलगिरी, मोचग्स, पाठा ( जलजमनी) भृङ्गधात्रीफलद्रावैश्छायायां भावयेव्यहं ॥ धायके फूल, धनिया, मजीठ, सीउ, मोथा अतीस, सितामध्वाज्यकैस्तुल्यैः सर्व भाण्डे निरोधयेत्। अफीम, लोध, अनारदाना, कुडेकी छाल, पारा और धान्यराशौ स्थितं मासं ततो निष्कत्रयं समम्॥ गन्धक समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। For Private And Personal Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वतीयो भागः रसमकरणम् ] इसे प्रातःकाल तक्रके साथ सेवन करनेसे आठ प्रकारकेवर और कष्टसाध्य अतिसार नष्ट होते हैं । ( प्र. वि. प्रथम पारे गन्धकको अलग घोटकर कजकी बना लीजिए । मात्रा १ से २ माशे तक ।) (१४९९) गङ्गाधररसः (र. का. घे । अति.) शुद्धमृतं शुद्धगन्धमभ्रकं मारितं तथा । कुटजातिविषं लोघं विल्वमज्जा च धातकी ॥ वासरत्रितयं ममहिफेनस्य वल्कलैः । रसो गङ्गाधरो नाम देयं बलद्वयं खलु ॥ गुडतानुपानेन सोऽतिसारं विनाशयेत् । प्रवाहिकाञ्च ग्रहणीं सायम्प्रातश्च दापयेत् ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक अस्म, कुड़ेकी छाल, अतीस, लोध, बेलगिरी और घाय फूल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली कर लीजिए तत्पश्चात् उसमें अन्य औषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर ३ दिन तक पोस्तके डोडेके पानी में घोटकर ( गोलियां बना लीजिए ) इसे २ बल्ल ( ४ रत्ती ) की मात्रानुसार गुडयुक्त तक के साथ प्रातः सायम् सेवन कराने से अतिसार, प्रवाहिका और ग्रहणी रोग नष्ट होता है। (१५००) गङ्गाधरो रसः } ( वृ. नि. र. र. चंर रा. सुं., वै. र.' । अति. मुस्तमोचरसं लोधं कुटजत्वक् तथैव च । बिल्वास्थि धातकीपुष्पमहिफेनं च गन्धकम् ॥ शुद्धं हि पारदं चैव सर्वमेकत्र मर्दयेत् । रसो गङ्गाधरो नाना मासमात्रं प्रयोजयेत् ॥ १- पाठ भिन्न है, प्रयोग समान है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८७ ] । वलमात्रमिदं खादेद्गुडतक्रसमन्वितम् । सर्वातीसारं ग्रहणीं प्रशमं याति वेगतः ।। पथ्ये तक्रोदनं देयं सात्म्यं ज्ञाला भिषग्वरः ॥ मोथा, मोचरस, लोध, कुड़ेकी छाल, बेलगिरी, वायके फूल, अफीम, गन्धक, और शुद्ध पारद समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए: पञ्चात् अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर खरल कर लीजिए । इसे १ वछ २ रत्ती ) की मात्रानुसार गुड़युक्त के साथ ? मास तक सेवन करने से समस्त प्रकार के अतिसार, और ग्रहणी रोग नष्ट हो जाते हैं। इस पर विचारपूर्वक तक्रभातका पथ्य देना चाहिए । ( १५०१) गजकेशरी (बृ. नि. र. । शू. रो. ) शुद्धतं द्विधा गन्धं यामैकं मर्दयेत् दृढम् | द्वयोस्तुल्ये शुद्धताम्रसम्पुटे तन्निरोधयेत् ॥ उर्ध्वधो लवणं दत्वा मृद्भाण्डे धारयेद्भिषक् । ततो गजपुटे पक्त्वा स्वांगशीतं समुद्धरेत् ॥ सम्पुटं चूर्णयेत्सूक्ष्मं पर्णखण्डे द्विगुंजकम् । भक्षयेत्सर्वशूला हिङ्गुगुण्ठीसजीरकम् ॥ वचामरिचचूर्ण कर्षमुष्णजलैः पिवेत् । असाध्यं नाशयेच्छूलं रसोयं गजकेसरी | १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गन्धकको १ पहर तक भली भांति खरल करके इस कजलीको इसके समान वजनी ताम्र सम्पुट में बन्द करके उसे मिट्टी के शरावों में ऊपर नीचे सेंधाaarat चूर्ण रखके बन्द कर दीजिए और कपड़ For Private And Personal Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८८] भारत-भैषज्य--रत्नाकरः। [ गकारादि मिट्टी करके सूखनेके प चात् गजपुट में फूंक दीअिए। | गण्डमालाकण्डनोयं रसो माषत्रयात्मकः । जब स्वांगशीतल हो जाय तो निकालकर ताम्रके। भुक्तो निहन्ति गण्डानि गण्डमालाश्च दारुणाम् ।। मम्पुट (प्यालियों) समेत खग्ल कर लीजिए। । शुद्ध पाग्द १ कर्ष (१। तो०) शुद्ध गन्धक इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार पानमें खाकर आधाकर्ष, तात्रभरम १॥ कर्ष, मण्डूरभम्म ३ कर्ष, ऊपरसे हींग, सोंठ, जीरा, बच और स्याह मिर्चका सोंठ, मिर्च, पीपल २-२ कर्ष, सेंधानमक आधा समभाग मिश्रित १ कर्ष चूर्ण उष्ण जलके साथ । कर्ष, कचनारकी छालका चूर्ण ३ पल (१५ तोले) सेवन करना चाहिए। और शुद्ध गूगल ३ पल लेकर प्रथम पारे और इसके सेवनसे सर्व प्रकारके असाध्य ( कष्ट ! गन्धकको धोटकर कजली बना लीजिए पश्चात् अन्य साध्य ) शूल भी नष्ट हो जाते हैं। औषधे मिलाकर गोयके धीमें भली भांति घोटिए । (१५०२) गजचर्मारि रसः (र.का.धे.। कुष्ट.) इस · गण्डमाला कण्डन' रसको ३ माषेकी शुद्धमूतं समं गन्धं यूपमुस्ताफलत्रयम् । मात्रानुसार सेवन करनेसे गण्डमालाकी गांठ नष्ट गुडूची चूर्णयेत्तुल्यां चूर्णस्य द्विगुणं गुडम् ।। द्विगुञ्जाश्च वटी खादेन्मासैकं गजचर्मनुत् ।। . ( अनुपान-कचनारकी छालका काथ।) __ शुद्ध पारा, और गन्धक समान भाग लेकर (१५०४) गदमदनदहनो रसः कजली बना लीजिए तत्पश्चात् उसमें सोंठ, मिर्च, (वृ. नि. र. । शूल.) पीपल, मोथा, हरी, बहेडा, आमला, और गिलोयका नागं वङ्ग सुतानं दरदमन समभाग मिश्रित चूर्ण इस कन्जलीके बराबर और शिला तुत्थताम्राभ्रगन्धम् । भस्म स्वात्स्वर्णतुल्यं रसकइस चूर्णसे द्विगुण गुड़ मिलाकर २-२ रत्तीकी मपि रविक्षारघृष्टं सुगोप्यम् ॥ गोलियां बना लीजिए। कृत्वा तत्काथ यन्त्रे लवणइन्हें एक भास पर्यंत सेवन करनेसे गजचर्म विरिचिते भावयेदाकाद्भिरोग नष्ट होता है। सानिर्गुण्डिकाद्भिः सुरस(१५०३) गण्डमालाकण्डनरसः मगधया सेवनीयः क्रमेण ॥ ( वृ.नि.र.र.चं.;यो.र.।गण्ड.;.यो.त.।न.१०९ ) । पार्धे शूलाग्निमान्य त्वरुचि . . कर्षमतं शुद्धभस्म गन्धकं त्वर्धमुत्तमम् ।। समुदिते औषधं सन्निपाते । हृद्रोगे गुल्ममेहे कफपसाधकर्ष ताम्रभस्म मृतं किट्टत्रिकर्षकम् ।। वनजये सर्वरोगे ज्वरेपि ।। व्योष षट्कर्षतुलितमक्षार्ध सैन्धवं स्मृतम् । देया भक्त्या रसेन्द्र त्रिभुवनकाश्चनारत्वचश्चूर्ण पलत्रयमितं क्षिपेत् ॥ रचितो भोगिलोकप्रसिद्धो । पलत्रयं गुग्गुलोश्च शुद्धस्थ समुपाहरेत् । नागानां बल्लभोऽयं गदमदएतयुक्त्या तु संमेल्य सुरभिसर्पिषा दृढम् ॥ दहनो रक्तपित्तमहन्ता ॥ For Private And Personal Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [८९] सीसाभस्म, बंग ( रांग ) भस्म, ताम्र भस्म, इस · गदमुरारि रस , से यथेच्छ विरेचन शुद्धहिंगुल, शुद्ध मनसिल, शुद्ध नीलाथोथा, ताम्र | हो कर सन्निपात और अन्य समस्त रोग नष्ट भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण भस्म और होते हैं। खपरिया भस्म समान भाग लेकर आकके दूध (से, वि.-प्रातःकाल १ रत्तीसे २ रत्ती घोटकर एक गोला बना लीजिए और फिर उसे तक शीतल जलके साथ खाएं और बारबार शीतल ऊपर नीचे सेंधानमक रखकर दो शरावोंमें बन्द जल पीते रहें । जब दस्त बन्द करना चाहे तो करके गजपुट में फेंक दीजिए । तत्पश्चात् निकाल- मिश्रीका शर्बत पीलें । कर अद्रक बासा और संभालके रसमें एक एक (पथ्य-घृतयुक्त भात । ) दिन घोट लीजिए। (१५०६) गदमुरारिरसः (सें.सा.सं.। वर.) ___इसे तुलसीके रस और पीपलके चूर्णके साथ रसवलिशिललोहताम्राणि तुल्यासेवन करनेसे पसलीका शूल, अग्निमांद्य, अरुचि, न्यथ सदरदनागं भागमेतत् प्रदिष्टम् । सन्निपात, हृद्रोग, गुल्म, प्रमेह, कफवातविकार, भवति गदमुरारिश्चास्य गुञ्जाद्वयं वै ज्वर और रक्तपित्त रोग नष्ट होता है । क्षपयति दिवसेन प्रौढमामज्वराख्यम् ।। (१५०५) गदमुरारिरसः शुद्ध पारा, गन्धक, हरताल, लोह भस्म, ताम्र (इच्छाभेदी) (र. सा. सं. । ज्वर.) भस्म, शुद्ध हिंगुल. ( शंगरफ) और नाग (सीसा) रसबलिगगनार्क शुद्धतालं विषश्च ।। भस्म, समान भाग लेकर ( अद्रकके रसमें ) त्रिफलात्रिकटुकमेतत्टङ्कणं भृङ्गमेभिः॥ | घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। सममिह जयपालोद्भूतचूर्ण विमर्थ । यह " गदमुरारि" रस प्रबल आमज्वरको द्विनिशमनिशमेतद्धृङ्गराजोत्थवारा ॥ | भी एक ही दिनमें नष्ट कर देता है । भवति गदमुरारिः स्वेच्छया भेदकोयम् । हरति सकल रोगान् सन्निपातानशेषान् ॥ (१५०७) गदमुरारिरसः (र.रा. सु.।उ.ख.व.) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, | हिङ्गलञ्च विषं व्योषं टङ्गणं नागरा भया । शुद्ध हरताल, शुद्ध मीठा तेलिया, त्रिफला ( हर्र, ‘जयपालसमायुक्तं सयो ज्वरविनाशनम् ॥ बहेडा, आमला ) त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) शुद्ध शंगरफ, शुद्ध मीठा तेलिया, त्रिकुटा सुहागेकी खील और दालचीनी १-१ भाग तथा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), सुहागेकी खील, सोंठका शुद्ध जमालगोटेका चूर्ण इन सब ओषधियोंके बरा- चूर्ण, हर्रका चूर्ण और शुद्ध जमालगोटा समान बर लेकर प्रथम पारे गन्धकको घोटकर कजली भाग लेकर ( पानीसे पीसकर २-२ रत्तीकी बना लीजिए और फिर अन्य ओषधियोंका चूर्ण गोलियां बना लीजिए ।) मिलाकर दो दिन तक निरन्तर भांगरेके रसमें घोटिये। इससे वर शीघ्र नष्ट हो जाता है । भा० १२ For Private And Personal Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि ....ANIRONMAnArunnind (से. वि. प्रातःकाल. १ गोली शीतल | | ततस्तु रक्तिकामस्थ जीरकस्य च माषकम् । जलसे खाएं ।) | मापैकं लवणस्यापि पणे कृत्वा प्रदापयेत् ।। (१५०८) गदमुरारिः रसः | ज्वरे त्रिदोषजे घोरे जलमुष्णं पिबेदनु । (वृ. नि. र., र. का. धे. । ज्व. चि., छी शर्करया दद्यात् सामे दद्यात्तथा गुडम् ।। र. चि. म. । स्त. ११) क्षये च छागदुग्धं स्यादनुपानं प्रयोजितम्। रसवलिफणिलोहव्योमताम्राणि तुल्यान्य- रक्तातिसारे कुटजमूलबल्कल रसम् ॥ थरसदलेभागो वत्सनार्गः प्रदिष्टः । रक्तक्षये तथा दद्यादुदुम्बरभवं रसम् । भवति गदमुरारिश्चास्य मुञ्जावारा"- - सर्वव्याधिहरश्चायं गन्धकः कजलीकृतः ॥ क्षपयति दिवसेन प्रौढमामज्वराख्यम् ॥ आयुर्वृद्धिकरश्चायं मृतं चापि प्रबोधयेत् ॥ __ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, नाग ( सीसा ) कटेली, संभालू और नाटे करञ्जका स्वरस भस्म, लोह भस्म, अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म | बराबर बराबर लेकर एक मिट्टीके ठीकरेमें भरकर १-१ भाग तथा मीठा तेलिया ( शुद्र ) आधा धीमी अग्नि पर चढ़ा दीजिए. और साथही उसमें भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना शुद्ध गन्धकका चूर्ण भी मिला दीजिए । जब लीजिए तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण | गन्धक पिधल जाय तो उसमें उसके (गन्धकके ) मिलाकर भली भांति घोट लीजिए। बराबर पारा डालकर अच्छी तरह मिला दीजिए इसे अद्रकके रसके साथ १ रत्तीकी मात्रा- | और फिर नीचे उतारकर खरलमें डालकर इतना नुसार देनेसे प्रबल आमञ्वर एकही दिनमें नष्ट घोटिये कि वह घुटते घुटते कजलके समान हो हो जाता है ।। जाय । इसीका नाम गन्धककजली है। (१५०९) गन्धककजलीविधिः ___एक रत्ती यह कजली १ माषा जीरके चूर्ण (र. चं.; र. सा. सं.; भै. र. । वर.) और १ माषा सेंधानमकमें मिलाकर नागरबेलके कण्टकारिः सिन्धुवारस्तथा नाटकरञ्जकम् ।। पानके साथ उष्ण जलानुपानसे सेवन करनेसे धोर अमीषां रसमादाय कृत्वा खर्परखण्ड के ॥ ... | सन्निपातञ्वर नष्ट होता है । पक्षिप्य गन्धकं तत्र ज्वालां मृद्वग्निना ददेत् । इसे छर्दि ( वमन ) में शर्करा ( खांड ) के गन्धके स्नेहतापन्ने पारदं तत्सम क्षिपेत् ॥ साथ, आममें गुड़के साथ, क्षयमें बकरीके दूधके मिश्रीकृत्य ततो द्वाभ्यां द्रवं तमवतारयेत् । । साथ, अतिसारमें कुड़ेकी छालके काथके साथ और आमदयेत् तथा तं तु यथास्थाकञ्जलप्रभम् ॥ रक्तक्षयमें गूलरके रसके साथ सेवन करना चाहिए । १ व्योषेति रसकामधेनौ । २ वलि र. का. धे.। ३ नागएतत्प्रदिष्टमिति रसचिन्तामणो कामधेनौ च । ४ गुजार्द्धवा रेति रसचिन्तमणौ । For Private And Personal Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ९१ - - VvvvvvvranArrayanrhwarninvanvivinAnnonvN यह — गन्धककजली ' सर्वव्याधिनाशक और तीव्र हो जाती है तथा रोगरहित दीर्घायु प्राप्त आयुवर्द्धक है। होती है। (१५१०) गन्धककल्पः (१) पथ्य-दूधभात । वं. से. । रसा.; आ. प्र. । अ. २) (१५१२) गन्धककल्पः (३) (आ.प्र. । अ.२) चूर्णीकृत्य पलानि पञ्च शुद्धो गन्धो निष्कमात्रसदुग्ध: नितरां गन्धाश्मनो यत्नत सेव्यो मासं शौर्यवीर्यप्रवृद्धेः। स्तच्चूर्ण त्रिगुणो च मार्कव षण्मासात्स्यात्सर्वरोगप्रणाशो रसे छायाविशुष्कीकृतम् । दिव्या दृष्टिर्दीर्घमायुः सुरूपम् ॥ पथ्याचूर्णमथो तथा मधु ४ माशेकी मात्रानुसार शुद्ध गन्धकको दूधके घृतं प्रत्येकमेकं पलम् साथ १ मास पर्यन्त सेवन करनेसे शौर्य, वीर्यकी वृद्धो यौवनमेति पास वृद्धि होती है, तथा छ मास पर्यन्त सेवन करनेसे युगलं खादेनरः प्रत्यहम् ॥ समस्त रोग नष्ट होकर दिव्यदृष्टि, दीर्घायु और ५ पल शुद्ध गन्धक चूर्णमें १५ पल भांगरे- सुरूपकी प्राप्ति होती है। का रस मिलाकर छायामें सुखा लीजिए । तत्पश्चात् । (१५१३) गन्धककल्पः (४) (आ. प्र.। अ. २) इसमें १-१ पल हर्रका चूर्ण और घृत तथा शहद गन्धकस्य पलं चैकं रसस्यार्धपलं तथा । मिला दीजिए। कुमारीरससंघृष्टं दिनैकं गोलकी कृतम् । इसमें से प्रतिदिन यथोचित मात्रानुसार प्रातः __ अन्धमूषाधृतं ध्मातं लेहयेन्मधुसर्पिषा सायं सेवन करनेसे वृद्ध मनुष्यभी युवावस्थाको प्राप्त मासमात्रप्रयोगेण जरादारिद्रयनाशनम् ।। हो जाता है। शुद्ध गन्धक १ पल और शुद्ध पारा आधा मात्रा-१ माशा । अनुपान दृध । पल लेकर घोटकर कजली बना लीजिए तत्पश्चात (१५११) गन्धककल्पः (२) (आ. प्र. । अ. २) उसे १ दिन पर्यन्त धी कुमारके रसमें घोटकर इत्थं विशुद्धं त्रिफलाज्यभृङ्ग गोला बनाकर सूख जाने पर अन्धभूषामें बन्द करके मध्वन्वितः शाणमितो हि लीढः । पुट लगा दीजिए; और स्वांग शीतल होने पर गृध्राक्षितुल्यं कुरुतेऽसियुग्मं निकालकर सेवन कीजिए। करोति रोगोज्झितदीर्घमायुः ।। इसे १ मास पर्यन्त सेवन करनेसे जरा __ (अत्र पथ्यं तु दुग्धोदनम् ) । ( वाक्य ) नष्ट हो जाती है। शुद्ध गन्धक, त्रिफलाचूर्ण, घृत, भांगरा और । (१५१४) गन्धकंकल्पः (५) (आ. प्र. । अ. २) शहद बराबर बराबर मिलाकर प्रतिदिन ४ माशेकी द्विनिष्कपमितो गन्धः पीतस्तैलेन शोधितः । मात्रानुसार सेवन करनेसे दृष्टि गृध्रदृष्टिके समान पश्चान्मरिचतैलाभ्यामपामार्गजलेन च ॥ For Private And Personal Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २ ] पेषयित्वा बलिः सर्वदेहे लिप्तः प्रयत्नतः । घर्मे तिष्ठेत्ततो रोगी मध्याह्ने तक्रभक्तकम् ॥ भुञ्जीत रात्रौ सेवेत बहिं प्रातः समुत्थितः । महिषीच्छगणैर्देहं संलिप्य स्नानमाचरेत् ॥ शीतोदकेन पामादिखर्जूकुष्ठं प्रशाम्यति ॥ २ निष्क ( ८ माशे) गन्धकको तेल के साथ प्रातःकाल पिलाकर समस्त देहपर गन्धक और मरिचके चूर्णको चिरचिटेके काथमें घोटकर और तैल में मिलाकर मालिशकरके रोगीको धूप में बिठला दीजिए और मध्याह्न में दूधभात खिलाइये | तत्पश्चात् रात्रिको अग्नि तपाकर प्रातःकाल समस्त शरीरपर भैंसके गोबरकी मालिश कराके शीतल जलसे स्नान कराइये । - भैषज्य - भारत इस प्रयोगसे पामा और खुजली तथा कुष्ठ रोग नष्ट होता है । (१५१५) गन्धकगन्धनाशनप्रकारः ( आ. प्र. । अ. ६ ) विचूर्ण्य गन्धकं क्षीरे घनीभावावधिं पचेत् । ततः सूर्यावर्त्तरसं पुनर्दत्वा पचेच्छनैः ॥ पश्चाच्च पातयेत् प्राज्ञो जले त्रैफलसम्भवे । जहाति गन्धको गन्धं निजं नास्तीह संशयः ॥ गन्धकके चूर्णको ( ८ गुने ) दूधमें इतना पकाएं कि वह गाढ़ा हो जाय, फिर उसमें सूर्यावर्त ( हुलहुल ) का रस डालकर धीरेधीर पकाएं और गाढ़ा होनेपर त्रिफला काथमें डालदें । इस क्रियासे गन्धककी गन्ध नष्ट हो जाती है । (१५१६)गन्धकगन्धहरणम् (रसें.चि.मं. अ. ५) देवदाम्लपर्णी वा नागरं वाथ दाडिमम् । मातुलुङ्ग यथालाभं द्रवमेकस्य वा हरेत् ॥ - रत्नाकरः । [ गकारादि गन्धकस्य तु पादांश टङ्कणद्रवसंयुतम् । अनयोर्गन्धकं भाव्यं त्रिभिर्वारं ततः पुनः ॥ धत्तरतुलसीकृष्णालशुनं देवदालिका । शिग्रुमूलं काकमाची कर्पूरं शङ्खिनीद्वयम् ॥ कृष्णा गुरुश्च कस्तूरी बन्ध्याकर्कोटकी समम् । मातुलुङ्गरसैः पिष्ट्वा क्षिपेदेरण्डतैलके ॥ अनेन लोहपात्रस्थं भावयेत् पूर्वगन्धकम् । त्रिवारं क्षौद्रतुल्यस्तु जायते गन्धवर्जितः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४ भाग गन्धक और १ भाग सुहागेको एकत्र करके देवदाली ( बिण्डाल डोढा ), अम्लपर्णी, नारंगी, अनार और बिजौरे नीबूमेंसे किसी एकके रसकी ३ भावनाएं दीजिए तत्पश्चात् समान भाग धतूरा (पञ्चाङ्ग) तुलसी, पीपल, ल्हसन, देवदाली, सहज की जड़, मकोय कपूर, दोनों प्रकारकी शङ्खा होली, काला अगर, कस्तूरी और बांझ ककोड़ेको बिजोरे नीबूके रसमें घोटकर अरण्डीके तेल में मिलाकर इससे उपरोक्त गन्धकको लोहेके पात्र में तिन भावना दीजिए । इस क्रियासे गन्धक गन्ध रहित हो जाता है । (१५१७) गन्धकगुणाः ( भा. प्र. । ख. १ ) पित्तलः कटुकपाके कण्डूवीसर्पजन्तुजित् ॥ गन्धकः कटुतिक्तो वीर्योष्णस्तुवरः सरः । हन्ति कुष्ठक्षयप्लीहकफवातान् रसायनम् ॥ गन्धक कटु, तिक्त, कषाय, उष्ण, सर, पित्तबर्द्धक, पाकमें कटु, और खुजली, विसर्प, कृमि कुष्ट, क्षय, लीह (तिल्ली ) और कफवात नाशक तथा रसायन है । ( १५१८) गन्धकग्रासविधिः (र.चि.मं. (स्तव. १) सामुद्रकं द्विखण्डं स्वात्तिलखण्डस्य मध्यगम् । कुर्यात्कुण्डलिकां प्राज्ञो मृन्मयां तां द्रढायसीम् ॥ For Private And Personal Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः । [ ९३ ] तस्यां च गन्धकं दध्यात्स्थाने स्थाने च चूर्णितम् । (१५१९) गन्धकजारणम् (यो. र . ) तदधः पारदं दध्याद् द्वितीयं खण्डमूर्ध्वगम् ॥ कुर्याच्च घण्टिकायुक्तं द्वयमेकत्र योजयेत् । चुल्लिकायां तदा दध्यात्स रसं तं समुन्नतम् ॥ संहतं मुद्रितं गाढं कचलिप्तं महोत्तमम् । मृतकुण्डे निक्षिपेन्नीरं तन्मध्ये च शरावकम् । मृत्कुण्डे च पिधानाभं मध्ये मेखलया युतं ॥ क्षिप्त्वा च मेखलामध्ये संशुद्धं रसमुत्तमम् । रसस्योपरि गन्धस्य रजो दद्यात्समांशकम् ।। तस्योपरि शरावञ्च भस्ममुद्रां प्रदापयेत् । तस्योपरि पुढं दद्याच्चतुभिंगोमयोपलैः ॥ एवं पुनः पुर्नर्गन्धं षड्गुणं जीयते बुधैः । गन्धे जीर्णे भवेत्तस्तीक्ष्णात्रिः सर्वकर्मसु ॥ सहं बलिं दत्वा पश्चाच्चाति सुभक्तितः ।। गुरुपूजादिकं कुर्यात्तथा च रसपूजनम् । अधोवह्निर्विधातव्यो मध्ये चोर्ध्वे समुद्गतः ॥ गन्धको जायेते शुद्धो यावच्छक्यस्तु सत्वरम् । रसस्तं ग्रसते गन्धं शीघ्रमेव न सशयः ॥ अनेन विधिना स्रुतो गन्धक ग्रसते नवम् ॥ मिट्टी के कुण्डे में पानी भरकर उसमें ढक्कन की भांति एक ऐसा शव रख दीजिए कि जिसमें मेखला (कगूरा - चारों ओर उभरा हुवा कनारा) हो । पानी इस शरावके किनारों के बराबर होना चाहिए और सावधानी रखनी चाहिए कि उसके अन्दर पानी न गिरने पावे | अब उस शराव में शुद्ध पारद रखकर उसके ऊपर समान भाग गन्धक चूर्ण रखकर एक दूसरे शरावेसे ढककर सन्धिको उपलोंकी राखसे बन्द कर दीजिए । और फिर उसके ऊपर ४ अरने उपले (कण्डे) रखकर उनमें अग्नि लगा दीजिए । स्वांग शीतल होनेपर पुनः पारदके समान गन्धक डालकर इसी प्रकार पुट लगाइये । इस प्रकार षड्गुण गन्धक जारण करनेसे पारद तीक्ष्णाग्नि हो जाता है अर्थात् फिर वह स्वर्णादि धातुओं को भली भांति ग्रहण (अपने में लय) कर सकता है । वि. सू. - ऊपरवाला शराव नोचेके शरावकी मेखलापर जम जाना चाहिए कि जिससे उक्त मेखलाके भीतर हवा जानेको स्थान न रह जाय । (१५२०) गन्धकजारणम् (यो. र.) तप्तखल्वेर संक्षिप्त्वा अधश्चुल्लचास्तुषाग्निभिः । स्तोकं स्तोकं क्षिपेगन्धमेवं वै षड्गुणं चरेत् ॥ सेंधे नमक के दो टुकड़ों को खोखरा करके दो कोसी बना लीजिए और उनको तिलकी पिठ्ठी के बीच में रखकर उसके ऊपर मिट्टीका लेप कर दीजिए । तत्पश्चात् उनमें से एक कटोरी में नीचे ऊपर शुद्ध गन्धकका चूर्ण बिछाकर बीचमें पारा रख दीजिए । और फिर दूसरी कटोरी उसके ऊपर उल्टी रखकर दोनोंके मुख मिलाकर कपर मिट्टी करके भली भांति बन्द कर दीजिए और उसके ऊपर काचका पोत चढ़ा कर अनि सहन शील बना लीजिए । | अब बलि देकर और गुरु, तथा पारद पूजन करके इस सम्पुटको अग्निपर चढ़ा दीजिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि कपरमिट्टी आदि करते समय या अग्निपर चढ़ाते समय सम्पुट उल्टा न हो जाय। इस क्रिया पारदमें शीघ्रातिशीघ्र गन्धक जारण हो जाता है और पारदमें पुनः नवीन गन्धकभक्षणकी शक्ति आ जाती है। 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ ९४ ] चूल्हे में तुषाग्नि (धानइत्यादिकी भूसीकी आग ) जलाकर उसपर खरल रखकर उसमें पारा डाल दीजिए, जब खरल गर्म हो जाय तो उसमें थोड़ा थोड़ा गन्धकका चूर्ण डालकर घोटिए यहां तक कि पारदसे छः गुना, गन्धक जल जाय । (१५११) गंन्धकतैलपातनम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि इस तेलकी ३ बूंद पानके ऊपर डालकर उस पर २ रत्ती शुद्ध पारद डालकर उंगलीसे मर्दन करके खा लीजिए, और पश्चात् गोदुग्ध पीजिए । इस प्रयोगसे कामशक्तिकी वृद्धि; क्षय, पाण्डु, दुष्टग्रहणी, शूल, कास, श्वास, और आमाजीर्णका नाश होता है तथा शरीर हल्का हो जाता है । गन्धकके गुणों का वर्णन करने में शङ्करके अतिरिक्त अन्य कोई समर्थ नहीं हो सकता । (१५२२) गन्धकदोषाः ( भा. प्र. । खं. १ ) अशुद्ध गन्धकः कुर्यात्कुष्ठं पित्तरुजां भ्रमम् । हन्ति वीर्यबलं रूपं तस्माच्छुद्धः प्रयुज्यते ॥ (र. प्र. सु. । अ. ६,; आ. प्र. । अ. २) कलांशव्योषसंयुक्तं शुद्धगन्धकचूर्णकम् । वस्त्रे वितस्तिमात्रे तु गन्धचूर्ण सतैलकम् ॥ विलिप्य वेष्टयित्वा च वर्त्ति सूत्रेण वेष्टयेत् । धृत्वा संदशतो वर्त्तिमध्यं प्रज्वालयेच्च ताम् || वितः पतते गन्धो विन्दुशः काचभाजने । द्रुतं प्रक्षिपेत्पत्रे नागवल्ल्या स्त्रिविन्दुकाम् ॥ रसं वल्लमितं तत्र दत्त्वाऽङ्गुल्या विमर्दयेत् । तत्सर्वं भक्षयेत्पश्चाद्वोदुग्धं चानु संपिबेत् ॥ कामस्य दीप्तिं कुरुते क्षयपाण्डुविनाशनम् । ग्रहणीं नाशयेदृष्टां शूलार्तिश्वासकासकम् ।। आमाजी प्रशमेलघुत्वं च प्रजायते । गन्धकस्य गुणान्वक्तुं शक्तः कः शम्भुना विना ॥ शुद्ध गन्धकके चूर्णमें १६ वां भाग त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) का चूर्ण मिलाकर तैलमें घोटकर एक बालिश्त चौड़े कपड़े पर उसका लेप करके बत्ती बना लीजिए और फिर उसके ऊपर कचे सूतका डोरा लपेट दीजिए। अब इस बत्तीको चिमटे से पकड़ कर जलाइये और उल्टी लटकाए रहिए । इस प्रकार जलानेसे उससे जो तैल टपके उसे कांच के बरतन में इकट्ठा कर ५ तो शुद्ध गन्धकके चूर्ण और १ | तला राइको पीसकर एक अच्छे सफेद कपड़े में लपेटकर बत्ती बना लीजिए और इसे घी में भिगोकर चिमटेसे पकड़कर जलाइये और उल्टी लटकाए रहिए; इससे जो वृत मिश्रित द्रुत ( पतला ) गन्धक निकले उसमें १। तोला त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) का चूर्ण मिला लीजिए । | लीजिए । उचित प्रतीत होता है । यतः अशुद्ध गन्धक कुष्ट, पित्तरोग और भ्रम उत्पन्न करता तथा वीर्य, बल और रूपका नाश करता है अतएव शुद्ध गन्धकही प्रयुक्त किया जाता है । * शुद्ध पारदके स्थान में २ रत्ती रस सिन्दूर डालना (१५२३) गन्धकद्भुति: ( बं. से. । रसा. ) पलमिह गन्धकचूर्ण राजिकातःकर्षक लितमादाय सततरवसननिरुद्धं हविषा प्लुतशोषितं वह्नौ ।। तद्रवमाज्ये मग्नं त्रिकटुकचूर्णे ककर्षसंयुक्तम् । मिलितैकशाणमात्रं प्रातः खाद्यं नियतपर्णम् ॥ वर्णबलयुक्तमेतज्जनयति कुरुते देहसुखम् | सतताभ्यासवशादतिजनयति सुधाधाम लावण्यम् For Private And Personal Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - - vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvAnuruvvvvvvvx रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। - [९५ ] इसमेसे प्रतिदिन ४. माशेकी मात्रानुसार ____ आधा पल (२॥ तोले ) शुद्ध गन्धकको पानमें डालकर निरन्तर सेवन करनेसे बल, वर्ण दूधके साथ सेवन करने और दूधभातका आहार और सौन्दर्यको वृद्धि होती है। करनेसे सात दिनमें खुजली, खाज, और विचर्चिका ( व्यवहारिक मात्रा-५-६ बूंद। नष्ट हो जाती है। (१५२४) गन्धकपिष्टिरसः (रसें. मं. । अ.३) (१५२८) गन्धकभेदाः ( यो. र. ) गन्धकेन समायुक्तां कृत्वा नूतस्प पिष्टिकाम। चतुर्धा गन्धकः प्रोक्तो रक्तः पीतः सितोऽसित । यकत्या नागरिक रक्तो हेमक्रियामूक्तः पीतश्चैव रसायने । ___ ताम्र पात्रमें समान भाग शुद्ध पारद और वणादि लेपने श्वेतः श्रेष्ठः कृष्णसुदुर्लभः ।। गन्धकको धोटकर कजली के समान बना लीजिए। गन्धक ४ प्रकारका होता है-(१) लाल (२) इसके सेवनसे पांचों प्रकारकी हिक्का ( हिचको) पीला (३) सफेद और (४) काला । नष्ट होती है। लाल गन्धक हेम क्रियामें, पीला, रसायनमें, (मात्रा १-२ रत्ती । शहद में मिलाकर चटाएं।) और सफेद व्रणादि पर लेप करनेके लिए प्रयुक्त (१३२५) गन्धकप्रयोगः (र.का.धे.।अमे.२९) | होता है, और काला गन्धक प्राप्त होना ही दुर्लभ है। गन्धकं गुडसंयुक्तं कर्षे भुक्त्वा प्रमेहजित । (१५२९) गन्धकयोगः जयन्त्या वा जयायुक्तं हन्ति मेहं महाद्भतम् ॥ गन्धकं गुडसंयुक्तं कर्ष भुक्त्वा पयः पिबेत् । शुद्ध गन्धक चूर्णको ( चार गुने ) गुडमें । विंशतिस्तेन नश्यन्ति प्रमेहाः पिटिका अपि । मिलाकर जया या जयन्तीके रसके साथ सेवन । समान भाग शुद्ध गन्धक और गुड़ मिलाकर करनेसे प्रमेह रोग नष्ट होता है। | नित्य प्रति दूधके साथ सेवन करनेसे २० प्रकारके नोट-१। तोलेकी ४ मात्रा बनानी चाहिये। प्रमेह और प्रमेह पिडिका नष्ट होती हैं । (१५२६) गन्धकप्रयोगः (र.का.धे.कु.४०) (१५३०) गन्धकयोगः (र. प्र. सु. । अ, ६) गन्धकं तिलतैलेन निष्कमात्रं सदा पिबेत् । संशुद्धगन्धकं चैव तैलेन सह पेषयेत् । क्षीरशाल्यनभोजी स्थात्पामा हन्ति महाद्रुतम् । अपामार्गक्षार तोयैस्तैलेन मरिचेन च ॥ दूधभातका आहार करते हुवे नित्य प्रति शुद्ध विलिप्य सकलं देहं तिष्ठेत्सूर्यातपेषु च । गन्धकके चूर्णको तिलके तैटमें मिलाकर पीनेसे | भोजयेत्तक्रभक्तश्च तृतीये प्रहरे खलु ।। पामा ( खुजली ) अत्यन्त शीघ्र नष्ट होती है। वह्निना स्वेदयेद्रात्रौ प्रातरुत्थाय मर्दयेत् । ( मात्रा ---- गन्धक २-४ रत्ती, तैल ६ माशे। महिषस्य पुरीषेण स्नायाच्छीतेन वारिणा॥ प्रातःसायं सेवन करें ।) गन्धतैलं ततोऽभ्यज्य पश्चात्कोष्णेन वारिणा। (१५२७) गन्धकप्रयोगः (र.का.धे.।कु.४०) स्नानं कुर्यादुषस्येवं कण्डूः पामा च नश्यति ॥ गन्धकाध पलं शुद्धं पीतं दुग्धेन सप्तशः । दृष्टप्रत्यय योगोऽयं कथितोऽत्र मया खलु । दुग्धानभोजिनो हन्ति कण्डूपामाविचर्चिकाः। नाशयेचिरकालोत्थाः कुष्ठपामाविचर्चिकाः॥ For Private And Personal Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि - - - अपामार्गक्षार (चिरचिटेके खार) के पानीमें । (१५३२) गन्धकरसायनम् (१) तैलमें पिसा हुवा शुद्ध गन्धक, तेल और स्याह (बृ. नि. र., वै. र. । .शू. रो.) मिर्चका चूर्ण मिलाकर उसे रोगीके समस्त शरीरमें पलैक त्रिफलाचूर्ण पला गन्धकस्य तु । मलकर धूपम बिठला दीजिए। तीसरे पहर तक | लोहभस्म तु ककं सर्व संचूर्ण्य मिश्रयेत् ॥ भात खिलाइये और रात्रिको अग्नि तापनेके लिए कां मधुसर्पिभ्यां लेहयेत्सर्वशूलनुत् । आज्ञा दीजिए । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल शरीर वातविस्फोटकान्हन्ति सेवनात्तु त्रिमासतः ॥ को भैंसके गोबरसे रगड़कर शीतल जलसे स्नान | गताः केशाः पुनर्यान्ति गन्धकस्य रसायनात् ।। कराइये । तत्पश्चात् शरीरपर गन्धतैल ( अथवा १ पल (५ तोले ) त्रिफलाचूर्ण, आधापल गन्धकके तैल ) की मालिश कराके किञ्चिदुःण शुद्र गन्धक 'चूर्ण, औ १ कर्ष (१। तोला ) लोह जलसे स्नान करा दीजिए। भस्म को एकत्र मिलाकर खरल कर लीजिए। इस प्रयोगसे पुरानी खुजली. पामा, कुष्ट ___ इसे आधे कर्षकी मात्रानुसार शहद ओर और विचर्चिका नष्ट होती है। धीमें मिलाकर सेवन करनेसे सर्व प्रकारके शूल और वातज विस्फोटक नष्ट हो जाते हैं। तीन यह प्रयोग मेरा अपना (प्रयोग लेखकका) मास पर्यन्त निरन्तर सेवन करनेसे नष्ट केश पुनः अनुभूत है। उत्पन्न हो जाते हैं। (१५३१) गन्धकयोगः (व, मा. ग. नि.।कुष्टा.) (नोट-धी और शहद बराबर न होने पिबति सकटुतैलं गन्धपाषाणचूर्ण चाहिएं। आधाकर्ष मात्रा दिन भरमें ३ बार करके रविकिरणसुतप्त पामनो यः पलार्धम् ।। | खानी चाहिए, एकबारमें नहीं) त्रिदिनतदनुषिक्तः क्षीरभोजी च शीघ्र | (१५३३) गन्धकरसायनम् (२) भवति कनकदीप्त्या कामयुक्तो मनुष्यः । ( आ. प्र.। अ. २; वृ. नि. र. । वा. व्या.; वै. प्रतिदिन २॥ तोले शुद्ध गन्धक चूर्णको कटु र.। वाजी., वृ. यो. त. । त. ११२, यो. र. रसा.) तैलमें मिलाकर सूर्य किरणोंसे भली भांति तप्त करके शुद्धो बलिर्गोपयसा त्रिवार पीने और दुग्धाहार करनेसे ३ दिनमें पामा नष्ट ततश्चतुर्जातकगुडूचिकाद्भिः। होकर शरीर स्वर्णसदृश कान्तिवान हो जाता है पथ्याक्षधान्यौषधभृङ्गनीरै तथा काम वृद्धि होती है। (व्यवहारिक मात्रा-१ ___ भर्भाव्योऽष्टवारं पृथगाकेण ॥ माशेसे ३ माशे तक) सिद्धे सितां योजय तुल्यभागां रसायनं गन्धकसंज्ञितं स्यात् । गन्धकरसपर्पटी (बं. से. । रसा.) धातुक्षयं मेहगणानिमांयं .. रसपर्पटी देखिये। शूलं तथा कोष्ठगतांश्च रोगान ॥ For Private And Personal Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [९७] कुष्ठान्यथाष्टादशरोगसंघा बाराही मधुकं कुष्ठं भृङ्गराज हरिपिया । निवारयत्येव च राजयोगम् । एकैकस्वरसेनैव भावयेदशासरम् ॥३२॥ कर्पोन्मिते सेवित एति मयों घर्मयेद्भावयेन्नित्यममृतीकरणं यथा । वीर्यश्च पुष्टिं बलमनिदीप्तिम् ॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं लवङ्गं नागकेशरम् ॥३३ वमनैः रेचनैः पूर्व देहशुद्धिं समाचरेत् । त्रिफलां पद्मकं बीजं समांशश्च विनिक्षिपेत् । लवणाम्लानि शाकानि द्विदलानि तथैव च ॥ शर्करा मधुसंयुक्तं माषमात्रं च सेवयेत् ॥३४ स्त्रियश्चारोहणं यानं सदा चैतानि वर्जयेत् ॥ शाल्यनं च सगोधूमं घृतं क्षीरं सशर्करम् । __ शुद्ध गन्धकको गोदुग्धकी ३ भावना तथा सेवयेन्नित्यं कृष्णां च बलीपलितनाशनम् ॥३५ दालचीनी, तेजपात नागकेसर, इलायची, गिलोय, जरां तु नाशयेत्पुंसां षण्ढत्वं वहिमान्यताम् । हैड, बहेड़ा, आमला, सोंठ, भांगरा और अद्रकमेंसे कुष्ठानाञ्च दशाष्टानां वाताशीति निवारणम्।।३६ प्रत्येकके रस या काथको ८-८ भावना देकर विंशतिं च प्रमेहाणाम् मूत्रकृच्छ्राणि षोडश । उसमें समान भाग मिश्री मिला लीजिए। व्रणराज गण्डमालां गुदकीलं भगन्दरम् ॥३७ इस “गन्धक रसायन" को वमन विरेचनद्वारा देह- गुल्मप्लीहविकारघ्नं रजोदोषं हलीमकम् ।। शुद्धि करके प्रतिदिन १। तोलेकी मात्रानुसार स्तम्भनं वृष्यमायुष्यं सर्वामयनिवारणम् ॥३८ सेवन करनेसे धातु क्षय, प्रमेह, अग्निमांद्य, शूल शुक्रमेहादिदोषाणां नाशनं परमं मतम् उदररोग और अठारह प्रकारके कुष्ट नष्ट होते हैं। देहं सुवर्णवर्णाभं दिव्यत्वं च न संशयः॥३९॥ इसके सेवन कालमें लवण, अम्ल, शाक, सर्वभूतहितं गोप्यं गन्धकाख्यं रसायनम् ।। सर्व प्रकारकी दालें, स्त्रीप्रसंग, और सवारीका परि- मिट्टीके बरतनमें दूध भरकर उसके मुखपर त्याग करना चाहिए। एक कपड़ा बांध दीजिए, और उस पर १०० पल (व्यव.मा.-२ माशा, प्रातःसाथ, दृधके साथ।) । (६। सेर ) गन्धकका महीन चूर्ण बिछाकर उसके (१५३४)गन्धकरसायनम् (३) ऊपर दूसरा मृत्तिकापात्र उल्टा ढककर दोनोंकी ___ (वृ. यो. त. । त. ११८) सन्धिको भली भांति बन्द कर दीजिए और एक गन्धं पलशतं ग्राह्यं मूक्ष्मचूर्णश्च कारयेत ॥२८ गढेमें रखकर ऊपरवाली हांडो पर आधा पहरतक भाण्डगर्भ क्षीरपूर्णे तन्मुखे वस्त्रबन्धनम्। आग जलाइये । गढ़ा इतना गहरा होना चाहिए गन्धं तस्योपरि क्षिप्त्वा ततो भाण्डमधोमुखम् ॥ कि जिसमें नीचेकी हांडी कनारों तक आजाय तत्सन्धिबन्धनं कृत्वा तदर्य वह्निदीपनम् । . और उसके चारों ओर स्थान खाली न रहे । यामाधै पुटसंयुक्तं स्वागशीतलमाहरेत् ॥३० हाण्डीके स्वांग शीतल हो जाने पर गन्धक तद् गन्धं चूर्णितं कृत्वा अजाक्षीरेण भावयेत् । को पीस लीजिए और फिर उसे बकरीके दूध, इक्षुदण्डरसश्चैव अमृतामधुगोक्षुरम् ॥३१ ईखके रस, गिलोयके रस, मधु, गोखरु, बाराही भा० १३ For Private And Personal Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि कन्द, मुलैठी, कूठ, भांगरा और तुलसीके स्वरसमें दखा तु विधिना कृत्वा कामचारी भवेत्सदा । पृथक् पृथक् १०-१० दिन तक भावना दीजिए। न चात्र परिहारोऽस्ति विहाराय नृणां सदा।।३८ (प्रतिदिन रस डालकर धूपमें सुखाते रहिए।) वलीपलितनाशाय वर्तेर्बलविवर्धनम् । । तत्पश्चात् उसमें समान भाग, पीपल, पीपलामूल हितमेतत्सदा प्रोक्तं रसायनगुणैषिणाम्॥३९ लौंग, नागकेसर, त्रिफला ( हर्र, बहेड़ा, आमला ) शुद् गन्धक आवा कर्ष (७|| माशे), स्याह और कमलबीज (कमलगट्टे)का चूर्ण मिला लीजिए। मिर्च ४ माशे और शुद्ध कृष्णाभ्रक ८ कर्ष लेकर तीनोंको पत्थर पर पीसकर महीन चूर्ण बनाकर इसमें से प्रतिदिन १ माशेकी मात्रानुसार मिश्री ३ दिन तक तिलके तैलमें घोटिए पश्चात् (कपड़े और शहदमें मिलाकर सेवन करने तथा शालि पर लेप करके या इसमें रुई मिलाकर) ३ बत्तियां चावल, और गेहूं का धृत, दूध, खांड तथा पीपल बना लिजिए और उन्हें धीमें भिगोकर जलाकर युक्त आहार करनेसे बलिपलित, जरा (वृद्धत्व ) चिमटेसे पकड़कर उल्टा लटकाइये, इस प्रकार उनसे नपुंस्कता, अग्निमांद्य, अठारह प्रकारके कुष्ट, अस्सी जो द्रव (तैल) टपके उसे दुग्धपूर्ण पात्रमें संग्रह प्रकारके वातरोग, बीस प्रकारके प्रमेह, सोलह करते रहिए, और अन्तमें दूधके ऊपरसे उतारकर प्रकारके मूत्रकृच्छू, व्रण (धाव), गण्डमाला, गुद शीशीमें भरकर सुरक्षित रखिए । कील, भगन्दर, गुल्म, तिल्ली, रजोदोष, और हली- । १ रत्ती यह तैल और २ रत्ती पानका रस मक रोग नष्ट होते हैं । यह रसायन स्तम्भन, वृष्य, एकत्र करके दोनोंको (उंगलीसे) भलीभांति रगड़कर आयुष्य, और सर्वरोगनाशक है । विशेषतः शुक्र । प्रतिदिन प्रातःकाल क्षेत्रपालके लिए बलि देनेके मेहको नष्ट करनेके लिए अत्युपयोगी है। पश्चात् सेवन कीजिए। इस 'गन्धक रसायन' को सेवन करनेसे देह यह तैल रसायन, बलिपलितनाशक, और स्वर्णके समान दिव्य कान्तिमान हो जाती है। अग्निदीपक है । इसके सेवन कालमें किसी प्रकारके (१५३५) गन्धकरसायनम् (बं. से. । रसा.) से परहेजकी आवश्यक्ता नहीं है यथेच्छ आहार विहार गन्धकस्यार्द्धकर्षन्तु मरिचं शाणमात्रकम् ।। किया जा सकता है। असिताम्बरमष्टांशं शिलायां चूर्णितं शुभम ॥३४ (१५३६) गन्धकरसायनम् (वं. से. । रसा.) एतपूर्णत्रयं तैले तिलजे दिवसत्रयम् । शुद्धगन्धकपलान्यष्टौ मृततीक्ष्णपलद्वयम् । वर्तित्रयं समारभ्य घृते वा स्थापितं तथा ॥३५ मूर्यपाके त्रिसप्ताहं दखा कन्याद्रवं पचेत् ॥११७ तदुव्रत्य क्षीरपात्रे दीप प्रज्वाल्य बुद्धिमान् । । ककं पातयेत्क्षीरं वर्षमेकं निरन्तरम् । पातयेद्वतिसत्वं च तद्भवा रसरक्तिका ॥ ३६ दिव्यदृष्टिर्भवेन्मयो जीवेदाचन्द्रतारकम् ॥११८ पर्णत्रयं समारोप्य तद्द्वाद्गुञ्जकद्वयम् । आठ पल शुद्ध गन्धक और २ पल तीक्ष्ण संमूर्छय भक्षयेत्पातः क्षेत्रपालवलिं ततः ॥३७ लोहको सूर्यपाक विधिसे ३ सप्ताह तक धीकुमार जा सकता है। For Private And Personal Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] (घृतकुमारीर) के रस में पकाइये (धीकुमारके रसमें भिगोकर २१ दिन तक धूप में रखिए, जब रस कम हो जाय तो और डाल दिया कीजिए | ) इसे १ कर्ष (१। तोले) की मात्रानुसार दूधके साथ १ वर्ष तक निरन्तर सेवन करनेसे दिव्यदृष्टि और दीर्घायु प्राप्त होती है । द्वितीयो भागः । ( व्यवहारिक मात्रा - - १॥ माशा ) (१५३७) गन्धकशुद्धिः (यो . चि . । मिश्रा.; यो त । त. १७; वृ. यो त । त. ४३) दु घृते निम्बर से भृङ्गराजर सेथवा । गन्धकं शोधयेत्प्राज्ञो दोलायन्त्रेण वाससा ॥ दुग्धभाण्डेऽपि पटस्थितोयं शुद्धोभवेत्कूर्मपुटेन गन्धम् । सदुग्धभाण्डस्य मुखेषु वस्त्रं बवा क्षिपेद्रन्धकसूक्ष्मखण्डान् ॥ समुद्रयित्वा समिता दिनात्तत् मन्दाशिना यामयुगं पचेच | गन्धकके चूर्णको वस्त्रमें बांधकर दूध, घी, नीमके रस, और भांगरेके रसमेंसे किसी एक द्रवमें दोलायन्त्र विधिसे पकाने से वह शुद्ध हो जाता है । इस प्रकार गन्धक पिघल कर पात्र में चला जायगा, उसे निकालकर लीजिए । एक बरतन में दूध भरकर उसके मुखपर कपड़ा बांधकर उसपर गन्धकका चूर्ण फैला दीजिए और फिर उसके ऊपर एक दूसरा बरतन उल्टा ढककर दोनोंका जोड़ कपड़ मिट्टीसे भलीभांति बन्द करके एक गढ़े में रख दीजिए और ऊपरके बरतन पर अग्नि जलाइये । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ९९ ] (१५३८) गन्धकशोधनम् (रसें. चि. म. अ. ५) गन्धकस्य च पादांशं दत्वा च टंङ्कणं पुनः । मर्दयेन्मातुलुङ्गा रुतैलेन भावयेत् ॥ चूर्ण पाषाणगं कृत्वा शनैर्गन्धं खरातपे ॥ गन्धकके चूर्ण में चौथाई भाग सुहागा मिलाकर बिजौरे नीबू के रस में घोटकर अरण्डके तेलकी एक भावना दीजिए (अरण्डका तेल मिलाकर तेज धूप में रख दीजिए । ) इस प्रकार गन्धक शुद्ध हो जाता है । (१५३९) गन्धकशोधनविधिः ( भा. प्र. । प्र. खं । यो. चि. म. । मिश्र . ) लौहपात्रे विनिक्षिप्य घृतमग्नौ प्रतापयेत् । तप्ते घृते तत्समानं क्षिपेद्गन्धकजं रजः ॥ agi गन्धकं दृष्ट्वा तदनुवस्त्रे विनिक्षिपेत् । यथावस्त्राद्विनिस्रुत्य दुग्धमध्येऽखिलं पतेत् ॥ एवं स गन्धकशुद्धः सर्वकर्मोचितो भवेत् ॥ | लौहपात्र में घृत गर्म करके उसमें समान भाग गन्धकका चूर्ण डाल दीजिए, और जब गन्धक पिघल जाय तो उसे एक कपड़े से दुग्धपूर्ण पात्र में छान लीजिए । और फिर निकालकर गर्म जससे धो डालिए । इस क्रिया गन्धक शुद्ध और समस्त कार्यों के लिए उपयुक्त हो जाता है । | ( १५४०) गन्धकसत्वम् (र. का. घे. । शू. ) गन्धकस्य पलं चूर्ण वृहतीफलजद्रवैः । आकाशवल्लीस्वरसैर्गोमूत्रेण च भावयेत् ॥ नीचे वाले षड्वर्षीयश्यामदासपुत्रमूत्रेण च भावयेत् । धोकर पीस | एकविंशतिवारांश्च प्रत्येकं शोषितं च तत् ॥ काचयां विनिक्षिप्य वह्निर्यामाष्टकं भवेत् । For Private And Personal Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१००] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [गकारादि शीतलं गन्धजं सत्वं गृहणीयादद्भुतं नरः॥ इस क्रियासे गन्धक पिधलकर नीचे वाली यथारोगानुपानेन गुजैका सर्वरोगजित् ॥ हांडीमें चला जायगा, उसे निकालकर धोकर शुद्ध गन्धकका चूर्ण १ पल - ( ५ तोले ) कपड़ेसे रगड़कर पानी शुष्क कर दीजिए। इस लेकर उसे बड़ी कटेली और आकाश बेलके स्वरस | प्रकार गन्धक शुद्ध और समस्त कार्योचित हो तथा गोमूत्र और श्यामवर्ण ऊंटके ६ वर्ष अवस्थाके जाता है। बच्चेके मूत्रकी २१–२१ भावना देकर सुखाकर (१५४२) गन्धकादिपोटली रसः आतशी शीशीमें भरकर ८ पहर तक बालुका (र. र. स. । उ. खं. अ० १८) यन्त्रमें पकाइये और स्वांगशीतल होनेपर औषधको गन्धं तालकं ताप्यं शिलाह पिप्पलीकृते । निकालकर चूर्ण कर लीजिए । यही गन्धक सत्व है। कषाये भावयेत्स्नुह्याः क्षीरे मूत्रे च सप्तशः ॥ ___ इसे अनुपान भेदसे १ रत्तीकी मात्रानुसार निष्कामस्याः पोटल्या स्यादधै साज्यमाक्षिकम् समस्त रोगों में देना चाहिए। प्रयोज्यं सयकृत्प्लीहि पञ्चकोलपलाशिना॥ (१४४१) गन्धकस्य कूर्मपुटेन शोधनम् शुद्ध गन्धक, हरताल भस्म, सोनामक्खी ( आ. वे. प्र. । अ०२) भस्म और मनसिल ( शुद्ध ) समान भाग लेकर साज्यभाण्डे पयःक्षिप्त्वा मुख वस्त्रेण वन्धयेत् । एकत्र करके उसे पीपलके काथ, थोहरके दृध और गन्धकं पृष्ठदेशेषु श्लक्ष्णचूर्णितमर्पयेत् ॥ गोमूत्रकी ७ भावना दीजिए । छादयेत्पृथुदीर्घेण खरेणैव गन्धकम् । इसमेंसे प्रतिदिन २-२ माशे औषध २ माशे सन्धिरोधामकर्तव्यो भाण्डखर्परयोर्मुदा॥ | धृत और २ माशे शहदमें मिलाकर ढाककी छाल भाण्डं निक्षिप्य भूगर्ने किश्चिद्रक्षेद्वहिर्मुखम्। और ) पञ्चकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, ज्वालयेत्वपरस्यो? जातवेदं वनोपलैः॥ सोंठ ) के काथके साथ सेवन करनेसे यकृत और ततःक्षीरे द्रुतं गन्धं शीतं धौतं जलेन तु। प्लीह ( तिल्ली, जिगर ) रोग नष्ट होते हैं। वस्त्रघृष्टं निजलं तु शुद्धं योगेषु योजयेत् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती ) . - एक बरतनमें घृत और दूध भरकर उसके (१५४३) गन्धकादियोगः मुखपर वस्त्र बांध दीजिए और उसपर गन्धकका (र. सा. सं. । अश्म) महीन चूर्ण बिछाकर ऊपरसे एक बड़ा और मोटा गन्धकं जीरकं क्षुद्राफलं टङ्कद्वयं सदा । खर्पर ( ठीकरा अथवा हांडी ) ढककर नीचेवाले अश्मरीं शर्करां मूत्रकृछं क्षपयति ध्रुवम् ॥ बरतन और इस खर्परकी सन्धिको गारे (कीचड़) । शुद्ध गन्धक, जीरा और कटेलीका फल से बन्द कर दीजिए । अब नीचेवाली हाष्डीको समान भाग लेकर नित्य प्रति २ टङ्क ( ८ माशे) एक गढ़े में रखकर ऊपरके खर्पर पर अरने उपलोंकी की मात्रानुसार सेवन करनेसे पथरी, शर्करा (रेत्त) आग जलाइये । । और मूत्रकृच्छ्रका अवश्य नाश होता है । For Private And Personal Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] ( अनुपान - बरनेकी छालका काथ । ) (१५४४) गन्धकादिरस: (वृ.नि.र. रक्तपित्त.) गन्धं सूतं माक्षिकं लोहचूर्ण सर्व पृष्टं फलेोदकेन । लौहे पात्रे गोपयसा च धृत्वा रात्रौ दद्याद्रक्तपित्तमशान्त्यै ॥ शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारद, सोना मक्खी भस्म और लोहभस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली कर लीजिए, तत्पश्चात् अन्य avari मिलाकर सबको लोहे के खरलमें त्रिफला के काथ साथ खरल कीजिए । इसे रात्रिके समय गोदुग्धके साथ सेवन करनेसे रक्तपित्त रोग नष्ट होता है । ( मात्रा २ रत्ती । ) ( १५४५) गन्धपिष्टिः ( बन्धनम् ) (रसें. चि. म. । अ. ५ ) शुद्धस्तपलैकन्तु कषैकं गन्धकस्य च । स्विन्नखल्वे विनिः क्षिप्य देवदालीरसप्लुतम् । मर्दयेच कराङ्गुल्या गन्धबद्धः प्रजायते ॥ तप्त खरलमें (खरलको तुषाभि पर रखकर उसमें ) १ पल (५ तोले) शुद्ध पारा और १ कर्ष (१। तोला) शुद्ध गन्धकका चूर्ण तथा थोड़ासा देवदाली ( बिन्दाल ) का रस डालकर उंगलीसे मलने से गन्धपिष्टि बन जाती है । (१५४६) गन्धपिष्टिः ( बन्धनम् ) (रसें. चि. म. । (अ. ५) भागा द्वादशसूतस्य द्वौ भागौ गन्धकस्य च । मर्द्दयेद् घृतयोगेन गन्धबद्धः प्रजायते ॥ १२ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०१] गन्धक चूर्णको घृतके साथ घोटने से गन्धपिष्टिः बन जाती है । (१५४७) गन्धलोहः (रसें. चि. म. । अ. ९; बृ. यो त । त. ६१ आयु. प्र. अ. २, र. चं. । रसा. ) गन्धं लौह भस्म मध्वाज्ययुक्तं सेव्यं वर्षे वारिणा त्रैफलेन । शुक्रे केशे कालिमा दिव्यदृष्टिः पुष्टिवीर्यं जायते दीर्घमायुः ॥ ५३ ॥ समान भाग शुद्ध गन्धक और लोहभस्मको एकत्र खरल करके ( २ - ३ रत्तीकी मात्रानुसार ) शहद और घृतमें मिलाकर १ वर्ष प्रर्यन्त त्रिफला काके साथ सेवन करनेसे श्वेतकेश काले हो जाते हैं एवं दिव्यदृष्टि, पुष्टि, वीर्य और दीर्घायु प्राप्त होती है। (१५४८) गन्धामृतो रसः (रसें. चि. म. । अ. ८; आ. प्र. । अ. १; भै. र. वाजी.; र. मं.;. रा. सुं. । रसाय; र. र. । रसा. उ. २) भस्ममृतं द्विधा गन्धं क्षणं कन्यां विमर्द्दयेत् । रुद्ध्वा लघुपुढे पच्यादुद्धृत्य मधुसर्पिषा ॥ निष्कमात्रं जरामृत्युं हन्ति गन्धामृतो रसः । समूलं भृङ्गराजञ्च छायाशुष्कं विचूर्णयेत् ॥ तत्समं त्रिफलाचूर्ण सर्व तुल्या सिता भवेत् । पलैकं भक्षयेच्चानु सेवनाच्च ज्वरापहः ।। १ भाग पारद भस्म ( रस सिन्दूर) और २ भाग शुद्ध गन्धकके चूर्ण को थोड़ी देर घृतकुमारी (घीकुमार) के रस में घोटकर उसका एक गोला बना लीजिए और दो शरावोंमें बन्द करके लघु पुटमें फूंक दीजिए । जब स्वांग शीतल हो जाय तो निकालकर चूर्ण कर लीजिए । For Private And Personal Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०२ 1 भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि इसे ४ माशेकी मात्रानुसार धी और शहदके | सप्तगुजं ददीतास्य यावत्स्यादेकविंशतिः । साथ सेवन करनेसे जरा मृत्युका नाश होता है। प्रत्यहं तु हरीतक्य गुञ्जा देयकविंशतिः ॥ छायामें शुष्क समूल भांगरेका चूर्ण और त्रिफला सक्षीरं सघतं चान्नं भोजयीत सशर्करम् । चूर्ण १-१ भाग और मिश्री २ भाग लेकर एकत्र निर्वाते चावतिष्ठेत कम्पस्पर्शापनुत्तये ॥२८ मिलाकर लीजिए। गन्धाश्मगर्भसंज्ञोयं योगिभिः परिकीर्तितः ॥ उपरोक्त गन्धामृत रस खानेके पश्चात् १ पल (कूर्म पुटद्वारा शुद्ध) गन्धक ८ भाग और (५ तोले) यह चूर्ण खानेसे ज्वर नष्ट होता है । पारा १ भाग लेकर दोनोंको मन्दाग्नि पर पकाइये, (१५४९) गन्धाश्मगर्भरसः जब गन्धक पिघल जाय तो उतार लीजिए और (र. र. स. । उ. ख. अ. २१) ठण्डा होनेपर पुनः पकाइये, इसी प्रकार जब तक गन्धं रसेनाष्टगुणं विमर्य गन्धकका रंग न बदल जाय बारबार पकाते रहिए। कृशानुतोयेन विपाचयेत । तत्पश्चात् घोटकर सुरक्षित रखिए । मृद्वमिना लोहमयेऽथ पात्रे इसे ७ रत्तीकी मात्रासे आरम्भ करके २१ विषेण पश्चादथ सिद्धमेति ॥२१॥ रत्ती पर्यन्त २१ रत्ती हरके चूर्ण (और घृत) के गन्धाश्मगर्भो हि रसोऽस्य सर्व साथ सेवन करानेसे कम्पवात तथा स्पर्शवातका स्पर्शप्रणुत्यै भज वल्लयुग्मम् । नाश होता है। सक्षीरमन्नं सघृतञ्च भोज्यं इस गन्धाश्मरसका आविष्कार योगियोंद्वारा वयं च सर्व परिवर्जनीयम् ॥२२॥ हुवा है। इसके सेवन कालमें, दूध, घृत और ८ भाग गन्धक और १ भाग पारदकी शर्करा (खांड) युक्त आहार करना और निर्वात कजली करके उसे मन्दाग्नि पर लोहपात्रमें चीतेके स्थानमें रहना चाहिए। . काथके साथ पकाइये, तत्पश्चात् उसमें १ भाग (प्र. वि-पहिले दिन ७ रत्ती औषध खिशुद्ध मीठा तेलिया मिलाकर धोटिए। लाएं और फिर प्रतिदिन १-१ रती बढ़ाते जांय, इसे प्रतिदिन ४ रत्तीकी मात्रानुसार सेबन २१ रत्ती मात्रा तक पहुंच जाने पर प्रतिदिन करने और दूधभात खाने तथा अपथ्य पदार्थोंका १-१ रत्ती मात्रा घटाकर सेवन कराएं और ७ रत्ती परित्याग करनेसे स्पर्शवात रोग नष्ट होता है। तक आ जायं. यदि इसके पश्चात् भी औषध (१५५०) गन्धाश्म गर्भरसः सेवनकी आवश्यकता पड़े तो फिर इसी क्रमसे (र. र. स.। उ, खं. अ. २१) । बढ़ाते हुवे सेवन कराएं। गन्धकाष्टकभागेन रसं दखाऽथ पाचयेत् ॥२४ (१५५१) गन्धाश्मपर्पटीरसः (र.का.धे.।प्र.) मद्वग्निना शीतमुभावुत्तार्योत्तार्य यनतः । भृङ्गराजरसे चैव लोहपात्रेऽमिना बलिम् । यावद्गन्धकरूपस्य पूर्वस्य ह्यन्यथा भवेत् ॥२५ द्रावयित्वा विनिक्षिप्य पूरयित्वा च भाजने ॥ For Private And Personal Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [१०३] जयादलरसेनापि काकमाच्या रसेन वा। उसमें इस कज्जलीको कोयलोंकी आग पर पकाइये शृङ्गवेररसेनापि वर्धमानेन खल्वयेत् ॥१२१।। और जब पिघल जाय तो गायके गोबरको भूमिशृङ्गवेररसेनापि काकमाच्या रसेन च। पर बिछाकर उसपर केलेका पत्ता बिछाकर उसके रसं गन्धद्वयं शुद्धं लोहपात्रे प्रियोत्तमे ॥१२२॥ ऊपर इसे डाल दीजिए, और उसके ऊपर दूसरा एकीकृत्वैव तावच्च खल्वयेदितिसप्तधा। केलेका पत्ता रखकर गोबरसे दवा दीजिए और यावच्चनीलवर्णःस्थाकोलाङ्गारेण पाचयेत् ॥ | ठण्डा होने पर ऊपरका गोवर आदि हटाकर गोमयस्यालवाले च स्थापिते कदलीदले। पर्पटी निकाल लीजिए । ढालयेत्पाकवित्माज्ञस्ततस्तु प्राशयेन्नरः ॥१२४ इस “गन्धाश्मपर्पटी" को पथ्य पालन खादेदिमां सुखार्थाय पथ्यभुग्भिःप्रयुज्यते।। पूर्वक सेवन करनेसे बवासीर, संग्रहणी, आमशूल, गन्धाश्मपर्पटी चैषा सिद्धा लोकस्य सिद्धिदा॥ कामला, पाण्डु, प्लीह (तिल्ली) गुल्म, जलोदर, दुर्नाम ग्रहणीमामशूलं च ग्रहणीगदम् । भस्मक, आमवात ( गठिया) और कुष्ठ, रोग नष्ट कामलापाण्डुरोगश्च प्लीहगुल्मजलोदरम् ।।१२६, होता है, तथा मनुष्य बलिपलित रहित होकर भस्मकं चामवातं च कुष्ठानि च भृशं हरेत् । १०० वर्ष पर्यन्त जीवित रह सकता है। जीवेद्वर्षशतं साग्रं बलीपलितवर्जितः ॥ १२७॥ (मात्रा-२-४ रत्ती तक। अनुपान---तक । गन्धकको लोहपात्रमें अग्निपर पिधलाकर | विशेष सेवन विधि रस पर्पटी में देखिए ।) भंगरेके रससे पूर्ण पात्रमें डाल दीजिए, और ठण्डा | (१५५२) गरनाशनरसः (र.चं. यो.र.।विषा.) होनेपर निकालकर पुनः पिधलाकर भांगके पत्तोके | शुद्धभूतं मृतं स्वर्ण संशुद्धं हेममाक्षिकम् । रसमें डालिए, इसी प्रकार मकोय और अद्रकके | त्रयाणां गन्धकं तुल्यं मृयात्कन्याद्रवैर्दिनम् ।। रसमें भी शुद्ध कोजिए। अब १ भाग शुद्ध पारद तच्छुकं ससितक्षौषि भक्षयेत्सदा । और २ भाग उक्त गन्धकको धोटकर लोह पात्रमें वह्निमूलं शतं क्षीरैरनुस्याद्गरनाशनम् ॥ डालकर अद्रक और मकोयके रसकी ७-७ भावना शुद्ध पारद, स्वर्ण भस्म और शुद्ध सोनामक्खी दीजिए. (रस में भिगोकर धूपमें रख दीजिए, जब | १-१ भाग तथा शुद्ध गन्धक ३ भाग लेकर सूख जाय तो फिर नया रस डालिए इसी प्रकार सबको १ दिन घृतकुमारी ( घी कुमार )के रसमें दोनों ओषधियोंका रस ७--७ वार डालकरं सुखा- खरल कीजिए । जब घोटते घोटते सूख जाय तो इये । रस इतना डालना चाहिए कि ओषधिसे १ | रस तैयार समझिए । अंगुल ऊपर रहे ) और इतना धोटिए कि धोटते । इसमें से १ माषा औषध मिश्री और शहदमें धोटते गेलवर्ण हो जाय । मिलाकर चीतेसे सिद्ध* दूधके साथ खानेसे गरविष अब एक लोहपात्रमें थोड़ा धी डालकर । (कृत्रिम विष अथवा उपविष )का नाश होता है। * चीता १ भाग दूध ८ भाग पानी ३२ भाग । दूध शेष रहने तक पकाकर छानलें । For Private And Personal Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ १०४ ] (१५५३) गरुडरस : (र. का. घे. ज्वर. ) बीजं पलाशजं गुञ्जा निशा दन्तीफलं तथा । क्षारद्वयं चातिविषा कन्दं चामरसंज्ञकम् ||८३९ रसोनं टङ्कणं चूर्ण तुत्थैकं दरदं विषम् । भागोत्तरमिदं कृत्वा गोमूत्रेण विभावितम् ॥ योजयेन्निम्बुकद्वावै ज्ञात्वा मलबलाबलम् । ज्वरान्सर्वान्निहन्त्याशु संनिपातान्महोत्कटान् ॥ श्लेष्मणःसम्भवान्रोगांस्तथा वै सर्ववातजम् । अमोघवीर्यमेनं चागदोऽयं गरुडोयथा ||८४२ ॥ पलाशके बीज ( ढकपन्ने ) गुञ्जा (चौंटली ) हल्दी, जमालगोटा, जवाखार, सज्जीखार, अतीस, चमारआलु, ल्हसन, सुहागेकी खील और शुद्ध नीलाथोथा १-१ भाग शुद्ध हिंगुल ( शंरंगक) २ भाग और शुद्ध मीठा तेलिया ३ भाग लेकर सबको गोमूत्रमें भली भांति खरल कर लीजिए । बस रस तैयार है । | इसे दोष और बलाबल के अनुसार नीबू के रसके साथ सेवन करानेसे समस्त प्रकारके बर, भयङ्कर सन्निपात, कफज और वातज रोग नष्ट होते हैं । (१५५४ ) गर्भचिन्तामणिरसः (र. रा. सुं.: र. सा. सं.; र. र. । सूतिका. ) रसं तारं तथा लौह प्रत्येकं कर्षमानतः । कर्षत्रयं तथा चाभ्रं कर्पूरं वङ्गताम्रकम् ॥ जातीफलं तथा कोषं गोक्षुरश्च शतावरी । बलातिबलयोर्मूलं प्रत्येकं तोलकं शुभम् ॥ afari निहन्त्याशु स्त्रीणाञ्चैव विशेषतः । गर्भिण्या ज्वरदाहञ्च प्रदरं सूतिकाभयम् ॥ रस सिन्दूर, चांदी भस्म और लोह भस्म Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गकारादि १ - - १ कर्ष ( १ तोला ), अभ्रक भस्म ३ कर्ष और कपूर, बंग भस्म, ताम्र भस्म, जायफल, जावित्री, गोखरु, शतावर तथा खरैटी और कंधीकी जड़ १-१ कर्ष लेकर पानी में घोटकर २-२ रती की गोलियां बना लीजिए । इनके सेवन से सन्निपात और विशेषतः स्त्रियों का सन्निपात गर्भिणीका ज्वरदाह तथा प्रदर और सूतिका रोग ( परसूत ) नष्ट होता है । (१५५५) गर्भचिन्तामणि रसः (रॅ. रा. सुं.; र. सा. सं.; र. र. । सूतिका. ) जातीफलं टङ्कणं च व्योषं दैत्येन्द्ररक्तकम् । तचूर्ण समभागेन मदितं महरद्वयम् ।। जम्बीररसयोगेन वटीङ्कर्याद्विचक्षणः । गुञ्जाद्वयं प्रमाणन्तु खलु वैद्यः प्रयत्नतः ॥ आर्द्रकस्प रसेनैव भावयेदुष्णवारिणा । निहन्ति सर्वरोगञ्च भास्करस्तिमिरं यथा ॥ जायफल, सुहागेकी खील, सोंठ, मिर्च, पीपल और शुद्र शंगरफके समान भाग चूर्णको २ - २ पहर तक जम्बीरी नीबू और अदरखके रसमें घोटकर २ - २ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए | इन्हें उष्ण जलके साथ सेवन कराने से गर्भणीके समस्त रोग इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं। जैसे सूर्योदयसे अन्धकार | (१५५६) गर्भचिन्तामणि रसः (वृहद् ) ( र. रा. सुं. र. र. र. सा. सं. । सूति. ) सूतं गन्धं तथा स्वर्ण लोहं रजतमाक्षिके । हरितालं वङ्गभस्माप्यभ्रकं समभागिकम् ॥ भावना खलु दातव्या रसैरेषां पृथक् पृथक् । ब्राह्मीवासाभृङ्गराजपर्पटी दशमूलकैः ॥ For Private And Personal Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१०५] सप्तधा भावयेद्वैद्यो गुञ्जामानां वटीं चरेत् ।। गर्भपीयूषवल्लीरसः (भै. र.। स्त्री. धन्वं । सूति.) गर्भचिन्तामणिरयं पूर्ववद्गुणकारकः॥ (गर्भचिन्तामणि रस (वृहद् ) अवलोकन कीजिएं।) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण भस्म, लोह, । (१५५८) गर्भविनोदरसः । चांदी भस्म, सोनामक्खी भस्म, हरताल भस्म, बंग | (र. चं. । स्त्री. रो.; र. रा. सुं.; र. सा. सं; भस्म और अभ्रक भस्म बराबर बराबर लेकर सबको र. र. सूतिका; र. चि । अ. ९) ब्राह्मी, बासा ( अडूसा ) भंगरा, पित्तपापड़ा और त्रिभागं कटुकं देयं चतुर्भागं च हिङ्गुलम् । दशमूलके रस (या काथ) को पृथक् पृथक् ७-७ जातीकोषं लवङ्गं च प्रत्येकश्च त्रिकार्षिकम् ।। भावना देकर एक एक रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। सुवर्णमाक्षिकस्यापि पलार्ध प्रक्षिपेद्बुधः। । ___ यह वृहद्गर्भचिन्तामणि रस गर्भिणीके ज्वर, जलेन मर्दयित्वाऽथ चणमात्रा वटीकृता॥ दाह, प्रदर और सूतिका रोगोंको नष्ट करता है। निहन्ति गर्भिणीरोगं भास्करस्तिमिरं यथा ॥ (१५५७) गर्भपालरसः (र. चं. । स्त्रीरो.) त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल)का चूर्ण ३ भाग हिङ्गलं नागवङ्गौ च त्रिजातं च कटुत्रयम ॥६३३ (३ कर्ष), शुद्ध हिंगुल (शंगरक) ४ भाग; जायफल धान्यकं कृष्णजीरश्च चयं द्राक्षा सुरद्रमः। और लौंग ३-३ कर्ष (३॥ तोले) तथा सोनाकर्षमानं पृथकसर्व कर्षाधं लोहभस्म च ॥६३४॥ मक्खी भस्म आधा पल (२॥ तोले) लेकर सबको सप्ताहं मर्दयेत्खल्वे विष्णुकान्तारसेन च। जलसे घोटकर चनेके बराबर गोलियां बना लीजिए। गुञ्जामात्रा च वटिका द्राक्षाकाथेन योजयेत् ॥ इनके सेवनसे गर्भिणीके रोग इस प्रकार नष्ट मासप्रथममारभ्य नवमासान्तमेव च। होते हैं जिस प्रकार सूर्योदयसे अन्धकार । . गर्भिगीरोगनाशार्थ गर्भपालरसः स्मृतः ॥२३६ (१५५९) गर्भविलासरसः' शुद्ध हिंगुल, नागभस्म, बंगभस्म, दालचीनी, | (र. चं, भै. र.; धन्वं. र. र.; र. र. स.; र. का. तेजपात, इलायची सोंठ, मिर्च, पीपल, धनिया, | धे। सूतिका.; र. चिं. म. अ. ९) . पोपल, जीरा, चव्य, मुनक्का और देवदारु १-१ | रसगन्धं तुत्थश्च व्यहं जम्बीरमर्दितम् । कर्ष (१। तोला) और लोहभस्म आधा कर्ष लेकर त्रिभावितं त्रिकटुना देयं गुञ्जाचतुष्टयम् ॥ सबको सात दिन तक विष्णुक्रान्ता (कोयल) के | गर्भिण्याःशूलविष्टम्भज्वराजीणेषु केवलम् । रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। तुत्थस्थाने स्वर्णदेयं रसश्चिन्तामणिस्मृतः॥ इस "गर्भपाल” रसको गर्भिणीको गर्भके समान भाग शुद्ध पारा, गन्धक और शुद्ध प्रथम माससे आरम्भ करके नवम मास पर्यन्त सेवन | नीला थोथा, लेकर दोनोंको ३ दिन तक जम्बीरी करानेसे उसके समस्त रोग नष्ट होते हैं। नीबूके रसमें (रसकामधेनुके लेखानुसार काजीमें) १ र. सा. सं. का सूतिका विनोद भी यही है। २ सौवीरमर्दितमिति रसकामधेनौ । भा०१४ For Private And Personal Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि wwww بیمه ای به عمه ی घोटकर ३ भावना त्रिकुटे ( सोंठ, मिर्च, पीपल) | करनेसे गलत्कुष्ठ नष्ट होता है । के काथकी दीजिए। ___ पथ्य-लवण रहित भात, गेहूं , दूध, मिश्री आदि । इसे ४ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करानेसे अपथ्य-बैंगन, उर्द, स्त्री प्रसंगादि । गर्भिणीका शूल, कब्ज, और ज्वर तथा अजीर्ण | (१५६१) गलत्कुष्ठारिः रसः (बदहज़मी) रोग नष्ट होता है । ___ यदि इसमें तुत्थके स्थानमें सोना डाला जाय (रसें. चि. म. । अ. ९; भा. प्र.; र. चं., तो इसीका नाम गर्भचिन्तामणि हो जाता है। र. सा. सं.; र. ग. सुं. । कुष्ट.) (१५६०) गलत्कुष्ठनाशनरसः(यो.स.।समु.७) रसो बलिस्ताम्रमयः पुरोग्निसूताभ्रगन्धायसशुल्वधारा शिलाजतुःस्थाद्विषतिन्दुकोग्रे। करञ्जबीजानि शिलाजतुश्च । सर्व च तुल्यं गगनं करञ्ज फलत्रिकं गुग्गुलुचित्रको च बीजं तथा भागचतुष्टयश्च ॥ सर्व समांशं विषतिन्दुकश्च ।। संमर्य गाढं मधुना घृतेनक्षौद्रेण साध सघृतं विमर्य बल्लद्वयं चास्य निहन्त्यवश्यम्। संस्थाप्य काचे दिनसप्तभाण्डे । कुष्ठं किलासमपि वातरक्तं वल्लप्रमाणं पयसासमेत ___ जलोदरं वाथ विबद्धमूलम् ॥ खाद्यं गलत्कुष्ठविनाशनाय ।। विशीर्णकर्णाङ्गलनासिकोऽपि पथ्यं विरक्त लवणेन भोज्यं ___ भवेत् प्रसादात् स्मरतुल्यमूर्तिः ॥ पयः सितातण्डुलगोधुमाश्च । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, लोह वृन्ताकमाषायहितं च वये । भस्म, शुद्ध गूगल, चीता, शिलाजीत, कुचला और स्त्रीसेवनं कुष्ठविकारवद्भिः॥ वच १-१ भाग तथा अभ्रक भस्म, और करञ्ज शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, लोह- (करंजवे)की गिरी ४-४ भाग लेकर प्रथम पारद भस्म. गिलोय. करञ्जबीज (करनवेकी गिरी) शिला- और गन्धककी कजली बना लीजिए पश्चात् अन्य जीत, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) गूगल, चीता ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर खूब खरल कीजिए। और शुद्ध कुचला (चुकला ) समान भाग लेकर इसे ४ रत्तीकी भात्रानुसार (प्रातः सायं २-२ प्रथम पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए. रत्ती) घृत और शहदके साथ सेवन करनेसे, कुष्ट, तत्पश्चात् उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर । किलास, वातरक्त, और पुराना जलोदर, अवश्य शहद और घीमें धोटकर सात दिन तक काचपात्र नष्ट हो जाता है; और यदि कर्ण, उंगली, नासि(मर्तबान या बरनी आदि) में रक्खा रहने दीजिए। कादि भी गल गई हों तो वह सब पुनः पूर्ववत् इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार दूधके साथ सेवन होकर मनुष्य कामदेव सदृश रूपवान हो जाता है। For Private And Personal Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१०७] wwwwww (१५६२) गिरिसिन्दूरगुणाः (र. प्र. सु.अ.७)| तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर चमेली रसबन्धकरं भेदि त्रिदोषशमनं तथा। बिजौरा, धतूरा और मकोयके रसमें १-१ दिन देहलोहकरं नेत्र्यं गिरिसिन्दूरमीरितम् ॥ । खरल करके गोलियां बना लीजिए। 'गिरिसिन्दूर' रसबन्धक (पारदको बांधने | इस “गुञ्जा गर्भ" रसको २ रत्तीकी मात्रावाला ), भेदन, त्रिदोषनाशक, देहको लोहके समान नुसार वृतके साथ सेवन किया जाय तो उरुस्तम्भ दृढ़ करने वाला और नेत्रोंके लिए हितकर है। | रोग नष्ट हो जाता है। (१५६३) गिरिसिन्दूरोत्पत्तिः गुञ्जाभदरसः ( र. र. । हृ. रो. ) (र. प्र. सु. । अ. ७) ( गुञ्जागर्भ रस अवलोकन कीजिए ।) महागिरौ शिलान्तःस्थो रक्तवर्णश्च्युतो रसः।। गुडादिमण्डूरम् सूर्यातपेन संशुष्को गिरिसिन्दूरमीरितम् ॥ | (चूर्ण प्रकरणमें देखिये) ___ महान पर्वतोंमें शिलाओंके भीतरसे एक प्रका गुडूचीलौहम् रका लाल रस निकलकर सूर्य तापसे सूख जाता (चूर्ण प्रकरणमें देखिए ) है; इसीका नाम 'गिरी सिन्दूर' है। (१५६५) गुडूच्यादिमोदकः ( वृ. नि. र.) (१५६४) गुञ्जागर्भरसायनम् गुडूची खण्डश कृत्वा कुट्टयित्वा सुमर्दयेत् । वस्त्रेण विधृतं तोयं स्राक्येत्तच्छनैःशनैः॥ (बृ. नि. र.; यो. र.; धन्वं. । ऊरुस्त.; शुद्धशङ्खमिमं चूर्णमेतैः संमिश्रयेद्भिषक् । - रसें. चि. म. । अ. ९) | उशीरं बालकं पत्रं कुष्ठं धात्री च मौसलीम् ॥ निष्कत्रयं शुद्धमूतं निष्कद्वादशगन्धकम् ।। एला हरेणुकं द्राक्षां कुङ्कमं नागकेशरम् ।। गुञ्जाबीजं विषं निष्कं निम्बवीजं जया तथा ॥ पद्मकन्दं च कपूरं चन्दनद्वयमिश्रितम् ॥ प्रत्येकं निष्कमात्रन्तु माष जेपालबीजकम्। व्योषं च मधुकं लाजाऽश्वगन्धा शतावरी । जातीजम्बीरधत्तूरकाकमाचीद्रवैर्दिनम् ॥ गोक्षुरं मर्कटाख्यं च जातीकक्कोलचोरकम् ॥ मर्य सर्व वटीं कुर्यात् घृतैर्गुञ्जाद्वयं पिवेत् । | रसश्च वंगलोहैश्च संमिश्रं कारयेद्बुधः। गुञ्जागर्भो रसे नाम हिङ्गुसैन्धवसंयुतः ।। एतानि समभागानि द्विगुणामृतशर्फरा ॥ समण्डं दापयेत्पथ्यमुरुस्तंभप्रशान्तये ॥ मत्स्यण्ड्याज्यमधुपेतं भक्षयेत्पातरुत्थितः। शुद्ध पारद १ तो. शुद्ध गन्धक ४ तो. गुञ्जा। क्षयं च रक्तपित्तं च पाददाहममृग्दरम् ॥ (चौंटली), शुद्ध मोठा तेलिया, नीमकी निबौली, मूत्राघातं मूत्रकृच्छ्रे वातकुण्डलिकां तथा । और भांग ४-४ माशे और जमाल गोटा १ माशा निहन्याच प्रमेहांश्च सोमरोगं च दारुणम् ।। लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए | रसायनमिवर्षीणाममृतं चामृतांधसाम् ॥ १ षण्णिष्कमिति पाठान्तरम् । २ सममिति निष्कमिति च पाठभेदः । ३ गुञ्जाभदरसो नामेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि - - गिलोयके टुकड़े करके और कूटके उन्हें | एतानि द्विगुणानि स्युर्मर्दयित्वा प्रयत्नतः । पानीमें खूब मलकर कपड़ेमें छान लीजिए, और भावना चात्र दातव्या गजपिप्पलिकाम्बुना।।९७ इस पानीको पात्र में भरकर धूप में रख दीजिए; मात्रा चणकतुल्या तु वटिकेयं प्रकीर्तिता। जब पानी नितर जाय तो उसे धीरे धीरे उतार हन्ति कासं तथा श्वासं असि च भगन्दरम् ॥ दीजिए । बरतनके पेंदे (तली )में जो सफेद सत्व हृच्छूलं पार्थ शूलश्च कर्णरोगं कपालिकाम् । रह जाय उसे सुखाकर निकाल लीजिए। हरेत् संग्रहणीरोग तथाष्टौ जठराणि च ॥९९॥ ___यह सत्व, शंख भस्म, खस, नेत्रबाला, तेज- प्रमेहान्विंशतिश्चैव ह्यश्मरी च चतुर्विधाम। पात, कूठ, आमला, मूसली, इलायची, रेणुका, मुनक्का, त्रिषु लोकेषु विख्यातो नाम्ना गुणमहोदधिः॥ केशर, नागकेसर, पद्मकन्द (कमलकी जड़) कपूर, न चानपाने परिहार्यमस्तिसफेद चन्दन, लाल चन्दन, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, न चातपे चाध्वनि मैथुने च । पीपल) मुलैठी, धानकी खील, असगन्ध, शतावर, यथेष्ट वेष्टाभिरतः प्रयोगेगोखरू, कौंचके बीज, जावित्री, . ककोल, चोरक नरोभवेत्काञ्चनराशिगौरः ॥ (गन्धद्रव्य विशेष-गठिवन भेद ) रससिन्दूर, बंग - शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्र मीठातेलिया, भस्म और लौह भस्म समान भाग तथा मिश्री दालची , ताम्र भस्म, बंगभस्म और अभ्रक भस्म सबके बराबर लेकर सबका महीन चूर्ण कर लीजिए। १-१ भाग तथा तेजपात, सोंठ, मिर्च, पीपल, इसे मिश्री, घी और शहदमें मिलाकर प्रातः मोथा, बायबिड़, नागकेसर, रेणुका ( संभालुके काल सेवन करनेसे क्षय, रक्तपित्त, पैरोंकी जलन, बीज) आमला और पीपलामूल २-२ भाग रक्तप्रदर, मूत्राघात, मूत्रकृच्छू, वातकुण्डलिका, प्रमेह लेकर महीन चूर्ण करके गजपीपलके काथमें घोटऔर भयङ्कर सोम रोगका नाश होता है। कर चने बराबर गोलियां बना लीजिए। गुडूच्यादि लौहम् इनके सेवनसे खांसी, श्वास, बवासीर, भग न्दर, हृदय और पसलीका शूल, कर्णरोग, कपालि ( चूर्ण प्रकरणमें देखिए ) का ( दन्तरोग विशेष) संग्रहणी, आठ प्रकारके (१५६६) गुणमहोदधिरसः उदररोग, बीस प्रकारके प्रमेह और चार प्रकारका (र. चि. म. । स्तव. ११; भै. र. । कास.)। अश्मरी (पथरी) रोग, नष्ट होता है; और शरीर सूतकं गन्धकश्चैव विषं चापि वराङ्गकम् ।। काञ्चनसदृश तेजोमय हो जाता है। मृततानं च बंङ्गं च गगनं च समांशकम् ॥९५॥ | ___ इस त्रिलोक विख्यात गुण महोदधि रसके पत्रं त्रिकटुकं मुस्तं विडङ्गं नागकेसरम् । सेवन कालमें किसी प्रकारके अन्न पान, धूप, रेणुकामलकञ्चैव पिप्पलोमूलमेव च ॥९६॥ मार्गगमन मैथुनादिसे परहेज करनेकी आवश्यकता १ गन्धकं लौहमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] । नहीं है, यथेच्छाहार विहार किया जा सकता है । (१५६७) गुद्जहररसः ( र. र. स. उ.खं । अ. १५) गन्धं तारं तथा ताम्रं कृत्वा चैकत्र पिष्टिकाम् तत्समं चाभ्रकं तीक्ष्णं गन्धकात्पञ्चमांशकम् ॥ विषञ्च षोडशांशेन द्वौ भागौ सुतकस्य च । एकीकृत्य प्रयत्नेन जम्बीरद्रवमर्दितम् ॥ २४ ॥ भाजने मृण्मये स्थाप्य वराकाथेन भावयेत् । दशमूलशतावर्योः काथे पाच्यः क्रमेण हि || २५ अथोत्तार्य प्रयत्नेन वटिकां कारयेद्बुधः । गुञ्जात्रयप्रमाणेन हन्ति शूलं गुदाङ्कुरम् ||२६|| शुद्ध गन्धक, चांदी भस्म और ताम्र भस्म, को एकत्र घोटकर पिटी (पिट्ठी) बना लीजिए तत्पश्चात् इसमें समस्त ओषधियोंके बराबर अभ्रक भस्म और गन्धकका पांचवां भाग तीक्ष्ण लोह भस्म तथा १६ वां भाग शुद्ध मीठा तेलिया और २ भाग शुद्ध पारद डालकर जम्बीरी नीबू के रसमें अच्छी तरह खरल करके मिट्टी के बरतन में डाल दीजिए और त्रिफलेके काथकी १ भावना देकर दशमूल और शतावरीके काथमें (१ - १ पहर पृथक् पृथक्) पकाइये । जब गाढ़ा हो जाय तो उतारकर ३ - ३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । इनके सेवनसे शूल और बवासीर के मस्से नष्ट होते हैं । (१५६८) गुल्मकालानलो रसः (महा) (र. रा. सुं.; र. सा. सं. । गुल्म.) गन्धकं तालकं ताम्रं तथैव तीक्ष्णलौहकम् । समांशं मर्दयेत् गाढं कन्यानीरेण यत्नतः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०९ ] सम्पुटं कारयेत् पश्चात् सन्धिलेपं च कारयेत् । ततो गजपुटं दत्वा स्वांगशीतं समुद्धरेत् ।। द्विगुञ्जं भक्षयेद् गुल्मी गृङ्गवेरानुपानतः । सर्वगुल्मं निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ।। शुद्ध गन्धक, शुद्ध तबकी हरताल, ताम्रभस्म और तीक्ष्ण लोहभस्म समान भाग लेकर सबको घृतकुमारीके रसमें भली भांति घोटकर टिकिया बनाकर सुखा लीजिए, और उसे मिट्टी के दो शवों में बन्दकरके ऊपरसे कपड़ मिट्टी करके गज पुटमें फूंक दीजिए और स्वांग शीतल होने पर निकालकर काम में लाइये । इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार अदरक के रसके साथ सेवन करने से सर्व प्रकारका गुल्म रोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है । (१५६९) गुल्मकालानलो रसः (र. रा. सुं.; धन्वं.; रसा. सं.; भै.र. । गुल्म. रसे. चि. म. अ. ९. ) सूतकं लोहकं ताम्रं तालकं गन्धकं समं । तोलयमितं भागं यवक्षारञ्च तत्समम् || मुस्तकं मरिचं शुण्ठी पिप्पली गजपिप्पली । rtant वचा कुष्टं तोलैकं चूर्णयेद्बुधः ॥ सर्वमेीकृतं पात्रे क्रियन्ते भावनास्ततः । पर्पटं मुस्तकं शुण्ठपामार्गपापचेलिकम् ॥ तत्पुनश्चूर्णयेत्पश्चात् सर्वगुल्मनिवारणम् । गुञ्जाचतुष्टयं खादेद्धरीतक्यनुपानतः ॥ वातिकं पैत्तिकं गुल्मं तथा चैव त्रिदोषजम् । द्वंद्वजं श्लैष्मिकं हन्ति वातगुल्मं विशेषतः ॥ गुल्मकालानलो नाम सर्वगुल्मकुलान्तकृत् ॥ १ पारदं गन्धकं तालं ताम्रकं टङ्कणं सममिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि शुद्ध पारद, लोहभस्म, ताम्रभस्म, शुद्ध वरकी (१५७१) गुल्मकुठारो रसः (वै. र. । गुल्म.) हरताल और शुद्ध गन्धक २-२ तोले तथा मोथा, पारदं टङ्कणं गन्धं त्रिफला व्योषतालकम् । स्याह मिर्च, सोंठ, पीपल, गजपीपल, हरं, बच विषं तानं च जैपालं भृङ्गस्वरसमर्दितम् ॥ और कूठका चूर्ण १-१ तोला तथा यवक्षार १० गुञ्जामात्रा वटी कार्या आर्द्रकस्य रसान्विता। तोले लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना गुल्मे कुठारकःमोक्तः सर्वगुल्मनिवारणः॥ लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियां मिलाकर खरल शुद्ध पारद, सुहागेकी खील, शुद्ध गन्धक, कीजिए और फिर पित्तपापड़ा, मोथा, सोंठ, त्रिफला ( हर्र, बहेड़ा, आमला ) त्रिकुटा ( सोंठ, अपामार्ग, और पाठा (पाठ) के काथकी पृथक् मिर्च, पीपल) शुद्ध हरताल, शुद्ध मीठा तेलिया, पृथक् भावना देकर चूर्ण कर लीजिए। ताम्र भस्म और शुद्ध जमालगोटा समान भाग इसे ४ रत्तीकी मात्रानुसार हरेके काथके | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए साथ सेवन करनेसे पित्तज, कफज, सन्निपातज तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर और विशेषतः वातज गुल्मका नाश होता है। भांगरेके स्वरस में खरल करके रत्ती रत्ती भरकी (१५७०) गुल्मकुठाररसः गोलियां बना लीजिए। ( यो. र.; वृ. नि. र. । गुल्म.) इन्हें अद्रकके रसके साथ सेवन करनेसे सर्व नागवङ्गाभ्रकं कान्तं समं तानं समांशकम् । प्रकारके गुल्म रोग नष्ट होते हैं । जम्बीरस्वरसैघष्टवा वटी गुञ्जाप्रमाणिका॥ (१५७२) गुल्मगजारातीरसः' मधुनाऽऽद्रेकनीरेण क्षारयुग्मेन सेविता। (र. का. धे.; वृ. नि. र. । गुल्म.) अजीर्णमाम गुल्मं च हृत्पार्योदरशूल के ॥ | सूतगन्धकणापथ्यातुत्थारग्वधकान्दृढम् । नाम्ना गुल्मकुठारोप्यं सर्वगुल्मान् व्यपोहति। मर्दयेद्वनिदुग्धेन माषाई खादयेत् दिनम् ।। नाग (सीसा) भस्म, बंग भस्म, अभ्रक भस्म, | गुल्मोदरगजारातिर्नाम्ना भैरवनिर्मितः । कान्तलोह भस्म, और ताम्र भस्म बराबर बराबर | स्त्रीणां जलोदरं हन्ति पथ्यं शाल्योदनं दधिः।। लेकर जम्बीरी नीबूके रस में धोटकररत्ती रत्ती भरकी | चिश्चाफलं रसं चानुपानमस्मिन्प्रयोजयेत् ॥ गोलियां बना लीजिए। शुद्ध पारा, शुद्र गन्धक, पीपल, हर्र, शुद्ध इस गुल्मकुठार रसको अद्रकके रस, शहद, । नीलाथोथा, और अमलतासका गूदा समान भाग जवाखार और सजीखारके साथ सेवन करनेसे | लेकर प्रथम पार गन्धककी कजली बना लीजिए आमाजीर्ण, गुल्म, हृच्छूल, पार्श्वशूल और उदरशूल- और फिर अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर थोहका नाश होता है। रके दूधमें अच्छी तरह घोटिए । १ वृहद्योगतरंगिणी तरंग ८९ में कथित गुल्मारि रसका भी लगभग यही प्रयोग है, उसमें केवल तुत्थ नहीं है। For Private And Personal Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् भैरवनिर्मित यह गुल्मगजाराती रस आधे मा की मात्रानुसार इमली के फलके स्वरसके साथ सेवन किया जाय तो गुल्म और स्त्रियोंका जलोदर नष्ट होता है । पथ्य - शालि चावलका भात और दही । द्वितीयो भागः । रसगन्धवराटताम्रशङ्ख विषवङ्गाभ्रककान्ततीक्ष्णमुण्डम् | अहिहिङ्गुलटङ्कणं समांशं (१५७३) गुल्मनाशनरसः (र.चिं. म. । स्त. ११, र. चं. गु., र.र.स. । खं. २अ.१८) गन्धकं तुल्यञ्च द्वौ भागौ सैन्धवस्य च । त्रिभागं टङ्कणं प्रोक्तं चतुर्भागं च तुत्थकम् ॥ ५८ पञ्चभागं वराटं स्यात्षड्भागं शङ्खकं तथा । मूषायेण चिरविल्वरसेन च ।। ५९ ।। आर्द्रकस्य रसेनापि प्रत्येकेन पुत्रयम् । तत्समं मरिचं चूर्ण शाणार्ध भक्षयेन्नरः ॥ पञ्चगुल्मं क्षयं श्वासं मन्दाग्निं चाशु नाशयेत् ॥ ६० शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक १ -१ भाग, सेंधानमक २ भाग, सुहागेकी खील ३ भाग, नीलाथोथा ४ भाग, कौड़ी भस्म ५ भाग और शंख भस्म ६ भाग लेकर प्रथम पारे गंन्धक की कजली बना लीजिए तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर चीतेकी जड़ और करञ्जके काथ तथा अद्रकके रसकी पृथक् पृथक् ३-३ भावना देकर उसमें इस सबके बराबर स्याह मिर्च का चूर्ण मिला लीजिए | के इसे २ माशेकी मात्रानुसार (अद्रक के रस ) साथ सेवन करने से पांच प्रकारके गुल्म, क्षय, श्वास, और अग्निमांद्यका अत्यन्त शीघ्र नाश होजाता है । (१६७४) गुल्ममदेभसिंहो रसः (वृ.नि.र. । गु.) Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal [ १११ ] सकलं तत्रिगुणं पुराण किट्टम् ॥ पशुमूत्रविशोधितं सुघृष्ट्वा त्रिफलाभृङ्गतथार्द्रकोत्थनीरैः । सुविशोष्य वरामृतालिवासा स्वरसैरष्टगुणैः पुनर्नवोत्थैः ॥ पृथगतिं घनं विपाच्य गुटिका गुञ्जयुता निजानुपानैः । ज्वरपाण्डुतृषास्रपैत्यगुल्म क्षयका सस्वरम निमान्य मूर्छाः ॥ पवनादिषु दुस्तराष्टरोगान् सकलान् पित्तहरं गदावृतञ्च । बहुना मसौ यथार्थनामा सकलव्याधिहरो मदेभसिंहः ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कौड़ी भस्म, ताम्र भस्म, शंख भस्म, शुद्ध मोठा तेलिया, बंगभस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलोह भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, मुण्डलोह भस्म, नागभस्म, शुद्ध हिंगुल ( शंगरफ.) और सुहागेकी खील १ – १ भाग तथा गोमूत्र में शुद्ध पुराना मण्डूर सबसे ३ गुना लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियां मिलाकर सबको त्रिफलेके काथ एवं भांगरे और अद्रकके स्वरसमें पृथक् पृथक् घोटकर सुखाइये और फिर त्रिफला, गिलोय, भंगरा, बांसा और पुनर्नवाके आठ गुने रसमें पृथक् पृथक् अनि पर पकाकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । इन्हें रोगानुसार अनुपान के साथ सेवन करनेसे ज्वर, पाण्डु, तृषा, रक्तपित्त, गुल्म, क्षय, खांसी, स्वरभंग, अग्निमांद्य, मूर्च्छा, वातादि अष्ट Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि - महान्याधि, और पित्तविकार आदि समस्त रोगोंका वातिकं पैत्तिकं गुल्मं श्लैष्मिकं रौधिरन्तथा। नाश होता है। गहनानन्दनाथोक्तरसोयं गुल्मनाशनः ।। (१५७५) गुल्मवज्रिणी वटी शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, शुद्ध गूगल, (र. रा. सुं.; र.सा. सं; रसें. चि.म.; र. चं.। गुल्म.) पीपल वृक्षकी छाल, निसोत, पीपल, सोंठ, कचूर, रसगन्धकताम्रञ्च कांस्यं टङ्कणतालकम् । धनिया और जीरा एक एक पल (५ तोले) और प्रत्येकं पलिकं ग्राह्य मर्दयेदतियत्नतः॥ धतूरेके बीज (शुद्ध) आधा पल लेकर प्रथम पारे तद्यथाग्निबलं खादेद्रक्तगुल्मप्रशान्तये। और गन्धककी कजली बना लीजिए, तत्पश्चात् निर्मिता नित्यनाथेन वटिका गुल्मवत्रिणी॥ अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर गोघृतमें धोटकर गुल्मप्लीहोदराष्ठीलायकृदानाहनाशिनी। २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । कामलापाण्डुरोगनी ज्वरशूलविनाशिनी ॥ __गहनानन्दनाथोक्त इस रसकी नित्य २ गोली शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, कांसी खाकर पश्चात् अद्रकका उष्ण रस पीनेसे तिल्ली, भस्म, सुहागेकी खील और शुद्ध तबकी हरताल जिगर, कामला, उदररोग, शोथ, तथा वातज, १-१ पल लेकर सबको भलीभांति खरल कर पित्तज कफज और रक्तज गुल्मका नाश होता है। लीजिए। (१५७७) गुह्यरोगारिरसः श्रीनित्यनाथ विरचित गुल्मवनिणी नामक (र. चं.; र. का. धे. । स्त्री.) इन गोलियों को अग्निबलोचित मात्रानुसार सेवन पारदगन्धकटकानेकैकान् पभिनीकन्दम् । करनेसे गुल्म, तिल्ली, अष्ठीला, यकृत् आनाह चतुरोभागान् खल्वे लिङ्गीद्रावण मर्दितं त्रिदिनम् (अफारा) कामला, पाण्डु, ज्वर और शूलका नाश मधुना भावितमीशः स्त्रीनृणां गुह्यजान् रोगान् । होता है । (मात्रा १-२ रती) वल्लचतुष्टयमानं युक्तो दुग्धेन वासरत्रितयात् ॥ (१५७६) गुल्मशार्दूलो रसः । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और सुहागेकी खील (र. रा. सुं.; र. चिं. म.; र. चं.; ध.; र. १-१ भाग तथा पद्मिनी कन्द (कमलिनीकी जड़) ___सा. सं. गुल्म.) ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना रसं गन्धं शुद्धलौहं गुग्गुलोः पिप्पलं पलम् । लीजिए तत्पश्चात् अन्य दोनों ओषधियोंका चूर्ण त्रिवृता पिप्पली शुण्ठी शठी धान्यकजीरकम ॥ मिलाकर सबको ३ दिन तक शिवलिङ्गीके रसमें प्रत्येकं पलिकं ग्राह्यं पलाधै कानकं फलम्। खरल करके एक भावना शहदकी दीजिए। संचूर्ण्य वटिका कार्या घृतेन वल्लमानतः ॥ - इसे ३ दिन तक चार वल्ल (८ रत्ती)की वटीद्वयं भक्षयेच्चाईकोष्णाम्बुपिवेदनु । मात्रानुसार दूधके साथ सेवन करनेसे स्त्री पुरुषोंके हन्ति प्लीहयकृतगुल्मकामलोदरशोथकम् ।। । गुह्य रोग नष्ट होते हैं। For Private And Personal Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [११३] vvvvvvvvr. (१५७८) गौरकगुणाः (र.र.स.। पूर्वख. अ.३) (१५८१) गोपीजल: स्वादुस्निग्धं हिमं नेत्र्यं कषायं रक्तपित्तनुत्। (र. रा. सुं., रसें. चि.; र. सा. सं., ध.। गुल्म.) हिध्मावमिविषघ्नं च रक्तध्मं स्वर्णगैरिकम् ॥ जैपालाष्टौ द्विको गन्धं शुण्ठीमरिचचित्रकम् । पाषाणगैरिकं चान्यत्पूर्वस्मादल्पकं गुणैः॥ एकातःससौभाग्यो गोपीजल इति स्मृतः ।। गेरु दो प्रकारका होता है, (१) स्वर्णगैरिक शुलव्याध्याश्रयान् गुल्मान् कोष्ठादिदशपैत्तिकान् (सोनागेरु) और (२) पाषा गगैरिक । भगन्दरादिहृद्रोगान्नाशयेदेष भक्षणात् ॥ स्वर्ण गैरिक मधुर, स्निग्ध, शीतल, नेत्रोंके शुद्र जमालगोटा ८ भाग, शुद्ध गन्धक लिए हितकारी और कषाय; तथा रक्तपित्त हिचकी, | २ भाग, और सोंठ, मिर्च, चीता, पारा तथा सुहावमन, विष, और रक्तस्राव नाशक है। पाषाण | गेकी खील १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी गैरिक इससे अाप गुणप्रद होता है । कजली बना लीजिए पश्चात् अन्य ओषधियोंका (१५७९) गैरिकभेदाः (र.र. स. प. खं, अ३) चूर्ण मिलाकर खरल कीजिए। यह गोपीजल शूल, गुल्म, कोष्टरोग, दशपाषाणगैरिकं चैकं द्वितीयं स्वर्णगैरिकम् ।। | पैत्तिक रोग, भगन्दर, और हृद्रोगादिका नाश पाषाणगैरिकं प्रोक्तं कठिनं ताम्रवर्णकम् ॥ करता है। अत्यन्तशोणितं स्निग्धं मसणं स्वर्णगैरिकम् ॥ (मात्रा १-२ रत्ति ।) गेरु दो प्रकारका होता है (१) पाषाण | गोमूत्रसिद्धमण्डूरम् (वं. से.; च. द.) गैरिक और (२) स्वर्ण गैरिक। चूर्ण प्रकरण में देखिए पाषाण गैरिक कठोर (सख्त) और तांबेके (१५८२) गोमेदगुणाः (र. प्र. सु. । अ. ९) रंगका होता है तथा स्वर्ण गैरिक अत्यन्त लाल, गोमेदकं पित्तहरं प्रदिष्टं स्निग्ध और कोमल तथा चिकना होता है। पाण्डुक्षयघ्नं कफनाशनश्च । (१५८०) गैरिकशोधनम् संदीपनं पाचनमेव रुच्य मत्यन्तबुद्धिप्रविवोधनश्च ॥ (र. र. स. । पूर्व खं. अ. ३) गोमेद मणि पित्त, पाण्डु, क्षय और कफ गैरिकं तु गवांदुग्धैर्भावितं शुद्विमृच्छति । नाशक तथा दीपन पाचन, रोचक और अत्यन्त गैरिकं सत्वरूपं हि नन्दिना परिकीर्तितम् ॥ | बुद्धिवर्द्धक है। गोदुग्धकी भावना देनेसे ही गेरु शुद्ध हा | (१५८३) गोमेदलक्षणम् (र.प्र.सु. ।अ.७) जाता है। गोमेदकं रत्नवरं प्रदिष्टं श्री नन्दीका कथन है कि गेरु सत्व रूप | गोमेदवद्रागयुतं प्रवक्षेत । हो होता है (अतएव उसका सत्वपातन नहीं सुस्वच्छगोमूत्रसमानवर्ण । किया जाता ।) गोमेदकं शुद्धमिहोच्यते खलु ॥ भा० १५ For Private And Personal Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि दीप्तं स्निग्धं निर्दलं मसृणं वै श्री गोरक्षनाथ कथित इस गोरक्षवटीको मुखमें मूत्रच्छायं स्वच्छमेतत्समश्च । रखनेसे स्वरभङ्ग ( गला बैठना ) रोग अवश्य नष्ट एभिर्लिङ्गैर्लक्षितं वै गरीयः होता है। ___ सर्वेषु कार्येषु नियोजनीयम् ॥ (१५८५) गौडो रसः ( र. र.। शू० ) विच्छायं वा चिप्परं निष्पमं च शुद्धं मूतं मृतं तीक्ष्णं गन्धं भागसम्मितम् । रूक्षं चाल्पं चाहतं पाटलेन । चूर्ण तयोर्भावयित्वा शतावर्या रसेन च ॥ निर्भार वा पीतकाचाभयुक्तं धाच्या गुडूच्यास्त्रिदिनं खल्वे मद्य पुनःपुनः। __ गोमेदं चेदीदृशं नो वरिष्ठम् ॥ गुञ्जाचतुष्टयं खादेत् घृतेन मधुना पयः॥ . गोमेद मणि एक श्रेष्ट रत्न है जो गोमेदके अनुपानं पिबेत्याज्ञः सर्वशूलनिवारणम् । समान लाल होता है। स्वच्छ गोमूत्रके समान वर्ण वातरोगान् पित्तरोगान् कफरोगान् सुदुस्तरान्।। (रंग) वाली गोपेदमणि शुद्ध कही जाती है। त्वग्दोषदेहकार्यश्च दाहमुग्रं निवारयेत् । जो गोमेदमणि चमकीली, स्निग्ध, दल गौडो रसः समुद्दिष्टो बलवर्णाग्निवर्द्धनः ॥ ( परत ) रहित, मसृण (स्पर्शमें चिकनी साफ), शुद्ध पारद शुद्ध गंवक और तीक्ष्ण लोह गोमूत्रसदृश रंगवाली, स्वच्छ और समान ( जो | भस्म १-१ तोले लेकर दोनोंको शतावरी, आमला टेढी तिरच्छी न हो ) होती है वह उत्तम और और गिलोय के रसमें पृथक् पृथक् ३-३ दिन तक समस्त कार्योंके लिए उपयुक्त होती है। खरल कर लीजिए। धुंधली, चपटी, तेज ( ज्योति ) हीन, रूक्ष, इसे ४ रत्तीकी मात्रानुसार शहद और धीमें हल्की, और पीले काचके समान रंगवाली गोमेद मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे सर्व प्रकारके मणि निकृष्ट होती है। शूल; भयङ्कर वातज, पित्तज, और कफजरोग, (१५८४) गोरक्षवटी त्वग्दोष, शरीरकी कृशता, और प्रबल दाह नष्ट ( वृ. यो. त.। त. ८१; र. रा. सुं.; वै. र.; होती तथा बल, वर्ण और अग्निको वृद्धि होती है। यो. र.; र. चं. । स्वरभेद०) | (१५८६) गौरीपाषाणभेदाः रसभस्मार्कलोहस्य भावितस्य त्रिसप्तधा । ( आ. वे. प्र. । अ. १०) क्षुद्राफलरसैमुद्गतुल्या कार्या वटी शुभा ॥ गौरीपाषाणकः प्रोक्तो द्विविधः श्वेतपीतकः । मुखस्था हरते सर्व स्वरभङ्गमसंशयम् । . | श्वेतः शङ्कसदृक्पीतो दाडिमाभः प्रकीर्तितः ।। ४२ गोरक्षनाथैर्गदिता स्वरभेदे कृपालुभिः ॥ श्वेतः कृत्रिमकः प्रोक्तः पीतपर्वतसम्भवः। रससिन्दूर, ताम्र भस्म और लोह भस्म समान विषकृत्यकरौ तौ हि रसकर्मणि पूजितौ॥४३॥ भाग लेकर कटेलीके फलके रसमें २१ बार धोटकर, गौरीपाषाण ( संखिया ) दो प्रकारका होता मंगके समान गोलियां बना लीजिए। - है (१) श्वेत और (२) पीला । श्वेत गौरी For Private And Personal Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसप्रकरणम् ] पाषाण कृत्रिम और देखने में शङ्खके समान होता है तथा पीला पर्वतसे उत्पन्न होता है और रंगमें दाडिमके समान होता है । ( वृ. नि. र. र. रा. सुं. । संग्रह ) सुरभिपारदडिङ्गलचित्रकान् गगनभ्रष्टसुटङ्कणजातिकान् । कनकबीजमथातिविपाकटु www.kobatirth.org यह दोनों ही विष हैं और रस कर्ममें प्रयुक्त होते हैं । (१५८७) गौरीपाषाणशोधनम् ( आ. वे. प्र. । अ. ११ ) कम्पिल्लश्चपलो गौरीपाषाणो नवसादरः । हजारोथ सिन्दूरं साधारणरसाः स्मृताः ।। साधारणरसाः सर्वे मातुलुङ्गार्द्रकाम्बुना । त्रिवारं भाविताः शुष्का भवेयुर्दोषवर्जिताः ॥ कमीला, चपल, संखिया, नौसादर, अम्बर और सिन्दूर उपरस ( साधारण रस ) कहलाते हैं । समस्त उपरस बिजौरे नींबू और अदरक रस में घोटकर सुखा लेनेसे शुद्ध हो जाते हैं । १५८८) ग्रहणिकामदवारणसिंहः हरीत भस्मसुदीप्यकान् ॥ गरलबिल्वकलिङ्गकपित्थकान् नलदमोचकदाडिमघातकीः । जलदशाल्मलिपिच्छयुतान्समान् द्वितीयो भागः । कनकसाम्यमफेनमिदं दृढम् ॥ कनकपत्ररसैः परिमर्दयेत् मरिचमानवी मधुसंयुता । विनिहरेद्ग्रहणीगदमुत्कटं ज्वरयुतामसतीं च विषूचिकाम् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११५] For Private And Personal अग्निमान्यमथ शुलविबन्धं गुल्म शूलमथ पाण्डुममन्दम् । सरुधिराममतीव समुत्कटं ग्रहणिकामदवारणकेसरी ॥ शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा, हिङ्गुल, चीता, अभ्रक भस्म, सुहागेकी खील, जावित्री, शुद्ध धतूरे के बीज, अतीस, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) जङ्गी हैड़ (पीली हर्र ) की भस्म, अजवायन, विष, बेलगिरी, इन्द्रजौ, कैथ के फलका गूदा खस, केलेका फूल, अनारकी छाल ( अथवा कली ) धायके फूल, नागरमोथा, सेंभलका गोंद, और अफीम । इन सब ओषधियोंको समान भाग लेकर धतूरेके पत्तोंके रस में खरल करके काली मिर्च के समान गोलियां बनाकर शहद के साथ सेवन करनी चाहियें। इस " ग्रहणीकामदवारण सिंह रस से ज्वरयुक्त दुश्चिकित्स्थ संग्रहणी, दुष्ट विसूचिका, अग्निमांद्य, शूल, अनेक प्रकारके गुल्म, कठिन पाण्डुरोग, और रक्तसंयुक्त आमातिसार नष्ट होता है। (१५८९) ग्रहणीकपर्द पोटली (र.सा.सं.प्र.) कपर्दतुल्यं रसकन्तु गन्धकं लौहं मृतं टङ्कणञ्च तुल्यम् । जयारसे नैकदिनं विम चूर्णेन संवेष्टय पुटेच भाण्डे || ददीत तत्पोटलिकाभिधानं Tagधानां ग्रहणीं निहन्ति ॥ कौड़ी भस्म, पारद, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म और सुहागेकी खील समान भाग लेकर एक दिन भांगके रस में घोटकर टिकया बनाकर सुखा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [गकारादि लीजिए। तत्पश्चात् उसे दो शरावोंमें चूनेके बीचमें भस्म और मिर्चका चूर्ण २-२ भाग लेकर भली रखकर सम्पुट करके गजपुटमें फंक लीजिए। भांति खरल कर लीजिए। इस 'पोट्टलिका' रसके सेवनसे वातप्रधान इसका नाम ' ग्रहणीकपाटपञ्चानन ' रस है । संग्रहणी रोग नष्ट होता है। (१५९२) ग्रहणीकपाटरसः (र. चं. । ग्रह.) ( मात्रा–२-२ रत्ती । अनुपान तक । ) जातीफलं टङ्कणमभ्रकं च (१५९०) ग्रहणीकपाटको रसः धत्तूरबीजं समभागचूर्णम् । (यो. र. । प्र.) भागद्वयं स्यादहिफेनकस्य शुद्धैः कर्कवराटकैर्गणनया गन्धालिकापत्ररसेन मद्यम् । भल्लातकांस्तत्समान् । चणप्रमाणा वटिका विधेया मोतान् बब्बुलकण्टकैलघुपुटैः ____ यत्नाद्विदध्याद् ग्रहणीगदेषु । पक्त्वाविभागं रसम् ॥ सामेषु रक्तेषु सशूलकेषु लेलीतेन समं विचूर्ण्य जयया सप्तानुभाव्यं शिव ____ पकेष्वपक्केषु गुदामयेषु ॥ भोक्तोऽयं ग्रहणीकपाटकरसस्त्रैवल्लकस्त्वौषधैः।। रोगेषु दद्यादनुपानभेदैभल्लातक ( भिलावों ) को बबूलके कांटोंसे ___ मधुपयुक्ता ग्रहणीगदेषु । पथ्यं सदध्योदनमत्र देयं जगह जगहसे बींध लीजिए और फिर उनके बराबर रसोत्तमोऽयं ग्रहणीकपाटः ॥ (संख्यामें) शुद्ध कौड़ी और गन्धक लेकर तीनोंको जायफल, सुहागेको खील, अभ्रकभस्म, धतूरेके लघुपुटमें फूंक दीजिए। तत्पश्चात् उसमें चौथा भाग शुद्ध पारद और गन्धककी कजली मिलाकर भांगके बोज, १-१ भाग और अफीम २ भाग लेकर महीन चूर्ण करके कुकरौंधेके रसमें घोटकर चने रसकी सात भावना दीजिए । समान गोलियां बना लीजिए। इसे ३ वल्ल (६ रत्ती ) की मात्रानुसार यह गोलियां उचित अनुपानके साथ सेवन यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे संग्रहणी करनेसे साम ग्रहणी, रक्तग्रहणी, शूल, पक्क और रोग नष्ट होता है। अपक्क अतिसारका नाश होता है । (१५९१) ग्रहणीकपाटपश्चाननरसः साधारणतः ग्रहणीमें शहदके साथ खिलानी (र. का. धे. । ग्रह ) चाहिएं। पारदं गन्धकं भागं कपर्द मरिचं तथा। पथ्य-दही, भात ।। रसाद् द्विगुणमेकैकं चूर्ण कृत्वा तु मेलयेत् ॥ | (१५९३) ग्रहणीकपाटरसः (र.प्र.सु.।अ.८) युक्त्या कृतस्तु ग्रहणीकपाटमुखपश्चकः ॥ | तारं स्वर्ण माक्षिकं शुद्धलोहं शुद्ध पारा तथा गन्धक, १-१ भाग कौड़ी | भागं चैकं गन्धकं भागयुग्मम् । For Private And Personal Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] शुद्धं सूतं मारितं तत्त्रिभागं खल्वे सर्वे मदितं वासरैकम् ॥ सर्व योज्य हारि शृङ्गकेऽपि लेप्यं मृत्स्ना वाससा वेष्टितं च । वाराहाख्ये तत्पुटे गर्त्तमध्ये आरण्यैर्वै गोमयैः पाचयेद्धि || द्वितीयो भागः । उत्तार्यैनं स्वाङ्गशीतं प्रकुर्यात् खल्वे धृत्वा मर्दयेत्तं सुवैद्यः । पश्चादेनं रसेनाथ सम्यक् भृङ्गाह्वया भावयेत्सप्तवारान् ॥ चूर्ण दत्वा लोप्रमुस्तामदाह्न - च्छिना पाठा शक्रबीजोद्भवञ्च । कापित्थैर्वा स्वरसैः सुभृतैर्वा भाव्यं स त्रीणि वाराणि सम्यक् ॥ सम्यक शुष्कं गालितं वत्रखण्डे माषं चैकं लेहितं माक्षिकेण । कृष्णा चूर्णैर्माषयुग्मैश्च युक्तं हन्याच्चायं ग्रहणीं त्रिदोषजां वै ॥ चांदी भस्म, सोना भस्म, सोना मक्खी भस्म, और लोह भस्म एक एक भाग गन्धक २ भाग, पारदभस्म, ( रससिन्दूर ) ३ भाग लेकर सबको १ दिन अच्छी तरह खरल करके हरिणके सींगमें भर दीजिए और उसके ऊपर कपड़े मिट्टी करके अरने उपलों में वराहपुटमें फूंक दीजिए । तत्पश्चात् स्वाङ्ग शीतल होने पर निकालकर चूर्ण करके उसे भांगके स्वरसकी ७ भावना दीजिए और फिर उसमें लोध, मोथा, कस्तूरी, गिलोय, पाठा और इन्द्रजौका चूर्ण एक एक भाग मिलाकर कैथके [ ११७] स्वरस या काकी तीन भावना देकर सुखाकर कपड़े से छान लीजिए । इसे १ माशेकी मात्रानुसार २ मा. पीपलके चूर्ण और शहद में मिलाकर सेवन करने से त्रिदोषज संग्रहणका नाश होता है । (१५९४) ग्रहणीकपाटरसः (र.सा.सं.। ग्रह.) रसाभ्रगन्धान्क्रमवृद्धियुक्तान् जङ्गारसेन त्रिदिनं विमर्थ । जयन्ति भृङ्गलम्बिनी रे दिनं यवक्षारसटङ्कणश्च ॥ सिवा तु गन्धस्य च तुल्यभागं वातारितैलेन युतं पुटिखा । गुडूचिकाशाल्मलिकारसेन Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जया रसेनापि विम शाणम् ॥ मरीचसार्द्ध मधुना समेतं ददीत पथ्यं दधिभक्तकच्च || शुद्ध पारद १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग और शुद्ध गन्धक ३ भाग लेकर सबको ३ दिन तक काकजंघा के रस में घोटकर १-१ दिन जयन्ती भांगरा और पौदीनेके रसमें घोटिये; तत्पश्चात् उसमें ३ - ३ भाग जवाखार और सुहागेकी खील मिलाकर अरण्डीके तैलमें घोटकर यथाविधि सम्पुट करके गजपुटमें फूंक दीजिए और फिर गिलोय, सेंमल, और भांगके रसमें पृथक् पृथक् खरल कर लीजिए । इसे ४ माशेकी मात्रानुसार ( २ तोला ) शहद और ( १ माशा ) पीपल के चूर्णके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी रोग नष्ट होता है । पथ्य - - दही भात | For Private And Personal Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि YNONVvvvvvvvvvvive vvvvvvvvvvvv www.univvvvvvvvvvvvvvvwarntvni ( व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती ।) निष्क (प्रत्येक ५ माशे) और कौड़ी भस्म ५ निष्क (१५९५) ग्रहणीकपाटरसः तथा शुद्ध गन्धक २ निष्क लेकर प्रथम पारे (र. रा. सुं.; र. का.; र. चं. । ग्र.; यो. त. । त. | गन्धककी कजली बनाकर अन्य समस्त ओषधियों २२; वृ. यो. त. । त. ६७ ) का चूर्ण मिलाकर जम्बीरी नीम्बूके रसमें घोटकर शुद्धाहिफेनवलिमूतकपर्दभस्म । टिकिया बना लीजिए और सम्पुटमें बन्द करके हालाहलोषणविशुद्धसुवर्णबीजैः। गजपुटको आधे भार (२॥ मन ) उपलों (कण्डों) अम्भोधिपतिकरशैलधराष्टविंश से भरकर उसके बीचमें उस पुटको रख कर अग्नि त्यशैविचूर्णिततमैग्रहणीकपाटः ॥ लगा दीजिए । स्वांग शीतल होने पर औषधको बल्लो:स्य हन्ति मधुना सह जीरकेण । | चूर्ण कर लीजिए। भुक्तोऽतिसारमपि संग्रहणीमुदग्रम् ।। इसे ( ८ रत्तीकी मात्रानुसार शहद में मिलाआमं विपाच्य सहसा जनयत्यवश्यं | कर ) सेवन करनेसे ग्रहणी, गुल्म, क्षय, कुष्ठ और वैश्वानरं जठरमातिनमार्तिभाजम् ।। प्रमेह रोग नष्ट होता है। शुद्ध अफीम, ४ भाग शुद्ध गन्धक, १० । (१५९७) ग्रहणीकपाटरसः(वज्रकपाटरसः) भाग; शुद्ध पारा, २ भाग कौड़ी भस्म, ७ भाग | (र. चं.; र. सा. सं.; यो. र.; र. रा. सुं. । ग्र.; बछनाग विष ( शुद्ध), १ भाग, स्याह मिर्च, ८ र. मं. । अ० ६; रसें. चि. म. । अ० ९ भाग, शुद्ध धतूरेके बीज २० भाग लेकर महीन र. का. धे.) चूर्ण कर लीजिए। | तारमौक्तिकहेमानि सारश्चैकैकभागिकाः । ___ इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार शहद और ( ३ | द्विभागो गन्धकः मूतस्त्रिभागो मर्दयेदिमान् ।। माशे ) जीरेके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे भयङ्कर | कपित्थस्वरसैर्गाढं मृगशृङ्गे ततः क्षिपेत् । अतिसार और ग्रहणी तथा आम नष्ट हो कर | पुटेन्मध्यपुटेनैव तत उद्धृत्य मर्दयेत् ॥ अग्निदीप्त होती है। बलारसैः सप्तवेलमपामार्गरसैविधा। (१५९६) ग्रहणीकपाटरसः ( र.सा.सं.।ग्र.) लोभ्रं प्रतिविषामुस्तधातकीन्द्रयवामृता ॥ तुल्यं कान्तं रसं तालं माक्षिकं टङ्कणन्तथा। प्रत्येकमेतत्स्वरसैर्भावना स्यात्रिधा त्रिधा । सपादनिष्कं प्रत्येकं पञ्चनिष्कं वराटकम् ॥९०॥ माषमात्रो रसो देयो मधुना मरिचैस्तथा ॥ द्विनिष्कं गन्धकं सर्व पिष्ट्वा जम्बीरजैद्रवैः।। हन्यात्सर्वानतीसारान् ग्रहणी सर्वजामपि । अर्धभारकरीषेण पुटितं भस्मशोभनम् ॥ कपाटो ग्रहणीरोगे रसोयं वह्निदीपनः॥ प्रदद्यादग्रहणीगुल्मक्षयकुष्ठप्रमेहके ॥ ९१॥ चांदी भस्म, मुक्ता भस्म, स्वर्ण भस्म, और __कान्तिसार लोहभस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध लोह भस्म १-१ भाग तथा शुद्ध गन्धक २ भाग हरताल, सोनामक्खी भस्म, और सुहागा सवा सवा और शुद्ध पारद तीन भाग लेकरे सबको एकत्र For Private And Personal Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ११९] - - खरल करके कैथके रसमें धोटिए और फिर उसे वातोत्तरायां मरिचाज्ययुक्तः हरिनके सींगमें भरकर उसके ऊपर कपर मिट्टी पित्तोतरायां मधुपिप्पलीभिः ॥ करके मध्य पुटमें फूंक दीजिए और स्वांग शीतल कफोत्तरायां विजयारसेन होनेपर कपर मिट्टीको अलग करके (सींग समेत) __ कटुत्रयेणाज्ययुतो ग्रहण्याम् । पीस लीजिए । तत्पश्चात् उसे खरैटीके रसकी ७ क्षये ज्वरे चार्शसि षट्प्रकारे भावना, और चिरचिटा, लोध, अतीस, मोथा, | - भगन्दरे चारुचिपीनसे च ।। धायके फूल, इन्द्रजौ और गिलोयके काथकी ३- मेहे च कृच्छ्रे गतधातुवर्धने ३ भावना देकर चूर्ण करके रख लीजिए। गुज्जाद्वयश्चास्य महामयन्नम् ।। ___ यह " ग्रहणी कपाट " रस अग्निदीपक और मोती, सोना, पारा, गन्धक, सुहागा, अभ्रक सर्व प्रकारके अतिसार तथा संग्रहणी रोगनाशक है। भस्म, और कौली १-१ भाग और शंख ७ भाग नोट-सं. १५९३ और इसमें बहुत थोड़ा अन्तर | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए है । दोनो योग लगभग समानही हैं। तत्पश्चात् अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर और मात्रा----१ माशा । अनुपान शहद (२ ! अतीसके कामें धोटकर गोला बना लीजिए, फिर तो० ) और मिर्चका 'चूर्ण ( १ माषा ) उसे सम्पुटमें बन्द करके ( वालुकायन्त्रमें ) ___व्यवहार-१-१ माशा औषध ३ बार खानी आधे दिनकी अग्नि दीजिए। स्वांग शीतल होनेपर चाहिए। औषधको निकालकर लोहपात्रमें डालकर एक एक (१५९८) (संग्रह) ग्रहणीकपाटरसः(वृहद)। भावना धतूरा, चीता और मूसलीके रसकी दीजिए। र. सा. सं.; र. रा. सुं.; र. चं.; भै. र. । ग्रह.; बस ग्रहणीकपाटरस तैयार है। र. मं. । अ. ६) इसे वातप्रधान ग्रहणीमें मिर्चके चूर्ण और घोके साथ, पित्तज ग्रहणीमें शहद और पीपलके मुक्तासुवर्ण रसगन्धटङ्क-- चूर्णके साथ तथा कफज संग्रहणीमें भांगके रस, ____मकपर्दी रसतुल्यभागः। त्रिकुटेके चूर्ण और धीके साथ सेवन कराना चाहिए.। सर्वैस्समं शकचूर्णमिष्टं इसके सेवनसे क्षय, ज्वर, ६ प्रकारकी बवाखल्ले च भाव्योऽतिविषाद्रवेण ॥ सीर, भगन्दर, अरुचि, पीनस, प्रमेह, मूत्रकृच्छू, गोलश्च कृत्वा मृदुकर्पटस्थं और धातुक्षयादि रोगोंका नाश होता है। ___ सम्पाच्य भाण्डे दिवसाधकञ्च । मात्रा--२ रत्ती। सर्वाङ्गशीते रस एष भाव्यो (१५९९) ग्रहणीकपाटो रसः धुस्तूरवनिमुषलीद्रवैश्च ॥ (र. रा. सु.; र. चं. । ग्रह.) लौहस्य पात्रे परिभावितश्च श्वेतसर्जस्थ शुद्धस्य गन्धकस्य रसस्य च । सिद्धो भवेत्स ग्रहणीकपाटः। | शुभेऽह्नि पृथगादाय चूर्ण माषचतुष्टयम् ॥ For Private And Personal Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि एकीकृत्य शिलाखल्ले दद्यात्तेषान्तदा रसम् । और गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् सूर्यावर्त्तस्य विल्वस्य शृङ्गाटस्य च पत्रजम् ॥ अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर नीबूके रसमें धोटप्रत्येकं पलमेकैकं दापयेद् ग्रहणीगदे। कर गोलियां बना लीजिए। दापयेत्सततो यत्नाद् दधिभक्तं समाचरेत् ॥ इसे प्रातःकाल आधे माषेकी मात्रानुसार असंवृत्तगुदद्वारं कपाटमिव ढकयेत् । शहद, शंखभस्म, धी और मिर्च के चूर्णके साथ अतश्च ग्रहणीरोगकपाटोऽयं रसस्मृतः ॥ सेवन करनेसे २-३ मात्रामें ही सर्व प्रकारके अति___ सफेद राल, शुद्र गन्धक और शुद्ध पारा सार, ग्रहणी, ज्वर, शूल, अग्निमांद्य, अरुचि, और ४-४ माशे लेकर घोटकर खरल कर लीजिए और आमवात रोग नष्ट हो जाते हैं। फिर उसमें हुलहुल, बेलपत्र और सिंघाड़ेके पत्तों। (१६०१) ग्रहणीकपाटो रसः का १-१ पल रस डालकर खूब खरल कीजिए। (र. रा. सु.; र. सा. सं. । ग्रह.) इसे नित्य प्रति सेवन करनेसे प्रबल संग्रहणी । गिरिजाभवबीजकज्जली रोग नष्ट होता है। पथ्य-दहीभात। (मात्रा- परिमर्यादरसेन शोषिता। २-३ रत्ती) कुटजस्य तु भस्मनापुनस्तु (१६००) ग्रहणीकपाटो रसः द्विगुणेनाथ विमर्थ परिमिश्रिता ॥ (र. रा. सुं.; यो. र. । संप्र., र. र. स.। खं ३ अ. १६ मर्दयित्वा प्रदातव्यं सम्यग्गुञ्जाचतुष्टयम् । वृ. यो. त. । ६७ त.) अजाक्षीरेण दातव्यं काथेन कुटजस्य वा ॥ रसेन्द्रगन्धातिविषाभयाभ्र यूषं देयं ममूरस्य वारिभक्तश्च शीतलम् । क्षारद्वयं मोचरसं वचा च । दनासह पुनर्देयं ग्रासादौ रक्तिकाद्वयम् ॥ जैपालजम्बीररसेन घृष्टः वर्द्धयेदशपर्यन्तं हासयेत्क्रमशस्तथा। पिण्डीकृतः स्याद् ग्रहणीकपाटः॥ | निहन्ति ग्रहणीं सर्वा विशेषात् कुक्षिमार्दवम् ॥ अस्थार्धमासं मधुना प्रभाते शुद्ध पारा और गन्धक समान भाग लेकर शम्बूकभस्माज्यमरीचयुक्तम् । कजली करके अद्रकके रसमें घोटकर सुखा लीजिए सर्वातिसारं ग्रहणीं ज्वरं च और फिर उसमें दोगुनी कुड़ेकी छालकी भस्म . शूलानिमान्यं च धरोचकश्च ॥ मिलाकर भली भांति खरल कर लीजिए। निहन्ति सद्यश्च तथामवातं इसे ४ रत्तीकी मात्रानुसार बकरीके दूध या द्वित्रिप्रयोगेन रसोत्तमोयम् ॥ कुडेकी छालके काथके साथ सेवन करना चाहिए, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अतीस, हर्र, अभ्रक अथवा प्रथमदिन भोजनके समय प्रथम ग्रासमें भस्म, जवाखार, सजीखार, मोचरस, बच और २ रत्ती औषध खाकर ऊपरसे दही पिएं और फिर जमालगोटा (शुद्ध) समान भाग लेकर प्रथम पारे । प्रतिदिन १-१ रत्ती मात्रा बढ़ाते हुवे १० रत्ती For Private And Personal Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१२१] - - - - vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv तक पहुंचने तक इसी प्रकार सेवन करते रहें और | गन्धकको कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य फिर प्रतिदिन १-१ रत्ती घटाकर सेवन करें। औषधों का चूर्ण मिलाकर खूब खरल कीजिए इसके सेवनसे सर्व प्रकारका ग्रहणीरोग नष्ट होता है। और फिर उसमें हुलहुल, बेलपत्र, और सिंघाड़ेके (१६०२) ग्रहणीकपाटो रसः (र.रा.सु. ।ग्र.)। पत्तोंका ५-५ तोले स्वरस मिलाकर तेज धूपमें रख दरदं गन्धपाषाणं तुगाक्षीाहिफेनकम् । दीजिए और सूखनेपर गोलियां बना लीजिए। तथा वराटिकाभस्म सवे क्षारण मद्देयेत् ॥ इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार बेलपत्रके रसके रक्तिकायुग्ममानेन छायाशुष्कां वटीं चरेत् । साथ सेवन करने और दहीभात खानेसे ग्रहणी रोग ग्रहणीं विविधां हन्ति रक्तातीसारमुल्वणम् ॥ नष्ट होता है। ____ शुद्ध हिंगुल (शंगरफ़), शुद्ध गन्धक, बंस- ___यह गोलियां पाण्डु, अतिसार, शोथ और लोचन, अफीम और कौड़ी भस्म समान भाग ज्वरका भी नाश करती हैं। लेकर सबको दूधमें घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां (१६०४) ग्रहणीकपाटो रसः बनाकर छायामें सुखा लीजिए। (भै. र.; र. सा. सं.; र.रा. सुं.; धन्व. । ग्रह०) इनके सेवनसे अनेक प्रकारकी संग्रहणी और रक्तातिसार नष्ट होता है। टङ्कणक्षारगन्धाश्मरसं जातीफलन्तथा । तथा खदिरसारश्च जीरकं श्वेतधूनकम् ॥ (१६०३) ग्रहणीकपाटो रसः कपिहस्तकबीजश्च तथैव वकपुष्पकम् । (भै. र.; र. सा. सं,. र. र., र. रा. सुं. । ग्रह.) | एषां शाणं समादाय श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् रसगन्धकयोश्चापि जातीफललवङ्गयोः।। | बिल्वपत्रककासिफलं शालिश्च दुग्धिका । प्रत्येकं शानमानश्च श्लक्ष्णचूर्णीकृतं शुभम् ।। । शालिश्च मूलं कुटजत्वचः कश्चटपत्रजम् ।। मूर्यावर्तरसेनैव बिल्वपत्ररसेन च । सर्वेषां स्वरसेनैव वटिकां कारयेद्भिषक् । शृङ्गाटकस्य पत्राणां रसैः प्रत्येकशः पलैः ॥ रक्तिकैकप्रमाणेन खादयेदिवसत्रयम् ॥ चण्डातपेन संशोष्य वटिकां कारयेद्भिषक् । दधिमस्तु ततः पेयं पलमात्रप्रमाणतः। बिल्वपत्ररसेनैव दापयेद्रक्तिकाद्वयम् ॥ अपि योगशताक्रान्तां ग्रहणीमुद्धताञ्जयेत् ।। दना च भोजनीयञ्च ग्रहणीरोगनाशनः। । आमशूलं ज्वरं कासं श्वासं शोथं प्रवाहिकाम् । पाण्डुरोगमतीसारं शोथं हन्ति तथा ज्वरम् ।। | रक्तस्रावकरं द्रव्यं कार्य नैवात्र युक्तितः॥ ग्रहणीकपाटनामा रसः परमदुर्लभः॥ सुहागेकी खील, जवाखार, शुद्ध गन्धक, शुद्ध शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, जायफल और लौंग पारा, जायफल, खैरसार, जीरा, सफेद राल, कौचके १-१ शाण (४ माशे) लेकर प्रथम पारे और बीज और अगथियाके फूल बराबर बराबर लेकर १ बिल्वं । २ च मधुलिका । ३ तथा चोरकपुष्पकमिति पाठान्तराणि । भा०१६ For Private And Personal Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् | अजवायन २-२ भाग, काला नमक ४ भाग और अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर भली भांति खरल | इन सबके समान कौड़ी भस्म लेकर प्रथम पारे कीजिए और उसे बेलपत्रके रस, कपासके काथ, गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य शालि धानके काथ, दूधी, शालीशाककी जड़, औषधोंका चूर्ण मिलाकर खरल कीजिए । कुडेकी छाल और जलपीपलके पत्तोंके रसकी एक इसे नित्य प्रति तक्रमें मिलाकर सेवन करनेसे एक भावना देकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना ग्रहणी रोग नष्ट होता है । (मात्रा–३-४ रत्ती।) लीजिए। (१६०६) ग्रहणीगजकेसरी रसः _इन गोलियोंको ३ दिन तक १ पल (५ तोले) ( वृ. नि. र.; यो. र ; र. चं.; वै. र. । संग्र.; दधि मस्तुके साथ सेवन करनेसे सैंकड़ों औषधोंसे शान्त न होने वाली प्रबल संग्रहणी भी नष्ट हो व वृ. यो. त. । त. ६७ ) जाती है। गन्धं पारदमभ्रकं च दरदं लोहश्च जातीफलम् । | बिल्वं मोचरसं विषं प्रतिविषं व्योपं तथाधातकी॥ यह, आम, शूल, ज्वर, खांसी, श्वास, शोथ | और प्रवाहिकाका नाश करती हैं। भङ्गामप्यभयां कपित्थजलदौदीप्यानलौदाडिमम् , ग्रहणी रोगमें रक्तस्रावक पदार्थोंसे परहेज़ टङ्काद्भस्मकलिङ्गकान्कनकज वीजं च यक्षेक्षणम् । | एतत्तुर्यमफेनमेतदखिलं संमद्य संचूर्णयेत । करना चाहिए। धत्तूरच्छदजै रसैःसुमतिमान्कुर्यान्मरीचाकृतिम् ।। (१६०५) ग्रहणीकपाटो रसः : दत्ता सा ग्रहणीगदं सरुधिरं सामं सशूलं चिरा(र. रा. सु. वै. र.; वृ. नि. र. । संग्रहणी) तीसारं विनिहन्ति जति सहितांतीत्रांविशचीमपि पारदाद्विगुणो गन्धस्ताभ्यां तुल्यं कटुत्रिकम्। साध्यासाध्यमपि स्वयं परिहरेदुक्तानुपानैरपि । अजाजी टकणं धान्यं हिङ्गजीरयवानिका ॥ नाना तु ग्रहणीमतङ्गजमदध्वंसीभकण्ठीरवः ।। प्रत्येक द्विगुणं सूताचकश्च चतुर्गुणम् । शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, सर्वेषाञ्च समा देया दग्धा सुज्ञैर्वराटिका ॥ | हिङ्गुल ( शंगरफ) लोह भस्म, जायफल, बेलगिरी, सर्व एकीकृतं चूर्ण माषमात्रमितं ततः। | मोचरस, मीठा तेलिया (शुद्र ), अतीस, सोंठ, तक्रणालोडय.मतिमान् भक्षयेत्सततं नरः॥ | मिर्च, पीपल, धायके फूल, भांग, हर्र, कैथका गूदा, ग्रहणीकपाटको ह्येष हितः स्याद् ग्रहणीगदे॥ | नागरमोथा, अजवायन, चीता, अनार, सुहागेकी शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, खील, इन्द्रजौ, धतूरेके बीज ( शुद्ध ) और राल त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल)) ३ भाग, और जीरा, समान भाग तथा अफीम इन सबसे चतुर्थांश -सुहागेकी खील, धनिया, हींग, काला जीरा तथा | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए १ भृष्टामप्येति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [ १२३ vvvunnrvinv - - rwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर बल्लेन प्रमितश्चायं रसः शुण्ठ्या घृताक्तया। धतूरेके पत्रस्वरसमें खरल करके गोल मिर्चके | सेवितो ग्रहणी हन्ति सत्संग इव विग्रहम् ॥ समान गोलियां बना लीजिए । पथ्यमत्र प्रदातव्यं स्वल्पाज्यं दधितकयुक् । इनके सेवनसे रक्त, शूल और आम संयुक्त हितं मितं च विशदं लघु ग्राहि रुचिपदम् ॥ ग्रहणी, पुराना अतिसार और पीडायुक्त भयङ्कर पाचनो दीपनोऽत्यर्थमामघ्नो रुचिकारकः । विसूचिका नष्ट होती है। तत्तदोषधयोगेन सर्वातीसारनाशनः ॥ ___ ( मात्रा २ रत्ती। अनुपान----जायफलका बनात्यपि मलं शीघ्रं नाध्मानं कुरुते नृणाम् ॥८३।। पानी ।) नोट-वैद्य रहस्यमें इसका नाम “ग्रहणी कपाट" है। __ शुद्ध पारा और गन्धक १-१ भाग लेकर (१६०७) ग्रहणीगजकेसरी रसः | कजली बना लीजिए और उसे लोहेकी कढाइमें ( र. र. स. । उ. खं. अ. १६) डालकर अग्निपर पिघलाकर उसमें १-१ भाग रसगन्धकयोः कृत्वा कज्जली तुल्यभागयोः। कोड़ी भस्म, सोनामक्खी भस्म और शुद्ध गन्धकद्रावयित्वायसे पात्रे रसतुल्यं विनिक्षिपेत ॥७२॥ चूर्ण डालकर लकड़ीसे भली भांति मिलाकर केलेके चराचरभवं भस्म तत्र माक्षिकसम्भवम् । । पत्रपर ढाल कर पर्पटी बना लीजिए । तत्पश्चात् गन्धपाषाणसहितं पात्रेलोहमये क्षिपेत ॥७२॥ १-१ भाग पारा गंधक, सोना भस्म और आधा तत्काष्ठेन विलोड्याथ निक्षिपेत्कदलीदले। भाग कौड़ी भस्मकी कजली बनाकर पुनः पिघलाकर स्वर्ण समांशकं कृत्वा रसेनार्धाशिकं क्षिपेत्॥७३॥ उपरोक्त विधिसे पर्पटी बना लीजिए । अब इन दोनो चराचरभवं भस्म गन्धपाषाणसाधितम । पर्पटियोंको लोहेके खरलमें पीसकर १ कर्ष (१। तोला) तत्काष्ठेन विलोड्याथ निक्षिपेत्कदलीदले॥७४॥ सोनामक्खी भस्म और १ पल (५ तो.) निश्चन्द्र तत आच्छाद्य संचयॆ विधायाऽऽयसभाजने। अभ्रक भस्म और मीठा तेलिया, अतीस, कटेली, अक्षमात्र क्षिपेद्भस्म तत्र माक्षिकसम्भवम् ॥७५॥ मोचरस और जीरेका समभाग मिश्रित चूर्ण उपसम्यनिश्चन्द्रतां नीतं व्योमभस्मपलोन्मितम् । रोक्त समस्त औषधसे आधा मिलाकर खरल करके विषं विषा च गान्धारी मोचरसं सजीरकम् ॥७६ अरनी, जलपीपल, गुञ्जा, असगन्ध और पञ्चकोलके सर्व समांशिकं कृत्वा रसे चार्धाशिकं क्षिपेत । रसकी भावना देकर सुखाकर सुरक्षित रखिए । सर्वमेतन्मर्दयित्वा भावयेदतियत्नतः ॥७७॥ । श्रीनन्दिकथित अमृतोपम इस ग्रहणी गज. जयन्त्या च महाराष्ट्रया गञ्जाकिन्याऽश्वगन्धया। केसरी रसको २ रत्तीकी मात्रानुसार घीमें भुनी पञ्चकोलकषायैश्च कुर्याचूर्ण ततःपरम् ॥७८॥ हुई सोंउके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे ग्रहणी रोग इति सिद्धो रसःसोऽयं ग्रहणीगजकेसरी। इस प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार सत्संगसे नामतो नन्दिनाप्रोक्तः कर्मतश्च सुधासमः॥७८॥ विग्रह । For Private And Personal Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१२४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि इसके सेवन कालमें स्वल्पवृतयुक्त दही भात । वीर्यबलं नृणांवितनते व्याधीभपश्चाननः॥ और तक्रका सेवन करना चाहिए तथा हितकारी, १ भाग शुद्ध पारद और ४ भाग शुद्ध परिमित, विशद, लघु, ग्राही और रोचक पदार्थ गन्धककी कजली करके उसे महामण्डूकी, ब्राह्मी, खाने चाहिएं। .. धतूरा, कलिहारी, तुलसी, कसौंदो और कन्दूरीके यह अत्यन्त पाचन, दीपन, आमनाशक, रसमें २ दिन तक घोटकर गोला बना लीजिए रुचिकारक, और अनुपान भेदसे सर्व प्रकारके और उसे बालुका यन्त्रमें पकाइये तथा पकते अतिसारोंका नाश करनेवाला है। समय उसमें उपरोक्त ओषधियोंका रस डालते रहिए इसके सेवनसे मल अत्यन्त शीघ्र कठिन हो और फिर एक लघु पुट देकर उसमें १६वां भाग जाता है और अफारा भी नहीं होता । सोंठ, मिर्च, पीपल और सुहागेका चूर्ण मिलाइये । (१६०८) ग्रहणीगजपञ्चाननरसः ___इसे ४ कल ( ८ रत्ती )की मात्रानुसार (र. का. धे. । ग्रह० ) मिश्रीके साथ सेवन करनेसे त्वग्दोष, भूतबाधा, मृतःस्वीयचतुर्गुणेन बलिना युक्तःमहामण्डुकी। कृमि तथा प्रायः अन्य समस्त रोग नष्ट होजाते हैं। ब्राह्मीकाञ्चनलागलीहरिवधूकासन्नबिम्बीद्रवैः॥ . लालविकालिखी इसे मुनिवर बुद्धदेवका पूजन करनेके पश्चात् पिष्टवा वासरयुग्ममेव पचितं तदगोलकं बालुका। सेवन कराना चाहिए । इसके सेवनसे स्वर्ण सदृश यन्त्रेभाण्डगते तदौषधरसंदखामहःशोषितम॥ कान्ति और भीमके समान बल तथा वीर्यादि प्राप्त पश्चादल्पपुटं ददीत च कलांशं त्र्यूषणं टङ्कणम् । होता है । देयं बल्लचतुष्टयश्च सितया त्वग्दोषभूतकृमीन् ॥ पथ्य-भात, मिश्री, गोमूत्र, घृत, तैल, दही हित्वा वै सकलान् गदान विजयते प्रायः और लघु भोजन । औषध पच जानेपर मंगका प्रयोगादयम् । यूष आर मिश्री तथा पित्तनाशक पदार्थ खिलाने श्रीबुद्धाचनपूर्वकं मुनिवरं कृत्वा भिषग्योजयेत॥ चाहिएं। पथ्यभक्तसितासमूत्रयमलैर्दना च देयं लघु । ___ अपथ्य-पित्तवर्द्धक पदार्थ, मांस और जीरा । क्षीणे मुद्गरसःसिता समुचिता कार्या च (१६०९) ग्रहणीगजेन्द्रवटिका . शान्ता क्रिया॥ (भै. र.; र. च.; र. सा. सं.; र. र. । ग्र. चि.) त्याज्यं पित्तलमात्रमत्र निखिलं मांसं च रसगन्धकलोहानि शङ्खटङ्कणरामठम् । . जीरं सदा। शटीतालीसमुस्तानि धान्यजीरकसैन्धवम् ॥ त्याज्यं स्वस्थवतां विशुद्धवपुषां घस्रत्रयम् धातक्यातिविषा शुण्ठी गृहधूमो हरीतकी । सेवितं ॥ भल्लातकं तेजपत्रं जातीफललवङ्गकम् ।। कान्ति काश्चनसभिभां किलबलं भीमस्य त्वगेलाबालकं बिल्वं मेथी शक्राशनस्य च । तुल्यं च तत्पुष्टिं । रसैःसमर्थ वटिका रसवैयेन कारिता ॥ For Private And Personal Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १२५] गहनानन्दनाथेन भाषितेयं रसायने । यामाधै गोलकं स्वेद्यं मन्देन पावकेन च । ग्रहणीगजेन्द्रसंज्ञेयं श्रीमता लोकरक्षणे ॥ शीते जयारससमं शाल्मलीविजयाद्रवैः ॥ ग्रहणी विविधां हन्ति ज्वरातिसारनाशिनी। भावयेत्सप्तधा वज्रकपाटःस्याद्रसोत्तमः। शूलगुल्माम्लपित्तांश्च कामलां च हलीमकम् । माषद्वयं त्रयं वास्य मधुना ग्रहणीञ्जयेत् ॥ बलवर्णाग्निजननी सेविता च चिरायुषे ।। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, जवाखार, जयन्ती, कण्डू कुष्ठं विसर्पश्च गुदभ्रंशं कृमिञ्जयेत् ॥ बच, अम्रक भस्म और सुहागेकी खील बराबर माषद्वयां वटी खादेच्छागीदुग्धानुपानतः। बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धकको धोटकर कजली वयोग्निबलमावीक्ष्य युक्त्या वा त्रुटिवद्धन ॥ बना लीजिए, तत्पश्चात् उसे ३ दिन तक जयन्ती, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, शंख भांगरा और जम्बीरी नीबूके रसमें धोटकर गोला भस्म, सुहागेकी खील, हींग, कचूर, तालीसपत्र, बना लीजिए और उसे (पानों में लपेटकर) हांडी नागरमोथा, धनिया, जीरा, सेंधा, धायके फूल, में रखकर आधा पहर तक मन्दाग्निसे स्वेदित अतीस, सोंठ, घरका धुवां, हर्र, शुद्ध भिलावा, तेजपात, कीजिए और फिर स्वांगशीतल होजाने पर निकाल जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची नेत्रबाला, कर जया, संभलकी जड़ और भांगके रसकी ७-७ बेलगिरी और मेथी समान भाग लेकर प्रथम पारे भावना दीजिए। गन्धककी कजली कर लीजिए तत्पश्चात् उसमें यह “ग्रहणी वज्र कपाटरस' २-३ माशेकी अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर इन्द्रजौके काथमें मात्रानुसार शहदके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी घोटकर गोलियां बना लीजिए । रोगको नष्ट करता है। ___ श्री गहनानन्दनाथ कथित यह " ग्रहणी (१६११) ग्रहणीवनकपाटरसः(र.का.धे.प्र.) गजेन्द्र वटिका " २ माघे या अग्नि बलानुसार रसभस्माभ्रकं गन्धं टङ्कणविजया वचा । न्यूनाधिक मात्रानुसार बकरीके दृधके साथ सेवन यवक्षारं समं सर्व मर्दयेन्मार्कवद्रवैः॥ करनेसे अनेक प्रकारका ग्रहणीरोग, ज्वरातिसार, जीरकस्य रसैमी दिनैकं तं च गोलकम् । शूल, गुल्म, अम्लपित्त, कामला, हलीमक, कण्डू शोषयित्वा पचेलोहपात्रे दण्डचतुष्टयम् ॥ ( खाज ), कुष्ठ, विसर्प, गुदभ्रंश और कृमिका नाश शनैस्तु तं समांशेन क्षिप्त्वा मोचरसं नवम् । होता है एवं बल, वर्ण, अग्नि और आयुकी वृद्धि भावयेद्विजयाद्रावैःसप्तधा धर्मरक्षितम् ।। होती है। माषद्वयमितां मात्रां लिहेन्माक्षिकसंयुताम् ॥ . (१६१०) ग्रहणीवज्रकपाटरसः ___ शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, शुद्र गन्धक, (र. सा. सं. । ग्र.) सुहागेकी खील, भांग, बच और जवाखार समान मूतं गन्धं यवक्षारं जयन्त्युग्राभ्रटङ्कणम्।। भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना जयन्तीभृङ्गजम्बीरद्रवैः पिटवा दिनत्रयम् ॥ । लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला For Private And Personal Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [१२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [गकारादि कर जीरे और भांगरेके रसमें १ दिन घोटकर भांगका चूर्ण इन सबके बराबर लेकर प्रथम पारे एक गोला बनाइये और उसे सुखाकर लोहपात्रमें गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य रखकर २ घड़ी तक अग्निपर पकाइये । तत्पश्चात् औषधोंका चूर्ण मिलाकर खरल कीजिए । उसमें उसके बराबर मोचरसका चूर्ण मिलाकर इसे प्रातःकाल २ माशेकी मात्रानुसार चावभांगके रसकी ७ भावना धूपमें दीजिए (रस डाल लोंके पानीके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी, तृष्णा, डालकर धूपमें सुखाइये ।) ज्वर और पक्कातिसार, आमातिसार, अनेक वर्ण इसे २ माघेकी मात्रानुसार शहदमें खानेसे । संयुक्त तथा वेदनायुक्त अतिसार और विशेषतः ग्रहणीरोग नष्ट होता है। सूजनका नाश होता है। यह असाध्य संग्रहणी (१६१२) ग्रहणीशाईलचूर्णम् ( रसः) पाण्डु और जीर्णज्वरको भी नष्ट करता है तथा ( भै. र, । ग्रहण्य० ) अग्निको बडवानलके समान तीब्र कर देता है । रसगन्धकलौहाभ्रं हिङ्गलवणपञ्चकम् । .. । (१६१३) ग्रहणीशार्दूलरसः । हरिद्रे पाकलञ्चैव वचामुस्तविडङ्गकम् ।। (र. सा. सं.; र. चं. । ग्रह० ) त्रिकटुत्रिफलाचित्रमजमोदायमानिका। रसगन्धकयोश्चापि कर्षमेकं सुशोधितम् । गजोपकुल्या क्षाराणि तथैव गृहधृमकम् ॥ द्वयोःकज्जलिकां कृत्वा हाटकं षोडशांशतः॥ एतेषां कार्षिकं चूर्ण विजयाचूर्णकं समम् । लवङ्गं निम्बपत्रश्च जातीकोषफले तथा। माषद्वयमिदं चूर्ण शालितण्डुलवारिणा ॥ एतेषां कर्मचूर्णेन सूक्ष्मैलां सहमेलयेत् । भक्षयेत्पातरुत्थाय ग्रहणीगदनाशनम् । मुक्तागृहेन संस्थाप्य पुटपाकेन साधयेत् ॥ अग्निञ्च कुरुते दीप्तं वडवानलसनिभम् ।। गुञ्जापञ्चप्रमाणेन प्रत्यहं भक्षयेन्नरः। सर्वातीसारशमनं तृष्णाज्वरविनाशनम्। जूतिकां ग्रहणीरोगं हरत्येपःसुनिश्चितः।। पक्कापक्कमतीसारं नानावणे सवेदनम् ॥ । अर्शन्नो दीपनश्चैव बलपुष्टिप्रसादनः। आमातिसारमखिलं विशेषाच्छयधुं जयेत् ।। कासश्वासातिसारघ्नो बलवीर्यकरःपरः॥ असाध्यां ग्रहणी हन्ति पाण्डुप्लीहचिरज्वरान्॥ दुर्वारं ग्रहणीरोगश्चामशूलश्च नाशयेत् । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, अभ्रक संसारलोकरक्षार्थ पुरा रुद्रेणभाषितः॥ भस्म, हींग, पांचो नमक ( सेंधा, काला नमक, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १-१ कर्ष समुद्र नमक, खारी नमक, काच लवण ) हल्दी, (१। तोला) लेकर दोनों को खरल करके कजली दारुहल्दी, कूठ, बच, नागरमोथा, वायबिडंग, बना लीजिए तत्पश्चात् उसमें इसका सोलहवां सोंठ, मिर्च, पीपल, हैड़, बहेड़ा, आमला, चीता, भाग स्वर्ण भस्म और लौंग, नीमके पते (शुष्क), अजमोद, अजवायन, गजपीपल, जवाखार, सज्जी- जायफल, जावित्री और छोटी इलायचीका चूर्ण खार, सुहागा, और धरका धुवां; १-१ कप तथा १-१ कर्ष मिलाकर मोतीकी सीपके जोड़ेमें बन्द For Private And Personal Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [ १२७] करके ऊपरसे कपर मिट्टी कर दीजिए और उसे | द्विपलं जीरकं काथमनुपानं प्रदापयेत् । सम्पुट में रखकर पुट लगा दीजिए । स्वांग शीतल श्वासज्वरामशूलास्रमतिसारं चिरन्तनम् ।। होनेपर निकालकर चूर्ण करके रख लीजिए। अरुचिं राजयक्ष्माणं मन्दाग्निं च विनाशयेत् ॥ इसे प्रातःकाल पांच रत्तीकी मात्रानुसार सेवन - शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म करनेसे सूतिका रोग और ग्रहणीरोग अवश्य नष्ट १-१ भाग लेकर सबको एकत्र. खरल करके होता है तथा बवासीर खांसी, श्वास, अतिसार, ७ बार बिजौरे नीबूके रसमें धोटिए । और फिर कष्टसाध्य संग्रहणी और आम, शूलका नाश होता उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, नीलकी जड़ और तथा बल वीर्य और अग्निकी वृद्धि होती है। धतूरेके बीजोंका चूर्ण १-१ भाग मिलाकर (१६१४) ग्रहणीहररसः (र.र.स. उ.ख.अ.१६) भांग, सफेदकोयल, घृतकुमारी, मत्स्याक्षी (मछली) रसाभ्रगन्धाः क्रमवृद्धभागाः मकोय, अद्रक, पित्तपापड़ा, चीता, केला और काली जयारसेन त्रिदिनं विमः । मूसलीके रसमें ३ दिन घोटकर सुखा लीजिए । गद्याणकाध मधुना समेत इसे १ माषेकी मात्रानुसार १० तोले जीरके ददीत पथ्यं दधिभक्तकश्च ॥ काथके साथ सेवन करनेसे असाध्य संग्रहणी शुद्ध पारद १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग | भी अवश्य नष्ट हो जाती है और श्वास, ज्वर, और गन्धक ३ भाग लेकर कजली करके ३ दिन । आम, शूल, पुराना रक्तातिसार, अरुचि, राज यक्ष्मा, तक जयाके रसमें खरल कीजिए । और मन्दाग्निको आराम होता है। इसे ३ माशे की मात्रानुसार शहद में मिला- इति गकारादि रस प्रकरणम् कर सेवन करना और दहीभात खाना चाहिए। । अथ गकारादिमिश्रप्रकरणम् ( व्यवहारिक मात्रा--२-३ रत्ती।) (१६१५) ग्रहण्यारिरसः (र. रा. सुं.। संग्र.) (१६१६) गिरिकर्णिमूलयोगः (ग. नि. । अप.) शुद्धमूतं समं गन्धं मूतांशं मृतमभ्रकम् ।। पुष्ये गृहीतं गिरिकणिकायाः । मर्दयेन्मातुलुङ्गाम्लैः शोष्यं पेष्यं च सप्तधा । ___ मूलं सिताया गलके निबद्धम् । व्यूषणं नीलिकामूलं धत्तुरस्य च वीजकम् । गव्येन लीढं यदि वा घृतेन एकैकं मृततुल्यं स्यात् सर्व तद्विजयाद्रवैः ।। निहन्ति घोरामपची तदैव ॥ श्वेतापराजिताकन्यामत्स्याक्षीकाकमाचिका। सफेद गिरिकर्णी (कोयल) की जड़को पुष्य आर्द्रकापर्पटोवह्निः कदल्या तालमूलिका ॥ | नक्षत्र में निकालकर गले में बांधनेसे अथवा गायके द्रवैर्दिनत्रयं भाव्यं माषमात्रं च भक्षयेत् । धीमें मिलाकर चाटनेसे भयङ्कर अपची रोग भी ग्रहण्यारिरसो नाम असाध्यं साधयेध्रुवम् ॥ नष्ट हो जाता है। For Private And Personal Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि (१६१७) गुञ्जादिमूलप्रयोगः (रा.मा.।मुखरो०) (१६२१) गोधूमाद्या पूपालिका (ग.नि.।वाजी.) गुञ्जावराहकारन्यतरस्थाःसमुद्रत मूलम् । आसन्नक्षीरिणो ज्ञात्वागोधमान शालिषष्टिकान्। दन्तैश्चर्वितमाति दशनघुणोत्थां विनाशयति ॥ निष्पीड्य क्षीरं मधुकमृणालकपिकच्छुभिः॥ चौंटली (गुञ्जा) अथवा बराहक्रान्ताकी जड़ विदार्याश्चैव चूर्णेन शर्करामधुसंयुताम् । को चबानेसे दांतका कीड़ा नष्ट होता है। घृते पूपलिकां पक्त्वा भक्षयित्वा पयःपिबेत् ।। (१६१८) गुञ्जादिवर्तिः (वृ. नि. र. । संग्र.) | स्त्रीणां शतमसौ गत्वाकुलिङ्ग इव हृष्यति । गुञ्जाकूष्माण्डबीजश्च मूरणेन च वर्तिकाम् । जब गेहं, शाली और षष्टी (सट्टी) धान्यों में लेपयेच्छायया शुष्कां गुदगाह्यर्शसाञ्जयेत् ॥ चौंटली (गुञ्जा) और पेटेके बीज तथा जमी दूध पड़ जाय तो उनको पीसकर दूध निकालकर कन्द समान भाग लेकर (पानीमें पीसकर) वर्ति उसमें मुलैठी, कमलनाल कौंच, और विदारीकन्दका ( बत्ती) बनाकर छायामें सुखाकर गुदामें रखनेसे चूर्ण तथा खांड और शहद मिलाकर पूरियां बनवा अर्श (बवासीर ) नष्ट होती है। लीजिए। (१६१९) गुल्महरी वतिः (सु.सं.।उत्त.अ.४२) इनको खाकर ऊपरसे दूधपीनेसे. मनुष्य में वातव!निरोधे तु सामुद्रार्दकसर्षपैः। सैकड़ों स्त्रियोंसे रमण करनेकी शक्ति आ जाती है। कृत्वा पायौ विधातव्या वर्तिका मरिचोत्तरा॥ (१६२२) गोमक्षिकाहरप्रयोगः ___गुल्म रोगमें अपान वायु और मलावरोध होने पर समुद्र नमक, अद्रक, सरसों और स्याह मिर्चके (यो. र. । कर्ण रो० ) चूर्णकी वर्तियां बनाकर गुदमार्गमें लगानी चाहिएं। दन्तेन चर्वयेन्मूलं नन्द्यावर्त्तपलाशयोः । (प्र. वि. सब चीजों के समान भाग चूर्णको तल्लालापूरिते कर्णे ध्रुवं गोमक्षिकां जयेत् ॥ गुडमें मिलाकर वर्तियां बनानी चाहिए और एक तगर और पलाश (ढाक )की जड़को चवाकर वर्ति (बत्ती) के निकल जाने पर दूसरी लगा देनी कानमें लाला (थूक ) डालनेसे गोमक्षिका चाहिए ।) ( डांस-मच्छर ) अवश्य निकल जाता है । (१६२०) गोधूमादि पोलिका (यो. र. । शोथा., ग. नि. । शो.) (१६२३)गोमयपिण्डादिस्वेदः (व.से.।अर्श.) गोधूमकणिकायुक्ता निर्गुण्डीपत्रचूर्णिका स्वेदो गोमयपिण्डेन सक्तुनामलकेन च। पोलिका तिलतैलेन युक्ता शोथविनाशिनी। शतपुष्पेण वा कार्यो गुदजानां निवृत्तये ॥ गेहूंके आटे और संभालके पत्तोंके चूर्णकी गोबरकी पिण्डी, सत्तू, आमलेकी पिट्ठी, या पोलिका (पतली रोटी) बनाकर तिल तैलके साथ सोयेकी पोटलीसे स्वेदन करने ( सेकने )से बवाप्रयुक्त करनेसे शोथ रोग नष्ट होता है। सीरके मस्से नष्ट होते हैं। For Private And Personal Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१२९] - १६२४) ग्रहणीरोगे पथ्यादिः लघुना पञ्चमूलेन पञ्चकोलेन पाठया। ( च. सं. । चि. अ. १८) अन्नानि कल्पयेद्विद्वान् बिल्ववृक्षाम्लदाडिमैः। पलाशं चित्रकं चव्यं मातुलुङ्गहरीतकीम् । पिप्पली पिप्पलीमूलं पाठां नागरधान्यकम् ॥ ग्रहणीदोषिणां तक्रं दीपनं ग्राहिलाघवात् । कार्षिकाण्युदकप्रस्थे पक्त्वा पादावशेषितम् ।। | पथ्यं मधुरपाकिसान च पित्तप्रदूषणम् ।। पानीयार्थ प्रयुञ्जीत यवागू तैश्च साधिताम् ॥ कषायोष्णविकाशित्वाद्रूक्षत्वाच्च कफे हितम् । शुष्कमूलकयूषेण कौलत्थेनाथवा पुनः।। वाते स्वाद्वम्लसान्द्रत्वात्सयस्कमविदाहि तत् ॥ कट्वम्लक्षारतीक्ष्णेन लघून्यन्नानि चाप्नुयात् ।। कैथ, बेलगिरी, चांगेरी ( चूका-तिपतिया ) अम्लं चानु पिबेत्तकं तक्रारिष्टमथापि वा। तक और दाडिमसे सिद्ध यवागू आमको पचाती मदिरां मध्वरिष्टान् वा निगदं शीधुमेव वा और दस्तोंको रोकती है। ___ ढाककी हाल, चीता, चव, बिजौरा नीबू , हर्र, पीपल, पीपलामूल, पाठा, सोंठ और धनिया १-१ ।। ग्रहणी रोगमें लघुपञ्चमूल (शालपर्णी, कटेली, कर्ष ( १ तोला ) लेकर १ प्रस्थ ( ८० तोले) कटेला और गोखरु ) अथवा पञ्चकोल ( पीपल, पानीमें पकाकर चतुर्थांश शेष रहने पर छान पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ )या पाठा अथवा लीजिए। ग्रहणी रोगमें पीनेके लिए यही पानी बेलगिरी इमलीं ओर अनारसे सिद्ध आहार देना देना चाहिए और यवागू आदि भी इसीमें पकाना चाहिए । चाहिए। ग्रहणी रोगमें सूखी मूलीके कषाय अथवा तक लधु होनेके कारण दीपन और ग्राही कुलथीके कषायसे लघु अन्न बनाकर देने चाहिएं; है; मधुरपाकी होनेके कारण पथ्य है और पित्तको और भोजनके बाद अम्ल तक्र, तक्रारिष्ट अथवा कुपित नहीं करता । कषाय, उष्ण विकाशी, और सीधु पिलाना चाहिए। रूक्ष होनेके कारण कफमें हितकारक है । ताज़ा (१६२५) ग्रहण्यामाहारकल्पना तक मधुर, अम्ल, और स्निग्ध होनेके कारण वायु नाशक और अविदाही है अत एव तक्र ग्रहणी (ग. नि. । प्र. रो. ३) रोगकी सब अवस्थाओंमें प्रयुक्त किया जा सकता है। कपित्थबिल्वचाङ्गेरीतक्रदाडिमसाधिता। यवागूःपाचयत्यामं शकृत्संवर्तयत्यपि ॥ इति गकारादिमिश्रप्रकरणम् भा० १७ For Private And Personal Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ १३० ] www.kobatirth.org भारत - भैषज्य -- रत्नाकरः । घ अथ घकारादि कषाय - प्रकरणम् विहितं मधुना युतं पिवेत् (१६२६) घनचन्दनादिकाथः (भै.र. । ज्वरा.) घनचन्दनपर्पटकं कटुकं तु मृणालपटोलदलं सजलम् । मृतशीतसितायुतपित्तहरम् ज्वरछर्दितृषारुचिदाहहरम् ॥ नागरमोथा, लाल चन्दन, पितपापड़ा, कुटकी, कमलनाल, पटोलपत्र और नेत्र बालेके काढ़े को ठण्डा करके मिश्री मिलाकर पीनेसे पित्तज्वर, छर्दि, तृषा, अरुचि और दाहका नाश होता है । (१६२७) घनसप्तककषायः (यो.स. । समु. ४) घनो गुडूची कुटजः किरातो विश्वौषधं वालकशुक्लकन्दजे । एतैः कषायो विहितोतिसारं सशोणितं सज्वरमाशु हन्यात् ॥ नागरमोथा, गिलोय, कुड़ेकी छाल, चिरायता, सूंठ, नेत्रवाला और अतीसका काथ पीने से रक्तातिसार और ज्वरातिसार अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है । (१६२८) घनादिकाथः (वृ.नि.र. । ज्वर. ) निम्ब महौषधामृता कटुवार्ता कपटोलवत्सजैः । किल शीतज्वरशान्तये भृतम् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ घकारादि नागरमोथा, नीमकी छाल, सोंठ, गिलोय, सफेद कटैली, पटोलपत्र और इन्द्रजौका काथ शहद डालकर पीने से शीतज्वर नष्ट होता है । (१६२९) घृतदध्यादियोगः (यो.. त.७९) घृतदधिमधुरपयोदधिमण्डेरुषसि कृतः करिकर्णपलाशः । स्थगयति हि स्थिरतां स्थविराणाम्, विदधाति पुर्ववत्ताम् ॥ १३ ॥ हस्तिकर्ण पलाश ( ढाकका भेद ) की छालको पीसकर रात्रि के समय घी, दही, मीठादूध और दहीके मण्डमेंसे किसीमें मिलाकर रख दीजिए । इसे प्रातः काल पीने से वृद्धावस्था रुकती और वृद्धि होती है । (१६३०) घोषकस्वरसप्रयोगः (वं. से. । स्त्री.) घोषकस्वरसः पीतो मस्तुना च समन्वितः योनिकन्दं निहन्त्याशु तन्नाडी चैव धूपतः ॥ ३८८ For Private And Personal कडवी तोरई के स्वरसमें मस्तु ( द्विगुण जल मिश्रित तक) मिलाकर पीनेसे और कड़वी तोरीके डलकी धूनी देनेसे योनिकन्द रोग नष्ट होता है । ।। इति घकारादिकषायप्रकरणम् ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१३१ ] अथ घकारादिचूर्णप्रकरणम् अर्श रोगमें वायुको अनुलोमन ( यथोचित (१६३१) घननादयोगः ( यो. स.। समु.५) मार्गगामी ) करनेके लिए घीमें भुनी हुई हर्रमें गव्येन दुग्धेन समं निपीतं गुड़ और पीपलका चूर्ण अथवा निसोत और क्षौद्रेण युक्तं घननादमूलम् ।। दन्तीमूलका चूर्ण ( समान भाग ) मिलाकर (उष्ण बलां च कोलं गुडमिश्रमद्या जलसे ) सेवन करना चाहिए। द्रक्तप्रवाहं चिरजं निहन्ति । ॥ इति घकारादिचूर्णपकरणम् ॥ चौलाईकी जड़के चूर्णको शहदमें मिलाकर गोदुग्धके साथ पीने अथवा खरैटीकी जड़ और अथ धकारादिगुटिका-प्रकरणम् बेरको गुड़में मिलाकर खानेसे पुराना रक्तप्रवाह भी बन्द हो जाता है। (२६३५) घनादिगुटिका (१६३२) घनादिचूर्णम् ( . मा. । बाल.) (वृ. नि. र. । कास.; वै. जी. । वि. ३ ) घनकृष्णारुणाशृङ्गीचूर्ण क्षौद्रेण संयुतम् । घनविश्वशिवागुडजा गुटिका शिशोवरातिसारघ्नं कासश्वासवमीहरम् ॥ त्रिदिनं वदनाम्बुजमध्यधृता। नागरमोथा, पीपल, अतीस और काकड़ा हरति श्वसनं कसनं ललने ! सिंगीका समान भाग मिश्रित चूर्ण शहद में मिलाकर ललनेव हिमं हृदये निहिता ।। चटानेसे बच्चोंकी खांसी, श्वास, वमन और ज्वरा ___ नागरमोथा, सोंठ, हर्र और गुड़के चूर्णको तिसारका नाश होता है। एकत्र मिलाकर गोलियां बना लीजिए । इन्हें (१६३३) घनादिचूर्णम् ( वृ.नि.र. । वाल.) मुखमे रखनेसे श्वास और खांसी नष्ट होती है । घनशृङ्गीविषाणाश्च चूर्ण हन्ति समाक्षिकम् ।। घोडाचोलीगुटिका ( रसः) वान्तिज्वरं तथा योगो मधुनातिविषारजः॥ (“ अश्वकञ्चुकी रस" अवलोकन कीजिये।) नागरमोथा, काकड़ासिंगी और अतिविषा ( अतीस )का समान भाग चूर्ण अथवा केवल ॥ इति घकारादिगुटिकाप्रकरणम् ॥ अतीसका चूर्ण शहदमें मिलाकर चटानेसे बच्चोंकी वमन और ज्वरका नाश होता है । अथ धकारादिघृतप्रकरणम् ( व्य. वि-१-१ माशा चूर्ण दिनभरमें (१६३६) घृत धोनेकी विधि ३-४ बार चटाएं ।) द्रुतहस्तेन संघृष्टं सजलं सर्पिष्पुनःपुनः। १६३४) घृतभर्जितहरीतकी (वं.से.।अशो.) धौत वारसहस्रन्तु तददै शतमेव वा ॥ सगुडां पिप्पलीयुक्तामभयां घृतभर्जिताम् । हिमवज्जायते शीतं वयं मेध्यं तथैव च । त्रिदन्तीयुतां वापि भक्षयेदनुलोमिनीम् ॥६३॥ एतलेपादिषु योज्यं दाहवीसर्पनाशनम् ॥ For Private And Personal Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir vvvvvvvvvvvvvvvhnavr vvvvvvvvvvvvvvvviry vvvvvvvvvvvvv [१३२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [घकारादि घीमें शीतल पानी मिलाकर उसे हाथसे खूब | अथ घकारादिधूम्रप्रकरणम् मथकर पानी निकाल दीजिए और फिर नवीन जल डालकर यही क्रिया कीजिए । इस प्रकार | । (१६३९) घृताधूिमः १००, ५०० या हज़ार बार धोनेसे घृत अत्यंन्त । शीतल हो जाता है और उसकी मालिशसे विसर्प __(भा. प्र.। खं. २ नासा.; यो. र. । रासा.) तथा शरीरकी दाह आदि नष्ट होती है। घृतगुग्गुलुमिश्रस्य सिक्थकस्य प्रयत्नतः । (१६३७) घृतपानम् ( यो. चि. म. । अ.७) धूमं क्षवथुरोगघ्नं भ्रंशथुघ्नश्च निर्दिशेत् ।। शुद्धगव्यं घृतं तप्तं मरिचैर्वा कणान्वितम् । घी, गूगल और मोम समान भाग मिलाकर रसायनं सदा पेयं घृतपानं प्रशस्यते ॥१ धूम्रपान करनेसे क्षवथु (छींके आना) और भ्रथु रूक्षक्षतविषार्तानां वातपित्तविकारिणाम् । रोग नष्ट होता है। हीनमेधास्मृतीनाश्च घृतपानं प्रशस्यते॥ ॥ इति घकारादिधूम्रप्रकरणम् ॥ रूक्षता ( खुश्की ), घाव, विष ओर वातपित्त विकारकी शान्ति तथा मेधा और स्मृति अथ घकारादिरसप्रकरणम् ( स्मरण शक्ति )की हीनताको दूर करनेके लिए शुद्ध गोघृतको गर्म करके उसमें स्याहमिर्च अथवा (१६४०) घनगर्भरसः (रसे. मं.। अ. ३) पीपलका चूर्ण मिलाकर पीना हितकर है । इस मनःशिलातालकमम्बरं घनं, प्रकार घृतपान करनेसे रसायनके गुण भी प्राप्त पीताम्बरं तीक्ष्णरजश्च कुञ्जरम् । होते हैं। तापीरुहं कान्तरजो रसेन तत् घृतमूर्छाविधिः कुमारिवन्ध्यासुरदालिजेन ॥१५२॥ अकारादि घृतप्रकरणके आरम्भमें देखिये। घृष्टं मूषास्थं करिषानलेन, (१६३८) घृतसैन्धवयोगः (रा.मा.।विष.२८) पुटेन दग्धं वरभस्ममेति । उष्णं घृतं सैन्धवचूर्णयुक्तं तद्भस्ममूतश्च गुदामयेषु निपीतमाशु प्रशमं करोति । भगन्दरे चापि हितं वदन्ति ॥१५३॥ निश्वासकम्पश्रमवारिताप शुद्ध मनसिल, शुद्ध हरताल, अम्बर अभ्रक रुजां जयेद् दृश्चिकदंशजाताम् ॥ गर्म घृतमें सेंधानमकका चूर्ण मिलाकर पीनेसे (भस्म ) हल्दी तीक्ष्णलोह (भस्म ), सीसा भस्म श्वास, कम्पन ( कपकपी ), पसीना, दाह, पीड़ा सोनामक्खी ( भस्म ) और कान्तलोह ( भस्म ) और बिच्छुके काटेको तुरन्त आराम होता है । समान भाग लेकर सबको धीकुमार, वांझ इति घकारादिघृतप्रकरणम् । ककोड़ा और देवदाली (बिंडाल) के रसमें घोटकर | टिकिया बनाकर सुखा लीजिए और सम्पुटमें For Private And Personal Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [ १३३] बन्द करेके उपलोंकी अग्निमें फूंक दीजिए।। साधारणतः १ गोली और बलवान पुरुषको तत्पश्चात् इस भस्ममें समान भाग रस सिन्दूर | दो, तथा निर्बलको आधी गोलीकी मात्रानुसार मिलाकर २ रत्तीको मात्रानुसार सेवन करनेसे सेवन कराने से २१ दिनमें पित्त कुष्ठका नाश हो अर्शादि गुदरोग और भगन्दर रोग नष्ट होते हैं। जाता है। (१६४१) धनसङ्कोचनाम रसः ॥ इति घकारादिरसमकरणम् ॥ . ( रसे. मं. । अ. ३) घनस्य पिष्टिका कार्या शुल्वस्य अथवा शुभा। __ अथ धकारादिमिश्रप्रकरणम् । गन्धकान्तःस्थिता पाच्या सर्पिषा संयुतं यथा ॥ पञ्चाङ्ग निम्बचूर्णस्य विडङ्ग चित्रकं तथा । (१६४२) घनसारादिवत्तिः (बं. से.। मूत्रा.) कटुत्रयं वचा मुस्ता व्याधिघातं तथैव च ॥ घनसारस्य चूर्णेन वस्त्रवर्तिःकृताम्बुना। समभागानि चैतानि पथ्या च त्रिगुणा भवेत् । गुण्डयित्वा ध्वजे क्षिप्तः मूत्ररोधं जहाति सा ॥३१ अजामूत्रेण सम्पिष्य गुटिकाःकारयेद्भिषक् . कपूरको पानीके साथ पीसकर कपड़े पर पञ्चगुञ्जाप्रमाणेन देयैका पित्तकुष्ठहा। लगाकर उसकी बती बनाकर इन्द्रीके छिद्रमें सवले द्वे प्रदातव्या क्षीणे चार्धा प्रदीयते ॥ रखनेसे मूत्रावरोध नष्ट होता है। एकविंशदिनैरेव पित्तकुष्ठं विनाशयेत् ॥ (१६४३) घृतावसेचनम् (धन्व. । व्रण.) अभ्रक भस्म अथवा ताम्र भस्म और पारेको सद्यःक्षतं व्रणं वैद्यः सशूलं परिषेचयेत् भली भांति खरल करके पिष्टी (पिट्ठी) बनाकर .यष्टीमधुकयुक्तेन किश्चिदुष्णेम सर्पिषा॥६५॥ उसमें थोडासा घृत मिलाकर गन्धकके बीचमें 'शूलयुक्त तुरन्तके घावमें गर्म घीमें मुलैठीका रखकर पकाइये और फिर उसमें नीमका पञ्चाङ्ग बाय बिडङ्ग, चीता, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च पीपल), चूर्ण मिलाकर लगाना चाहिए। (उस धीमें कपड़ा बच, मोथा, और अमलतासका समान भाग चूर्ण तथा भिगोकर घावमें रख देना चाहिए ।) ३ गुना हर्रका चूर्ण मिलाकर बकरीके मूत्र में पीस ॥ इति घकरादिमिश्रप्रकरणम् ॥ कर ५-५ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। For Private And Personal Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१३४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि g ang अथ चकारादिकषायप्रकरणम् (१६४४) चणकयोगः (वृ. नि. र. । प्रमेह.) ६ मास तक सेवन करने से अनेक प्रकार के द्विनिशात्रिफलाकल्कमातपे धारयेत्त्यहम्। पित्तज और कफज रोग तथा कुष्ठ और प्रमेहरोग मृद्भाण्डे दोलिकायन्त्रे चणकान्मुष्टिमात्रकान् ॥ नष्ट होते हैं । अहोरात्रोषितान्खादेद्वर्धमानं दिने दिने । (१६४६) चतुःषष्ठिककाथ: असाध्यं साधयेन्मेहं सिद्धयोगःउदाहृतः ॥ (यो. र.; वृ. नि. र. । ज्वर.) हल्दी, दारुहल्दी, हरी, बहेड़ा और आमला शृङ्गीरामठरामसेनरजनीरुद्रेणुकारोहिणी । समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकर एक रास्नैरण्डरसोनदारुरजनीराजद्रुराजीफलैः ।। समाजातील कपड़ेकी पोटलीमें बांधकर उसे दोलायन्त्र विधि त्रायंतीत्रिवृताहुताशनलतानन्तामृतामुद्रिता। से जलसे भरे हुवे मिट्टीके पात्रमें लटका कर धूप | दन्तीतुम्बरुचित्रतण्डुलत्रुटित्वतिक्तनक्तंचरैः॥ में रख दीजिए और रात्रिके समय उस जलमें १ | वासावत्सकबीजवासवसरावल्यावरीवेल्लजम् । मुद्री चने भिगो दीजिए फिर २४ घन्टे पश्चात् ब्राह्मीब्राह्मणयष्टिवारणकणाविश्वावयस्थाः ॥ निकालकर रोगीको खिलाइये । इसी प्रकार प्रति-. मामालविकासमूलमगधामुस्ताजमोदाद्वयैः। दिन १-१ मुट्ठी. चने बढ़ाकर सेवन करने से मिश्रेयागरुचन्दनेन्द्रचविकास्फोतावचाकटफलैः।। असाध्य प्रमेह भी नष्ट हो जाता है। यह एक इत्येतैर्दशमलयुङनिगदितःकाथश्चतुषधिकः। सिद्ध प्रयोग है। शृङ्गयादिर्मदनागसिंहभिषजा सर्वामयोन्मूलने॥ (१६४५) चणकरसायनम् पुंसामष्टविधज्वरार्तिशमने वाताग्निसन्धुक्षणे। (र. र. स. । उ. ख. अ. २६) सर्वाङ्गेच समीरणद्विपघटे शार्दूलविक्रीडितम् ।। रात्रीकान्तशरावकेसुचणकाभिन्नाजलैःस्वादुभिः काकड़ा सिंगी, हींग, कायफल, हल्दी, कूठ, प्रातमुष्टिमिताःखलुप्रतिदिनं षण्मासमासेविताः। रेणुका, कुटकी,रास्ना, अरण्डमूल, ल्हसन, दारु हल्दी, हन्युःपित्तकफामयान्वहुविधं कुष्ठं प्रमेहांस्तथा।। अमलतासका गूदा, पटोल, वायमाणा ( बनफशा) ___ प्रतिदिन रात्रिको चनेकी १ मुट्ठी (रोगीकी निसोत, चीता, लताकस्तूरी, अनन्तमूल, गिलोय, अपनी मुट्ठी) दाल कान्तलोहके पात्रमें मीठे जलमें मुद्रिता, दन्तीमूल, तुम्बुरु, बायबिडंग, छोटी इला(जल खारी न हो) भिगो दीजिए और प्रातःकाल | यची, दाल चीनी, चिरायता, गूगल, वासा, इन्द्रजौ उसे खाकर वह पानी भी पी लिजिए। इस प्रकार | काली मंग, खरैटीकी जड़, शतावर, कालीमिर्च, For Private And Personal Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [१३५] ब्राह्मी, भारंगी, गजपीपल, सोंठ, हर्र, अडूसा, (१६५०) चन्दनादिकल्कः (वृ.नि.र.। मसू.) मूर्वा, स्याह निसोत, पीपल, पीपलामूल, मोथा, श्वेतचन्दनकल्केन हिलमोचोद्भवं द्रवम् । अजवायन, अजमोद, सौंफ, अगर, चन्दन (लाल), पिबेन्मसूरिकारम्भे नैवं वा केवलं रसम् ।। कुड़ेकी छाल, चव, सफेद सारिवा, वच, काय ___ मसूरिकाके आरम्भमें सफेद चन्दनको हुलफल, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कटली, कटैला, गोखरु, हुलके रसमें पीसकर पीना, अथवा केवल हुलहुलका बेलकी छाल, सोनापाठा (अरल), खम्भारी (कुम्हार) रस पीना हितकारक है। पाढल, और अरणी । इन चौसठ ओषधियोंके योग (च.सं.।चि.अ.२५) का नाम 'चतुःषष्ठिकक्काथ वा अंग्यादि काथ है।। (१६५१) चन्दनादिकल्कः यह आठ प्रकारके ज्वर, और सर्वांगगत चन्दनं पमकोशीरं पाटलि सिन्धुवारिका । वायुका नाश करता तथा अग्नि प्रदीप्त करता है। क्षीरशुक्ला नतं कुष्ठं शिरीषोदीच्यशारिवाः। (१६४७) चतुरम्लम् ( भै. र.। परिशिष्ट.) शेलुस्वरसपिष्टोऽयं लूतानां सार्वकार्मिकः॥ कोलदाडिमवृक्षाम्लैरम्लवेतससंयुतैः॥ ___ लालचन्दन, पद्माख, खस, पाढल, संभालु, चतुरम्लन्तु पञ्चाम्लं मातुलुङ्गसमन्विन्तम्॥ विदारीकन्द, तगर, कूठ, सिरसकी छाल, नेत्रबाला खट्टा, बेर, अनारदाना, तितड़ीक, और अम्ल | और सारिवाको लिहसौड़े (रीठे )के रसमें पीसकर बेतके योगका नाम चतुराम्ल तथा बिजौरे नीबू पीने या लेप लगानेसे मकड़ीका विष नष्ट होता है। सहित उपरोक्त चारों (कुल पांचो) वस्तुओंका नाम (१६५२) चन्दनादिकल्कः (वं. से. । स्त्री. ) पञ्चाम्ल है। (१६४८) चतुर्दशांङ्गः चन्दनोशीरपतङ्गमधुकं नीलमुत्पलम् । ( र. र.; भा. प्र.; धन्व.; भै. र.; वृं. मा. । त्रपुसैर्वारुबीजानि धातकीकदलीफलम् ।। कोललाक्षावटारोहपद्मकं पद्मकेशरम् ।। ज्वर.; वृ. यो. त. । त. ५९ ) एतान्कल्कान्मधुयुतान्पाययेत्तण्डुलाम्बुना॥ ६४८ संख्यक किरातादि काथ देखिए । व्यहात्प्रशमयेदेतयोषितां पैत्तिकं रजः॥ (१६४९) चन्दनादिकल्कः सफेद चन्दन, खस, पतङ्ग, मुलैठी, नीलोफर, ( यो. र. । छर्दि.; वृ. यो. त. ।) खीरे और ककडीके बीज, धायके फूल, केलेकी चन्दनश्च मृणालश्च वालकं नागरं वृषम् । फली, बेर, लाख, बड़के अङ्कर, पद्माक और सतण्डुलोदकक्षौद्रःपीतःकल्को वमीर्जयेत् ॥१॥ कमलकेसरको पानी में ( पिट्टीकी तरह ) पीसकर __ सफेद चन्दन, कमल नाल, नेत्रवाला, सोंठ । शहदमें मिलाकर तण्डुलोदक ( चावलोंके पानी) और बांसा समान भाग पीसकर चावलोंके पानी के साथ पिलानेसे स्त्रियोंका पित्तज रजोस्राव (प्रदर) मिलाकर शहद डालकर पीनेसे छर्दि नष्ट होती है। तीन दिनमें ही नष्ट हो जाता है। For Private And Personal Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३६ ] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [चकारादि (१६५३) चन्दनादिक्काथः (पेया) । वाजिगन्धा वचा कृष्णा काकोली जीवकर्षभौ। (वं. से.। रक्तपि० ) काथ एषां पिबेत्मातर्मस्तिष्कहासशान्तये॥ चन्दनोशीरलोध्राणां रसे तस्मिन् सनागरे। ____ पातःकाल सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मूर्वा, किराततिक्तकोशीर मुद्गानां तद्वदेव तु ।। । हल्दी, लाख, __ रक्तपित्त रोगमें लाल चन्दन, खस और | बंसलोचन, गेरु, जीवन्ती, शतावरी, असगन्ध, लोधके क्वाथ और सोंठके कल्क अथवा चिरायता, बच, पीपल, काकोली, जीवक और ऋषभकका खस और मंगके काथसे सिद्ध पेया देनी चाहिए। क्वाथ पीनेसे मस्तिष्ककी निर्बलता नष्ट होती है । । (१६५७) चन्दनादिकाथः (वं. से. । ज्वरा.) (१६५४) चन्दनादिक्काथः (वा.भ.।चि.अ.२) प्रसादश्चन्दनाम्भोजसेव्यं मृदभृष्टलोष्टजः। शर्करामधुरो हन्ति कपायापैत्तिकं ज्वरम् । सुशीतःससिताक्षौद्रः शोणितातिप्रवृत्तिजित् ॥ । चन्दनोशीरश्रीपर्णीपरूपकमधृकजः॥ लाल चन्दन और कमलके शीत कषायमें लाल चन्दन, खस, खम्भारीके फल, फालसेकी मिट्टीका ढेला ( पिण्ड ) खूब तपाकर बुझाकर छाल और महुवेकी छाल ( या फल )के काथको ठण्डा होनेपर उसमें मिश्री और शहद मिलाकर खांडसे मीठा करके पीनेसे पित्तज ञ्चर नष्ट होता है। पीनेसे रक्तपित्त नष्ट होता है। (१६५८) चन्दनादिकाथः । (१६५५) चन्दनादिकाथः (वा.भ.।चि.अ. २) । ( आ. वे. वि. । अ. ६८ ) चन्दनोशीरजलदो लाजाभुद्गकणायवैः। चन्दने नलदं द्राक्षा गुडूची मधुकं स्फटी बलाजले पर्युषितैःकषायो रक्तपित्तहा ॥ धात्री च काथ एतेषां ओजो मेहोपशान्तिकृत लाल चन्दन, खस, नागरमोथा, धानकी खील, .. सफेद चन्दन, लाल चन्दन, नल, मुनक्का, मूंग, पीपल और इन्द्रजौ समान भाग मिश्रित २ गिलोय, मुलैठी, फटकीकी खील और आमलेका क्वाथ पीनेसे ओजोमेह नष्ट होता है । तोले लेकर अधकुट करके रात्रिके समय खरैटीके काथमें भिगो दीजिए और प्रातःकाल छानकर (१६५९) चन्दनादिक्वाथः पिला दीजिए, इससे रक्तपित्त नष्ट होता है। ( यो. र.; भा. प्र.; वृ. नि. र. । मसू० ) (१६५६) चन्दनादिक्वाथः चन्दनं वासको मुस्तं गुडूची द्राक्षया सह । - ( आ. वे. वि. । अ. ७७ ) एषां शीतकपायस्तु शीतलाज्वरनाशनः ।। चन्दनं द्वितयं मूर्वा श्यामाद्वन्द्व निशाद्वयम् ।। ___लाल चन्दन, बासा, मोथा, गिलोय और लाक्षा वांशी गैरिकश्च जीवन्ती मधुकं वरी॥। मुनक्काका शीतकषाय शीतलाञ्चरको शान्त करता है। १ 'गव्य शीतकषायस्तु' इति पाठभेदः । For Private And Personal Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१३७] (१६६०) चन्दनादिक्वाथ: ( ग. नि. । ज्वर.) (१६६४) चन्दनादिकाथः (व.नि.र.;वं.से.य.) चन्दनं धान्यकं मुस्तं गुडूची विश्वभेषजम् । चन्दनं मधुकं द्राक्षां कटुकां सुदुरालभाम् । पश्चाहसम्भवं हन्ति ज्वरं काथो निषेवितः॥ चन्दनादिर्गणः प्रोक्तो हन्यादाहज्वररुचिः।। लाल चन्दन, धनिया, मोथा, गिलोय और ___लाल चन्दन, मुलैठी, मुनक्का, कुटकी और सोंठका काथ सेवन करनेसे ज्वर नष्ट होता है। धमासेका क्वाथ पीनेसे दाह, ज्वर और अरुचि (१६६१) चन्दनादिकाथः (यो. र. । स्त्रीरो.) नष्ट होती है। चन्दनं सारिवा लोभ्रं मृद्वीका शर्करान्वितम्। (१६६५) चन्दनादिक्काथ: काथं कृत्वा प्रदद्याच्च गर्भिणीज्वरशान्तये ॥ (वृ. नि. र.; यो. र. । ज्वर.) लाल चन्दन, सारिवा, लोध और सुनकाके चन्दनोशीरधान्यं च वालकं पर्पटं तथा । काथमें खाण्ड मिला कर पीनेसे गर्भिगीका ज्वर नष्ट मुस्ताशुण्ठी समायुक्तं मन्थरज्वरनाशनम् ॥ होता है। लाल चन्दन, खस, धनिया, नेत्रबाला, पित्त(१६६२) चन्दनादिकाथ: पापड़ा, नागरमोथा और सोंठका काथ पीनेसे (वृ. नि. र.; वं. से.; वृं. मा.; यो. र. । रक्तपित्त.) मन्थरज्वर ( मोतीझारा ) नष्ट होता है । (१६६६) चन्दनादिः दाादिश्च काथः चन्दनेन्द्रयवापाठाकटुकासुदुरालभा । । (पृ. नि. र.; वै. से.; . मा.; योर.; वै. र. ग.नि.अर्श.) गुडूची बालकं लोधं पिप्पलीक्षौद्रसंयुतम् ॥ चन्दनकिराततिक्तकधन्वयवासाःसनागराःकथिता कफान्वितं जयेद्रक्तं तृष्णाकासज्वरापहम् ॥ रक्तार्शसा प्रशमनाः दार्वीत्वगुशीरनिम्बाश्च ॥ ___ लाल चन्दन, इन्द्रजौ, पाठा, कुटकी, धमासा, लालचन्दन, चिरायता, धमासा और सोंठका गिलोय, नेत्रबाला और लोधके क्वाथमें पीपलका काथ और दारु हल्दीकी छाल, खस तथा नीमका चूर्ण और शहद मिलाकर पीनेसे कफ मिश्रित । क्वाथ रक्तार्श (खूनी बवासीर) का नाश करता है। रक्तपित्त, तृष्णा, खांसी और ज्वर नष्ट होता है । (१६६७) चन्दनादिपाचनकषायः (१६६३) चन्दनादिकाथः ( वै.जी.। वि.१) (ग. नि. । ज्वरा. १) लोहितचन्दनपनकधान्य चन्दनोत्पलहीवेरकटुकोशीरधान्यकम् । च्छि नरुहापिचुमन्दकषायः। वृहती नागरं मुस्तं वचा पर्पटकोऽमृता। पित्तकफज्वरदाहपिपासा काथःसातिविषः पेयः पाचनो ज्वरनाशनः । वान्तिविनाशहुताशकरःस्यात् ।। ___ लालचन्दन, नीलोफर, सुगन्धबाला कुटकी, लाल चन्दन, पनाक, धनिया, गिलोय और खस, धनिया, कटैली, सोंठ, मोथा, बच, पित्तनीमकी छालका काथ पित्तकफवर, दाह, पिपासा पापड़ा, गिलोय और अतीसका काथ पाचक तथा और वमन नाशक तथा अग्निवर्द्धक है। प्वर नाशक है। भा० १८ For Private And Personal Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१३८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि (१६६८) चन्दनादिपानम् (१६७१) चम्पकमूलकषायः (वै.म.र.।पट.६) (बृ. नि. र.; व. द । छर्दब०) चम्पकशिफाकषायःपीतो निरुणद्धि मूत्रमवशगतम् चन्दनं च मृणालं च वालक नागरं वृषम्। नीचतलपतितमम्भश्चतुरजनोत्पादितो यथा सेतुः। सतन्दुलोदकक्षौदैःपीतः कल्को वमिञ्जयेत् ॥ चपक (चम्पाफूल)की जड़का क्वाथ पीनेसे सफेद चन्दन, कमलनाल, नेत्र बाला, सॉट मूत्रातिसार (बहुमूत्र) रोग अवश्य नष्ट होता है और बासेको पानीमें पीसकर चावलोंके पानीमें (१६७२) चधिकापल्ल्वयोगः (वै.म.पट.६) धोलकर शहदसे मीठा करके पीनेसे वमन रुक पल्लवं चविकायाश्च श्वेतमूलाहसम्भवम् । जाती है। पल्लवं क्षीरिवृक्षस्य पिट्वा तैलेन पाययेत् ॥ (१६६९)चन्दनादिप्रयोगः (च.स.चि.अ.२५) चवके पत्ते या श्वेत पुनर्नाके पत्ते अथवा चन्दनं तगरं कुष्ठं हरिद्रे द्वे त्वगेव च । क्षीरी वृक्षों ( पीपल, पिलखन, गूलर, वेत, बड़) मन शिला तमालश्च रसः कैशर एव च ।। के पत्तोंको तेलमें पीसकर पीनेसे अतिसार नष्ट शार्दूलस्य नखश्चैव सुपिठं तण्डुलाम्बुना।। होता है। हन्ति सर्व विषाण्येव वजीवनमिवासुरान्॥ (१६७३) चव्यादिकाथः (वृ.नि.र.।उदर.) लालचन्दन, तगर, कूठ, ह दी, दारुह दी, दार- चव्यचित्रकविश्वानां साधितो देवदारुणा । चीनी, मनसिल, तमालपत्र, केसरका रस, और शेरका काथस्त्रिवर्णयुतो गोमूत्रेणोदरं जयेत् ॥ नाखून; बराबरे बराबर लेकर चावलोंके पानीमें पीसकर चव, चीता, सोंठ और देवदारुको गोमूत्रमें प्रयोग करनेसे सब प्रकार के विष नष्ट होते हैं। पकाकर छानकर उसमें निसोतका चूर्ण मिलाकर (१६७०) चन्द्र सरकाथः । पीनेसे जलोदरादि उदररोग नष्ट होते हैं। (वृ. नि. र.; भा. प्र.; वै. र. । हिक्की.) (१६७४) चव्यादिकाथः (वं.से.;भा.प्र.।अति.) चन्द्रसूरस्थ वीजानि क्षिपेदष्टगुणे जले। चव्यं सातिविषं कुष्ठं बालविल्वं सनागरम् । यदा मुनि गृहीयात् ततो वाससि गालयेत् ॥ वत्सकत्वकफलं पथ्या छर्दिश्लेष्मातिसारनुत् ।। हिकातिवेगकललस्तज्जलं पलमात्रया। चव्य, अनीस, कृट, कच्ची बेलगिरी, सोंठ, पिबेत्पुनः पुनश्चापि हिकाशीघ्रं विनश्यति ॥ कुडेकी छाल इन्द्रजौ और हरका क्वाथ पीनेसे वमन, हालोंके बीजोंको आठ गुने जलमें पका । और कफातिसार नष्ट होता है । लीजिए और जब वह नरम हो जाय तो काथको (१६७५) चन्यादिकाथ: (च.सं.चि.अ.५) छानकर शीशीमें भरकर रख लीजिए। चव्यानिमन्थो त्रिफलासपाठा इते १ पन्ट (५ तोले) की मात्रानुसार पुन: : मधुसम्पयुक्ता कफमेहं नाशयति ॥ पुनः पिलानेसे अति प्रबल हिचकी भी शान्त हो । चव, अग्निमन्थ ( अरणी ), त्रिफला ( हरी, जाती है। बहेड़ा, आमला ) और पाठा ( जलजमनी ) के For Private And Personal Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १३९] काथमें शहद मिलाकर पीनेसे कफज प्रमेह नष्ट (१६७९) चातुर्भद्रम् ( र.र.;भा.प्र.।ज्वरा ) होता है। किराततिक्तकं मुस्तं गुडूची विश्वभेषजम् । (१६७६) चाङ्गेरीप्रयोगः ( वं. से. । उन्मा.) चातुर्भद्रमिदं ख्यातं वातश्लेष्मज्वरापहम् ।। चाङ्गेरीरसकाञ्जिकगुडसमभागाःसुमथिताःक्रमशः चिरायता, मोथा, गिलोय और सोंठके योगका उन्मादरोगशमनाः पीता दिवसत्रयेणैव ॥ नाम ' चातुर्भदम् ' है। यह वातकफज ज्वरको ___ चाङ्गेरी ( चूके )का रस, काञ्जी और गुड़ नष्ट करता है। बराबर बराबर लेकर सबको भली भांति मथकर (१६८०) चिश्चापत्रादिकल्कः (रा.मा.क्षुद्र.) तीन दिन पिलानेसे ही उन्माद (पागलपन) नष्ट चिश्चादलेन सहितां रजनी प्रपिष्य हो जाता है । ये शीतलेन सलिलेन सकृत्पिबन्ति । (१६७७) चातुर्भद्रकम् ( भै. र. । परि. ) तेषां भवन्ति नहि शीतलिकाः शरीरे नागरातिविषामुस्तं त्रयमेतद्विमिश्रितम् ।। कार्यत्विदं प्रथममेव तदुद्भवेऽपि ॥ गुडूचीसंयुतं तच्च चातुर्भद्रकमुच्यते ॥ इमलीके पत्ते और हल्दीको ठण्डे पानीमें . पीसकर बार बार पीनेसे शीतला नही निकलती । सोंठ, अतीस, मोथा और गिलोय; इन चारों . शीतला निकल आने पर भी प्रारम्भमें यही ओषधियोंके योगका नाम चातुर्भद्रक कषाय है। योग पिलाना चाहिए। ( यह कषाय कफाधिक कफपित्त वर, आम, (१६८१) चित्रकमूलादियोगः (रा.मा.।अर्श.) संग्रहणी नाशक और दीपन पाचन है।) यश्चित्रकोत्थमथवा मुशलीसमुत्थ(१६७८) चातुर्भद्रकपञ्चमूलादिकाथः । मादाय कृष्णचिरविल्वसमुद्भवं वा । (वं. मा.; च. द.; ग. नि. । वरा.) गोमूत्रयुक्तमभिपिष्य पिबत्यभीक्ष्णम् पञ्चमूली किरातादिगणो योज्यस्त्रिदोषजे।। मूलं न तस्य गुदकीलकृताऽस्ति भीतिः॥ पित्तोत्कटे च मधुना, कणया वा कफोत्कटे ॥ चीते, मूसली या कृष्णकरञ्जवेकी जड़को पित्तप्रधान सन्निपातज्वरमें लघु पञ्चमूल । गोमूत्रके साथ पीसकर सेवन करनेसे बवासीरके (शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु) और मस्से नष्ट हो जाते हैं । किरातादिगण ( चिरायता, सोंठ, मोथा, गिलोय ) (१६८२) चित्रकादिक्वाथः के क्वाथमें शहद डालकर और कफप्रधान सन्निपात ( वा. भ.; वं. से.; वृ. नि. र.; यो. र.; ग. नि.; ध्यरमें वृह पञ्चमूल ( बेलकी छाल, सोनापाठा . मा. । शूला.; वृ. यो. त. । त. ९४ ) . ( अरलु )की छाल, खम्भारी ( कुम्हार ) पाढल चित्रकग्रन्थिकैरण्डशुण्ठीधान्यजलैः शतम् । और अरनी) और किरातादिगणके काथमें पीपलका सहिङ्गसैन्धवविडमामशूलहरं परम्॥ चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिए । . चीता, पोपलामूल, अरण्डकी जड़, सौंठ, For Private And Personal Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ चकारादि धनिया और सुगन्धबाला समान भाग लेकर काथ | (१६८६) चित्रकादिवाथः करके उसमें हींग, सेंधानमक और खारी नमक (वृ. नि. र.; वं. से. । अति.) मिलाकर पीनेसे आमशूल नष्ट होता है। चित्रकं पिप्पलीमूलं वचा कटुकरोहिणी । (१६८३) चित्रकादिक्काथः पाठा वत्सकबीजानि हरीतक्यो महौषधम् ।। (घ. नि. र.; वं. से.; यो. र.; ग. नि. । नेत्र.; एतदामसमुत्थानमतिसारं सवेदनम् । वृ. यो. त. । त. १३१) कफात्मकं सपित्तश्च सवातं हन्ति वै ध्रुवम् ॥ चित्रकमूलत्रिफलापटोलयवसाधितं पिबेदम्भः। चीता, पीपलामूल, बच, कुटकी, पाठा, सघृतं निशि चक्षुष्यं तिमिरं च विशेषतो हन्ति ॥ इन्द्रजौ, हर्र और सोंठ का क्वाथ आमातिसार, चीतेकी जड़, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला) वेदनायुक्त कफातिसार, पित्तातिसार, और वातापटोलपत्र और इन्द्रजौके काथमें घृत मिलाकर तिसारका अवश्य नाश करता है। रात्रिके समय पीना नेत्रों के लिए हितकर और (१६८७) चित्रकादिप्रयोगः (मुं.सं.चि.अ.६) विशेषतः तिमिररोगनाशक है। चित्रकमूलं क्षारोदकसिद्धं वा पयः (१६८४) चित्रकादिकाथ: अर्शरोगमें चीते की जड़ और क्षारोदक' (वृ. नि. र.; यो. र; वं. से. । अ. पि.; से सिद्ध दृध पिलाना भी हितकर है। . वृ. यो. त. । त. १२२) (१६८८) चोपचीनीप्रयोगः चित्रकैरण्डमूलानि यवाश्च सयवासकाः। (यो. चि. म. । मिश्रा. अ. ९) जलेन कथितं पिन कोटदाहाम्लपित्तजित ॥ चोपचीनी समुत्काथ्य त्रिशाणं पिवतःसदा। चीता, अरण्डकी जड, इन्द्रजौ और जवासे सर्ववातव्यथा यान्ति पथ्यनिर्वातसेवितः॥ का काथ पित्त, कोष्ठदाह, और अम्लपित्तका नाश अथवा मधुना साई सकणा लेहि वातकी। करता है। अथवा शर्करायुक्तं चूर्णमस्याःसमीरजित् ॥ (१६८५) चित्रकादिवाथः १ तोला चोपचीनीके काथको नित्य प्रति (वृ. नि. र.; वं. से.; अति०) सेवन करने अथवा चोपचीनी और पीपलके सम भाग मिश्रित चूर्णको शहदमें मिलाकर चाटने, या चित्रकातिविषामुस्तं बला बिल्लं सनागरम् । चोपचीनीके चूर्ण में मिश्री मिलाकर सेवन करने वत्सकत्वक्फलं पथ्या वातश्लेष्मातिसारनुत् ॥ और पथ्य पालनपूर्वक निर्वात स्थानमें रहनेसे चीता, अतीस, मोथा, खरैटी, बेलगिरो, | समस्त वातजरोग नष्ट होते हैं । सोंठ, कुडेकी छाल, इन्द्रजौ, और हर्रका काथ । । ॥ इति चकारादिकषायप्रकरणम् ॥ वातकफज अतिसारका नाश करता है। १ (११४ पृष्ठ देखिए) For Private And Personal Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्ण प्रकरणम् ] अथ चकारादि चूर्ण प्रकरणम् । (१६८९) चणकाद्युद्भूलनम् (बृ.नि.र. । ज्वर.) अथवा चणकाः भ्रष्टा यवानीचूर्णमिश्रिताः । वचोषणारजोयुक्ता स्वेदसंशोषणा मताः ॥ भुने हुवे चने, अजवायन, बच और स्याह मिर्च समान भाग लेकर पीसकर मालिश करने से अधिक पसीना आना रुक जाता है । (१६९०) चतुःसमचूर्णम् (वृं. मा.; भै. र.; धन्वं. । शूला.) atori सैन्धवं पथ्या नागरञ्च चतुःसमम् । चूर्ण शूलं जयत्याशु सन्नष्टस्याग्नेश्च दीपनम् ॥ अजवायन, वानमक, हर्र और सोंठका समान भाग चूर्ण (२-३ माशेकी मात्रानुसार उष्ण जल के साथ) सेवन करनेसे शूल नष्ट होता और अनि दीप्त होती है। द्वितीयो भागः । (१६९१) चतुःसमप्रयोगः (बृ.मा. अर्श . ) तिलभल्लातकं पथ्या गुडश्चेति समांशकम् । दुर्नामश्वासकासह पाण्डुज्वरापहम् ॥११ तिल, शुद्ध भिलावा, हर्र और गुड़ समान भाग मिलाकर सेवन करने से बवासीर, श्वास, खांसी, तिल्ली, पाण्डु और बरका नाश होता है। (१६९२) चतुर्दशाङ्गलौहः (यो. र. । क्षय.;यो. त. । त. २७;यू. यो. त. त. ७६) रास्ताकर्पूरताली भेकपर्णी शिलाजतुः । त्रिकटु त्रिफला मुस्ता विडङ्गदहनाः समाः || चतुर्दशायसो भागास्तच्चूर्ण मधुसर्पिषा । लीढं कासं ज्वरं श्वासं राजयक्ष्माणमेव च ॥ बलवर्णापुष्टीनां वर्धनं दोषनाशनम् । [ १४१ ] तालीस पत्र, भेकपर्णी (मण्डूक रास्ता, कपूर, पर्णा - त्राह्मी भेद ) शिलाजीत, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, अमला, मोथा, बायबिडंग, और चीतेका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध लोह चूर्ण ( भस्म लेना उत्तम है ) १४ भाग लेकर एकत्र खरल कीजिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसे शहद और घीके साथ सेवन करने से खांसी, वास, वर और राज यक्ष्माका नाश होता तथा बलवर्ण, अग्नि और पुष्टिकी वृद्धि होती है । (लोहपूर्ण युक्तकी मात्रा १ माशा | भस्म युक्तकी मात्रा ४ रत्ती । धी ६ माझे, शहद, २ तो. ।) (१६९३) चन्दनचूर्णयोगः ( वृं. मा., वं. से, ग. नि. । छर्दि ) चन्दनेनाक्षमात्रेण संयोज्यामलकीरसम् । पिषेन्माक्षिकसंयुक्तं छर्दिस्तेन निवर्त्तते ॥ १ क (१ । तोले) सफेद चन्दनको आमले के रस और शहद में मिला कर पीनेसे वमन शान्त होती है । (१६९४) चन्दन योग : ( वृ.यो.. । त. ६४ ) पीतं मधुसितायुक्तं चन्दनं तण्डुलाम्बुना । रक्तातिसार जिद्रक्तपित्ततृदाहमोहनुत् ॥ मिलाकर चावलों के पानी के साथ पीने से रक्तातिसार सफेद चन्दन के चूर्ण में शहद और मिश्री पित्त, पिपासा, दाह और मोह नष्ट होता है । (१६९५) चन्दनयोगः ( वै.म.र. | पटल ११ ) शीतपित्तशमनाय चन्दनं छिन्नरोहरसपेषितं तथा । शीतपित्त ( पित्ती ) की शान्तिके लिए For Private And Personal Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१४२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि सफेद चन्दनको गिलोयके रसमें पीसकर पीना सफेद चन्दन, खस, मजीठ, पटोलपत्र, नागरचाहिए। मोथा, नेत्रबाला, महुवेके फूल, मुलैठी, लाल चन्दन, ( मात्रा -... ? |-२ माशा ) । सारिवा, जीरा, कैवर्तमुस्तक, पद्माक और पुनर्नवा १६९६) चन्दनादिचूर्णम् (आ.वे.वि.अ.६८) समान भाग लेकर चूर्ण कर लीजिए । रक्ताङ्गबब्बूलरसः प्रियङ्ग इसे खांउयुक्त दृधके साथ सेवन करनेसे पित्तजम्बाम्रवीजेन्द्रयवं यमानी। रोग शान्त होते हैं। वन्या च सा मोचरसो गुडूची । (१६९८) चन्दनादिचूर्णम् . लौहस्य भस्म सममेव सर्वम् ।! ( भै. र. । स्त्री.; ग. नि. । चूर्णा, ; बूं. मा.; यो. मात्रैकमासप्रमिता विधेया र । रक्त. पि.; यो. त. । त. २६; र. र. प्रदर; प्रोक्तं महेशेन च चन्दनादिः । वृ. यो. त, । त. ७५) चूर्ण प्रमेहान् सकलांश्च तूर्णम् चन्दनं नलदं लोध्रमुशीर पद्मकेशरम् । ___ सपूयरक्तं लसिकारख्यमेहम् ॥ नागपुष्पश्च बिल्वश्च भद्रमुस्तश्च शर्करा ॥ सोपद्रवं हन्ति तथानिमान्य तृष्णाज्वरारोचकरोगसंघान् ॥ हीवेरश्चैव पाठा च कुटजस्य फलत्वचम् । शृङ्गवेरं सातिविषा धातकीच रसाञ्जनम् ।। लाल चन्दन, कीकरका गोंद, फूलप्रियंगु, आम्रास्थि जम्बुसारास्थि तथा मोचरसोद्भवः । जामन और आमकी गुठली, इन्द्रजौ, अजवायन, नीलोत्पलं समगा च मूक्ष्मैला दाडिमोद्भवम्॥ अजमोद, मोचरस, गिलोय और लोहभस्म समान चतुर्विंशतिभेतानि समभागानि कारयेत् । भाग लेकर चूर्ण कर लीजिए। तण्डुलोदकसंयुक्तं मधुना सह योजयेत् ॥ ___ इसे १ माशेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे चतुष्प्रकारं प्रदरं रक्तातीसारमुल्वणम् । पीप और रक्तयुक्त प्रमेह, लसिका प्रमेह तथा अन्य रक्तार्शासि निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा॥ समस्त प्रकारके उपद्रवयुक्त प्रमेह और अग्निमांद्य, अश्चिन्योःसम्मतो योगो रक्तपित्तनिवणः॥ तृष्णा,ज्वर और अरुचिका नाश होता है। (एतानि चूर्णानि समभागानि एकीकृत्य माषक(१६९७) चन्दनादिचूर्णम् | चतुष्टयं तण्डुलोदकेन मधुना च सह योजयेत् ) ( हा. सं.। स्था. ३ अ. ५१) __सफेद चन्दन, नल, लोध, खस, कमलकेसर, चन्दनोशीरमञ्जिष्ठा पटोलं घनवालकम। नागकेसर, बेलगिरी, नागरमोथा, खांड, नेत्रबाला, मधुकं मधुयष्टी च तथा लोहितचन्दनम् ।। | पाठा, कुडेकी छाल, इन्द्रजौ, सोंठ, अतीस, धायके सारिवा जीरकं मुस्तं पद्मकञ्च पुनर्नवा । फूल, रसौत, आम और जामनकी गुटलीकी मांगी क्षीरेण शर्करायुक्तं पानं पित्तोद्भवे गदे ॥ ( गिरी ), मोचरस, नीलोफर, मजीट, छोटी For Private And Personal Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१४३ ] इलायची और अनारदाना समान भाग लेकर चूर्ण | पिवेत्पित्तहरं रात्रौ क्षीरिणीशाकमाचरेत् । कर लीजिए। दध्यानं दापयेत्पथ्यं दुग्धैर्वाला च मण्डकम् ।। ____ अश्विनीकुमार निर्मित इस चूर्णको ४ माशेकी ग्रहणी रोगकी शान्तिके लिए... मात्रानुसार शहदमें मिलाकर तण्डुलोदक ( चाव- सफेद चन्दन, पनाक, खस, पाठा, मूर्वा, लों के पानी) के साथ पीनेसे चार प्रकारके प्रदर, नागरमोथा, सौराष्ट्री, अतोस, तेजपात, दालचीनी, रक्तातिसार, रक्तार्श (खूनी बवासीर ) और रक्तपित्त | इलायची, देवद्वार और स्याहमिर्च समान भाग लेकर का अत्यन्त शीव्र नाश होता है ॥ चूर्ण बना लीजिए। (१६९९) चन्दनादिचूर्णम् (भै.र.।शुक्र.मे.) बकरीके दूध में आधा पानी मिलाकर पकाइये। चन्दनं शाल्मलीपुष्पं त्रिजातं रजनीद्वयम् । जब पानी जल जाय तो दूधको ठण्डा कर अनन्तां शारिवां मुस्तमुशीरं यष्टिकामले ॥ लीजिए । उपरोठ चूर्ण २-३ माशेकी मात्रानुसार स्वर्णपत्रीं शुभां भाी देवदारुहरीतकीम् । शहद में मिलाकर चाटकर ऊपरसे यह दूध पीना सर्वद्विगुणितं लौहश्चैकत्र परिमर्दयेत् ॥ चाहिए । और रात्रि के समय दूधीका शाक खाना ममेहा विंशतिः श्वासःकासो जीर्णज्वरस्तथा। चाहिए । एवं पश्यमें दहीभात अथवा नेत्रबालाके प्राशनादस्य नश्यन्ति दुर्नामानि च कामला।। क्वाथसे पकाए हुवे दूधमें बना हुवा चावलोंका सफेद चन्दन, सेमलके फूल, दालचीनी, । मण्ड ग्वाना चाहिए। इलायची, तेजपात, हल्दी, दारुहल्दी, अनन्तमूल, (१७०१) चन्दनादिचूर्णम् सारिवा, नागरमोथा, खस, मुलैठी, आमला, सनाय, ( यो. २.; वृ. नि. र. । दाह. ) बंसलोचन, भारंगी, देवदारु और हरका चूर्ण चन्दनोशीरकुष्ठाब्दधात्रीचोरकमुत्पलम् । समान भाग और समस्त ओषधियोंसे दो गुना मधुकं मधुपुष्पं च द्राक्षाखर्जरकं तथा ॥ शुद्ध लोह चूर्ण+ लेकर एकत्र खरल करा लीजिए। चूर्णीकृतं समसितं प्रातः शीताम्बुना पिवेत् । ___इसे ( १ माशेकी मात्रानुसार शहद के साथ) रक्तपित्तं तथा श्वास पैत्वं गुल्मं समुद्धरेत् ॥ चाटनेसे २० प्रकारके प्रमेह, श्वास, खांसी, जीर्ण अङ्गदाहं शिरोदाहं शिरोविभ्रममेव च । 'चर, बवासीर और कामलाका नाश होता है। कामलाच प्रमेहांश्च पित्तज्वरविनाशनम् ॥ (१७००) चन्दनादिचूर्णम् (वृ.नि.र.|संग्र.) चन्दनायमिदं चूर्ण पूज्यपादेन भाषितम् ।। चन्दनं पद्मकोशीरपाठासूकुटन्नटम् । सफेद चन्दन, खस, कृउ. नागरमोथा, आमला, सौराष्ट्रयतिविषापत्रत्वगेलादेवदारु च ॥ चोरक, नीलोफर, मुलै डी, महुवेके फूल, मुनक्का मरिचं चूर्णयेत्तुल्यं मधुना लेहयेदनु । और खजूरका चूर्ण १-१ भाग तथा मिश्री ११ अजाक्षीरं जलार्धेन काथ्य दुग्धावशेषकम् ।। ! भाग लेकर एकत्र मिला लीजिए। + लोहभस्म लेना उत्तम है For Private And Personal Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१४४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि NnVir-rnhvvv12WAVORMAny....... इस “चन्दनादि चूर्ण को प्रातःकाल शीतल लेकर चूर्ण कर लीजिए। इसे उष्ण जलके साथ जलके साथ सेवन करनेसे रक्तपित्त, श्वास, पित्तज सेवन करनेसे गर्भाशयके रोग नष्ट होते हैं । गुल्म, अङ्गदाह, शिरोदाह, शिरका घूमना (चक्कर ( मात्रा----३-४ माशे ) आना ), कामला, प्रमेह और पित्तज्वरका नाश । (१७०४) चन्द्रकलाचूर्णम् (वै. जी. । वि.२) होता है। तुल्यांशं सकलं किरातकटुकामुस्तेन्द्रजध्युषणम् । ( मात्रा---३-४ माशा) भागश्चन्द्रकलामित कुटजतो भागद्वयं चित्रकात्।। (१७०२) चन्दनादिलोहम् चूर्ण चन्द्रकलाभिधं गुडपयोयुक्तं च पाण्डुज्वरा( भै. र.; र. चं.; र. सा. सं.; र. र.; तीसारारुचिकामलाग्रहणिकागुल्मप्रमेहापहम् ।। र. रा. सुं. । वर०) चिरायता, कुटकी, मोथा, इन्द्रजौ, सोंठ, रक्तचन्दनहीवेरपाठीशीरकणाशिवा। मिर्च और पीपल १-१ भाग, कुडेकी छाल १६ नागरोत्पलधात्रीभिस्त्रिमदेन समन्वितः ॥ भाग और चीना २ भाग लेकर महीन चूर्ण कर लीजिए। लौहो निहन्ति विविधान् समस्तान् विषमज्वरान् इस चन्द्रकला' नामक चूर्णको गुड्युक्त लाल चन्दन, नेत्रबाला, पाठा, खस, पीपल, दूधके साथ (२-३ माशेकी मात्रानुसार ) सेवन हरी, सोंड, नीलोफर, आमला, नागरमोथा, चीता, । करनेसे पाण्ड, अर, अतिसार, अरुचि, कामला, वायबिडंग । सबका चूर्ण १-१ भाग और लोह । संग्रहणी, गुल्म और प्रमेहका नाश होता है । भस्म सबके बराबर लेकर एकत्र खरल कर लीजिए। (१७०५) चन्द्रोदयोऽगदः (वं. से. । विप.) इसके सेवनसे समस्त विषम ज्वर नष्ट होते हैं। चन्दनच शिलाकयुवकपत्रैलाब्दसर्वपाः । ( मात्रा ४ रत्ती । अनुपान मधु । ) मांसीप मकवत्सा ससुरभीभवरोचना ॥ (१७०३) चन्दनायं चूर्णम् स्पृक्काहिङ्गवम्बुलामज्जशतपुष्पाप्रियङ्गवः। ( आ. वे. वि. अ. । ७९) पिष्ट्वा सर्वविपोन्मन्था नाम्ना चन्द्रोदयोऽगदः॥ चन्दनं द्वितयं मूर्वा नीलिन्येलाद्वयं मुरा। सफेद चन्दन, मनसिल, कूठ, दालचीनी, कणाद्वयं त्रिदद्राक्षा मांसी मधुकपुस्तकम् ॥ तेजपात, इलायची, नागरमोथा, सरसों, बालछड, एतत्सर्व चूर्णयित्वा डिम्बाधारगदापहम् । पाक, इन्द्रजौ, केशर, गोरोचन, स्पृक्का, हींग, उष्णेन पयसा नारी पिबेनित्यं सुखार्थिनी ।। सुगन्धवाला, लामजकतृग (खस भेद-अभावमें सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मूर्वा, नीलका खस) सोया और फूल प्रियंगु समान भाग लेकर पौदा, छोटी इलायची, बड़ी इलायची, मुरामांसी पीस लीजिए। ( मुरमुकी) पीपल, गजपीपल, निसोत, मुनका, यह 'चन्द्रोदयागद' समस्त विषोंका नाश जटामांसी, मुलैठी और नागरमोथा समान भाग ! करता है। For Private And Personal Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्ण प्रकरणम् ] । (१७०६) चम्पकादिचूर्णम् (यो त । त. २५) चम्पकं चन्दनं वारि पर्पटोशीर पद्मकम् । मञ्जिष्ठातिविषा मोचा वासेन्द्रयवपिप्पली || केसरं धातकी पाठा मुस्ता शुण्डी च बिल्वजम् उत्पलं दाडिमीवीजं जम्बूवीजं त्वचामयम् ॥ एला च चन्दनं रक्तं माषचूर्ण रसाञ्जनम् । तालीसञ्च समांशानि शर्करा च चतुर्गुणा ॥ हारिद्र पाण्डुरोगे प्रमेहे रक्तपित्तके । कासे श्वासे च हिक्कायां मूत्रकृच्छ्रे च दारुणे ॥ चम्पाके फूल, सफेद चन्दन, नेत्रवाला, पित्त पापड़ा, खस, पद्माक, मजीठ, अतीस, मोचरस, वासा, इन्द्रजौ, पीपल, नागकेसर, धायके फूल, पाठा (जलजमनी), मोथा, सोंड, बेलगिरी, नीलोफर, अनारदाना, जामनकी गुठली, दालचीनी, कूठ, इलायची, लालचन्दन, उर्दू, रसौत और तालीसपत्रका चूर्ण समान भाग तथा मिश्री सबसे चारगुनी लेकर एकत्र कर लीजिए । द्वितीयो भागः । इसे (१ तोलेकी मात्रानुसार) हारिद्रक, पाण्डु रोग, प्रमेह, रक्तपित्त, खांसी, श्वास, हिचकी और भयङ्कर मूत्र कुच्छ्रमें (उचित अनुपान के साथ) प्रयुक्त करना चाहिए । (१७०७) चव्यादिचूर्णम् (र. सा. सं.; वं. से; भै. र; वै. र; वृं. मा; च. द.; । स्वर भे; ग. नि. । चूर्ण.; वृ. यो. । त. ८१ ) चव्याम्लवेतसकटुकत्रयतिन्तडीक - तालीशजीरकतुगादहनैः समांशैः । चूर्ण मृदितं त्रिसुगन्धियुक्तम्; वैस्वपीनसक फारुचिषु प्रशस्तम् ॥ चव, अम्लवेत, सोंठ, मिर्च, पीपल, तिन्ति भा० १९ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४५ ] डीक, तालीसपत्र, जीरा, बंसलोचन, चीता, दालचीनी, इलायची और तेजपात के समान भागमिश्रित चूर्णको सबके बराबर गुड़में मिला लीजिए । इसे (३-४ माशेकी मात्रानुसार गर्म जलके साथ) सेवन करनेसे स्वरभंग, (गला बैठना) पीनस, कफ और अरुचिका नाश होता है । (१७०८) चत्र्यादिचूर्णम् (वृ.नि. र. यो. र, वृं. मा. ग. नि. ; च. द. मदात्य.) o सौवर्चलं हि पूरकं विश्वभेषजम् । चूर्ण मद्येन पातव्यं पानात्ययरुजापहम् ॥ चव, सौंचल (काला नमक), हींग, बिजौरे नीबूका गूदा और सोंठके समान भाग चूर्णको शराबमें मिलाकर पीने से पानात्यय ( मद्यविकार) की पीड़ा नष्ट होती है। I (१७०९) चव्यादिचूर्णम् । ( वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र.; । मेदरो. ) सचव्यजीरकव्योषहिङ्गुसौवर्चलानलाः मधुना सक्तवः पीता मैदोन्ना वह्निदीपनाः || ( जौके ) सत्तू में चव, जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, सौंचल ( काला नमक ) और चीतेका चूर्ण डालकर शहद में मिलाकर पीने से मेद (चरबी) घटती और अग्नि दीप्त होती है । (१७१०) चव्यादिचूर्णम् (वृ.नि.र. संप्र. ) चूर्ण चव्यकचित्रश्रीविश्वभेषज निर्मितम् । तक्रेण सहितं हन्ति ग्रहणीं दुःखकारिणीम् ॥ चव, चीता बेलगिरी और सोंठके समान भाग मिश्रित चूर्णको ( १ ॥ - २ माशेकी मात्रानुसार ) त के साथ सेवन करनेसे दुःखदायक संग्रहणी होती है। For Private And Personal Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१४६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv VvvvvvvvvvvvvvvvARAN (१७११) चव्यादिचूर्णम् ( वं. से. । रा. य.) इसे धीमें मिलाकर बालकोंको चटानेसे उनके चव्यव्योषविडङ्गानि चूर्ण कृत्वा लिहेन्नरः।। अजीर्ण, श्वास, खांसी, आदि रोग नष्ट होते और सर्पिर्मधुभ्यां मुच्येत क्षयरोगान्न संशयः॥ बल, पुष्टि तथा शरीरकी वृद्धि होती है । चव, सोंठ, मिर्च, पीपल और बायबिडंगके चातुर्भद्रिका चूर्णको शहद और धोमें मिलाकर सेवन करनेसे (आयु. वि. । अ. ८; भा. प्र. । बा. रो. ) क्षय रोग अवश्य नष्ट हो जाता है। १६३२ संख्यक, प्रयोग देखिए । ( मात्रा-३-४ माशे)। (१७१४) चिश्चादिचूर्णम् । (१७१२) चातुर्जातम् ( भै. र. । परिशि.) | चिश्चापलसमायुक्तं गृहधूमं पलार्धकम् । चातुर्जातं समाख्यातं त्वगेलापत्रकेशरैः पुराणाज्येन सप्ताह लीद्दा चाखुविष हरेत् ॥ तदेव त्रिसुगंन्धिः स्यात्त्रिजातकमकेशरम् ॥x १ पल ( ५ तोले ) इमली और आधापल - दालचीनी, इलायची, तेजपात और नाग घरका धुंवा एकत्र मिलाकर पुराने धोके साथ सात केसरके योगका नाम ' चातुर्जात ' है । और दिन तक सेवन करनेसे चूहेका विष नष्ट होता है । नागकेसर रहित अन्य तीन ओषधियों के समूहको (१७१५) चिञ्चाबीजयोगः (वै.म.र.पट.६ ) 'त्रिगन्ध' या · त्रिजात' कहते हैं। चिञ्चावीजत्वचं सैन्धवं दीप्यकस्तथा। (१७१३) चातुर्जातादिसम्भारकः ( ग. नि. । बाल.) पिबेदामेन तक्रेण सोऽतिसारं जयेत्क्षणात् ॥ चातुर्जातकतालीसकुष्ठं त्रिकटुकं तथा। इमलीके बीज ( चियें ) दारचीनी, सोंठ, चविका पिप्पलीमूलं तवक्षीरं च जीरकम् ॥ सेंधानमक, और अजवायनके समान भाग मिश्रित अश्वगन्धा च सम्भारं चूर्णीकृत्य विनिःक्षिपेत् । चूर्णको (३-४ माशेकी मात्रानुसार) तक्रके साथ चूर्णाद्विगुणितं खण्डं सर्पिषा लेहयेच्छिशुम् ।। सेवन करनेसे अतिसार अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है। अजीर्णश्वासकासघ्नं बालानामङ्गवर्धनम् ।। (१७१६) चिञ्चाबीजादिचूर्णम् सर्वरोगहरं श्रेष्ठं बलपुष्टिकरं मतम् ॥ ( वृ. नि. र. । मसूरि.) दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, ये शीतलेन सलिलेन विपिष्य सम्यक् । तालीसपत्र, कूट, सोंठ, मिर्च, पीपल, चव्य, चिश्चोत्थवीजसहितां रजनीं पिबन्ति ।। पीपलामूल, बंसलोचन, जीरा, और असगन्धका तेषां भवन्ति न कदाचिदपीह देहे। चूर्ण समान भाग तथा समस्त चूर्णसे २ गुनी मिश्री पीडाकरा जगति शीतलिकाविकाराः ॥ लेकर एकत्र कर लीजिए। ___ इमलीके बीज (चियें) और हन्दीके चूर्णको xचातुर्जातमिदं वर्ण्य वह्निकृच्च विषापहम् । ( रा. नि. । व. २२) चातुर्जातक शरीरके रंगको सुधारने वाला, अग्निवर्द्धक और विषनाशक है। For Private And Personal Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [१४७] शीतल जलके साथ सेवन करनेसे शीतला (माता) । (१७१९) चित्रकादि क्षारः (ग.नि.।उदर.) नहीं निकलती। चित्रकः पिप्पली चैव सैन्धवं लवणं वचा। (१७१७) चित्रकचूर्णयोगः (वृ.नि.र.रक्तपि.) | घृतं चेति समांशानि कटाहे संवृतं दहेत् ॥ जयेन्नासाश्रितं रक्तं लीढं वा क्षौद्रपावकम् ॥ पिबेत्क्षीरेण तं क्षारं मद्येनोष्णोदकेन वा । ___ चीतेके चूर्णको शहदमें मिलाकर चाटनेसे प्लीहानमर्शःशुलानि गुल्मं चैव प्रणाशयेत् ॥ नकसीर (नाकसे रक्तस्राव होना) बन्द होती है। चीता, पीपल, सेंधानमक, बच और घी (१७१८) चित्रकप्रयोगाः | समान भाग लेकर (अधकुटा करके एकत्र मिलाकर) (वा. भ. । उत्त. स्था. । अ. ३९) एक कढ़ावमें भरकर भस्म कर लीजिए।' छायाशुष्कं ततो मूलं मासं चूर्णीकृतं लिहन् । इस क्षारको दूध, मद्य या उष्ण जलके साथ सर्पिषा मधुसपिभ्यां पिबन्वा पयसा यतिः ॥ सेवन करनेसे तिल्ली, बवासीर, शूल और गुल्मका अम्भसा वा हितानाशी शतं जीवति नीरुजः। नाश होता है। मेधावी बलवान्कान्तो वपुष्मान्दीप्तपावकः ॥ (मात्रा--१ माशा) तैलेन लीढो मासेन वातान्हन्ति सुदुस्तरान् । (१७२०) चित्रकादिचूर्णम् मूत्रेण श्वित्रकुष्ठानि पीतस्तक्रेण पायुजान् ॥ | ( भा. प्र. । म. ख. आम. ) ___चीतेकी जड़को छायामें सुखाकर महीन चूर्ण चित्रकेन्द्रयवापाठाकटुकातिविषाभयाः। करके घी अथवा घी और शहद या दूध अथवा आमाशयोत्थवातघ्नं चूर्ण पेयं मुखाम्बुना ॥४५ जलके साथ एक मास पर्यन्त सेवन करने और चीता, इन्द्रजौ, पाठा, कुटकी, अतीस और ब्रह्मचर्य तथा पथ्य पालन करनेसे मनुष्यको रोग । हैडके चूर्णको मन्दोष्ण जलके साथ सेवन रहित १०० वर्षकी आयु प्राप्त होती है तथा मेधा, करनेसे आमाशयगत वायुका नाश होता है । बल, कान्ति और अग्निकी वृद्धि होती है। चित्रकादिचूर्णम् ( र. र. । शू. ) ___ चीतेकी जड़के चूर्णको १ मास पर्यन्त तैलके | रसप्रकरणमें देखिए । साथ सेवन करनेसे समस्त भयङ्कर वातरोग, (१७२१) चित्रकादिचूर्णम् गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे सफेद कोढ़ और (ग. नि. यो. र. । अति०) तक्रके साथ सेवन करनेसे अर्श ( बवासीर ) नष्ट चित्रकं पिप्पलीमूलं वचा कटुरोहिणी। होती है। पाठा वत्सकवीजानि हरीतकी महौषधम् ।। १ उपरोक्त समस्त वस्तुओंको कढ़ावमें डालकर उसके ऊपर दसरा कढ़ाव या अन्य पात्र ढककर भट्टीपर चढ़ा दीजिये और जब समस्त चूर्ण जल जाय तो अग्नि जलानि बन्द कर दीजिए। तत्पश्चात् स्वांग शीतल होने पर निकालकर बोतलोमें भरकर मजबूत कार्क लगाकर रखिए कि जिससे ममीका प्रभाव न पड़े। For Private And Personal Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१४८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ चकारादि P/ v vvvvvvvvvvvvvnrvvvvmoovvvvvvvvvvvvvvivvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvww. एतदामसमुत्थानमविसारं सवेदनम् । | (१७२४) चित्रकादिचूर्णम् (बृ.मा.;यो.र.।ग्रह.) कफात्मकं सपित्तं च वर्ची बध्नाति वै ध्रुवम् ॥ चित्रकं हपुषा हिङ्ग दद्याद्वा तक्रसंयुतम् ॥ चीता, पीपलामूल, बच, कुटकी, पाठा, पञ्चकोलकयुक्तं वा तक्रेणैव प्रदापयेत् ॥ इन्द्रजौ, हर्र और सोंठके चूर्णको (गर्म पानीके ___ संग्रहणीकी शान्तिके लिए चीता, हाऊबेर साथ १॥-२ माशेकी मात्रानुसार) सेवन करनेसे और हींगके चूर्णको अथवा पञ्चकोल (पीपल, वेदनायुक्त आमातिसार, कफातिसार और पित्ताति- | पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ ) सहित इनके सारका नाश होता तथा मल बंध जाता है। चूर्णको तक्रके साथ पिलाना भी हितकर है। (१७२२) चित्रकादिचूर्णम् (१७२५) चित्रकादिचूर्णम् (र. र. । शू.) (यो. र.; वं. से. । आमवा,. वृ. यो. त.। त. ९३) चित्रकं कटुका पाठा कलिङ्गातिविषामृताः।। शुद्धलोहमलाचूर्ण षट्पलं पञ्चकार्षिकम् । देवदारु वचा मुस्ता नागरातिविषाभयाः॥ हरीतक्या:कठिन्याश्च रसगन्धकयोःपृथक् ।। पिबेदुष्णाम्बुना नित्यं चूर्णमाममरुत्प्रणुत ॥ अर्धकर्ष ततःकर्ष चित्रकं नागरं कणा। चीता, कुटकी, पाठा, इन्द्रजौ, अतीस, गिलोय सूक्ष्मैला तेजपत्रश्च वाटयालं भद्रमुस्तकम् ॥ देवद्वार, बच, मोथा, सोंठ अतीस और हर्र के थवानीधान्यकं धूपं विभीतक्यामलक्यपि। . समभाग मिश्रित चूर्णको (२-३ माशे की मात्रा- विडङ्गं शङ्खनाभिश्च अर्जुनाशनयोस्त्वचः ॥ नुसार) गर्म जलके साथ सेवन करनेसे आमवात | अपामार्गभवं मूलं सर्वमेकीकृतं शुभम् । (गठिया) रोग नष्ट होता है । पीठोपरि पदं न्यस्य प्रस्तये घृतभाजने ॥ नोट-अतीस २ भाग और अन्य सब पदार्थ भुक्तोपरि च तचूर्ण कर्ष कामाचरेत् । १-१ भाग लेने चाहिएं । अथवा आधे आधे तप्तोदकानुपानश्च ताम्बूलं भक्षयेत्ततः ॥ श्लोकद्वारा कथित (६-६ ओषधियोंके) दो प्रयोग ततो भूमौ पदं दत्वा भूमे किश्चिद्यथा सुखम् । भी हो सकते हैं। प्रत्यहं भक्षयेद्भक्त्या वह्निसन्दीपनं परम् ।। (१७२३) चित्रकादिचूर्णम् (वृ. नि.र.।कास.) शूलमष्टविधं हन्ति विशेषात्परिणामजम् । चित्रकं पिप्पलीमूलं पिप्पली गजपिप्पली। अन्नद्रवं कृतं शूलं यकृत्प्लीहकृतश्च यत् ।। एतचूर्ण समं युक्तं मधुना श्लेष्मकासनुत् ॥ । शूलानामपि सर्वेषामौषधं नास्ति तत्परम् । ' चीता, पीपलामूल, पीपल और गजपीपलके कामलापाण्डुरोगघ्नं हलीमकविनाशनम् ॥ 'चूर्णको (१॥-२ माशेकी मात्रानुसार) शहद में मानवानां कृपाहेतोर्देवदेवेन निर्मितम् । मिलाकर चाटनेसे कफज खांसी नष्ट होती है। चित्रकाद्यमिदं चूर्ण सर्वशूलान्तकं मतम् ॥x x नोट-यह अन्तिम श्लोक किसी अन्य प्रयोग का प्रतीत होता है और लेखककी भूलसे यहां लिखा गया है, एवं इसीकारण इस योगका नाम भी “चित्रकादि" रखना पड़ा है। For Private And Personal Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१४९] शुद्ध मण्डूरका चूर्ण ६ पल (३० तोले) चीता, पीपलामूल, पीपल, गजपीपल, हींग, हर्रका चूर्ण ५ कर्ष (६। तोले ), खिरिया मिट्टी पोखरमूल, अनारदाना, कालाजीरा, बायबिडंग, ५ कर्ष, पारा आधा कर्ष, गन्धक आधा कर्ष, चीता, थनिया, हाऊबेर, सोया, हिंगुपत्री, चव, अमलवेत, सोंठ, पीपल, छोटी इलायची, तेजपात, खरैटी, जीरा, अजवायन, कचूर, बच, तुम्बुरु (नेपाली नागरमोथा, अजवायन, धनिया, राल, बहेड़ा, धनिया) अजमोद, अजवायन, और कालानमक आमला, बायबिडंग, शंखकी नाभि, अर्जुनकी छाल, समान भाग तथा सबके बराबर सोंठ लेकर महीन असन (पीतशाल) की छाल और चिरचिटेकी जड़ चूर्ण करके बिजौ रे नीबूके रसमें घोटकर सुखा का चूर्ण १-१ कर्ष लेकर एकत्र खरल करके | लोजिए। घृतके चिकने पात्रमें भरकर रख दीजिए। इसे १ कर्ष (१। तोले) की मात्रानुसार ___इसे १ कर्ष या आधे कर्षकी मात्रानुसार उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे, सर्वांगशूल, उदर उष्ण जलके साथ भोजनके पश्चात् खाकर पान शूल पसलीकाशूल, बवासीर, उदररोग (प्लीहादि) खा लिया कीजिए। इसके सेवनसे अग्निवृद्धि गुल्म और आमवातका नाश होता है । होती और आठ प्रकारके शूल, विशेषतः परिणाम यह चित्रकादि चूर्ण' अत्यन्त अग्निदीपक है। शूल, अन्नद्रव शूल, यकृत् शूल और सीह शूल नष्ट होता है। शूलके लिए इससे उत्तम अन्य (१७२७) चित्राङ्गधादिचूर्णम् औषध नहीं है। (ग. नि. । ज्वरा. १) ___ यह कामला, पाण्डु और हलीमक रोगको चित्राङ्गी सिंहवदनस्ताम्रमली महौषधम् । भी नष्ट करता है । | पयोधरशिवं काली चूर्णमुष्णाम्बुसंयुतम् ॥ (१७२६) चित्रकाद्यं चूर्णम् (ग. नि.। चूर्णा.) प्रपीतं विषमं हन्ति जठरानलदीपनम् ।। चित्रकं पिप्पलीमूलं पिप्पली गजपिप्पली।। मजीठ, बासा, धमासा, सौंठ, नागरमोथा, हिङ्गु पुष्करमूलञ्च दाडिमं कृष्णजीरकम् ॥ आमला और कलौंजीके समान भाग मिश्रित चूर्ण विडङ्गधान्यहपुषाशताबाहिङ्गपत्रिकाः। को (३ माशेकी मात्रानुसार) उष्ण जलके साथ चव्याम्लवेतसाजाजीवस्तगन्धाशठीवचाः ॥ सेवन करनेसे विषमज्वर नष्ट होता और अग्नि तुम्बरूण्यजमोदा च यवानी रुचकं तथा। । प्रदीस होती है। समभागानि सर्वाणि सर्वैस्तुल्यं तु नागरम् ।। सूक्ष्मचूर्ण ततः कृत्वा मातुलुङ्गेन भावयेत् । (१७२८) चिन्तामणि चूर्णम् (वै.जी ।वि.३) ततो विडालपदकं पिबेदुष्णेन वारिणा ॥ रास्तावलापद्मकदेवदारु जयेत्सर्वाङ्गजं शूलं कोष्ठगं कुक्षिगं तथा ॥ फलत्रिकषणवेल्लचूर्णम् । अर्शीजठरगुल्मघ्नं दीपनीयं विशेषतः । चिन्तामणि क्षौघृतोपपन्नं चित्रकाद्यमिदं चूर्णमामवातहरं परम् ।। श्वासं च कासं च निराकरोति ।। For Private And Personal Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvxyy. रास्ना, खरैटी, पद्माक, देवदारु, हर्र, बहेड़ा, (१७३१) चूर्णागदः (ग. नि. । विष० ३) आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, और बायविडङ्गका सोशीरनिम्बं तगरं च कुष्ठं समान भाग चूर्ण एकत्र कर लीजिए। मुस्तं सताप्यं कुटज सरोधम् । - इस 'चिन्तामणि' नामक चूर्णको शहद और त्वक्सप्तपर्णस्य च चूर्णमेत धीके साथ (१॥ माशेकी मात्रानुसार ) सेवन द्योगं नवाझं मधुना च सार्धम् ॥ करनेसे श्वास और खांसीका नाश होता है। कृष्णायसे काञ्चनराजते वा (१७२९) चिरविल्वाद्य चूर्णम् (ग.नि, अर्श.) पीतं विषाणां शमनं त्रयाणाम् । चिरबिल्वाग्निसिन्धूत्थनामरेन्द्रयवारलु। चूर्णागदो वारण एष सिद्धो तक्रेण पिबतोऽीसि निपतन्त्यमृजां सह ॥ हन्ता विषाणां सचराचराणाम् ।। करावा, चीता, सेंधानमक, सोंठ, इन्द्रजौ खस, नीमकी छाल, तगर, कूठ, नागरमोथा, और अरलु (इयोनाक-सोनापाठा) के समान भाग सोनामक्खी भस्म, इन्द्रजौ, लोध और सप्तपर्ण मिश्रित चूर्णको ( ३ माशेकी मात्रानुसार) तक्रके (सतौने )की छाल बराबर बराबर लेकर चूर्ण कर साथ सेवन करनेसे बवासीरके मस्से नष्ट हो जातेहैं। लीजिए। (१७३०) चूर्णरत्नम् (रसे. चिं. । अ. ८) इस " चूर्णागद " को कृष्ण लोह, सोने वृष्यगणचूर्णतुल्यं पुटपकं घनं सिताद्विगुणा। या चांदीके पात्रमें शहदमें मिलाकर पिलानेसे वृष्यात्परमतिवृष्यं रसायनं चूर्णरत्नमिदम् ॥ । स्थावर, जंगम और कृत्रिम (तीनों प्रकारके) विष शतावरीविदारीगोक्षुरक्षुरकबलातिवलाः इति | नष्ट हो जाते हैं। दृष्यमणः। अत्र गन्धमूच्छितरसमभ्रात् पादिकं (१७३२) चोपचीनीयोगः ददति दाक्षिणात्याः । अनुपेयं दुग्धादिः। (न. मृ. । त. ८; भा. प्र. ख. २ । फिरंग.) ___ शतावर, विदारो कन्द, गोखरु, ताल मखाना, | चोपचीनीभवं चूर्ण शाणमानं समाक्षिकम् । खरैटीके बीज (बीजबन्द), कंधीकी जड़ । इनका फिरङ्गव्याधिनाशाय भक्षयेल्लवणं त्यजेत् ॥ चूर्ण एक एक भाग और अभ्रक भस्म इन सबके लवणं यदि वा त्यक्तुं न शक्नोति यदा जनः। बराबर तथा इस सबसे दो गुनी मिश्री एकत्र मिला- सैन्धवं स हि भुञ्जीत मधुरं परमं हितम् ॥ कर खरल कर लीजिए। ४ माशेकी मात्रानुसार चोपचीनीका चूर्ण यह चूर्ण अत्यन्त बृष्य और रसायन है। शहदमें मिलाकर सेवन करने और लवण रहित मधुर दक्षिण देशवासी वैद्य इसमें अभ्रकसे चौथार्द पारे । रसयुक्त पदार्थ (गेहं इत्यादि) खानेसे फिरंग रोग और गन्धककी कजली भी डालते हैं। (आतशक)का नाश होता है । (मात्रा-१ माशा प्रात्तः; १ माशा सायङ्काल। यदि लवण रहित भोजन न किया जा सके अनुपान दूध) | तो सैंधव नमक का उपयोग करना चाहिए। For Private And Personal Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir VivvvvvvvvvNAMANANJARAN yvvvvvvvvvv चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १५१] (१७३३) चोपचिन्यादिचूर्णम् अथ चकारादिशुटिकाप्रकरणम् ( यो. र.; वृ. नि. र. । उपदं. ) (१७३४) चतुःसमा गुटिका कुडवं चोपचिन्याश्च शर्करायाःपलं तथा।। | ( बं. से.; यो. र.; भा. प्र. खं. २; र. रा. सुं । पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं देवपुष्पकम् ॥ अति.; : मा. । कासा. ) आकल्लं क्षुरकं शुण्ठी जन्तुघ्नं च वराङ्गकम् । अभया नागरं मुस्तं गुडेन सह योजितम् । पृथकोलमितं ग्राह्यमेतचूर्णीकृतं शुभम् ॥ चतुःसमेयं गुटिका त्रिदोषघ्नी प्रकीर्तिता ॥ सर्वमेकत्र संयोज्यं कर्षार्ध प्रतिवासरम् । आमातिसारमानाहं विविधाञ्च विचिकाम् । भक्षयेन्मधुसर्पिभ्यां युक्तं पथ्यं समाचरेत् ॥ कृमीनरोचकं हन्यादीपयत्याशु चानलम् । शाल्योदनं तथा सूपस्तुवरीणां घृतं मधु । हर, सोंठ और नागरमोथेका चूर्ण तथा गोधूमः सैन्धवं शिबिम्बीकोशातकीफलम् ॥ ( पुराना ) गुड़ समान भाग एकत्र मिलाकर आर्द्रकं जलमन्दोष्णं हितमत्र प्रकीर्तितम् । गोलियां बना लीजिए । पञ्चोपदंशरोगाणाम् प्रमेहाणां तथैव च ॥ . यह चतुरसमा गुटिका त्रिदोषज अतिसार, बणानां वातरोगाणां कुष्ठानाश्च विनाशनम् ॥ अफारा, अनेक प्रकारकी विसूचिका ( हैजा) कृमि ___ चोपचीनीका चूर्ण २० तोले, खांड ५ तो. और अरुचिनाशक तथा अग्निवर्द्धक है। पीपल, पीपलामूल, मरिच, लौंग, अकरकरा, (१७३५) चतुस्समो मोदकः । तालमखाना, सोंठ, बायबिडंग, और दालचीनीका ( वं. से.; वृं. मा, । अर्श.; हा. सं.। स्था. ३ अ. चूर्ण १-१ कोल (१ तोला) लेकर सबको एकत्र कर लीजिए। ११; यो. त. । त. २३; वृ. यो. त.।त. ६९) इसे प्रतिदिन ६ माशेकी मात्रानुसार शहद सनागराऽरुष्करवृद्धदारकम् और धीमें मिलाकर सेवन करनेसे पांच प्रकारका गुडेन यो मोदकमत्युदारकम् । उपदंश (आतशक ), प्रमेह, व्रण, वातव्याधि और अशेष दुर्नामकरोगदारकम् । कुष्ठ रोगका नाश होता है। करोति वृद्धिं सहसैव दारकम् ॥ ___ पथ्य-शाली चावल, अरहरकी दाल, धी, सोंठ और विधारेका चूर्ण तथा शुद्ध भिलावा शहद, गेहं, सेंधानमक, संहजना, कंदूरी, तुरई, | और पुराना गुड़ समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर । मोदक बना लीजिए। अदरक और मन्दोष्ण जल । ( व्यवहारिक मात्रा ३ माशेसे ४ माशेतक) यह मोदक अर्शनाशक और बलवर्द्धक हैं । ॥ इति चकारादिचूर्णप्रकरणम् ॥ ( मात्रा–३ माशेसे १ तोले तक ।) 'चन्द्रकलावटी' रस प्रकरणमें देखिए । For Private And Personal Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि (१७३६) चन्द्रप्रभागुटिका यक्ष्माणं सभगन्दरं कफमरुत्पित्तोद्भवं पाण्डुताम् । ( र. रा. सु. । मेह; र. र. स. । उ. खं. अ. १७ | तं तं व्याधिसमूहशुक्रविकृतीन्ग्रन्थ्यबुदश्लीपदान् . हा. सं. । स्था. ३ अ. ५८ ) मेहांश्छुक्रविनाशमश्मरिरुजस्त्वन्यांश्चएलोजातिफलं मधृकयुगलं सारस्तथा खादिरः। देहस्थितान् । कर्पूरामलकीजटा बहुसुता घोण्टाम्लसारस्तथा व्याधीन्हन्ति दृढाननेन विधिना चन्द्रप्रभा सेविता कासीस भवसारदाडिमफलं सर्वं च सम्मीलितम्। । मन्दाग्नेः परमं प्रदीपनमियं कुर्याज्जरां जर्जराम् । " स्वेच्छाहारविधौ च पानविषये शीतातपे मैथुने ॥ प्रत्येकं दधिदुग्धलाङ्गलिरसैर्युक्तं समं कल्कितम्। भुक्तं नास्ति विरोधितं च सततं प्रोक्ता रसेन भावितं तस्य गुटिका च प्रकल्पिता। पुरा ब्रह्मणा। जयेच्चन्द्रप्रभानाम तीब्रान् मेहादिकान् गदान् ॥ बाय बिडंग, गज पीपल, चीता, पीपलामूल, ___ इलायची, जायफल, मुलैठी, महुवा, खैरसार, मोथा, कचूर, सोनामक्खी भस्म, चिरायता, हर्र, कपूर, आमलेके वृक्षकी जड़की छाल, शतावर, बेर बहेड़ा, आमला, देवद्वार, चव, सोंठ, मिर्च, पीपल, अम्लवेत, कसीस, गूगल और अनारदाना समान भाग | बच, धनिया, हल्दी, दारहल्दी अतीस, निसोत, लेकर चूर्ण करके सबको दही, दूध और कलि- सेंधा नमक, काला नमक, खारी नमक, यवक्षार, हारीके रसकी एक एक भावना देकर गोलियां दालचीनी, इलायची तेजपात, लोहभस्म और बना लीजिए। मिश्री ४-४ पल तथा अगर एक पल लेकर यह चन्द्रप्रभा गुटिका भयङ्कर प्रमेहका नाश महीन चूर्ण करके (पानीमें घोटकर ) गोलियां करती है। बना लीजिए। (१७३७) चन्द्रप्रभागुटिका (ग.नि.गुटि.४) इनके सेवनसे ६ प्रकारकी बवासीर, भयङ्कर गुल्म, शोष, क्षय, कामला, मर्मगतनाड़ी ब्रण कीटप्नेभकणाग्निमागधिजटामुस्ताशठीताप्यकम् ( नासूर ), जलोदर, जीर्णज्वर, विद्रधि, भगन्दर, भूनिम्बत्रिफलासुराहचविकाव्योषं वचा राजयक्ष्मा, कफज-पित्तज और वातज पाण्डु रोग, धान्यकम् ॥ शक विकार, ग्रन्थि, अर्बुद, स्लीपद, प्रमेह, शुक्ररात्रीयुग्मविषात्रिवृत्रिलवणं क्षारत्रिजातान्वितम्। क्षय, अश्मरी इत्यादि अनेक रोगोंका नाश होकर लोहात्तत्र सिता चतुष्पलयुतं स्याद्वशिकायाः अग्निदीप्त होती है। पलम् ॥। इसके सेवनकालमें खानपान, धूप आतप, हन्त्य सिषडेव गुल्ममजयं शोषं क्षयं कामलाम् । मैथुनादि किसी बातके परहेजकी आवश्यकता नाडीमर्मगदाञ्जलोदररुजो दीर्घज्वरान्विद्रधीन नहीं है । . १ बोलमिति पाठभेदः । २ सटीति पाठान्तरम् । ३ लाङ्गलीरसैस्तुम्बस्य मुद्गस्य चेति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १५३ ] AAVAAAAAA (१७३८) चन्द्रप्रभागुटिका | भक्तस्य पूर्व सततं प्रयोज्या ( भा. प्र.; वं. से.; । वा. र.; र. का. धे,; र. चं.; तक्रानुपानादपि मस्तुपानम् । भै. र.; धन्वं. । अर्श.; रसे, चि, म. । अ.९) शुक्रदोषानिहन्त्यष्टौ प्रमेहांश्चापि विंशतिम्। क्रिमिरिपुदहनव्योषत्रिफलामरदारुचव्यभूनिम्बाः वलीपलितनिर्मुक्तो वृद्धोऽपि तरुणायते ॥ मागधीमूलं मुस्तशठीवचाधातुमाक्षिकञ्चैव ॥ वायबिडंग, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, लवणक्षारनिशायुक्कुस्तु बहेड़ा, आमला, देवदारु, चव, चिरायता, पीपलाम्बरुगजकणासहातिविषाः। मूल, मोथा, कचूर, बच, सोनामक्खीभस्म, कर्षाशिकान्येव समानि कुर्या सेंधानमक, यवक्षार, हल्दी, दारुहल्दी, कुस्तुम्बरु त्पलाष्टकं चाश्मजतु प्रदद्यात् ॥ (नैपाली धनिया ) गजपीपल और अतीस १-१ निष्पत्रशुद्धस्थ पुरस्य धीमा कर्ष, ( १। तो.) शुद्ध शिलाजीत ८ पल (४० पलद्वयं लौहरजस्तथैव । तोले ); शुद्ध गूगल २ पल, लोहभस्म २ पल सिता चतुष्कं पलमत्र वा स्या मिश्री ४ पल, निसोत, शुद्ध जमालगोटा, दारचीनी, निकुम्भकुम्भत्रिजुगन्धयुक्तम् ॥ इलायची और तेजपात १-१ पल ( ५ तोले ) पृथक्पलं चूर्णमथावपेच लेकर (प्रथम शिलाजीत, लोह और गूगलको एकत्र चन्द्रप्रभेयं गुटिका विधेया। करके उन रोगोंको हरनेवाली ( कि जिनमें प्रयुक्त ज्वरातिसारग्रहणीविकारां करना हो ) ओषधियोंके काथकी अनेक भावनाएं चाशीसि निर्णाशयते पडेव ॥ दीजिए तत्पश्चात् अन्य समस्त ओषधियोंका भगन्दरान्कामलपाण्डुरोगा महीन चूर्ण मिलाकर ( त्रिफला क्वाथमें ) घोटकर निनष्टवतेः कुरुते च दीप्तिम् । गोलियां बना लीजिए। हन्त्यामयान्पित्तकफानिलोत्था यह 'चन्द्रप्रमा गुटिका' ज्वरातिसार, ग्रहणी नाडीगते मर्मगते व्रणे च ॥ क्षतक्षये गृध्रसियक्ष्मरोगे विकार, ६ प्रकारको अर्श, भगन्दर, कामला, पाण्डु, मेहे गजाख्ये प्रबले प्रयोज्या। वात-पित्त-कफज अनेक रोग, नाडीव्रण, मर्मशुक्रक्षये चाश्मरीमूत्रकृच्छे स्थानका व्रण, क्षत, क्षय, गृध्रसी, राजयक्ष्मा, शुक्रप्रवाहेऽप्युदरामये च ॥ हस्तिमेह, शुक्रक्षय, अश्मरी, मूत्रकृच्छू, शुक्रस्राव, शम्भुं समभ्यर्च कृतप्रसाद और उदर रोगोंका नाश करती है । प्राप्ता गुटी चन्द्रमसा प्रशस्ता। इसे भोजनके प्रारम्भमें तक या मस्तुके साथ न पानभोज्ये परिहारवादो सेवन करना चाहिए । इसके सेवनकालमें किसी न शीतवातातपमैथुनेषु ॥ प्रकारके परहेजकी आवश्यकता नहीं है । भा० २० For Private And Personal Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि इसके नित्य सेवन करनेसे २० प्रकारके अन्त्रवृद्धिं कटीशूलं श्वासं कासं विचचिकाम् । प्रमेह, शुक्रदोष और वलि ( शरीरकी झुर्रियां ) | कुष्ठान्यासि कण्डूं च प्लीहोदरभगन्दरम् ॥ पलित ( बालोंका सफेद होना ) रोग नष्ट होकर दन्तरोगं नेत्ररोगं स्त्रीणामार्त्तवजां रुजाम् । वृद्ध भी तरुणके समान हो जाता है। पुंसान्शुक्रगतान् दोषान्मन्दाग्निमरुचिं तथा ॥ ( मात्रा--१॥-२ माशे । साधारण अनुपान | वायुं पित्तं फर्फ हन्यावल्या वृष्या रसायनी । मिश्रीयुक्त दूध । अथवा जिस रोगमें व्यवहृत करनी | चन्द्रप्रभायां कर्षस्तु चतुःशाणो विधीयते ॥ हो उसको नष्ट करनेवाली ओषधिके काथके साथ कचूर ( मतान्तरमें बाबची ), बच, मोथा, खाएं) चिरायता, देवद्वार, हल्दी, अतीस, दारुहल्दी, (१७३९) चन्द्रप्रभावटी पीपलामूल, चीता, धनिया, हर्र, बहेड़ा, आमला, चव, बायबिडंग, गजपीपल, सोंठ, मिर्च, पीपल, (शा. स. । म. ख. अ. ७; नपुं. मृ. । त. ७; सोनामक्खी भस्म, यवक्षार, सजीखार, सेंधानमक, भै. र.; वै. र. । प्रमे. चि.; वृ. यो. त.। त. १०३) कालानमक और समुद्र नमक ५-५ माशे तथा चन्द्रप्रभा वचा मुस्तं भूनिम्बामृतदारुकम्। निसोत, दन्तीमूल, तेजपात, दारेचीनी, इलायची हरिद्रातिविषा दार्वी पिप्पलीमूलचित्रकौ ॥ और बंसलोचन १-१ कर्ष (२० माशे ) एवं धान्यकं त्रिफला चव्यं विडङ्गं गजपिप्पली। लोहभस्म २ कर्ष, मिश्री ४ कर्ष, शिलाजीत ८ व्योष माक्षिकधातुश्च द्वौ क्षारौ लवणत्रयम् ॥ कर्ष और गूगल ८ कर्ष लेकर सबका महीन चूर्ण एतानि शाणमात्राणि प्रत्येकं कारयेद्वधः। करके गोलियां बना लीजिए ।* यह चन्द्रप्रभा गुटिका' वीस प्रकारके प्रमेह, त्रिसदन्तीपत्रकश्च त्वगेला वंशरोचना ॥ मूत्रकृच्छ्र, मूत्राधात, पथरी, मलावरोध, अफारा, प्रत्येकं कर्षमात्राणि कुर्यादेतानि बुद्धिमान्।। शूल, भेहनग्रन्थि ( मूत्रग्रन्थि ), अर्बुद ( रसौली), द्विकर्ष हतलौहं स्थाचतुष्कर्षा सिता भवेत् ॥ अण्डवृद्धि, पाण्ड, कामला, हलीमक, अन्त्रवृद्धि, शिलाजत्वष्टकर्ष स्यादष्टौ कर्षांश्च गुग्गुलोः। कटिशूल, घास, खांसी, विचर्चिका, कुष्ठ, अर्श एभिरेकत्र संक्षुण्णैःकर्तव्या गुटिका शुभा॥ (बवासीर ), खुजली, तिल्ली, भगन्दर, दन्तरोग, चन्द्रप्रभेति विख्याता सर्वरोग प्रणाशिनी। नेत्ररोग, स्त्रियोंकी आर्तव पीड़ा, पुरुषों के शुक्रविकार, प्रमेहान्विशतिं कृच्छं मूत्राघातं तथाश्मरीम् ॥ मन्दाग्नि, अरुचि, वात, पित्त और कफनाशक तथा विबन्धानाहशूलानि मेहनग्रन्थिमबुंदम्। बल्या, वृष्या और रसायनी है । अण्डवृद्धि तथा पाण्डं कामलां च हलीमकम्॥ मात्रा--१॥-२ माशा । अनुपान-मिश्री * नोट-१-भैषज्य रत्नावलीमें कचूरसे लेकर चीते तककी समस्त ओषधे १-१ कर्ष लिखी हैं शेष प्रमोग समान है । २ वृ. यो. त. में विफलेके अतिरिक्त शेष प्रयोग समान है। For Private And Personal Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । गुटिकाप्रकरणम् युक्त दूध अथवा जिस रोगमें सेवन करनी हो उसको नष्ट करनेवाला कोई काथ । । कुष्ट. ) चन्द्रप्रभावी (र. का. रस प्रकरण में देखिए | चन्द्रप्रभावटी (र.रा. सु. र. सा. सं. इत्यादि) रस प्रकरण में देखिए । (१७४०) चपलमण्डूरम् (ग. नि., च. द.; र. का. घे. । शूला. ) लोहकिट्टपलान्यष्टौ गोमूत्रे ऽष्टगुणे पचेत् । चपला नागरक्षारपिप्पलीमूलचित्रकम् ॥ संचूर्ण्य निक्षिपेत्तस्मिन् पलांशं सान्द्रतां गते । गुटिकां कल्पयेत्तेन पक्तिशूलनिवारिणीम् ॥ आठ पल लोहक ( मण्डूर ) को ८ गुने गोमूत्र में पकाइये और गाढ़ा हो जाने पर उसमें १ - १ पल पीपल, सोंठ, जवाखार, पोपलामूल और चीतेका चूर्ण मिला दीजिए और गोलियां बनाकर रख लीजिए । इनके सेवन से पक्ति शूल ( परिणाम शूल ) होता है । ( मात्रा १ माशेसे ३ माशे तक ) । १ चविकेति पाठान्तरम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir • | 1 नोट, चन्द्रप्रभा शब्दसे प्रायः वैद्य | चिञ्श्चाक्षारं स्तुहीक्षारमर्कक्षारं पलं पलम् । कचूर ' ही ग्रहण करते हैं परन्तु मेरी सम्मति में द्विपलं शङ्खजं भस्म रामठञ्च पलार्धकम् ॥ कपूर लेना अधिक उत्तम है लवणानि च सर्वाणि पलमात्राणि योजयेत् । चन्द्रप्रभावटिका ( र. र. स. उ.खं.अ.२० ) क्षारद्वयं पलार्धञ्च सर्वमेकत्र योजयेत् ॥ जम्बीरकरसैर्मर्यमनलस्य दिनत्रयम् । भृङ्गराजस्य निर्गुण्डचा मुण्ड्याश्चैव पृथक् द्रवैः ।। आर्द्रकस्य रसेनैव प्रत्येकं दिनमर्दितम् । दरीबीजमात्रांस्तु वटिकान्कारयेद्भिषक् ॥ एकैकं भक्षयेत्प्रातः पञ्चगुल्मान्व्यपोहति । रसप्रकरण में देखिए शूलं निहन्त्याशु जीर्ण च विषूचिकाम् ॥ मन्दाग्निं नाशयेच्छीघ्रं पथ्यं तैलाम्लवर्जितम् । चिञ्चाशङ्खवटी नाम ग्रहणी रोगहृत्परा ॥ [. १५५] (१७४१) चिञ्चाक्षारादिशङ्खवटी ( यो. र.; गुल्म; वृ. नि. र. ) इमलीका खार, स्नुही ( सेहंड - थोहर ) का क्षार और अर्कचार १ - १ पल, शंख भस्म २ पल, हींग आधा पल, पांचो नमक (सेंधा, काला नमक, समन्द्र नमक, भद्दी नमक, काच नमक ) १-१ पल, यवक्षार और सज्जीखार आधा आधा पल | लेकर सबको एकत्र करके ३ - ३ दिन तक जम्बरी नीबू के रस और चीतेके काथमें तथा १ - १ दिन भांगरा, संभालु, मुण्डी और अद्रकके रसमें पृथक् पृथक् घोटकर बेरकी गुठली के बराबर ( १ ॥ मारोकी ) गोलियां बना लीजिए । For Private And Personal यह ' चिञ्चाशंखवटी ' पांच प्रकारके गुल्म, हर प्रकारका शूल, अजीर्ण, विसूचिका, और अग्निSairat नाश करती है । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि - vvvvvvvvvvvvvvvvvvVVVVVVVVVVVVVVVVVvvvvvv से. वि. प्रातःसायं १-१ गोली ( गर्म चीता, पीपलामूल, सजीखार, सेंधा नमक, पानीसे ) खानी चाहिए। | काला नमक, खारी नमक, समन्द्र नमक, सोरा (१७४२) चित्रकगुटिका (ग.नि.गुटिका.४) । सोंठ, मिर्च, पीपल, अजमोद, हींग और चवके चित्रकस्य पलं दत्वा पलं चाधै त्रिवृत्तथा। समान भाग चूर्णको बिजौरे नीबू या अनारके कणाकर्षों गुडस्याष्टौ पलानि समुपाहरेत् ॥ रसमें धोटकर गोलियां बना लीजिए। विंशतिश्च हरीतक्यो गुटिका दश कारयेत् । यह गोलियां आम पाचक और अग्निदीपक दशमे दशमे चाहि त्वेकैकां भक्षयेत्सुधी॥ हैं । ( मात्रा ३-४ माशे । गर्म पानीसे।) मण्डलानि च कण्डूश्च अर्शीसि ग्रहणीं जयेत् ॥ (१७४४) चित्रकादिगुटी-(वृ.यो.त.त.१३०) चीता १ पल ( ५ तो०), निसोत आधा कटुत्रिकं चित्रकतिन्तडीकं पल, पीपल १ कर्ष (१। तोला ) गुड़ ८ पल ___ तालीसपत्रं चविकम्लसंज्ञम् । और हर्र २० पल लेकर समस्त ओषधियोंका विचूर्णितं जीरकचूर्णयुक्तं महीन चूर्ण करके गुड़में मिलाकर सबकी १० ___एलात्वचा तत्सुरभीकृतञ्च ॥ गोलियां बना लीजिए। मिश्रं पुराणेन गुडेन दद्या-- ___हर दसवें दिन १ गोली (गर्म जलके साथ) तत्पीनसानां परिपाचनार्थम् ॥ ३४ खानेसे मण्डल कुष्ट, खुजली, बवासीर और ग्रहणी सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, तिन्तिडीक, नष्ट होती है। तालीसपत्र, चव जीरा और अम्लबेतका चूर्ण १--१ (१७४३) चित्रकादिगुटिका । भाग लेकर ९ भाग पुराने गुड़की चाशनीमें मिला( च. सं. । चि. अ. १९; भै. र.; यो. र.; . कर और उसमें सुगन्धिके लिए थोडा थोडा इलामा.; च. द.; वं. से.; भा. प्र.; । ग्रहणी; ग. नि.। यची और दालचीनीका चूर्ण मिलाकर मोदक बना गुटि. ४; वृ. यो. त. । त. ६७, यो. त. । त. लीजिए। २२; शा. ध.) यहमोदक पीनसरोगीको पाचनार्थ सेवन कराने चित्रकं पिप्पलीमूलं द्वौ क्षारौ लवणानि च।। चाहियें । ( मात्रा १ तोला । अनुपान उष्ण जल) व्योषं हिङ्ग्वजमोदाश्च चव्यं चैकत्र चूर्णयेत् ॥ गुटिकामातुलुङ्गस्य दाडिमस्य रसेन वा। (१७४५) चित्रकादिमोदकः कृता विपाचयत्यामं दीपयत्याशु चानलम् ॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) सौवर्वलं सैन्धवञ्च विडमौद्भिदमेव च चित्रकं त्रितां दन्ती विडङ्ग कटुकत्रयम् । सामुद्रेण समं पश्चलवणान्यत्र योजयेत् । समं चूर्ण गुडेनाथ कारयेन्मोदकान् सुधीः ।। १ शारङ्गधरसंहितामें यही प्रयोग चूर्णाधिकारमें वर्णित है । उसमें क्षार और लवण १-१ भाग तथा अन्य औषधे २-२ भाग हैं । For Private And Personal Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् द्वितीयो भागः।। [ १५७] ___मानतः भक्षयेत् प्रातरुत्थाय पश्चादुष्णोदकं पिबेत् । चिन्तामणिवटिका ( र. का. धे.) परिणामोद्भवं शूलं हन्ति शूलं नरस्य च ॥ । रस प्रकरणमें देखिए । ___चीता, निसोत, दन्तीमूल, बायबिडंग, सोंठ, ! चूलिकावटी ( भै. र. । उद.) मिर्च और पीपलका समान भाग चूर्ण सबके बराबर रस प्रकरण में देखिए । गुड़की चाशनीमें मिलाकर मोदक बना लीजिए। (१७४७) चतुःसममण्डूरम् इन्हें ( १ तोलेकी मात्रानुसार ) प्रातःकाल (भै. र. धन्वं. । शूल.) उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे परिणाम शूल सद्यो लोहमलाज्यमाक्षिकसिता भागाः समाः नष्ट होता है ॥ पात्रे ताभ्रमये दिनान्तमथितं संस्थापयेदातपे। (१७४६) चित्रकादिवटकः (वृ.नि.र.।शूल.) पश्चात्तद्धनतां प्रणीय रजनीमेकं बहिःस्थापयेत चित्रकं लवणं पाठा व्योषं लवणपञ्चकम्। अजाजी धान्यकं हिंस्रा दीप्यकं ग्रन्थिकं तथा।। | पात्रे ताम्रमये निधेयमथवा पात्रे हविर्भाविते॥ एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । पश्चान्माषचतुष्टयं प्रतिदिनं जग्ध्वा जलं शीतलं पेयं भोजनपूर्वमध्यविरतौ स्वच्छन्दभोज्यैनरैः । जम्बीरस्य रसेनैव वटकान्कारयेद्बुधः॥ हृच्छूलं पार्श्वशूलश्च आमशूलमरोचकम्। जेतुं शूलहुताशमान्धकसनश्वासाम्लपित्तज्वरोअशीतिं वातजान् रोगान् नाशयेच तत्क्षणात् ॥ न्मादापस्मृतिमेहसर्वजठराजीर्णादिसर्वा रुजः॥ शुद्ध मण्डूर, घी, शहद और मिश्री समान चीता, सेंधानमक, पाटा, सोंठ, मिर्च, पीपल, भाग लेकर १ दिन तांबेके पात्रमें घोटकर धूपमें सेंधा नमक, सौंचल (काला नमक), खारी नमक, रख दीजिए, जब गाढ़ा हो जाय तो उसे १ रात कचलोना ( काच नमक ) समन्दर नमक, जीरा, ओसमें रखिए । पश्चात् उसे तांबेके या घृतसे धनिया, कटैली, अजवायन और पीपलामूलका चिकने किए हुवे मिट्टीके पात्रमें भरकर रख दीजिए। चूर्ण समान भाग लेकर सबको जम्बीरी नीबूके इसे भोजनके आदि, मध्य और अन्तमें ४ रसमें घोटकर गोलियां बना लीजिए। माशेकी मात्रानुसार शीतल जलके साथ सेवन ___ इन्हें (३-४ माशेकी मात्रानुसार गर्म पानीके करनेसे शूल अग्निमांद्य, खांसी, श्वास, अग्लपित्त, साथ ) सेवन करनेसे हृच्छूल, पसलीका दर्द, आम ज्वर, उन्माद, अपस्मार (मिर्गी) प्रमेह, समस्त उदर शूल, अरुचि और अस्सी प्रकारके वातज रोग विकार और अजीर्णादि समस्त रोग नष्ट होते हैं। नष्ट होते हैं। इसके सेवन कालमें भोजन स्वच्छन्दतापूर्वक चिन्तामणिगुटिका ( र. का. धे. । ज्व. ) । कर सकते हैं; किसी प्रकारके परहेजकी आवश्यकता रस प्रकरणमें देखिए । | नहीं है। चिन्तामणिरसगुटिका ( यो. चि.) ॥ इति चकारादिगुटिकाप्रकरणम् ॥ रस प्रकरणमें देखिए । For Private And Personal Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Virvvvv [१५८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि अथ चकारादिलेहप्रकरणम्। राजयक्ष्मे रक्तपित्ते पित्तातिसारपीडिते। (१७४८) चतुरंगावलेहः (भा.प्र.राख.२ ज्वर.) | रक्तातिसारे शोषे च शिरोरोगे सदाज्वरे । तमकभ्रमके छर्दिदाहे च समदात्यये । स्विन्नमामलकं पिष्ट्वा द्राक्षयासह मेलयेत्। अश्मयां च प्रमेहेषु कासे श्वासे च पीनसे ॥ विश्वभेषजसंयुक्तं मधुना सह लेहयेत् ।। एतेषां च प्रयोक्तव्यः सर्वरोगनिवारणः। तेनास्य शाम्यतिश्वासःकासो मच्छरुचिस्तथा बन्ध्यानाश्च प्रयोक्तव्यो वृद्धानाञ्च विशेषतः।। आमलोंको उबालकर पीसकर उनमें समान | | बालानाश्च हितश्चैव शृणु चात्र प्रमाणकम्। भाग मुनक्का और सोंठका चूर्ण मिलाकर शहदके उत्तमे कर्षमात्रं च पादहीनन्तु मध्यमे ।। साथ चाटनेसे श्वास, खांसी, मूच्छी और अरुचि दद्यात् क्षीरयुतं स्त्रीणां वालानां क्षीरसंयुतम् । नष्ट होती है। एवं प्रयोजितो योगो महाकल्पो गुणाधिकः॥ (१७४९) चन्दनाद्यवलेहः बलवान् गुणवांश्चैव भवतीह फलप्रदः। (हा. सं. । स्था. ३ अ. २१; बृ. नि. र.) | नरकुञ्जरवाहानामुपयुक्तो हितो मतः॥ चन्दनं तगरं कुष्ठं यष्टी त्रिगन्धवासकम् । चन्दनायो महायोगः कृष्णात्रेयेण पूजितः॥ मञ्जिष्ठाभीरुमृट्ठीकापाठाश्यामाप्रियङ्गुभिः।।। सफेद चन्दन, तगर, कूठ, मुलैठी, दारचीनी, स्वयंगुप्ता पीलुपणि विषा रास्ना गवादनी। तेजपात, इलायची, बासा, मजीट, शतावर, मुनक्का, काकोल्यौ जीरक मेदे पुष्करं धनबालकम् ॥ पाठा, कालानिसोत, फूलप्रियङ्गु, कौचके बीज, विदारी चांशुमती च त्रिदन्ती विडङ्गकम् । पीलुपर्णी (मूर्वा), अतीस, रास्ना, इन्द्रायन, काकोली, पमकञ्चन्द्रवृक्षश्च तथारग्वधचित्रकम् ॥ क्षीरकाकोली, जीरा, मेदा (बहमन सफेद), महाधान्यकं पञ्चजीराणि तथा तालीसपत्रकम् ।। मेदा (बहमन मुर्ख), पोखरमूल, मोथा, नेत्रबाला, खदिरस्य च निर्यासरुजाकालीयकं तथा ।। बिदारी कन्द, शालपर्णी, निसोत, दन्तीमूल, बायतिन्तडीकञ्च वृक्षाम्लं त्रिफला काश्मरीफलम् । बिड़ङ्ग, पद्माख, कुडेकी छाल, अमलतास, चीता, कंकोलञ्च जातिफलं तथा च नागकेसरम् ॥ धनिया, पांचप्रकारका जीरों, तालीसपत्र, खैरका परूपं च सखर्जूरं समं चैकत्र मर्दयेत् ।। | गोंद, कूठ, अगर, तिन्तडीक, इमली, हरी, बहेड़ा, भावितं बीजपूरस्य रसेनैव तु सप्तधा ॥ आमला, खम्भारीके फल, कंकोल, जायफल, नागसमशर्करया युक्तं चाटरूपरसेन वा। . | केसर, फालसा और खजूर समान भाग लेकर भावितं पुनरेवं च मधुना सघृतेन च ॥ महीन चूर्ण कर लीजिए और उसे बिजौ रेके रसकी लेहोऽयं च सदा शस्तश्चापस्मारेऽतिदारुणे। सात भावना देकर उसमे सबके बराबर मिश्री उन्मादे कामलारोगे पाण्डुरोगे हलीमके ॥ मिला कर बासेके रसकी सात भावना दीजिए। १ छोटा और बड़ा सफेद तथा स्याह जीरा और बनजीरा । For Private And Personal Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अवलेहप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १५९] इसे शहद और धीमें मिलाकर चाटनेसे भय- सारिवा, कंकोल, खस केसर और शतावरका चूर्ण ङ्कर अपस्मार (मिरगी), उन्माद (पागलपन), | तथा गिलोयका सत मिला दीजिए। कामला, पाण्डु, हलीमक, राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, इस अवलेहके सेवनसे हृद्रोग, भ्रम, मूर्छा, पित्तातिसार, शोष, रक्तातिसार, शिरोरोग, सदा बना वमन और भयङ्कर दाहका अवश्य नाश होता है। रहने वाला ज्वर, तमक स्वास, भ्रम, छर्दि, दाह, (मात्रा-१-१॥ तोला ।) मदात्यय, (मद्यविकार), पथरी, प्रमेह, खांसी, श्वास (१७५१) चन्द्रावलेहः (र.र.स.।उ.खं.अ.२१) और पीनस रोग नष्ट होता है। एलायाश्च तुला ग्राह्या जलद्रोणे विपाचयेत् । यह बन्ध्या स्त्री, बालक और विशेषतः वृद्धों । अष्टभागाऽवशिष्टं तु शर्करार्धतुलां क्षिपेत् ॥ के लिए हितकर है । इसकी उत्तम (पूर्ण) मात्रा शतावर्या विदार्याश्च गोक्षीरं चाढकं पृथक् । १ कर्ष (१। तोला) और मध्यम मात्रा पौन कर्ष है। लेहवत्साधिते तस्त्रिन्द्राक्षा मधुकपिप्पली ॥ ___ यह कृष्णात्रेय कल्पित चन्दनाद्यवलेह स्त्रियों त्रिजातकं च खर्जरं चन्दनद्वयसारिवा । और बच्चोंको दृधके साथ खिलानेसे बलवृद्धि मुस्तापमकहीवेरधात्रीचोत्पलचौरकम् ।। होती है। एतेषां पलमादाय क्षिपेत्क्षीर्याश्चतुष्पलम् । (१७५०) चन्दनावलेहः (ग. नि. । परि.लेहा.) | क्षौद्रमस्थेन संयुक्तं लेहयेत्मातरुत्थितः॥ मातुलुङ्गरसप्रस्थं प्रस्थाधै दाडिमाद्रसः। | पित्तोन्मादविकारेषु शिरोभ्रमणमूर्छिते । तत्तुल्यं नारिकेलाम्बु शर्करा कुडवद्वयम् ॥ हस्तपादाङ्गदाहे च पित्तरक्तोजरातौ।। पाकं कृत्वा यथा न्यायं सिद्धशीते समावपेत् । छर्दिकासक्षये पाण्डौ चन्द्रवञ्चन्द्रभाषितम् ॥ चन्दनं च तुगाक्षीरी धान्यकं सारिवां तथा ॥ १०० पल (५०० तोले) इलायचीको १ कोलकमुशीरं च कुङ्कमं शतपुत्रिकाम् । | द्रोण (१६ सेर) पानीमें पकाइये और आठवां सत्वं गुडूच्याश्च तथा कर्षमान पृथक पृथक् ॥ भाग शेष रहने पर छानकर उसमें ५० पल खांड एषोऽवलेहो हृद्रोग भ्रमं मूच्छी वमिं तथा। और १-१ आढक (४-४ सेर) शतावरीका रस, दाहश्च सुमहाघोरं शमयेन्नात्र संशयः॥ विदारीकन्दका रस और गायका दूध मिलाकर ___बिजौरे नीबूका रस १ प्रस्थ (८० तोले); पुनः पकाकर अवलेहके समान गाढ़ा कर लीजिए। अनारका रस और नारियलका पानी (हरे नारि- और फिर उसमें भुनका, मुलैठी, पीपल, दालचीनी, यलको तोड़नेसे जो पानी निकलता है वह) आधा तेजपात, इलायची, खजूर, लाल चन्दन, सफेद आधा प्रस्थ तथा मिश्री आधा प्रस्थ लेकर एकत्र | | चन्दन सारिवा, मोथा, पद्माक, नेत्रबाला, आमला, मिलाकर पकाइये । जब अवलेहके समान गाढा नीलोफर और चोरकका १-१ पल चूर्ण तथा हो जाय तो ठण्डा करके उसमें १-१ कर्ष बंसलोचनका चूर्ण ४ पल (२० तोले) और १ सेर (१।-११ तोला) सफेदचन्दन, बंसलोचन, धनिया, | शहद मिला लीजिए। For Private And Personal Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१६० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि इसे प्रातःकाल सेवन करनेसे पित्तोन्माद, जब गाढ़ा हो जाय तो उतारकर ठण्डा करके उस शिरोभ्रमण (चक्कर आना), मूर्छा, हाथपैर और , में निसोत, दन्तीमूल, बायबिड़ङ्ग, हर्र, आमला, शरीरकी दाह, रक्तपित्त, वमन, (पित्तज) खांसी; | सोंठ, बहेड़ा ओर पीपलका चूर्ण आधा आधा पल क्षय और पाण्डुरोग नष्ट होता है । और खांड तथा शहद ४-४ पल मिलाकर घृतसे श्रीचन्द्र कथित यह चन्द्रावलेह चन्द्रके | चिकने किए हुवे पात्रमें भरकर सुरक्षित रखिए। समान शान्तिदायक है। ___इसके सेवनसे बवासीर, कुष्ट, शोथ, पाण्डु, (मात्रा १ तोलेसे २॥ तोले तक) तिल्ली, हृच्छूल, गुदशूल और परिणामशूल नष्ट (१७५२) चव्यादिलौहम् । होता तथा बल, वर्ण, अग्नि और वीर्यकी वृद्धि (र. र; धन्वं.; र. का. धे. । अर्श.) | होती है। इसके सेवन कालमें करीर, काजी और मकोय चव्याः पलाष्टकं देयं खदिरं चार्टमेव च। का परहेज करना चाहिए। चित्रकस्य पलं पञ्च तालमूली च तत्समा! चातुर्भद्रावलेहिका त्रिफला प्रस्थसंयुक्ता जलद्रोणे विपाचयेत् । (वं. से.; भा. प्र.; भै. र.; च. द.; ग. नि.; । ज्वर.; अष्टभागावशेषेण कषायमवतारयेत् ॥ ___ वृ. यो. त. । त. ५९) आज्यात्पलाष्टकं देयं रुक्मलौहस्य पोडश । (७७९ संख्यक प्रयोग देखिए ।) पचेत्ताम्रमये पात्रे सुशीते चावतारयेत् ॥ । (१७५३) चातुभद्रिकावलेहः त्रिवृदन्ती विडंगानि पथ्या चामलकानि च।। ( भा. प्र. । ख. २ ज्वरा.) शुण्ठी विभीतकी कृष्णा एषां देयं पलार्द्धकम् ॥ माती पाय पलादकम्।। पिप्पलीत्रिफला चापि समभागावरी लिहन् । शर्करामधुचत्वारि स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् । | मधुना सर्पिषा चापिकासी श्वासी सुखी भवेत्॥ दुनोमकुष्ठश्वयथुपाण्डुप्लीहोदरापहम् ॥ पीपल, हर्र, बहेड़ा और आमलेके समान हृच्छूले गुदशूले च परिणामकृते हितम् । | भाग चूर्णको (३से६ माशेकी मात्रानुसार) शहद वलवर्णकर वृष्यमपिसन्दीपनं परम् ॥ और धीमें मिलाकर चाटनेसे ज्वर, खांसी और करीरकाञ्जिकं चैव काकमाचीं विवर्जयेत् ॥ . श्वास नष्ट होता है। चव ८ पल (४० तोले); खैर सार ४ पल; चित्रकगुडः (वं. से.; व. मा. अजीर्ण;ग.नि.लेहा.) चीता ५ पल, ताड़की जड़ ५ पल, और त्रिफला चित्रक हरीतकी सं. १७५५ देखिए । उसमें १ प्रस्थ (१६ पल) लेकर, कूटकर १ द्रोण और इसमें केवल इतना भेद है कि इसमें आमलेका (१६ प्रस्थ) जलमें पकाइये । जब आठवां भाग रस नहीं पडता तथा यवक्षार ४ तो. और अन्य पानी शेष रह जाय तो उतारकर छान लीजिए। प्रक्षेप द्रव्य १-१ पल पड़ते हैं। अब इसमें ८ पल घी और १६ पल शुद्ध रुक्म ग नि. में यही प्रयोग चित्राकावलेहके नामसे लोहका चूर्ण मिलाकर तांबेके पात्रमें पकाइये, लिखा है। For Private And Personal Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१६१] vvvvvvvvvvvv (१७५४) चित्रकलहः (वं.से.उदर. ग. नि.लेहा.) (१७५५) चित्रकहरीतकी चित्रकस्य शतं दद्यात्ततुल्यो ग्रन्धिको मतः। ( यो. र.; भै. र.; वं. मा.; च. द.; धन्वं. । नासा. पञ्चाशदृशमूलस्य शेषान् पञ्चपलान् पृथक। यो. त. । त. ७२, ग. नि. । ले.) बलां भाी शठी पाठां पौष्कर मूलभेव च। चित्रकस्थामलक्याश्च गुडूच्या दशमूलजम् । चतुर्दोणेऽम्भसा पक्त्वा द्रोणशेषे तथैव च ॥ | शतं शतं रसं दत्वा पथ्याचूर्णाहकं गुडात् ॥ पचेद्गुडशतं दत्वा लेहवंत्साधु साधयेत् । शतं पचेद्धनीभूते पलद्वादशकं क्षिपेत् । चतुष्पलं तु पिप्पल्यास्तुगाक्षीर्याःपलद्वयम् ॥ व्योषत्रिजातयोः क्षारात्पलार्धमपरेऽहि ॥ त्रिजाताच पलं चैकं मरिचस्य पलं तथा।। प्रस्थाई मधुनो दत्वा यथान्यद्यादयन्त्रणः। सूक्ष्मचूर्ण ततः कृत्वा दा सम्यग्विघट्टयेत्॥ वृद्धयेऽग्नेः क्षयं कासं पीनसं दुस्तरं कृमीन्॥ पलमात्रं ततः खादेत्प्लीहगुल्मोदराशंसाम्। गुल्मोदावर्तदुर्नामश्वासान् हन्ति सुदारुणान् । हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं शीताति चाम्लपित्तकम्॥ चीता और दशमूलका काथ तथा आमले भारद्वाजेन कथितो लेहश्चित्रकसंज्ञकः ॥ और गिलोयका रस (अथवा क्वाथ) १००-१०० चीता और पीपलामूल १००-१०० पल पल ( ६। सेर प्रत्येक ) गुड़ १०० पल और (प्रत्येक ६। सेर), दशमूल ५० पल, और खरैटी, हर्रका चूर्ण ४ सेर ( ३२० तो० ) लेकर एकत्र भारंगी, कचूर, पाठा और पोखरमूल ५-५ पल मिलाकर पकाइये. और गाढ़ा हो जाने पर उसमें लेकर अधकुट करके सबको ४ द्रोण (६४ सेर) सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, तेजपात, इलायचीका पानीमें पकाइये । जब १ द्रोग जल शेष रह जाय चूर्ण १२ पल ( प्रत्येकका चूर्ण २ पल-१० तो उसे छानकर उसमें १०० पल (६। सेर) तोले-) और यवक्षार आधा पल मिला दीजिए तथा गुड़ मिलाकर पुनः पकाइये और अवलेह तैयार दूसरे दिन आधा प्रस्थ (४० तो०) शहद हो जाने पर उसमें ४ पल (२० तोले) पीपलका मिलाकर रखिए। चूर्ण, २ पल वंसलोचनका चूर्ण और १-१- पल इसे अग्नि बलानुसार सेवन करनेसे क्षय, दारचीनी, तेजपात, इलायची, तथा मरिचका महीन खांसी, दुस्तरपीनस, कृमि, गुल्म, उदावर्त बवाचूर्ण डालकर करछलीसे खूब घोटिए । सीर, और भयङ्कर श्वासका नाश तथा अग्निवृद्धि महर्षि भारद्वाज कल्पित यह चित्रक लेह | होती है। प्लीहा, गुल्म, उदररोग, अर्श, भयङ्कर यक्ष्मा, शीत नोट-यो. र. क. और यो. त. के मतानुऔर अम्लपित्तका नाश करता है। सार दशमूलके स्थानमें पञ्चमूल लेना चाहिए और मात्रा--१ पल (५ तोले)। चारों चीजोंको ४ द्रोण पानीमें पकाकर १ द्रोण ( व्यवहारिक मात्रा १ तोला । अनुपान शेष रखना चाहिए । तथा शुण्ठ्यादि ६ द्रव्य उष्णजल।) ६ पल मिलाने चाहिएं। भा०२१ For Private And Personal Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ १६२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि (१७५६) चित्रकादिभल्लातकावलेहः ( काला नमक ) और बायबिडंगका चूर्ण १-१ (वं. से. । अर्श. ) पल ( ५ तोले ) तथा ४-४ पल विधारे और चित्रकं त्रिफला मुस्तं ग्रन्थिकञ्चविकामृता। तालमूली ( ताल वृक्षकी मूसली )का चूर्ण और हस्तिपिप्पल्यपामार्गदण्डोत्पलकुठेरकाः॥ ८ पल जिमीकन्दका चूर्ण मिलाकर ठण्डा करके एषां चतुष्पलान् भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत् । उसमें आधा सेर शहद मिलाकर चिकने पात्रमें भल्लातकसहस्रे द्वे छित्वा तत्रैव दापयेत् ॥ । भरकर रख दीजिए । तेन पादावशेषेण लोहपात्रे पचेद्भिपक। इसे अग्नि बलानुसार, प्रातःकाल अथवा तुलाथै तीक्ष्णलोहस्य घृतस्य कुडवद्वयम् ॥ भोजनके समय सेवन करनेसे अर्श, संग्रहणी, यूषणं त्रिफला वह्नि सैन्धवं विडमौद्भिदम् । पाण्डु, अचि, कृमि, गुल्म, पथरी, प्रमेह, शूल, सौवञ्चलं विडङ्गानि पलिकांशानि कल्पयेत् ॥ और बलि पलितका नाश होकर शुक्र वृद्धि कुडवं वृद्धदारस्थ तालमूल्यास्तथैव च । होती है । वरणस्य पलान्यष्टौ चूर्ण कृत्वा विनिक्षिपेत् ॥ मात्रा, तोला । अनपान दध ) सिद्धशीते प्रदातव्यं मधुनः कुडवदयम् । प्रातर्भोजनकाले वा ततः खादेद्यथा बलम ॥ (१७५७) चित्रकादिलोहम् अर्शीसि ग्रहणीरोगं पाण्डुरोगमरोचकम् । (भै. र. । प्ली.; धन्वं. । उदर रो.) कृमिगुल्माश्मरीमेहशूलाश्चाशु व्यपोहति ॥ चित्रकं नागरं वासा गुडूची शालपर्णिका। करोति शुक्रोपचयं वलीपलितनाशनम् । तालपुष्पमपामार्गो माणकं कार्षिकत्रयम् ॥ रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम् ॥ लौहमभ्रकणातानं क्षारको लवणानि च । चीता, हर्र, बहेडा, आमला, नागरमोथा, पृथकर्षीशमेतेषां चूर्णमेकत्र चिक्कणम् ।। पीपलामूल, चव, गिलोय, गजपीपल, चिरचिटा, चतुष्पस्थे गवां मूत्रे पचेन्मन्देन वह्निना। सफेद फूलको सहदेवी और तुलसी ४-४ पल सिद्धशीतं समुद्धत्य माक्षिकं द्विपलं क्षिपेत् ॥ (२०-२० तोले) लेकर अधकुट करके १ द्रोण चित्रकादिरयं लौहो गुल्मप्लीहोदरामयम् । (-३२ सेर) पानीमें पकाइये; और पकते समय उसमें यकृतं ग्रहणी हन्ति शोथं मन्दानलं ज्वरम् ॥ २ हज़ार भिलावे डाल दीजिए । चतुर्थांश जल शेप कामलां पाण्डुरोगश्च गुदभ्रंशं प्रवाहिकाम् ॥ रहने पर छानकर उसमें ५० पल ( ३ सेर १० । चीता, सोंठ, बासा, गिलोय, शालपर्णी, तालतोले ) शुद्ध तीक्ष्ण लोहचूर्ण मिलाकर पुनः पकाइये वृक्षके फूल, अपामार्ग (चिरचिटा) और मानकन्दका और गाढ़ा होनेपर उसमें आधा सेर धी और चूर्ण ३-३ फर्ष ( ३।। तोले ), लोह भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चीता, अभ्रक भस्म, पोपलका चूर्ण, तात्र भस्म, जवाखार, सेंधा नमक, खारी नमक, उद्भिज नमक, सौंचल | सेंधा नमक, खारी नमक, काला नमक, सांभर नमक For Private And Personal Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम्] द्वितीयो भागः। . [१६३] - - और काच नमक १-१ कर्ष (१। तोला ) लेकर इसके सेवनसे खांसी, श्वास, गुल्म और घोटकर खूब महीन चूर्ण कर लीजिए। हृद्रोग नष्ट होते हैं । तत्पश्चात् इसे ४ प्रस्थ ( ४ सेर ) गोमूत्रमें ( मात्रा—१ तोलेसे २॥ तोले तक) मन्दाग्नि पर पकाइये, जब गाढ़ा हो जाय तो । (१७५९) चित्रकावलेहः । उतार लीजिए और ठण्डा होने पर उसमें २ पल | (ग. नि. । लेहा.; वा. भ. ) ( १० तोले ) शहद मिलाकर सुरक्षित रखिए । तोयद्रोणे चित्रकमूलतुलार्धम् । ___ यह चित्रकादि लौह गुल्म, तिल्ली, उदररोग, साध्यं यावत्पाददलस्थमथेदम् ॥ जिगर, ग्रहणी, अग्निमांद्य, ज्वर, कामला, पाण्डु, अष्टौ दत्त्वा जीर्णगुडस्य पलानि । गुदभ्रंश और पेचिशका नाश करता है। - काथ्य भूयःसान्द्रतया समवेतम् ॥ (१७५८) चित्रकाद्यवलेहः त्रिकटुकमिशिपथ्याकुष्ठमुस्तावराज(च. सं. । चि. स्था. अ. २२ । वृ. नि. र. कास.) । कृमिरिपुदहनैलाचूर्णकीर्णोऽवलेहः ।। चित्रकं पिप्पलीमूलं व्योषं हिङ्ग दुरालभाम् । जयति गुदजकुष्ठप्लीहगुल्मोदराणि । शठी पुष्करमूलश्च श्रेयसी सुरसां वचाम् ॥ प्रबलयति हुताशं शश्वदभ्यस्यमानः॥ भार्गी छिन्नरुहां रास्त्रां शृङ्गी द्राक्षाच कार्षिकान् ५० पल ( २५० तोले ) चीतेकी जड़ को. कल्कानर्धतुलाकाथे निदिग्ध्याः पलविंशतिम् ॥ १ द्रोण ( ३२ सेर ) पानीमें पकाकर ८ सेर दत्वा मत्स्यण्डिकायाश्च घृताच कुडवं पचेत् । पानी शेष रहने पर छान लीजिए । तत्पश्चात् सिद्धं शीतं पृथक्क्षौद्रपिप्यलीकुडवान्वितम् ॥ उसमें ८ पल ( ४० तोले ) पुराना गुड़ मिलाकर चतुष्पलं तुगाक्षीर्याश्चूर्णितं तत्र दापयेत् । पुन: पकाइये और गाढ़ा हो जाने पर उसमें सौंठ, लेहयेकासहृद्रोगश्वासगुल्मनिवारणम् ॥ . मिर्च, पीपल, सौंफ, हरी, कूठ, मोथा, दालचीनी, चीता, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, बायबिडङ्ग, चीता ओर इलायचीका १-१ पल धमासा, कचूर, पोखरमूल, सौंफ, तुलसी, बच, | चूर्ण मिला दीजिए। भारंगी, गिलोय, रास्ना, काकड़ासिंगी और मुनक्काका । इसे निरन्तर सेवन करनेसे बवासीर, कुष्ठ, कल्क १-१ कर्ष (११-१। तोला ), कटैलीका तिल्ली, गुल्म और उदररोग नष्ट होते तथा अग्नि काथ' ५० पल (३ सेर १० तोले ) और खांड दीप्त होती है। २० पल तथा २० तोले धी एकत्र मिलाकर पकावे (१७६०) चोपचीनीपाकः और जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो (यो. र. । उपदंश,; वृ. नि. र.) ठण्डा करके उसमें २०-२० तोले शहद, पीपलका चोपचिन्युद्भवं चूर्ण पलद्वादशमेव च। तथा बंसलोचनका चूर्ण मिलाएं। पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं नागरं त्वचम् ।। १ ( ५० पल कटेलीको २०० पल पानीमें पकाकर ५० पल शेष रहा हुवा क्वाथ ) For Private And Personal Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [१६४ ] आकल्लकं लवङ्गे च प्रत्येकं कर्षसम्मितम् । शर्करा समचूर्ण च पाचयेत्सर्वमेकतः ।। मोदक कारयेत्तत्तु कर्षे कर्षे प्रमाणतः । सायं प्रातर्निषेव्यस्तु पथ्यं पूर्वोक्तचूर्णवत् ॥ उपदंशे व्रणे कुष्ठे वातरोगे भगन्दरे । धातुक्षयकृते कासे प्रतिश्याये च यक्ष्मणि ॥ सर्वान्रोगान्निहन्त्याशु ततः पुष्टिकरो भवेत् ॥ चोपचीनीका चूर्ण १२ पल (६० तोले), पीपल, पीपलामूल, मिर्च, सौंठ, दालचीनी, अकरकरा और लौंगका चूर्ण १ - १ कर्ष ( ११-११ तोला ) तथा इन सबके बराबर खांड लेकर चाशनी बनाकर उसमें समस्त चूर्ण मिलाकर १-१ कर्षके मोदक बना लीजिए । भारत - भैषज्य रत्नाकरः । इन्हें प्रातः सायं (चोपचीनी काथ या उष्ण जलके साथ ) सेवन करनेसे उपदेश (आतशक ) व्रण ( घाव ) कुष्ठ, वातव्याधि, भगन्दर, धातुक्षयसे उत्पन्न खांसी, जुकाम, और यक्ष्माका नाश होकर शरीर पुष्ट होता है । पथ्य — शाली चावलोंका भात, अरहर की दाल, घी, शहद, गेहूं, सेंधा नमक, संहजनेकी फली, कन्दूरीका शाक, तोरी, अद्रक और मन्दोष्ण जल । (१७६१) च्यवनप्राशावलेहः ( च. सं. । चि. स्था. अ. १ ) बिल्वाग्निमन्थौ श्योनाकःक्राश्मरी पाटलिर्बला । पश्चतस्रः पिप्पल्यः श्वदंष्ट्रा बृहतीद्वयम् ॥ ६१ ॥ शृङ्गी तामलकी द्राक्षा जीवन्ती पुष्करागुरु । अभया चामृता ऋद्धिर्जीवकर्षभको राटी ॥६२॥ [ चकारादि मुस्तं पुनर्नवा मेदा एला चन्दनमुत्पलम् । विदारी षमूलानि काकोली काकनासिका ।। एषां पलोन्मितान्भागान् शतान्यामलकस्य च । पञ्च दद्यात्तदैकत्र जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ ६४ ॥ ज्ञात्वा गतरसान्येतान्यौषधान्यथ तं रसम् । तचामलकमुद्धत्य निष्कुलं तैलसर्पिषोः ॥ ६५ ॥ पलद्वादशके भृष्ट्वा दत्वा चार्धतुलां भिषक् । मत्स्यण्डिकायाः पूतायाः लेहवत्साधु साधयेत् ॥ षट्पलं मधुनश्चात्र सिद्धशीते समावपेत् । चतुष्पलं तुगाक्षीर्याः पिप्पली द्विपलं तथा ॥ ६७ पलमेकं निदध्याच्च त्वगेलापत्रकेशरात् । इत्ययं च्यवनप्राशः परमुक्तो रसायनः ॥ ६८ ॥ कासश्वासहरश्चैष विशेषेणोपदिश्यते । atraarti वृद्धानां चाङ्गवर्धनः स्वरक्षयमुरोरोगं हृद्रोगं वातशोणितम् । पिपासां मूत्रशुक्रस्थान्दोषांश्चाप्यपकर्षति ॥७०॥ अस्प मात्रां प्रयुञ्जीत योपरुन्ध्यान्न भोजनम् । अस्य प्रयोगाच्च्यवनः सुवृद्धोऽभूत्पुनर्युवा ॥७१ मेधां स्मृतिं कान्तिमनामयत्व ॥६९॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मायुःप्रकर्षे बलमिन्द्रियाणाम् । स्त्रीषु महर्ष परमग्निवृद्धिं वर्णप्रसादं पवनानुलोम्यम् ॥७२॥ रसायनस्यास्य नरः प्रयोगाल भेत जीर्णोऽपि कुटीप्रवेशात् । कृत रूपमा सर्व विभर्ति रूपं नवयौवनस्य ||७३ || बेलकी छाल, अरणी, श्योनाक ( अरलु ) की छाल, खम्भारी (कुम्हार ) की छाल, पाढलकी छाल, खरैटी, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, मुद्गपर्णी, मात्रपर्णी, For Private And Personal Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अवलेहप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१६५ ] पीपल, गोखरु, कटेली, कटेला, काकडासिंगी, एवं स्वरक्षय ( गलाबैठना ) उरोरोग, हृद्रोग, भूईआमला, मुनक्का, जीवन्ती, पोखरमूल, अगर, वातरक्त, तृषा, मूत्राशय और शुक्राशय गत रोग हर, गिलोय, ऋद्धि, जीवक, ऋषभक, कचूर, मोथा, नाशक तथा स्मरणशक्ति, मेधा, कान्ति अनारोग्य पुनर्नवा ( बिसखपरा ), मेदा, इलायचीके बीज, आयु और समस्त इन्द्रियोंका बल, बढ़ानेवाली तथा सफेद चन्दन, कमलपुष्प, विदारीकन्द, बांसेकी अग्निंवर्द्धक और वायुको अनुलोमन अरनेवाली है । जड़, काकोली और काकनासा १–१ पल (५-५ इसको सेवन करनेसे अत्यन्त वृद्ध च्यवनऋषिः तोले ), आमले ५०० नग, लेकर सब चीजोंको तरुण हो गए थे। १ द्रोण ( १६ सेर ) पानीमें पकाइये और पकते इसे कुटिप्रावेशिक रसायन प्रयोगके विधासमय उसमें आमलोंको कपड़ेमें बांधकर डाल नानुसार सेवन करनेसे वृद्ध मनुष्य तरुण हो दीजिए। जब ४ सेर पानी शेष रहे तो काथको जाते हैं। छान लीजिए, और आमलोंकी गुठली अलग करके इसे ऐसी मात्रानुसार सेवन करना चाहिए मथकर खद्दरके कपड़ेमें को छान लीजिए। कि जिससे क्षुधा कम न हो जाय । तत्पश्चात् आमलेकी इस पिट्ठीके दो भाग करके टिप्पणी---ऋद्विके अभावमें खरैटी, जीवकके १ भागको ६ पल ( ३० तोले ) धीमें और | अभावमें गिलोय, ऋषभकके अभावमें बंसलोचन दूसरे भागको ६ पल तिलके तैलमें भून लीजिए और मेदाके अभावमें विदारी कन्द लेना चाहिए । तत्पश्चात् यह दोनों पिट्टियां, उपरोक्त काथ और काकोली न मिले तो शतावर डालनी चाहिए । ५० पल स्वच्छ मिश्री एकत्र मिलाकर (कलईदार काकनासाकी जगह अनेक वैद्य ' काकजंघा' तांबेकी कढाई में ) मन्दाग्नि पर पकाकर अवलेहके | डालते हैं, क्योंकि यह क्षय नाशक है । मिश्री समान गाढ़ा कर लीजिए । और फिर उसमें ४ ५ सेर डालनेसे अधिक स्वादिष्ट बनता है। . पल बंसलोचन, २ पल पीपल और १-१ पल आमले ५०० नंग न लेकर ५०० तो० दालचीनी, इलायची, तेजपात तथा नागकेसरका (६। सेर ) लिए जायं तो ठीक है क्योंकि सब चूर्ण मिला दीजिए । और बिल्कुल शीतल हो आमले बराबर वजनके नहीं होते । जानेपर ६ पल शहद मिलाइये । बस-च्यवन पाश च्यवन प्राशकी साधारण मात्रा ३ माशेसे १ तैयार है। तोले तक है। यह रसायन (जरा, व्याधिनाशक ) जखमी, ॥ इति चकारादिलेहप्रकरणम् ॥ क्षीण, और वृद्ध पुरुषोंके शरीरकी वृद्धि करनेवाली, १ चिकित्सा कलिकामें क्वाथ्य द्रव्योंमें मुद्गपर्णी, माषपर्णी, पीपल, अगर, हरे, पुनर्नवा और काकनासाके स्थानमें क्षीरकाकोली, महामेदा, बुद्धि, और त्रिफला लिखा है । वृहद्योगतरङ्गिणीमें क्वाथ्य द्रव्योंमें जीवन्ती, अगर, ऋद्धि, ऋषमक, काकोली और मेदा कम हैं । For Private And Personal Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१६६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि - अथ चकारादिघृतप्रकरणम्। ___ यह घृत चौथिया, तिजारी और विषमज्वर तथा उन्माद, खांसी, श्वास और हर प्रकारके (१७६२) चतुष्कुवलयघृतम् (वं.से.। रसा.) अपस्मार (मिरगी) का नाश करता है । यत्कन्दनालदलकेसरवद्विपकं नीलोत्पलस्य तदपि प्रथितं द्वितीयम्। | (१७६४) चन्दनाद्य घृतम् सर्पिश्चतुष्कुवलयं सहिरण्यपात्रे (वं. से.; वृ. नि. र.; च.सं. । चि. स्था.। ग्रह.; वा. मेध्यं गवामपि भवेत्किमु मानुषाणाम् । भ. । चि. स्था. अ. १०, वृ. यो. त. । त. ६७) नीलोत्पलका कन्द, नीलोत्पलकी नाल, नीलो- चन्दनं पद्मकोशीरं पाठां पूर्वी कुटन्नटम् ।। त्पलके पत्र, और नीलोत्पलकी केसरसे गोघृत सिद्ध । षड्यन्यां शारिवाऽऽस्फोता सप्तपर्णाटरूषकम् ॥ करके स्वर्ण पात्र में रख लीजिए। यह घृत | पटालादुम्बराचत्य पटोलोदुम्बराश्वत्थः वटप्लक्षकपित्थकान् । अत्यन्त मेध्य है। कटुका रोहिणी मुस्तं निम्बश्च द्विपलांशकम् ॥ (१७६३) चन्दनादि घृतम् द्रोणेऽपां साधयेत्पादशेषे प्रस्थं घृतं पचेत् । किराततिक्तेन्द्रयववीरामागधिकोत्पलैः ॥ ... (वं. से.; वृ. नि. र.; र. र. । ज्वर.) । कल्कैरक्षसमैः पेयं तत्पित्तग्रहणीगदे ॥ चन्दनं चित्रकं सिंही वत्सकं मुस्तनागरे । सफेद चन्दन, पद्माख, खस, पाठा, मूर्वा, कटुका त्रायमाणा च धात्र्युशीरे द्विशारिवे॥ मोर मोथा, बच, सारिवा, कोयल, सतोना, बासा, पटोल द्रव्याचपलमात्राणि सौम्यवारेषु संहरेत् । पत्र, गूलरकी छाल, पीपलवृक्ष की छाल, बड़की क्षीराढकसमायुक्तां सर्पिषोऽर्द्धतुलां पचेत् ॥ । छाल, पिलखनकी छाल, कैथकी छाल, कुटकी, चातुर्थिकं हरेत्पीतमुन्मादं विषमज्वरम् । मोथा और नीमकी छाल २-२ पल (१०-१० त्र्याहिक श्वासकासौ च सर्वापस्मारमेव च॥ तोले) लेकर १ द्रोण (३२ सेर) पानीमें पकाइये सफेद चन्दन, चीता, कटैली, इन्द्रजौ, नागर- और चौथाई भाग पानी शेष रहने पर छान मोथा, सोंठ, कुटकी, त्रायमाणा (वनफशा), आमला, । लीजिए । इस क्वाथ और १-१ कर्ष (१।-१। खस, दोनों प्रकारकी सारिवा। प्रत्येक आधा | तो०) चिरायता, इन्द्रजौ, भुई आमला पीपल और आधा पल (२॥ तोले), दूध ४ सेर, धी आधी नीलोत्पलके कल्क से १ प्रस्थ धी सिद्ध कर तुला (३ सेर १० तोले) (तथा २ तुला पानी) । लीजिए। लेकर उपरोक्त औषधोंके ककके साथ घृत सिद्ध इसे सेवन करनेसे पित्तज ग्रहणीका नाश कर लीजिए। | होता है। १ मुरतकच सनागरम् । २ काकोली ३ द्वयाहिकम् इति पाटा'तराणि । For Private And Personal Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१६७] (१७६५) चव्यादिघृतम् (हा.सं.स्था.३अ.११) सज्जीखार और पांचों नमकका महीन चूर्ण मिला चव्यपाठात्रिकटुमगधामूलकुस्तुम्बरूणाम् दीजिए । विल्वाजाजी रजनि सुरसा पथ्यया सैन्धवश्च। इसे यथोचित मात्रानुसार पीनेसे क्षयकासका पिष्टवा चैतत् समगविघृतं पाचयेत्सुप्रयुक्तम् नाश होता है। पानाभ्यङ्गे हरति गुदजान् वातरोगाश्मरीश्च॥ (१७६७) चव्याद्यं घृतम् चव, पाठा, सोंठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, (वं. से. । अर्श.; वृ. नि. र.। संप्र.; ग. नि । घृता.; कुस्तुम्बरु, बेलकी छाल, जीरा, हल्दी, तुलसी, च. द.;. मा. । अर्शा.; च. सं. । चि.स्था. अ.८) हैड और सेंधानमकके कल्क (तथा चार गुने पानी) के साथ गायका घी पका लीजिए। चव्यं त्रिकटुकं पाठा क्षारं कुस्तम्बुरूणि च, इसे पिलाने और मालिश करानेसे बवासीरके यवानी पिप्पलीमूलमुभे च विडसैन्धवे।। मस्से, वातरोग और पथरीरोगका नाश होता है। चित्रकं बिल्वमभयां च पिश्वा सर्पिर्विपाचयेत्, (विधिः-गोघृत ५२ तो., कल्क द्रव्य सकृद्वातानुलोम्याथै जले दन्नि चतुर्गुणे ॥ प्रत्येक १ तो., पानी २०८ तो.।) प्रवाहिकां गुदभ्रंशं मूत्रकृच्छू परिवम् , ___मात्रा---१ तो. से १॥ तोले तक, गर्म गुदवङ्क्षणशूलश्च घृतमेतद्वयपोहति ।। दूधके साथ चव, सोंठ, मिर्च, पीपल पाठा, जवाखार, (१७६६) चव्यादिघतम (वा.भ.।चि.स्था.अ.२) कुस्तुम्बरु (नैपाली धनिया), अजवायन, पीपलामूल, चविका त्रिफला भाजी दशमूलैः सचित्रकैः बिड़नमक, सेंधानमक, चीता, बेलकी छाल, हैड़ । इनके कल्क और घीसे चार गुने दही तथा पानी कुलत्थपिप्पलीमूलपाठाकोलयवैर्जले । श्रुतै गरदु'स्पर्शपिप्पलीशठिपौष्करः के साथ घृत सिद्ध कर लीजिए। पिष्टैःकर्कटशृङ्गया च सभैःसपिर्विपाचयेत् ॥ यह घृत वातानुलामन, प्रवाहिका (पेचिश), भासोपान गुदभ्रंश (कांच निकलना), मूत्रकृच्छ्र, मूत्रातिसार, दत्वा युक्त्या पिबेन्मात्रां क्षयकासनिपीडितः। गुदशूल जौर वंक्षणशूलका नाश करने वाला है। ___काथ्य द्रव्य---चव, हर्र, बहेड़ा, आमला, (१७६८) चाङ्गेरीघृतम् (ग. नि. । घृता० १) भारंगी, दशमूल, चीता, कुलथी, पोपलामूल, पाठा, पिप्पली नागरं पाठा यवानी विश्वभेषजम्: बेर, और जौ। | भागांत्रिपलिकान् कृत्वा कषायमुपकल्पयेत् । कल्क द्रव्य-सोंठ, धमासा, पीपल, कचूर भार्गी च पिप्लीमूलं व्योष चव्यं सचित्रकम्। पोखरमूल और काकड़ा सिंगी। श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका ॥ विधिः-काथ्य द्रव्योंके काथ और कल्क एतैः पलार्धकैव्यैः कृत्वा कल्क विपाचयेतः द्रव्योंके कल्कके साथ घी पकाकर उसमें जवाखार, पलानि सर्पिषस्तस्मिन् चत्वारिंशत्समावपेत् । For Private And Personal Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir WwvvvvvvvvvvvvvvvvnATIVvvvm/vMA vvvvwwwwnnyonymARA [१६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [चकारादि मृमिना ततः साधं सिद्धं सर्पिर्निधापयेत्ः (दधिसाहचर्याच्चाङ्गेरी स्वरसश्चतुर्गुणम्) ग्रहण्योंविकारनं गुल्महृद्रोगनाशनम् । सोंड, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, गोखरु, शोफप्लीहोदरानाहमूत्रकृच्छूज्वरापहम् । पीपल, धनिया, बेलकी छाल, पाठा, अजवायन कासहिकारुचिश्वाससूदनं सर्वगुल्मनुत् ॥ इनके क क और धीसे चारगुने चाङ्गेरी (चूका तिपतिया ) के स्वरस तथा चारगुने दही (और ____पीपल, सोंठ, पाठा, अजवायन, सोंठ, प्रत्येक चारगुने जल) के साथ घृत पका लीजिए। ३ पल (१५ तो०) लेकर चार गुने पानीमें पका कर चौथाई पानी शेष रहने पर छान लीजिए । ___ यह घृत कफ, वायु, बवासीर, ग्रहणी, मूत्र कृच्छू, प्रवाहिका (पेचिश), गुदभ्रंश (कांच इस काथ और भारंगी, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, निकलना) और अफारेको नष्ट करता है । पीपल, चव्य, चीता, गोखरु, पीपल, धनिया, बेलकी छाल, पाठा ओर अजवायनमें से प्रत्येक (१७७०) चाङ्गेरीवृतम् (वं. से. । बालरो.) आधा आधा पल (२॥ तोले). लेकर इनके कल्कके अजाक्षीरसमं सर्पिश्चाङ्गेरीस्वरसाढ के साथ ४० पल (२॥ सेर) धी मन्दाग्नि पर पका समझा धातकी लोधं कपित्थोत्पल सैन्धवैः । लीजिए। सव्योषकुष्ठबिल्वान्दैः पिष्टैः प्रस्थोन्मितं घृतम् ।। पचेगाहण्यतीसारान्हन्ति पथ्यभुजः शिशोः॥ यह घृत ग्रहणी, अर्श (बवासीर), गुल्म, घी १ प्रस्थ (१ सेर) बकरीका दूध १ प्रस्थ, हृद्रोग, सूजन, तिल्ली, उदररोग, आनाह (अफारा) चांगेरी (चूका) का स्वरस ४ सेर। (पानी ४ सेर)। मूत्रकृच्छ्र, ज्वर, खांसी, हिचकी, अरुचि, श्वास कल्क द्रव्य-मजीठ, धायके फूल, लोध, कैथ, और हर प्रकारके गुल्मका नाश करता है। नीलोफर, सेंधानमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, कूठ, (१७६९) चाङ्गेरीधृतम् | बेलगिरी, नागरमोथा प्रत्येक २० माशे । (ग. नि. घृता. १; भै. र.; . मा.; धन्वं.; र.र.; . यथा विधि घृत पका लीजिए। च. द. । ग्रह.; शा. सं. म. ख. । अ. ९) । __यह घृत बच्चोंको खिलाने और पथ्यपालन करानेसे उनका अतिसार और ग्रहणी रोग नष्ट नागरं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली; होता है। श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्य विल्वं पाठायमानिका । (१७७१) चाङ्गेरीघृतम् चाङ्गेरीस्वरसे सर्पिः कल्कैरेतैर्विपाचयेत् । । (ग. नि.; भै. र.; च. द.। शु. रो.; वृ. यो. त. चतुर्गुणेन दना च तघृतं कफवातनुत् ॥ ___त. १२७; वं. से.; च. सं. । चि. अति.) असि ग्रहणीदोषं मूत्रकृच्छं प्रवाहिकाम्चाङ्गेरीकोलदध्यम्लनागरक्षारसंयुतम् । गुदभ्रंशाचिमानाहं घृतमेतद्वयपोहति ॥ घृतमुत्कथितं पेयं गुदभ्रंशे रुजापहम् ॥ १ यवक्षारसमायुतमिति र. र. । For Private And Personal Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् द्वितीयो भागः। चाङ्गेरी (चूका) के स्वरस, बेरके काथ और । अतिसारोंका नाश करता और अग्निको दीप दही तथा जवाखार और सोंठके क-कसे सिद्घृत करता है । पीनेसे कांच निकलनेकी पीड़ा शान्त होती है। (१७७३) चाङ्गेरीधृतम् ( बृहद ) (बंगसेन में इस घृतको शुलयुक्त अतिसार (वं. से. । ग्रहण्या.) नाशक लिखा है।) पिप्पली नागरं पाठा श्वदंष्ट्रा च पृथक् पृथक् । (१७७२) चाङ्गरीवृतम् ( वं. से. । ग्रह.) भागांत्रिपलिकान्दत्वा कषायमुपकल्पयेत् ।। चाङ्गेरीस्वरसे दद्याद् घृतप्रस्थं चतुर्गुणः गण्डारी पिप्पलीमूलं व्योषं चम्पकचित्रकम् । अजाक्षीरस्य च प्रस्थं पचेत्सपिरिहौषधैः। पिष्ट्वा कल्कं क्षिपेत्काथे द्रव्यैरपलै पृथक् ॥ व्योपविल्वकपित्थानि समगा धातकी घनम् , पलानि सर्पिषश्चात्र चत्वारिंशत्प्रदापयेत् ।। अजाज्यतिविषा मोचा धान्यकोत्पलबाल कम् ॥ चाङ्गेरीस्वरसं तुल्यं सर्पिषा दधि षड्गुणम् ॥ बलायवानिकाग्निश्च पाठाग्रन्थिकदाडिमम् , मृद्वग्निना साधयेत्तत्सर्पिःसिद्धं निधापयेत् । अक्षप्रमाणैरेतैस्तु सर्पिः सिद्धं महागुणम् । तदाहारे विधातव्यं पाने च यौगिकैर्बुधैः ।। ग्रहण्य विकारनं शूलगुल्मज्वरापहम् , | ग्रहण्यशोविकारघ्नं गुल्महृद्रोगनाशनम् । कफवातारुचिहरं वलवर्णाग्नि वर्धनम् ।। शोथप्लीहोदरानझे मूत्रकृच्छ्रज्वरापहम् ॥ कृमिदोषगुदभ्रंशयकृत्प्लीहामयापहम् . कासहिकारुचिश्वाससदनं पार्श्वभूलनुत् । सर्वातिसारशमनं ग्रहणीदीपनं परम् ॥ बलपुष्टिवर्णकरमग्निसन्दीपनं परम् ॥ चाङ्गेरी (चूका-तिपतिया )का स्वरस १ पीपल, सोंठ, पाठा और गोखरु ३-३ पल सेर, धी १ सेर, बकरीका दूध १ सेर ( और (१५–१५ तोले ) ले कर १६ गुने ( १९२ पानी ४ सेर ) तथा सोंठ, मिर्च, पीपल, कच्ची पल ) पानीमें पका लीजिए, जब ४८ पल ( ३ वेल, कैथ, मजीठ, धायके फूल, मोथा, जीरा, सेर ) पानी शेष रह जाय तो उतार कर छान अतीस, मोचरस, धनिया, नीलोफर, नेत्रबाला, | लीजिए और उसमें कचनार, पीपलामूल, त्रिकुटा खरैटी, अजवायन, चीता, पाठा, पीपलाभूल, और चव, और चीताका कल्क आधा आधा पल अनारदानेका क-क १-१ कर्ष (११-१। तोला) । (२॥ २॥ तोले ) और ४० पल घी, ४० पल लेकर यथाविधि घृत पका लीजिए। चाङ्गेरी (चूका-तिपतिया ) का स्वरस और यह अत्यन्त गुणशाली वृत ग्रहणी, बवासीर, २४० पल दही मिलाकर मन्दाग्नि पर पका शूल, गुल्म, ज्वर, कफ, वायु और अरुचिनाशक लीजिए । तथा बल, वर्ण और जठराग्नि वर्द्धक है । इसके इसे यथोचित अनुपानके साथ पिलाने और अतिरिक्त कृमिरोग, गुदभ्रंश (कांच निकलना), भोजनमें खिलानेसे ग्रहणी, बवासीर, गुल्म, हृद्रोग, तिल्ली और जिगरके रोग तथा सर्व प्रकारके शोथ, तिल्लो, मूत्रकृच्छ्र, ज्वर, खांसी, हिचकी, भा० २२ For Private And Personal Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१७० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि श्वास, और पसलीके दर्दका नाश होता है । यह - यह घृत तिल्ली, गुल्म, उदररोग, अफारा, घृत बल पुष्टि और सौन्दर्य वर्द्धक तथा अग्नि- पाण्ड, अरुचि, ज्वर, बस्तिशूल, हृदयशूल, पसलीदीपक है ।x शूल, कटिशूल, उरुशूल, उदावर्त, पीनस, बवासीर, (१७७४) चित्रकवृतम् ( च.द.;वृ.नि.र.संप्र.) शोथ और भस्मक रोगनाशक तथा बलवर्णवर्द्धक चित्रककाथकल्काभ्यां ग्रहणीनं शतं हविः।। गुल्मशोथोदरप्लीहशूला घ्नं प्रदीपनम् ॥ इसे पिलाना और भोजनमें खिलाना चाहिए । चीतेके काथ और कल्कसे पकाया हुवा घृत | (१७७६) चित्रकपिप्पलीघुतम्। ग्रहणीरोग, गुल्म, शोथ, उदररोग, तिल्ली, शूल | (भै. र. । प्ली.; वं. से. । उदररो. ) और बवासीर नाशक तथा अग्निदीपक है । पिप्पलीचित्रकान्मूलं पिष्ट्वा सम्पग्विपाचयेत् (१७७५) चित्रकघृतम् घृतं चतुर्गुणं क्षीरं यकृत्प्लीहोदरापहम् ॥ ( भै. र.; च. द. । प्लीहा.; ग. नि. । धृता.; र. पीपलामूल और चीतेकी जड़के कल्क तथा र. । यकृत्.; वृं. मा.; वं. से. । उदर.; यो. र.। चार गुने दूधके साथ पकाया हुवा धी तिल्ली और यकृ.; वृ. यो. त. । त. १०५) जिगरके रोगोंका नाश करता है । चित्रकस्य तुलाकाथे घृतं प्रस्थं विपाचयेत् । । (१७७७) चित्रकादिघृतम् आरनालं तद्विगुणं दधिमण्डं चतुर्गुणम् ॥ । ( यो. र.; ग. नि.; वृं. मा., च. द. । मूत्राधा.; पञ्चकोलकतालीशक्षारैः लवणसंयुतैः। | यो: त. । त. ४९; वृ. यो. त. । त. १०१ ) द्विजीरकनिशायुग्मैमरिचं तत्र दापयेत् ॥ चित्रकं सारिवा चैव बला काला च सारिवा। प्लीहगुल्मोदराध्मानपाण्डुरोगारुचिज्वरान् । द्राक्षा विशाला पिप्पल्यस्तथा च त्रिफला भवेत् ।। वस्तिहृत्पार्थकटयूरु शूलोदावर्तपीनसान्॥ | तथैव मधुकं दद्यादामलकानि च । हन्यात्पीतं तदर्शोनं शोथनं वह्निदीपनम् ।। घृताढकं पचेदेतैःकल्कैरक्षसमन्वितैः ।। बलवर्णकरश्चापि भस्मकं च नियच्छति ॥ क्षीरद्रोणे जलद्रोणे तत्सिदमवतारयेत । ____ चीतेका काथ १ तुला ( १०० पल-६। शीतं परिशतं चैव शर्कराप्रस्थसंयुतम् । सेर ) धी १ सेर, काजी २ सेर, दहीका पानी ४ | तुगाक्षीर्या च तत्सर्व मतिमान्परिमिश्रयेत् । सेर और पिप्पली, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, ततो मितं पिबेत्काले यथा दोषं यथावलम् ।। तालीशपत्र, जवाखार, सेंधा नमक, जीरा, हदी, | मूत्रग्रन्थिं मूत्रसादमुष्णवातममृग्दरम् । दारुहल्दी, और मिर्चका कल्क ( प्रत्येक १॥ विविघातं निहन्त्येतद्वस्तिकुण्डलिमप्यलम् ॥ तो. ) लेकर यथाविधि घृत पका लीजिए। सपिरेतत्ययुञ्जाना स्त्री गर्भ लभतेऽचिरात्। ४बृहन्निघन्टुरत्नाकरके मतानुसार इसमें घृत क्वाथके समान और दही घुतसे ९ गुना पड़ना चाहिए। For Private And Personal Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१७१] अस्रदोषे योनिदोषे मूत्रदोषे तथैव च ॥ और हिज्जल ४ भाग लेकर इनके कल्क ( और प्रयोक्तव्यमिदं सर्पिश्चित्रकाद्यं सदा बुधैः॥ चार गुने पानी ) के साथ घृत पका लीजिए। चीता, श्वेत सारिवा, खरैटी, कृष्ण सारिवा, यह घृत अथवा उक्त औषधोंका चूर्ण कफज मुनक्का, इन्द्रायणकी जड़, पीपल, त्रिफला, मुलैठी उदर रोगका नाश करता है । और आमलोंका १–१ कर्ष कल्क और १ द्रोण (१७८०) चित्रकादिघृतम् (१६ सेर ) दूध तथा १ द्रोण जलके साथ ४ (च. सं. । चि. स्था. अ. १७; वं. से.; धन्वं.; सेर घृत पका लीजिए, जब घृत मात्र शेष रह बूं. मा. । शोथ.; ग. नि. । घृत.) जाय तो छानकर उसमें १ प्रस्थ ( १ सेर ) सचित्रकं धान्ययवान्यजाजी' मिश्री, और १ प्रस्थ बंसलोचन मिला दीजिए। सौवर्चलं' व्यूषणवेतसाम्लम्। __इसे यथाकाल, दोष बलानुकूल मात्रामें पीनेसे बिल्वात्फलं दाडिमयावशूको मूत्रग्रन्थि, मूत्रावरोध, सोज़ाक, रक्त प्रदर, और सपिप्पलीमूलमथोऽपि चव्यम् ॥ अतिसारका नाश होता है। इस घृतको बस्ति पिष्ट्वाक्षमात्राणि जलाढकेन कुण्डली, रक्तप्रदर, योनिरोग, और मूत्ररोगोंमें भी पक्त्वा घृतपस्थमथो विदध्यात्। देना चाहिए। इसके सेवनसे स्त्रियोंको गर्भधारणकी शक्ति अशौसि गुल्मश्वयथुश्च दुःखम् प्राप्त होती है। तद्धन्ति वह्निं च करोति दीप्तिम् ॥ (१७७८) चित्रकादिघृतम् चीता, धनिया, जीरा, अजवायन, सौंचल, (च. सं. । चि. स्था. अ. २८) | त्रिकुटा, अमलबेत, बेलगिरी, अनारदाना, जवाखार, चित्रकं नागर रास्नां पौष्करं पिप्पलींशटीम। पीपलामूल और चव का कल्क १-१ कर्ष (१।-१। पिष्ट्वा विपाचयेत्सपिर्वातरोगहरं परम्॥ . तोला ) और १ आढक ( ४ सेर ) पानीके साथ चीता, सोंठ, रास्ना, पोखरमूल, पीपल और १ प्रस्थ ( १ सेर ) घृत पका लीजिए। कचूरके क क ( तथा चार गुने जल )से सिद्ध यह घृत बवासीर, गुल्म, और शोथ नाशक घृत वात रोगोंका नाश करता है। तथा अग्निदीपक है। (१७७९) चित्रकादिघृतम् (ग. नि.। उदरा.) । (१७८१) चित्रकाद्यं घतम् चित्रको हिङ्ग च समं त्रिवृदद्वयंशाच सातला। ( वं. से.; यो. र. । गुल्म.; सु. सं.।उ.त. अ.४२) चतुर्गुणानि दन्त्याहनिचुलानि च तैघृतम् ॥ चित्रक योषसिन्धूत्थपृथ्वीकाचव्यदाडिमैः। सिद्धं कफोदरे तद्वन्वर्ण वा चित्रकादिकम्। दीप्यकग्रन्थिकाजाजीहपुषाधान्यकैःसमैः॥ चीता १ भाग, हींग १ भाग, निसोत २ | दध्यारनालबदरमूलकस्वरसैघृतम् । भाग और सातला २ भाग, दन्तीमूल ४ भाग | तत्पिवेद्वातगुल्मानिदौर्बल्याटोपशूलनुत् ॥ १ यवानिपाठति पाठान्तरम् । २ सदीप्यकेति पाठान्तरम् । - For Private And Personal Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि ___ चीता, त्रिकुटा, सेंधा नमक, कलौंजी, शालपी, पृष्टपणी, कटेली, कटेला, गोखरु, चव, अनारदाना, अजवायन, पीपलामूल, जीरा, खम्भारीकी छाल, राना, अरण्डमूल, निसोत, हाऊवेर और धनिया । इनके कक तथा दही, खरैटी, मूर्वा, और शतावरी । प्रत्येक औषध २-२ काञ्जी और वेरीकी जड़के स्वरसके साथ पकाया पल ( १०-१० तोले ) लेकर १६ गुने पानीमें हुवा घृत पीनेसे गुल्म, मन्दाग्नि, अफारा और पकाकर चौथा भाग शेष रहने पर उस क्वाथ और शूल नष्ट होता है। कल्याण घृतोक्त (इन्द्रायग, त्रिफला, रेणुका. (१७८२) चित्रकोत्थितं धृतम् देवदारु, एलवा, शालपगी, तगर, हन्दी. दारुहल्दी, (वं. से.; च. द.। शो.; च, सं.।चि. स्था,अ, ८) क्षीरं घटे चित्रककल्कलिप्ते सफेद और कृष्ण सारिवा, फूलप्रियङ्ग, नीलकमल, दध्यागतं साधु विमथ्यते च । इलायची, मजीठ, दाती, अनार, केसर, तालीसपत्र, तज्जं घृतं चित्रकमूलगर्भम् बड़ी कटैली, चमेलीके ताजे फूल, बायबिडंग, तक्रेण सिद्धं श्वयथुनमग्र्यम् ॥ पृश्निपर्णी, कूट, सफेद चन्दन और पाकके ) अर्थोऽतिसारानिलगुल्ममेहां ककके साथ वृत पका लीजिए। चैतनिहन्त्यग्निवलप्रदश्च । यह " चैतसवृत "समस्त मानसिक विकारों तक्रेण वाऽद्यात् सघृतेन तेन ( उन्मानादि )को नष्ट करनेके लिए अत्युत्तम है। भोज्यानि सिद्धामथवा यवागुम् ।। ( इसमें क्वाथसे चौथा भाग धृत और घृतसे एक घड़े में चीतेको पीसकर लेप कर दीजिए. चतुर्थांश कल्क लेना चाहिए। और उसमें दूध भरकर जमा दीजिए, जब दही (मात्रा-६ मासे १ तो० तक । अनुपान जम जाय तो उसे मथकर घृत निकाल लीजिए। | गर्म दूध या गर्म जल । ) . इस घृतको चार गुने तक और चतुर्थांश चीतेकी जड़के क-कसे सिद्ध कर लीजिए। - (१९८४) चैतसघृतम् - यह घृत शोथ, बवासीर, अतिसार, वाय. (व. से. । उन्माद: ग. नि. । परि, घृता.) गुल्म और प्रमेहका नाश तथा अग्नि प्रदीप्त करता है। श्यामा मधुरसा रास्ना देवदारु शतावरी । उपरोक्त दहीके धृतयुक्त तक्रसे यवागु इत्यादि श्वदंष्ट्रा दशमलञ्च तैर्युक्त्या काथकल्कितैः॥ आहार पदार्थ बनाकर खिलानेसे भी लाभ होता है। साधितश्चैतसं नाम घृतं चेतोविकारनुत् । (१७८३) चैतसघृतम् उन्मादमदमच्छीयां ज्वरापस्मारभेषजम् ।। (वं. से.; च. द.; यो. र. ।उ माद;.यो.त.।त.८८). काला निसोत, मूर्वा. रास्ना, देवदारु, शतापञ्चमूल्या च काश्मर्यो रास्नैरण्डत्रिवृद्धला। वर, गोखरु और दशमूलके काथ तथा कन्क से मूर्वी शतावरी चेति काथैहि पालिकैरिमैः॥ सिद्ध घृत चित्तविकार, उन्माद, मद, मूर्छा, कल्याणकस्य चाङ्गेन चैतसं नाम तद्धृतम्।। ज्वर और मिरगीका नाश करता है । सर्ववेतोविकाराणां शमनं परमुच्यते ॥ For Private And Personal Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् अथ चकारादितैलप्रकरणम् । (१७८५) चक्रमदीदिसिन्दूरतैलम् (वं. से.; भा. प्र.म.ख. । गण्ड; वृ. यो. त । त. १०८) चक्रमर्दकमूलस्य कल्कं कृत्वा विपाचयेत् । केशराजरसे तैलं कटुकं मृदुनाग्निना ।। पक्त्वा शेषे विनिक्षिप्य सिन्दूरमवतारयेत् । एतत्तैलं निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम् ॥ vaiड़की जड़ कल्क और भांगरे स्वरससे मन्दाग्नि पर कटु तेल पकाकर उसमें पाककें अन्तमें सिन्दूर डाल कर उतार लीजिए । द्वितीयो भागः । ४० यह तैल भयङ्कर गण्डमालाको अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता है । (पaiड़की जड़ १० तो... • तैल तो ० ; भांगरेका रस २ सेर, सिन्दूर १० तो. ) (१७८६) चणकादितैलम् (र.का.पे. । विसर्प.) प्रस्थैकं चणकानाञ्च भल्लातञ्च चतुर्गुणम् । तैलं पातालयन्त्रेण पातयेत्पाचये पुनः ॥ प्रस्थ चने ( भीगे हुवे ) और ४ प्रस्थ भिलावोंको एकत्र मिलाकर ( अधकुटा करके) पाताल यन्त्रसे तेल निकाल लीजिए और फिर उसे पुनः (चने और भिलावेके कल्क तथा चार गुने पानी के साथ ) पका लीजिए । इसकी मालिशसे विसर्प कुष्ट नष्ट होता है । (१७८७) चतुपर्णतैलम् (वं. से. । कर्ण. ) आम्रजम्बूवालानि मधुकस्य वटस्थ च । एभिः सुसाधितं तैलं पूतिकर्णोपशान्तये || आमके पत्ते, जामनके पत्ते, मुलैठीके पत्ते और बड़के पत्ते समान भाग लेकर उनके करकसे Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७३ ] | तैल पका लीजिए | इसे कानमें डालनेसे पृतिकर्ण रोग नष्ट होता 1 (सरसों का तेल १ सेर, प्रत्येक वृक्षके पत्ते १ छटांक - ५ तो. - पानी ४ सेर एकत्र मिलाकर पकाएं | ) (१७८८) चतुष्पल्लवतैलम् (वं. से. । कर्ण.) वरुणाद्दकपित्थाम्रजम्बू पल्लव साधितम् । पूतिकर्णापहं तैलं जातीपत्ररसोऽथवा ॥८८॥ बरना, कैथ, आम और जामनके पत्तों को पीसकर चार गुने तेल में, तैलसे १६ गुने पानीके साथ पकाकर उसको कान में डालने से पूतिकर्ण नामक कर्णरोग नष्ट होता है । पूतिकर्ण रोग चमेलीके पत्तोंके रससे भी नष्ट है । (१७८९) चन्दनबलालाक्षादितैलम् (वृ. नि. र. यो. र. । ज्वर.) चन्दनञ्च बलामूलं लाक्षा लामज्जकं तथा । पृथक् पृथक् प्रस्थमात्रं द्रोणे च सलिले पचेत् ॥ चतुर्भागावशेषेऽस्मिंस्तैलं प्रस्थद्वयं क्षिपेत् । चन्दनोशीरमधुकशताह्वाः कटुरोहिणी ॥ देवदारुनिशा कुष्ठमञ्जिष्ठागुरुवालकम् । अश्वगन्धा वला दाव मूर्वामुस्तासमूलकाः ॥ एला नागकुसुमं रास्ना लाक्षा सगन्धिका । चम्पकं पीतसारञ्च सारिवा रोचकद्वयम् ॥ कल्कैरेतैः समायुक्तं क्षीराढकसमन्वितम् । तैलमभ्यञ्जने श्रेष्ठं सप्तधातु विवर्धनम् ।। कासश्वासक्षयहरं सर्वच्छर्दिनिवारणम् । असृग्दरं रक्तपितं हन्ति पित्तकफामयम् ॥ For Private And Personal Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [चकारादि कान्तिकृद्दाहशमनं कण्डूविस्फोटकनाशनम् । (१७९०) चन्दनादितैलम् (महा) शिरोरोगं नेत्रदाहमङ्गदाहं च नाशयेत् ॥ (भा. प्र. उ. खं. । वाजी.; भै. र. । ध्वजभङ्ग; वातामयहतानाञ्च क्षीणानां क्षीणरेतसाम्।। न. अ. । त. २; यो. र. । वाजी.) बालमध्यमवृद्धानां शस्यते शोफकामलाम् ॥ द्रव्याणि चन्दनादेस्तु चन्दनं रक्तचन्दनम्। पाण्डुरोगे विशेषेण सर्वज्वरविनाशनम् ।। | पतङ्गमथ कालीयागुरुकृष्णागुरूणि च ॥ चन्दन, खरैटीकी जड़, लाख और देवद्रुमःससरल पद्मकं क्रमुकोऽपि च । लामजक (खसभेद) १-१ प्रस्थ (१ सेर) लेकर करो मृगनाभिश्च लताकस्तूरिकापि च॥ एक द्रोण (१६ सेर) पानीमें पका लीजिए, जब सिल्हकःकुङ्कमं नव्यं जातीफलकमेव च। चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो उतारकर छान जातीपत्रं लवङ्गश्च सूक्ष्मैला महती च सा ॥ लीजिए, और इस काथ तथा निन्न लिखित कक कङ्कोलफलकं स्पृका पत्रक' नागकेशरम् । और १ आढक (४ सेर) दूधके साथ २ सेर तैल सिद्ध कर लीजिए। वालकञ्च तथोशी मांसी दारुसिताऽपिवा।। ___ क क द्रव्य-सफेद चन्दन,खस,मुलैठी,सोया, कृतकपरकश्चापि शैलेयं भद्रमुस्तकम् । कुटकी, देवदारु, हल्दी, कूठ, मजीठ, अगर, नेत्र रेणुका च प्रियङ्गुश्च श्रीवासो गुग्गुलुस्तथा। बाला, असगन्ध, खरटी, दारु हल्दी मूर्वा, मोथा, लाक्षा नखश्च रालश्च धातकीकुसुमं तथा। मूली, इलायची, दालचीनी, नागकेसर, रास्ना, लाख, ग्रन्थिपर्णश्च मञ्जिष्ठा तगरं सिक्थकं तथा ॥ अजमोद, चम्पक, शिलारस सारिवा, विडलवण एतानि शाणमानानि कल्कीकृत्य शनैःपचेत् । (खारीनमक) और सेवा । सब चीजें समान भाग तैलं प्रस्थमितं सम्यगेतत्पात्रे शुभे क्षिपेत् ॥ मिलाकर आधासेर लें। अनेनाभ्यक्तगात्रस्तु वृद्धो ऽशीतिसमोपि सः। इसकी मालिश करनेसे सप्तधातुओं ( रस, युवा भवति शुक्राढयःस्त्रीणामत्यन्तबल्लभः ॥ रक्त, मांसादि) की वृद्धि होती है। बन्ध्यापि लभते गर्भ वृद्धोऽपि तरुणायते। यह तैल खांसी, श्वास, क्षय, छर्दि, रक्त अपुत्र पुत्रं पामोति जीवेच्च शरदां शतम् ॥ प्रदर, रक्तपित्त, पित्त कफ रोग, दाह, कण्डू, चन्दनादिमहातैलं रक्तपित्तं क्षयं ज्वरम् । विस्फोटक, शिरोरोग, नेत्रदाह, शरीरकीदाह, सूजन, दाहं प्रस्वेददोर्गन्ध्यं कुष्ठं कण्डं विनाशयेत् ॥ कामला और विशेषकर पाण्डुरोग तथा ज्वरका सफेद चन्दन, लाल चन्दन, पतंग, काला नाश करता है । यह बालक, वृद्ध, युवा, क्षीण- | चन्दन, अगर, देवदार, सरल (चीड़का बुरादा), वीर्य पुरुष, निर्बल और वात व्याधिसे व्यथित पद्माख, सुपारी, कपूर, कस्तुरी, लता कस्तूरी, रोगियों के लिए अत्यन्त हितकारी है। (मुश्कदाला), सिल्हक (शिलारस), नवीन केसर, १ त्वक्च पद्मकमिति पाठभेदः । २ पीति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१७५] जायफल, जावित्री, लौंग, छोटी इलायची, बड़ी स्पृक्का लवङ्गं ककोलं द्रव्यैरेभिर्द्विकार्षिकैः। इलायची, कंकोलका फल, स्पृका, तेजपात, नाग- दशमूलकषायस्थ षड्भागा.पयस्तथा ॥ केसर(बरास),नेत्रबाला,खस,जटामांसी,दारचीनी, शुद्ध यवलोककुलित्थानां बलामूलस्य चैकतः । कपूर, छरीला, नागरमोथा, रेणुका, फूल प्रियंगु, निकाथ्य काथो भागश्च तैलस्य च चतुर्दश ।। श्रीवास, गूगल, लाख, लख, राल, धायके फूल, ततःपकं विजानीयात् क्षिप्रं तदवतारयेत् । प्रन्थिपर्ण (गठीवन), मजीठ, तगर और मोम। शुभे पात्रे विनिक्षिप्यमौषधै.समुगन्धिभिः॥ प्रत्येक ४-४ माशे (वर्तमान तोलसे ५-५ माशे) | प्रतिवासं ततः कार्यमेषां संयोजने विधिः । लेकर सबको अधकुटा करके उसमें १ सेर तिलका प्रायोऽयं सुकुमारीणामीश्वराणां सुखात्मनाम् ॥ तैल और ४ सेर पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर स्त्रीणां स्त्रीन्दगर्भाणामलक्ष्मीकलिनाशनम् । पकाएं; जब पानी जल जाय तो तेलको छानकर अशीति वातजारोगान्वातरक्तं विशेषतः ॥ बोतलों में भर कर रख दीजिए। मृतिकाबालमर्मास्थिहतक्षीणेषु पूजितम् । इसकी मालिशसे अस्सी वर्षका वृद्ध पुरुष जीर्णज्वरं सदाहं वा शीतं वा विषमज्वरम् ॥ भी तरुणके समान वीर्यवान और युवति-प्रिय हो शोषापस्मारकुष्ठनं वन्ध्यायां च सुखपदम् । जाता है तथा वन्ध्या स्त्री और पुत्रहीन पुरुषोमें व्याधितानां हितार्थाय ये तु कडूति पीडिताः॥ पुत्रोत्पादन की शक्ति उत्पन्न होती है। विशेषाद्रक्षदेहानां चित्रिणाश्च विशेषतः । ___ यह मेहा चन्दनादि तैल रक्तपित्त, क्षय, ज्वर, सर्वकालप्रयोगेण कान्तिलावण्यपुष्टिदम् ॥ दाह, पसीना, दुर्गन्धि, कुष्ठ और खुजली नाशक | विनिर्मितमिदं तैलमात्रेयेण महर्पिणा। है तथा इसको व्यवहार में लाने वाले व्यक्ति १०० न चास्मात्सहसा रोगः प्रभवत्यूर्ध्वजत्रुजः॥ वर्ष तक जीवित रहते हैं। अस्त्र प्रयोगात्तैलस्य जरा न लभते नरम् । (१७९१) चन्दनादितैलम् चन्दनायमिदं तैलं लोकानां च हितं मतम् ॥ (वृ. नि. र । वा. व्या ; यो. चि. म. । तैला.) क क द्रव्य---सफेद चन्दन, पद्माक, कूठ, चन्दनं पद्मकं कुष्ठमुशीरं देवदारु च ।। खस, देवद्वार, नागकेसर, तेजपात, इलायची, दारनागकेसरपत्रैलात्वङ्मांसी तगरं जलम् ।। चीनी, जटामांसी, तगर, नेत्रबाला, जायफल, बेर, जातिफलं घोटफलं कुङ्कुमं जातिपत्रिका।। केसर, जावित्री, नख, कुन्दरु, कस्तूरी, चोरपुष्पी, नखं कुन्दरु कस्तूरी चण्डा शैलेथमाईकम् ॥ | शिलाजीत, अद्रक, पतङ्ग, पोखरमूल, मोथा, लाल पतङ्गं पुष्करं मुस्ता रक्तचन्दनसारिवा।। चन्दन, सारिवा, कचूर, कपूर, मजीठ, लाख, सठीकर्पूरमञ्जिष्ठालाक्षायष्टिप्रियङ्गभिः॥ मुलैठी, फूलप्रियङ्गु, सोया, शतावर, मूर्वा, असगन्ध, शतपुष्पा वरी मर्वा अश्वगन्धा महौषधम् । सोंठ, कमलकेसर, श्रीवेष्ट (धूप सरल), अगर, पद्मकेशरश्रीवेष्ठरसागुरुहरेणुभिः॥ रेणुका,स्पृक्कालौंग, और कंकोल। प्रत्येक २॥तोला । For Private And Personal Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१७६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि - तिलका तेल ५ सेर, दशमूलका काढा ३० (१७९२) चन्दनादितैलम् सेर, दूध ३० सेर, कुलथी, वेर, जौ और खरैटीकी (हा. सं. । स्था. ३ अ. ९; वृ. नि. र. । पाण्डु) जड़का काथ ७० सेर (सब वस्तुएं समान भाग चन्दनं सरलं दारु यष्टयेला बालकं सठी । मिली हुई ७० सेर लेकर चार गुने पानीमें पका- नलशैलेय स्पृका पकं वनकेसरम् ॥ कर चौथाई शेष रहने पर छना हुआ काथ लेना कङ्कोलकं मुरामांसी सैरेयं हिहरीतकी। चाहिए।) | रेणुकात्वक कुङ्कमं च सारिवा तिक्तकागुरुः ।। सब वस्तुओंको एकत्र मिलाकर पकाएं। जब नालका च तथा द्राक्षा का सुपरिस्वतम् । पानी जलकर तैल मात्रशेष रह जाय तो उतारकर छान तैलमसूतया लाक्षारसेन समभागिकम् ।। लें । और उसमें सर्व गन्धको औषधे मिलाकर । गवकी औषधे मिलाकर मन्दामिना पचेत्तैलं सिद्धं पाने च वस्तिषु । स्वच्छ और उत्तम (कांचके) पात्रमें भरकर रखदें। नस्ये चाभ्यञ्जने चैव योजयेतं भिषग्वरः॥ हन्ति पाण्डं क्षयं कासं ग्रहघ्नं बलवर्णकृत् । इसके उपयोगसे सुकुमारी, धनवती, और मन्दज्वरमपस्मारं कुष्ठपामाहरं पुनः।। ऐशआराममें रहने वाली तथा गर्भवती स्त्रियोंकी करोति बलपुष्टयोनो मेधाप्रज्ञायुर्वर्धनम् । सौन्दर्य वृद्धि होती है। रूपसौभाग्यदं प्रोक्तं सर्वभूतयशस्करम् ।। यह तैल ८० प्रकारके वातरोग, विशेषतः सफेद चन्दन, चीरका बुरादा, देवद्वार, मुलेठी, वात रक्त, और सूतिकारोग, बालरोग, मर्माधात, | इलायची, नेत्रबाला. कचूर, तालीसपत्र, शिलाजीत, अस्थि भङ्ग, और क्षीगतामें अत्यन्त उपयोगी है। स्का, पद्माक, बनकेसर, कंकोल, मुरामांसी, कट यह जीर्णज्वर, दाहयुक्त और शीतयुक्त ज्वर, विषम सरैया, छोटी हर, बड़ी हरी, रेणुका ( संभालुके ज्वर, शोष, अपस्मार, और कुष्ठ रोग नाशक, तथा बीज ), दारचीनी, केसर, सारिया, कुटकी, अगर, वन्ध्या स्त्री, रोगग्रस्त, खुजली रोगसे पीड़ित, विशे नलिका और मुनक्का समान भाग लेकर चार गुने पतः रूक्षदेह और श्वेत कुष्टके रोगियों के लिए पानीमें पकाइये और चौथा भाग शेष रहने पर अत्यन्त हितकारक है। हरान लीजिए और इस काथमें इसका चौथाई तैल इसे सदैव व्यवहार में लानेसे कान्ति, लावण्य तथा उसके बराबर कची लाखक। क्वाथ ( चार और पुष्टिकी वृद्धि होती है। गुने पानीमें पकाकर चौथा भाग शेष रहा हुवा ) ___महर्षि आत्रेय निर्मित इस चन्दनादि तैलके मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाइये जब तैल मात्र शेष उपयोगसे गलेसे ऊपरके किसी रोगके सहसा । रह जाय तो छान लीजिए । इसे रोगीको पिलाना आक्रमणका भय नहीं रहता और वृद्धावस्था और बस्ति, जम्ब तथा अभ्यङ्गद्वाग प्रयुक्त कराना नहीं आती। चाहिए । १ तैलमस्तु तथा लाजेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१७७] - ___यह तैल पाण्डु, क्षय, खांसी, ग्रहदोष, मन्द- इसकी नसवार लेनेसे शिरके बालोंका गिरना ज्वर, अपस्मार, कुष्ट और पामा नाशक तथा बन्द होकर बाल धने और चिकने, भौरे के समान बलवर्द्धक, वर्णसंस्कारक, एवं बल, पुष्टि, ओज, काले तथा दृढ़ हो जाते हैं । एवं अकालमें बाल मेधा, आयु प्रज्ञा और सौन्दर्यवर्द्धक है। सफेद हो गए हों तो पुनः काले हो जाते हैं । (१७९३) चन्दनादितैलम् (वं.से । ज्वरा०) विधिः-तिल तैल १ सेर, भंगरेका रस ४ चन्दनोत्पलकाश्मयमधुकागुरुकल्ककः। । सेर, कल्क द्रव्य समान भाग मिश्रित पाव सेर । सिद्धं तैलं विधातव्यं वस्तौ सर्वज्वरापहम् ॥ (१७९५) चन्दनादितैलम् सफेद चन्दन, कमल, खम्भारीके फल, ( सु. सं. । चि. स्था. अ. २ । सद्यत्रण. ) मुलैठी और अगरके कल्क तथा ४ गुने पानीके | चन्दनं कर्कटाख्या च सहेमांस्याह्वथामृते । साथ सिद्ध किए हुवे तैलकी बस्ति लेनेसे समस्त | हरेणवो मृणालश्च त्रिफला पक्षकोत्पलम् ॥ प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं। | त्रयोदशाङ्गं त्रितमेदद्वा पयसान्वितम् । तैलं विपक्कं सेकार्थे हितं तु व्रणरोपणे। (विधि-तिल तैल १ सेर, जल ४ सेर सफेद चन्दन, काकड़ासिंगी, स्वर्णकारी और चन्दनादि प्रत्येक द्रव्य ४ तोले ) ( सत्यानाशी ), गिलोय, रेणुका, कमलनाल, हर्र, (१७९४) चन्दनादितैलम् बहेड़ा, आमला, पद्माक और निसोतके कल्क तथा (च. द.; चं. मा.; भै.र.; धन्वं.; र. र. । क्षुद्ररो.; दूधसे सिद्ध तैल लगानेसे घाव भर जाता है। आ. वे. वि. । अ. ८१; वृ.यो. त.। त. १२७) ( कल्कद्रव्य (चन्दनादि ) समान भाग चन्दनं मधुकं मर्वा त्रिफला नीलमुत्पलम्।। मिश्रित २० तोले, तैल ८० तो. दूध ४ शेर) कान्ता वटावरोहश्च गुडूची विसमेव च॥ (१७९६) चन्दनादियमकः लोहचूर्ण तथा केशी शारिवे द्वे तथैव च। ( वृ. मा.; ग. नि.; र. र.; च. द.; वं. से. । ब्रण; मार्कवस्वरसेनैव तैलं मृद्वग्निना पचेत् ॥ यो. र. । भन्न.; वृ. यो. त. । त. ११४ ) शिरस्युत्पतिताः केशा जायन्ते घनकुञ्चिताः। चन्दनं वटशुङ्गाश्च मञ्जिष्ठा मधुकन्तथा। दृढमूलाश्च स्निग्धाश्च तथा भ्रमरसन्निभाः॥ प्रपौण्डरीकं दूर्वा च पतङ्गं धातकी तथा ॥ : नस्येनाकालपलितं निहन्यात्तैलमुत्तमम् ॥ एतैस्तैलं विपक्तव्यं सर्पिष्क्षीरसमायुतम् । सफेद चन्दन, मुलैठी, मूर्वा, हर्र, बहेडा, अग्निदग्धवणे श्रेष्ठं तत्क्षणाद्रोपणं परम् ॥ आमला, नीलोफर, रेणुका, बड़के अङ्कर, गिलोय, चन्दन, बड़के अङ्कुर, मजीठ, मुलैठी, कमलनाल, लोहे का बुरादा, जटामांसी और दोनों पुण्डरिया, दूर्वा ( दूबड़ा ), पतङ्गकी लकड़ी, और प्रकारकी सारिवा । इनके कल्क और भांगरेके धायके फूल । इनके कल्क और दूधके साथ तैल स्वरससे मन्दाग्नि पर तैल पका लीजिए। तथा घृत मिलाकर पका लीजिए । भा० २३ For Private And Personal Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१७८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [चकारादि VIRAINRN K.IN.SAFRICT . R .parn - यह यमक (घृत तैल ) अग्निदग्ध व्रणको आयुःपुष्टिकरश्चैव वशीकरणमुत्तमम् ॥ अत्यन्त शीघ्र भर देता है। विशेषात् क्षयरोगनं रक्तपित्तहरम् परम् ।। ( विधि:-तिल तैल आधा सेर, गोघृत सफेद चन्दन, नेत्रबाला, नख, कूठ, मुलैठी, आधा सेर, दूध ४ सेर, कल्कद्रव्य समान भाग भूरि छरीला, पद्मास्त्र, मजीठ, धूप सरल, देवदारु, मिश्रित पावसेर ।) कायफल, खटासी (जुन्दबेदस्तर ), तेजपात, (१७९७) चन्दनादिरोपणतैलम् इलायची, मुरामांसी ( मुरमुकी ), कंकोल, फूल (सु. सं. । चि. स्था. अ. २ । सद्योत्र.) । प्रियंगु, नागरमोथा, हल्दी, दारुहल्दी, कृष्ण चन्दनं पद्मकं लोध्रमुत्पलानि प्रियङ्गवः। सारिवा, श्वेतसारिवा, कुटकी, लौंग, अगर, केसर, हरिद्रा मधुकं चैव पयः स्वादत्र चाष्टमम् ॥ दालचीनी, रेणुका (संभालुके वीज ) और नलिका । तैलमेभिर्विपक्कन्तु प्रधानं व्रणरोपणम् ॥ इनके कल्क और चार गुने मस्तु (दो गुना पानी __ सफेद चन्दन, पद्माक, लोध, नीलोफर, । भिलाकर बनाये हुवे तक ) तथा समान भाग ( कमलपुष्प भेद ) फूलप्रियंगु, हल्दी, मुलैठी लाखके काथ के साथ तैल सिद्ध कर लीजिए । और दूधके साथ सिद्ध किया हुवा तैल ब्रगरोपण यह तैल ग्रहदोष, अपस्मार, ज्वर, उन्माद, ( धाव भरने ) में अत्यन्त उत्तम गुण करता है। अलक्ष्मी ( कान्तिकी हीनता ) और विशेषकर ( तैल सेर.१; चन्दनादि पदार्थीका क क क्षयरोग तथा रक्तपित्त नाशक एवं बलवर्ण आयु पाव सेर दूध सेर ४) और पुष्टिवर्द्धक है। (१७९८) चन्दनायं तैलम् (१७९९) चन्दनायं तेलम् (भै. र.। कासा.) ( यो. र.; वं. से.; . मा.; वै. क. दु. स्कं. चन्दनागुरुतालीशमञ्जिष्ठानखपकम् । २; र. र.; च. द. । राजय.; वृ. यो. त. । त. सुस्तकञ्च शटी लाक्षा हरिद्रा रक्तचन्दनम् ।। ६७; वृ. नि. र. । उन्मा.; यो. त. । त. २७ । | एषां प्रतिपलैश्चूर्णैस्तैलार्द्धपात्रकं पचेत् । यो. चि. । तैला.) भार्गी वासा कण्टकारी वाटयालकगुडूचिका।। चन्दनाम्बु नखं वाप्यं यष्टी शैलेयपद्मकम् । एपां शतपले काथे समभागे जडीकृते । मञ्जिष्ठा सरलं दारु कट्फलं पूतिकेशरम् ॥ पक्त्वा तैलं प्रदातव्यं राजयक्ष्मविनाशनम् ।। पत्रैले च मुरामांसी कङ्कोलं वनिताम्बुदम् । कासनं गरदोषनं बलवर्णानिवर्धनम् । हरिदे शारिवे तिक्ता लवङ्गागुरुकुमम्।। | पापालक्ष्मीप्रशमनं ग्रहदोपविनाशनम् ॥ त्वग्रेणुनलिका चैभिस्तैलं मस्तु चतुर्गुणम् । आदौ कल्कं प्रदातव्यं गन्धद्रव्यं ततःपरम् । लाक्षारससमं सिद्धं ग्रहघ्रं बलवर्णकृत् ॥ तैलमुत्तार्य दातव्यं शिहकं कुङ्कुमं नखम् ॥ अपस्मारज्वरोन्मादकृत्यालक्ष्मीविनाशनम् । गन्धचन्दनकपरमेलाबीज लवङ्गकम् ॥१ For Private And Personal Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १७९] सफेद चन्दन, अगर, तालीसपत्र, मजोठ, । (१८०१) चन्दनाय तैलम् नख, पद्माख, नागरमोथा, कचूर, लाख, हल्दी, (च. स. । चि. अ. ३ ज्वर.) लाल चन्दन। प्रत्येकका चूर्ण १-१ पल (५ तोले), तैल २ सेर (१६० तोले ); भारंगी, बासा, अथ चन्दनायं तैलमुपदेक्ष्यामः-चन्दकटेली, पीले फूलकी खरैटी और गिलोयका काथ नशैलेयभद्राश्रयकालानुसार्यकालीयकपद्मापद्म१०० पल ( ६। सेर ).x कोशीरसारिवामधुकप्रपौण्डरीकनागपुष्पोदीतैलको अग्निपर चढ़ाकर गर्म हो जाने पर च्यवन्यपद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीउपरोक्त वस्तुओंका क क डाल दीजिए और फिर कशतपत्रविसमृणालशालूक शैवालकशेरुकानकाथ डालकर पकाइये, जब पानी जल जाय तो न्ताकुशकाशेक्षुदर्भशरनलशालिमूलजम्बुवेत्रवेतेलको छानकर उसमें शिलारस, केसर, नख, तसवानीरगुन्द्राककुभाशनाश्वकर्णस्यन्दनवातपोला चन्दन, कपूर, छोटी इलायचीके बीज और | पोथशालतालधवतिनिशखदिरकदरकदम्बकालौंग आदि गन्ध द्रव्य मिलादेने चाहिएं। श्मर्यफलसर्जप्लक्षवटकपीतनोदुम्बराश्वत्थन्यग्रोयह तैल राजयक्ष्मा, खांसी, विष, कुष्ट, धधातकीर्वोत्कटकशृङ्गाटकमञ्जिष्ठाज्योतिष्मकान्तिहीनता, · और ग्रहदोष नाशक तथा बलवर्ण तीपुष्करवीजक्रौञ्चादनवदरीकोविदारकदली संवर्तकारिष्टशतपर्वाश्वेतकुम्भिकाशतावरीश्रीऔर अग्निवर्द्धक है। पर्णीश्रावणीमहाश्रावणीरोहिणीशीतपाक्योद(१८००) चन्दनाय तैलम् नपाकीकालाबलापयस्थाविदारीजीवकर्षभक(धन्वं.; च. द.; . मा.; भै. र.; यो. र.; वं. क्षुद्रसहामेदामहामेदामधुरयमोक्तातृणशुन्यमोसे.; र. र.; भा. प्र. खं. २ । गलग.; वृ. यो. | चरसाटरुषकबकुलकुटजपटोलनिम्बशाल्मलीत. । त. १०८) नारिकेलखर्जुरमृद्वीकाप्रियालप्रियङ्गधन्वनात्मचन्दनं साभया लाक्षा वचा कटुकरोहिणी। गुप्तामधुकानामन्येषां च शीतवीर्याणां यथालाएभिस्तैलं श्रुतं पीतं समूलमपची जयेत् ॥ भमौषधानांकषायं कारयेत् । तेन कषायेण सफेद चन्दन, हर्र, लाख, बच और कुटकीके द्विगुणितपयसा तेषामेव च कल्के कषायाधकल्क तथा काथसे सिद्ध तैल पीनेसे अपची मात्रं मृद्वग्निना साधयेत्तैलं । एतत्तैलं सद्योदा( कण्ठमाला भेद ) समूल नष्ट हो जाती है। हज्वरमपनयति ।। (विधिः-तिल तैल १ सेर । काथ ४ लाल चन्दन, छरीला, सफेद चन्दन, कृष्ण सेर, कल्क पाव सेर (प्रत्येक वस्तु ४ तोले ) चन्दन, मजीठ ( अथवा गुलाब पुष्प ), पद्माख, ____x हरेक वस्तु २०-२० पल लेकर कूटकर पृथक पृथक एक द्रोण ( १६ सेर ) पानी में पकाएं और सेर शेष रहने पर छान लें । For Private And Personal Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१८०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि खस, सारिवा, मुलैठी, प्रपौण्डरीक ( पुण्डरिया ), रहने पर काथको छान लें । फिर यह क्वाथ, और नागकेसर, नेत्रबाला, मोथा, कमल, उत्पल, नलिन, । उपरोक्त ओषधियोंका कक तथा कषायसे आधा कुमुद, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, मृणाल, तिल तैल और दूने गोदुग्धको एकत्र मिलाकर विस ( कमलनाल ), पद्मकन्द (कमलकी जड़), मन्दाग्नि पर पकाएं, जब समस्त पानी जल जाय शैवाल ( सिरवाल ) कसेरु, अनन्तमूल, कुश, | तो तैलको छान लें । कांस, ईख, दाभ, शर ( शरकण्डा ) नल, शाली। यह तैल दाह ज्वरको तुरन्त शान्त कर मूल, जामनकी छाल, बेत, बांस, जलबेत, गुन्द्रा देता है। ( गोंदनीकी छाल ), अर्जुनकी छाल, अशन | (१८०२) चित्रकतैलम् (र. का. थे. । कुष्ठा.) ( पीतशाल ) अश्वकर्ण ( पलाश भेद ), स्यन्दन मन शिलार्कसेहुण्डपयो नीलीरसो भवेत् । ( सांदन वृक्षकी छाल ), पलाश ( ढाक )की गन्धकं हरितालश्च कासीसं हयमारकम् ॥ छाल, सालकी छाल ( अथवा गोंद ), ताल, धव चित्रकं तुत्थकं मुस्तं मरिचं रजनीद्वयम् । ( धावडी ), तुनका सार, खैर सार, कदर (खैर- त्रिफला भृङ्गराजश्च विडङ्गं दहनस्तथा। भेद )का सार, कदम्बकी छाल, खम्भारीके फल, नीलोत्पलं च कन्दं च लोहचूर्ण च वाकुचीराल, पिलखन और बड़की छाल, अम्बाड़ा वृक्षकी बीजं शेफालिकाबीजं विषं क्षारत्रयम् समम् ।। छाल ( अथवा सिरसकी छाल ) गूलरकी छाल, गिरिकन्या देवदाली च तैलं ज्वालामुखीरसः। पीपलकी छाल, बड़की छाल, धायके फूल, दूर्वा | प्रपुन्नाटर दत्वा तप्तं घर्मे तनौ क्षिपेत् ॥ ( दूबडा घास ), ईखकी जड़, सिंघाड़ा, मजीठ, धर्मस्थेयं द्वियामान्तं चित्रनाशे तदुत्तमम् । ज्योतिष्मती, कमलगट्टे, मृणाल, बेरकी छाल, कच- शनैःशनैःखरे घर्म चित्रं कृष्णं भविष्यति ।। नार, केला, मोथा, नीमकी छाल, श्वेत दूब, श्वेत निपतन्ति तिला देहे पुरा रक्तास्तिलास्ततः। पाटल, शतावर, खम्भारी, मुण्डी, महामुण्डी, कुटकी, यदि वर्षसहस्रस्य भवेच्छित्रं न संशयः॥ काकोली, नीले फूलकी कटशरैया, नीलका पौदा, मण्डलानि प्रणश्यन्ति तथा सिध्मानि नाशयेत् । खरैटी, क्षीरकाकोली, बिदारीकन्द, जीवक, ऋषभक, कण्डूनि सहसा हन्यात्परिसर्प च दारुणम् ।। मुद्गपर्णी, मेदा, महामेदा, जीवक, शतावर, अपि मर्कटिकां हन्याद्विशेष तानि हन्ति च । मल्लिका, मोचरस, बासा, मौलसिरी, कुडेकी छाल, न काञ्चनं काञ्चनकान्तिमेति पटोलपत्र, नीम, सेंमलकी छाल, नारयल की गिरि, न कामदेवो रुचिमादधाति । खजूर, मुनक्का, प्रियाल (चिरौंजी ), फूल प्रियङ्ग, न कुङ्कुमं तस्य निहन्ति रूपं धामन, कोच और मुलैठी तथा अन्य जो शीतवीर्य ततैलसंसेवितमुत्तमाङ्गम् ॥ ओषधियां प्राप्त हो सकें वह सब लेकर सबको । मनसिल, आकका दूध, सेहुण्ड (सेंड) का चार गुने पानीमें पकाएं और चौथाई पानी शेष दूध, नीलके पौदेका स्वरस, गन्धक, हरताल, For Private And Personal Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । तैलप्रकरणम् ] सीस, कनेरकी जड़ की छाल; चीता, नीलाथोथा, मोथा, स्याहमिर्च, हल्दी, दारु हल्दी, त्रिफला, भंगरा, बायबिडंग, भिलावा नीलोफर (नील कमल ), कमलकन्द, लोहका चूर्ण, बाबची, काले संभालके बीज, मीठातेलिया (मीठाविष), सुहागा, यवक्षार, सज्जीक्षार, मल्लिका (मोगरेका फूल ), देवदाली, (बिंडाल), सरसोंका तेल कलिहारीका स्वरस और पांड़का रस लेकर सबको एकत्र मिलाकर धूपमें रख दीजिए, जब औषधोंका रस सूख जाय तो तैलको छान लीजिए । इस तैको खेत के स्थान पर मलकर २ पहर तक धूप में बैठे रहना चाहिए। इस प्रकार तेज़ धूपमें बैठनेसे धीरे धीरे सफेद कुष्ट नष्ट होकर वह स्थान स्याह हो जाता है । प्रथम कुष्ट स्थान सुर्ख़ हो जाता है और फिर स्याह हो जाता है । इस तैलसे सहस्र वर्षका पुराना श्वेत कुष्ट भी निस्सन्देह नष्ट हो जाता है । इसके सिवाय यह तैल मण्डल, सिम, खुजली, भयङ्कर विसर्प, और विशेषतः मर्कटीको एकदम नष्ट कर देता है यदि इस तैलको चेहरे और मस्तक में लगाया जाय तो चेहरा स्वर्णसे उज्ज्वल कामदेव से भी अधिक सुन्दर और केसर से अधिक कान्तिमान हो जाता है । (१८०३) चित्रकमूलतैलम् (बृ. नि. र (विष) अथवा चित्रकमूलचूर्ण तैले विपाच्य मस्तके क्षुरेणच्छित्य शिरसि ब्रह्मरन्ध्रे मर्दनं कृत्वा आखुविषं नश्यति । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८१ ] चीकी जड़ के चूर्ण से सिद्ध तैलको शिरमें, ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर नश्तरसे त्वचाको छीलकर मलने से चूहेका विष नष्ट होता है । (१८०४) चित्रकादितैलम् ( र. र.; च. द.; धन्वं । नासा. ) चित्रकचविकादीप्यकनिदिग्धिकाकरञ्जवीजलवणकैः गोमूत्रयुक्तं सिद्धं तैलं नासाशंसां हितम् परम् ॥ चीता, चव, अजवायन, कटेली, करञ्जवेकी गिरि और सेंधा नमक के कल्क और गोमूत्र से सिद्ध तैल नासार्श का नाश करता है I (१८०५) चित्रकादितैलम् (बृ. मा. बं. से., र. र. । क्षु. रो. ) चित्रकं दन्तिनीमूलं कोशातकी समन्वितम् । कलकं पिष्ट्वा पचेत्तैलं केशशत्रु विनाशनम् ।। चीता, दन्तीमूल, और कड़वी तूंबीसे सिद्ध तैल लगानेसे जुबों (यूका) का नाश होता है । (चित्रकादि प्रत्येक वस्तु ५ तो. तैल ६० तो. पानी २४० तो.) (१८०६) चित्रकाद्यं तैलम् (ग. नि. । तैला. २; सु. सं. । चि. स्था. अ. ८; यो त । त. ६१;) चित्रकार्कत्रिवृत्पाठामलगृहयमारकान् । सुधां वचां लाङ्गलिकां सप्तपर्ण सुवर्चिकाम् ॥ ज्योतिष्मतीम् च संभृत्य तैलं धीरो विपाचयेत् । एतदभ्यञ्जनं तैलं भृशं दद्याद्भगन्दरे ।। शोधनं रोपणञ्चैव सवर्णकरणं तथा ।। चीता, अर्क (आक), निसोत, पाठा, बाबची, कनेर, सेहुंड (सेंड ), वच, कलिहारी, सप्तपर्ण For Private And Personal Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ १८२ ] ( सतौना की छाल), सज्जीखार और माल कंगनी समान भाग लेकर इनके कल्कसे तैल पका लीजिए । यह तैल बार बार भगन्दर पर लगाने से भगन्दरका घाव शुद्ध होकर भर जाता है और त्वचा का रंग पूर्ववत् हो जाता है । (कककी सब चीजें समान भाग मिली हुई पावसेर तैल १ सेर पानी ४ सेर मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाएं। ) (१८०७) चित्रकाद्यं तैलम् (ग.नि, अजीर्णा. ५) चित्रकं तिलपिण्याकं कुष्ठं भल्लातकानि च । द्वौ क्षारौ सैन्धवं चैभिस्तैलं शुक्ते विपाचयेत् ॥ एतेन मर्दनं कार्य प्रदेहश्चैव शस्यते । अतिप्रवृद्धं शूलं च भक्षणादेव नाशयेत् ॥ चीतेकी जड़की छाल, तिलकी खल, कूड, भिलावा, सज्जीखार, जवाखार और संवा । इनके कल्क और शुक्त (काञ्जीभेद ) के साथ पकाये हुवे तैलकी मालिश करने और प्रदेह लगाने से हैज़ेका अत्यन्त प्रवृद्ध शूलभी नष्ट हो जाता है । (कल्क द्रव्य समान भाग मिश्रित 5 | काञ्जी s ४ तैल s१) (१८०८) चित्रकाद्यं तैलम् (ग.नि. । तैला. ५) चित्रकं मदनं पीलु शृङ्गवेरं शुकाननाम् । स्रोतोजं सैन्धवं दन्ती हरितालं मनः शिलाम् || तालीसं करवीरस्य मूलं लाङ्गलिकां वचाम् । भद्रकं क्षीरिकाञ्चैव स्वर्णक्षीरों च पेषयेत् ॥ नुक्षीरकुडव पाच्यमाने प्रदापयेत् । सूत्रे चतुर्गुणे तैलं कमर्शोहरं भवेत् ॥ क्षारकर्मकरं ह्येतदभ्यङ्गात्तैलमुत्तमम् ॥ चीतेकी छाल, मैनफल, पीलु, अदरक, शुक्र नासा, सौवीराञ्जन, सेंधानमक, दन्तीमूल, हरताल, मनसिल, तालीसपत्र, कनेरकी जड़, कलिहारीकी Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ चकारादि जड़की छाल, बच, नागरमोथा, खिरनी वृक्षकी छाल और स्वर्णक्षीरी (सत्यानाशी) । इनके कल्क और सेहुंड (सेंड) तथा आकके १-१ कुडव (२०–२० तोले) दूध तथा ४ गुने गोमूत्रके साथ तैल पका लीजिए । यह तैल अर्शको नष्ट करनेके लिए अत्युत्तम है, तथा इसकी मालिशसे ही क्षारकर्म भी सिद्ध हो जाता है । (कल्क द्रव्य समान भाग मिश्रित । तैल s१, सेहंडका दूध और रस हरेक s । गोमूत्र S४) (१८०९) चुक्रादितैलम् (च.द.यो.र. । विषूची.) कुष्ठसैन्धवयोः कल्कं चुक्रं तैलसमन्वितम् । विषूच्यां मर्दनं कोष्णं खल्लीशूलनिवारणम् ॥ कू और सेंधेके कल्क तथा चुक्र (सिर्के) से सिद्धतैल को मन्दोष्ण करके मालिश करनेसे विशुचिकामें होने वाली हाथ पैरोंकी एंगुन जाती रहती है। (१८१०) चुक्रादितैलम् ( यो. र. । विपूची.; वै. र. । अग्निमा; यो त. त. । २०; बृ. यो त । त. ७१) पलं चुक्रं कुष्ठं पिचुयुगमितं सैन्धवकणे । तदर्ध प्रत्येकं करतलमितं जातिफलकम् ।। कटोस्तैलं पक्कं कुडवमितमग्नावधिभूतम् । तदेतच्चुक्रायं शमयति विश्र्चीं च सगदम् ॥ सिर्का ५ तोले, कूठ २ || तोले, सेंधा १ । तो. पीपल १। तो. और जायफल १। तो. । इनके क कसे १ कुडव (२० तोले) कड़वा तैल पका लीजिए। यह तैल उपद्रवयुक्त विषूचिका का नाश करता है । नोट- पाकके समय १ सेर पानी भी डालना चाहिए । For Private And Personal Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । आसवारिष्टप्रकरणम् ] अथ चकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् । (१८११) चन्दनासवः ( भै. र. । प्रमेह . ) चन्दनं बालकं मुस्तं गम्भारीं नीलमुत्पलम् । प्रियङ्गं पद्मकं लोध्रं मञ्जिष्ठां रक्तचन्दनम् ॥ पाठां किराततिक्तञ्च न्यग्रोधं पिप्पलं शटीम् । पर्पटं मधुकं रास्नां पटोले काञ्चनारकम् ॥ आम्रत्वचं मोचरसं प्रत्येकं पलमात्रकम् । धातकीं षोडशपला द्राक्षायाः पलविंशतिम् ॥ जलद्रोणद्वये क्षिप्त्वा शर्करायास्तुलां तथा । गुडस्यार्द्धतुलाञ्चापि मासं भाण्डे निधापयेत् ॥ चन्दनासव इत्येष शुक्रमेहविनाशनः । पुष्टिको वह्निसन्दीपनः परः ॥ अभिष्यन्यतितीक्ष्णञ्च पानानं वह्निसूर्ययोः । सन्तापं स्त्रीप्रसक्तिश्च वेगरोधं प्रजागरम् ॥ क्रोधं शोकं दिवानिद्रां लङ्घनञ्चातिचिन्तनम् । अत्यालस्यमसत्सङ्गं शुक्रमेहे विवर्जयेत् ॥ सुपाच्यं शुक्रकच्चानं सत्संसक्तिश्च सत्कथा | शान्ति ग्रन्थस्याध्ययनं हितान्यत्रेश चिन्तनम् ॥ सफेद चन्दन, नेत्रबाला, नागरमोथा, खम्भारी (कुम्हार) के फल, नीलकमल, फूल प्रियङ्गु, पद्माख, लोध, मजीठ, लालचन्दन, पाठा, चिरायता, बड़की छाल, पीपल वृक्षकी छाल, कचूर, पित्तपापड़ा, मुलैठी, रास्ना, पटोलपत्र, कचनारकी छाल, आमकी छाल और मोचरस १ - १ पल (५ तोले), धायके फूल १६ पल, मुनक्का २० पल, खांड १०० पल और गुड़ ५० पल लेकर सबको कूटकर २ द्रोण (३२ सेर) पानी में मिलाकर मिट्टी के पात्र में भरकर उसके मुखको कपर मिट्टी से बन्द करके उष्ण स्थानमें Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८३ ] रख दीजिए और एक मास पश्चात् निकालकर छान लीजिए । यह ( चन्दनासव ) शुक्रमेह नाशक, बलकारक, पौष्टिक और अत्यन्त अग्निबर्द्धक है । अपथ्य - शुक्रमेह रोग में अभिष्यन्दि और तीक्ष्ण अन्न पान. (दही, लाल मिर्च सुरादि), धूप, अग्निसे तापना, स्त्रीप्रसंग, मलमूत्रादि वेगोंका रोकना, जागरण, क्रोध, शोक, दिनको सोना, लङ्घन, अत्यन्त चिन्ता, अत्यालस्य, और असत्सङ्गका परित्याग करना चाहिए । पथ्य - शीघ्र पचने वाला (लघु) और शुक्र वर्द्धक अन्न पान, सत्संग, सत्कथा श्रवण, शान्ति और स्वाध्याय हितकारक है। (१८१२) चन्दनासवः (आ.वे.बि.अ.६८) चन्दने सरलं देवदारु दारुनिशा निशा । शतमूल्याश्मभिद् वासात्वचश्च सारिवाद्वयम् । त्रिवृत् चित्रकमूलञ्चागुरु धात्री सुरप्रियम् ॥ लक्ष्मणायास्तथा मूलं बावरीवरुणत्वचौ || प्रत्येकं पलिकं ज्ञेयं द्राक्षायाः पलविंशकम् । धातकीं पोडशपलां तुलामानां सितां तथा ॥ माक्षिकार्द्धपलं सर्व जलद्रोणद्वये क्षिपेत् । मासमेकं भाण्डमध्ये सपिधाने निधापयेत् ॥ चन्दनासव इत्येष रोगानीक निकृन्तनः । शुक्रदोषं रजोदोषं मूत्रदोषं सुदारुणम् ॥ निहन्ति विविधान्मेहान् कृच्छ्रमष्टविधं तथा । चतस्रश्चाश्मरींस्तद्वन्मूत्राघातांस्त्रयोदशः ॥ अन्वृद्धिं पाण्डुरोगं कामलाञ्च हलीमकम् । कासं श्वास तथा कुष्ठमन्निमान्धमरोचकम् ॥ औपसर्गिकमेहांश्च नाशयेदविकल्पतः । भाषितः श्रीमहेशेन लोकानां हितकारिणा ।। For Private And Personal Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ १८४ ] भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ चकारादि सफेद चन्दन, लाल चन्दन, चीड़वृक्षका | लवङ्गव्योषकङ्कालं पलिकानि प्रकल्पयेत् । निदध्यान्मासमेकं तु घृतभाण्डे सुसंस्कृते ॥ चतुष्पलां पिवेन्मात्रां प्रातः पीतं नियच्छति । सर्वगुल्मविकारांश्च प्रमेहांश्चैव विंशतिम् ॥ प्रतिश्यायं क्षयं कासमष्टीलां वातशोणितम् । उदराण्यन्त्रवृद्धिं च चविकाख्यो महासवः ॥ बुरादा, देवद्वारका बुरादा, दारूहल्दी, निसोत, चीतेकी जड़, अगर, आमला, अगस्ति पुष्प (अगथियाके फूल) शतावर, पाषाण भेद (पखानभेद), बासेकी जड़की छाल, दोनों प्रकारकी सारिवा, लक्ष्मणाकी जड़, बबूल और बरनेकी छाल १-१ पल ( ५-५ तोले ), मुनक्का २० पल, धायके फूल १६ पल, खांड १०० पल और सोना मक्खी भस्म आधा पल लेकर सबको कूटकर २ द्रोण ( ३२ सेर ) पानी में मिलाकर मिट्टी पात्रमें भर कर मुखर राव ढककर कपड़ मिट्टी कर दीजिए । और १ मास पश्चात् निकाल कर छान लीजिए । श्री महेशद्वारा कल्पित यह "चन्दनासव शुक्रदोष, रजोदोष, भयङ्कर मूत्रविकार, अनेक प्रकारके प्रमेह, आठ प्रकारका मूत्रकृ छू, चार प्रकारकी अश्मरी, १३ प्रकारके मूत्राघात, अन्त्र - वृद्धि, पाण्डुरोग, कामला, हलीमक, खांसी, श्वास, कुष्ट, अग्निमांद्य, अरुचि, और सोजाकका नाश करता है । (१८१३) चविकासवः (ग. नि. । आस.; यो. र. । अजी. ) चविकायास्तुलार्द्धन्तु तदर्धे चित्रकस्य च । वाष्पिका पुष्करं मूलं षड्ग्रन्था हपुषा शठी || पटोलमूलत्रिफलायवानीकुटजत्वचः । विशाला धान्यकं रास्ता दन्ती दशपलोन्मिता || कृमिमुस्तमञ्जिष्ठा देवदारु कटुत्रिकम् । भागान्पञ्चपला नेतानद्रोणेऽम्भसःपचेत् ॥ द्रोणशेषेरसे पूते देयं गुडशतत्रयम् । घातक्या विंशतिपलं चातुर्जातं पलाष्टकम् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चव्य ५० पल, चीता २५ पल, कालाजीरा, पोखरमूल, बच, हाउवेर, कचूर, पटोलकी जड़, हर्र, बहेड़ा, आमला, अजवायन, कुड़ेकी छाल, इन्द्रायन, धनिया, रास्ना और दन्तीमूल १० -१० पल तथा बायबिडंग, मोथा, मजीठ, देवद्वार, सोंठ, मिर्च, और पीपल ५ - ५ पल ( २५-२५ तोले ) लेकर कूटकर ८ द्रोण ( १२८ सेर ) पानी में पकाइये । जब १ द्रोग जल शेष रह जाय तो छानकर उसमें ३०० पल गुड़, २० पल धायके फूल, २ - २ पल तेजपात, इलायची, दालचीनी और नागकेसर तथा १ - १ पल ( ५ - ५ तोले ) लौंग, सौंठ, मिर्च, पीपल और कंकोलका चूर्ण मिलाकर घृतसे चिकने किये हुवे स्वच्छ मिट्टी के पात्र में भरकर इसके मुखको कपर मिट्टीसे भली भांति बन्द करके रख दीजिए और एक मास पश्चात् निकालकर छान लीजिए । इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ४ पलकी मात्रानुसार सेवन करने से समस्त प्रकारके गुल्म, २० प्रकारके प्रमेह, जुकाम, खांसी, क्षय, अटीला, वातरक्त, उदरविकार और अन्वृद्धि, नष्ट होती है । ( व्यवहारिक मात्रा - १ | तोले से २|| तोले तक समान भाग पानी में मिलाकर । ) For Private And Personal Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [१८५] AAVAAAAAAAAA A AAAAAAAAANNARAN (१८१४) चित्रकाद्योऽरिष्टः (ग. नि. । ग्रह.) | रोचक, अग्निदीपक और स्रोतशोधक है। (मात्रा चित्रकत्रिफलापाठाचव्यानां ग्रन्थिकस्य च।। १ से २॥ तोले तक) विडङ्गदेवकाष्ठस्य भागान्कुर्याच्चतुष्पलान् ।। | (१८१५) चुक्रसन्धानम् (वृहद् ) कुष्ठभल्लातकेल्वालुवचानां मरिचस्य च । (ग. नि. । आस.; भै. र. । ग्रह.; वं. से. । अजी.) पिप्पलीकटुकेन्द्राहामुस्तानां स्युस्त्रयस्त्रयः॥ । पक्त्वाऽवशेषिताष्टांशे रसे तस्मिन्हते पुनः । प्रस्थं तण्डुलतोयतस्तुषजलात्प्रस्थत्रयं चाम्लतः। पूते दद्यान्मधुप्रस्थं गुडस्थातुलामपि । | प्रस्थाध दधितोऽथ मूलकपलान्यष्टौ गुडान्मानिका पञ्चकोलं समरिच त्रिफलां च पलाधकम् । मान्यौ शोधितशङ्गवेरशकलादे सिन्धुजातात्पले। संचूर्ण्य दद्यात्पत्रैलात्वङनागानां तथा पलम् ॥ द्वे कृष्णोषणयोनिशापलयुगं निःक्षिप्प भाण्डे दृढे।। मासार्ध घृतकुम्भेऽयं जातोरिष्टःप्रयोजितः। स्निग्वे धान्ययवादिराशिनिहितं चित्रकाय इति ख्यातो ग्रहणीदोषहा परम् ॥ त्रीवासरावासयेत्। पाण्डुरोगोदरप्लीहगुल्मशोफाशंसां मतः । ग्रीष्मे तोयधरात्यये च चतुरो वर्षासु पुष्पागमे। रोचनो दीपनश्चाग्नेः स्रोतसां च विशोधनः॥ पट् शीते ऽष्टदिनान्यतः परमिदं विस्राव्य चीता, हर्र, बहेड़ा, आमला, पाठा (जल संचूर्णितैः। जमनी), चव्य, पीपलामूल, बायबिडङ्ग और देवदारु चातुर्जातपलैस्सुसंहितमिदं शुक्तं च चुकं ततः॥ ४-४ पल; कूठ, भिलावा, एलवा, वच, मिर्च, हन्याद्वातककामदोषजनितान्नानाविधानामयान्। पीपल, कुटकी, इन्द्रायन और मोथा ३-३ पल दुर्नामानिलशूलगुल्मजठरान्हत्वा ऽनलं दीपयेत्।। (१५-१५ तोले) लेकर कूटकर (८ गुने पानीमें) चावलोंका पानी १ प्रस्थ (१ सेर ) काजी पकाकर आठवां भाग शेष रहनेपर छान लीजिए। ३ प्रस्थ, खट्टी दही आधा प्रस्थ, मूली आठ पल तत्पश्चात् उसमें १ प्रस्थ (८० तोले) शहद, (आधा सेर ), गुड आधासेर, अद्रक १ सेर, ५० पल गुड़ और आधा आधा पल पीपल, पीपला | सेंधा नमक २ पल (१० तो० ) पीपल मिर्च मूल, चव, चीता, सोंठ, मिर्च, हर्र, बहेड़ा और और हल्दी २-२ पल । सबको चूर्ण करके आमलेका चूर्ण तथा १-१ पल (५-५ तोले) मिट्टीके चिकने पात्रमें भरकर मुख बन्द करके दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसरका अनाजके ढेरमें दवा दीजिए; और ग्रीष्मऋतुमें ३ चूर्ण मिलाकर घृतसे चिकने मटके में भर कर उसके । दिन पश्चात् , प्रावृट् ऋतुमें चार दिन पश्चात् मुखपर शराव ढककर कपर मिट्टी कर दीजिए और वर्षा और बसन्त ऋतुमें ६ दिन पश्चात् तथा १५ दिन पश्चात् निकालकर छान लीजिए। शीतकालमें ८ दिन पश्चात् निकाल कर छान कर ___ यह चित्रकाचरिष्ट ग्रहणी, पाण्डु, उदररोग, । उसमें, १-१ पल दालचीनी, तेजपात, इलायची तिल्ली गुल्म, सूजन और बवासीर नाशक तथा | और नागकेसरका चूर्ण मिला दीजिए । भा. २४ For Private And Personal Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१८६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि इसका नाम शुक्त और चुक्र है । यह वातज, (१८१८) चक्रमर्दादिलेपः ( वं. से. । कु.) कफज और आम जनित अनेक रोगोंका नाश चक्रमर्दकबीजानि जीरकञ्च समांशकम् । करता है । इसके सेवनसे बवासीर, वायु, शूल, स्तोकं सुदर्शनामूलं दद्रुकुष्ठविनाशनम् ॥ गुल्म और उदर रोग नष्ट होते तथा अग्नि प्रदीप पंघाडके बीज और जीरा समान भाग तथा होती है। | थोड़ीसी सुदर्शन (सुख दर्शन ) को जड़ एकत्र ( मात्रा-१ तोलेसे २ तोले तक ) । पीसकर लेप करनेसे दाद नष्ट होता है । (१८१६) चुक्रसन्धानम् (स्वल्प) (१८१९) चक्रमर्दादिलेपः ( वं. से. । कु. ) ( बं. से. । अजीर्ण; भै. र. । ग्रह.) चक्रमर्दकवीजश्च मूलकाम्बुप्रपेषितम् । दद्रुघ्नं लेपनं कुर्याच्छिामूलत्वचोऽथवा ॥ गुडक्षौदारणालानि समस्तूनि यथोत्तरम्।। पंवाड़के बीज अथवा सहंजनेकी जड़की शंसन्ति द्विगुणा-भागान्सम्यक चुक्रस्प सिद्धये ॥ छालको मलीके रसमें पीसकर लेप करनेसे दाद यन्मस्त्वादि शुचौ भाण्डे सगुडक्षौद्रकाञिकम् । धान्यराशौ त्रिरात्रस्थं शुक्तं चुकं तदुच्यते ॥ (१८२०) चक्रमर्दादिलेपः (ग.नि.व.मा.।कुष्ट.) गुड़ १ भाग, शहद २ भाग, काजी ४ चक्रावीजं स्नुकक्षीरभावितं मूत्रसंयुतम् । भाग, मस्तु ८ भाग लेकर शुद्ध मृत्पात्रमें भरकर रवितप्तं सकिवं च लेपनं किटिभापहम् ॥ मुखपर कपरमिट्टी करके अनाजके ढेरमें दवा पंपाड़के बीजों को थोहर ( सेंड )के दूधकी दीजिए । और तीन दिन पश्चात् निकालकर छान | भावना देकर गोमूत्र में पीसकर धूपमें गर्म करके लीजिए । इसका नाम शुक्त और चुक्र है। और समान भाग किण्व ( शराबकी गाद )में ॥ इति चकाराबासवारिष्टप्रकरणम् ।। मिलाकर लेप करनेसे किटिभ रोग ( कुष्ट भेद) नष्ट होता है। अथ चकारादिलेपप्रकरणम् । (१८२१) चण्ड धादिलेपः ( रा. मा. । शि.) चण्डीमुरानतविषाणदलैर्हरिद्रा (१८१७) चक्रमादिलेपः मुस्तान्वितैःशिरसि यः कुरुते प्रलेपम् । (र. सा. सं. । कु.; रसे. चि. म. । अ. ९) तस्योत्तमाङ्गमपहाय भजन्ति दूरं चक्रमर्दस्य बीजश्च दुग्धे पिष्ट्वा विमर्दयेत्। - केशद्रुहः सपदि दारुणकादिरोगाः ॥ गन्धर्वतैलसंयुक्तं मर्दनात्सर्वकुष्ठजित् ॥ शिवलिङ्गी, मुरामांसी ( मुरमुकी ) तगर, पंवाड़के बीजों को दूधमें पीसकर अरण्डके कूठ, तेजपात, हल्दी और नागरमोथेको पीसकर तेलमें मिलाकर लेप करनेसे सब प्रकारके कुष्ट नष्ट शिरमें लेप करनेसे केशोंको नष्ट करनेवाले दारहोते हैं। णादि रोग शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । For Private And Personal Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । लेपप्रकरणम् ] (१८२२) चतुरङ्गलवर्णादिलेपः ( ग. नि.; वृं. मा. । कु. ) पर्णानि पिष्ट्वा चतुरङ्गुलस्थ तक्रेण पर्णान्यथ काकमाच्याः । तैलाक्तगात्रस्य नरस्य कुष्ठान्युद्वर्त्तयेदश्वरिपुच्छदैश्च ॥ रोगी के शरीरको तैलकी मालिश करानेके पश्चात् अमलतास, मकोय या कनेर के पत्तों को तक्रमें पीसकर मालिश करनेसे कुष्ट रोग नष्ट होता है। (१७२३) चन्दनादिप्रलेपः (वं. से. । विष. ) चन्दनं पद्मकं कुठं नतं चोशीरपाटले । निर्गुण्डी शारिवा शैलुः लूताविषहरोऽगदः ॥ लाल चन्दन, पद्माक, कूठ, तगर, खस, पाढलकी छाल, संभालु, सारिवा और हिसौड़े (रीठे) की छाल समान भाग लेकर ( पानी, घी या सिरसकी छालके रस में ) पीसकर लेप करने से मकड़ीका विष नष्ट होता है । (१८२४) चन्दनादिलेपः ( वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र. ग. नि.; वृं. मा. । शिरो.; शा. ध. । अ. ११ ) चन्दनोशीरयष्ट्याह्नबलाव्याघ्रनखोत्पलैः । क्षीरपिः प्रदेहः स्वात्तैर्वा परिषेचनम् ॥ पित्तज शिरो रोग में लाल चन्दन, खस, मुलैठी, खरैंटी, नखी और नीलोत्पल (नीलोफर ) को दूधमें पीसकर लेप करना चाहिए और इनके जलकी धारा शिरपर डालनी चाहिए । | Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal [ १८७ ] (१८२५) चन्दनादिलेपः ( भा. प्र. खं २; वृ. नि. र. वं. से .; यो. र.; वृं. मा.; ग. नि.; । विस्फो; यो त । त. ६६ ) चन्दनं नागपुष्पञ्च तण्डुलीयकशारिका । शिरीषवल्कलं पत्र' लेपः स्याद्दाहनाशनः । लाल चन्दन, नागकेसर, चौला इकी जड़, सारिवा, सिरसकी छाल और सिरस के पत्तों को पीसकर लेप करनेसे विस्फोटककी दाह शान्त होती है । (१८२६) चन्दनादिलेपः ( वृ. नि. र.; वृं. मा. । वृद्धच.; यो. त. । त. ५६ ) चन्दनं मधुकं पद्ममुशीरं नीलमुत्पलम् । क्षीरपिष्टः प्रलेपः स्यात्पित्तवृद्धिरुजापहः ।। लाल चन्दन, मुलैठी, कमलपुष्प, खस और नीलोफरको दूध में पीसकर लेप करनेसे पित्तज वृद्धि नष्ट होती है । (१८२७) चन्दनादिलेपः ( वृ. नि. र. यो. र. ग. नि. । तृष्णा; यो. त. । त. ३४ ) अरुणचन्दनचन्दनवालकै लदपद्मकतुल्यकृतांशकैः । शिरसि लेपनमाचरतां नृणां तृडुपयात्युपशान्तिमसंशयम् ॥ लाल चन्दन, सफेद चन्दन, नेत्रबाला, नलद और गद्माक समान भाग लेकर पीसकर शिरपर लेप करनेसे पिपासा अवश्य शान्त हो जाती है । (१८२८) चन्दनादिलेप: (वृ.नि.र.;वं.से. (नेत्र.) चन्दनं मधुकं लोघं जातिपत्राणि गैरिकम् । प्रलेपो दाहरोगघ्नस्तोदाभिष्यन्दनाशनः ॥ १ जातीति पाठान्तरम् । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि ___ लाल चन्दन, मुलैठी, लोध, चमेलीके पत्ते लाल चन्दन, मजीठ, कूठ, लोध, फूलप्रियङ्गु, और गेरु समान भाग लेकर ( पानी या इमलीके बड़के अङ्कुर और मसूरको पानीमें पीसकर लेप रसमें ) पीसकर आंखोंके पेवटों पर लेप करनेसे लगानेसे व्यङ्ग (चहेरेकी झाई-स्याही) नष्ट होकर नेत्रोंकी दाह, तोद ( सुई चुभनेकी सी पीड़ा) भुखकी कान्ति बढ़ती है। और अभिष्यन्द ( आंखें आ जाना ) रोग नष्ट (१८३२) चन्दनादिलेपः (च.स.चि.स्था.अ.४) होता है। भद्रश्रियं लोहितचन्दनञ्च (१८२९) चन्दनादिलेपः (वं. से. । शिरो.) | प्रपुण्डरीकं कमलोत्पलश्च । भद्रश्रियं पुण्डरीकं मधुकं नीलमुत्पलम् । उशीरवाणीरजलं मृणालं पमकं वेतसं दूर्वा लामज्जकमथापि वा। सहस्रवीर्या तृणशून्यमृद्धिः॥ दावर्वीहरिद्रा मञ्जिष्ठा फेनिलोशीरमेव च। मूलानि पुष्पाणि च वारिजानाम् एतदालेपनं कुर्याच्छङ्खस्य प्रशान्तये ॥ प्रलेपनं पुष्करिणीमृदश्च । ___ सफेद चन्दन, कमलपुष्प, मुलैठी, नीलोफर, उदुम्बराश्वत्थमधूकरोधाः । पाक, अम्लवेत, दूर्वा, (दूबड़ा घास), लामजक कषायवृक्षाःशिशिराश्च सर्वे ॥ (खसभेद), दारु हल्दी, मजीठ, रीठा और खस प्रदेहकरके परिषेचनेन समान भाग लेकर पीसकर लेप करनेसे शङ्खक तथावगाहे घृततैलसिद्धौ। रोग नष्ट होता है। रक्तस्य पित्तस्य च शान्तिमिच्छन् (१८३०) चन्दनादिलेपः (वं. से. । दाह.) भद्रश्रियादीनि भिषक् प्रयुज्यात् ॥ श्लक्ष्णवृक्ष्मकृतो लेपश्चन्दनस्थापि दाहनुत् । सफेद चन्दन, लाल चन्दन, प्रपौण्डरीक खग्जातस्योष्मणो रोधाच्छीतकृतमथागुरु॥ | (पुण्डरिया), कमलपुष्प, नीलोफर, खस, बेत, नेत्रचन्दनको अत्यन्त महीन पीसकर लेप करने बाला, कमलनाल, शतावर, केतकीका फूल, और ऋद्भिः तथा जलमें उत्पन्न होने वाले पौदोंके पुष्प से दाह शान्त होती है । अगरको शोतल जलमें औरमूल, पुष्करणी (कमलपुष्प वाले तालाव) की पीसकर लेप करनेसे भी दाह शान्त हो जाती है, मिट्टी, गूलर, पीपल, महुवा, लोध और कषाय क्यों कि इसके लेपसे त्वचामें उत्पन्न होने वाली (कसैले) वृक्षोंकी छाल और अन्य शीतल औषधोंका उष्णता रुक जाती है। लेप लगाने, उनके शीतल क्वाथकी धार देने, कल्क (१८३१) चन्दनादिलेपः सेवन करने और उनके शीतल काथमें अवगाहन ( वा. भ. उ. स्था. । अ. ३२) (डुबकी लगाकर स्नान) करने एवं इनके कल्क रक्तचन्दनमञ्जिष्ठा कुष्ठरोधप्रियङ्गवः।..... और क्वाथसे सिद्ध घृत या तैलको प्रयुक्त करनेसे वटाङ्कुरा मसूराश्च व्यङ्गन्ना मुखकान्तिदा ॥१० रक्तपित्त नष्ट होता है । For Private And Personal Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvurvana लेपप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १८९] (१८३३) चन्दनादिलेपः (ग. नि. । शिरो.) (१८३६) चिश्चापत्ररसप्रयोगः चन्दनद्वयसंयुक्तैः कुष्ठवालककेसरैः। (वै. म. र. । प. ११) क्षीराज्ययोजितैर्लेपः क्षिप्रं पित्तं शिरोतिनुत् ॥ ददौ गुडं प्रलिम्पेत्तत्स्थाः कृमयो विनश्यन्ति । सफेद चन्दन, लालचन्दन, कूठ, नेत्रबाला चिश्चापत्ररसम्वा कण्डूतिनाशमन्विच्छन् । और केसरके समान भाग मिश्रित चूर्णको दूध दादपर गुडका लेप करनेसे उसके कृमि नष्ट और धीमें मिलाकर लेप करनेसे पित्तज शिरशूल हो जाते हैं और इमलीके पत्तोंका रस लगानेसे नष्ट होता है। खाज नष्ट होती है। (१८३४) चन्दनादिलेपः ( यो. र. । स्त्री.) (१८३७) चिश्चास्वरसलेपः (वै.म.र.।पट.१६) चन्दनं मधुकोशीरं नागपुष्पं तिलास्तथा। । चिश्चापत्रस्वरसं पयसा योज्य घर्षितं कंसे। अजशृङ्गी च मञ्जिष्ठा रविमूलं पुनर्नवा। लिपं वहिनयनयोःशमयति रागाश्रुतोदसरम्भान् ॥ श्रेष्ठःशोफहरो लेपो गर्भिणीनां विशेषतः॥ । इमली के पत्तोंके रसमें समान भाग दूध मिला ___लाल चन्दन, मुलैठी, खस, नागकेसर, तिल, मेढासिंगी, मजीठ, आककी जड़की छाल और पुन कर कांसे के पात्रमें उंगलीसे अच्छी तरह घिसकर नवा; समान भाग लेकर (पानीमें ) पीसकर लेप आंखों के बाहर लेप करनेसे आंखोंकी सुर्खा, सूजन, करनेसे सूजन नष्ट होती है। अश्रुपात और पीड़ा नष्ट होती है। ___ यह प्रयोग गर्भिणीकी सूजनको नष्ट करनेके (१८३८) चित्रकादिलेपः (च. सं. । चि.अ.५) लिए विशेष उपयोगी है। चित्रकमेलाबिम्बी वृषकत्रिदर्कनागरकम् । (१८३५) चन्द्रशरादिलेपः (यो. त.। त.६३) चूर्णीकृतमष्टाहं भावयितव्यम्पलाशस्य ॥ चन्द्रशूराख्यवीजानि प्रपुत्राटस्य तानि च। क्षारेण गवां मूत्रस्रतेन तेनास्य मण्डलान्याशु। कङ्कत्या अपि बीजानि समांशत्रितयं क्षिपेत् ॥ भियन्ते च विनश्यन्ति च लिप्तान्यर्काभितप्तानि॥ सर्वद्विगुणतक्रेण सूक्ष्म सम्पिष्य साधयेत् । चीता, इलायची, कन्दूरी, बासा, निसोत, दिनत्रयं ततो वन्यगोमयेन प्रघर्षयेत् ॥ आककी जड़की छाल, और सोंउको महीन पीस तं कल्कं लेपयेत्पश्चाद्रुर्गच्छति निश्चितम् ॥ | लीजिए; तत्पश्चात् ढाककी राखको चार गुने __ हालो, पवाड़के बीज, और कंगही (अतिबला) गोमूत्रमें मिलाकर मोटे कपड़ेसे २१ बार क्षार के बीज समान भाग लेकर महीन चूर्ण करके उसे बनानेकी विधिके अनुसार चुवाकर उसमें उक्त दोगुने तक्रमें मिलाकर ३ दिन तक खरल कराइये। समस्त वस्तुओंका चूर्ण मिलाकर ८ दिन पर्यन्त दादको अरने उपलेसे रगड़ कर यह लेप अच्छी तरह घोटिए । लगानेसे वह अवश्य नष्ट हो जाता है। इसका लेप करनेसे मण्डल नष्ट हो जाते हैं। For Private And Personal Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि (१८३९) चित्रकादिलपः (. मा., बृ. नि. अथ चकारादिधूपप्रकरणम् । र. । श्लो.) (१८४३) चातुर्थिकज्वरे धृपः हितश्च लेपने नित्यं चित्रको देवदारु च। (रा. मा. । अपस्मा.) सिद्धार्थ शिग्रुकल्को वा सुखोष्णो मूत्रपेपितः॥ कृष्णाम्बरग्रथितगुग्गुलुघूकप:स्लीपद रोगमें चीतेकी जड़ और देवदारु को | मिश्रीकृतो हरति तत्क्षणमेव धूपः। अथवा सरसों और सहजनेकी छालको गोमूत्रमें चातुर्थिकज्वरमनल्पदिनोपगूढ । पीसकर मन्दोष्ण लेप करना हितकारक है। - सर्वाङ्गमप्यहिमरश्मिरिवान्धकारम् ।। (१८४०) चित्रकादिलेपः (वृ. नि.र.। त्व.दो.) गूगल और उल्टके पंखको काले कपड़ेमें मण्डलानि च घृष्टवाथ चित्रकेन प्रलेपयेत् ।। बांधकर धूनी देनेसे पुराना चातुर्थिक (चौथिया) ततो वातारिबीजैश्च लेपो मण्डलकुष्ठनुत् ॥ वर तत्काल नष्ट हो जाता है । मण्डल (चकतों) को (अरने उपलेसे) घिस- (१८४४) चिश्चादिवर्तिधूपः (वै.म.र.|पट.३ ) कर उनपर चीतेका लेप कर दीजिए और जब वह चिश्चात्वगेका द्वि निशा त्रि सर्जकपुनर्नवा। सूख जाय तो उसे उतारकर अरण्डीके बीजोंका नव जातिदला वत्तिःकास जित् बाह्यधृपिता॥ लेप कर दीजिए । इससे वह नष्ट हो जाते हैं । | इमलीकी छाल १ भाग, हल्दी २ भाग, (१८४१) चिरबिल्वादिलेपः (शा.सं.अ.११) राल ३ भाग, पुनर्नवा १ भाग और चमेलीके पत्ते चिरबिल्बोनिको दली चित्रको हयमारक। । ८ भाग लेकर कूटकर बत्ती बनाकर उसे जलाकर कपोतकङ्कगृध्राणां मलं लेपेन दारणम् ।। ८३ ॥ ( नासिकाके पास ) धूनी देनेसे खांसी नष्ट हो जाती है । - करञ्जकी गिरी, भिलावा, दन्ती, चोता, ॥ इति चकारादिधूपप्रकरणम् ॥ कनेरकी जड़, तथा कबूतर, कवे और गीधकी बीटको पीस कर लेप करनेसे ब्रण फूट जाता है। । अथ चकारादिधूम्रप्रकरणम् । (१८४२) चुञ्चूफललेपः (ग. नि. । नाडीत्र.) (१८४५) चातुर्जातधूम्रपानम् पिष्टं चुचूफलं लेपान्नाडीव्रणहरं परम् ॥ ( भा. प्र. । म. ख. । नासा.) चुञ्चुके फलोंको पीसकर लेप करनेसे नाही प्रतिश्याये पिबेद्धमं सर्वगन्धसमायुतम् । ब्रण (नासूर) नष्ट होता है । चातुर्जातकचूर्ण वा घेयं वा कृष्णजीरकम्॥ ॥ इति चकारादिलेपप्रकरणम् ॥ ____ सर्वगन्ध (चातुर्जातक, कपूर, कंकोल, अगर, | केसर, लौंग ) अथवा चातुर्जातक ( दालचीनी, For Private And Personal Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । अञ्जनप्रकरणम् तेजपात, इलायची, नागकेसर ) का धूम्रपान करने या काले जीरेका चूर्ण सूंघने से प्रतिश्याय (जुकाम) नष्ट होता है I ॥ इति चकारादिधूम्रप्रकरणम् ॥ अथ चकाराद्यञ्जन प्रकरणम् । (१८४६) चतुर्दशाङ्गीवति (ग. नि. । नेत्र.) मधुकरसाञ्जनताम्रत्रिकटुविडङ्गपुण्डरीकाणि । सलवणतुत्थ त्रिफलाप्राणि नमोऽम्बुपिष्टानि ॥ वर्त्तिश्चतुर्दशाङ्गी नयनामयनाशिनी शिलास्तम्भे लिखिता हिताय जगतस्तिमिरापहा विशेषेण । मुलैठो, रसौत, तात्र भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, कमल, सेंधा, नीलाथोथा, हर्र, बहैड़ा, आमला और लोत्र समान भाग लेकर महीन चूर्ण करके, आकाशजलमें पीसकर बत्तियां बना लीजिए । यह नेत्र रोग और विशेषतः तिमिर नाशक 'चतुर्दशाङ्गवर्तिः' शिलास्तंभ पर लिखी हुई मिली है। (१८४७) चन्दनाञ्जनम् (वं. से. । नेत्र. ) सलिलमकरन्दसर्पिस्तैलैः प्रत्येकमस्तु सप्ताहम् । विनिहन्ति तिमिरम चिरादञ्जनतश्चन्दनं रक्तम् ।। लाल चन्दनको पानी, शहद, घी या तैलमें घिसकर अञ्जन लगानेसे सात दिनमें तिमिर रोग नष्ट हो जाता है । [ १९१ ] सफेद चन्दन १ भाग, सेंधा नमक २ भाग, हर्र ३ भाग और ढाकका गोंद ४ भाग लेकर महीन चूर्ण कर लीजिए । इसे आंख में लगाने से शुक्र और अर्मादि नेत्र विकार नष्ट होते हैं । (१८४९) चन्दनादिवर्तिः (सु. सं. । उ. त. अ.१२ ) चन्दनं कुमुदं पत्रं शिलाजतु सकुङ्कुमम् । अवस्ताम्ररजस्तुत्यं निम्वनिर्यासमञ्जनम् ॥ पुकांस्वमलं चापि पिट्वा पुष्परसेन तु । विपुलायाः कृतावर्त्यः पूजिताश्चाञ्जने सदा ॥ स्वादञ्जनं घृतं क्षौद्रं सिरोत्पातस्य भेषजम् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सफेद चन्दन, कमलपुष्प, तेजपात, शिलाजीत, केशर, लोह चूर्ण, ताम्र चूर्ण, नीला थोथा, नीमका सार शुद्ध सीसा, कांसीका मैल | सबको महीन पीसकर शहद में मिलाकर बत्तियां बना लीजिए । इनको अथवा शहद और घीको आंख में आंजने से शिरोत्पात रोग नष्ट होता है । (१८५०) चन्दनादिवर्तिः ( र. र.; भै. र-; वं. से.; धन्वं.; वृं. मा. । नेत्ररो. ) चन्दनत्रिफलापूगपलाशतरुशोणितैः । पिष्टैरियं कृतावर्त्तिरशेषतिमिरापहा ॥ कफेद चन्दन, हर्र, बहेड़ा, आमला, सुपारी और ढाकके गोंदको महीन पीसकर गोलियां बना लीजिए । इन्हें आंखों में आंजने से हर प्रकारका तिमिर रोग नष्ट होता है । (१८४८) चन्दनादिचूर्णाञ्जनम् ( वृ. मा.; वं. से. । नेत्र. ) 1 चन्दनं सैन्धवं पथ्या पलाशतरुशोणितम् । क्रमवृद्धमिदं चूर्ण शुक्रार्मादिविलेखनम् ॥ १ मधुनाञ्जनयोगाः स्युश्चत्वारः शुक्रनाशना इति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ १९२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि (१८५१) चन्दनाद्यञ्जनम् . कण्डूमण्डलकाचशुक्र ( वं. से.; र. र.; बूं. मा.; ग. नि., यो. र.; वृ. तिमिराम्भःस्रावपिल्लादिनुत् ।। नि. र. । नेत्र.; वृ. यो. त. । त. १३१) मोतीकी भस्म, मिश्री, अभ्रकभस्म, गूगल, चन्दनं गैरिकं लाक्षा मालतीकलिका समाः। शुद्धखपरिया, श्वेतसुरमा, कस्तूरी, नीलाथोथा, तमुद्र व्रणशुक्रहरावर्तिः शोणितस्थ प्रणाशिनी ॥ फेन, शंखनाभि, पीपल, भांगरा और हर्र, बहेड़े, सफेद चन्दन, गेरु, लाख और चमेलीकी | तथा आमले की मज्जा (गुठलीकी गिरी) का चूर्ण कली समान भाग लेकर पानीसे महीन पीसकर समान भाग लेकर जलसे पीसकर वर्तियां बना बत्तियां बना लीजिए। लोजिए। इन्हें पानीमें घिसकर आंखों में आंजनेसे व्रण यह " चन्द्र कलावर्ति" तिमिर, खुजली, शुक्र नष्ट होता है। मण्डल, काच, शुक्र, जलस्राव, और पिलादि नेत्र नोट-इसोका नाम "चतुर्भद्रिकावर्ति" है। । रोगों को नष्ट करती है। (१८५२) चन्दनाद्या वर्तिः (रा. मा. । नेत्र.) । (१८५४) चन्द्रप्रभागुटी ( ग. नि. । नेत्र.) अरुणचन्दनमागधिकानिशाः त्रिफला सैन्धवं लौह चूर्ण त्रिकटुकं समम् । करकवीजयुता गगनाम्भसा। छागलीपयसा पकं छायाशुष्कं च तद्गुटी। समभिपेष्य कृता नयनामयान् | दुग्धघृष्टा भृता नेत्रे पुष्पहृत्काचिकेन सा। हरति वर्तिरुदीर्णतरानपि ।। तिमिरं मधुना हन्ति पटलं च शिवाम्भसा॥ लाल चादन पीपल, हल्दी और नाटा करञ्जके | निशान्ध्य कामलां हन्ति काकमाचीरसप्लुता। बीजोंके समान भाग चूर्णको आकाश जल ( भूमिसे रम्भाम्भसा च श्वयधुं गुटी चन्द्रप्रभाभिधा ।। ऊपरही स्वच्छतापूर्वक ग्रहण किये हुवे वर्षाजल ) हर, बहेडा, आमला, सेंधानमक लोहचूर्ण, में पीसकर बत्तियां बना लीजिए। सोंठ, मिर्च और पीपल । इन सबका समान भाग ____ इसे आंखमें आंजनेसे आंखोंके भयङ्कर रोग चूर्ण लेकर बकरी के दूधमें पकाकर बत्तियां बना भी नष्ट हो जाते है। कर छायामें सुखा लीजिए। (१८५३) चन्द्रकलावतिः इन्हें दूधमें घिसकर आंखमें लगानेसे फूला, (वृ. यो. त. । त. १३१, यो. त. त. ७१) काञ्जि में घिसकर लगानेसे तिमिर, शहदमें विसमुक्ताभस्मसिताभ्रपौररसकस्रोतोञ्जनैणाण्डजा। कर लगानेसे पटल, हर्रके रसके साथ घिसकर तुत्थाम्भोभवशङ्गनाभिचपलाभृङ्गोत्तमामज्जभिः।। लगानेसे रतौंधा, मकोयके रसमें घिसकर लगानेसे वर्तिश्चन्द्रकला निहन्ति कामला और केलेके रसमें घिसकर लगानेसे सूजन तिमिरं चित्रं किमत्र स्फुटम्। | नष्ट होती है। For Private And Personal Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम् ] द्वितोयो भागः। [ १९३] (१८५५) चन्द्रप्रभावतिः चूर्णको बकरीके मूत्रमें पीसकर बत्तियां बनाकर (च. द; ग. नि: व. मा.; धन्वं; र. र. । नेत्र.) छायामें सुखा लीजिए। अञ्जनं श्वेतमरिचं पिप्पली मधुयष्टिका। इन्हें पानीमें पीसकर आंखमें आंजनेसे तिमिर, विभीतकस्य मध्यन्तु शङ्खनाभिर्मनःशिला ॥ गोमूत्रमें पीसकर आंजनेसे पिष्टक, शहद के साथ एतानि समभागानि अजाक्षीरेण पेपयेत् । आंजनेसे पटल, और स्त्री के दूधमें घिसकर आंजने छायाशुष्कां कृतां वतिः नेत्रेषु च प्रयोजयेत् ॥ स से फूला नष्ट होता है। अर्बुदं पटलं काचं तिमिरं रक्तरानिकाम। (१८५७) चन्द्रोदया वर्तिः अधिमांसं मलञ्चैव यश्च रात्रौ न पश्यति॥ (च. द.; भै, र.; वृं. मा.; वं. से.; र. र.; वर्तिश्चन्द्रप्रभानाम जातान्ध्यमपि शोधयेत् ॥ ग. नि.; भा. प्र. म. ख.। नेत्र.; यो. त. । त. ५१) सुरमा, सहजनेके बीज, पीपल, मुलैठी, बहेड़े हरीतकी वचा कुष्ठं पिप्पली मरिचानि च। की मज्जा (गुठलीके भीतर की गिरी), शंखकी विभीतकस्थ मज्जा च शङ्खनाभिर्मनःशिला। नाभि और मनसिल समान भाग लेकर महीन चूर्ण | सर्वमेतत्समं कृत्वा गव्यक्षीरेण पेषयेत् । करके बकरीके दूधमें धोटकर बत्तियां बना लीजिए नाशयेतिमिरं कण्डूपटलान्यर्बुदानि च ॥ और छायामें सुखाकर काममें लाइये। अपि त्रिवार्षिकं शुक्रं मासेनैकेन नाशयेत् । इस 'चन्द्रप्रभावर्ति' को ( पानीमें घिसकर) अधिकानि च मांसानि रात्रावन्धत्वमेव च ।। आंखमें आंजनेसे नेत्राबुद, पटल, काच, तिमिर, हर्र वच, कूठ, पीपल, काली मिर्च, बहेडेकी लाल रेखाएं, अधिमांस और नक्तान्ध्य ( रतौंवे ) मज्जा ( गुठलीके भीतरकी गिरी ) शंखनाभि और का नाश होता है। मनसिल का समान भाग चूर्ण लेकर गोदुग्धमें (१८५६) चन्द्रप्रभावत्तिः पीसकर बत्तियां बनाकर छायामें सुखा लीजिए । (यो. र.; भा. प्र. ख. २। नेत्र.) इन्हें (पानी में घिसकर) आंखमें आंजनेसे रजनी निम्बपत्राणि पिप्पली मरिचानि च। तिमिर, खुजली, पटलरोग, अर्बुद, अधिमांस और विडङ्गं भद्रमुस्तं च सप्तमी त्वभया स्मृता । नक्तान्ध्य ( रतौंधे ) का नाश होता है। इनके अजामूत्रेण संपिष्य छायायां शोषयेद्वटीम्। उपयोगसे ३ वर्षका पुराना शुक्र (फूला) १ मास वारिणा ति.मेरं हन्ति गोमूत्रेण तु पिष्टकम् ॥ में ही नष्ट हो जाता है मधुना पटलं हन्ति नारीक्षीरेण पुष्पकम् । (१८५८) चन्द्रोदया वतिः (लघु) एषा चन्द्रप्रभावर्तिः स्वयं रुद्रेण निर्मिता॥ (ग. नि; यो. र.; वृ. नि. र. । नेत्र.) हदी, नीमके पत्ते, पीपल, मिर्च, बायबिडङ्ग | रसाञ्जनं सशैलेयं कुङ्कम समनःशिलाम् । नागरमोथा और हरके समान भाग एकत्र मिश्रित । शङ्ख सश्वेतमरिचं शर्करा चात्र सप्तमी ।। भा० २५ For Private And Personal Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१९४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि एषां चन्द्रोदया नाम वत्तिवैदेहनिर्मिता। शङ्ख धूर्ण ४ भाग, मनसिल २ भाग, स्याह हन्यात्पिल्लं च कण्डूं च तिमिरं चापि सेविता॥ मिर्चका चूर्ण १ भाग और सेंधा नमक आधा भाग रसौत, भूरी छरीला, केसर, मनसिल, शंख, लेकर महीन चूर्ण कर लीजिए। सफेद मिर्च (सहंजनेके बीज) और मिश्री । समान यह चूर्णाजन शुक्र और तिमिर रोगके भाग लेकर पानीसे महीन पीसकर बत्तियां बना लिए अत्यन्त उपयोगी है। लीजिए। इसे नेत्र पिञ्चट रोगमें शहद में मिलाकर और यह वैदेह निर्मित 'चन्द्रोदय वर्तिः' आंखों नेत्रावद रोगमें मस्तु के साथ लगाना चाहिए । के पिल्ल, खुजली, और तिमिर रोगका नाश (१८६१) चूर्णाञ्जनम् (र. र. । नेत्र.) करती है। रङ्कणं रसके पिटवा जन्धी कांस्पभाजने। (पानीसे घिसकर आंख में लगानी चाहिए।) पक्ष्मरोगहरं कण्ई रक्तस्रावश्च नाशयेत् ॥४९।। चातुर्भद्रिका वर्तिः (ग. नि. । नेत्र.) । मुहागेकी खील और शुद् खपरिया को चन्दनाद्यञ्जनम् देखिए। जन्बीरी नीके रसमें कोसीके पामें धोटकर (१८५९) चिश्चाद्यञ्जनम् (च. द, । ने. रो.) लगानेसे पक्ष्म (पलकके) रोग, खुजली, और रक्तचिश्चापत्ररसं निधाय विमले चौदुम्बरे भाजने। मूलं तत्रनिघृष्टसैन्धवयुतं गौड्यं विशोष्यातपे।। स्रावका नाश होता है। तचूर्ण विमलाञ्जनेन सहित नेत्राञ्जने शस्यते। १८६२) चूर्णाञ्जनम् (च.सं.चि.स्था.,वं.से.नेत्र.) काचार्मार्जुनपिचिटे तिमिरे सावञ्च निर्वासयेत ।। शाणार्द्ध मरिचं द्वौ च पिप्पल्पर्णवफेनयोः । गूलरकी लकड़ीके स्वच्छ पात्रमें इमलीके शाणा सैन्धवाच्छाणात्सौवीरस्थ जलेन च ।। पत्तोंका रस भरकर उसमें गुञ्जा (चौंटली)की जड़ पिटं सुमुक्ष्मं चित्रायां चूर्णाजनमिदं शुभम् । और सेंधा नमकका महीन चूर्ण मिलाकर धूपमें काचकण्डूकफार्तानां मलानाश्च विशोधनम् ।। रख दीजिए और सूख जानेपर उसमें श्वेताञ्जनका काली मिर्च आधी शाण, पीपल २ शाण, चूर्ण समान भाग मिलाकर खूब खरल कीजिए। समुद्रभाग २ शाण, सैं यव आधाशाण, और सौवी- इसे आंखमें आंजनेसे काच, अर्म अर्जुन, राजन १ शाण (५ माशे) लेकर महीन चूर्ण पिच्चिट तिमिर, और जलस्त्रावका नाश होता है । करके चित्रा नक्षत्रमें पानीके साथ खूब खरल (१८६०) चूर्णाञ्जनम् (वं. से. । नेत्र.) करके अजन बना लीजिए। शङ्खस्य भागाश्चत्वारस्ततोऽदैन मनःशिला। यह चूर्णाञ्जन' नेत्रोके काच, खुजली, मनःशिलार्ध मरिचं मरिचार्द्धन सैन्धवम्॥ कफरोग और मलको दूर करता है। एतचूर्णाञ्जनं श्रेष्ठं शुक्रयोस्तिमिरेषु च। इति चकारायञ्जनप्रकरणम् पिच्चटे मधुना योज्यमबुंदे मस्तुना तथा ॥ For Private And Personal Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । कल्पप्रकरणम् ] अथ चकारादिकल्पप्रकरणम् । (१८६३) चतुरङ्गुलकल्पः ( चं. सं. । क. स्था. अ. ८ ) 'ज्वरहृद्रोगवातासृगुदावर्त्तादिरोगिषु । राजवृक्षोऽधिकं पथ्यो मृदुर्मधुरशीतलः || बाले वृद्धे क्षते क्षीणे सुकुमारे च मानवे । योज्यो मृद्वनपायित्वाद्विशेषाच्चतुरङ्गुलः || फलकाले फलं तस्य ग्राह्यं परिणतञ्च यत् । एषां गुणवतां भारं सिकतासुं निधापयेत् ॥ सप्तरात्रात् समुद्धृत्य शोषयेदातप भिषक् । ततो मज्जानमुद्धृत्य शुचौ भाण्डे निधापयेत् ॥ द्राक्षारसयुतो देयो दाहोदावर्त्तपीडिते । चतुर्वर्षमुखे वाले यावद्वादशवार्षिके || चतुरङ्गुलमज्ज्ञस्तु प्रसृतं वाथवाञ्जलिम् । सुरामण्डेन संयुक्तमथवा कोलशीधुना ॥ दधिमण्डेन वा युक्तं रसेनामलकस्य वा । कृत्वा शीतकषायं तं पिबेत् सौवीरकेण वा ।। त्रिव्रुन्मज्ज्ञस्तथा कल्कं तत्कषायेण वा पिवेत् तथा विल्वकषायेण लवणक्षौद्रसंयुतम् ॥ कषायेणाथ वा तस्य त्रिचूर्ण गुडान्वितम् । साधयित्वा शनैर्लेह लेहयेन्मात्रया नरम् ॥ चतुरङ्गलसिद्धाद्धि क्षीरावदुदियाद्घृतम् । मज्ज्ञः कल्केन धात्रीणां रसे तत्साधितं पिबेत् ॥ १ सम्प्रति २-३ तोले मात्रा पर्याप्त है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९५ ] तदेव दशमूलस्य कुलत्थानां यवस्य च । कषाये साधितं कल्कैः सर्पिःश्यामादिभिः पिवेत् ॥ दन्तीकाथेऽञ्जलिमज्ज्ञः शम्पाकस्य गुडस्य च । कृत्वा मासार्धमा सस्थमरिष्टं पाययेत च ।। यस्य यत्पानमन्नञ्च हृद्यं स्वाद्वपि वा कटु । लवणं वा भवेत्तेन युक्तं दद्याद्विरेचनम् ॥ अमलतास - ज्वर, हृद्रोग, वातरक्त, और उदावर्तादि रोगों में अत्यन्त हितकारक, मृदु, मधुर और शीतल है। यतः अमलतास मृदु और विकार रहित है अतएव बालक, वृद्ध, क्षतक्षीण, और सुकुमार व्यक्तियोंके लिए प्रयुक्त करना उत्तम है I अमलतास के फलने का मौसम आने पर वज़नी, उत्तम और पक्की फलियां तुड़वा कर रेतमें दबवा दीजिए फिर उन्हें सात दिन पश्चात् निक - लवाकर धूपमें सुखाकर भीतरका गूदा निकालकर स्वच्छ पात्र में भरकर रख दीजिए । दाह और उदावर्तकी शान्ति के लिए अमलतासके गूदे को मुनक्का (या अंगूर) के रसके साथ देना चाहिए । चार वर्षकी अवस्था से लेकर १२ वर्षकी अवस्था पर्यन्त अमलतासका गूदा २ पल (१० तोले ) अथवा ४ पलकी मात्रानुसार देना चाहिए । अमलतास के गूदे को सुरामण्ड, कोलसीधु, दधिमण्ड या आमले रसके साथ सेवन करना चाहिए । अथवा सौवीर सुराके साथ उसका शीतकपाय करके पीना चाहिए। अथवा निसोतके For Private And Personal Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [चकारादि कल्क को अमलतासके काथके साथ देना चाहिए औष्ण्याद्धन्त्यनिलं चापि चित्रकःसर्वरोगहा । या बेलके काथमें अमलतासका गूदा, सेंधानमक तैलसर्पिःपयोयूषसकृद्रससमन्वितः ॥ और शहद मिलाकर पिलाना चाहिए । या अमल- पेयया वाऽपि पातव्यःसर्वरोगेषु चित्रकः । तासके काथमें गुड़ मिलाकर अवलेह बनाकर पिबेत्पथ्याशनो मासं विडालपदसंमितम् ।। उसमें निसोतका चूर्ण मिलाकर यथोचित मात्रा- तेन पीतेन कोष्ठस्थान् हन्ति चान्तर्गतान् गदान नुसार सेवन कराना चाहिए। मेधावर्णस्वरकरः सर्पिषा सह योजितः ॥ १ भाग अमलतासका गूदा, ८ भाग दूध | तक्रमस्तुयुतो दद्रुकिटिभानिलनाशनः । और ३२ भाग पानी एकत्र मिलाकर पकाइये, श्वित्री गोमूत्रसंयुक्तं नियतः क्षीरभोजनः॥ जब केवल दूध शेष रह जाय तो उसका दही चीतेका प्रयोग आषाढ, कार्तिक अथवा मार्गजमाकर घृत निकाल लीजिए और इस घृतको शीर्ष (अघन) मासमें करना चाहिए। पुनः अमलतासके कल्क और आमलेके रसके साथ चीता कटु, पाकमें तिक्त और उष्ण वीर्य है। यह कटु होनेके कारण कफनाशक, तिक्त पका लीजिए अथवा इस घृतको दशमूल, कुलथी और जौ के काथ तथा श्यामादिगणके कल्क से होनेसे पित्तनाशक और उष्ण वोर्य होनेके कारण वात नाशक है, अतएव इसके सेवन से (वातज, पकाकर सेवन कराइये । पित्तज और कफज) समस्त रोग नष्ट हो सकते हैं। दन्तीके काथमें १-१ अञ्जलि अमलतासका चित्रकको तैल, घी, दूध, यूप, गोबरका रस गृदा और गुड़ मिलाकर मिट्टीके पात्रमें भरकर या पेयाके साथ सेवन कराना चाहिये। उसके मुखको कपर मिट्टीसे बन्द करके रख दीजीए चीतेके 'चूर्णको १ कर्ष (१। तोले) की मात्राऔर १ मास या १५ दिन पश्चात् निकालकर नुसार १ मास तक पथ्यपालनपूर्वक सेवन करने काममें लाइये। से कोष्ठगत समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। रोगीको मधुर, कटु या लवण जो आहार । चीतेको धीके साथ सेवन करनेसे बुद्धिकी हृद्य हो उसीके साथ अमलतास खिलाकर वृद्धि होती है तथा स्वर और वर्ण (शरीरका रंग) विरेचन कराना चाहिए। सुन्दर हो जाता है। एवं तक अथवा मस्तु (१८६४) चित्रककल्पः (ग. नि. । कल्पा.) (द्विगुण जल मिश्रित तक्र) के साथ सेवन करनेसे दाद, किटिभ और वायुरोग नष्ट होते हैं। आपाढे कार्तिके वाऽपि मासे मार्गशिरे भिषक् । " श्वेतकुष्टीको चीतेका चूर्ण गोमूत्रके साथ सेवन पुण्ययोगे च संप्राप्ते चित्रकं संप्रयोजयेत् ॥ चित्रकाकटुकस्तितपाके चोष्णःप्रकीर्तितः। करना चाहिये और दुग्धाहार पर रहना चाहिये । कटुकत्वात्कर्फ हन्ति तिक्तत्वात्पित्तनाशनः इति चकारादिकल्पप्रकरणम् । १ तीन प्रकारका निसोत, दन्ती, शङ्खाहोली, लोध, कमीला, पटोलपत्र, सुपारी, कृष्णदन्ती, इन्द्रायन, अमलतास, दोनों प्रकारके करज, गिलोय, सातला, विघारा, सेहुँड और स्वर्णक्षीरी (सत्यानाशी) । For Private And Personal Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १९७] अथ चकरादिरसप्रकरणम् * (१८६७) चक्रिकाबन्धरसः (र. चं.; र. र. स. । स्त्रीचि.) (१८६५) चक्ररसः (भे. र.; र. रा. मुं.। ज्वर०) गन्धकःपलमात्रश्च पृथगक्षौ शिलालको। शम्भोःकण्ठविभूषणं समरिचं तालं तथा पारदम्। त्रिदिनं मर्दयित्वाऽथ विदध्याकजलीशुभाम॥ देवीबीजयुतं सुशोधितमिदं जैपालबीजोत्तमम् ॥ विषाणाकारमपायां कज्जली निक्षिपेत्ततः । दन्तीमूलयुतं समागधिफलं सर्व समांशं नयेत्। द्विपलस्य च ताम्रस्थ तन्मुखे चक्रिकां न्यसेत् ॥ तत्सर्व परिमय चाकरसैः गुञ्जाप्रमाणं रसम्॥ सन्निरुध्यातियत्नेन सन्धिबन्धे विशोषिते । दद्यात्योरतरे त्रयोदशविधे दोषे च चक्राहयम् । ततःकरिपुटार्धन पाकं सम्यक प्रकल्पयेत् ।। तन्द्रादाहसमन्विते च तृपया सम्पीडिते मानवे।। स्वत शीतं समुद्धत्य चक्रिका परिचूर्णयेत् । शुद्ध मीठा तेलिया, स्याह मिर्च, हरताल, स्थापयेत्कूपिकामध्ये वस्त्रेण परिगालितम् ॥ पारद, गन्धक, शुद्र जमाल गोटा, दन्ती मूल रसोऽयं चक्रिकाबन्धस्तत्तद्रोगहरौषधैः । और पीपलका चूर्ण समान भाग लेकर अद्रकके दातव्यःशूलरोगेषु मूले गुल्मे भगन्दरे ॥ रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये। ग्रहण्यामग्निमान्ये च विद्रधी जठरामये। इसे घोर तर १३ प्रकारके सन्निपातों में नागोदरे तथैवोपविटके जलकूर्म के । सन्देनामन्दकृपया त्रैलोक्यत्राण हेतवे । तथा तन्द्रा, दाह, और तृषा युक्त सन्निपातमें उचित चक्रिकाबन्धनामाऽयं प्रसूत स्त्रीगदापहः॥ अनुपानके साथ सेवन कराना चाहिये। गन्धक १ पल ( ५ तोले ), मनसिल और (१८६६) चक्राख्यरसः (र. सा. मं । अर्शक ) हरताल २॥-२॥ तोला, लेकर ३ दिन तक घोट मृतमूताभ्रवैक्रान्त ताम्र कांस्यं समं समम् ।। कर कजली बना लीजिये । अब. इस कज्जलीको सर्वतुल्येन गन्धेन दिनं भल्लातकै वैः ।। सांगके आकारकी मृषा में भरकर उसके मुखपर मईये यत्नतः पश्चावटों कुर्याद्विगुञ्जिकाम् । , २ पल ( १० तोले ) शुद्ध ताम्रका ढक्कन लगाभक्षणाद् गुदजान्हन्ति द्वन्द्वजान्सर्वजानपि। कर सन्धिको गुड़ और चूनेसे अच्छी तरह बन्द पारद भस्म (अभावमें रस सिन्दूर ), अभ्रक कर दीजिये और उस पर कपड़मिट्टी करके सुखा भस्म, वैक्रान्त भस्म, ताम्र भस्म, और कांसी भस्म एक लीजिये, एवं उसे अर्द्ध गजपुटमें फूंक दीजिये । एक भाग तथा सबके समान शुद्ध गन्धक लेकर | स्वांग शीतल होने पर ताम्र चक्रिका ( तांवे के सबको एक दिन पर्यंत भिलावेके काथमें घोटकर ढकन ) को पीसकर कपडेसे छानकर शीशीमें दो दो रत्ती की गोलियां बना लीजिये। भरकर रख लीजिये। इनके सेवनसे द्विदोषज और सन्निपातज इसे शूल. गुल्म, अर्श, भगन्दर, · संग्रहणी, ववासीर नष्ट होती है। | अग्निमांद्य, विद्रधि, उदर रोग, नागोदर ( गर्भ For Private And Personal Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि सम्बन्धी रोग विशेष ), उपविष्टक ( गर्भजन्य चक्रिका चूर्णयेत्पश्चादभयाभृङ्गजैद्रवैः । रोग विशेष ) और जलकूर्म रोगमें, इन रोगोको | दिनैकं भावयेत्तस्मिन् सिद्धश्चक्रेश्वरो रसः ॥ नाश करने वाले अनुपानोके साथ देना चाहिए। द्विगुन भक्षयेन्नित्यं जयेद्वातार्शसां क्षणात् । . ( मात्रा १-२ रत्ती । साधारण अनुपान= सिन्धूत्थं मागधीं वह्नि शुण्ठी तक्रैःपिबेदनु । शहद और अद्रकका रस । बवासीरमें त्रिफला भोजनं स्निग्धमुष्णश्च मर्दनश्च प्रशस्यते । काथके साथ और भगन्दरमें मञ्जिष्ठादि क्वाथके सञ्जाते ह्यतिविष्टम्भे स्नुहीक्षीरेण भावयेद् ॥ साथ देना चाहिए ।) मरिचान्सततं युक्तान्निशायाश्च प्रयोजयेत् । (१८६८) चक्रिका रसः (र. रा. सुं., भै. र, । ज्वरा.) बिडङ्गं त्रिफला व्योपं त्रिन्मूषिकपर्णिका ।। रसं गन्धं विषं चैव धुस्तूरं भरिचं तथा । कम्पिल्लं नलिनीचूर्ण तुल्यं क्षौद्रेण संलिहेत् । शोधितं च तथा तालं माक्षिकश्च समांशकम् ॥ गुडेन सितया वाथ वातरोगाणि वै जयेत् ॥ दन्तीकाथेन सम्भाव्य गुञ्जामात्रा तु चक्रिका। पारद भस्म ( रस सिन्दूर) ४ भाग, गन्धक साध्यासाध्यानिहन्त्याशु सनिपातास्त्रयोदश ।।। और सुहागे की खील ५-५ भाग । सबको शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया, ३ दिन तक सफेद पुनर्नवा ( सांठी ) के रसमें शुद्ध धतूरके. बीज, स्याह मिर्च, शुद्ध हरताल, ! घोटकर गोला बना लीजिये और उसे अन्धमूषा और सोना मक्खी ( भस्म ) समान भाग लेकर में रखकर उसके मुखको रससिन्दूर और गन्धकके पथम पार गन्धककी कजली बना लीजिये बराबर ( ५ भाग) तांवेकी चक्रिका (ढक्कन) पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर से बन्द करके उसके जोड़को शहद और चूनेसे दन्तीमूलके काथमें घोट कर १-१ गुजा (रत्ती) अच्छी तरह बन्द करके उसपर ३-४ कपर मिट्टी की चक्रिका ( टिकया ) बना लीजिए । करके सुखाकर गजपुटमें पकाइये । अथवो गोलेको __यह रस साध्य और असाध्य हर प्रकारके | ९ भाग ताम्रके बने हुवे मूषामें बन्द करके उसे सन्निपाते का नाश करता है । मिट्टीके अन्धमूषामें बन्द करके पुट दीजिए । . ( मात्रा १ रत्ती । अनुपान अद्रकका रस तत्पश्चात् उसे ताम्र सहित पीसकर १-१ और शहद । ) । दिन हरे और भांगरेके रसमें घोटिये । (१८६९) चक्रेश्वरो रसः (१) (र. र.। अर्श.) इसे प्रतिदिन २ रन्तीकी मात्रानुसार खामृतसूतस्य चत्वारि पञ्च गन्धकटङ्कणम् । कर ऊपरसे सेंधा नमक, पीपल, चीता और सेठिका त्रिदिनं मईयेत्सर्व द्रवैः श्वेतपुनर्नवैः॥ चूर्ण मिला हुवा तक पीनेसे वातज बवासीर नष्ट मूषायां गोलकं तन्तु क्षिप्तवा ताम्रस्य चक्रिके। होती है । रसगन्धसमे रुद्धा चान्धमूषापुटे पचेत् ॥ इस औषधके सेवन कालमें स्निग्ध (चिकना) For Private And Personal Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ १९९] और उष्ण भोजन तथा शरीर पर तैल मर्दन में बन्द करके १ दिन — चक्रयन्त्र ' में पकाइये । करना हितकारक है। . । ( स्वांग शीतल होने पर निकाल कर पीस कर ___ यदि अत्यधिक विष्टम्भ ( कब्ज ) हो जाय | रख लीजिए ।) तो स्याह मिर्चीको थोहर ( सेहुंड, सेंड ) के | इसे १ माशेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे दूधमें भिगोकर सुखा लीजिए ओर रात्रिको (१-- ! भयङ्कर श्लीपद रोग नष्ट हो जाता है । २ मिर्च ) रोगीको खिला दिया कीजिए। अनुपानमें खरसार, पद्माख और मुलैठीका __इसके ऊपर बायबिडंग, त्रिफला, सेट, समभाग मिश्रित ८ माशे चूर्ण गोमूत्रके साथ मिर्च, पीपल, निसोत मूषापर्णी, कबीला, और पीना चाहिए । नीलोफर, का चूर्ण समान भाग मिलाकर ( २-३ चक्र यन्त्र विधिः----गजपुटके समान एक माशेकी मात्रानुसार ) शहद, मिश्री या गुडके गढा खोदकर उसके भीतर एक और गढ़ा कोई साथ खिलानेसे वातज रोग नष्ट होते हैं। एक हाथ गहरा और इतना चौड़ा कि जिसमें नोट--अन्तिम पैरे का यह अर्थ करना भी सम्पुट आजाय खोदिये अब इस बीच वाले गढ़े उचित प्रतीत होता है कि विष्टम्भके लिए बायविडं- में थोड़ी गहराईपर लोहे की थाली बिटला दिजिये । गादिका चूर्ण शहद, मिश्री अथवा गुड़में मिला । जालीके नीचे के भागमें अग्नि भर दिजिये कर खाना चाहिए। और जाली पर पुट रखकर उसके ऊपर बार (१८७०) चक्रेश्वरो रसः (२) (र.र. दिली.) | डालकर बीच वाले गढेको भर दीजिए और फिर तानं गन्धं समं मूतं शुद्धं मद्य दिनत्रयम् ।। बड़े गढ़ेमें उपले भरकर आग लगा दीजिए.) मेघनादनागवल्लीपाठापुनर्नवाद्वैः ।। । (१८७१) जायभास्करो रस गोमूत्रैमर्दयेद्गाढं चक्रयन्त्रे दिनं पचेत् । माकं भक्षयेदेतच्छीपदं हन्ति दुस्तरम् ।। (. थो, त. । त. १०५) खदिरं पद्मकाष्ठश्च मधुकश्चाष्टमापकम् । हरवीजामृतं गन्धं प्रत्येक निष्कमेव च । गवां मूत्रैसमं पिष्टवा पिवेच्छीपदशान्तये॥ ! टङ्कणं दशनिष्कन्तु जैपालं विशंतिस्तथा ॥ गर्तादधो भवेद्वह्निमध्यगर्तासं कुरु । सर्व खल्वे विनिक्षिप्य निर्गुण्डीरसमर्दितम् । चक्रयन्त्रमिदं सिद्धं वाद्यगर्ताहत्पुटम् ॥ मुद्गप्रमाणवटिकान्गुडमिश्रन्तु भक्षयेत् ॥ ___ शुद्ध ताम्र, शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारद पाण्डुशोफोदराशश्च गुल्मप्लीहयकृत्कृमीन् । समान भाग लेकर सबको ३-३ दिन तक लाल पुराणज्वरमेहांश्च मूत्रकृच्छाश्मरीत्रणान् ॥ चौलाई की जड़, पान (नागरवेल), पाटा और सर्वव्याधींश्च हरति रसोऽयं चण्डभास्करः।। पुनर्नवा (सांठी )के रस तथा गोमूत्रमें खूब अच्छी पारद, गन्धक, और भीठा तेलिया १.--१ तरह घोट कर गोला बनाइये और उसे सम्पुट निष्क ( ५-५ भाषे ), सुहागे की खील १० For Private And Personal Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२००] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ चकारादि निष्क और जभाल गोटा २० निष्क लेकर सबको (१८७३) चण्डभैरवो रसः खरलमें डालकर संभालुके रसमें धोटकर मंगके (र. र. । उन्मा.) बराबर गोलियां बना लीजिये। हेमपादं मृतं मूतं निष्कं खल्वे विमर्दयेत् । इनमेंसे १-१ गोली गुड़में मिलाकर खि शोभाञ्जनं विषं तुल्यं मर्यश्च त्रिशूलीद्रवैः ।। लानेसे पाण्डु, सूजन, उदररोग, बवासीर, गुल्म, देवदाल्यावैश्चाहि तन्दोलं पाचयेदिनम् । ति ली, जिगर, कृमि, पुराना ज्वर, मेह, मूत्रकृच्छ गन्धकोत्थेन तैलेन तत उद्धृत्य चूर्णयेत् ॥ पथरी, ब्रण (धाव) आदि अनेक रोगांका नाश वल्लै भक्षयेन्नित्यं पिबेद ब्राह्मीघृतं ह्यनु । होता है। सर्वभूतग्रहं हन्ति रसोऽयं चण्डभैरवः॥ (यह रस विरेचक है। बालक, वृद्ध, गर्भिगी ___स्वर्ण भस्म ४ निष्क (२० मासे ), रस और निर्बलको न देना चाहिये । ) सिन्दूर ( पारदभस्म) १ निष्क, सहजनेके बीज (१८७२) चण्डभैरवः (भै. र.; धन्वं.।अपस्मा.) और मीठा तेलिया ५-५ निष्क लेकर १ दिन मृतसूतार्कलौहश्च ताल गन्धं मन शिला। गोखरु और देवदाली ( विन्दाल) के रसमें रसाञ्जनश्च तुल्यांशं गोमूत्रेणापि मर्दयेत् ॥ घोटकर गोला बना लीजिए। इस गोलेको १ तं गोलं द्विगुणं गन्धं लोहपात्रे क्षणं पवेत् । दिन गन्धकके तैल में पकाकर चूर्ण कर लीजिए। पश्चगुञ्जामितं भक्ष्यमपस्मारहरं परम् ॥ इस 'चण्ड भैरव' रसको २-३ रत्तीको हिङ्गसौवर्चलं कुष्ठं गवां मूत्रेण सर्पिषा। | मात्रानुसार " ब्राहगीत" के साथ सेवन करनेसे कर्षमात्रं पिबेच्चानु रसेऽस्मिंश्चण्डभैरवे ।। । सर्व भूत ग्रह नष्ट होते हैं । पारदभस्म (अभावमें रस सिन्दूर), ताम्रभस्म, हरिताल, गन्धक, मनसिल और रसौत बराबर । (१८७४) चण्डभैरवो रस: बराबर लेकर गोमूत्रमें घोटकर गोला बना लीजिए (र. का. धे. । कु. ) और उसके ऊपर नीचे उससे दो गुना गन्धक द्विपलं मूतकं शुद्धं पलमङ्कोलबीजकम् । रखकर लोहेके पात्रमें थोड़ी देर तक (गन्धक जल चत्वारःकान्तभस्मोत्थाःशुद्धगन्धात्पलानिदश ॥ जाने तक) पकाइये। मृताभ्रं मूततुल्यं स्यात् त्रिफलं कृष्णजीरकम् । इसे ५ रतीको मात्रानुसार सेवन करने से सबै भृङ्गद्रवैर्मथै दशाहं खल्वके दृढम् ॥ अपस्मार ( मिर्गी ) रोग नष्ट होता है। तिलतैलन्तु सर्वांशं तैलांशम् भृङ्गजद्रवम् । अनुपान-हींग, सौंचल ( काला नमक ) सर्व मृद्वग्निना पाच्य पिण्डितं स्निग्धभाण्डके।। और कूठका समभाग मिश्रित एक कर्ष (१। सप्ताहं धान्यराशिस्थं समुद्धत्य विनिक्षिपेत् । तोला ) चूर्णं गोमूत्रमें मिलाकर उसमें धृत डाल तुल्यं कृष्णाङ्कलीबीजं तिलपिण्याकसंयुतम् ॥ कर रस खाने के पश्चात् पीना चाहिए। भक्षयेन्निष्कमात्रन्तु रसोऽयं चण्डभैरवः । For Private And Personal Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] बाकुचीवीजपञ्चाङ्गं त्रिफलातुल्यचूर्णकम् ॥ मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्षमनु स्पात्सर्वकुष्ठनुत् । शुद्ध पारा २ पल (१० तोले), अङ्कोल के बीज १ पल, कान्तलोह भस्म ४ पल, शुद्ध गंधक १० पल अभ्रक भस्म २ पल, त्रिफला २ पल, और काला जीरा २ पल लेकर सबको १० दिन तक भांगरे के रस में अच्छी तरह घुटवाइये । तत्पश्चात् सब औषधों के बराबर तिलका तेल और उतना ही भांगरे का रस उसमें मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाइये | जब कठिन हो जाय तो उसका गोला बना कर किसी चिकने पात्रमें बन्द करके अनाजके ढेर में दबा दीजिए। फिर सात दिन पश्चात् उसमें उसके बराबर अंकोलके बीज तथा तिलकी खल मिला लीजिए । इसे प्रति दिन १ निष्क (५ माशे) मात्रा - नुसार सेवन करने से सर्व प्रकार के कुष्ठ नष्टं होते हैं। अनुपान — बावची के बीज या पञ्चाङ्ग और त्रिफला बराबर बराबर लेकर चूर्ण करके औषध खाने के बाद १ कर्ष ( १ | तोला) की मात्रानुसार शहद में मिलाकर चाटना चाहिए । (१८७५) चण्डरुद्ररसः (र. का. घे. । कु.) सर्पाक्षी वेतसो नीली पलाशं काकमाचिका । मुनिपद्रवैस्तेषां द्वित्राणां वा द्रवैर्दिनम् ॥ मर्दयेत्सूतकं गाढं मृत्पात्रे तैर्द्रवैः पचेत् । करीषाग्नौ दिवारात्रं स्वांगशीतं समुद्धरेत् ॥ एतत्तुल्यं शुद्धगन्धं म बाकुचिकाद्रवैः । तद्वजोत्थकषायैर्वा दिनान्ते च वटीकृतम् ॥ चण्डरुद्रो रसो नाम्ना निष्का] चर्चिकापहम् । द्विनिशा खदिरं निम्बमहिपाठाऽमृता कडु || भा० २६ [२०१] देवदाली इन्द्रयवं तुल्यं गोमूत्र पेषितम् । अनुपाने प्रलेपे च हन्ति कुष्ठं विचर्चिकाम् ॥ सर्पाक्षी, बेत, नील, पलाश ( ढाक ) की छाल, काकमाची (मकोय) और अगस्तिके पत्ते । इन सबके अथवा इनमें से २ - ३ वस्तुओं के रसमें १ दिन पारदको खरल कीजिए, तत्पश्चात् इन्हीं ओषधियोंके रसमें उस पारदको मिट्टी के बरतन में १ दिनरात उपलोंकी अग्निपर पकाइये । पश्चात् स्वांगशीतल होने पर निकाल कर उसमें समान भाग शुद्ध गंधक मिलाकर बाबचीके स्वरस या उसके बीजों के काथमें एकदिन घोटकर गोलियां बना लीजिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसे आधा निष्क ( २ || मारोकी) मात्रानुसार सेवन करने से विचर्चिकाका नाश होता है । अनुपान - हल्दी, दारु हल्दी, खैर सार, नीमकी छाल, नागकेशर, पाठा, गिलोय, कुटकी, देवदाली ( बिन्दाल) और इन्द्रयव ( इन्दरजौ) समान भाग लेकर गोमूत्र में पीसकर उपरोक्त ' चण्डरुद्र' रस खानेके पश्चात् पीना चाहिये । इन्ही चीज़ों का कुष्ट और विचर्चिका पर लेप भी करना चाहिए । • ( व्यवहारिक मात्रा २ - ३ रत्ती ।) (१८७६) चण्डसंग्रह गदैककपाटरसः ( र. र. स. । उ. खं. अ. ११; र. रा. सुं. । ग्र.) हिङ्गुल स्थितमहेश्वरवीजं For Private And Personal पातयन्त्रविधिना हरणीयम् । गन्धङ्कणं मृताभ्रकं तुल्यं कोकिलाक्षमथ चाssयसखल्वे ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir AnnnnvAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA.NarvA... [२०२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। चकारादि मर्दनीयमभिधारणयुक्ते उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर एक एक धूमहीनदहनोपरि संस्थे। भावना जम्बीरी नीबूके रस और अगस्तिके रसकी यावदेष जलशोषणदक्षो देकर १-१ वल्ल ( २ या ३ रत्ती की गोलियां . जीरकाकयुतेन स वल्लः ॥ . बना लीजिए। संग्रहज्वरमतिमृतिगुल्मा यह — चण्डाग्नि रस' अग्निको दीम नर्शसां च विनिहन्ति समूहम्। करता है । वासुदेवकथितो रसराजश् __ (अनुपान अद्रकका रस या उष्ण जल । ) चण्डसंग्रहगदैककपाटः॥ (१८७८) चण्डेश्वरो रसः ऊर्व पातन यन्त्र द्वारा निकला हुवा हिंगु- (भै. र.; र. रा. सुं.; वै. क. दु. । ज्वरा. ) लका पारद, शुद् गन्धक, सुहागे की खील, रसं गन्धं विषं तानं मर्दयेदेकयामकम् । अभ्रक भस्म और तालमखाना समान भाग आद्रकस्वरसे नैव मर्दयेत्सप्तवारकम् ॥ लेकर सबको लोहेके खरल में डालकर उसे धूम-निर्गुण्डया:स्वरसे पश्चान्मर्दयेत सप्तवारकम् । रहित अग्निपर रखकर खरल कीजिए । जब खरल गुज्जैकारसेनैव दत्तो हन्ति ज्वरं क्षणात ॥ इतना तप्त हो जाय कि उसमें पानी डालने से वातजं पित्तजं श्लेष्मद्विदोषजमपि क्षणात् । वह सूख जाय तो स्वांग शीतल होने पर औषध सुशीतलजले स्नानं तृषार्थे क्षीरभोजनम् ॥ को निकाल लीजिए । इसे १ वाल (२-३ रत्ती) आम्रञ्च पनसञ्चैव चन्दनागुरुलेपनम् । की मात्रानुसार जीरेके चूर्ण और अद्रकके रसके । एतत्समो रसो नास्ति वैद्यानां हृदयङ्गमः॥ साथ सेवन करनेसे संग्रहणी, ज्वर, अतिसार, गुल्म एष चण्डेश्वरो नाम सर्वज्वरकुलान्तकृत् ॥ और बवासीरका नाश होता है। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया (१८७७) चण्डाग्निरसः (यो. त.। त. २४) और ताम्र भस्म; समान भाग लेकर १ पहर तक शुण्ठीपारदगन्धकामृतपटुश्रीपुष्पसटङ्कणम्। अच्छी तरह खरल कराइये । पश्चात् उसे अद्रक द्विह्निःशंखकपर्दकौ वसुगुणं कृष्णोषणं सद्रसात्॥ और संभालके स्वरसकी पृथक् पृथक् सात सात जम्बीरस्य परिस्रुतं दृढतरं सम्मघ मुन्या प्लवैः। भावना देकर सुरक्षित रखिए । सिद्धे बल्लमितोऽग्निदीप्तिकृदयं चण्डाग्निनामा रसः इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार अद्रकके रसके सोंठ, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा · साथ देने से तत्क्षण उबर नष्ट हो जाता है। यह तेलिया, सेंधा नमक, लौंग, और सुहागा १-१ रस वातज, पित्तज, कफज, द्विदोषज, आदि भाग, शंख और कौड़ी भस्म २-२ भाग, तथा समस्त ज्वरों का नाश करता है। पीपल और स्याह मिर्च ८-८ भाग लेकर प्रथम इसके सेवनसे यदि ताप हो तो शीतल पारे गन्धककी कजली बना लीजिये, तत्पश्चात जलसे स्नान करना चाहिए। प्यासमें दूध पीना For Private And Personal Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२०३] - - - - चाहिए और आम तथा कटहलके फल खाने और क्षय, और विशेषतः हाथ, शिर तथा शरीरका चन्दन तथा अगरका शरीरपर लेप करना चाहिए। कांपना आदि रोग नष्ट होते हैं। (१८७९) चतुर्भुजरसः जो वातज, पित्तज, या कफज रोग अन्य (र. सा. सं.; र. चं.; धन्वं.; र. रा. मुं. । उन्मा.) | सब औषधों, पञ्च कर्म, या मन्त्रादिसे भी शान्त | नहीं होते वह सब इससे अवश्य नष्ट हो जाते हैं। मृतसूतस्य भागो द्वौ भागैकंहेम भस्मकम् ।। इस “चतुर्भुज" रसका आविष्कार श्रीमहेश शिला कस्तूरिका तालं प्रत्येकं हेमतुल्यकम् ।। ने किया है। सर्व खल्लतले क्षिप्वा कन्यया मईयेद्दिनम् । | (१८८०) चतुर्मुखो रसः (१) एरण्डपत्रैरावेष्ट्य धान्यगर्भे दिनत्रयम् ॥ (र. सा. सं.; र. रा. सुं.; र. चं. । मुख.). संस्थाप्य च तदुद्धत्य सर्वरोगेषु योजयेत् ।। मृतं सूतं मृतं स्वर्ण द्वाभ्यां तुल्यां मनःशिलाम्। एतद्रसायनवरं त्रिफलामधुमर्दितम् ॥ विमर्दयेच्च तैलेन चातसीसम्भवेन च ॥ तद्यथाग्निबलं खादेवलीपलितनाशनम् । तद्गोलं वस्त्रतो वद्धवा लेपयेच्च समन्ततः। अपस्मारे ज्वरे कासे शोषे मन्दानले क्षये ॥ अतसीफलकल्केन दोलायन्त्रे व्यहं पचेत् ॥ हस्तकम्पे शिरःकम्पे गात्रकम्पे विशेषतः। उद्धत्य धारयेद्वक्ते जिह्वादन्तास्थरोगनुत् ॥ वातपित्तसमुत्थांश्च कफजान्नाशयेवुवम् ॥ पारद भस्म (अभावसे रस सिन्दूर) और स्वर्ण सर्वोपधिप्रयोगैर्ये व्याधयो न प्रसाधिताः। | भस्म १-१ भाग तथा शुद्ध मनसिल २ भाग लेकर कर्मभिः पञ्चभिश्चैव मन्त्रौषधिप्रयोगतः॥ सबको अलसीके तेलमें धोटकर गोला बना लीजिए सर्वीस्तान्नाशयत्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा। | और उसे कपड़ेमें लपेट कर उसके ऊपर अलसीका " चतुर्भुजरसो" नाम महेशेन प्रकाशितः॥ कल्क लपेट कर उसे ३ दिन तक दोला यन्त्र पारद भस्म (अभावमें रस सिन्दूर) २ भाग, विधिसे अलसीके तैलमें पकाइये। पश्चात् स्वांग तथा स्वर्ण भस्म, मनसिल, कस्तूरी और हरताल शीतल होने पर औषधको निकालकर पीसकर भस्म, १-१ भाग लेकर सबको घृतकुमारीके | गोलियां बना लीजिए। रसमें १ दिन घोटकर गोला बनाकर उसे अरण्डके इन गोलियोंको मुंहमें रखनेसे जिह्वा, दांत पत्तोंमें लपेट कर अनाजके ढेरमें दबा दीजिए और और मुखरोगों का नाश होता है। तीन दिन पश्चात् निकालकर चूर्ण कर लीजिए। (१८८१) चतुर्मुखो रसः (२) इसे अग्निबलोचित मात्रानुसार त्रिफलेके चूर्ण (चिन्तामणि चतुर्मुखः) और शहदके साथ सेवन करनेसे, वलि (चेहरे । (र. चिं. म. । स्त. ११; भै. र.; र. चं.; र. सा. आदि की झुर्रियां), पलित (बाल सफेद होना), सं.; धन्वं.; र. रा. सु. । वातव्या.; रसें. चि. म. । अपस्मार (मिर्गी), ज्वर, खांसी, शोष, अग्निमांद्य, अ. ८; र. का. धे ; आ. वे. प्र. अ. १) For Private And Personal Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२०४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvnAnnwwwwwwwwwwww रसगन्धकलौहाभ्रं समं मृतांघ्रि हेम च। स्मार, उन्माद, सब तरहकी बवासीर, त्वगोग, सर्व खल्लतले क्षिप्त्वा कन्यास्वरसमर्दितम् ॥ आदि नष्ट होते हैं। त्रिफलातुलसीब्राह्मीरसैश्चानु मर्दयेत् ।। यह पौष्टिक, आयुवर्द्धक और स्त्रियों के लिए एरण्डपत्रैरावेष्टय धान्यराशौ दिनत्रयम् ॥ | सन्तानदाता है। संस्थाप्य च तदुद्धृत्य सर्वरोगेषु योजयेत् । नोट-भैषज्य रत्नावलीमें कथित चिन्तामणि एतद्रसायनवरं त्रिफलामधुयोजितम् ॥ चतुर्मखरस भी लगभग इसके समान ही है परन्तु तद्यथानिवलं खादेवलीपलितनाशनम् ।। उसमें रससिन्दूर १ भाग, लौह तथा अभ्रक आधा क्षयमेकादशविधं पाण्डुरोगं प्रमेहकम् ॥ आधा भाग और स्वर्ण १ भाग है तथा गन्धक नहीं है। कासं शूलश्च मन्दाग्निं हिकाञ्चवाम्लपित्तकम् । (१८८२) चतुर्मूर्तिरसः (यो. र. । ग्रह.) व्रणान्सर्वानाढयवातं विसर्प विद्रधिं तथा ॥ | सूतकं गन्धकं लौहं विषं चित्रकपत्रकम् । विदारी रेणुका मुस्ता एला ग्रन्थिककेशरम् ॥ अपस्मारं महोन्मादं सीसि त्वगामयान् । फलं त्रयं त्रिकटुकं शुल्बभस्म तथैव च । क्रमेण शीलितं हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। पौष्टिकं धन्यमायुष्यं स्त्रीणां प्रसवकारणम् । ग्रहण्यां पाण्डुरोगे च दातव्यं मधुना सह । चतुर्मुखेन देवेन कृष्णात्रेयस्य सूचितम् ॥ अतिसारे क्षये कासे प्रमेहे विषमज्वरे ॥ शुद्ध पारा, शुद्र गन्धक, लोहभस्म और नानानुपानैर्दातव्यश्चतुर्मूर्ती रसोत्तमः ।। अभ्रक भस्म ४-४ भाग तथा स्वर्ण भस्म १ भाग पारा, गन्धक, लोहभस्म, शुद्ध मीठा तेलिया, लेकर कजली बनाकर उसे १-१ दिन घृतकुमारी चीता, तेजपात, विदारीकन्द, रेणुका, मोथा,इलायची, के रस तथा त्रिफला-काथ और तुलसी एवं ब्राह्मी पीपलामूल, नागकेशर (अथवा केशर), हर्र, बहेड़ा, के. रसमें घोट कर गोला बना लीजिए। इस गोले आमला, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) और ताम्र को अरण्डके पत्तोंमें लपेट कर अनाजके ढेर में दबा भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी दीजिए, और ३ दिन पश्चात् निकालकर चूर्ण कजली बना लीजिए तत्पश्चात् भस्म और अन्य करके समस्त रोगोंमें व्यवहार कीजिए । ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर खरल करके रखिए । इसे त्रिफला चूर्ण और शहदके साथ सेवन इसे संग्रहणी और पाण्डुरोगमें शहदके साथ करनेसे वली (शरीरकी झुरिय) पलित (बाल सफेद तथा अतिसार, क्षय, कास (खांसी), प्रमेह और हो जाना), ग्यारह प्रकारके क्षय, पाण्डु, प्रमेह, | विषम ज्वरमें रोगोचित अनुपानों के साथ व्यवहार खांसी, शूल, मन्दाग्नि, हिचकी, अम्लपित्त, सर्व | करना चाहिए । प्रकारके व्रण, आढयवात, विसर्प, विद्रधि, अप- | (मात्रा आधेसे १ माशे तक) १ सूतांशमिति रसकामधेनौ । - किसी किसी ग्रन्थमें “ त्रिफला...मईयेत्” इस श्लोकार्द्धका अभाव है। For Private And Personal Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २०५]. vvvvvvvv.amru vurunnnyvvvvvvvvvvvv (१८८३) चतुः समलौहम् ___ इसे घी और शहदमें मिलाकर १ माशेकी (भै. र.; वं. से.; र. चं.; र. सा. सं.; धन्वं; र. रा. मात्रासे आरम्भ करके सेवन करना चाहिए । औषध मुं; र. र., यो. र.: र. का. धे.; वृ. नि. र.। खानेके पश्चात् दूध, नारयलका पानी, और अन्य शूल; रसें. चि. म.।अ. ९; वृ. यो. त. । त. ९५) पदार्थ जो रसायन विरुद्ध न हो सेवन करने अभ्रं गन्धं रसं लौहं प्रत्येकं संस्कृतम् पलम्। चाहिएं। सर्वमेतत्समाहृत्य यत्नतः कुशलो भिषक् ॥ __इसके सेवनसे हृदयका शूल, पसली शूल, आज्ये पलद्वादशके दुग्धे वत्सरसंख्यके । । यकृत्काशूल, प्लीहा (तिल्ली) का शूल, आमवात, पक्त्वा क्षिपेत्तत्र चूर्ण सुपूतं घनवाससा॥ कमरका बेकार हो जाना, गुल्मकी पीड़ा, शिरशूल, विडङ्गत्रिफलावहित्रिकटूनां तथैव च । अग्निमांध, क्षय, कुष्ट, खांसी, श्वास, विचर्चिका, पिष्ट्वा पलोन्मितानेतांस्तथासंमिश्रतान्नयेत॥ पथरी और मूत्रकृच्छू रोग नष्ट होता है । तत्तु पिष्टं शुभे भाण्डे स्थापयेत्तु विचक्षणः। (१८८४) चतुःसुधारसः आत्मनःशोभने चाहि पूजयित्वा रवि गुरुम् ॥ (र. र. स. । उ. खं. अ. २१; र. रा. सुं. । वात.) घृतेन मधुना मर्य भक्षयेन्माषकावधि । समभागे शुभे हेम्नि नियंदं ताप्यमुत्तमम् । क्रमेण वर्द्धयेत्तच्च समाहितमनाःसदा॥ शतधा शतधा रौप्ये शुल्वे च शतवारकम् ॥ अनुपानश्च दुग्धेन नारिकेलोदकेन वा।। इत्थं सिद्धमिदं बीजं पृथगक्षप्रमाणतः । रसायनाविरुद्धानि चान्यान्यपि च कारयेत्॥ समावर्त्य तदेकत्र रसे पञ्चपलात्मके ॥ हृच्छूलपार्श्वशुलश्चाप्यामवातं कटिग्रहम् ।। वक्ष्यमाणप्रकारेण जारयेदतियत्नतः । गुल्मशूलं शिरःशूलं यकृतप्लीहानमेव च ॥ तप्ते खल्वे रसं दत्वा बीजं निष्कमितं तथा ॥ अनिमान्नं क्षयं कुष्ठं कासं वासं विचर्चिकाम्। मर्दयेदतियत्नेन भवेद्यावदिनत्रयम् । अश्मरी मूत्रकृच्छूश्च योगेनानेन साधयेत् ॥ पूर्वोक्तकच्छपे यन्त्रे वक्ष्यमाणबिडान्विते ॥ ___ अभ्रक भस्म, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और वक्ष्यमाणप्रकारेण बीजमेवमशेषतः। लोह भस्म १-१ पल (५-५ तोले) लेकर कजली बलिकासीसकव्योमकांक्षी सौवर्चलैः समैः।। करके उसे १२ पल धृत और ६० पल दूधमें चक्राङ्गीरससंभिन्नैः शतधा विडमत्र तत् । पका कर (गाढ़ा होने पर) उसमें निम्न लिखित एवं जारितमूतेन पलमात्रेण तावता ॥ ओषधियोंका मोटे कपड़ेसे छना हुवा महीन चूर्ण गन्धकेन च कर्तव्या मुस्निग्धा वरकज्जली । अच्छी तरह मिला दीजिए-बाय बिड़ङ्ग, हर्र, बहेड़ा | लोहपात्रे घृतोपेतां द्रावयेत्तान्तु कज्जलीम् ॥ आमला, चीता, और त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) तुल्यसत्वाभ्रभसितं क्षिप्त्वा संमिश्य सर्वशः। प्रत्येकका चूर्ण १ पल (५ तोले) । | रम्भापत्रे विनिक्षिप्य कुर्यान्पर्पटिकां शुभाम् ।। For Private And Personal Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दीजिए [ २०६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [चकारादि विचूर्य पर्पटीं सम्यग्वैक्रान्तस्त्रिंशदंशतः। । (३) उपरोक्त तीनों बीजोंको १-१ कर्ष निक्षिप्य हिजतोयेन शतधा परिभावितम् ॥ । (१।-१। तोला) लेकर एकत्र खरल कर लीजिए। निरुध्य मल्लमूषायां स्वेदयेदतियत्नतः। (४) गन्धक, कसीस, अभ्रक, फिटकी और पुनः संचूर्ण्य यत्नेन करण्डे विनिवेशयेत् ॥ । सौवर्चल (संचल) नमक बराबर बराबर लेकर एकत्र हन्यात्सर्वमरुद्दान्क्षयगदं पाण्डं च नष्ठाग्निताम्। करके उसे कुटकी के क्वाथकी १०० भावनाएं निर्वीर्यत्वमरोचकं त्वजरणं शूलञ्च गुल्मादिकम् वा अष्टौचैव महागदानतितरां व्याधि सशोषं क्षणा-. (५) अब एक लोहेके खरलको निधूम अग्नि - पर रखकर उसमें ५ पल (२५ तोले) पारा और द्भुक्तो मुद्गमितश्चतुःसुधारसःस्वस्थोचितोभूभुजाम् १ निष्क (३।।। माशे) उपरोक्त (नं. ३ में कथित) मलकं वर्जयेदस्मिन् रसे नान्यत्तु किश्चनः। बीजों के मिश्रण को डालकर तीन दिन तक त्रिबारमेकवारेण बुभुक्षां जनयेध्रुवम् ॥ घोटिए और फिर इसमें समान भाग उपरोक्त (१) शुद्ध स्वर्णमें समान भाग स्वर्णमाक्षिक नं. ४ में कथित मिश्रण मिलाकर अच्छी तरह मिलाकर, मूषा में बन्द करके तीब्राग्निमें धमाइये, । घोटिए। जब पारद और वह गन्धकादिका मिश्रण जब स्वर्ण माक्षिक शेष न रहे तो मूषाके ठण्डा भली भांति मिल जाय तो इस सबको कच्छप हो जाने पर स्वर्णको निकाल कर उसमें उतनी यन्त्रमें भरकर धातु बीजका जारण कीजिए, और ही स्वर्ण माक्षिक फिर मिलाकर, मूषामें बन्द फिर पारदको निकालकर उसमें वही ( नं. ३ में करके स्वर्ण माक्षिक अशेष होने तक तीब्राग्नि में कथित धातुबीजोंका मिश्रण १ निष्क मिलाकर धमाइये. इसी प्रकार स्वर्णमें १०० बार स्वर्ण ३ दिन तक लोहे के खरल में अग्नि के ऊपर माक्षिक जीर्ण करने से " स्वर्ण बीज" तैयार हो | घोटिए तत्पश्चात् उसमें समान भाग नं. ४ का जाता है, उसे, निकाल कर सुरक्षित रखिए। मिश्रण मिलाकर भली भांति घोटकर कच्छप यन्त्र । (२) इसी प्रकार चांदीमें समान भाग स्वर्ण में जारण कीजिए। माक्षिक १०० बार जीर्ण करके "रौप्य बीज" इस प्रकार १२ बार यही क्रिया करनेसे और वैसे ही ताम्र में स्वर्णमाक्षिक १०० वार समस्त धातु बीज पारदमें जीर्ण होकर " जारित जीर्ण करके ताम्रबीज तैयार कर लीजिए। . ! पारद" तैयार हो जायगा । १ एक बड़े बरतनमें पानी भर कर उसमें मिट्टीका अच्छा बड़ा कुण्डा रखिए । पानी इस कुण्डे के किनारों तक रहना चाहेए । अब धातु बीज मिश्रित पारदको एक मूषामें बन्द करके मूषाको सुखा कर उसे उपरोक्त कुण्डेमें रखिए और उस पर एक लोहेकी कटोरी ढककर जोड़को अच्छी तरह बन्द कर दीजिए। इसके बाद मूषाके चारों ओर खैरके कोयले भर कर सिलगा दीजिए । ( इसीका नाम कच्छप यन्त्र है।) For Private And Personal Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 'रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२०७] अब यह जारितपारद १ पल (५ तोले ) सेवन करनेसे राजाओंका स्वास्थ्य स्थिर रहता है। और शुद्ध गन्धक १ पल लेकर खूब चिक्कण | इसकी एक मात्रा सेवन करनेसे ३ बार भूख कजली तैयार कीजिए। फिर एक लोहे की लगती है। . कढ़ाई में घी चुपड़कर उसमें यह कजली डालकर मन्दाग्नि पर पिघलाइये और उसमें २ पल अभ्रक इसके सेवन कालमें केवल मूली न खानी सत्व की भस्म मिलाकर यथाविधि *पर्पटी बना | चाहिए, अन्य किसी प्रकारके परहेजकी आवश्यक्ता लीजिए। | नहीं है। अब इस पर्पटीको पीस कर इसमें तीसवां १८८५) चन्द्रकलारसः भाग वैक्रान्त भस्म मिलाकर उसे हींगके पानीकी । (वृ. नि. र. । मूत्रकृ.-दा.; र. र. स. । उ. खं. १०० भावनाएं दीजिए । और फिर उसे मल्ल | अ. १३; यो. र. । दाह; र. चं. । र. पि.; मूषा में बन्द करके स्वेदन कीजिए, और स्वांग र. रा. सुं. । दाह.) शीतल होने पर निकाल कर पीस कर शीशीमें प्रत्येक तोलमादाय सतं तानं तथाभ्रकम् । भर लीजिए । इसका नाम “चतु:सुधा" रस है। द्विगुणं गन्धकश्चैव कृत्वा कजलिकां शुभाम् ॥ इसके सेवनसे वायु के समस्त रोग, क्षय, | मुस्तादाडिमर्वोत्थैः केतकीस्तनजवैः। पाण्डु, अग्निमांध, वीर्यहीनता, अरुचि, बदहजमी, सहदेव्या कुमार्याश्च पर्पटस्थापि वारिणा । शूल, गुल्म, आठों महा व्याधियां, और शोष रोग | रामशीतलिकातोयैः शतावर्यारसेन च । नष्ट होता है। इसे मंगके बराबर मात्रानुसार | भावयित्वा प्रयत्नेन दिवसे दिवसे पृथक् ॥ ____* साफ़ ज़मीन पर गाय का गोबर. ४-५ अंगुल मोटा फैलाकर उस पर केलेका पत्ता फैला दीजिए और फिर उस पर पिघली हुई कजली डालकर उसके ऊपर दूसरा पत्ता रख कर उसे गोचरसे दबा दीजिए । जग देर बाद गोबर को हटा दीजिए, तो पर्पटी तैयार मिलेगी। अथवा थोड़े कड़े गोबर को केलेके पत्ते में लपेट कर गोल बेलन सा बना लीजिए और उससे उस पिघली हुई कजली को फुरती के साथ रोटी बेलनेकी भांति बेल दीजिए। १ रस रत्न समुच्चयमें इस प्रथम श्लोकके स्थानमें निम्न पाठ है-- प्रत्येकं तोलमानेन सूतकं ताम्रभस्मकम् । दिनानि त्रीणि गुटिकां कृत्वा चानौ विनिक्षिपेत् ॥ ततःशुष्कं समादाय पुनरेव च मईयेत् । समस्तैः समगन्धैश्च कृत्वा कज्जलिकाञ्च तैः ।। For Private And Personal Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि तिक्ता गुडूचिकासत्वं पर्पटीशीरमाधवी'। यह " चन्द्रकला " रस समस्त पित्तज और श्रीखण्ड सारिवा चैषां समानं सूक्ष्मचूर्णितम् ॥ वात पित्तजरोगों का नाश करता है। तथा आन्तद्राक्षादिककषायेण सप्तधा परिभावयेत्। रिक और बाह्य दाह शान्त करता है । ग्रीष्म ऋतु ततो धान्याश्रयं कृत्वा वटयः कार्याश्चणोपमाः।। (ज्येष्ठ, अषाढ़ ) और शरद् ऋतु ( आश्विन, अयं चन्द्रकलानाम्ना रसेन्द्रः परिकीर्तितः। । कार्तिक ) में विशेष उपयोगी है। सर्वपित्तगदध्वंसी वातपित्तगदापहः॥ यह रस घोर सन्ताप, ज्वर, भ्रम, मूर्छा, अन्तर्बाह्यमहादाहविध्वंसनमहाक्षमः । स्त्रियोंको अधिक रक्तस्राव होना, उर्ध्व रक्तपित्त, ग्रीष्मकाले शरत्काले विशेषेण प्रशस्यते॥ अधो रक्तपित्त विशेषतः रक्तकी वमन और समस्त कुरुते नानिमान्नं च महातापज्वरं हरेत् ।। प्रकारके मूत्र कृच्छोंका नाश करता है। भ्रमं मूछी हरत्याशु स्त्रीणां रक्तं महातिम्॥ इसके सेवनसे अग्निमांद्य नहीं होता। ऊर्ध्वाधोरक्तपित्तं च रक्तवाति विशेषतः ।। (मात्रा १ से ४ गोली तक पित्त पापड़ेके मूत्रकृच्छ्राणि सर्वाणि नाशयेन्नात्र संशयः ॥ | रस या शरबत नीलोफरके साथ खाएं ।) (१८८६) चन्द्रकलावटी ( रसः ) ___ शुद्ध पारा, 'ताम्रभस्म और अभ्रक भस्म | (वृ. नि. र.; यो. र.। प्रमे.; यो. चिःम. । गुटिका.; १-१ तोला, शुद्ध गन्धक ६ तो. लेकर सबकी . र. का. धे०) कजली बनाकर उसे १-१ दिन मोथा, दाडिम, एला सकपरशिला सधात्री दूर्वा, केतकी की कली, सहदेवी, घृतकुमारी, पित्त जातीफलं गोक्षुरशाल्मली च । पापड़ा रामशीतला (महाराष्ट्र देशमें 'आराम शीली' सूतेन्द्रवङ्गायसभस्म सर्वनामसे प्रसिद्ध सुगन्धित शाक) और शतावर के __मेतत्समानं परिभावयेच ।। रस पृथक् पृथक् १-१ दिन घोट कर उसमें गुडूचिकाशाल्मलिकाकषायैकुटकी, गिलोयका सत, पित्त पापड़ा, खस, माधवी निष्काधमाना मधुना ततश्च । लता, सफेद चन्दन और सारिवाका समान भाग बद्धा वटी चन्द्रकलेति संज्ञा मिश्रित चूर्ण सबके बराबर मिलाकर द्राक्षादि गण सर्वप्रमेहेषु नियोजयेत्ताम् ॥ की औषधोंके क्वाथकी सात भावनाएं दीजिए। इलायची, कपूर, मनसिल (पक्षान्तरमें मिश्री) और उसका गोला बनाकर ( पत्तोंमें लपेटकर ) आमला, जायफल, गोखरु, संभलकी छाल, रस अनाजके ढेरमें दबा दीजिए। सिन्दूर, बङ्गभस्म और लोहभस्म, बराबर बराबर फिर (सात दिन पश्चात्) निकालकर पीस लेकर महीन चूर्ण करके गिलोय और सेंभलकी कर चनेके बराबर गोलियां बना लीजिए। छालके काथमें घोटकर शहदके साथ २-२ माषे २ मागधीत रसरत्न समुच्चये। ३ श्रृङ्गाटकमिति पाठान्तरम् ॥ ४ द्राक्षाफलेतिपाठान्तरम् । ५ द्राक्षादिगण- द्राक्षा, दाडिम, केला, ताडकाफल, बेलगिरी, जामन, आम | ६ सिता, ७ केसर । For Private And Personal Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] . द्वितीयो भागः। [ २०९] की गोलियां बना लीजिए । इन्हें सर्व प्रकार के अथवा बाबची के कल्क युक्त करञ्जबीज के तैल के प्रमेह रोगों में सेवन कराना चाहिए। साथ सेवन करना चाहिए। (व्यवहारिक मात्रा ४-६ रत्ती) (१८८७) चन्द्रकान्तरसः (१) (१८८८) चन्द्रकान्तरसः (२) (र. सा. सं.; र. का.धे. । कुष्ठ; रसें. चि. म.। अ. ९)/ (र. सा. सं., र. रा. सुं. र. चं. । शिरो.) पलत्रयं मृतं तानं सूतमेकं द्वि गन्धकम् । मृतसताभ्र तीक्ष्णं तानं गन्धं समं समम् । त्रिकटुत्रिफलाचूर्ण प्रत्येकञ्च पलं पलम् ॥ स्नुहीशीरैदिनं मर्य भक्षयेन्माषमात्रकम् ॥ निर्गुण्ड्याश्चादकद्रावैर्वहिद्रावैविमर्दयेत् । मधुना मर्दित सेव्यं लोहपात्रे दिने दिने । दिनैकं तद्विशोप्याथ तुषाग्नौ स्वेदयेदिनम् ॥ सप्ताहात्सूर्यव दीग्छिरोरोगान्विनाशयेत् ।। समुदत्य विचूाथ वागुजीतैलमर्दितम् ।। पारद भस्म (अभावमें रस सिन्दूर ), अभ्रक त्रिदिनं भावयेत्तेन निष्फै भक्षयेत्सदा॥ भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, ताम्र भस्म और शुद्ध चन्द्रकान्तरसो नान्ना कुष्ठं हन्ति न संशयः । गन्धक समान भाग लेकर सबको १ दिन स्नुही तैलं करञ्जबीजोत्थं वहिसैन्धवगन्धः ॥ (सेहुंड-सेंड) के दूधमें घोटिए । अनुपानं प्रकर्तव्यं कल्कं वा वागुजीभवम् ॥ इसे १ माशेकी मात्रानुसार लोहपात्रमें शहद में मिलाकर सेवन करनेसे १ सप्ताहमें सूर्यावर्तादि ताम्रभस्म, ३ पल ( १५ तो०), पारा १ शिरोरोग नष्ट हो जाते हैं। पल, गन्धक २ पल त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च पीपल,) (व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती) हर्र, बहेडा और आमला १-१ पल लेकर प्रथम (१८८९) चन्द्रप्रभारसः पारे गन्धक की कजली बना लीजिए फिर अन्य - (भै. र. । क्षु.; आ. वे. वि. । अ. ८१) पदार्थीका महीन चूर्ण मिलाकर १-१ दिन संभाल, चन्द्रप्रभां तुगाक्षीरी सैन्धवञ्च शिलाजतु । अद्रक और चीते के काथमें घोट कर सुखाइये कौशिकञ्चाक्षमानन्तु हेमारं रौप्यमभ्रकम् ॥ फिर उसे मूषामें बन्द करके १ दिन तुषाग्नि में माक्षिकं शाणमात्रश्च मधुना परिमर्दयेत् । स्वेदित कीजिए तत्पश्चात् मूषामें से औषध को ततो द्विवल्लमानेन वटिकाःपरिकल्पयेत्।। निकाल कर ३ दिन तक बाबची के तेल में घोट अनुपानविशेषेण योजितोऽयं महारसः।। कर रखिए। सर्वान् क्षुद्रगदान हन्ति प्रमेहानपि दुस्तरान् ।। इस " चन्द्रकान्त " रस को १ निष्क (५ । वातव्याधीनशेषांश्च पित्तजान् कफसम्भवान्। माशे की) मात्रानुसार सेवन करनेसे कुष्ठ अवश्य चिरप्रणष्टमनिश्च दीपयेज्जनयेद् बलम् ॥ नष्ट होता है। कचूर ( अथवा बावची ), बंसलोचन, सेंधाइस रसको चीता, सेंधा और गन्धक के चूर्ण नमक, शिलाजीत, और शुद्ध गूगल, एक एक कर्ष भा० २७ For Private And Personal Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Vvvvvvvvvvvvvvvv [२१०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि (११-१। तोला) और स्वर्ण भस्म, पीतल भस्म, (कमर-गूपर भेइ) की छालको पानी में घिसकर चांदी भस्म तथा अभ्रक भस्म एवं स्वर्ण माक्षिक ! पिएं और तक उक्त आहार खाएं। भस्म १-१ शाण (५ माशे) लेकर शहदमें धोट (१८९१) चन्द्रप्रभा वटी (२) (र.का,धे.। कुष्ठ) कर २-२ वल्ल (४-६) रत्तोकी गोलियां बना शुद्धम्तारिमरिचं नूतात्विगुणगन्धकम् । लीजिए। काकोदुम्बरिकामोर्वाकुच्या वा कपाः ॥ इन्हें पृथक् पृथक् रोगोचित अनुपानों के साथ दिनं मप्रै वटों कुर्यादामात्रां मधुप्लुताम् । सेवन कराने से समस्त नुरोग, प्रमेह, वातव्याधि खादेचन्द्रप्रभा पां पामां हन्ति महावृतम् ॥ कफज और पित्तज रोग, नष्ट होते और बहुत शुद्र पारद, चीता, और मिर्च १-१ भाग समय की नष्ट अग्नि दीप्त होती है। तथा गन्धक ३ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी (१८९०) चन्द्रप्रभा वटी (१) (र.का.धे.। कट.) कजली बना लीजिए और अन्य ओपदियों का चूर्ण मिलाकर १ दिन काकोदुम्बर (कठूमर-गूलरभेद) शुद्धमूतं द्विधा गन्धं म निम्बुमयूरयोः। । के दूध या बावची के कायमें घोटकर १-१ कर्ष द्वाभ्यां दृढं सगोमूत्रैदिनकं वाकुचीद्रवैः॥ २तोडे) की गोलियां बना लीजिए । प्रतिदिन मुस्तापिण्डे विनिक्षिप्य तं रुध्वा भूधरे पवेत्।। १-१ गोली शहद में मिलाकर खानेसे पामा पत्वोद्धतन्तु तचूर्ण चूर्णाच्छतगुगं क्षिपेत् ।। । (वुजली भेइ) अत्यन्त शीत्र नष्ट हो जाती है। चुणितं वाकुचीबीजं गोमूत्रैमईये दिनम् । (व्यवहारिक मात्रा १-१ माशा ।) द्विनिष्कां वटिकां खादेच्छित्रकुष्ठीवनाशिनाम् (१८९२) चन्द्रप्रभा वटी (३) ख्याता 'चन्द्रप्रभा ह्येषा कुर्यात्तक्रण भोजनम्।। म्। (र. रा. सुं. र. चं.; र. का. धे.; यो. र.। अति; काष्टोदुम्बरिकामूलं जलघुटं पिवेदनु ॥ . वृ. यो. त. । त. ६५: र. मं. । अ. ६) शुद्ध पारा १ भाग और गन्धक २ भाग मां मतमा चाळं मृतं स्वर्ण समं समम् । लेकर दोनोंकी कजली करके उसे नींबूके रस, तीच ख.दिरं सारं तथा मोचरसंक्षिपेत् ॥ चिरचिटे और बावचीके काथ तथा गोमूत्रमें एक द्रव शाल्मलिल त्यैदियेत्पहरद्वयम् । एक दिन भली भांति घोटकर नागरमोथेकी लुगदीमें चगाभा वटोख.देत्रिी जीरो सह ।। रखकर भूधर यन्त्रमे पकाइये; त पचात् उसमें त्रिदोत्यमते सारं सज्य नाशयेदधाम् ।। इससे १०० गुना बाबचीका चूर्ण मिलाकर १ पारद भस्म (अभाव में रस सि दूर), अभ्रक दिन गोमूत्रमें घोटकर २-२ निष्क ( १० माशे) भस्म, और वर्ण भस्म १-१ भाद्र तथा खैर तार की गोलियां बना लीजिए। (क था) और मो वरसका पूर्ण ३-३ भाग लेकर - इसके सेवनसे श्वेत कुष्ठ नष्ट होता है। सबको २ पहर तक संभलकी जड़के रसमें घोटकर से. वि.---गोली खाकर ऊपरसे काकोदुम्बर। चनेके बराबर गोलियां बना लीजिए। For Private And Personal Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [ २११] १ निष्क ( ५ माशे ) जीरके चूर्णके साथ | (१८९४) चन्द्ररुद्रो रसः (र. रा. सुं. । कुष्ठ.) प्रतिदिन १-१ गोली (शहद में मिलाकर) खाने से त्रिदोषज रातिसार नष्ट होता है । (१८९३) चन्द्रप्रभा वटी (४) (र. रा. सुं.; धन्वं; र. सा. सं. । प्रमे.; रसें. चि. म. । अ. ९ ) एकवीरा शंखपुष्पी गोजिह्वा हरिणी खुरी । विष्णुक्रान्ता कण्टकारी जीवन्ति क्षीरी सारिवा ॥ मेघनादो देवदारू ब्राह्मी वीरा तु दन्तिका । ( अग्रे चण्डरुद्ररसवत् ) मृतमृताभ्रकं लौह नागं व समं समम् । एलाबीजं लवङ्गञ्च जातीकोषफलन्तथा ॥ मधूकं मधुयष्टिश्च धात्री दाडिमशीरा । कर्पूरं खादिरं सारं शताह्वा कण्ट हारिका ॥ अम्लवेतसकं तुल्यं दिनैकं लाङ्गलीद्रवैः । भावन्नेषदुग्धेन नागवल्ला रसैर्दिनम् ॥ टिका वदरास्थ्यमा कार्या चन्द्रमा परा । भक्षयेद्वटिकामेकां सर्व मेहकुलान्तिकाम् ॥ धात्रीपटोलपत्रं वा कषायं वा मृतायुतम् । क्षौद्रं भक्षयेचा सर्वप्रशान्तये ॥ पारद भस्म(अभात्रमें रस सिन्दूर), अभ्रक भस्म, लोह भस्म, सीसा भस्म, बङ्गभस्म, इलायची के बीज, लौंग, जावित्री, जायफल, महुवा, रलैी, आमला, अनारदाना, मिश्री, कपूर, खैरसार, सौंफ, कटैली और अम्लवेतका चूर्ण समान भाग लेकर सबको लाङ्गली (कलिहारी) के रस, भेड़के दूध और पान के रसमें १-१ दिन पर्यन्त घोटकर बेरकी गुठली के समान गोलियां बना लीजिए । प्रतिदिन आमले के रस, पटोपत्रके काथ अथवा गिलोयके काथ में शहद मिलाकर उसके साथ १-१ गोली सेवन करनेसे सर्व प्रकार के प्रवेश नष्ट होते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सं. १८७५ ' चण्डरुद्र' रसमें पारे को जिन चीज़ों में घोटने के लिए लिखा है यदि उनके अतिरिक्त निम्न ओषधियों में भी घोटा जाय तो उसी रसका नाम 44 चन्द्ररुद्र " रस हो जाता है । ककोड़ा, शंखपुष्पी, गोजिया शाक, हरिनखुरी, विष्णुक्रान्ता, कटेली, जीवन्ति, क्षीरकाकोली, सारिवा, चौलाई, देवदारु, ब्राह्मी, शतावर और दन्तीमूल । (१८९५) चन्द्रशेखरो रसः (र. का. धे. । कुष्ठ.) शुद्ध द्विधा गन्धं सर्पाक्षी शङ्खपुष्पिका । गोजिह्वा क्षीरिणी नीली पलाशञ्च रुदन्तिका ।। सुनिर्निम्बः काकमाची विष्णुक्रान्ता च मुस्तकम् । सर्व सम्मर्दयेद्रावैदिक तप्तखल्वके ॥ पर्पटीरसवत्पाच्यं गन्धं ताप्यं क्षिपेत्पुनः । प्रत्येकं पर्पटीतुल्यं सहदेवी विदारिका ।। हस्तीकन्दामृतामुण्डीद्रवैस्तं मर्दये दिनम् । कषाये दशमूलस्य पुटेन्तुल्येन पिण्डितम् ॥ समूलपत्रशाखाश्च देवदालीं विचूर्णिताम् । त्रिफलां बाकुचीबीजं पञ्चाङ्गोत्तरवारुणीम् ।। छायाशुष्कं समं चूर्ण मूत्रेण पिवेत्सदा । शतारुके गलकुठे हयनुपानं सुखावहम् || १ भाग शुद्ध पारा और दो भाग शुद्ध गन्धकको कजली करके उसे सर्पाक्षी, शंखपुष्पी, For Private And Personal Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि می ره مه وه یه کی که به مه به نیه هه یه به یه به ره که به ما : गोजिया, खिरनी, नीलका पौदा, ढाककी छाल, | घोरां तृष्णां ज्वरं दाहं मृी हिक्कां वमिं तमिम् रुदन्ति (रुद्रवन्ती), अगस्ति, नीम, मकोय, | हन्याचन्द्रसुधारोचं भुक्तये लाजलेपिका ॥३॥ कोयल और मोथेके स्वरस वा काथमें १-१ दिन स्वर्णसिन्दूर, ताम्रभस्म, वज्राऽभ्रकभस्म, वङ्गतप्त खल्वमें घोटें । अर्थात् लोहखरल तुषाग्नि पर । भस्म, लोहभस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, भीमसेनी रखकर उसमें कजली डालकर इनके रसोंके साथ | कपूर । ये सब एक एक तोला ले कर मर्दन करे; पृथक पृथक् घोटें । इसके पश्चात् लोहेकी नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, लाल चन्दन, नेत्रकढाइमें जरासा घी लगाकर उसे आग पर रखकर बाला, सोंठ । इनके काथकी तीन भावना दे। बाद, उसमें इस कज्जली को पिघलावें और पिघल जाने | भुनी हुई पीपल, मुनका, दाख, (काली दाख ) पर पर्पटी बनावें और उसमें शुद्ध गन्धकका चूर्ण | इलायचीके बीज, मुलहटी, इनको समान भाग ले और सोनामक्खी भस्म प्रत्येक पर्पटी के बराबर कर कूट छानकर चूर्ण बना ले । इस चूर्ण में से मिलाकर उसे सहदेवी, विदारीकन्द, हस्तीकन्द, १ तोला लेकर और १ तो० शहद और मिश्री गिलोय, और मुण्डी के स्वरस तथा दशमूलके भी मिलाकर दो रत्ती चन्द्रसुधा रसमें से लेकर काथमें एक दिन घोट कर गोलियां बना लीजिए चाटे । इसके चाटने से बड़ी उग्र पिपासा, ज्वर, और फिर बन्दालका पञ्चाङ्ग और इन्द्रायणका | दाह, मूर्छा, हिचकी, वमन, ग्लानि, अरुचि नष्ट पञ्चाङ्ग छायामें सुखाकर चूर्ण करके वह चूर्ण | हो जाती हैं। भोजनमें धान की खीलोंका पतला तथा त्रिफला और बाबचीका चूर्ण समान भाग दलिया खाय । जो मीठे पर रुचि हो तो मिश्री मिलाकर रक्खें। डालकर बनावे, या नमकीन बनावे ॥ ३ ॥ उपरोक्त गोलियां खा कर ऊपरसे मनुष्य के (रसायनसार से उद्धृत) मूत्रके साथ यह चूर्ण खानेसे शतारुष्क और गल- (१८९७) चन्द्रसूर्यरसः ( चन्द्रसूर्योदयः ) त्कुष्ट नष्ट होता है। (र. र. स.। अ. १२) ( मात्रा=रसकी मात्रा २ रत्ती, चूर्णकी १॥ तुत्थेन तुल्यः शिवजश्च गन्धो माशा ।) ____ जम्बीरनीरेण विमर्दनीयः । (१८९६) चन्द्रसुधा रसः ( रसा. सा.) । दिनत्रयं मेलय तेन तुल्यं स्वर्णसिन्दरताम्राभ्रवङ्गलोहकमाक्षिकाः। व्योषं ततः सिद्धयति चन्द्रसूर्यः ॥ भस्मितास्तुल्यमानास्ते भीमसेनेन्दुमर्दिताः ॥१ बल्लो विजेतुं विषमावलम्ब मुस्तकपर्पटकोशीरचन्दनोदीच्यनागरै। दलेन देयो भुजगाख्यबल्ल्याः । र्भाविताखिस्ततःकृष्णाद्राक्षलायष्टिमाक्षिकैः ॥२ दुग्धं हितं स्पादिह शङ्गवेरं ससितैरवलीढास्ते रनिकायमात्रकाः। । रसेन शैत्येषु निषेवणीयः For Private And Personal Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir nhinnAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMRAVINARRAPAL रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २१३ ] तकं सगर्भा ज्वरशूलयोस्तु काथके साथ देना चाहिए और पथ्यमें घृतयुक्त द्राक्षाम्बुना पथ्यमनन्तरोक्तम् । भात देना चाहिए तथा शरीर पर नीमके पत्तोंका रोधं वरायाः सलिलेन, शुलम् कल्क, और घी मिलाकर मालिश करनी चाहिए। जम्बीरनीरेण, वरा-जलेन । इसे जम्बीरी नीबूके साथ सेवन करनेसे गुल्म अपस्मृतावत्र नियोजनीय नष्ट होता है । तिल्ली रोगमें नीबूके रसमें हींग ___मभ्यञ्जनं निम्बपयोभवाभ्याम् । | और इमलीके रस को मिलाकर उसके साथ सेवन घृतौदनं स्पादिह भोजनाय कराना तथा तक भातका आहार कराना चाहिए। जम्बीरनीरेण निहन्ति गुल्मम् ॥ स्तम्भनके लिए मिश्री युक्त दूधके साथ हिंग्वम्लिकानिम्बुरसेन देयं और वमनको रोकने के लिए गुड़मिश्रित दूधके प्लीहोदरे स्थादिह तक्रभक्तः। । साथ देना चाहिए। स्तम्भार्थमस्मिन्ससितं पयः स्याद् (८० वर्षसे अधिक और ८ वर्षसे कम गुडो नियोज्यो वमनप्रशान्त्यै ॥ अवस्था के रोगी को विषमिश्रित औषध देना (अशीतिर्यस्य वर्षाणि वसुवर्षाणि यस्य वा। हानिकारक होता है।) विषौषधं न दातव्यं दतं चेद्दोषकारकम् ।।) (१८९८) चन्द्र सूर्यात्मको रसः ___शुद्ध नीला थोथा, शुद्र पारद और शुद्ध (भै.र.; र. सा.सं.; धन्वं., र.रा. सु.। पाण्डुकामला) गन्धकको ३ दिन पर्यन्त जम्बीरी गीबूके रसमें सतकं गन्धकं लोहमभ्रकश्च पलं पलम् । घोटकर उसमें उस सबके बराबर सोंठ, मिर्च और शङ्खटङ्गवराटश्च प्रत्येकापलं हरेत् ।। पीपल का चूर्ण मिलाइये । इसका नाम " चन्द्र गोक्षुरवीजचूर्णश्च पलैकं तत्र दीयते । सूर्य रस" है। सर्व कीकृतं चूर्ण वाष्पयन्त्रे विभावयेत् ॥ ___इसे विषमज्वरमें नागरबेलके पानके साथ पटोलं पर्पटं भार्गी विदारी शतपुष्पिका । देना चाहिए और आहारमें दूध पिलाना चाहिए। कुण्डली दण्डिनी वासा काकमाचीन्द्रवारुणी॥ __ शीतको दूर करनेके लिए अदरक के रसके | वर्षाभूःकेशराजश्च शालिश्च द्रोणपुष्पिका। साथ खिलाना और तक देना चाहिए। प्रत्येकाईपलैवैर्भावयिता वटीं कुरु ।। सगर्भा स्त्री के ज्वर और शूलमें द्राक्षा (दाख- चतुर्दशवटी खादेच्छागीदुग्धानुपानतः । मुनक्का) के रसके साथ देना और तक पिलाना | गहनानन्दनाथोक्तश्चन्द्रसूर्यात्मको रसः ।। चाहिए। हलीमकं निहन्त्याशु पाण्डुरोगश्च कामलाम् । ___ मलावरोध ( कब्ज) में त्रिफलाके क्वाथके जीर्णज्वरं सविषमं रक्तपित्तमरोचकम् ॥ साथ और शूलमें जम्बीरी नीबूके रसके साथ देना शुलं प्लीहोदरानाहमष्ठीलागुल्मविद्रधीन् । चाहिए । अपस्मार (मिरगी) में भी त्रिफलाके शोथं मन्दानलं कासं श्वासं हिक्कां वर्मि भ्रमिम्॥ For Private And Personal Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Aniruvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv [ २१४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि भगन्दरोपदंशी च दद्र्कण्डूव्रणापचीः | ऊरुस्तम्भ, आमवात, और कटीग्रह (कनरका रह दाहं तृष्णामूरुस्तम्भमामवातं कटीग्रहम् ॥ जाना ) रोग नष्ट होते हैं । युक्त्या मण्डेन मयेन मुद्रषेण वारिणा। इसे मण्ड, मद्य, मूंगके यूष, पानी, गिलोय, गुडूचीत्रिफलावासाकाथनीरेण वा कचित् ॥ त्रिफला और बासे के क्वाथ या स्वरसादिमेंसे व्याधि - पारा, गन्धक, लोह भस्म और अभ्रक भस्म के अनुकूल अनुपानके साथ सेवन कराना चाहिये । १-१ पल (५-५ तोले), तथा शंखभस्म, सुहागे (व्यवहारिक मात्रा-५-६ रत्ती) की खील और कौड़ी भस्म आधा आधा पल, और गोखरुके बीजों (फलों) का चूर्ण १ पल लेकर (१८९९) चन्द्राननो रसः प्रथम पारे गन्धककी कजली बनवा लीजिए, | (र. सा. सं.; र. रा. सुं.; र. का. धे.; र. चं. । तत्पश्चात् अन्य औषधे मिलाकर घुटवाइये और कुष्ठ; रसे. चिं. । अ. ९) फिर एक पात्रमें पानी भरकर उसके मुख पर कपड़ा बांधकर उसे अग्नि पर चढ़ा दीजिए, और उपरोक्त सूतव्योमानयस्तुल्यास्त्रिभागोगन्धकस्य च। रसको कपड़ेकी पोटली में बांधकर उक्त पात्र काठोदुम्बरिकाक्षीरैः सर्वमेकत्र मईयेत् ॥ के मुखपर बंधे हुवे कपड़े पर रखकर थोड़ी देर | माषमात्रां गुटीं कृत्वा कुष्ठरोगे प्रयोज त् । देहशुद्धिं पुरा कृत्वा सर्वकुष्ठानि नाशत् ॥ स्वेदित कीजिए । फिर इसमें पटोल पत्र, पित्तपापड़ा, भारंगी, बिदारीकन्द, सौंफ, गिलोय, ब्रह्म एष चन्द्राननो नाम साक्षाच्छ्रीभैरव दितः ॥ दण्डी, बासा, मकोय, इन्द्रायन, पुनर्नवा (सांटी), पारा, अभ्रक भस्म, चीतेकी छालका चूर्ण, भांगरा, शालिञ्चशाक, और गूमाका आधा आधा १-१ भाग तथा गन्धक ३ भाग लेकर प्रथम पल रस डालकर घुटवाकर सबकी १४ गोलियां पार और गन्धककी कज्जली बनाएं और फिर सब बनवा लीजिये। को काठोदुम्बर (कठूमर) के दूधमें अच्छी तरह | घोटकर १-१ माशेकी गोलियां बना लीजिए। यह श्री गहनानन्द नाथ कथित " चन्द्र सूर्यात्मक" रस है। श्री भैरव कथित इस “चन्द्रानन" रसको इसे बकरीके दूधके साथ सेवन करनेसे हली शरीर शुद्धिके पश्चात् समस्त कुष्ठ रोगोंमें सेवन कराना चाहिए। मक, पाण्डु रोग, कामला, जीर्णज्वर, रक्तपित्त, अरुचि, शूल, तिल्ली, अफारा, अष्टीला, गुल्म, | (अनुपान-बाबचोका काथ) विद्रवी, शोथ, अग्निमांद्य, खांसी, श्वास. हिचकी, नोट-र. का. धे. की चन्द्रप्रभावटी नं.१८९१ वमन, भ्रम, भगन्दर, उपदंश, दाद, खुजली, ब्रण और यहरस लगभग समान ही हैं। उसमें अभ्रक (धाव), अपची (गण्डमाला भेद), दाह, तृष्णा, के स्थानमें मरिच पड़ती हैं। For Private And Personal Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २१५] vvvvvvvvvvvvvvvvipNIANRAPHYAYAN vvvwwwsnAmAvyArvinvmivonn (१९००) चन्दामृत रस (र. र.; र.का.धे.।रा.) रसगन्धकलौहानां प्रत्येक कार्षिकं शुभम् । शुद्धसूतं द्विधो गन्धं सततुत्पश्च सैन्धवम् । टङ्कणम पलं दत्वा मरिचस्प पलार्द्धकम् ॥ शमीश्वेतादलद्रावैर्मर्दितं गोलकीकृतम् ॥ नवगुञ्जाप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् । नागवल्लीदलैटयं पाचं पाताल पत्रके (?) प्रात काले शुचिर्भ त्वा चिन्तयित्वा मृतेश्वरीम् ।। दिनान्ते ऊर्ध्वलग्नं तं ग्राह्यं भक्ष्यं त्रिगुजकम्।। एका वटिकां खादेत् रक्तोत्पलरसप्लुताम् । पर्गखण्डेन संयुक्तं मासै फाद्राजयक्ष्मनत । नीलोत्पलरसेनापि कुलत्थरसेन वा ॥ .. रसश्चन्द्रामृतो नाम ह्यनुपानं मृगावत् ॥ पिप्पल्या मधुना वापि शृङ्गवेरर सेन वा । : शुद्र पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग और हन्ति पञ्चविधं कासं वातपित्तसमुद्भवम् ॥ सेंधानमक १ भाग लेकर कजली करके शमी और वातश्लेष्मोद्भवं दोष पित्तश्लेष्मोद्भवं तथा। श्वेता (कोयल) के पत्तों के रस में घोटकर गोला । वाति पैत्तिकञ्च। नानादोषसमुद्भवम् ।। बना लीजिए, और उस गोलेको नागरवेल के पानों रक्तनिष्ठीवनश्चापि ज्वरश्वाससमन्वितम्। में लपेट कर १ दिन पाताल यन्त्रमें पकाइये और तृष्णां दाहं भ्रमं हन्ति जठराग्निप्रदीपिनी ॥ फिर स्वांग शीतल हो जानेपर रसको निकाल बलवर्णकरी हयेषा प्लीहगुल्मोदरापहा।। लीजिए। आनाह कृमिहत्पाण्डुजीर्णज्वरविनाशिनी ॥ इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार पान के साथ सेवन इयं चन्द्रामृता नाम चन्द्रनाथेन निर्मिता। करनेसे १ मासमें राजयक्ष्मा रोग नष्ट हो जाता है। वासागुडूचोभार्गी च मुस्त कण्टकारिका। | सेवनान्ते प्रकर्तव्या गुटिका वीधारिणी ॥ इस रसके अनुपान मृगावत् हैं। त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) हर्र, बहेड़ा, नोट-मूल पाठमें “ ऊर्वलग्नं तं ग्राह्यं" आमला, चव, धनिया, जीरा, सेंधानमक, शुद्ध अर्थात् ऊपर लगे हुवे रसको ग्रहण करे, यह लिखा | पारद, शुद्ध गन्धक और लोहभस्म १।-१। तोला, है परन्तु पातालयन्त्रमें पकाने से रस ऊपर नहीं सुहागे की खील ५ तोले और मिर्च २॥ तोले ले लग सकता इस लिए या तो पाताल यन्त्र की कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए, जगह बालुका यन्त्र होना चाहिए अथवा · उर्ध्व त पश्चात् अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर बकरी लग्नं' की जगह " स्वांगशीतं" होना चाहिए। के दूध में घोटकर ९-९ रत्तीकी गोलियां बना (१९०१) चन्द्रामृतवटी लीजिए। (र. रा. मुं.; भै. र.; र. र.; । यक्ष्मा० ) श्री चन्द्रनाथ निर्मित ये “ चन्द्रामृतवटी " त्रिकटु त्रिफला चव्यं धान्जीरकसैन्धवम् । वातपितज, वातकफज, पित्तकफज, वातज, और प्रत्येकं ते.लक ग्राह्यं छागीक्षीरेण गोलयेत्॥ | पितज खांसी को तथा ज्वर और श्वासयुक्त खांसी १ सममिति पाठभेदः । For Private And Personal Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि vyy. .vvvvvvvyyyyyyuvvvvvv. एवं जिस खांसीमें खून आता हो उसे नष्ट | चूर्ण १-१ भाग, तथा मनसिलसे भस्म किया हुवा करती हैं। | लोह सबके बराबर लेकर सबको एकत्र खरल करके ___ इनके सेवनसे तृष्णा, दाह, भ्रम, तिल्ली, | ९-९ रत्ती की गोलियां बना लीजिए। गुल्म, अफारा, कृमि, पाण्डु और जीर्णज्वरका प्रातःकाल १-१ गोली लाल कमल या नाश होता तथा जठराग्नि और बल वर्णकी वृद्धि | नीलकमलके रस, अथवा कुलथीके रस के साथ होती है। सेवन करनेसे वातज, पित्तज, विषजन्य, रक्तयुक्त, अनुपान-नीलकमलका रस, लाल कमलका नीरक्त, और त्रिदोषज आदि अनेक प्रकारको खांसी, रस, कुलथीका काथ, पीपलका क्वाथ, अदरकका श्वास, ज्वर, भ्रम, दाह, तृष्णा, शूल, और जीर्ण रस और शहदमें से किसी एक वस्तुके साथ खा ज्वरका नाश होता है । तथा रुचि, जठराग्नि और कर ऊपरसे बासा, गिलोय, भारंगी, मोथा, और / बलवर्णकी वृद्धि होती है। कटेलीका काथ पीना चाहिए। ___नोट-त्रिकुटेकी तीनों चीजें समान भाग नोट-सोंठ, मिर्च और पीपल तीनोंका चूर्ण | मिलाकर एक भाग लेनी चाहिए । समान भाग मिलाकर १ तोला लेना चाहिए। (१९०३) चन्द्रांशु रसः (र. चं.; भै. र. । स्त्रीरो.) (१९०२) चन्द्रानृतलौहम् रसमभ्रमयो वङ्गं गन्धकं कन्यकाम्बुना । (र. सा. सं.; र. रा. सुं.; धन्वं. । कास.) मदयित्वा वटि कुर्याद् गुञ्जाद्वयप्रमाणतः ।। त्रिकटु त्रिफला धान्यं चव्यं जीरकसैन्धवम्। जीरकाथेन पीतोऽयं रसश्चन्द्रांशुसंज्ञकः। दिव्यौषधिहतस्यापि तत्तुल्यमयसो रजः॥ जरायुदोषानखिलान् योनिशूलं सुदारुणम् ।। नवगुञ्जाप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् । योनिकण्डं स्मरोन्मादं योनिविक्षेपणं तथा । पातःकाले शुचिर्भूत्वा चिन्तयित्वाऽमृतेश्वरीम् ॥ निराकरोति संतापं चन्द्रांशुर्देहिनां यथा ॥ एकैकां वटिकां खादेद्रक्तोत्पलरसप्लुताम् । पारद, अभ्रकभस्म, लोहभस्म, वङ्गभस्म और नीलोत्पलरसेनैव कुलत्थस्वरसेन च ॥ | शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर घीकुमारके रसमें निहन्ति विविधं कासं दोषत्रयसमुद्भवम् । धोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। वातिकं पैत्तिकश्चैव गरदोषसमुद्भवम् । इसे जोरेके क्वाथके साथ सेवन करनेसे सरक्तमथनीरक्तं ज्वरश्वाससमन्वितम् । | जरायुदोष, योनिशूल, योनिकी खाज, योनिविक्षेप भ्रमदाहटशूलनं रुच्यं वह्निप्रदीपनम् ॥ | और स्मरोन्माद, रोग नष्ट होता है। बलवर्णकरं वृष्यं जीर्णज्वरविनाशनम् । | (१९०४) चन्द्रोदयो रसः इदं चन्द्रामृतं लौहं चन्द्रनाथेन निर्मितम् ॥ (र. रा. सुं.। ज्व.; र. र. स. । अ. १२) ___ त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल, ) हर्र, बहेड़ा, रसगन्धौ तथा बङ्गमभ्रक समभागतः। .. आमला, धनिया, चव, जीरा, और सेंधानमकका | मेलयित्वाऽथ बङ्गेन मूतं विमर्दयेत् ।। For Private And Personal Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रेसप्रकरणम् ] antare गन्धाभ्रे पेय जम्बीरवारिणा । सामान्यं पुटमादद्यात्सप्तधा साधितं रसम् ॥ कुमार्या चित्रकेणापि भावयित्वाथ सप्तधा । गुडेन जीरकेणापि ज्वरे जीर्णे प्रयोजयेत् ॥ are श्वासे कुमार्याथ त्रिफलाकाथयोगतः । उन्मादं च धनुर्वातममृताकाथसंयुतः ॥ sri vrata रसचन्द्रोदयाभिधः ॥ पारा, गन्धक, वङ्ग, और अभ्रक भस्म समान भाग लेकर प्रथम वङ्ग को गलाकर उसमें पारा मिलाकर घोट लीजिए तत्पश्चात् उसमें गन्धक - और अभ्रक मिलाकर घोटिए और कजली हो जाने पर उसे नीबू के रस में घोटकर टिकिया बना लीजिए और सम्पुट में बन्द करके साधारण पुटमें फूंक दीजिए। इसी प्रकार नीबू के रस में घोट कर सात पुट दीजिए। तत्पश्चात् उसे धीकुमार और चीते के रसकी पृथक् पृथक् सात-सात भावनाएं दीजिए । इसे ज़ारेके चूर्ण और गुड़के साथ मिलाकर सेवन करनेसे जीर्णज्वर, तथा कुमारी (घृतकुमार) के रसके साथ देनेसे खांसी और श्वास नष्ट होता है। त्रिफलाके काथके साथ देने से उन्माद और गिलोय के काथके साथ देने से धनुर्वातका नाश होता है । इसका नाम “ चन्द्रोदय रस " है । मात्रा - २ - ३ रत्ती ) www.kobatirth.org १९०६) चन्द्रोदयो रसः (३) ( वृ. नि. र. । प्रमे. ) द्वितीयो भागः । अभ्रकं गन्धकं सूतं वङ्गभस्म समांशकम् । एलां शिलाजतुं चैव रम्भासारेण मर्दयेत् ॥ प्रमेहान् विंशतिं हन्यात् कामला पित्तनाशनः ॥ भा० २८ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२१७ ] अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा, वङ्ग भस्म, छोटी इलायचीका चूर्ण, और शिलाजीत बराबर बराबर लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए, फिर अन्य औषधें मिलाकर केले के अर्क में घोटिए । इसके सेवन से २० प्रकारके प्रमेह, कामला और पित्तका नाश होता है । ( मात्रा - ३-४ रत्ती । अनुपान - शहद और घी ) (१९०७) चन्द्रोदयः (४) (र. रा. सुं. । अ. २) ततस्तस्माद्विनिष्कास्य पारदं तोलयेद्भिषक् । तत्तुल्यं गन्धकं दत्वा कुर्यात्कज्जलिकां द्वयोः ।। द्रोणाम्बुकण योनी रैर्मर्दयेच्च दिनद्वयम् । संशोष्य बालुकायन्त्रे यामानष्टौ ततः पचेत् ।। मन्दमग्निं ततः कुर्यादा यामचतुष्टये । ततो द्वितीये यत्नेन तीब्राग्निं प्रयोजयेत् ।। ततः कूप्यां समुद्धृत्य पारदस्यास्य चक्रिकाम् । तत्पृष्ठलग्नं गन्धं च दूरीकृत्य विचक्षणैः ॥ पुनस्तयोरसैरेनं मर्दयेदेकवासरम् । चतुर्यामं पचेदग्नौ तेन जीर्यति गन्धकः ॥ याममेकं परित्यज्य यामेषु त्रिषु बुद्धिमान् । प्रतियामार्द्धकं कूप्यां क्षित्वा दीर्घ तृणं दृढम् ॥ गन्धस्य तेन कर्त्तव्यो जीर्णा जीर्णस्य निर्णयः । जीर्णे गन्धे विदग्धं स्वादजीर्णे गन्धकान्वितम् ॥ जीर्णगन्धं रसं ज्ञात्वा तोलयेत्कुशलो भिषक् । ततो गन्धं चतुर्थीशं दत्त्वा सूतं विमर्दयेत् ॥ पूर्वोक्तयोरसै चतुर्यामं च पाचयेत् । स्वाङ्गशीतलमुत्तार्य विषं कर्षमितं क्षिपेत् ॥ For Private And Personal Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Parvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv vv vvvvvvvvvvvvvv [२१८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः । चकारादि दृढं विमदयेत्सूतं तयोरेव रसैदिनम् । कड़ा तिनका (बस की सीख आदि) डालकर देखते मन्दाग्निना पवेत्पश्चाचतुर्याममतन्द्रित ॥ रहिए। यदि सीख बल उठे तो सनझ लीजिए कि निर्मुक्तगन्धकस्तहि जायते सौ रसेश्वर । गन्धक जोर्ण हो चुका है और अगर सीख को अन्ते तुलितमूतेन तुल्यमानो यदा भवेत् ।। गन्धक लग जाए तो समझिए कि अभी गन्धक तदा सिद्धः परिज्ञेयो रसश्चन्द्रोदयो बुधैः । जीर्ण नहीं हुवा। इस प्रकार परीक्षा करने से जब सद्यो जीर्णविपाचनो निजननो गन्धकके जीर्ण हो जानेका निश्चय हो जाय तो विट्वन्धतृट्वान्तिनुत् । अग्नि देना बन्द कर दीजिए और शीशी के स्वांग मूत्रस्रावमपाकरोति मदन शीतल हो जाने पर उसको तोड़कर औषध निकाल प्रोद्रोधका रतौ ॥ लीजिए। मूर्छा हन्ति सहिकषु मधुयुतो ___ अब इसमें इसका चौथा भाग शुद्र गन्धक बल्यःप्रभादाढर्यकृत् । मिलाकर कजली बनाइये और उसे १ दिन पीपलशैवं स्वेदहरः प्रमेहमथनश्चन्द्रोदयाख्यो रस ।। के काथ ता द्रोगपुष्पी के रसमें धोटकर बालुका कासे श्वासे फिरंगाख्ये रोगे च परमो हित । यन्त्रमें उपरोक्त विविसे ४ पहर की अनि दीजिए अपि वैधशतैस्त्यक्तामरुचिं च नियच्छति ।। और स्वांग शीतल होने पर शीशीमें से औषध शुद्ध पारा और गन्धक बराबर बराबर लेकर निकालकर उसमें १ कर्ष (प्रतिपल औषधमें १ कजली बना लीजिये, फिर उसे २ दिन तक द्रोणप्पी कर्ष) शुद्र बछनाग (मीठातेलिया) मिलाकर उप( गोमा ) के रस और पीपलके काथमें घोटिए। रोक्त दोनों की रसमें खूब अच्छी तरह धोटतत्पश्चात् उसे सुखाकर कपरमिट्टी की हुई आतशी | | कर ४ पहर तक उपरोक्त विधिसे बालुकायन्त्र शीशीमें भरकर बालुका यन्त्र में रखकर प्रथम ४ | द्वारा मन्दानि पर पाक कीजिए। पहर तक मन्दाग्नि और फिर ४ पहर तक तोगानि इस क्रियासे गन्धक भली भांति जीर्ग हो दीजिए । इसके पश्चात् शीशीके स्वंग शीतल जाता है। जब इस प्रकार जारण से गन्धकका होजाने पर उसे तोड़कर भीतरसे शीशीके मुंहमें वजन घट कर केवल पारदका वज़न ही शेष रह लगे हुवे रसकी चक्रिकाको निकाल लीजिए जाय तो चन्द्रोदय रसको सिद्ध समझना चाहिए। और उसके ऊपर जो गन्धक लगी हो उसे खुर्च यह "चन्द्रोदय रस' आमको तुरन्त प वाता, कर अलग कर दीजिए । अब इसे फिर द्रोणपुष्पी अभिवृष्टि करता, तथा कज, तृष्णा, वमन और और पीपलके रसमें १ दिन घोटकर उपरोक्त मूत्रातिसाको रोफता और कामदेवको उत्तेजित विधिसे ४ पहर तक बालुका यन्त्रमें पकाइये। करता है। बालुका यन्त्रको अग्नि पर चढानेके १ पहर इसे शहद के साथ सेवन करानेसे मूर्छा और पश्चात् आधे आधे पहरमें शीशीमें एक लम्बा और हिचको नष्ट होती है। यह बलदायक, पुष्टिकारक For Private And Personal Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२१९] - - और कान्तिवर्द्धक तथा शीत, स्वेद और प्रमेह । माषानपिटानि भवन्ति पथ्यनाशक है। खसी, श्वास और फिरंग रोगमें मानन्ददायीन्यपराणि चात्र । अयन्त हितकारी है । सै वैद्यों न त्यक्त अरुचि बलीपलितनाशनस्तनुभृतां वयस्तम्भनः । इसके सेवनसे अबस्य नट हो जाती है। समस्तगदखण्डनःप्रचुरयोगपश्चाननः ॥ (१९०८) चन्द्रोदयो रसः (५) गृहेषु रसराडयं वसति यस्य चन्द्रोदयः । स पञ्चशरद पितो मृगदृशां भवेद्वल्लभः॥ (वृ. यो. त. । त. १४७; यो. त.। त, ८० रतिकाले रतान्ते वा पुनःसेव्यो रसोत्तमः। र. मं. । अ. ९; र. सा. सं.; यो. र.; र. चं.; अभासात्साधक स्त्रीणां शांजपति नित्यशः॥ धन्वं.; र.र.; र. र. प्र; र. रा. सुं.; वै. र.; भै. र.।। मानहानि करोत्येष प्रमदानां तु निश्चितम् । वाजीक०;र. चिं.म.। अ. ८; यो. चि. म. । अ.७) स्थावरं जगमविषं विषमं विश्वारि च ॥ . पलं मृदु स्वर्गदलं रसेन्द्र न विकाराय भवति साधकेन्द्रस्य वत्सरात् । पलाष्टकं षोडश गन्धारा। | मृत्युजयो यथाऽभासान्मृत्यु जगति देहिनाम् ॥ शणैश्च कार्पासमवै प्रसून; तथाऽयं साधकेन्द्रस्य जरामरणनाशनः ॥ . सो विमर्याथ कुमारिक.द्भिः ॥ ( दाक्षिणात्या शोण का सद्रवमेव गृह्णन्ति, तकाचकुम्भे निहितं सुगाढे पाश्चात्यास्तत्पुष्पेणैव यावदावत्वं मर्दयन्ति । मृत्कपटैस्तदिवसत्ररश्च । उभाच्चैव निष्पत्तेरदोषः शास्त्रान्तरेऽस्यपवेत्क्रमाग्नौ सिफतारुपान्त्रे मकरध्वजो नाम।) । ततो रज पल्लुवरागरम्म् ॥ सोनेके कष्टकवेधी पत्र (वर्क) १ पल निर ह्य चेतसा पलं पलानि (५ तोले ) शुद्ध पारद ८ पल, शुद्ध गन्धक १६ पल लेकर प्रथम सो के वर्क पारदमें डालकर ___ चत्वारि कपररजस्तथैव । घोटिए जब वह उसमें मिल जायं तो गन्धक जातीफलं सोषणमिन्द्रपुष्प; मिलाकर कजली बनाइये और उसे १-१ दिन कस्तूरिकाया इह शाण एकः॥ लाल कपासके पूलों के रस और घृतकुमारीके रसमें चन्द्रोद तोयं कथितो स्त्र मागो'; घोटकर सुखाकर कपर मिट्टी की हुई आतशी .. भुक्तो हिबल्लिदलमध्यवर्ती । शीशीमें भरकर* बालुका यन्त्र विधिसे यथाक्रम - मदोन्मदानां प्रमदाशनानां मृदु, मध्यम और तीव्र अग्नि पर ३ दिन तक .. गर्वाधिकत्वं श्लथपतवम्॥ । पकाइये । फिर स्वांग शीतल हो जानेपर शीशीको १ वालो' इति पाठान्तरम् । * जिस शीशीमें १ सेर कजली समा सके उसमें पाप सेर भरनी चाहि अधिक भरनेसे सीशीको इटनेका भय रहता है। For Private And Personal Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२२०.] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि Vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvwwvvvvvvvvvvvvvv तोड़कर उसकी गरदनमें और चारों ओर लगे हुवे नोट २–जब तक शीशीमें से पीले रंगका अत्यन्त रक्तवर्ण रसको निकाल लीजिए। धुंवा निकलता रहे तब तक उसका मुंह बन्द न १ पल (५ तोले ) यह रस, ४ पल कपूर, करना चाहिए, जब धुवां निकलना लगभग बन्द और जायफल, मिर्च, और लौंगका चूर्ण तथा | हो जाय तब शीशीके मुंहमें खिडिया मिट्टी या कस्तूरी ५-५ माशालेकर भली भांति एकत्र घोटिए। मुलतानी मिट्टी आदि का डाट लगा देना चाहिए। इसीका नाम “ चन्द्रोदय" है। किसी किसी शीशीको यन्त्रसे निकाल कर उसके ऊपरकी कपर' ग्रन्थमें इसका नाम “ मकरध्वज' भी लिखा है। मिट्टी को चाकूसे खुरच. कर उसे भीगे कपड़ेसे. ___इसे १ माशे ( या २-३ रत्ती) की मात्रा- पोंछ कर साफ़ करना चाहिए और फिर उसे जिस नुसार पानमें रखकर खानेसे मनुष्यमें सैकड़ों स्थानसे तोड़ना हो उस जगह मिट्टीके तेल मदोन्मत्त प्रमदाओंके गर्वको नष्ट करनेकी शक्ति | (घासलेट ) में भीगा हुवा डोरा बांधकर उसमें आ जाती है। . .. आग लगा देनी चाहिए जब डोरा जल जाय तो इसके सेवनसे बली ( शरीरकी झुर्रियां ) शीशीको भीगे कपड़े से पोंछ दीजिए, वह वहीं से पलित (बालोंका सफेद होना) आदि रोगोंका टूट जायगी, इस प्रकार शीशी तोड़नेसे औषधमें नाश होता और आयु वृद्धि होती है। कांचके टुकड़े मिलनेका भय नहीं रहता। __ जो इस रसको सेवन करते हैं वह रति शीशी के गलेमें चन्द्रोदयकी गुल्ली (पिण्ड) समयमें बहुतसी स्त्रियोंको प्रसन्न कर सकते हैं। लगा हुवा मिलता है तथा शीशीकी दीवारोंमें भी इसे रतिकालमें या समागमके अन्तमें सेवन करनेसे थोड़ा बहुत चन्द्रोदय जमा रहता है, उस सबको शक्तिका ह्वास नहीं होता और नित्य प्रति सेवन सावधानीपूर्वक छुड़ा लेना चाहिए। शीशीकी करते रहनेसे सैकड़ों स्त्रियोंके साथ रमण करनेकी तलीमें थोडीसी सफेद रंगकी राखसी मिलती है, शक्ति प्राप्त होती है। यह सोनेकी कच्ची भस्म होती है, इसे विधिपूर्वक ___चन्द्रोदयको एक वर्ष तक नित्य सेवन | पुट देनेसे स्वर्ण भस्म बन जाती है, अथवा सुहागे करनेसे शरीरमें ऐसी शक्ति आ जाती है कि फिर आदिके साथ मूषामें रखकर तीब्राग्नि देनेसे पुनः उस पर स्थावर और जङ्गम विष, और विषैले सोना जी उठता है । यदि पूरी सावधानी रक्खी जलका प्रभाव नहीं होता। जाय तो प्रायः सबका सब सोना निकल आता है। नोट-दक्षिण देश वासी वैद्य इसे लाल । चन्द्रोदयके पिण्डके ऊपर पीले रंगकी गन्धक कपासके फूलोंके रसमें धोटकर बनाते हैं और जमी हुई हो तो उसे चाकूसे खुरचकर अलग पश्चिम प्रान्तवासी वैद्य लाल कपासके फूल डाल- रखना चाहिए और दम, खांसी, रक्तविकार तथा कर ही पतला होने तक घोटते हैं । इन दोनों ही मस्तक शूलादिमें व्यवहृत करना चाहिए। --- विधियों में कोई दोष नहीं है। 1. यदि शीशीकी तस्लीमें, अधपकी. कज्जुली सह. For Private And Personal Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir स्तप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२२१] जाय तो उसे लाल कपास और बड़के अंकुरोंके इस खोटबद्ध रसका प्रभाव शरीर पर भी . रसमें घोटकर सुखाकर आतशी शीशीमें भरकर ऐसाही उत्तम होता है जैसाकि स्वर्णादि धातुवों पुनः बालुका यन्त्रमें उपरोक्त विधिसे पकानां पर । चाहिए।) - (१९१०) चपललक्षणगुणाः (१९०९) चपलबद्धरसः (रसे. मं.। अ. ४) ( आ. वे. प्र. । अ. १२) लाडलीकरवीरच चित्रकं गिरिकणिका। चत्वारश्चपला सिता सितहरिच्छोणा प्रभेदै पुनस्त्रीस्तन्यं टङ्कसौवीरं मषालेपं तु कारयेत ॥ मोघौ शोणितशोणकज्जलनिभौ लाक्षावदाशुद्रवात।। चपलाद्-द्विगुणं मूतं मूताद् द्विगुणकाञ्चनम्। शेषौ तु द्रवतश्चिरेण सुभगौ तौ शुध्यतःसप्तधा। नष्टपिष्टं तु तत्कृत्वा अन्धमृषागतं धमेत् ॥ कव्य द्रकजम्भलस्यसलिले संस्वेदितौ वा प्लुतौ तत्रस्थं च रसेन्द्रं च खोटं भवति शोभनम् । पाथम्याद्रसबन्धिनौ तदुपरि स्यातां तु योगानुगौ। नागं शतांशतो विद्धं गुञ्जावर्ण तु जायते॥ वृष्यौ दोषहरौ बुधैर्निगदितौ माक्षीकभूम्युद्भवौ ।। तेन नागशतांशेन विद्धं शुल्वारुणं भवेत। चतुर्धा चपल प्रोक्तः कृष्णो ऽरुणो हरित। , तेन शुल्वशतांशेन तारं विद्धश्च काञ्चनम ॥ | वङ्गवत्प्लवते वह्नौ चपलस्तेन कीर्तितः॥ यथा लोहे तथा देहे नान्यथा जायते कचित॥ चपल स्फटिकच्छायःषडस्त्री स्निग्धको गुरुः। १ भाग चपल, २ भाग पारद और ४ भाग त्रिदोषघ्नो तिवृष्यश्च रसबन्धविधायकः॥ स्वर्णको एकत्र घोटकर पिटीसी बना लीजिए। अयं तूपरसे कैश्चित्पठितोऽन्यै रसेषु च । तत्पश्चात् लागली ( कलिहारी ) करवीर ( कनेर ), विषोपविषधान्याम्लैमर्दितश्चपलस्ततः ॥ चीता, गिरिकर्णिका, सुहागा और सौवीराजनको अन्धमूषागतो ध्मातःसत्वं मुश्चति कार्यकृत् ॥ स्त्रीके दूधमें पीसकर एक अन्धभूषाके भीतर उसका चपल वर्णभेदसे चार प्रकारका होता है (१) लेप करके उसमें उपरोक्त पिट्ठीको बन्द करके सफेद, (२) काला, (३) हरित् और (४) लाल । ( तीब्राग्निमें ) धमाइये। इनमेंसे काले और लालकाले रंगके चपल इस क्रियासे खोटबद्ध (अग्नि स्थायी ) पारद । शीघ्र पिघलने वाले होनेके कारण निष्फल होते तैयार हो जाता है। हैं । शेष दोनों प्रकारके देरमें पिघलते हैं इस लिए . इसका १ भाग १०० भाग सीसेमें (पिघला वह उत्तम होते हैं। " कर ) मिलानेसे सीसा गुञ्जाके समान लाल हो। उत्तम प्रकारके चपलोको ककोड़ा, अदरख जाता है, और १०० भाग तांबेको पिघला कर और जम्भीरी नीबूके रसमें ( दोलायन्त्र विधिसे ) उसमें १ भाग यह सीसा मिलानेसे तांबेका रंग स्वेदन करने या तपा तपा कर इनमेंसे हरेकमें ७-७ लाल हो जाता है, और यह तांबा सौ गुनी बार बुझानेसे शुद्ध हो जाते हैं । चांदीको सोना बना सकता है। प्रथम दो प्रकारके ( सफेद और काले ) For Private And Personal Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [चकारादि vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv xvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv चपल पारदके बांधनेमें उपयोगी होते हैं और दशमूल, पीपल, आमला, बायबिडंग और सफेद दूसरे दोनों प्रकारके अनेक प्रयोगोंमें उपयुक्त जीरा आधा आधा भाग और सोंउ २ भाग लेकर होते हैं। सबको ३-३ दिन तक भांगरे और मुण्डीके रस ___ चषल ( जो सोनामक्खीकी कानसे निकलने | तथा चन्दनके क्वाथमें घोटिए तत्पश्चात् उसे चिकनी वाली धातु है ) वृष्य और दोषनाशक है। मिट्टीसे निर्मित सम्पुटमें बन्द करके एक पुट चूंकि यह धातु वङ्गके समान शीघ्र (चपलता- दीजिए और फिर पीसकर चनेके बराबर गोलियां से ) पिघल जाती है इसी लिए इसको चपल बना लीजिए। कहते हैं। इसके सेवनसे 'चर्मकुष्ठ रोग नष्ट होता है। . चपल स्फटिक मणिके, समान उज्ज्वल, । (१९१२) चर्मभेदीरसः । षट्पहलू या तीनपहलू वाला, चिकना और भारी (र. का. थे.; र. रा. सु. । क.) होता है। यह तीनों दोषोंका नाश करता है, शुद्धभुतं द्विधा गन्धं मृतांश मृतशुल्वकम् । अत्यन्त वृष्य और पारदको बांधनेमें उपयोगी है। मूतपादं विषं चूण्य पचेयावद् द्रुतं भवेत् ॥ किन्ही आचार्योने चपलकी गणना उपरसोंमें लोहपात्रे घृताभ्य के पातयेत्कदलीदले । और किन्हींने रसोमें की है। | अभावाद्वा पुटे स्निग्वे हयादाप भावयेत् अहम्। | बाकुच्युत्थेन तैलेन निष्कपादं प्रभक्षयेत् । चपलको विष, उपविष और कांजीके साथ घोटकर अन्धमूषामें बन्द करके धमानेसे उसका सत्व त्रिफला बाकुचीबीजं खदिरं राजवृक्षकम् ॥ निकल आता है। मूलचूर्ण घृतं क्षाद्रं कर्फकमनुपायये । चर्मभेदी रसो नाम मण्डलाचर्मकुष्ठनुत् ।। (१९११) चर्मकुठाररसः (र. का. धे. । कु.) शुद्ध पारद १ भाग, शुद् गन्धक २ भाग, शुद्धमूतं द्विधा गन्धं मृतं तीक्ष्णं रसाञ्जनम् । ताम्रभस्म १ माग, और चौथाई भाग शुद् बछ गन्धतुल्यं मृतं तानं रसस्पाई द्विपञ्चकम् ॥ नाग (मीठा तेलिया) लेकर कजली बनाइये कणाधात्रीविडङ्गश्च सितजीरकसंयुतम् । तत्पश्चात् उसे घृतसे चिकने किए हुवे लोहपात्र गन्धकेन समा शुण्ठी सवै भृङ्गाम्बुमर्दितम्॥ में मन्दाग्नि पर पिघलाकर केलेके पत्ते पर ढालकर तिलपतिमुण्डीनां स्वरसैर्भावयेत् व्यहम्। विधिवत् पर्पटी बना लीजिएं । और फिर उसे ३ शिवा स्निग्ध पुटे पकं पिण्डितं चणकोपमम् ।। दिन तक बाबचीके तैलमें घोट लीजिए। रसश्चर्मकुठारोयं भक्षितश्चर्मकुष्ठनुत् ॥२४२ । यदि केला न मिल सके तो किसी अन्य शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक, तीक्ष्ण वृक्षके चिकने और चौड़े पत्ते पर ढालकर पर्पटी लोहभस्म, रसौत, और ताम्रभस्म २-२ भाग तथा | बनानी चाहिए। - १ पर्पटी बनानकी विधि "सपर्पटी में देखिए. . For Private And Personal Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २२३ ] - - - - - N VVVVvvvvvvvv...........usinilavrrive. - - - invityanviyingArmers yuvruharry're.VNNI इसमेंसे प्रतिदिन १ माषा दवा खाकर ऊपर (व्यवहारिक मात्रा ३-४ रत्ती ) से त्रिफला, बाबची, खरसार, और अमलतासकी (१९१४) चातुर्थिकगजाङ्कुशरसः जड़ का चूर्ण १ कर्ष ( १। तो०) लेकर शहद । (र. र. स.। उ. खं. अ. १२.; र.रा. सु. । वर.) और धीमें मिलाकर पीना चाहिए। स्थाद्रसेन समायुक्तो गन्धकः सुमनोहरः । ___ इसके सेवनसे ४० दिनमें चर्मकुष्ठ नष्ट हो हितावली त्रिगुणिता निर्गुण्डीरसमर्दितः ॥ जाता है। सप्तवाराणि तयोज्यमार्दकस्वरसेन तु । (व्यवहारिक मात्रा २-३ रत्ती). सन्ततादिज्वरं हन्याचातुर्थिकगजाङ्कुशः ॥ (१९१३) चर्मान्तको रसः पारा और गन्धक १-१ भाग तथा हिया(र. का. धे., र. रा. सुं. । कुष्ठ.) वली ३ भाग लेकर सबको निर्गुण्डीके रसकी सात शुद्धमृतं विषं गन्धं कुमाशीकं शिलाजतु । | भावना दीजिए। शुल्वं तीक्ष्णं मृतं लोहं तुल्यं घर्म दिनत्रयम् ।। इसे अद्रकके स्वरसके साथ देनेसे सन्तत, काकमाच्या देवदाल्याः कोट्याश्च द्रवैदिनम्। सतत, तिजारी, चातुर्थिक आदि ज्वर नष्ट होते हैं। अन्धरित्वा पुटेचाहि त्रिरात्रं वा तुषाग्निना । (मात्रा ६-७ रत्ती। प्रातः सायं या ज्वर आदाय भावयेचाहि तैले बाकुचिसम्भवे । | आनेके ३ घन्टे पहिले।) निष्काई चर्मकुष्ठनं खादेचर्मान्तकं रसम् ॥ (१९१५) चातुर्थिकनिवारणरसः खदिरं बाकुचीबीजं मध्याज्यं च लिहेदनु । (र. र. स.; र. रा. सुं. । ज्व.) शुद्ध पारद, शुद्ध विष (मीठा तेलिया), शुद्ध | त्रिभागं ताल विद्यादेकभागन्तु पारदम् । गन्धक, सोना मक्खी भस्म, शुद्ध शिलाजीत, ताम्र भस्म और तीक्ष्ण लोह भस्म, समान भाग लेकर तदर्ध गन्धकञ्चैव तदर्धन्तु मन शिला ॥ मकोय, देवदाली (बिन्दाल) और कको के रसकी कारवल्लीदलरसैर्मदयेत्महरत्र रम् । . एक एक भावना दीजिए (इनका रस डालकर एक पाचितो बालुकायन्त्रे चातुर्थिकनिवारणः॥ एक दिन धूपमें सुखाइये ।) __शुद्ध हरताल ३ भाग, पारद १ भाग, गन्धक फिर इसे अन्ध मूषामें बन्द करके ३ दिन आधा भाग, और चौथाई भाग मनसिल लेकर तक तुषाझिमें पकाइये और फिर एक दिन सबको ३ पहर करेलेके पत्तोंके रसमें घोटकर बाबचीके तैलमें घोटकर रखिए। सम्पुट में बन्द करके या शीशीमें भर कर ३ पहर इसमेंसे प्रतिदिन आधा निष्क (२॥ माशे) | तक बालुका यन्त्रमें पकाइये । खाकर ऊपरसे खरसार और बाबची के चूर्णको घृत इसके सेन करनेसे चातुर्थिक ( चौथिया) तथा शहद में मिलाकर चाटनेसे “चर्म कुष्ठ" नष्ट ज्वर नष्ट होता है । (मात्रा-२-३ रत्ती। अद्रकके होता है। रस के साथ ।) For Private And Personal Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२२४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि AVRARAVIvn/AV/ (१९१६) चातुर्थिकारि रसः (१) सुखाकर आठ पहरकी अग्नि दीजिए। फिर स्वांग (वृ. यो त. । त. ६०) । शीतल होने पर गोले को निकाल कर पीस लीजिए। दरदः पारदश्चैव सितमल्लश्च तालकः। इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार खांडमें मिलाकर समभागानि सर्वाणि गुन्द्रानीरेण मर्दयेत् ॥ | सेवन करने और दूध भात खानेसे चातुर्थिक ज्वर मुद्गमात्रां वटीं कृत्वा सितया शीतारिणा। नष्ट हो जाता है। गिलेचातुर्थिके योज्यं सय खिच्चडिकाघृतम् ॥ (१९१८) चातुर्थिकारि रसः (३) भक्षयेत्रिदिनं रोगी ज्वरःशाम्यति निश्चितम् ॥ । (र. सा. सं.; र. चं.; र. रा. सु. । ज्वर.) ___ शुद्ध शंगरफ़, शुद्ध पारद, शुद्र संखिया (सफेद) और शुद्र हड़ताल समान भाग लेकर हरितालं शिलां तुत्थं शङ्खचूर्णश्च गन्धकम् । सबको गोंदनीके रसमें घोटकर मूंगके बराबर | समांशं मईयेत्याज्ञाकुमारीरसभावितम् ॥ गोलियां बना लीजिए। शरावसम्पुटे कृत्वा पश्चाद्गजपुटे पचेत् । इन्हें मिश्रीमें मिलाकर ठण्डे पानी के साथ कुमारिकारसेनैव वल्लमात्रा वटीकृता ।। निगलने के बाद तुरन्त घृत युक्त (मूंगकी) खिचड़ी दत्वा शीतज्वरं हन्ति चातुर्थिक विशेषतः । मरिचघृतयोगेन तक्रं पीत्वा चरेद्वटीम् ॥ खानेसे ३ दिनमें चातुर्थिक ज्वर अवश्य नष्ट हो जाता है। एतया रमणं भूत्वा ज्वरस्तस्माद्विनश्यति ॥ (मात्रा १ गोली-ञ्बर आने के ३-४ . शुद्र हरताल, शुद्ध मनसिल, शुद्र तूतिया, घन्टा पूर्व ।) शंखका चूर्ण और गन्धक समान भाग लेकर घीकुमारके रसमें घोटकर टिकिया बना लीजिए और (१९१७) चातुर्थिकारि रसः (२) उन्हें सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके गजपुट में फूंक (र. का. धे. । ज्वर.) दीजिए, तत्पश्चात् उसे धोकुमारके रसमें घोट कर पलद्वयं तालकस्मोन्मत्ताद्भिर्मदयेत् त्रिधा । वटभस्मार्मणे चूर्णमध्ये निक्षिप्य गोलकम् ।। १-१ वल्ल (२-३ रत्ती ) की गोलियां बना | लीजिए। शरावेण विमुद्रयाथ वहिर्यामाष्टकं भवेत् ।। इनके सेवनसे शीतज्वर और विशेषकर चातुतद् गुञ्जा खण्डसंयुक्ता दुग्धभक्ताशनेन च ॥ |र्थिक (चौथिया) ज्वरका नाश होता है । चातुर्थिकारिरपरो वमनावमनेन च ॥ ___२ पल (१० तोले) शुद्ध हरतालको धतूरेके | इन्हें स्याह मिर्च और घृतयुक्त तक्रके साथ रसकी ३ भावना देकर गोलाबना लीजिए और उसे सेवन करना चाहिए। सुखा कर १६ सेर बड़की राख के बीचमें (मिट्टी / (१९१९) चातुर्थिकारिरस (४) (भै.र.।ज्वर.) के हण्डेमें) रखकर उसके मुखको शरावसे ढक रसगन्धकलौहाभ्रहरिताल समांशिकम् । कर सन्धीको अच्छी तरह बन्द कर दीजिए, और | रसाईप्रमितं हेमं सर्व खल्लोदरे क्षिपेत् ॥ For Private And Personal Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् द्वितीयो भागः। [ २२५] aronrrrrrrr.nn AMRATAKAAAAAAAAAmov कृष्णधुस्सूरपयसा मुनिपुष्परसेन च। लेकर दोनोंकी कज्जली बनाइये और उसे ३ दिन भावयित्वा वटी कार्या द्विगुञ्जाफलमानतः॥ तक धी कुमारके रस में घोटकर ३ भाग शुद्ध चम्पकद्रवयोगेन सेवितोऽयं रसेश्वरः। ताम्रके पत्र पर लेप कर दीजिए फिर उस पत्रको चातुर्थिकादीन् निखिलान् निहन्धाद्विषमज्वरान् राखसे भरी हुई हाण्डीके बीचमें दबाकर २ पहर (व्याहिकारिश्चातुर्थिकारिश्च रसो ज्वरविरतौ तक पकाइये, तत्पश्चात् स्वांग शीतल होने पर प्रयोज्य इति वृद्धवैद्याः।) निकालकर नीबूके रसमें धोटकर टिकिया बनाकर शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, अभ्रक सम्पुटमें बन्द करके गज पुट दीजिए। इसी प्रकार भस्म और हरिताल १-१ भाग, और ३ भाग नीबूके रसमें सात पुट देकर पीसकर सुरक्षित रखिए। स्वर्ण भस्म लेकर कजली बना लीजिए फिर उसे इसमेंसे प्रतिदिन १ रत्ती दवा शहद और काले धतूरेके रस और अगस्तिके फूलों के रसमें घीमें मिलाकर खानेके बाद ऊपरसे काञ्जीके साथ धोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। मूसली और ल्हन पीस कर पीना चाहिए। ___ इन्हें चम्पकके रसके साथ देनेसे चातुर्थिक इसके सेवनसे भगन्दर रोग नष्ट होता है । (चौथिया) आदि समस्त विषमज्वर नष्ट होते हैं। इसके सेवन कालमें मधुराहार करना चाहिए वृद्ध वैद्यों का मत है कि चातुर्थिकारि और और दिनमें सोना, मैथुन करना तथा शीतल खान त्र्याहिकारिरस उस समय देने चाहिएं जब ज्वर पानसे परहेज़ करना चाहिए। चढ़ा हुवा न हो। (१९२१) चित्राम्बररस: (१९२०) चित्रविभाण्डको रसः (र. मं. । अ. ६; र. रा. सुं.; र. का. धे. । संत्र) ( मै. र.; धन्वं. । भगन्द.) शुद्धमूतं मृतं चादं गन्धकं मर्दयेत्समम् । लोहपात्रे घृताभ्यक्ते यामं मृद्धमिना पचेत् ।। शुद्ध सूतं द्विधा गन्धं कुमारीरसमर्दितम् । चालयेल्लोहदण्डेन ह्यवतार्य विभावयेत् । . यहान्ते गोलकं कृत्वा तानं तेन प्रलेपयेत् ॥ त्रिदिनं जोरकैःकाथैर्मापैकं भक्षयेन्नरः ॥ द्वयोः समं भस्नपूर्णपात्रे रुद्धा विपाचयेत् । रसश्चित्राम्बरो नाम ग्रहणीं रक्तसंयुताम् । द्वियामान्ते समुद्धत्य स्वाङ्गशीतं विचूर्णयेत् ॥ शमयेदनुपानेन आमशूलं प्रवाहिकाम् ॥ जम्बीरस्य रसै पिष्ट्वा रुद्धा सप्तपुटे पवेत् । शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म और गन्धक समान गुन मधुनाज्येन लिह्याद्धन्ति भगन्दरम् ॥ भाग लेकर कजली बना कर उसे घृतसे चिकने मुसली लशुनं चामुं चारनालयुतं पिबेत् । किए हुवे लोहपात्रमें १ पहर तक मन्दाग्नि पर कर्तव्यो मधुराहारो दिवास्वप्नं च मैथुनम् ॥ पकाइये । पकाते समय लोहेको डण्डी आदिसे वर्जयेत् शीतलाहार रसे चित्रविभाण्डके ॥ चलाते रहना चाहिए । इसके पश्चात् उसे ३ शुद्ध पारद १ भाग और गन्धक २ भाग दिन तक जीरेके क्वाथमें घोटिए । भा० २९ For Private And Personal Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि - - ...AF.HRAVANNAPAAAAHUNAVRAAAAAAJhyanhAPNAVx.hAAN AN........... ........KINN इस “चित्राम्बर रस'को १ माशेकी मात्रा- (१९२३) चिन्तामणिरसगुटी नुसार सेवन करनेसे रक्तयुक्त संग्रहणा, आमशूल (शुद्ध चिन्तामणिः ) ( यो. चि. । गुटि.) और प्रवाहिका (पेचिश )का नाश होता है । व्योषं गन्धं रसेन्द्र विषमपि ( व्यवहारिक मात्रा-३--४ रत्ती । अनुपान जीरे लवणं नागवङ्गं तथाभ्रम् । या कुड़ेकी छालका काढ़ा ।) सारं त्रिक्षारयुक्तं गजकणचिन्तामणिचतुर्मुखरसः चविकासाग्निक जीरके द्वे ।। ( भै. र.; धन्वन्त. । वा. व्या.) पथ्या वा चूर्ण मेतत्प्रबल चतुर्मुखरस सं. १८८१ देखिए । रसयुतं नागवल्लीकरीरम् । निम्बूकाट्टै रसादिप्रबल (१९२२) चिन्तामगिरसगुटिका रसयुतं शुद्धचिन्तामणि रसः॥ ( यो. चि. म. । गुटिका अ.) त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल, ) शुद्ध पारा, मृतं गन्धकटङ्कणं समरिचं शुण्ठी विषं पिप्पली। शुद्ध गन्धक, शुद्र मीठा तेलिया, सेंधा नमक, स्वर्जीक्षारफलान्वितश्च लवणं पश्चाभ्रक सीसा भस्म, वङ्ग ( रांग ) भस्म, अभ्रक भस्म, जीरकम् ।। लोह भस्म, सज्जीखार, जवाखार, सुहागेकी खील, यावक्षारसमं समांशकमिदं खल्वे शनैःशोषयेत। गजपीपल, चव, चीता, स्याहजीरा, सफेद जीरा स्थानिम्बूकभुजङ्गमाईकरसैःशुढेष चिन्तामणिः।। और हरेका समान भाग चूर्ण लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य शुद्र पारा, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, | ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर नागरवेलके पान, करीर, मिर्च, सोंठ, शुद्ध मीठा तेलिया, पीपल, सज्जीखार नीबू और अद्रकके रसमें भली भांति घोट कर ( सोडा ), त्रिफला, पांचों नमक, ( सेवा, काला सुखा लीजिए। नमक, समुद्र नमक, खारी नमक और काचलवण -कचलौना- ) अभ्रक भस्म, जीरा, और जवाखार (प्रमेह तथा ज्वरमें १-२ रत्ती मात्रानुसार समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली । शहदके साथ खिलाएं । बना लीजिए. तत्पश्चात अन्य ओषधियोंका चूर्ण (१९२४) चिन्तामणिरसः (१) मिला कर नीब , पान और अद्रकके रसकी सात (र. सा. सं.; र. रा. सुं.; धन्वं.; भै. र. । ज्वर.) सात भावना दीजिए। रसविषगन्धकटङ्कणताम्रयवक्षारकं व्योषम् । ( यह आमज्वर, और सन्निपातमें प्रयुक्त दन्तीफलत्रयश्च क्षौद्रं दत्त्वा शतं वारान् । होता है । मात्रा १ रत्ती अनुपान----शहद और सम्मथ रक्तिमिता वटिकाःकार्या भिषग्भिःप्राज्ञैः। अदरकका रस ।) शुण्ठीपिष्टेन सममेकां द्वे वाऽथवा तिस्रः॥ For Private And Personal Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२२७] सम्माश्य नारिकेलीजलमनुपेयं प्रयुञ्जीत। थोड़ा थोड़ा डालकर घोटते हुने १०० बारमें भेदानन्तरमेव प्रक्षालितभक्ततक्रमुपयोज्यम् ॥ मिलाना चाहिए । शेषात्सैन्धवजीरं तक्रं भक्तं प्रयोक्तव्यम् । (१९२५) चिन्तामणिरसः (२) प्रशमयति सनिपातज्वरं तथा जीर्ण विषमश्च ॥ (र. सा. सं.; र. का. धे. । ज्वरा. ) प्लीहानञ्चाध्मानं कासं श्वासञ्च वह्निमान्यम् । रसं गन्धं विषं लौहं धर्तवीजन्तु तत्समम् । चिन्तामणिरसोऽयं किल नियतं भैरवेण निर्दिष्टः।। द्वौभागोताम्रवह्नयोश्च व्योषचूर्णञ्च तत्समम॥ __शुद्ध पारा, शुद्ध मीठा तेलिया, शुद्ध गन्धक, जम्बीरस्य च मज्जाभिराईकस्व रसैर्युतम् । मुहागेकी खील, ताम्रभस्म, जवाखार, त्रिकुटा अस्यानुपानेन वटी ज्वरे देया प्रयत्नतः ॥ ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), शुद्ध जमालगोटा और गुञ्जाद्वयां वटी खादेत्सद्यो ज्वरं व्यपोहति । हर्र, बहेड़ा, आमला समान भाग लेकर प्रथम वातिकंपैत्तिकश्चापि श्लैष्मिकं सानिपातिकम्।। पारे गन्धककी कजली बना लीजिए और फिर | ऐकाहिकं द्वयाहिकञ्च चातुर्थिकविपर्ययम् । अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर १०० असाध्यश्चापि साध्यश्च ज्वरश्चैवातिदुस्तरम् ।। बार शहदमें खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां अनिमान्येऽप्यजीणेच आध्मानेऽनिलसम्भवे । बना लीजिए। अतिसारे छदिते च अरोचकनिपीडिते॥ इनमेंसे १-२ या ३ गोली सोंउके कल्क | ज्वरान्सर्वानिहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा। ( पिट्टी )के साथ खाकर ऊपरसे नारयलका पानी चिन्तामणिरसो नाम सर्वज्वरं व्यपोहति ॥ पीना चाहिए। शुद्र पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्र मीठा तेलिया __ यदि रोगीको दस्त आ जाएं तब तो इस | ( बछनाग ), लौह भस्म, और धतूरेके बीज १-१ दवाके बाद चावलोंका धुला हुवा ( मांड निकाल भाग तथा २-२ भाग ताम्र-भस्म और चीतेका कर साफ़ किया हुवा ) भात और तक खाना चूर्ण, एवं ४ भाग त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) चाहिए, अन्यथा तक्रमें सेंधा नमक और जीरा का चूर्ण लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली | बना लीजिए और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर उसके साथ भात खाना चाहिए। मिलाकर जम्बीरी नीबू और अद्रकके रस में खरल इसके सेवनसे सन्निपात, जीर्णज्वर, विषमज्वर करके २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। तिल्ली, अफारा, खांसी, श्वास, और अग्निमांद्यका इनमेंसे १-१ गोली जम्बीरी नीबूके गूदे और नाश होता है। अद्रकके रसके साथ सेवन करनेसे वातज, पित्तज, ____ नोट-औषध बनाते समय शहद इतना कफज और सन्निपात ज्वरका नाश होता है। यह लेना चाहिए कि जिसमें सब औषधे मिलकर गोलियां रोजाना, तिजारी और चातुर्थिक विपर्यय गोलियां बन सकें, और उसे एकदम न मिला कर | इत्यादि अत्यन्त दुःसाध्य ज्वरोंका भी नाश कर For Private And Personal Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। चकारादि MAAwhavvvvvvvvvvvvvvvvsa PVVVIYAFVvvvvNRVuMANV. vvvvvv देती हैं । इसके सिवाय यह अग्निमांद्य, अजीर्ण, गंगापन, बहिरापन, गर्भिणीके रोग, पथरी, प्रसूतवातज आध्मान, अतिसार, वमन और अरुचिमें रोग, प्रदर, सोमरोग, और राज यक्ष्माका नाश भी हितकारी हैं। करता है, एवं बल, वर्ण, अग्नि, कान्ति और (१९२६) चिन्तामणिरसः (३) पुष्टिकी वृद्धि करता है। (र. सा. स.; धन्वं.; र. चं. । वातव्या.) यह चिन्तामणि रस चिन्तामणि रत्नके समान क रससिन्दूरं तत्समं मृतमभ्रकम् । ही मूल्यवान औषध है। तदर्धे मृतलौहश्च स्वर्णशाणं क्षिपेद्धः ॥ नोट-यह रस लगभग चतुर्मुख रस सं. कन्यारसेन सम्मर्थ गुञ्जामानां वटीचरेत ।। १८८१ के समान ही है। अनुपानादिकं दद्याद्वध्वा दोषबलाबलम् ॥ (१९२७)चिन्तामणिरसः (४) (भै. र. हृद्रोग) हन्ति श्लेष्मान्वितं वातं केवलं पित्तसंयुतम् । पारदं गन्धकश्चाभ्रं लौहं वङ्गं शिलाजतु । हृल्लासमरुचिं दाहं वान्ति भ्रान्ति शिरोग्रहम् ।। समं समं गृहीत्वा च स्वर्ण मूताशिसम्मितम् ॥ प्रमेहं कर्णनादश्च ज्वरं गद्गदमूरुताम् । स्वस्थ द्विगुणं रौप्पं सर्वमेकत्र मदयेत् । वाधियं गर्भिणीरोगमश्मरी सूतिकामयम् ॥ चित्रकस्प द्रवेणापि भृङ्गराजाम्भसा ततः ॥ पार्थस्थाथ कषायेण सप्तकृत्वो विभावयेत् । बलवर्णाग्निदः सम्यक् कान्तिपुष्टिप्रसाधकः ॥ ततो गुञ्जामिताः कुर्याद्वटी छायाप्रशोषिताः ॥ चिन्तामणिरसश्चायं चिन्तामणिरिवापरः॥ एकैकां दापयेदासां गोधूमकाथवारिणा। ___ रस सिन्दूर १ कप ( १॥ तोला ), अभ्रक हृद्रोगानिखिलान्हन्ति व्याधीन्फुफ्फुसजानपि भस्म १ कर्ष, लोह भस्म आधा कर्ष और स्वर्ण प्रमेहान् विंशतिश्वासान् कासानपि सुदुस्तरान् । भस्म १ शाण (३॥ माशे) लेकर सबको घी- बलपुष्टिकरो हृयो रसश्चिन्तामणिः स्मृतः ॥ कुमारके रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, लोह बना लीजिए। भस्म, वङ्ग भस्म और शिलाजीत १-१ भाग, ___ इन्हें दोष और रोगी तथा रोगके बला- चांदी भस्म आधा भाग और स्वर्ण भस्म चौथाई बलका विचार करके उचित अनुपानके साथ सेवन भाग लेकर प्रथम पारद और गन्धकको एकत्र करनेसे वात, पित्तयुक्तबात और कफयुक्त वातका । घोटकर कजली बना लीजिए, तत्पश्चात् अन्य नाश होता है। औषधे मिलाकर चीतेके काथ, भांगरेके स्वरस और यह रस हल्लास (जी मचलाना ), अरुचि | अर्जुनके काथकी पृथक् पृथक् सात सात भावना दाह, वमन, भ्रम, शिरोप्रह, प्रमेह, कर्णनाद देकर १-१ रत्तीकी गोलियां बनाकर छायामें ( कानोंमें शब्द होते रहना), ज्वर, गद्गद्ता : सुखा लीजिए। For Private And Personal Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग। [ २३९ ] इन्हें गेहके काथके साथ सेवन करनेसे समस्त । अयमेव रसो देयो मृतकल्पे गदान्तरे । हृद्रोग फुफ्फुस रोग, बीस प्रकारके प्रमेह, सन्निपाते तथा वाते त्रिदोषे विषमज्वरे ॥ भयङ्कर श्वास और खांसीका नाश तथा बल अग्निमान्ये ग्रहण्याञ्च शूले वातिसृतौ पुनः। पुष्टिकी वृद्धि होती है। शोथे दुर्नाम्नि चाध्माने वाते सामे नवज्वरे । (१९२८) चिन्तामणिरसः (५) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म (र. सा. सं. । ज्वर ।) १-१ भाग, शुद्ध मीठा तेलिया आधा भाग तथा हाटकं रजां तानं मुक्ता गन्धकपारदौ। | शुद्ध जमाल गोटा १॥ भाग लेकर प्रथम पारे त्रिकटु कुनटी चैव कस्तूरी च पृथक पृथक् ॥ और गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् जलेन वटिका कार्या द्विगुञ्जाफलमानतः। अन्य औषधे मिलाकर नीबूके रसमें घोटकर गोला चिन्तामणिरसो होष ज्वराष्टानां निकृन्तनः ॥ बनाइये और उसे सुखाकर नागरबेलके पानमें लपेटकर स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म, ताम्रभस्म, मोती, सम्पुटमें बन्द करके कुक्कुट पुट में फूंक दीजिए। शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च पश्चात् स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पानों और पीपल), तथा मनसिल और कस्तूरी समेत पीसकर उसमें आधा आधा भाग शुद्ध बराबर बराबर लेकर प्रथम पारे और गन्धककी जमालगोटा और शुद्ध मोठा तेलिया मिलाकर एकत्र कजली बना लीजिए, और फिर अन्य ओषधि- | घोटकर रखिए। योंका महीन चूर्ण मिलाकर पानीसे घोटकर २-२ इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार सोंठ, सेंधा और रत्तीकी गोलियां बनाइये । चीतेके चूर्णके साथ मिलाकर सेवन करनेसे समस्त ___इसके सेवनसे ८ प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं। प्रकारके ज्वर, शूल, संग्रहणी और उदर विकार (१९२९) चिन्तामणि रसः (६) | नष्ट होते हैं। (भै. र.; र. रा. सुं.; र. का. थे.। ज्वर.; यो. त.। इस रसको मृत्युके समान भयङ्कर सन्निपात, त. २०;३. यो. त.। त. ५९.; रसें. चि.अ. ९) | वायु, विषमज्वर, अग्निमांद्य, ग्रहणी, शूल, अतिसार, सूतं गन्धकमभ्रकं समलवं मूताधभागं विषम्। शोथ, बवासीर, अफारा, आमवात (गठिया) और तत्व्यंशं जयपालमम्लमृदितं तद्गोलकं वेष्टितम्।। नवीन ज्वर इत्यादि अन्य रोगोंमें भी व्यवहार पत्रैमञ्जभुजङ्गवल्लिजनितैनिक्षिप्य खाते पुटम् । करना हितकारी है । दत्त्वा कुकुटसंज्ञकं सहदलैः संचूर्ण्य तत्र क्षिपेत्।। इसके सेवनसे यदि ताप अधिक हो तो भागाधैं जयपालबीजममृतं तत्तुल्यमेकीकृतम्। शीतल जलकी धार ( शिरपर ) डालनी चाहिए। गुञ्जानागरसिन्धुचित्रकयुतो सर्वज्वरान्नाशयेत्॥ (अथवा कांजीमें भीगी हुई चादर। उढ़ानी शूलं च ग्रहणीगदं सजठरं दध्यन्नसंसेविताम् । चाहिये । ) तापे सेचनकारिणां गदवतां मूतस्य चिन्तामणेः।। पथ्य-दही भात । For Private And Personal Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [चकारादि varuvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv (अनुपान-शहद । या रोगोचित अन्य काथादि।) शुद्र पारा, ताम्र भस्म, शुद्ध गन्धक, १-१ (१९३०)चिन्तामणिरसः(७) (र. सा. सं.।ज्व.) कर्ष ( १। तोला ), शुद्ध मीठा तेलिया आधा कर्ष, तालकं शुल्वकं चूर्ण शिखिग्रीवं समांशिकम् । और तिन्तिडीकका चूर्ण चौथाई कर्ष लेकर प्रथम संपिष्य कारयेत्सर्वं चक्रिकासन्निभं शुभम् ॥ पारे गन्धककी कजली बनाइये तत्पश्चात् अन्य शरावपिहितं रात्रौ पचेद्गजपुटेन तु । ओषधियां मिलाकर नीबूके रसमें घोटकर गोला स्वांगशीतं समुद्धत्य भक्षयेन्माषमात्रकम् ॥ बनाइये । फिर छ: अंगुल गहरे गोल पात्रमें नागरशर्करासहितं सेव्यं सर्वज्वरहरं परम् ॥ बेलके पान बिछाकर वह गोला रखिए और उसे शुद्ध हरिताल, ताम्रभस्म, बे बुझा चूना, पानोंसे ढककर पात्रका मुख बन्द करके उसपर और शुद्ध नीला थोथा समान भाग लेकर पीसकर ३-४ कपर मिट्टी करके सम्पुट बनाकर गजपुटमें टिकिया बनाइये और उन्हें सम्पुट में बन्द करके | फूंक दीजिए । जब संपुट स्वांगशीतल हो जाय रात्रिके समय गजपुटमें फूंक दीजिए । तत्पश्चात् | तो उसमेंसे औषधको निकाल कर उसमें आधा स्वांग शीतल होनेपर निकालकर पीसकर सुरक्षित आधा कप स्याह मिर्च और तिन्तडीकका चूर्ण रखिए। ___इसे १ माशेकी मात्रानुसार मिश्रीके साथ मिलाकर उन पानों समेत पीसकर १-१ रत्तीको मिलाकर सेवन करनेसे समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट गोलियां बना लीजिए। होते हैं । ( व्यवहारिक मात्रा २ रत्ती । ज्वर इसे दोषानुकूल अनुपानके साथ त्रिदोषज आनेसे ३-४ घन्टे पहिले दें।) अतिसार और संग्रहणीमें देना चाहिए । (१९३१) चिन्तामणिरसः (८) (र. सा. सं. । ज्वराति०) (१९३२) चिन्तामणिरसः (९) शुद्धमृतं मृतं तानं गन्धकं प्रतिकार्षिकम् । । (यो. र.; र. रा. सु.। यक्ष्मा.; वै. क. द्रु. । स्क०२) चूर्णयेद्विपकर्षाई विषा तिन्तडीफलम् ॥ रसेन्द्रवैक्रान्तकरौप्यताम्र मर्द येत्खल्लमध्ये तु चाम्लेन गोलकीकृतम् । सलोहमुक्ताफलगन्धहेम । गर्भ षडङ्गुलं कुर्यात्सर्वतो वर्तुलं शुभम् ॥ विर्भावितं चाऽकभृङ्गवहिनागबल्ल्याः क्षिपेत्पत्रमादा पात्रे च गोलकम् । ___ रसैरजागोपयसा तथैव ॥ आच्छाद्य तच्च पात्रेण रुद्धा गजपुटे पचेत् ॥ अशःक्षयं कासमरोचकञ्च स्वाङ्गशीतं समुद्धत्य सपत्रञ्च विशेषतः। ___ जीर्णज्वरं पाण्डुमपि प्रमेहान्। कर्षार्द्ध मरिचं दत्वा कर्द्धि तिन्तडीफलम् । गुञ्जाप्रमाणं मधुमागधीभ्याम् गुञ्जामितां वटी कुर्याचिन्तामणिरसो महान् । लीढं निहन्याद्विषमं च वातम् अतिसारे त्रिदोषोत्थे संग्रहग्रहणीगदे। चिन्तापणिरिति ख्यातः अनुपानं विधातव्यं यथादोषानुसारतः ॥ । पार्वत्या निर्मितः स्वयम् ॥ For Private And Personal Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [ २३१] __ शुद्ध पारा, वैक्रान्त भस्म, रौप्य भस्म. ताम्र आध्मानगुल्मौ च विवन्धशूले भस्म, लोह भस्म, मोती भस्म, शुद्ध गन्धक, और तूनीप्रतून्यौ विलयं प्रयान्ति ॥ स्वर्ण भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे और शुद्र पारा १ भाग, और गन्धक २ भाग गन्धककी कजली बनाइये, फिर अन्य औषधे लेकर कजली बनाकर उसे पिया बांसा ( काला मिलाकर अद्रकके स्वरस, भांगरेके रस, चीतेके | | बांसा )के रस, नीबूके स्वरस, और इमलीके खारके काथ तथा गाय और बकरीके दूधकी ३-३ पानी में एक एक दिन घोटकर गोला बना कर सुखाकर भावनाएं दीजिए। उसे तांबेके सम्पुट में बन्द करके उसके ऊपर कपर पार्वती निर्मित इस चिन्तामणि रसको १ | मिट्टी करके अच्छी तरह सुखा लीजिए, और उसे रत्तीकी मात्रानुसार शहद और पीपलके चूर्णके साथ लवण यन्त्रमें ( ३ पहर तक ) पकाइये, पश्चात् सेवन करनेसे बवासीर, क्षय, खांसी, अरुचि, जीर्ण- सम्पुटके स्वांग शीतल हो जाने पर उसमेंसे ज्वर, पाण्डु, प्रमेह, विषमज्वर और वायुका नाश | औषधको निकालकर उसमें पारेसे चौथाई गन्धक होता है। और शुद्ध मीठा तेलिया मिलाकर ज़रा देर मन्दाग्नि (१९३३) चिन्तामणिरसः (१०) पर पकाइये । और फिर ( एक दिन ) चीतेके (र. र. स. । उ. खं. अ. १८) काथमें घोटिए। मूतेन गन्धं द्विगुणं विमर्य ___इसे १ वल्ल (२-३ रत्ती )की मात्रानुसार कोरण्टनिम्बूत्थरसैदिनं तत् । | अरण्डीके तेल और शहद में मिलाकर सेवन करनेसे चिचोद्भवक्षाररसेन चैक गुल्म, तूनी, प्रतितूनी, और आध्मान रोगका नाश होता है। दिनञ्च गोलं रविसम्पुटस्थम् ॥ ___अपथ्य---खट्टे पदार्थ, तेल और ठण्डी चीजें। लिप्त्वा मृदा शुष्कमतीव कृत्वा सामुद्रयन्त्रेण पुटं ददीत । (१९३४) चिन्तामणिरसः (११) (र.चं.।ज्व.) उद्धृत्य शीतं रसपादभागं रसभागो भवेदेको गन्धञ्च द्विगुणं भवेत् । प्रक्षिप्य गन्धं विपचेन्मनाक च ॥ | टङ्कणस्य त्रयो भागाःशृङ्गवेरं चतुर्गुणम् ।। विषं च दत्वा रसपादभागं मरीचं पञ्चभागश्च षड्भागा च हरीतकी । लोहस्य पात्रेऽथ कृशानुतोयैः । जैपालं सप्तभागं स्यात् सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। रसस्तु चिन्तामणिरेष उक्तो भृङ्गराजरसेनैव खल्वे निक्षिप्य मर्दयेत् । वातारितैलेन समाक्षिकेण ॥ चणप्रमाणा वटिका गुडेन सह भक्षयेत् ॥ वल्लेन मानं प्रददीत चाम्लं उष्णं सेकादिकं कुर्यादुष्णं वारिपिबेन्मुहुः। सैलं च शीतं परिवर्जयेञ्च । | आमान्तं रेचनं कुर्यादजीर्णज्वरनाशनम् ॥ . For Private And Personal Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२३२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि Muvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvraniwww जलोदरं कामलाच शोफशुलविनाशनम् । अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर द्रोणपुष्पी (गूमा) रसश्चिन्तामणि ख्यातःशूलपाण्डूदरं हरेत् ॥ के रसमें घोटकर सुखाकर कपड़े में छान लीजिए। शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, | इसे १ या २ रत्तीकी मात्रानुसार अद्रकके सुहागेकी खील ३ भाग, सोंठका चूर्ण ४ भाग, रसके साथ सेवन करनेसे अजीर्ण, आठ प्रकारके मिर्चका चूर्ण ५ भाग, हर्रका चूर्ण ६ भाग और । ज्वर, समस्त प्रकारके शूल और आम रोग नष्ट शुद्ध जमालगोटा ७ भाग लेकर महीन चूर्ण करके होते हैं। भांगरे के रसमें घोटकर चनेके बराबर गोलियां (१७३६) चिन्तामणिवटिका (र.का.धे.वर.) बना लीजिए। लवङ्गं चित्रकं शुण्ठी जैपालं च चतु:समम् । (प्रातःकाल ) एक गोली मुड़के साथ खाकर टङ्कणं च प्रदातव्यं वृद्धदारु च कार्षिकम् ।। ऊपरसे बारबार उष्ण पानी पीना और पेट पर | मूतञ्च गन्धगरलमरिचं मेलयेत्समम् । सेक करनी चाहिए। इससे विरेचन होकर आम दन्तीद्रवैः प्रकर्तव्य भावना त्रितयं तथा ॥ निकल जाती हैं और अजीर्ण, ज्वर, जलोदर, माषमात्रा प्रकर्त्तव्या वटिका ज्वरनाशिनी। कामला, सूजन, शूल, पाण्डु और उदर रोगोंका | वटी त्रयश्च पूर्वाह्न शीतं तोयं पिबेदनु । नाश होता है। जीर्णज्वरप्रशमनी पथ्यादेव नियच्छति ।। (१९३५) चिन्तामणिरसः (१२) लौंग, चीता, सोंठ, शुद्ध जमालगोटा, सुहागेकी ( र. का. धे.; भै. र.; वै. र. र.; चं.; र.सा. सं.; खील, बिधारा, शुद्र पारा, शुद्र गन्धक, शुद्ध र. रा. सुं. । ज्वर.; र. मं. । अ. ६; रसे. चि. मीठा तेलिया और स्याहमिर्चका चूर्ण बराबर म. । अ. ९) बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना रसं गन्धं मृतं शुल्वं मृतमभ्रं फलत्रिकम् । लीजिए, तत्पश्चात् अन्य ओषधियों का चूर्ण मिला ध्युषणं बीजजैपालं खल्वे विमर्दयेत् ॥ कर दन्तीके काथकी तीन भावना देकर १-१ द्रोणपुष्पीरसैर्भाव्यं शुष्कं तद्वस्त्रगालितम । माशेकी गोलियां बना लीजिए । चिन्तामणिरसो ह्येष त्वजीर्ण शस्यते सदा ॥ प्रातःकाल शीतल जल के साथ ३ गोली खाने ज्वरमष्टविधं हन्ति सर्वशूलेषु शस्यते। और पथ्य पालन करनेसे जीर्णज्वर नष्ट होता है। गुज्जैकं वा द्विगुजं वा देयमाद्रकवारिणा॥ (व्यवहारिक मात्रा-४-६ रत्ती) शुद्ध पारा,शुद्ध गन्धक,ताम्र भस्म,अभ्रक भस्म (१९३७) चुम्बकः ( आ. वे. प्र. । अ. ८.) हर्र, बहेड़ा, आमला,त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) स तु पाषाणजातिः उक्तश्च-. और शुद्ध जमालगोटा समान भाग लेकर प्रथम कान्तलोहाश्मभेदाः स्युश्चुम्बकभ्रामकादयः। पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए फिर चुम्बकाकान्तपाषाणोऽयस्कान्तो लोहकर्षकः।। For Private And Personal Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२३३] अथ गुणाः शिरोरोगं कर्णशूलं दन्तशूलं गलग्रहम् । चुम्बको लेखनः शीतो मेदोविषजरापहः। वातपित्तसमुद्भूतं ग्रहणी सर्वसम्भवाम् ॥ कण्डूपाण्डूदरर॑ण्यमोहमूर्छादिरोगहृत् ॥ आमवातं कटीशूलमग्निमान्यं विचिकाम् । अथास्य शोधनमुपयोगश्च अजैसि कामलां मेहं मूत्रकृच्छ्रादिकश्च यत् ।। सौभाजनरसे साम्लवर्गे दोलागतो दिनम्। तत्सर्व नाशयत्याशु विष्णुचक्रमिवासुरान् । पाचितःशुध्यते कान्तपाषाण पारदोपकृत् ॥ चूडामणिरसो ह्येष शिवेन परिकीर्तितः॥ ' चुम्बक ' एक प्रकारका पत्थर होता है, | पारद भस्म ( रस सिन्दूर ) मूंगा भस्म, जैसा कि कहा गया है कि " कान्तलोह, चुम्बक, स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म, वङ्ग भस्म, ताम्र भस्म, और भ्रामक आदि पाषाण भेद हैं । चुम्बक, कान्त- मोती भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म और अभ्रक भस्म पाषाण, अयस्कान्त और लोहकर्षक, यह सब एक समान भाग लेकर पानीसे घोटकर २-२ या ही पदार्थके नाम हैं। ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । गुण----चुम्बक लेखन, शीतल, भेदन विष श्री शिवोक्त यह चूडामणि रस धातुगतज्वर, और जरानाशक, तथा खुजली, पाण्डु, उदररोग, । सन्निपातज्वर, विषमज्वर, काम और शोकजनितक्षीणता, मोह और मूर्छानाशक है । ज्वर, खांसी, श्वास, सर्वांगमें उत्पन्न होने वाले __ शोधन-चुम्बक पत्थरको १ दिन दोला- नाना प्रकारके शूल, शिरो रोग, कर्ण शूल, दन्त यन्त्र विधिसे अम्लवर्ग ( अम्लबेत, जम्बीरी नींबू , शूल, गलग्रह, वातपित्तज तथा सन्निपातज संग्रहणी, विजौरा नींबू , चूका, नारंगी, तिन्तडीक, इमलीका आमवात, कटिशूल, अग्निमांद्य, विषूचिका, बवासीर, फल, कागजी नीबू , दाडिम और करोंदा )युक्त कामला, प्रमेह और मूत्रकृच्छ्रादि समस्त रोगोंको सहंजनेके रसमें पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है। अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता है। ___कान्त पाषाण ( चुम्बक ) पारदकी शक्तिको (१९३९) चूडामणिरसः (भै. र. । यक्ष्मा.) बढ़ाता है। द्विनिष्कं रससिन्दूरं तददै हेमजारितम् । (१९३८) चूडामणिरसः (र.चं.र.सा.सं.।ज्वर.) निष्कद्वयं गन्धकश्च मर्दयेच्चित्रकद्वैः॥ मृतं मूतं प्रवालश्च स्वर्ण तारं च वङ्गकम् । कुमारिकाद्रवैर्यामं छागदुग्धे त्रियामकम् । भुल्वं मुक्तां तीक्ष्णमभ्रं सर्वमेकत्र योजयेत् ॥ मुक्ताविद्रुमवङ्गानां निष्कं निष्कं विमिश्रयेत् ॥ जलेन पिष्ट्वा वटिका कार्या वल्लप्रमाणतः। गोलकं पूरयेद्भाण्डे रुवा गजपुटे पचेत् । धातुस्थं सन्निपातोत्थं ज्वरं विषमसम्भवम् ॥ स्वाङ्गशीतं विचूाथ भक्षयेद्रक्तिका द्वयम् ॥ कामशोकसमुद्भतं त्रिदोषजनितं तथा । मधुना क्षयरोगघ्नं वातपित्तसमुद्भवम् । फास भासश्च विविधं शूलं सर्वाङ्गसम्भवम् ॥ अजातश्चानु पिबेच्छर्करामधुसंयुतम् ।। भा० ३० For Private And Personal Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२३४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [चकारादि ------- -.. .vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv.. रस सिन्दूर २ निष्क, स्वर्ण भस्म १ निष्क कस्तूरी, मूंगा भस्म, चांदी भस्म, लौह भस्म, ( ५ माशे.) और शुद्र गन्धक २ निष्क । सबको हरिताल भस्म, सोना भस्म, रस सिन्दूर, स्वर्ण १ पहर तक चीतेके क्वाथ और घृतकुमारीके रसमें सिन्दूर, लौंग, मोती, दारचीनी, अभ्रक भस्म, सोना तथा ३ पहर पर्यत बकरीके दूधमें घोटकर उसमें मक्खी भस्म, राजपट्ट भस्म, गोखरु, जायफल, १-१ निष्क मोती भस्म, मूंगा भस्म और वङ्ग जावित्री, स्याह मिर्च, कपूर, तूतिया (शुद्ध या भस्म मिलाकर गोला बना लीजिए और उसे भस्म ) सब एक एक भाग और असगन्धका चूर्ण सम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी अग्नि दीजिए। २ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके संभालके स्वांग शीतल होने पर निकालकर चूर्ण कर रस, भांगरेकी जड़के रस, बासेकी जड़के रस लीजिए। आककी जड़के रस और गोखरुके रसकी अलग .... इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार शहदमें खिलाकर अलग सात सात भावना दीजिए। ऊपरसे मिश्री और शहदयुक्त बकरीका घी पिलाने श्री शिवकथित यह “चूडामणि." रस से वातपित्तज क्षयरोग नष्ट होता है । वातज, पित्तज, कफज, द्विदोषज, सन्निपातज, (१९४०) चूडामणिरस (बृहद) (र.सा.सं.।ज्वर.) सन्तत, सतत, इकतरा, तिजारी, चौथिया, विषमज्वर कस्तूरिकाविद्रुमरौप्पलौहं | और भूताभिषंग ज्वरका अत्यन्त शीघ्र नाश करता है। तालं हिरणं रसभस्म दद्यात् । ( मात्रा २ रत्ती । उचित अनुपानसे दें)। सुवर्णसिन्दूरलवङ्गमुक्ता (१९४१) चूलिकावटी (भै. र. । उदरा.) .. ___चोचं घनं माक्षिकराजपट्टम् ॥ गोक्षाजातीफलजातिकोष रसो गन्धो विषं तालं त्रिकटु त्रिफला तथा। - मरिचकपूरकतुत्थकञ्च । टङ्गनं समभागश्च जयपालञ्चतुर्गुणम् ॥ प्रगृह्य सवै हि समं प्रयत्ना भृङ्गराजरसेनाथ केशराजरसेन वा। . दथाश्वगन्धां द्विगुणं हि वैद्यः ॥ मधुना वटिका कार्या गुञ्जाद्वयमिता शुभा। वक्ष्यमाणौषधैर्भाव्यं प्रत्येकमुनिसंख्यया। चूलिकाख्या वटी ख्याता शोथोदरविनाशिनी। निर्गुण्डीफञ्जिकावासारविमलं त्रिकण्टकैः॥ कामलां पाण्डुरोगश्च आमवातं हलीमकम् ॥ तद्वीर्य कथयिष्यामि वातिकं पैत्तिकं ज्वरम् । हन्याद्भगन्दरं कुष्ठं प्लीहानं गुल्ममेव च ॥ .. कफोद्भवं द्विदोषोत्थं त्रिदोषजनितन्तथा ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया, सन्ततं सततं हन्ति तृतीयकचतुर्थकौ। शुद्ध हरताल, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल,) हर्र; ऐकाहिकं द्वयाहिकञ्च विषमं भूतसम्भवम् ॥ बहेड़ा, आमला, और सुहागेकी खील १-१ भाग नाशयेदचिरादेव वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा। तथा शुद्ध जमाल गोटा सबसे चार गुना लेकर चूडामणिरसो ह्येष शिवेन परिभाषितः ॥ । महीन चूर्ण करके, काले या सफेद भांगरेके रसमें For Private And Personal Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra छकारादिकषायप्रकरणम् ] www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । छ अथ छकारादिकषायप्रकरणम् । (वं. से.; वृं. मा.; ग. नि. च. द. । प्रमे.) छिन्नावह्निकषायं वा पाठाकुटजरामठम् । तिक्ता कुष्ठश्च सञ्चूर्ण्य सर्पिमेही पिवेन्नरः ॥ छिनाशिवापर्पटतोयदानात् अहो ! पाराशरादि मुनिकथित अन्य कषायों की क्या आवश्यकता है? केवल गिलोय, सोंठ (१९४६) छर्दिनिग्रहणो कषायदशकः (च. सं. । सू. स्था. अ. ४) जम्ब्वाम्रपल्लवमातुलुङ्गाम्लबदरदाडिम- और पित्तपापड़ाका काथ ही क्या पित्तज्वरको शान्त reeष्टिकोशीरमृल्लाजा इति दशेमानि छर्दि करनेके लिए पर्याप्त नहीं है ? निग्रहणानि भवन्ति ॥ २८ ॥ (१९४९) छिन्नादिकषायः (वृं. मा. । अम्ल.) छिन्नाखदिरयष्टयाहृदार्व्यम्भो वा मधुद्रवम् ।। जामनके पत्ते, आमके पत्ते, विजौरा नीबू, बेर, दाडिम, जौ, मुलैठी, खस, मिट्टी (पीली मिट्टी) और धानकी खील। यह दश ओषधियां वमन (उल्टी - कै.) को रोकने वाली हैं । (१९४७) छिन्नादिकषायः (अम्लपित्त की शान्तिके लिए) गिलोय, खैर, - मुलेठी, और दारूहल्दोका काथ शहद डालकर पिलाना चाहिए । (१९५०) छिन्नादिकाथः गिलोय और चीतेका काथ अथवा पाठा, इन्द्रजौ, हींग, कुटकी और कूठके समान भाग मिश्रित चूर्णको पीने से सर्पिमेहको आराम होता है। (१९४८) छिन्नादिकषायः (वै. जी. | वि. १; वृ. नि. र. । ज्वर. ) अहो किमर्थ बहुभिर्कषायैः पराशराद्यैर्मुनिभिःप्रदिष्टैः । पित्तज्वरः किं न सरीसरीति ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३७] ( भा. प्र. म. खं । विस्को. ) छिन्नापटोल भूनिम्बवासकारिष्टपर्पटैः । खदिराब्दयुतैः काथो हन्ति विस्फोटकज्वरम् ।। गिलोय, पटोलपत्र, चिरायता, बासा, नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, खैर और मोथेका काथ विस्फोक ज्वरका नाश करता है । (१९५१) छिन्नादिकाथः (वैधामृत | अलं. ३ ) छिन्नाकिरातत्रिफलात्रियामा तिक्तकषायो गुडसम्प्रयुक्तः । शिरः शिरोर्द्धश्रवणाक्षिदन्त For Private And Personal लानि निहन्ति सद्यः ॥ ५१ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [छकारादि गिलोय, चिरायता, हर्र, बहेड़ा, आमला,... और धमासेका काथ, तथा कफचरमें सोंठ, बांसा, हल्दी, और कुटकीके काथमें गुड़ मिलाकर पीनेसे मोथा और धमासेका काथ पीना चाहिए । शिरशूल, आधाशीशी, कर्णशूल, नेत्रोंकी पीड़ा, (१९५५) छिन्नोद्भवादिकषायः(यो.स.।समु.४) दांतका दर्द, भौं और कनपटीका दर्द शीघ्र ही मिनोडवावधाभेषजभराभिः नष्ट हो जाता है। ___ काथीकृतञ्च सलिलं ग्रहणीगदनम् । (१९५२) छिन्नादि काथः (बृ. नि. र. । ज्वर.) गिलोय, मोथा, सोंठ और अतीसका काथ पिप्पलीचूर्णसंयुक्ताकाथश्छिन्नोद्भवोद्भवः। पीनेसे ग्रहणी रोग नष्ट होता है। जीर्णज्वरकफवंसी पञ्चमूलकृतोऽथवा ॥ (१९५६)छिन्नोद्भवादिक्वाथ (वं.से.|अम्ल.पि.) गिलोय अथवा पंचमूलके क्वाथमें पीपलका छिन्नोद्भवा निम्बपटोलपत्रं चूर्ण डालकर पीनेसे जीर्ण वर और कफका नाश फलत्रिकं सुकथितं सुशीतम् । होता है। क्षौद्रान्वितं पित्तमनेकरूपम् (१९५३) छिन्नादिपाचनम् (वृ.नि.र.ज्व.) सुदारुणं हन्ति तदम्लपित्तम् ॥ छिन्नरुहापिचुमन्दकधान्धं गिलोय, नीमकी छाल, पटोलपत्र, हर्र, बहेड़ा विश्वनिशाजनितश्च कषायः। और आमला । इनके क्वाथको ठण्डा करके उसमें शहद मिलाकर पीनेसे अनेक प्रकारके पित्तरोग पाचनकं गुडमिश्रितमेव... । और दारुण अम्लपित्तका नाश होता है । पित्तभवे ज्वर एव हि पेयम् ॥ गिलोय, नीमकी छाल, धनिया, सोंठ, · और । (१९१७) छिन्नाद्भवादिकाथा (या.स.।समु.३) हल्दी के काथमें गुड मिलाकर पित्तवरमें पीनेसे । छिन्नोद्भवाम्बुधरकण्टकिनीकलिङ्ग . दोषोंका परिपाक हो जाता है। पाठाम्बुवैद्यजननीविहितकषायः। . (१९५४) छिन्नोद्भवादिकषायः (वै.जी।वि.१), पीत प्रभातसमये हरति त्रिदोषं __सञ्जातकर्णकरुजं ज्वरमग्निसादम् ॥ छिन्नोद्भवाम्भोधरधन्वयासैः मनिकापरणया। गिलोय, मोथा, कटेली, इन्द्रजौ, पाठा, सुगन्ध विश्वाषाम्भोधरधन्वयासैः बाला और बासेका काथ प्रातःकाल पीनेसे कर्णक सन्निपातज्वर और अग्निमांद्यका नाश होता है। काथो मरुत्पित्तकफज्वरेषु ॥ ..वातज ज्वरमें गिलोग, नागरमोथा और । ॥ इति छकारादिकषायपकरणम् ।। धमासेका काथ; पित्तवरमें चिरायता, मोथा, रणुका, । For Private And Personal Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २३९ ] अथ छकारादिचूर्णप्रकरणम् अथ छकारादिपाकप्रकरणम् (१९५८) छत्रादिचूर्णम् (बृ.नि.र. ।अरु.) (१९६०) छुहारापाकः (मपुं. अ. । त. ४ ) ग्वजूरपस्थं मगधा पलैकम् । छत्रा बीजं तिन्तडीकं द्राक्षा दाडिमजीरकम् ।। दुग्धेन संपाच्यं चतुर्गुणेन ।। सौवर्चलं गुडं क्षौद्रं सर्वारोचकनाशनम् ।। घृतेन संभw पलाष्टकेन । सौंफ, तिन्तडीक, मुनक्का, अनार दाना, द्राक्षाश्वगन्धामुसलीद्वयेन ।। जीरा, सौवर्चल ( काला नमक ) और गुड़ समान लवङ्गनातीफलजातिपत्री। भाग लेकर चूर्ण करके शहदमें मिलाकर चाटनेसे .. पत्रावलाकेशरकैः समांशैः ।। सर्व प्रकारकी अरुचिका नाश होता है । ( जीरा मर्वद्विभागा सुसिता समेतम् ।। भूनकर डालना चाहिए । मात्रा ३ माशे ) - वङ्गाभ्रलोहैस्तु पलार्द्धमानः ।। (१९५९) छोहारायं चूर्णम् (ग.नि.कृमि.) मज्जा त्रया क्षोटककाश्मरीभिः ।। साकं विधायास्य च मोदकान्यः ।। छोहारचित्रकविडङ्गपलाशबीजैः पुष्टस्तु हृष्टः प्रमदामदनो। सव्योपवारिदगदाभयमद्यगन्धैः । भुञ्जीत वै रोगगणप्रमुक्तः ।। वाहीकमागधिजटाजरणाजगन्धै गुठली रहित छुहारे १ सेर और पीपल .१ इचूर्ण त्रिदद्विगुणितं कृमिजिनराणाम् ॥ छटांक ( ५ तो०) लेकर पीसकर चार गुने दूधमें छोहारा (गुटली रहित), चीता, बायबिडंग, पकाइये. जब मावा तैयार हो जाय तो उसे आधा ढाफके बीज ( पलाश पापड़ा ), त्रिकुटा. ( सोंठ, सेर धीमें भूनिए और फिर सब औषधोंसे २ गुनी मिर्च, पीपल), नागरमोथा, कूठ, खस, मौलसिरीकी खांडकी चाशनी बनाकर उसमें यह मावा तथा छाल, केसर, पीपलामूल, जीरा और अजमोद समान - आधा आधा पल . ( २।।-२॥ तोले.) द्राक्षा भाग तथा निसोत सबसे दो गुना लेकर चूर्ण कर , (मुनक्का ) असगन्ध, दोनों मूसली, लौंग, जायफल, लीजिए । इसके सेवनसे कृमिरोग नष्ट होता है। जावित्री, पत्रज ( तेजपान ), बला (बीजबन्द ) और केशरका महीन चूर्ण तथा बंग, लोह और ( भात्रा २-३ माशं । अनुपान पानी ) अभक भस्म एवं पिस्ता बदाम. चिरौंजी. अखरोटकी नोट--....-६ दिन औषध खिलानेके पश्चात गिरी और खम्भारीके फल पीसकर मिलाकर रखिए । रोगीको एक विरेचन दे देना चाहिए। इसके सेवनसे मनुष्य हृष्टपुष्ट, कामनियोंक। मदभञ्जक और रोगमुक्त होता है । ॥ इति छकारादिचूर्णपकरणम् ॥ ॥ इति छकारादिपाकप्रकरणम् ।। For Private And Personal Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ २४० 1 www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । अथ छकारादिरसप्रकरणम् (१९६१) छन्तकरस: ( यो. र. 1 ) रसभस्म पलांशं स्यात्तत्पादः स्वर्णभस्म च । ताम्रं भुजङ्गवङ्गे च मौक्तिकं तत्समांशकम् ॥ तेषां सममयचूर्णमकं तत्समं भवेत् । तत्समं गन्धकं दत्वा वीजपूराईकाम्बुना ॥ सबै खल्वे विनिक्षिप्य मर्दयेत्त्रिदिनावधिः । तत्कल्कं भावयेत्ससदिनान्यामलकद्रवैः ॥ पश्चान्मूषायां रुङ्गा भाण्डे विनिक्षेपेत् । बालुभिः परिपूर्याथ क्रमवृद्धेन वहिना || पचेद्यामत्रयं चुल्यां स्वाङ्गशीतलमुद्धरेत् । ततः सर्व समाकृष्य चूर्णयेत्पगालितम् ॥ अजाजी दीप्यकं व्योषं त्रिफला कृष्णजीरकम् । कृमिशत्रुवराङ्गं च प्रत्येकं निष्कमानकम् ॥ ततः सर्व चूर्णयित्वा योजयेत्पूर्वभस्मना । इत्थं पञ्चरसैरेष मोक्तश्छर्धन्तको रसः ॥ तद्रोगहरैद्रव्यैर्दद्याद्वल्लुप्रमाणतः अम्लपित्तमसृक्तिं छर्दि गुल्ममरोचकम् ॥ आमवातञ्च दुःसाध्यं मसेकच्छर्दिहृद्रुजम् । सर्वलक्षणसम्पूर्ण विनिहन्ति क्षयामयम् । स्वस्थोचितो हितकरः सर्वेषाममृतोपमः ।। [ छकारादि रसमकरणम् पारद भस्म ( रस सिन्दूर) १ पल (५ तोले), स्वर्ण भस्म, ताम्र भस्म, शीशा भस्म, वङ्ग भस्म, मोती भस्म १। - १। तोले और लोहभस्म ११ | तोले तथा अभ्रक भस्म २२|| तोले और शुद्ध गन्धक ४५ तोले लेकर सबको ३-३ दिन तक अद्रक और जम्बीरी नीबू के रस में घोटिए । फिर सात दिन तक आमलेके रसमें घोट कर उसे अन्ध मूषामें बन्द करके ३ पहर तक बालुका यन्त्रमें मृदु, मध्यम, तित्राभि पर पकाइये। जब यन्त्र स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषध निकाल कर पीसकर कपड़े से छान लीजिए। अब इसमें ५- ५ माशे जीरा, अजवायन, सोंठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, कालाजीरा, बायबिडङ्ग, और दारचीनीका चूर्ण मिलाइये । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसका नाम “छन्तक" रस है । इसे १ वल्ल (३-३ रत्ती) की मात्रानुसार रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करानेसे अम्लपित्त, रक्तपित्त, छर्दि (वमन) गुल्म, अरुचि, दुःसाध्य आमवात, जी मचलाना, हृदयकी पीड़ा और सम्पूर्ण लक्षणयुक्तः राजयक्ष्मा रोग नष्ट होता है । यह सबके लिए अमृतोपम स्वास्थ्य-रक्षक है । ॥ इति छकारादिरसमकरणम् ॥ For Private And Personal Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जमारादिकपातप्रकरण ) द्वितोयो भाग : । [ २४१ ] अथ जकारादिकषायप्रकरणम् (१९६२) जपाकुसुमप्रयोगः (यो. र. । स्त्री.) छर्दि (मन) और अतिसार (दरता) के आरनालपरिपेषितं व्यह लिए जामन और आमके पत्तोंके काथको ठण्डा या जपाकुसुममति पुप्पिगी। | करके उसमें शहद और धानकी खीलोंका चूर्ण सत्पुराणगुइमुष्टिसे वेती मिलाकर पीना अत्यन्त गुणकारी है। सा दधाति न हि गर्भमङ्गना ।।। । (१९६५) जम्बूपल्लवादिकाथः (ग.नि.।छर्य.) जो स्त्री ऋतुकालमें ३ दिन तक जपा (जपा) जयाम्रपल्लवोशीरवटाश्वत्थावरोहजः । के पूलों को कजीमें पीसकर ५ तोळे गुड़में मिला- काथ.शीतो मधयुत पीतच्छदिनिवारणः॥६०॥ कर खाती है उसको गर्भ नहीं रहता। ___ जामन और आमके पत्ते, खस, बड़ और (१९६३) जपादियोगः (यो. स. । स. ५) । पीपलवृक्षके अङ्कुरों के क्वाथको ठण्डा करके शहद मूलं जपायाः कुसुन युक्तं । मिलाकर पीनेसे छर्दि ( वमन ) नष्ट होती है । संकाय यत्नास्पिवति प्रभाते। यसमा अपत्यं न दधाति पूर्टि (१९६६) जम्वादिकाथः ( वं. से. । ग्रह.) गर्नस्त्रिी वातादेदोषैः ॥ जन्बूदाडिमशृङ्गाटपाठाकञ्चटपल्लवैः । यदि वात ककादि दोनों के कारण गर्भत्थित पकं पर्युषितं बाल वेल्वं सगुइनागरम् ॥ . वालककी पुष्टि न होती हो तो जपा (जगा) को हन्ति सर्वानतीसारान्ग्रहणीमतिदुस्तराम् । जड़ और पूलों को पफाफर प्रातःकाल पीना जामन के पत्ते, अनारके पत्ते, सिंपा के पत्ते, चाहिए। । पाा और चौल.ई के पत्ते समान भाग लेकर कूट(१९६४) जम्पल्वादिकायः कर रात को पानीमें पकाकर छानकर उसमें बेल(वृ. यो. त. । त. ८४; वं. से.; वृ.नि. र.; . मा.। गिरी भिगोकर ढककर रख दीजिए । प्रातःकाल छर्दि; भा. प्र. खं. २ । छर्दि.) उसमें गुड़ और सों का चूर्ण मिलाकर पीनेसे जब्बाम्रपल्लवश्रृतं क्षे.द्रं दत्त्वा सुर्शतलं तोयम्। समस्त प्रकारके अतिसारों और भयङ्कर संग्रहणी लाजैरव पिच्छ यतिसारे परं सिद्धम् ।। । का नाश होता है। भा० ३१ For Private And Personal Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२४२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । जकारादि (१९६७) जम्ध्वादिशीतकषायः - जामन, आम और आमले के नए पत्तों (च. द.; वृ. मा. । छर्दि.) (कोपलों) को कूटकर रस निकालकर उसे बकरीके जम्बाम्रपल्लवगवेधुकधान्यसेव्य- दूधमें मिलाकर और शहदसे मीठा करके पीनेसे हीवेरवारिमधुना पिवतोऽल्पमल्पम् । रक्तातिसारका नाश होता है। (मात्रा-स्वरस ५ छर्दिःप्रयाति शमनं त्रिसुगन्धियुक्ता तोले, दूध ५ तो०) लीढा निहन्ति मधुना च दुरालभा वा ॥ (१९७०) जयादिकाथः (यो. र. । उपदं.) जामन और आमके पत्ते, गुलसकरी, धनिया, जयाजात्यश्वमारार्कशम्पाकानां दलैः पृथक् । खस, और नेत्रबाला समान भाग मिलाकर २ तोले कृतं प्रक्षालने काथं मेढ़पाके प्रयोजयेत् ।। लेकर कूटकर रातको ३२ तोले पानीमें मिट्टीके बरतनमें भिगो दीजिए । प्रातःकाल छानकर उसमें जया, चमेली, कनेर, आक और अमलतास शहद मिलाकर थोड़ा थोड़ा पीनेसे; अथवा दाल में से किसी एकके पत्तोंके काथसे धोनेसे लिंगचीनी, इलायची तेजपात और धमासेके चूर्णको व्रण (आतशकके धात्र) नष्ट होते हैं । शहदमें मिलाकर चाटनेसे छर्दि (वमन) का नाश (१९७१) जलकुम्भीक्षारयोगः होता है। (ग. नि. । ग्रन्थ्य.; . मा.; यो. र. । गल.) (१९६८) जम्वादिस्वरसः (वै. म. । प. ६) जलकुम्भीक भस्म पकं गोमूत्रगालितम् । जम्बूक्षीरीवृक्षारलुककुभकरञ्जपल्लवस्वरसम् । पिबेत्कोद्रवतक्राशी गलगण्डोपशान्तये ।। लकुचफलस्वरसं पलं छागं पयःपलमपि । ___ जल कुम्भीकी राखको गोमूत्र में पकाकर छान प्रगे पीत्वा ॥ कर पीने और कोदों तथा तक्रका आहार करने से जयति सरक्तश्लेष्मं प्रवाहणं गुदेषु जातश्च ॥ गलगण्ड रोग नष्ट होता है । ... जामन, क्षीरी वृक्ष (बड़, पीपल, गूलर आदि) (१९७२) जलत्रिकयोगः (यो. समु.। ४) अरलु, अर्जुन और करञ्ज के पत्तों तथा बढहलके जलं सरोधं सहशृङ्गवेरफलोंका स्वरस १ पल (५ तोले) और बकरीका मजापयोभिः सहितं कथित्वा। दूध ५ त्तोले मिलाकर प्रातःकाल पीनेसे रक्त और कफयुक्त अतिसार का नाश होता है। पिवेदतीसारगदे सशुले (१९६९) जम्वादिस्वरस पित्तोद्भवे दाहसमन्विते च ॥ . (भा. प्र. । म. खं. अति.; ग. नि. । अति.; नेत्रबाला, लोध और अदरखको बकरीके दूध - शा. सं. खं, २ । अ. १) ...! में पकाकर पीनेसे दाह और शूलयुक्त पित्तज जम्ब्बाम्रामलकीनान्तु कुट्ट येत्पल्लवानवान् । अतिसारका नाश होता है। (प्रत्येक औषध १ संर ह्य स्वरस तेषामजाझीरेण योजयेत् ॥ .. तोला, दूध २४ तो. पानी ९६ तो. एकत्र मिलातत्पीतं मधुना युक्तं रक्तातिसारनाशनम् ॥ कर पानी जल जाने तक पकाएं।) १ शाधर और योगरत्नाकरमें इस प्रयोगके अनुपानमें घी भी लिखा हैं। . ....... For Private And Personal Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२४३] WVVANINN/AlAt' (१९७३) जलधरादिकाथः (वृ. नि.र.सन्नि.) चूर्ण तथा खांडको एकत्र करके शहदमें मिलाकर जलधरदशमूलं वारिशुण्ठीसमेतम् चाटनेसे पुरानी छर्दि नष्ट होती है । मलयजकृतमालं वासकं पर्पटश्च । (१९७७) जातीपत्रादिकाथः समधरणघृतांशःकाथ एष प्रभाते (वं. से.; यो. र.; वृ. नि. र.; . मा.; भा. प्र.। शमयति समुदीर्ण पीतमात्र प्रलापम् ॥ मुख.; वै. जी. । वि. ४.; यो. त. । त. ६९) नागरमोथा, दशमूल, सुगन्धबाला, सोंठ, सफेद | जातीपत्रामृताद्राक्षायासदावर्वीफलत्रिकैः । चन्दन, अमलतास, बासा और पित्तपापड़ा समान काथाक्षौद्रयुतःशीतो गण्डूषो मुखपाकनुत् ॥ भाग मिलाकर दो तोले लेकर आधासेर पानीमें चमेली के पत्ते, गिलोय, मुनका, धमाला, दारुहल्दी और त्रिफलाके काथको ठण्डा करके पकाकर छानकर उसमें ७॥ माशे घी मिलाकर शहद मिलाकर उसके कुल्ले ( गरारे ) करनेसे प्रातःकाल पिलाने से प्रबल प्रलाप भी तुरन्त शान्त मुखपाक ( मुंहके छाले और घाव ) नष्ट होता है। हो जाता है। (१९७८) जातीपत्रादिकाथ: (१९७४) जलवेतसादियोगः ( वं. से.।विष.) (वं. से.; र. र. । मसू.) जलवेतसवृक्षस्य मूलं कुष्ठं पचेजले । जातीपत्रसमञ्जिष्ठा दाव:पूगफलं शमी। स काथःशीतल पेयः परञ्च विषनाशनः ॥ धात्रीफलं समधुकं कथितं मधुसंयुतम् ॥ - जलवेतस वृक्षकी जड़ और कूठको पानीमें मुखवणे कण्ठरोगे गण्डूषार्थ प्रशस्यते ॥ पकाकर छानकर ठण्डा करके पीनेसे विषका नाश चमेलीके पत्ते, मजीठ, दारुहल्दी, सुपारी, होता है। शमी ( छोकरा )की छाल, आमला और मुलैठीके (१९७५) जलशैवालयोगः (वै.म.प.११) काथमें शहद डालकर कुल्ले करानेसे मुखत्रण ( मुंहके जलशैवालमादाय कण्डूक्लेदान्विते तनौ।। घाव ) और कण्ठरोगोंमें अत्यन्त लाभ पहुंचता है। परिपेष्य जलं सिञ्चेत्तत्तस्य परमौषधम् ॥ (१९७९) जातीप्रवालरसादियोगः पानीमें उत्पन्न होनेवाली शैवाल (सिरवाल) (यो. र. । उप.) को पीसकर पानीमें मिलाकर उस पानीसे खुजली जातीप्रवालस्वरसं पलार्ध वाले अङ्गको धोना चाहिए। खुजली और क्लेद धेनोघृतं सर्जरसेन युक्तम् । (चिपचिपाहट)के लिए यह अत्युत्तम औषध है। पिबेत्पगे पञ्चविधोपदंशे क्षाराहते गोधूमसर्पिपथ्यम् ॥ (१९७६) जातीपत्ररसादियोगः चमेली के पत्तोंका स्वरस आधा पल (२॥. (ग. नि.; वृ. नि. र. । छदि.) तोले ) निकाल कर उसमें गायका घी और राल जातीपत्ररसं कृष्णा मरिच शर्करान्वितम् । । मिलाकर प्रातःकाल पीनेसे पांच प्रकारका उपदंश एतानि मधुयुक्तानि हन्युश्छदि चिरोद्भवाम् ॥ (आतशक ) नष्ट हो जाता है। चमेलीके पत्तोंका रस, पीपल और मिर्चका ( राल ३ माशे, धी १ तो.।) For Private And Personal Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२४४] भारत-मैपज्य-रत्नाकरः। [जकारादि - vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvnemuviwwvvvvvvvvvvvvwwwVAN | नष्ट होता है। पथ्य-गेहूं को रोटो और घी । नमकसे । काय दशक" कहते हैं । यह ओपधियां जीवनी परहेज़ करना चाहिए। शक्तिकी वृद्धि करती हैं। (१९८०) जात्यादिकाथः (वा.भ.। चि.अ.१) (१९८३) जीवनीयक्षीरम् (ग.नि. अरोच.) जात्यामलकमुस्तानि तद्वद्धन्वयवासकम् । जीवनीयोपसिद्धं वा पिवेत् क्षरं सशरिम् । वद्धविट् कटुकादाक्षात्रायन्तीत्रिफलागुडान् ॥ शीतं माक्षिकसंयुक्तं पैत्ति ..स्वरवं धनम् ॥ ___ यदि ज्वरमें कब्ज ( मलावरोध ) हो तो जीनीय' ग- की ओषधियां समान भाग चमेली के पत्ते, आमला, नागरमोथा, धमासा, कुटकी, मिली हुई ५ तोले, दूध ४० तोले और पानी । १६० तोले । एकत्र मिलाकर पकाएं । सब पानी द्राक्षा (मुनक्का), त्रायमाणा और त्रिफलाके काथमें गुड़ मिलाकर पीना चाहिए। जल जाने पर छानलें । इस ठण्डा करके मिश्री और शहद मिलाकर पीनेस पित्तज स्वरभंग रोग नोट-यही प्रयोग चरकमें भी लिखा है परन्तु उसमें कुटकी, द्राक्षा, त्रायमाणा और त्रिफला (१९८४) ज्योतिष्मतीपत्रयोगः । नहीं है। (यो. र. । स्त्री.; भा. प्र. । म. खं. स्त्री.) (१९८१) जीवकपुत्रकबीजप्रयोगः ( वं. से. । स्त्री.) पोतं ज्योतिप्मतीपत्रं राजिक बसनं यहम् । जीवकपुत्रकबीजं क्षीरेण पिबेत्सपत्रमूलञ्च । शीतेन पसा पि कुसुम जनयेद्धवम् । ज्योतिष्मती ( मालकानी )के पत्र, र ई. बच दारकनष्टा वनिता जनयति दीर्घायुषं पुत्रम् ।। और असनावृक्षाकी छ.लको ठण्डे पानी में पीसकर जिस स्त्रीके बच्चे जोषित न रहते हों उस | तीन दिन तक पिलानेसे स्त्रियों को रजो..ाव जीवक पुत्र ( जिया पोता )के बीज, पत्र और (मासिक धर्म ) अवश्य होने लगता है । मूलको दूधमें पीसकर पिलानेसे वह दीर्घायु पुत्र (१९८५) ज्वरहरो कषायदशक उत्पन्न करती है। (१९८२) जीवनीयकषायदशकः (च. सं. । सू. अ. ४) सारिवाशरापाठामञ्जिष्ठाद्राक्षापीलुपरू(च. सं. । सू. अ. ४) पाभयामल कविभीतहानीति दशेमानि जीवकर्षभको मेदा महामेदा काकोली क्षीर ज्वरहराणि भवन्ति । काकोली मुद्गमाषपर्यो जीवन्ती मधुकमिति । सारिवा, मिश्री, पाठा, मजीठ, मुनक्का, पीलु, दशेमानि जीवनीयानि भवन्ति । ___ जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, फालसा, हर्र, आमला और बहेड़ा । यह दश चीजें वरनाशक हैं। क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती और मुलै । इन दश ओषधियों के गणको “जीवनीय ॥ इति जकारादिरूपायप्रकरणम् ।। १-'जीवनीय गण' प्रयोग सं. १९८२ देखिए। २-स्वाजकोनासन मिते पाठान्तर। किसी किसी चन्थमें राईकी जगह सजी भी लिखी है। For Private And Personal Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २४५] vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv v vvvvvvvvvvvw ___ अथ जकारादिचूर्णप्रकरणम् (१९८६) जठराग्निवर्धन चूर्णम् (यो.स.स.४) एतचूर्ण समं श्लक्ष्णं मधुना सह भक्षितम् । कुटज चविषावासान्यग्रोधत्वग्लवङ्गकाः। रक्तपित्तोद्भवं शीघ्रं हन्त्यतीसारमुल्वणम् ।। समचूर्णीकृतं सर्व जठराग्निविवर्धनम् ॥ जामन और आमके फलोंकी गिरी ( गुठलीके कुकी छाल, अतीस, बासकी छाल, और भीतरका गूदा ) द्राक्षा ( मुनक्का ), हर्र, पीपल, लौंग समान भाग लेकर महीन चूर्ण करके रख खजूर, सेंभलकी छाल, गूलरके फल और छाल । लीजिए। समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। इसके सेवनसे जठराग्निकी वृद्धि होती है। इसे शहदके साथ मिलाकर चाटनेसे रक्तपित्त - ( मात्रा १॥-२ माशे । अनुपान गर्म जल।) सम्बन्धी अतिसार शीघ्र नष्ट होता है। (१९८७) जम्बूकपुष्पादियोग (वं.से.।बा.रो.) ( मात्रा २-३ माशे ) जम्बू कतिन्दुकानाञ्च पुष्पाणि च फलानि च। (१९९०) जम्ध्वादियोगत्रयः घृतेन मधुना लोवा मुच्यते हिकया शिशुः॥ (वृं. मा.; वं. से. । छर्दि.) जामने और तिन्दुक ( तेंदु )के फूलों और सजाम्बवं वा बदरस्य चूर्ण फलों के चूर्णको शहद और धृतमें मिलाकर चटानेसे मुस्तायुतां कर्कटकस्य शृङ्गीम् । बालकों की हिचकी नष्ट होती है । | दुरालभाम्बा मधुसम्प्रयुक्ता। (१९८८) जम्बूदलाशुद्वर्तनम् ( यो. र.) लियात्कफच्छर्दिविनिग्रहार्थम् ।। जम्बूदलार्जुनतरुप्रसवैः सकुष्ठै __जामनकी गुटलो या बेरकी गुठलीके भीतरके रुद्वर्तनम् प्रकुरुते प्रति वासरं यः। गूदेका चूर्ण अथवा मोथे और काकडासिंगीका चूर्ण प्रस्वेदबिन्दुकणिकानिकरानुषङ्गाद या धमासेका चूर्ण शहदके साथ मिलाकर चाटनेसे दुर्गन्धिता वपि तस्य पदं न धत्ते ॥ कफ और वमन ( उल्टी )का नाश होता है । प्रतिदिन जामनके पत्ते, अर्जुन ( काह )के (१९९१) जयाखण्डचूर्णम् (यो.र.।अतिसा.) फूल, और कूठके चूर्णका उबटन करनेसे अधिक जयाखण्डं साखरूडं जीरकं दधिमिश्रितम् । पसीना और दुर्गन्ध नष्ट होती है। आमातिसाररक्तञ्च हन्ति वेगेन कौतुकम् ॥ (१९८९) जम्ध्वादिचूर्णम् (बृ. नि.र. अति.) भांग, खांड, साखरुण्ड ( वृक्ष विशेष, जिससे जन्बूचूतफलस्पास्थिद्राक्षा पथ्या च पिप्पली। कपड़ों के लिए रंग बनाया जाता है ) और जीरा खजां शाल्मलीछल्ली उदुम्बर सबल्कलम् ॥ ! समान भाग लेकर चूर्ण कर लीजिए। १-जम्बूक शब्द प्रायः जामनके लिए व्यवहृत नहीं होता, जम्बूकका वास्तविक अर्थ तो लोध है परन्तु यहां 'जम्बु' के स्थानमें “ जम्बूक' प्रयुक्त हुवा प्रतीत होता है। For Private And Personal Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २४६-] भारत-भैषज्य रत्नाकरः । इसे दही में मिलाकर खिलाया जाय तो | (१९९४) जरणादिचूर्णम् आमातीसार और रक्तातिसारमें आश्चर्यजनक लाभ होता है । (१९९२) जयापत्रयोगः ( वृ. नि.; यो. र. । अजी ० ) जरणरुचकशुण्ठीपिप्पलीतीक्ष्ण वेल्लम् । सलवणमजमोदाहिङ्गुपध्येति कर्षम् ॥ पृथगथ पलमात्रा स्यात्रिवृच्चूर्णमेषाम् । जननमुदरवह्नेः पाचनं रोचनश्च ॥ (वृ. नि. र. यो. र. । मुख.; वृ. यो. त. । त. १२८) जरणलवणपथ्याशाल्मलीकण्टकानाम् अनुदिनमनुघृष्टं दन्तमूलेषु चूर्णम् । व्रणदरणरुगस्रस्रावचाञ्चल्यशोथानपनयति विवस्वानन्धकारानिवाशु || ( ग. नि. भा. प्र. । म. खं. नासा. ) पुटपकं - जयापत्रं सिन्धुतैलसमन्वितम् । प्रतिश्यायेषु सर्वेषु शीलितं परमौषधम् ॥ | के घाव, “भांगके पत्तोंको पुटपाक विधिसे पकाकर ' 'चूर्ण करके उसमें सेंधा नमक और तेल मिलाकर खाने से समस्त प्रकारके प्रतिश्याय ( जुकाम ) नष्ट होते हैं । यह प्रतिश्यायको परमौषध है । (१९९३) जरणादिचूर्णम् I जीरा, सेंधानमक, हर्र और सेंभलके कांटे दिन (मञ्जनकी भांति) मसूढों पर मलनेसे मसूढ़ों समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। इसे प्रति दर्द, रक्तस्राव, सूजन, और दांतोका हिलना शीघ्र बन्द हो जाता है। (१९९५) जातीपत्रादिचूर्णम् ( यो. र. र. र.; । मुख.; यो. चि. म.; नि. । चूर्ण. यो. त. । त. ६९; वृ. यो त । त. १२८ ) जातीपत्र पुनर्नवागजंकणाकोरण्टकुष्ठवचाः शुण्ठीदीप्य हरीतकीतिलसमं श्लक्ष्णं भृशं चूर्णयेत् । तच्चूर्ण वदने धृतं विजयते दौर्गन्ध्यं दन्तव्यथाम्; चाञ्चल्यत्वमतिव्रणश्वयथुरुक्कण्डूकमिव्यापदः ॥ ग. ज़ीरा, कालानमक, सोंठ, पीपल, स्याह मिर्च, बायबिड़ङ्ग, सेंधानमक, अजमोद, हींग और हर्र एक एक कर्ष ( १ | तोला ) और निसोत १ पल (५ तोले) लेकर चूर्ण बना लीजिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसके सेवन से रुचि और अग्निकी वृद्धि महीन चूर्ण कर लीजिए । होती है । (मात्रा १ - १ || माशा | अनुपान - उष्णजल ) [जकारादि चमेली के पत्ते, पुनर्नवा ( बिसखपरा - साठी ) की जड़, गजपीपल, पियाबासा, कूठ, बच, सोंठ, अजवायन, हर और तिल समान भाग लेकर खूब इस चूर्णको मुखमें रखने से ( दांतो पर मलने से ) दुर्गन्धि, दांतोंकी पीड़ा, दांतोंका हिलना, मसूढ़ोंकी For Private And Personal १ भांग के गीले पत्तोंकों पीसकर बड़ या पीपल के पत्तों में लपेटकर डोरेसे बांधकर उसपर १ अंगुल मोटा मिट्टीका लेप करके आग में दबा दीजिए । जब मिट्टीका रंग लाल हो जाय तो ठण्डा करके भांगको निकाल लीजिए । २ तिलकणेति पाठभेदः । ३ पुष्पमिति पाठान्तरम् । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२४७] सूजन, दर्द, खुजलो, दांतोंके कीड़े और घाव । आटा लपेट दीजिए । इसे अंगारों ( भूबल )में नष्ट होते हैं । दबा दीजिए; जब आटेका रंग सुर्ख हो जाय तो (१९९६) जातीफलादिचूर्णम् अनारको ठण्डा करके उसके भीतरसे औषध निकाल( वृ. नि. र.; वै. र. । संत्र.; वृ. यो. त.।त.६७) कर पीस लीजिए । जातीफलाग्निहिमवेल्लतिलेन्दुजीर यह अतिसारको रोकता, आमको पचात वांशीत्रिकत्रयमनक्षमितं नतं च । | और अग्निको दीप्त करता है। तालीसदेवकुसुमे अपि चूर्णमेषां (१९९८) जातीफलादियोगः (वृ.नि.र.अति.) द्विशर्करं च समभङ्गमिदं ग्रहण्याम् ।। जातीफलं नागरसकेनौ जायफल, चीता,सुगन्धबाला, बायबिडंग,तिल, खजूरफलभिन्नमिदं च नित्यम् । कपूर, जीरा, बंसलोचन, त्रिफला, त्रिकटु ( सोंठ, योज्यं द्विनिष्कं च करीषजातामिर्च, पीपल), त्रिमद (मोथा, बायबिडंग, चीता) दरण्यजाद्भस्म समं च सर्वैः ।। तगर, तालीसपत्र और लौंगका चूर्ण १-१ कर्ष, निष्कार्धमात्रं भिषजा प्रयोज्यं भांग इस सब चूर्णके बराबर और सबसे दो गुनी मिश्री एकत्र मिलाकर महीन चूर्ण बना लीजिए । द्वि वारभेतच्छुभतन्दुलोदकैः । जीर्णातिसारे रुधिरामयुक्ते इसके सेवनसे ग्रहणी रोग नष्ट होता है । ( मात्रा १-१॥ माशा । अनुपान तक) - हितः सशूले बहुवेगयुक्ते ॥ (१९९७) जातीफलादिपुटपाकः ___ जायफल, सोंठ, राल और खजूरके फल . (यो. र.; वृ. नि. र. । अति० ) | (छुहारा) २-२ निष्क तथा अरने (अरण्य) उपलों जातीफलं सपफेनं टङ्क गन्धकजीरके। की राख सबके समान लेकर महीन चूर्ण बना | लीजिए। एतानि समभागानि वालदाडिमबीजकैः ॥ इसे प्रतिदिन २॥ माशेकी मात्रानुसार चावलों पेषयेत्तेन कल्केन पूरयेद्दाडिमीफलम् । | के धोवनके साथ २ बार (प्रातःसायम् ) सेवन अङ्गारे तच्च गोधूमचूर्णेनाऽऽलेपयेदृढम् ॥ करनेसे जीर्णातिसार; रक्तातिसार और अति वेगअतिसारे स्तम्भनं स्यात्परं दीपनपाचनम् ॥ वान शूलयुक्त अतिसारका नाश होता है। ___ जायफल, अफीम, सुहागा, गन्धक ( शुद्ध आमलासार ), और जीरा तथा कच्चे अनार के बीज (१९९९) जातीफलायं चूर्णम् , समान भाग लेकर पानीमें पीसकर पिटीसी बना । (ग. नि. । परि. चूणो.; भै. र.। ग्रह.; व. से.; लीजिए, और एक अनारको भीतरसे खाली करके वै. क. दु; भा. प्र. । क्षय) , उसमें उस पिट्ठीको भरकर और उसका मुह बन्द । जातीफलं विडङ्गश्च चित्रकस्तगरस्तिलाः। करके उसके ऊपर चारों तरफ़ गेहूंका भीगा हुवा । तालीसं चन्दनं शुण्ठी लवङ्ग चोपकुञ्चिका,॥ १ तथेति पाठभेदः । For Private And Personal Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त-भैषज्य - [ २४८ ] कर्पूरं चाभया धात्री मरिचं पिप्पली शुभा । एषामक्षसमान् भागान् चातुर्जातकसंयुतान् ॥ पलानि त्रीणि भृङ्गायाः शर्करा समयोजिता एतच्चूर्ण तु मधुना कर्षा लेहयेत्तथा ॥ जयेत्कासं क्षयं श्वासं ग्रहणीमग्निमार्दवम् । वातश्लेष्मोद्भवांश्चान्यान् प्रतिश्यायमरोचकम् ।। एताः सर्वा रुजो हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ भारत जायफल, बायबिड़ङ्ग, चीता, तगर, तिल, तालीसपत्र सफेद चन्दन, सोंठ, लौंग, कलौंजी, कपूर, हर्र, आमला, स्याह मिर्च, पीपल, बंसलोचन, दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसर १ - १ कर्ष ( १ - १ तोला ) दारचीनी ३ पल (१५ तोले) और मिश्री सबके बराबर मिलाकर महीन चूर्ण बना लीजिए । इसे प्रतिदिन आधे कर्षकी मात्रानुसार शहद में मिलाकर चाटने से खांसी, क्षय, श्वास, ग्रहणी, अग्निमांद्य तथा वातकफज अन्य रोग और जुकाम तथा अरुचिका शीघ्र ही नाश हो जाता है। (२०००) जीरकयोगः (बृ. नि. र. । ज्वर.) जीरकं गुडसंयुक्तं विषमज्वरनाशनम् । अग्निमान्धं जयेच्छतं वातरोगहरं परम् || 1 जीरे चूर्णको गुड़ में मिलाकर सेवन करने से विषमज्वर, अग्निमांद्य, शोत और वातज रोगों का नाश होता है । (मात्रा ३ माशे) (२००१) जीरकादिचूर्णम् (यो.र. तृष्णा. छर्दि. जीरकुस्तुम्बरी द्राक्षा चन्दनोत्पलशीतलम् । शीतलेन समं दद्यात् तृष्णां हन्त्यतिशीतलम् || - रत्नाकरः [ जकारादि जीरा, कुस्तुम्बुरु ( नैपाली धनिया ), द्राक्षा (मुनक्का) सफेद चन्दन, नीलकमल और कपूर समान भाग लेकर चूर्ण करके शीतल जल के साथ सेवन करनेसे तृष्णा शान्त हो जाती है । (२००२) जीरकादि चूर्णम् ( वृ. नि. र. यो. र; | तृष्णा. ) सजीरधान्यार्द्रकगृङ्गवेरसौवर्चलान्यर्धपरिष्ठतानि । मयानि यानि च गन्धवन्ति पीतानि यः शमयन्ति तृष्णाम् ॥ जीरा, धनिया, अद्रक, सोंठ, और काला नमक समान भाग लेकर चूर्ण करके (१ से ३ माकी मात्रानुसार) दो गुने, उत्तम हृदयके लिए हितकारी और सुगन्धित मद में मिलाकर पीनेसे तृष्णा तुरन्त शान्त हो जाती है। (२००३) जीरकादि चूर्णम् ( वृ. नि. र. यो. र. । ज्वर. ) जीरकं लशुनं व्योषं पाठा पिट्वोष्णवारिणा । शीतज्वरस्यागमने पिवेद्गुयुतेन च । जीरा, लहसन, सों, मिर्च, पीपल, और पाठा समान भाग लेकर चूर्ण करके गुड़में मिलाकर शीत ज्वर आने के पूर्व गर्म पानी के साथ खानेसे जर रुक जाता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal जीरकादिचूर्णम् (भै. र. । ग्रह.) प्रकरण में देखिए । (२००४) जीर्णचेली भस्मप्रयोगः ( वैद्य. म. र. । प० १ ) जीर्णचेलभसितं पिवेद्वधूपुष्पजातरुधिरेण पीडिता । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२४९] तक्रतैलतरुणोष्णवारिभिः और तिलकी खल समान भाग तथा जौ सबसे दो प्राप्तपुष्पसुभगा भविष्यति । गुने लेकर चूर्ण बना लीजिए । इसे दही और पुराने (लेकिन साफ) रेशमी कपड़ेकी भस्म शहदमें मिलाकर शरीरपर मालिश करनेसे बल, को तक्र, तैल या अच्छे गर्म पानीके साथ फांकने पुष्टि और सौन्दर्यकी वृद्धि होती है। से स्त्रियोंकी रजोस्राव (मासिक धर्म) सम्बन्धी पीड़ा (२००७) जीवन्त्याय चूर्णम् नष्ट होती है और रजोस्राव खुलकर होता है। (वं. से. । कासा.; ग. नि. । चूर्ण.) (२००५) जीवकादिचूर्णम् (यो.र.। उर:क्षत) जीवन्ती मधुकं पाठां त्वक्षीरी त्रिफलां शटीम् । शर्करामधुसंयुक्तं जीवकर्षभको मधु । मुस्तैला पिप्पली द्राक्षां द्वौ हत्यौ विभीतकम् ॥ लिद्यात्क्षीरानुपानानि रक्तक्षीणतरःकृशः॥ शारिवां पौष्करं मूलं कर्कटाख्यां रसाञ्जनम् ।। जीवक, ऋषभक, और मुलैठी के चूर्णको मिश्री पुनर्नवां लोहरजस्त्रायमाणां यवानिकाम् । और शहदमें मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे भार्गीतामलकीवृद्धिर्विडॉ धन्वयासकम् । रक्तकी क्षीणता के कारण उत्पन्न होनेवाली कृशता क्षारचित्रकचव्याम्लवेतसव्योषदारु च ॥ ( दुबला पन ) नष्ट होती है। | चूर्ण कृत्वा समांशानि लेहयेन्मधुसर्पिषा । (जीवनीयगणः (यो. त.।त.१८; यो. र. वा.भ.) चूर्ण पाणितलं कृत्वा पश्वकासान्व्यपोहति ॥ जीवनीयकषायदशक अवलोकन कीजिए॥ जीवन्ती, मुलैठी, पाठा, बंसलोचन, हर, बहेड़ा, आमला कचूर, मोथा, इलायची, पीपल, मुनक्का, (२००६) जीवन्त्याद्यं चूर्णम् छोटी कटैली बड़ी कटैली, बहेड़ा, सारिवा, पोखर (वं. से.; ग. नि. । राजय.) मूल, काकड़ासिंगी, रसौत, पुनर्नवा (बिस खपरा), जीवन्ती शतवीर्या च विकसां सपुनर्नवाम् । लोह चूर्ण (अथवा भस्म), त्रायमाणा, अजवायन, अश्वगन्धामपामार्ग तर्कारी मधुकं बलाम् ॥ भारंगी, भुंई आमला, वृद्धि, बायबिडंग, धमासा, विदारी सर्षपान कुष्ठं तण्डुलीयातसीफलम् । | जवाखार, चीता, चव, अम्लबेत, त्रिकुटा ( सोंठ, माषांस्तिलान् सकिण्वं च सर्वमेकत्रचूर्णयेत्॥ मिर्च, पीपल ) और देवद्वारका चूर्ण समान भाग यवचूर्ण च द्विगुणं दना युक्तं समाक्षिकम् ।। मिलाकर एकत्र खरल कर लीजिए । एतदुत्सादनं कार्य पुष्टिवर्णवलपदम् ॥ इसे १ कर्ष (१। तोले )की मात्रानुसार ___ जीवन्ती, शतावर, मजीठ, पुनर्नवा ( सांठी, शहद (२ तो.) और घी (६ माशे )में मिलाकर बिस खपरा ) असगन्ध, अपामार्ग ( चिरचिटा), चाटनेसे पांच प्रकारकी खांसी नष्ट होती है। जयन्ती ( जया ), मुलैठी, खरैटी, बिदारीकन्द, ज्वरनागमयूरचूर्णम् सरसों, कूठ, चौलाई, अलसीके बीज, उर्द, तिल, | रसप्रकरणमें देखिए । १ अश्वगन्धाऽभयाभागांति पाठान्तरम् २ किट्टञ्चति पाठान्तरम् । भा० ३२ For Private And Personal Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir vvvvvvv Nivvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv [ २५० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि ज्वरभैरवचूर्णम् (२००९) ज्वालामुखीचूर्णम् रसप्रकरणमें देखिए। (वं. से. । अजी. । ग. नि. । चू.) (२००८) ज्वालामुखचूर्णम् (वृ.नि.र.|संप्र.) हिङ्गवम्लवेतसकटुत्रिकचित्रकेभ्यः। शक्राशनं सप्तपलं सितायाः सक्षारपौष्करफलत्रिकदाडिमेभ्यः ॥ पलत्रयं छिन्नरुहाशताहा; कार्यःपृथग्गुडपलान्यवकुटय चूर्णो । तथैव मूलं गिरिकणिकायाः ज्वालामुखोयमनलस्य करोति दीप्तिम् ।। पलं पलं वै कथितं त्रयाणाम् । हींग (धीमें भुना हुवा), अम्लबेत, त्रिकटु सर्व तु चूर्णवरं भृङ्गराज (सांठ, मिर्च, पीपल), चीता, यवक्षार, पोखरमूल द्रवेण चालोडय पुनःपुनस्तु; हरी, बहेड़ा, आमला, अनारदाना और गुड़ १-१ धर्मेषु संशोष्य च सप्तवारं पल (५ तोले) लेकर चूर्ण बना लीजिए। नित्यं लिहेत्कर्षप्रमाणकं तत् ॥ यह " ज्वाला मुखी" चूर्ण अग्निकी वृद्धि वितुल्यसर्पिःमधुभिःसमेतं करता है । स्निग्धाम्लमुद्गहितभोजनश्चः ___(मात्रा २-३ माशे । गर्म पानी या अद्रकके करोति वह्नि ग्रहणीश्च हन्यात् रसके साथ खाएं ।) सामातिसारानसृजोविकारान् । इति जकारादिचूर्णप्रकरणम् कुष्ठामवातं पिडकान विसर्प ज्वालामुखं नाम हितं नराणाम्। | अथ जकारादिगुटिकाप्रकरणम् व्याधीन्समस्तानपि हन्ति शीघ्र (२०१०) जयन्तीवटी __यानन्त्रभूताजठरोद्भवांश्च ।। (र. सा. सं. । ज्वर.; र. चं. । रसा.) इन्द्रजौ सात पल, मिश्री ३ पल, गिलोय, विषं पाठाश्वगन्धा च वचा तालीशपत्रकम् । सोया, कोयलकी जड़ १-१ पल लेकर चूर्ण कर। मरिचं पिप्पली निम्बमजासूत्रेण तुल्यकम् । लीजिए फिर उसमें भांगरेका रस डालकर घोटिए वटिका पूर्ववत्कार्या जयन्ती योगवाहिका ।। और धूपमें सुखाइये, इसी प्रकार भांगरेके रसकी । प्रयोगविधिःसात भावना दोजिए। जयन्ती च जया वाथ क्षीर पित्तज्वरापहा । इसे असमान मात्रा में मिले हुवे धृत और मुद्नामलकयुषेण पथ्यं देयं घृतं विना ।। शहदके साथ मिलाकर १ कर्ष (१। तो०) की जयन्ती वा जया वाथ सक्षौद्रमरिचान्विता । मात्रानुसार सेवन करनेसे अग्नि मांध, ग्रहणी, | सनिपातज्वरं हन्ति रसश्चानन्द भैरवः । आमातिसार, रक्तविकार, कुष्ट, आमवात विसर्प, जपन्ती वा जया वाथ विषमज्वरनुतैः । पिडिका, अन्त्रके रोग और उदररोग शान्त होते हैं। सर्वज्वरं मधुव्योषैः गवां मूत्रेण शीतकम् ॥ For Private And Personal Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम्] द्वितीयो भागः। [२५१] चन्दनस्य कषायेण रक्तपितज्वरापहा। से पित्त ज्वरका नाश होता है। पथ्य, मूंगकी जयन्ती वा जया वाथ माक्षिकेण च कासजिद।। दालके यूष और आमलेके रसके साथ घृत रहित जयन्ती वा जया क्षीरैः पाण्डुशोथविनाशिनी। देना चाहिए । जयन्ती वा जया वाथ तण्डुलोदक पानतः॥ जयन्तीवटी, जया वटी या आनन्द भैरवरस अश्मरी हन्ति नो चित्रं मूत्रकृच्छन्तु दारुणम् । को स्याह मिर्चके चूर्ण और शहदके साथ देनेसे जयन्ती वा जयां वाऽथ गोमूत्रेण युतां पिबेत्।। सन्निपात ज्वरका नाश होता है। हन्याशु काकणं कुष्ठं सुलेपेन च तद्रुतम् ।। जयन्ती या जयावटी को विषमज्वरमें घृतके द्वि निष्कं केतकीमूलं पिष्ट्वा तोयेन पाययेत्॥ साथ, समस्त प्रकारके ज्वरोंमें त्रिकुटाका चूर्ण और जयन्ती वा जया वाऽथ मेहं हन्ति सुरावयम्। शहद के साथ, शीतज्वरमें गोमूत्रके साथ, ज्वरयुक्त जयन्ती वा जया वाऽथ मधुना मेहजिद्भवेत्॥ रक्तपित्तमें चन्दनके काढ़ेके साथ, खांसीमें शहदके लोध्रमुस्ताभयातुल्यं कटफलश्च जलैःसह। साथ, पाण्डु और शोथमें दूधके साथ तथा पथरी काथयित्वा पिबेचानु मधुना सर्वमेहजिद् ॥ और भयङ्कर मूत्रकृच्छमें चावलोंके पानीके साथ. जयन्ती वा जयशंवाथ गुडै कोष्णजलैः पिबेत् । सेवन कराना चाहिए। काकण कुष्टमें जया या त्रिदोषोत्थं हरेद्गुल्मं रसश्चानन्दभैरवः ॥ जयन्ती वटीको गोमूत्रमें पीसकर पिलाना और जयन्ती वा जया हन्ति शुण्ठया सर्व भगन्दरम् लेप करना चाहिए । ८ माशे केतकीकी जड़को जयन्ती वा जया वाऽथ तक्रेण ग्रहणीप्रणुत ॥ पानीमें पीसकर उसके साथ जया वा जयन्तीवटी जयन्ती वा जया वाऽथ रसश्चानन्दभैरवः। खिलानेसे सुरामेह नष्ट होता है। रक्तपिते त्रिदोषोत्थे शीततोयेन पाययेत् ॥ ! शहदके साथ दवा खिलाकर ऊपरसे लोध, जयन्ती वा जया वाऽथ घृष्टवा स्तन्येन चाञ्जयेत मोथा, हर्र और कायफलके काथमें शहद डालकर स्रावणं सर्वदोषोत्थं मांसवृद्धिञ्च नाशयेत् ॥ । पिलानेसे समस्त प्रमेह नष्ट होते हैं। जया या शुद्ध बछनाग विष ( मीठा तेलिया), पाठा, । निलिया जयन्ती वटी अथवा आनन्द भैरवरसको गुड़ और असगन्ध, बच, तालीस पत्र, स्याहमिर्च, पीपल, | - मन्दोष्ण जलके साथ देनेसे त्रिदोषज गुल्म नष्ट और नीमकी छालका समान भाग चूर्ण लेकर | होता है। भगन्दरमें सोंठके साथ, ग्रहणीमें छाछके सबको बकरीके मूत्रमें घोटकर चनेके बराबर साथ, और त्रिदोषज रक्तपित्तमें शीतल जलके साथ साथ, गोलियां बना लीजिए। यह 'जयन्ती वटिका' सेवन कराना चाहिए। योग वाही है, अर्थात् जिस प्रकारके अनुपानके । जया अथवा जयन्ती वटीको स्त्रीदुग्धमें घिससाथ सेवन की जाती है वैसा ही गुण करती है। कर आंखमें आंजनेसे सर्वदोषज स्राव और मांस यजन्ती अथवा जयावटीको दूधके साथ देने | वृद्धि नष्ट होती है । For Private And Personal Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि (२०११) जयन्तीवटी (र. र.स.उ.ख. अ.२९) | (बछनागादि प्रत्येक वस्तुका चूर्ण १ तोला। वचाश्वगन्धामरिचोपकुल्या काथ २८ तोले । अच्छी तरह घोटकर गोलियां तालीसमुस्तापिचुमन्दपाठाः ।। बनाएं।) विषं च तेषां वटिका जयन्त्यः (२०१३) जयादिवटी (आ.वे. वि. । अ.७९) फले प्रयोगे च जयासमाना ॥ मूलं रक्तोत्पलभवं विजयासारमेव च।। बच, असगन्ध, मरिच, दन्तीमूल, मोथा, अपामार्गस्य मूलश्च कन्यासारं समं समम् ।। नीमकी छाल, पाठा और शुद्ध बत्सनाभ (मीठा | मईयित्वा वटी कुर्यात् रक्तिद्वयमिताः शुभाः। तेलिया) का चूर्ण समान भाग लेकर (पानीमें पीस | सेवनादाशु नश्यन्ति वेदनाः कटिसम्भवाः ॥ कर १--१ माशेकी) गोलियां बना लीजिए। जरायुशूलं वाधाश्च तथा कष्टरजांसि च । इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे कुष्ठ रोग जयादिवटिका नाम महादेवेन भाषिता ॥ नष्ट होता है। लाल कमलकी जड़, विजयासार, (भांगका जयवटिका (रसा. सा. । ज्व.) सत-धन) अपामार्ग (चिरचिटे ) की जड़, और रसप्रकरणम देखिए एलवा (मुसब्बर) समान भाग लेकर खूब बारीक जयागुटिका (र.सा.सं;र.रा.सु.,र.चं. कास.) पीसकर पानीके साथ घोटकर २-२ रत्तीकी रसप्रकरणमें देखिए। गोलियां बना लीजिए। (२०१२) जयागुटी (र. र. स. । उ.खं ।अ.२९) इनके सेवनसे कमर का दर्द, जरायुशूल, वासामृताखदिरनिम्बविडङ्गपथ्या बन्ध्यत्व (बांझपना) और कष्ट रज (मासिकधर्मके काथे विषत्रिकटु चित्रकलोहतिक्ताः। । समय कष्ट होना) का नाश होता है। आवाप्य माषतुलिता वटिका प्रणीता (२०१४) जयावटीx क्षौद्रान्विता क्षपयति क्षयकुष्ठजातम् ॥ (र. स. क. । वि. ५; र. चं.। रसा.; र. सा. सं. । बासा, गिलोय, खरसार, नीमकी छाल, बाय ज्वर; रसें. चिं. । अ. ८; आयु. वे. प्र. । अ. १) बिडङ्ग और हर्रके काथमें शुद्ध वछनाग ( मीठा | विषं त्रिकटुकं मुस्तं हरिदा निम्बपत्रकम् । तेलिया) सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, लोहभस्म और विडङ्गमष्टमं चूर्ण छागमूत्रैःसमं समम् ॥ कुटकीका समान भाग चूर्ण मिलाकर १-१ माशे चणकाभा वटी कार्या स्याज्जया योगवाहिका।। की गोलियां बना लीजिए। शुद्ध वत्सनाभ (मीठा तेलिया) त्रिकुटा (सोंठ, ___ इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे सर्व प्रका- मिर्च, पीपल,) नागरमोथा, हल्दी, नीमके पत्ते रके क्षय और कुष्टरोग नष्ट होते हैं। | और बायबिडङ्गका चूर्ण समान भाग लेकर बकरी १-भांगको १६ गुने पानीमें पकाएं, चौथा भाग शेष रहने पर छानकर उस काढ़ेको पुनः पकाकर गाढ़ा करले। यही 'विजयासार' है । For Private And Personal Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [२५३ ] के मूत्रमें घोटकर चनेके बराबर गोलियां बना। इनमें से १-१ गोली खानेसे वीर्यस्तम्भन लीजिए। यह "जयावटी" योग वाही है । अर्थात् होता है । जिस प्रकारके अनुपानके साथ दी जाती है वैसा (२०१७) जातीफलादिवटी ही गुण करती है। (यो, त. । त, ८०; वृ. यो, त. । त. १४७) (अनुपानादि "जयन्तीवटी" में देखिए ।) जातीफलार्क करहाटलवङ्गशुण्ठी (२०१५) जातीफलादिवटी कोलकेसरकणा हरिचन्दनश्च । X ( वृ. नि. र.; वै. र. । आंत. ) एतत्समानमहिफेनमचन्द्रमभ्रं जातीफलं च खजूरमहिफेनं तथैव च । सर्वःसमं न सहते रति बिन्दुपातम् ॥ समभागानि सर्वाणि नागवल्लीरसेन च । सर्वैःसमांशा खलु शर्करा तु वल्लमात्रा वटी कार्या देया तक्रानुपानतः। देया भिषग्भिरखिलार्थविद्भिः। अतिसारं जयेद्घोरं वैश्वानर इवाहुतिम् ।। घृतेन सार्द्ध मधुना च साकं जायफल, खजूर (छुहारा), अफीम समान कृत्वा वटी टङ्कमितां च दद्यात् ।। भाग लेकर पानके रसमें घोटकर ३-३ रत्तीकी । जायफल, अर्क (आक ) की जड़, अकरकरा, गोलियां बना लीजिए। लौंग, सोंठ, कंकोल, केसर, पीपल, और मलियाइन्हें तक्रके साथ सेवन करनेसे भयङ्कर अति- गिरि चन्दन का चूर्ण १-१ भाग। अफीम ९ सार भी नष्ट हो जाता है। भाग, निश्चन्द्र अभ्रक १८ भाग और खांड ३६ (२०१६) जातीफलादिवटी भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर महीन करके (यो. त. । त. ८०; वृ. यो. त. । त, १४७) शहद के साथ १--१ टङ्क (४-४ माशे ) की जातीफलं टङ्कमितमहिफेनं च टङ्कम् । ___ गोलियां बना लीजिए। अजमोदा चैकटङ्का चन्द्रसं चैकटङ्ककम् ।। इन्हें शहद और धी के साथ सेवन करनेसे सितोपला विटङ्का स्थात्पश्चटङ्को गुडो मतः। | वीर्यस्तम्भन होता है। बुद्धया सम्मेल्य वटिकाः कार्याद्वादश तुल्यशः॥ जातीफलाद्या वटिका तत्रैकां भक्षयेद्धीमाञ्छनं स्तम्भयति ध्रुवम् ॥ (र. सा. सं., भै. र., र. र., । ग्रह ० ) जायफल १ टङ्क (४ माषे), अफीम १ टक. रसप्रकरणमें देखिए । अजमोद १ टङ्क, कपूर १ टङ्क, बंसलोचन ३ (२०१८) जात्यादिगुटिका (ग. नि.। मुखरो.) टक, और गुड़ ५ टङ्क लेकर सबका महीन चूर्ण जातीकर्पूरपूगानि कङ्कोलकफलानि च । करके गुड़में मिलाकर सबकी १२ गोलियां | इत्येषां गुटिका कार्या मुखसौभाग्यवर्धिनी ॥ बना लीजिए। । दन्तौष्ठमुखरोगेषु जिहाताल्वामयेषु च ॥ For Private And Personal Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि __ जावित्री, कपूर, सुपारी (चिकनी) और टङ्गनं कुन्दुरुयष्टि तुगा कङ्कोलबालकम् । कङ्कोल । समान भाग लेकर पानीमें पीसकर गोलियां गाङ्गेरुत्रिकटुश्चैव धातकी बिल्वमर्जुनम् ॥ बना लीजिए। शतपुष्पा देवदारु कपूरं सप्रियङ्गकम् । इन्हें मुंहमें रखनेसे मुंह की दुर्गन्ध, तथा जीरकं शाल्मलञ्चैव कटुका पमनालके । दन्त, होठ, मुख, जिह्वा और तालुके रोग नष्ट । एषां कर्षसमं चूणे गृह्णीयात्कुशलो भिषक् । होकर मुंह में सुगन्धि आने लगती है । शर्करामधुनाज्येन मोदकश्च विनिर्मितम् ।। (२०१९) जीरकादिमोदकः खादेत्कर्षसमन्तस्य प्रत्यहम्पातरुत्थितः। ___ (यो. र.; भा. प्र.। म. ख. स्त्री. ) शीततोयानुपानेन सर्वग्रहणिकां जयेत् ॥ । आमदोषाढते पित्ते वहिमान्ये तथैव च । जीरकद्वितयं कृष्णा सुषवी सुरभिर्वचा।। रक्तातिसारेऽतीसारे प्रयोज्यं विषमज्वरे ॥ वासक सैन्धवश्चापि यवक्षारो यवानिका ।। सशब्दं घोरं गम्भीरम् हन्ति सद्यो न सशयः। एषां चूर्ण घृते किश्चिद्धृष्ट्वा खण्डेन मोदकम् । अम्लपित्तकृतं दोषमुदरं सर्वरूपिणम् ॥ कृत्वा खादेयथावह्नि योनिरोगात्प्रमुच्यते ॥ सर्वातीसारशमनं संग्रहग्रहणीं जयेत् । ___ काला जीरा, सफेद जीरा, पीपल, कलौंजी, एकजं द्वन्द्वजं चैव दोषत्रयकृतं तथा ॥ कणगूगल, बच, बासा, सेन्धानमक, जवाखार और विकारं कोष्ठजञ्चैव हन्ति शूलमरोचकम् । अजवायन का चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र भाषितं वृष्णिनाथेन जन्तूनां हितकारणम् ॥ मिलाकर सबको थोडेसे धीमें भूनकर ( सबके जीरेका महीन चूर्ण ८ पल (४० तोले ), बराबर ) खांड की चाशनी में मिलाकर मोदक बना भांगके भुने हुवे बीजोंका कपड़छन चूर्ण ४ पल, लीजिए। लोह भस्म १। तोला, वङ्ग भस्म १। तोला, अभ्रक इन्हें यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे | भस्म १। तोला, ईख की जड़, तालीसपत्र, जावित्री, योनिरोग नष्ट होते है। जायफल, धनिया, हरी, बहेड़ा, आमला, दालचीनी, (साधारण मात्रा १ तोला । अनुपान दूध ।) इलायची, तेजपात, नागकेशर, लौंग, भूरिछरीला, (२०२०) जीरकादिमोदकः (भै. र. । ग्रह.) लाल चन्दन, सफेद चन्दन, जटामांसी, मुनक्का, इलक्ष्णचूर्णीकृतं जीरं पलाष्टकमितं शुभम् । कचूर, सुहागेकी खील, कुन्दरु गोंद, मुलैठी, बंसतदर्धविजयाबीजं भर्जितं वस्त्रपूतकम् ॥ लोचन, ककोल, सुगन्धबाला, गंगेरन की छाल, अयश्चूर्ण तथा वङ्गमभ्रक कर्षमानतः । त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), धायके फूल, बेलगिरी, मधृरिकं च तालीशं जातीकोषफले तथा ॥ अर्जुनकी छाल, सौंफ, देवद्वारका बुरादा, कपूर, फूल धान्यकं त्रिफला चैव चातुर्जातलवङ्गकम् । प्रियङ्गु, जीरा, सेंभल का गोंद, कुटकी और कमलशैलेयं चन्दने द्वे च मांसी द्राक्षा शटी तथा॥ नाल का चूर्ण ११-१। तोला लेकर सबको ज़रा For Private And Personal Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । [२५५] .. ............... unvanAVE./2 rxy. घीमें भून लीजिए और फिर मिश्री की चाशनी में | इन्हें सुखोदक ( कुछ गर्म ) पानीके साथ मिला दीजिए। जब ठण्डी हो जाय तो उसमें सेवन करनेसे अजीर्ण, अलसक, विसूचिका और शहद मिलाकर १।१। तोले के मोदक बना। अफारा नष्ट होता है। तथा अपानवायु खुलता है। लीजिए। (२०२२) जीरकाद्यो मोदकः (भै.र.।स्त्री.) प्रतिदिन प्रातःकाल शीतल जलके साथ १- जीरकस्य पलान्यष्टौ शुण्ठी धान्यं पलत्रयम् । १ मोदक खानेसे सर्व प्रकार के ग्रहणी रोग, आमा- शतपुष्पा यमानी च कृष्णजीरं पलं पलम् । च्छादित पित्तरोग, अग्निमांद्य, अतिसार, रक्तातिसार, क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तं खण्डस्यार्द्धशतं पलम् । विषमज्वर, पेटमें अत्यधिक गुड़गुड़ाट शब्द होग, । घृतस्यापि पलान्यष्टौ शनैर्मेद्वग्निना पचेत् ।। अम्लपित्त, एक दोषज द्विदोषज और सन्निपातज व्योषं त्रिजातकञ्चैव विडङ्ग चव्यचित्रकम् । उदर रोग, शूल और अरुचिका नाश होता है। मुस्तकञ्च लवङ्गश्च पलांशं संपकल्पयेत् ॥ इस औषधका आविष्कार श्री महादेन महोदय मन्देन वहिना पक्त्वा मोदकं कारयेद्भिषक् । ने संसारके कल्याण के लिए किया है। (इस | सर्वयोषिद्विकाराणाम् नाशनं वह्निदीपनम् । प्रयोग में मिश्री समस्त चूर्ण के बराबर लेनी मृतिकारोगशमनं विशेषाद्रहणीहरम् ॥ चाहिए।) जीरेका चूर्ण ८ पल ( ४० तोले ), सोंठ जीरकादिमोदकः (वृहद् ) ( भै. र. । ग्र.) और धनियेका चूर्ण ३-३ पल, सोया ( अथवा सौंफ ), अजवायन और काले जीरेका चूर्ण १-१ वृहजीरकादि मोदक देखिए पल ( ५-५ तोले), दूध ३२ पल (२ सेर) और (२०२१) जीरकाद्या गुटिका(ग.नि.।गुटिका.) खांड ५० पल तथा घी ८ पल लेकर सबको जीरकभागद्वितयमेको भागस्तथैव मरिचस्थ ।। एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर पकाइये । जब चाशनी द्वौ भागौ सिन्धूत्थाद्धिङ्गो गश्चतुर्थाशः ॥ । आ जाय तो उसमें त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), कार्या गुडेन वटिकाजीर्णालसको दालचीनी, तेजपात, बायबिडंग, चव, चीता, मोथा विचिकाध्मानौ। और लौंगका १-१ पल (५-५ तोले ) चूर्ण हन्ति सुखोदकपीताऽनुलोमिनी मूढवातस्य ॥ मिलाकर मोदक बना लीजिए। ___जीरा २ भाग, काली मिर्च १ भाग, सेंधा | । इन्हें सेवन करनेसे समस्त स्त्रीरोग, विशेषतः नमक २ भाग, और भुनी हुई हींग १ चौथाई सूतिका रोग और संग्रहणी नष्ट होती तथा अग्नि भाग । सब चीजोंके भहीन चूर्णको (समान भाग) गुड़में मिलाकर ( ६-६ माशेकी ) गोलियां बना ( मात्रा १ तोला । अनुपान गर्म दूध या लीजिए। | जल ।) For Private And Personal Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। जकारादि - - (२०२३) जीवकाद्यो मोदकः(च.चि. कासा.) शुद्ध जमालगोटा १ टङ्क (५ माशे), कुटकी जीवकाद्यैर्मधुरकैःफलैश्चाभिषुकादिभिः। २ टक और गेरु एक टङ्क । सबके महीन चूर्णको कल्कैस्त्रिकार्षिके सिद्धे पूते शेषे च सर्पिषि ॥ घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ) के रसमें घोटकर मटरके शर्करापिप्पलीचूर्णस्त्वकक्षीर्या मरिचस्य च। समान गोलियां बना लीजिए । शृङ्गाटकस्य चावाप्यक्षौद्रगर्भान् पलोन्मितान् ॥ इन्हें शीतल जलके साथ सेवन करनेसे जीर्ण गुडान् गोधमचूर्णन कृत्वा खादेद्धिताशनः।। ज्वर नष्ट होता है । शुक्रामृग्दोषशोषेषु कासे क्षीणक्षतेषु च ॥ ( ज्वरघ्नीवटी) ___ जीवक, ऋषभक, मेदा, महा मेदा, काकोली, रसप्रकरणमें देखिए । क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती, मुलैठी (२०२५) ज्योतिष्मतीगुटिका और पिस्ता बदाम, इत्यादि फलोंकी गिरी ३-३ (वैद्यामृत । वि. १८ ) कर्ष ( प्रत्येक ३।। तोले ) लेकर पीसकर उसके तेजोहा प्रस्थमेकं पयसि साथ ४ गुना घृत पकाएं। पाकके समय घृतसे | गजगुणे पाकयुक्त्या विपाच्यम् । ४ गुना पानी भी अवश्य डालना चाहिए । जब व्योषं पथ्यां शताहां कृमिरिपुसमस्त पानी जल जाय तो घृतको छानलें । तत्प- मनलं ग्रन्थिकं चाजमोदम् ॥ श्चात् उसमें मिश्री, पीपल, बंसलोचन, स्याहमिर्च उग्रा कुष्ठाश्चगन्धौ सुरतरु और सिंघाडेका चूर्ण (सब समान भाग मिश्रित) ममृतं पालिकानि प्रदद्यात् । घृतका चतुर्थांश मिलाएं और फिर इस समस्त सर्वान्वातान्वटीयं घृतमधुमिश्रण के बराबर घृतमें भुना हुवा गेहूं का आटा सहिता नास्तिभावान्करोति ॥ और गुड़ मिलाकर थोड़ा शहद डालकर १-१ पल १ सेर मालकंगनीको ८ सेर पानीमें पकाइये (५-५तोले ) के लड्ड बना लीजिए। जब १ सेर पानी शेष रहे तो उसे छानकर उसमें ___ इन्हें पथ्य पालनपूर्वक शुक्र दोष, रजोविकार, १-१ पल (५-५ तोले) त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, शोष, खांसी और क्षत क्षीणादिमें सेवन करना पीपल ), हर्र, सोया, बायबिडंग, चीता, पीपलामूल, चाहिए। अजमोद, बच, कूठ, असगन्ध, देवदारु और शुद्ध (२०२४) जैपालवटी बछनागका चूर्ण मिलाकर गोलियां बना लीजिए। ( वै. र.; र. रा. सु. भा. प्र. । ज्वर.) इन्हें धी और शहदके साथ सेवन करनेसे शुद्धजैपालटङ्कन्तु कटवी टकद्वयोन्मिताम् । समस्त वातरोग नष्ट होते हैं । गैरिकं टङ्कमेकन्तु कन्यानीरेण मर्दयेत् ॥ ( नोट-यदि १ सेर पानी अधिक मालम कलायसदृशी कार्या वटिका तां च भक्षयेत् । हो तो उसे पकाकर गाढ़ा करके चूर्ण मिलाना शीतलेन जलेनैषा वटी जीर्णज्वरापहा ॥. ' चाहिए । मात्रा १ माशा । ) For Private And Personal Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२५७] - - (२०२६) ज्वरनाशिनी गुटिका चार गुने पानीमें पकाइये; जब चौथा भाग शेष (र. स. क. । उला. ५) | रह जाय तो उतार कर छान लीजिए। इस काथको एल्वालुकामयाबोलमिन्द्रागुग्गुलुसंयुता। पुनः पकाकर गाढ़ा कर लीजिए । जब अवलेह स्नुहीक्षीरेण गुटिका शोधनी ज्वरनाशिनी ॥ तैयार हो जाय ( करछलीको चिपकने लगे ) तो - एलवा, हरे, बोल (बीजाबोल मुरमुकीगोंद), उतार कर ठण्डा कर लीजिए । इसमें शहद मिलाइन्द्रायणकी जड़ और गूगल समान भाग लेकर कर चाटनेसे भयङ्कर अतिसार भी नष्ट हो जाता है। चूर्ण करके सबको स्नुही ( थोहर-सेंड )के दूधमें यह अवलेह आमातिसार, और पानी तथा एकत्र खरल करके (चनेके बराबर) गोलियां बना | | राध ( पीप )के समान एवं मुरदेकी सी गन्धवाले लीजिए। अतिसारमें भी तुरन्त लाभ पहुंचाता है । इनके सेवनसे विरेचन होकर ज्वर नष्ट (मात्रा १ तोला ) हो जाता है। (२०२८) जातिपत्रादिलेहः (मात्रा-१-२ गोली । अनुपान ठण्डा पानी।) (ग. नि. । मुख.; रा. मा. । मुख.) ।। इति जकारादिगुटिकाप्रकरणम् ॥ जातीपत्रं' कणा लाजा मातुलुङ्गदलं मधु । एला लेहे भवेन्नादःकिन्नरस्वरतोऽधिकः ॥ अथ जकाराद्यवलेहप्रकरणम् जावित्री, पीपल, धानकी खील, बिजौरे (२०२७) जम्बूत्वचाद्योऽवलेहः नीबूके पत्ते और इलायची समान भाग लेकर ( हा. सं. । स्था. ३, अ. ३) पीसकर शहदमें मिलाकर चाटनेसे स्वर अत्यन्त जम्बूत्वचं वत्सकवल्कलञ्च मधुर हो जाता है। निकाथ्य नूनं सलिले समीरणम्। (२०२९) जातीरसावलेहः चतुर्विभागेश्वपि शेषितेषु ( वृ. नि. र. । तृष्णा; वृं. मा. । छर्दि.) उत्तार्य वस्त्रेष्वथ गालयेच ॥ जात्या रसाकपित्थस्य पिप्पलीमरिचान्वितः। पुनःकटाहे विपचेच्च सम्यक क्षौद्रेण युक्तःशमयेल्लेहोयं छर्दिमुल्वणाम् ।। ___ दर्वीप्रलेपः स्वरसन्तु यावत् । चमेलीके पत्ते और कैथका स्वरस और पीपल उत्तार्य शीते मधुना विमिश्रं तथा मरिचका चूर्ण एवं शहदको एकत्र मिलाकर लीढं हरेदप्यतिसारमुग्रम् ॥ चाटनेसे छर्दि नष्ट होती है। आम सपित्तं कुणपं जलाभं पूयसन्निभम्।। (२०३०) जीरकखण्डः (यो. चि.। अ.७) नाशयेत्पीतमात्रेण तमःसूर्योदये तथा ॥ जीरकं भागमेकं स्यात्खण्डस्तद्विगुणस्मृतः। जामन और कुड़ेकी छाल समान भाग लेकर चतुर्गुणं घृतं तप्तं सर्व सम्मील्य मुद्रयेत् ॥ १ बृहन्निघन्टुरत्नाकरमें जातीपत्रके स्थानमें जातीफल पाठ है ! भा० ३३ For Private And Personal Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [२५८ ] गोधूमपुञ्जमध्ये च चतुर्दशदिनान् स्थितम् । माघमासे कृतं चैतत् भक्षितं चक्षुषोर्हितम् ॥ जीरे का चूर्ण १ भाग, खांड २ भाग और तपाया हुवा धी ४ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर मिट्टी या पत्थरके स्वच्छ और चिकने बरतन में भरकर उसके मुखपर शराव ढककर कपरौटी कर दीजिए। इसे अनाज के ढेर में दबा दीजिए और १४ दिन पश्चात् निकालकर काम में लाइये । यह प्रयोग आंखों के लिए हितकारी है । इसे माघ मास में सेवन करना चाहिए । ( मात्रा १ तोला । अनुपान गर्म दूध | ) (२०३१) जीरकावलेहः (बृ. नि. र. यो. र. वै. र. । स्त्री.; यो त । त. ७४; वृ. यो. त. । त. १३५ ) जीरकं प्रस्थमेकं तु क्षीरं ह्यांकमेव च । प्रस्था लोघृतयोः पचेन्मन्देन वह्निना ।। लेहीभूतेथ शीते सितामस्थं विनिक्षिपेत् । चातुर्जातं कृष्ण विश्वमजाजीमुस्त बालकम् ॥ दाडिमं रसजं धान्यं रजनी पटवासकम् । वंशजं च तवक्षीरी प्रत्येकं शुक्तिसम्मितम् || जीरकस्यावलेोऽयं प्रमेहप्रदरापहः । ज्वरावल्यरुचिश्वासतृष्णादाहक्षयापहः ॥ जीरा १ प्रस्थ ( ८० तोले ) दूध ४ प्रस्थ, आधा प्रस्थ, लोधका चूर्ण आधा प्रस्थ । सबको मन्दाग्नि पर पकाकर गाढ़ा कर लीजिए । तत्पश्चात् उसे ठण्डा करके उसमें १ प्रस्थ मिश्री और २॥२|| तोले दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, पीपल, सोंठ, जीरा, मोथा, सुगन्धवाला, अनारदाना, १ द्वपादकमिति पाठान्तरम् जंकारादि धनिया, हल्दी, कपूर और बंसलोचनका चूर्ण मिला दीजिए | यह 'जीरकावलेह' प्रमेह, प्रदर, ज्वर, निर्बलता, अरुचि, श्वास, तृष्णा, दाह और क्षयका नाश करता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( मात्रा १ तोला । अनुपान दूध ) इति काराद्यवलेह प्रकरणम् अथ जकारादिघृतप्रकरणम् (२०३२) जात्यादिघृतम् ; वृ. नि. र. यो. र.; भै. र.; वं. से.; वै. र.; वृ. मा.; च. द.; शा. सं.; धन्व; र. र. । . रो. : यो. त. । त. ६०.; बृ. यो. त. । त. १११) जातीपत्र पटोल निम्बकटुकादावनिशा सारिवामञ्जिष्ठाभयतुत्य सिक्थमधुकैर्नक्कारवी जान्वितैः सर्पिः सिद्धमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताःखाविणो गम्भीराः सरुजो व्रणाःसगतिकाः शुध्यन्ति रोहन्ति च ॥ चमेली के पत्ते, पटोल, नीम के पत्ते, कुटकी, दारूहल्दी, हल्दी, सारिवा, मजीठ, खस, नीला थोथा, मोम, मुलैठी, और करञ्जवेके बीजों के कल्क के साथ घृत पका लीजिए । अथवा इन समस्त चीज़ों को (मोमके अतिरिक्त ) खूब महीन पीसकर और मोमको पिघलाकर घीमें मिला लीजिए । यदि पकाना हो तो प्रत्येक वस्तु १।- १ तोला, गायका घी ६५ तो; और पानी २६० तोले लेना चाहिए । इसको मरहम की भांति लगाने से मर्म स्थानों के घाव, पीपयुक्त घाव, तथा गहरे, पीड़ायुक्त, और For Private And Personal Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । प्रकरणम् ] जिनका मुख छोटा हो वह घाव एवं नासूर शुद्ध होकर भर जाते हैं । * (२०३३) जात्यादिघृतम् ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४८ ) जातीकरञ्ज पिचुमन्दपटोलपत्रै मधुश्च रजनी कटुरोहिणी च । मञ्जिष्ठकोत्पलमुशीर करञ्जवीजम् स्यात्सारिवा मागधिका समांशा ।। पकं घृतं च हितमेव व्रणे प्रशस्तं नाडीगते च सरुजे च सशोणिते च । "तावि सर्पमपि हन्ति गभीरके च arrai सकठिनन्त्वपि रोहयन्ति ॥ चमेली के पत्ते, करञ्जवे के पत्ते, नीमके पत्ते, पटोलपत्र, मुलैठी, हल्दी, कुटकी, मजीठ, नीलोफर, खस, करञ्जकी गिरी, सारिवा, निसोत, और पीपल का कल्क १ - १ तोला, गायका धी ५६ तोले और पानी २२४ तोले । सबको एकत्र मिलाकर मन्दान पर पकाये। जब सब पानी जल जाय तो उतारकर छान लीजिए । 1 यह घृत नाडीव्रण ( नासूर ), पीड़ायुक्त व्रण, और जिससे रक्त निकलता हो उस व्रणको तथा मकड़ीका फलना, अग्निसे जलना और कठिन तथा गहरे व्रण ( घाव ) को नष्ट करता है । नोट - इस प्रयोग में और प्रयोग सं. २०३२ में केवल इतना ही अन्तर है कि उसमें करञ्ज पत्र, नीलोफर और निसोत नहीं है तथा दारु हल्दी, नीलाथोथा और मोम अधिक है। 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५९ ] २०३४) जात्यादिघृतम् ( रा. मा. । स्त्री. ) संयोजितं पल्लवपञ्चकेनजातीप्रसूनैर्मधुकान्वितैश्च । सूर्याशुतप्तं घृतमङ्गनानामभ्यङ्गतो हन्ति वराङ्गगन्धम् आम, जामन, कैथ, बिजौरा और बेलके पत्ते, मुलैठी तथा चमेली के फूल समान भाग लेकर खूब महीन पीसकर चारगुने गोघृतमें मिलाकर धूप में रख दीजिए। ( १० दिन पश्चात् शीशी या मर्तबान में भरकर रख लीजिए । ) इस की मालिश से योनि की दुर्गन्ध नष्ट होती है। (२०३५) जीमूतकादिघृतम् (ग. नि. । ग्रन्ध्य.) जीमूतकैः कोषवतफलैश्च दन्तीवन्तीति चैव । सर्पि कृतं हन्त्यपचीं प्रवृद्धां द्विधा प्रवृत्तं तदुदारवीर्यम् ॥ जीमूत, (देवदाली फल), कड़वी तंबी, दन्ती, द्रवन्ती, और निसोतके कल्क तथा काथ से पकाया हुवा घृत लगाने और खाने से प्रवृद्ध अपची ( गण्डमाला भेद ) का नाश होता है। 1 ( घृत पकाने के लिए कल्क से चार गुना घी और घीसे चार गुना काथ लेना चाहिये । (२०३६) जीरकघृतम् (वं. से. । अजी. ) जीरके चित्रकं चयं यवानी नागरं तथा । पलिकानि च तत्सर्वं पञ्चवं लवणानि च ।। आरनालाढकं दत्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत् । एतदग्निविवृद्धयर्थमर्शसां नाशनं परम् ॥ * रसरत्नसमुच्चयमें इस प्रयोग में मोमके स्थान में तेजपात लिखा है । तथा कुटकी, हल्दी और दारु हल्दी नहीं है । For Private And Personal Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि ___काला जीरा, सफेद जीरा, चीता, चव्य, (१०३८) जीरकाद्यं घृतम् अजवायन, सोंठ, काला नमक, सेंधा नमक, कांच (यो. र.; वृं. मा.; च. द.; वृ. नि. र. । अम्ल.) लवण ( कचलौना ), खारी नमक और सामुद्र | पिष्ट्वाजाजी सधान्यक घृतपस्थं विपाचयेत् । लवणका कल्क एक एक पल (५ तोले), काजी कफपित्तारुचिहरं मन्दानलवमि जयेत् ॥ ४ सेर तथा धी १ सेर लेकर एकत्र मिलाकर जीरे और धनियेके कल्कके साथ पकाया मन्दाग्नि पर पकाइये और घृत मात्र शेष रहने पर हुवा घी सेवन करनेसे कफपित्तज अरुचि, मन्दाग्नि छान लीजिए । और वमनका नाश होता है । मात्रा १ से २ ___इसके सेवनसे अग्निकी वृद्धि और अर्शका तोले तक । अनुपान गर्म पानी ।। नाश होता है। ( जीरा ५ तोले, धनिया ५ तोले, पानी ( मात्रा-१ तोला । अनुपान गर्म पानी १६० तोले, घी ४० तोले ) एकत्र मिलाकर या दूध ।) पकाएं। (२०३७) जीरकवृतम् (भै.र.; च. द. । व्रण) (२०३९) जीवनीयघृतम् (सु.सं.।चि.अ.५) जीरकपकं पश्चात् सिक्थकसर्जरसमिश्रितं हरति जीवनीयमतीवापं सर्पिःपयसा पाचयित्वाऽभ्यघृतमभ्यगात्पावकदग्धजदुःखं क्षणार्दैन । __ञ्जयेत् ।। ८० तोले जीरेको ३२० तोले पानीमें जीवनीयगणके कल्क और दूधके साथ पकाइये जब ८० तोले पानी रह जाय तो छान- पकाए हुवे धृतकी मालिशसे वातरक्त रोग नष्ट कर उसमें जीरेका ५ तोले कल्क और २० तोले होता है। गोघृत मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाइये । जब धृत (क कके समस्त द्रव्य समान मात्रामें मिले मात्र शेष रह जाय तो छानकर उसमें १।-१। और पानीके साथ पिसे हुवे १ भाग, घी ४ भाग तोला मोम और राल मिला लीजिए। दूध १६ भाग । मिलाकर पकाएं । ) इसे लगानेसे अग्निसे जले हुवे घावकी पीड़ा (२०४०) जीवन्तीयमकः (वं. से. । वाजी.) तत्काल शान्त हो जाती है । जीवन्त्यतिबलामेदाकाकोलीद्वयजीरकैः। ( मोमको पिघलाकर और रालको पीसकर समभागीकृतैःकृष्णाकाकनासारसायनैः॥ मिलाना चाहिए। स्वयंगुप्ताशठीशृङ्गीजीवकशारिवाद्वयैः । नोट -----राजमार्तण्डमें इसी प्रयोगमें मोमके सहाचरवराविश्वापिप्पलीमूलभजनैः ।। स्थानमें मैनफल लिखा है । पिष्टैस्तैलं घृतं पकं क्षीरेणाष्टगुणेन च । __ १ जीवति पाठान्तरम् २ समधुकमिति पाठभेदः । धनियेकी जगह किसी किसी ग्रन्थमें मुलैठी भी लिखी है । ३ पित्ताम्लकहरमिति पाठन्तरम् । ४ जीवनीयगण जकारादि क्वाथ प्रकरण में देखिए । For Private And Personal Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir مه ، مية مية مية قرية في مالي، مه يه مه یه یه یه کی يا ره مه که مه یه کیه ای می بره vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvwwws ॥ घृतपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २६१] दत्तमनुवासन यं शुक्राग्निवलवर्धनम् ॥ हलीमककामलपाण्डुरोगो वृंहणं वातपित्तनं गुल्मानाहहरं परम् । मूर्छा भ्रमःकम्पशिरोऽतिशूलम् ॥ नस्यै पानश्च संयुक्तमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥ मेहाश्मरी वा गुदकीलकुष्ठं __ जीवन्ती, अतिबला (कंघी), मेदा, काकोली, शिरोगतो नाशमुपैति रोगः। क्षीर काकोली, जीरा, पीपल, काकनासा, काकजंघा, नस्यप्रदानेन प्रयोजितेन कौंचके बीज,कचूर,काकड़ासींगी, जीवक,श्वेतसारिवा, पानेन पाण्डवामयराजयक्ष्मा॥ कृष्ण सारिवा, पिया बांसा, हर्र,बहेड़ा,आमला, सोंठ, नाशं शमं यान्ति हलीमको वा और पीपलामूलका कल्क ( पिट्ठी) समान भाग, वस्तिप्रदानेन गुदोद्भवश्च । और सबसे दो दो गुना धी तथा तैल, एवं तैलसे रोगो विनाशं समुपैति पुंसां १६ गुना गायका दूध लेकर सबको एकत्र मिला विसर्पविस्फोटकमोक्षणेन ॥ कर मन्दाग्नि पर पकाइये । जब समस्त दूध जल जीवन्ति, कुड़ेकी छाल, मुलैठी, पोखरमूल, जाय तो छान लीजिए। गोखरु, बला (खरैटी ), अतिबला ( कंघी ), इसे स्नेहबस्तिद्वारा प्रयुक्त करनेसे बल, वीर्य | नीलोत्पल ( नीलोफर ), भुई आमला, जवासा, और जठराग्निकी वृद्धि होती है । वातपित्त, गुल्म त्रायमाणा, पीपल, कूठ, मुनक्का ( द्राक्षा ) और और अफारा नष्ट होता है तथा इसे पीने और आमला । समान भाग मिलाकर १ प्रस्थ इसकी नस्य देनेसे समस्त ऊर्ध्वजत्रुगत ( गलेसे । (८० तोले) लें और सबको कूटकर ४ प्रस्थ पानीमें ऊपरके ) रोग नष्ट होते हैं । पकाएं । जब १ प्रस्थ पानी शेष रहे तो छानलें। (२०४१) जीवन्त्यादिकं धृतम् तत्पश्चात् यह काथ, २ प्रस्थ बकरीका दूध, १ (वृ. नि. र. । क्षय.) प्रस्थ दही और १ प्रस्थ घृतको एकत्र मिलाकर जीवन्तिकावत्सकयष्टिकानां मन्दाग्नि पर पकाएं। सपौष्करं गोक्षुरकं बले द्वे । जब केवल घृत शेष रह जाय तो उतार कर नीलोत्पलं तामलकी यवासं छानलें। सत्रायमाणा मगधा च कुष्ठम् ॥ इसे पिलाने, भोजनके साथ खिलाने, और द्राक्षामलक्या रसप्रस्थमेकं नस्य तथा वस्तिद्वारा प्रयुक्त करनेसे राजयक्ष्मा प्रस्थद्वयं छागलकं पयश्च । रोग नष्ट होता है । इसके अतिरिक्त यह हलीमक, प्रस्थं तु दनो विपचेद् घृतं वै । कामला, पाण्डु, मूछो, भ्रम, कम्प, शिरशूल, प्रमेह, पाने प्रशस्तं च तथैव भोज्ये ।। अश्मरी और बवासीरका नाश करता है । नस्ये च वस्तावपि योजयेत् तत् इसे शिरोरोगमें नस्यद्वारा प्रयुक्त करना विनाशमेन्याशु च राजयक्ष्मा। लाहिए. गजयक्ष्मा और पाण्ड रोगमें पिलाना चाहिए, For Private And Personal Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि बवासीरमें इसकी वस्ति देनी चाहिए और विसर्प । (२०४३) जीवन्त्याचं घृतम् विस्फोटकादि त्वरोगोंमें इसकी मालिश करनी (ग. नि. । घृता.; वा. भ. उ. । अ. १३) चाहिए। ' तुलां पचेद्धि जीवन्त्या द्रोणे ऽपां पादशेषितः। नोट-जीवन्ती से लेकर कुठ तकको औषधे दत्वा चतुर्गुणं क्षीरं घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ काथमें न डालकर उनका कल्क भी डाला जा प्रपौण्डरीककाकोलीपिप्पलीरोधसैन्धवैः। सकता है । कल्कके लिए सब चीजें समान भाग । शताहामधुकद्राक्षासितादारुफलत्रयैः॥ मिलाकर २० तोले लेनी चाहिए और फिर आमले कार्षिकैनिशि तत्पीतं तिमिरापहं परम् ।। तथा मुनक्काका रस या क्वाथ १-१ प्रस्थ १ तुला (६। सेर ) जीवन्तीको १ द्रोण (८० तोले) लेना चाहिए। । ( १६ सेर ) पानीमें पकाएं । जब चार सेर (२०४२) जीवन्त्यायं धृतम् पानी शेष रहे तो छानलें। तत्पश्चात् यह काथ, ( ग. नि. । प. घृता. ७; च. सं. । चि. क्षय.; १. ४ सेर दूध और प्रपौण्डरीक ( पुण्डरिया ), यो. त. । त. ७१; यो. र.; च. द.; भै. र.; । काकोली, पीपल, लोध, सेंधा, सोया ( या सौंफ), वं. से.; . मा. । रा. यक्ष्मा ) मुलैठी, मुनक्का (द्राक्षा ), मिश्री, देवद्वार, हरे, जीवन्ती मधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च । बहेड़ा और आमलेका १-१ कर्ष (१।-१। तोला) कल्क तथा १ सेर घृतको एकत्र मिलाकर पकावें । शटी पुष्करमूलश्च व्याघीं गोक्षुरकं बलाम् । । क्वाथ और दृध जल जाने पर घृतको छानलें । नीलोत्पलं तामलकी त्रायमाणां दुरालभाम् । पिप्पली च समां पिष्ट्वा घेतमेभिर्विपाचयेत् ।। इसे रात्रिके समय सेवन करनेसे तिमिर रोग एतद्याधिसमहस्य रोगेशस्य समुत्थितम। नष्ट होता है। रूपमेकादशविधं सर्पिरप्रयं व्यपोहति ॥ (२०४४) जीवनाद्यो यमकः (वं.से.।बस्ति.) जीवन्ती, मुलैठी, मुनक्का, इन्द्रजौ, कचूर, जीवन्ती मदनं मेदां श्रावणी मधुकं बलाम् । पोखरमूल, कटेली, गोखरु, खरैटी, नीलोत्पल | जीवकर्षभको कृष्णां काकनासां शतावरीम्॥ ( नीलोफर ), भुई आमला, त्रायमाणा, धमासा, स्वगुप्तां क्षीरकाकोली कर्कटाख्यां शटी वचाम् और पीपल समान भाग लेकर पानीसे पीसलें | पिष्ट्वा तैलं घृतं क्षीरे साधयेत्तु चतुर्गुणे और इन सबसे चार गुना घी तथा धीसे चार गुना वृंहणं वातपित्तघ्नं बलशुक्राग्निवर्द्धनम् इन्हीका काथ लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकाएं। मूत्ररेतो रजोदोषान् हरेत्तदनुवासनात् इसके सेवनसे एकादशरूप और कष्ट साध्य ___ जीवन्ती, मैनफल, मेदा, गोरख मुण्डी, मुलैठी, राजयक्ष्मा भी नष्ट हो जाती है । खरैटी, जीवक, ऋषभक, पीपल, काकनासा, शतावर, १ द्विगुणमिति पाठान्तरम For Private And Personal Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग । [२६३] कौंचके बीज, क्षीर काकोली, काकडासिंगी, कचूर (२०४६) जम्मवादितैलम् (यो. र. । कर्ण.) और बच । सब चीजें समान भाग लेकर पीसलें। आम्रजम्बरवालानि मधकस्य वटस्य च । इनका कल्क ऽ। एक पाव, धी ऽ । सेर तैल 5 ॥ एभिस्तु साधितं तैलं पूतिकर्णगदं हरेत् ।। सेर और दूध ४ सेर एकत्र मिलाकर पकाएं । दूध आम, जामन, मुलैठी और बड़के पत्तों के जल जाने पर स्नेहको छानलें । इसकी अनुवासन कल्क तथा काथसे सिद्ध तैल पूतिकर्ण रोगका बस्ति देनेसे बल वीर्य और जठराग्निकी वृद्धि तथा नाश करता है। वातपित्त, मूत्र वीर्य और रजोदोष नष्ट होते हैं । (प्रत्येक वृक्षके पत्ते २०-२० तोले लेकर इति जकारादिघृतप्रकरणम् ॥ ४ सेर पानीमें पकाएं और १ सेर पानी रहने पर छान लें। कल्कके लिए प्रत्येक प्रकार के पत्र - अथ जकारादितैलप्रकरणम् १-१। तोला लें और २० तोले तैल पकाएं।) (२०४५) जम्वादितैलम् +(२०४७) जम्ब्वाद्यं तैलम् ( वा. भ. । उ. स्था. अ. १८) (च. द.; भै. र.; . मा.; र. र.; वं. से. । कर्ण.) जम्ब्बाम्रपल्लवबलायष्टीरोध्रतिलोत्पलैः । जम्ब्बाम्रपत्रं तरुणं समांशं सधान्याम्लैःसमञ्जिष्ठैःसकदम्बैःससारिवैः ॥ कपित्थकासिफलं च साम् । सिद्धमभ्यञ्जनं तैलं विसर्पोक्तवृतानि च ॥ कृत्वा रसं तं मधुना विमिश्रं जामनके पत्ते, आमके पत्ते, खरैटी, मुलैठी, स्रावापहं सम्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ लोध, तिल, नीलोत्पल (नीलोफर), काञ्जी, मजीठ, एतैःशृतं निम्बकरञ्जतैलम् कदम्बकी छाल और सारिवा । काजीके अतिरिक्त । ससार्षपं स्रावहरं प्रदिष्टम् ।। समस्त चीजें २-२ तोले लेकर पानीके साथ जामन और आमके कोमल पत्तोंको कूटकर पीस लें, फिर ८० तोले तिलका तैल और ३२० और कैथ तथा कपासके फल एवं अद्रकको पानीके तोले (४ सेर) काजीको एकत्र मिलाकर उसमें साथ पीस कर पृथक् पृथक् बराबर बराबर रस निकाल उपरोक्त पिसी हुई ओषधियां डालकर मन्दाग्नि पर लीजिए। इन सब रसोंको एकत्र मिलाकर उसमें पकाएं। जब समस्त काञ्जी जल जाय तो उतारकर सबसे चौथाई शहद मिला लीजिए । इस मिश्रण छान लें। को कानमें डालनेसे कान बहना बन्द होता है। इस तेलकी मालिशसे परिपोट नामकः कर्ण ___अथवा इन सब चीजोंके कल्क और चार व्याधि (कानकी पालीकी सूजन) नष्ट होती है। गुने पानीके साथ नीम, करज या सरसोंका तैल ___ इस रोगमें विसर्प-रोग-नाशक घृत भी लाभ पकाकर कानमें डालनेसे भी कर्णस्राव बन्द हो पहुंचाते हैं। जाता है। For Private And Personal Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२६४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [जकारादि (२०४८) जम्वाद्यं तैलम् अथवेदं च गृह्णीयात् तैलविन्दुचतुष्टयम् । (भा. प्र. । म. खं.; वं. से. । उपदंश) निराकुलं सुख कुर्यात्तथा सारयति ध्रुवम् ॥ ___ कूपिका यन्त्र द्वारा अथवा पाताल यन्त्रद्वारा जम्बूवेतसपत्राणि धात्रीपत्रं तथैव च । जमाल गोटेके नवीन बीजोंका तैल निकाल लीजिए नक्तमालस्य पत्राणि तद्वत्पद्मोत्पलानि च ॥ अथवा, उनकी गिरी निकालकर उसे पानीमें पकाएला चातिविषाम्रास्थि मधुकश्च प्रियङ्गवः। इये और पानी पर जो तैल नितर आए उसको लाक्षा कालीयकं लोधं चन्दनं त्रिताहया॥ किसी पक्षीके पर आदि से सावधानीपूर्वक उठा एतान्येकीकृतान्येव बस्तमूत्रेण पेषयेत् । लीजिए । ध्यान रखना चाहिए कि कहीं आंखको अक्षमात्रैरिमैद्रव्यैौलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ न लग जाए। सर्वत्रणहरं तैलमेतत्सिद्धं विपाचयेत् ।। उपदंशहरं श्रेष्ठं मुनिभिः परिकीर्तितम् ॥ इस तैलकी चार बंदें मन्दोष्ण (कुछ गर्म) पानीमें डालकर पीने और फिर गर्म स्थानमें जामन, बेत, आमला, करन, कमल और बैठने तथा बारबार पान खाने से वेगपूर्वक विरेचन उत्पल (नीलोफर) के पत्र, इलायची, अतीस, . होकर कोष्ठ शुद्ध हो जाता है। आमकी गुठली, मुलैठी, फूल प्रियङ्गु, लाख, अगर, लोध, सफेद चन्दन, और निसोत। एक एक कर्ष (२०५०) जातिपत्रादि तैलम् (वं. से; वृ. नि. र.; . मा.; । कर्ण; वृ. (१।-१। तोला) लेकर सबको बकरेके मूत्रमें पीस यो. त. । त. १२९) लीजिए; फिर इन्हें १ सेर तैल और ४ सेर पानी जातीपत्ररसे तैलं विपकं पूतिकर्णजित् । में एकत्र मिलाकर पानी जलने तक पकाइये। ___ चमेलीके पत्तोंके रसमें उससे चौथाई तैल तत्पश्चात् छान लीजिए। मिलाकर पकाएं। इस तैलको लगानेसे सर्व प्रकारके व्रण (घाव) इस तैलको कानमें डालनेसे 'पृतिकर्ण' रोग और विशेषतः उपदंश (आतशक) के धाव नष्ट | नष्ट होता है। होते हैं। (२०५१) जात्यादितैलम् (ग. नि. । तैला.) (२०४९) जयपालतैलम् (र. चिं.।स्त. १०) नवपत्राङ्कराजाती द्वे हरिद्रे शतावरी । वीजानि जयपालस्य समाहृत्य नवानि च। जीवकर्षभको रास्ना सरलं देवदारु च ॥ कूपिकायन्त्रयोगेन तैलं निःसार्य नीयते ॥ मुस्तातालीसमञ्जिष्ठापाठावरुणचित्रकाः । पातालयन्त्रयोगेनाऽऽथवा काथ्यगृह्यते।। | कुब्जं सर्वसुगन्धं च मधुकं द्वे च सारिवे॥ कदुष्णवारिणा पश्चात्क्षणं स्थिखा निपीयते ॥ अनन्ताऽऽमल कं मूर्वा मधुकं करवीरकम् । उष्णस्थाने स्थितः स्वच्छे बहुताम्बूलभक्षणम्। देवपुष्पं शिरीषस्य मूलं स्योनाकमेव च ॥ कुरुते सारयेदेतत्सुवेगेन न संशयः ॥ || चव्यं लाक्षा पयस्या च कलकीकृत्याक्षसम्मितान For Private And Personal Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] पक्त्वा चाथ कषायेण तैलप्रस्थं विपाचयेत् ।। एतदभ्यञ्जनाद्धन्यात्सन्निपातात्मकं ज्वरम् । तैलं जात्यादिकं नाम वातपित्तकफापहम् ॥ द्वितीयो भागः । इस तैलकी मालिशसे सन्निपात स्वरका नाश होता है । (जिन ओषधियोंके नाम दो बार आए हैं वह दोगुनी लेनी चाहिएं | ) (२०५२) जात्यादितैलम ( यो. र., वं. से. भा. प्र. व. नि. र. । मुख. ) कपायैर्जातिमदनकण्टकस्वादुकण्टकः । मञ्जिष्ठालोधखदिरयष्टया हैश्चापि यत्कृतम् ॥ तैलं यत्साधितं तच हन्यादन्तगतां गतिम् ॥ चमेली के पत्ते, मैन फल, कटली, छोटे गोखरु, मजीठ, लोध, खैर, और मुलेठीके काथके साथ भा० ३४ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६५ ] पकाया हुवा तैल लगाने से दांतोंका नाड़ीत्रण ( नासूर ) नष्ट होता है । ( प्रत्येक वस्तु १० तोले । पानी ८ सेर । शेष २ सेर, तैल ॥ ) (२०५३) जात्यादितैलम् चमेली के नवीन पत्ते, हल्दी, दारु हल्दी, शतावर, जीवक, ऋषभक, रास्ना, चीरका बुरादा, देवदारुका बुरादा, मोथा, तालीसपत्र, मजीठ, पाठा, वरुणछाल, चीतामूल, सफेद गुलाब, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, कपूर, कंकोल, अगर, केशर, लौंग, मुलैठी, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा, अनन्तमूल, आमला, मूर्वा, मुलैठी, कनेरकी छाल, लौंग, सिरसकी जड़ की छाल, योजाक (अरल) की छाल, चव, लाख, क्षीर काकोली प्रत्येक १-१ कर्ष (११ - ११ तोला) लेकर पानीके साथ पीसलें, तथा इन्हीं चीजोंको कूटकर १६ सेर पानीमें पकाएं और ४ शेर पानी शेष रहनेपर छान लें । तत्पश्चात् उपरोक्त पिसी हुई ओषधियां, यह काथ और १ सेर तेल एकत्र मिलाकर पकायें। जब सब पानी (काथ) जल जाय तो उतारकर छान (यो. र. र. का. वे.; वं. से. । व्र.; शा. सं. । ख. २ अ. ९; आ. प्र. म. ख.; बृ. यो. त । त. ११२ ) जातीनिम्बपटोलानां नक्तमालस्य पल्लवाः । सिक्थकं मधुकं कुष्ठं द्वे निशे कटुरोहिणी ॥ मञ्जिष्ठा पद्मकं लोध्रमभया नीलमुत्पलम् । तुत्थकं सारिवा बीजं नक्तमालस्य च क्षिपेत् ॥ एतानि समभागानि पिवा तैलं विपाचयेत् । विषव्रणसमुत्पत्तौ स्फोटेषु च कच्छुषु ॥ कण्डूविसर्परोगेषु कीटदष्टेषु सर्वथा । सयः शस्त्रप्रहारेषु दग्धविद्धक्षतेषु च ।। नखदन्तक्षते देहे दुष्टमांसावघर्षणे । प्रक्षणार्थमिदं तैलं हितं शोधनरोपणम् ॥ | I चमेली के पत्ते, नीम के पत्ते, पटोलपत्र, करन के पत्त, मोम, मुलैठी, कूठ, हल्दी, दारु हल्दी, कुटकी, मजीठ, पद्माख, लोध, हर्र, नीलोत्पल (नीलोफर), नीलाथोथा, सारिवा और करञ्जके बीज समान भाग लेकर पानी में पीसलें, फिर उस पिट्टी (क) को सबसे चार गुने तैलमें मिलाकर उसमें तैलसे चार गुना पानी मिलाकर पकाएं। जब सब पानी जल जाय तो तैलको छानलें । इस तैलके लगानेसे विष, घाव, विस्फोटक, कच्छु खुजली, विसर्प, विषैले कीड़ेका दंश, शस्त्रादिसे हुवा तुरन्तका घाव, अग्निसे जलने से या कील आदि घुस जानेसे उत्पन्न धाव, तथा नख और दन्तका For Private And Personal Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२६६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [जकारादि घाव, और रगड़ इत्यादिको शीन आगम हो पीपल, चव्य, नीलो पल ( नीलोफर ) कृठ, मुलैठी, जाता है। हल्दी, दारुहल्दी, मोथा, मुगन्धवाला, लोध, बड़के नोट-यह प्रयोग लाभग “जात्यादि घन" | अङ्कर, सिन्दूर और सोनागेरु। प्रत्येक का चूर्ण सं. २०३३ के समान ही है। ९.--९ माशे लेकर पानीमें पीस लें। तत्पश्चात् (२०५४) जात्याक्तिलम् (ग. नि.। उपदं.) उपरोक्त रसों और इन सब चीजोंको ३ पाव (१ जातीपत्रं निशा दुग्धी विशाला मधु पष्टिका ! सेर ) तिल के तैलमें मिलाकर पकाएं । जब समस्त काथ जल जाए तो छान लें । इसे लगानेसे समस्त पकनेभिर्यु तैलोतलेपो नरोगहा ॥ मुखरोग, भगन्दर, उपदंश और दुष्ट वा (धाव ) ___नमेली के पत्ते, हल्दी, दुधी, इन्द्रामगकी जड़ नष्ट होते हैं। और गुलै ।। प्रत्येक ४१ तोले लेकर पानीके (२०५६) जात्यादितलम् (वृ.नि.र. भु.रो.) साथ पीस लें। तत्पश्चात् यह क-क (पिट्टी), १ सेर तैल और इन्ही चीजों का ४ सेर काथ एकत्र जातीकरञ्जवरुणहरवीरारिपाचितम् । मिलाकर पकाएं | जब सब पानी जल जाप तो लमभ्यञ्जनादन्ति इन्द्रलुप्तं न संशयः ॥ तेलको छान लें। चमेली के पत्ते, करन के पत्ते, वरुण (बरने) इस तैलको लगानेसे उपदंश (आतशक) की छाल, कनेर की छाल और चीतामूल ४-४ रोग नष्ट होता है। तोले लेकर पानी में पीस लें । तत्पश्चात् यह कल्क (२०५५) जात्यादितैलम् (भै. र. । उपदं.) (पिसी हुई औपधे ), १ सेर तैल और ४ सेर पानी को एकत्र मिलाकर पकाएं। जब सब पानी जातीपल्लवतोयेन शङ्खपुष्पीरसेन च । जल जाए तो तैलको हानकर रख लें। बकुलत्त्वकषायेण पवेत्तैलं तिलोद्भवम् ।। इसकी मालिशसे इन्द्रला (गंज) रोग गायत्रीमाम्रवीजञ्च त्रिफलां कटुकत्रयम् । चव्यं नीलोत्पलं कुष्ठं मधु रजनीद्वयम् ॥ | अवश्य नष्ट होता है। मुस्त बालकं लोधं सिन्दूरं वणगैरिकम् । जात्यादितलम् (धन्वं. । व्रण.) जात्य कल्कीकृत्य क्षिपेतत्र बटरोहमयो पि च ॥ जात्यादिघृतं सं. २०३२ देखिए जात्यायाख्यमिदं तैलं निखिलान्मुखजानादान । (२०५७) जारकतलम् भगन्दरोपदंशी च व्रणं दुष्ट निहन्ति च॥ (यो.र.। कु.; ग. नि. । तैल.; वृ. यो. त.।त. १२०) चमेलीके पत्तोंका स्वरस १ सेर, शंखपुष्पी । जीरकस्य पलं पिष्ट्वा सिन्दूरार्द्रपलन्तथा। (शंखाहोली ) का स्वरस या काथ १ सेर, मौल- कटुतैलं पचेदाभ्यां सय पामाहरं परम् ॥ सिरीकी छालका काथ १ सेर, तथा खैर सार, वृद्धवैयोपदेशेन पाच्च तैलं पलाष्टकम् ॥ आमकी गुठली, हर्र, बहेड़ा, आमला. सोंठ, मिर्च, जीरा ५ तोले, और सिन्दूर २॥ तोले लेकर For Private And Personal Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२६७ ] . दोनोंको पीसलें तत्पश्चात् ८ पल (४० तोले) जल जाय तो स्नेह (घृत तैल ) को छानकर रख कड़वा तैल और २ सेर पानी एकत्र मिलाकर उस लीजिए। में यह दोनों चीजें डालकर पकाएं। जब सब इसको सेवन करनेसे अपस्मार रोग नष्ट होता पानी जल जाए तो तैलको छानकर रख लीजिए। है। ( इसे पान, मर्दन और वत्ति तथा नस्यद्वारा इसकी मालिशसे तर खुजली अत्यन्त शीघ्र प्रयुक्त किया जा सकता है। पीनेके लिए मात्रानष्ट होती है। । १ तोला। अनुपान गर्म दूध ।) । ___अन्य विधि-तैलको खूब गरम करके उसमें (२०६०) जीवन्त्यायोयमकः (ग. नि. ।ते.) ज़रा ज़रा सा उक्त चीजोंका चूर्ण डालकर जलाएं। जीवन्ती मञ्जिष्ठा दार्वी कम्पिल्लकः पपस्तुत्थम् जब सब चूर्ण जल जाए तो तैल को छान लें। एष घृततैलपाकःसिद्ध सरससंयुक्तः ॥ (२०५८) जीवकायं तैलम् देयःसमधुच्छिष्टो विपादिका तेन शाम्यतेऽभ्यक्ता (ग. नि.; वं. से.; वृ. मा. । शिरो.) चर्मककुष्ठं किटिभं सिध्मं शाम्यत्यलसकं च ॥ जीवकर्षभकद्राक्षासितायष्टीवलोत्पलैः। जीवन्ती, मजीठ, दारु हल्दी, कबीला (कमीला) तैलं नस्यं पयः पकं वातपित्ते शिरोगदे ॥ और नोला थोथा ४-४ तोले, धी ४० तोले, जीवक, ऋषभक, मुनक्का, मिश्री, मुठी, तेल ४० तोले और दूध ४ सेर लेकर एकत्र खरैटी और नीलोत्पल (नीलोफर)। समान भाग मिलाकर पकाएं; जब सब दृध जल जाए तो छान लें । और फिर उसमें ४-४ तोले रालका लेकर पानीमें पीस लें। फिर इस क क से ४ गुना चूर्ण और मोम मिला लें। तैल और १६ गुना दूध लेकर सबको एकत्र ___ इसकी मालिश करने से विपादिका (बिवाई) मिलाकर पकाएं। इस तैलकी नस्य लेनेसे वातपित्तज शिरोरोग चर्मष्ठ, किटिभ, सिध्म और अलसक ( खारवों) नष्ट होते हैं। का नाश होता है। । (२०६१) ज्योतिष्मतीतैलम् (२०५९) जीवनीयोयमकः (व.से.।अपस्मा.) । (यो. र.; वं. से. । उदर.; ग. नि. । कुष्ठा.; वृ. तैलमस्थं घृतमस्थं जीवनीयैः पलोन्मितैः। यो. त. । त. १२०; वा. भ. । चि. स्था. कु.) क्षीरद्रोणे पवेत्सिद्धमपस्मारविनाशनम् ॥ मयूरकक्षारजले सप्तकृत्वः परिगृतम् । १ सेर तैल और १ सेर धृतको एकत्र मिला सिद्ध ज्योतिष्मतीतैलमभ्यङ्गाच्छुित्रनाशनम् ॥ कर उसमें १ द्रोण ( १६ सेर) दूध और १-१ अपामार्ग (चिरचिटे) के क्षार के पानीमें पल (५-५ तोले) जीवनीयगणकी प्रत्येक सात बार पकाया हुवा माल कंगनीका तैल लगाने औषधिका कल्क मिलाकर पकाइये । जब सब दूध से श्विन ( सफेद कुछ ) नष्ट होता है। १जीवनीयगण जकागदि कपाय प्रकरणमें दोखिए। For Private And Personal Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२६८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि - - ( विधि-अपामार्ग की राख को १६ गुने । अथ जकाराद्यरित्रप्रकरणम पानी में घोलकर मोटे घने कपड़े में २१ बार टपका लीजिए । तत्पश्चात् १ सेर तेलमें ४ सेर यह जल (२०६४) जीरकाद्योऽरिष्ठः (भै. र. । स्त्री.) मिलाकर पकाइये, जब पानी जल जाय तो ४ सेर जीरकस्य तुलाद्वन्द्वं चतुर्दाणे जले पचेत् । पानी और डाल दीजिए, इसी प्रकार सात बार द्रोणशेषे क्षिपेत्तत्र तुलात्रयमितं गुडम् ।। पानी डालकर पकाइये। धातकी पोडशपलां शुण्ठीश्च द्विपलोन्मिताम् । इस तैलमें झाग अधिक आते हैं इस लिए जातीफलं मुस्तकञ्च चातुर्जातं यवानिकाम् ॥ बड़े पात्रमें और मन्दाग्नि पर पकाना चाहिए। ककोलं देवपुष्पञ्च पलमानेन निक्षिपेत् ।। (२०६२) ज्योतिष्मतीतैलप्रयोगः मासं संस्थाप्य भाण्डे च मृत्तिकापरिनिर्मिते ॥ (यो. चि. । चूर्णा.) तत कल्कान् विनिहृत्य पाययेत् कर्षमात्रया। ज्योतिष्मत्यास्तैलमेकं पिबेच्च; अरिष्टो जीरकाद्योऽयं निहन्यात्मृतिकामयान् ॥ ___ गुञ्जाद्धया कर्षमात्रन्तु यावत् । ग्रहणीमतिसारश्च तथा वह्वेश्च वैकृतिम् ।। सौरे पर्वण्यम्बुमध्ये प्रविष्टः प्रज्ञामूतिर्जायतेऽसौ कवीन्द्रः॥ २ तुला ( १२॥ सेर ) जीरको कूटकर ४ १ रत्ती मात्रासे आरम्भ करके प्रतिदिन १ - द्रोण ( ६४ सेर ) जलमें पकाए, जब १ द्रोण १ रत्ती बढ़ाकर १ कर्ष (१। तोले ) की मात्रा पानी शेष रहे तो उसमें ३ तुला गुड़, १६ पल तक पहुंचने तक ज्योतिष्मती (माल कंगनीका ) ( १ सेर ) धायके फूलोंका चूर्ण २ पल सोंठका तैल पीनेसे बुद्धि अत्यन्त तीब्र हो जाती है। चूर्ण, तथा १-१ पल (५-५ तोले ) जायफल, तेल पीनेके पश्चात् थोड़े समय तक नदी या मोथा, दालचीनी, तेजपात, नागकेसर इलायची, तालाब के भीतर छाती से ऊंचे पानी में बैठना अजवायन, कंकोल और लौंगका चूर्ण मिलाकर चाहिए। मिट्टीके स्वच्छ और घृतसे चिकने किए हुवे पात्रमें (२०६३) ज्योतिष्मतीतैलप्रयोगः भरकर, उसके मुखको शरावसे ढककर उस पर (यो. त.। त. ५२) कपडमिट्टी करके रख दीजिए; और १ मास ज्योतिष्मत्याःपिवेत्तैलं पयसा च विरेचनम् । पश्चात् छानकर बोतलों में भर दीजिए। सर्वेभ्यो जठरेभ्यस्तु शीघ्रं मुच्येत मानवः॥ यह जीरकाचरिष्ट सूतिका रोग, संग्रहणी, दूधमें मिलाकर मालकंगनीका तैल पीनेसे | अतिसार और जठराग्नि विकारोंको नष्ट करता है। विरेचन होकर समस्त उदररोग नष्ट हो जाते हैं। मात्रा-१ कर्ष ( १। तोला । ) । ॥ इति जकारादितैलप्रकरणम् ॥ ॥ इति जकाराधरिष्टप्रकरणम् ।। For Private And Personal Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२६९] and अथ जकारादिलेपप्रकरणम् सुगन्धवाला १ भाग, कृठ २ भाग, लोहचूर्ण ३ (२०६५) जपाकुसुमलेपः (रा.मा.। शिरो.) भाग, नागकेशर ४ भाग, तेजपात ५ भाग, मोथा कृष्णगवीमूत्रयुतैः पिष्टैरालेपितै पाकुसुमैः। ६ भाग, लाल चन्दन ७ भाग और कमलनाल ८ : भाग लेकर पानीमें महीन पीसकर लेप करनेसे शतमखलुप्तं नश्यति भवन्ति केशांश्च तत्र घनाः ___जवाके फूलोंको काली गायके मूत्रमें पीसकर पित्तकफज कुष्ट नष्ट होता है। लेप करनेसे इन्द्र लुप्त रोग ( गंज ) नष्ट हो कर । (२०६९) जातीपत्रादिलेपः (ग.नि.।मुख.) उस स्थान पर घने बाल निकल आते हैं । जातीपत्राणि जातेश्च फलं सम्पिष्य वारिणा। तस्य लेपे कृते याति मुखे दुङ्गलाञ्छनम् ।। (२०६६) जम्ग्वाम्रपल्लवादिलेपः ____ जावित्री और जायफलको पानीमें पीसकर ( वा. भ. उत्त. । अ. ३२ ) लेप करनेसे मुखकी झाई और श्यामता नष्ट होती है। जम्बाम्रपल्लवा मस्तु हरिद्रे द्वे नवो गुडः।। (२०७०) जातीपुष्पादिलेपः (वं. से. । व्र.) लेपःसवर्णकृत्पिष्टस्वरसेन च तिन्दुकम् ॥ उच्छनमृदमांसानां व्रणानामवसादनम् । जामन और आमके पते, हल्दी, दारुहल्दी जातिपुष्पं मनोहा च स्नुहीकासीसचित्रकैः ॥ और नवीन गुड़ समान भाग लेकर दहीके पानीमें चोलीके की चमेली के फूल, मनसिल, स्नुही (थोहर )का पीसकर लेप करनेसे अथवा तेन्दुको उसीके रसमें दूध, कासीस और चीतेकी जड़ । समान भाग पीसकर लेप करनेसे व्रणादिके कारण विकृत् हुवा लेकर पानी में पीसकर लेप करनेसे मृद और उन्नत त्वचाका रंग पूर्ववत् हो जाता है। मांस वाले घावों का ऊपरको उठा हुवा मांस दब (२०६७) जलकुम्भीभस्मलेपः (वं.से.|गल.) जाता है । रक्षोन्नतैलयुक्तेन जलकुम्भिकभस्मना । (२०७१) जातीफलादिलेपः (यो.र.।उपदं.) लेपनं गलगण्डस्य चिरोत्थस्यापि शस्थते ।। | जातीफलविडङ्गानि रसकं देवपुष्पकम् । जलकुम्भीकी भस्मको भिलावेके तैलमें मिला- | समभागानि सर्वाणि नवनीतेन मर्दयेत् ॥ कर लेप करनेसे पुराने गलगण्डको भी आराम हो । स्फोटानामुपदंशानां व्रणशोधनरोपणः॥ जाता है। जायफल, पायबिडंग, रसकपूर और लौंगका (२०६८) जलादिलेपः (च.सं.।चि. स्था. कु.) समान भाग चूर्ण लेकर नवनीत ( नैनीघृत )में जलवायलोह केसरपत्रप्लवचन्दनं मृणालानि। घोटकर लेप करनेसे उपदंश ( आतशक )के धाव भागोत्तराणि सिद्धं प्रलेपनं पित्तकफकुष्ठे । । शुद्ध होकर भर जाते हैं। १. रसकका शुद्धार्थ तो खमरिया होता है, परन्तु यहां रसकपूर ही अभीष्ट प्रतीत होता है क्यों कि उपदंशके व्रणों के लिए रसकपूर एक प्रसिद्ध और अनुपम वस्तु है । For Private And Personal Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २७० 1 भारत - भैषज्य रत्नाकरः । (२०७२) जातीफलादिलेप: (वृ.नि. र. क्षुद्र ) ( २०७६ ) जीवन्त्यादिलेपः जातीफलं चन्दनञ्च मरिचं सहपेषितम् । मुखे लेपेन हन्त्याशु पिटिकां यौवनोद्भवाम् ॥ जायफल, लाल चन्दन और स्याह मिरच | समान भाग लेकर पानी में पीसकर लेप करनेसे यौवनपिडिका ( मुहासों ) का नाश होता है । (२०७३) जीरकादिलेप: (बा.भ. । उत्त.अ. ३२) द्वे जीरके कृष्णतिलाः सर्षपा पयसा सह । पिष्ट्वा कुर्वन्ति वक्त्रेन्दुमपास्तव्यङ्गलाञ्छनम् ॥ सफेद जीरा, स्याह जीरा, काले तिल और सरसों समान भाग लेकर दूध में पीसकर लेप करने से मुखमण्डलके व्यङ्ग (झाई) और धब्बे दूर होते हैं। (२०७४) जीरकादिलेप: ( वं. से. । विष. ) जीरकस्य कृतः कल्को घृतसैन्धवसंयुतः । सुखोष्णो वृश्चिकार्त्तानां प्रलेपो मधुना सहः ॥ । जीरा और सेंधा नमकका समान भाग चूर्ण घृत और शहद में मिलाकर मन्दोष्ण लेप करनेसे वृश्चिकदंश ( बिच्छूके डंक ) की पीड़ा शान्त होती है। (२०७५) जीवन्त्यादिलेप: (वं. से. । मुख.) जीवन्तिकल्कं पयसा समांशं तैलं विपक्त्वा मधुना विमिश्रम् । ओष्ठास्ययोः सर्जरसाष्टभागं aणं निहन्यात्सकृदेव लेपात् ॥ जीवन्तीके कल्क और दूधके साथ पके हुवे तैलमें शहद और आठवां भाग रालका चूर्ण मिला कर लेप करनेसे ओए और मुखके घाव शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कारादि (ग. नि. रा. मा. । मुख; यो त । त. ६९ ) जीवन्तिका मदनतुत्थकचित्रवली मेदयुतं कलमशालिसमन्वितम्वा । दुग्धं मृतं शमयति स्फुटितोपसर्गमालेपनादधरसंश्रयमाशु हन्यात् ॥ जीवन्ति, मैनफल, नीला थोथा, चीता, मेदा, और शालीचावल मिलाकर पकाया हुवा दूध लगाने से ओष्ठों (होठों ) के धाव शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । (२०७७) जैपालपत्रलेपः ( वृ. नि. र. । गण्डमाला. ) पिष्ट्वा जैपालपत्राणि स्वरसेन कृता वटी । छायाशुष्का ततो लेपागण्डमाला विनश्यति ।। जैपाल ( जमालगोटे ) के पत्तों को उन्हीं के स्वरसमें पीसकर गोलियां बनाकर छाया में सुखा लीजिए । For Private And Personal इनका लेप करनेसे गण्डमाला का नाश होता है। (२०७८) जैपाललेपः (रसें. चिं. । अ. ९) तुल्यं जैपालवीजञ्च निम्बुतोयेन मर्द्दयेत् । तल्लेपादधिमांसानि विशीर्यन्ति न संशयः ॥ जमालगोटे की गिरीको समान भाग नीबूके रसमें पीसकर लेप करनेसे अधिमास नष्ट होता है । (२००९) जैपाललेप: (बृ. नि. र. । विष. ) पानीयपिष्टनैपालकल्कलेपेन सर्वथा । विषं वृश्चिकविद्धस्य भस्मीभवति तत्क्षणात् ।। १ दाति पाठान्तरम Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२७१ Vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvwwsir vinvwsnAAnnovannirannivonnar जमाल गोटेकी गिरीको पानीमें पीसकर लेप अथ जकारादिधूम्रप्रकरणम् । करनेसे वृश्चिक दंश (बिच्छके डंक की पीड़ा (२०८३) जालादिधृम्र : (ग. मा. । पीन.) तुरन्त शान्त होजाती है। जातीषाङ्कोलजटां सपत्र(२०८०) ज्योतिष्कबीजलेपः मादाय तद्वन्महिषाक्षभागम् । ( वृ. नि. र.; यो. र. । अर्श.) दत्त्वा ततो नागवला सुयुग्म ज्योतिष्कबीजकल्केन लेपो रक्तार्शसां हितः॥ कासप्रशान्त्यै विदधीत धृमम् ।। चमेली, बासा और अङ्कोलकी जड़ तथा मालकानीके बीजोंको पानी में पीसकर पत्ते और मैसिया गृगल १-१ भाग तथा नागभस्सोंपर लेप करनेसे रक्तार्श (खनी बवासीर) नष्ट बला २ भाग । सबको मिलाकर कूटकर चिलममें होती है। रखकर या अन्य विधिसे धूम्रपान करनेसे खांसी (२०८१) ज्योतिष्मत्यादिलेप (वं.से.। भगन्द.) नष्ट होती है। ज्योतिष्मती लाली च श्यामा दन्ती त्रिवृत्तिला। (२०८४ ) जात्यादिधूमः ( यो. र. । कास.) कुष्ठं शताहा गोलोमी मी शोधनमिष्यते ॥ जातीपत्रशिलारालैयोजयेद् गुग्गुलुं समम् । मालकंगनी, कलिहारी, काला निसोत, दन्ती, अजामूत्रेण सम्पिष्टो धूमः कासहरः परः॥ सफेद निसोत, तिल, कूट, सोया, बच और चमेलीके पत्ते, मनसिल, राल, और गूगल । मूर्वा । समान भाग लेकर पीसकर लेप करनेसे समान भाग लेकर बकरीके मूत्रमें पीसकर चिलममें | रखकर या अन्य किसी प्रकारसे उसका धूम्रपान भगन्दरका पाव शुद्ध होता है। करनेसे खांसी नष्ट होती है। इति जकारादिलेपप्रकरणम् (२०८५) जात्यादिधूम्रः ( यो. र.। कास.) जातीजटाकिसलयैर्वदरीदलैश्च अथ जकारादिधूपप्रकरणम्। जाता मसूरकफलैः समनःशिलैश्च । (२०८२ ) जम्वादि धूपः (वं. से. ।) स्थाद्धमवर्तिरिह गुग्गुलुना समेतैः जम्बूधातकिपर्णैस्तद्भवकल्कैश्च धूपितो योनिः। कासच्छिदे बदरिकाग्निविदयमानैः ।। त्यजति समस्तविकारं जन्मान्तरसञ्चितश्चापि ॥ चमेलीकी जड़, चमेलीके पत्ते, बेरीके पत्ते, जामन और धायके पत्तोंको पीसकर योनिको | मसूर और मनसिल तथा गूगल समान भाग ले उसकी धूप (धूनी) देनेसे पुराने विकार भी नष्ट हो कर बत्ती बनावें और उसे बेरी के कोयलों की जाते हैं। अग्निपर जलाकर धूम्रपान करें। इससे खांसी नष्ट होती है। इति जकारादिधूपप्रकरणम् । इति जकारादिधूम्रप्रकरणम् For Private And Personal Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२७२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि अथ जकाराद्यञ्जनप्रकरणम् । चमेलीकी कलियां, जवाखार और लालचन्दन (२०८६) जङ्घास्थितिः (ग. नि. । नेत्र.) | का महीन चूर्ण समान भाग लेकर पानीके साथ | पीसकर गोलियां बना लीजिए । गोजङ्घा मानुपीश्चैव पण्मासान् क्लेदयेजले । इन्हें पानीमें पत्थरपर घिस कर आंखमें जात्यन्धोऽप्यनया वयां त्वचिरेण प्रपश्यति॥ | आंजने से काच, तिमिर और पटल नामक नेत्र गाय और मनुष्यकी जंधाकी हड्डीको २ मास रोग नष्ट होते हैं। तक पानीमें भिगोए रक्खें. जब वे कोमल हो जायं (२०८९) जातीपायञ्जनम् (यो. र । नेत्र.) तो पीसकर वर्ति (बत्ती) बना लीजिए। इसे पानी जातीपुष्पं प्रवालश्च मरिचं कटुका वचा । में घिसकर आंखमें आंजने से जन्मका अन्धा भी सैन्धवं बस्तमत्रेण पिष्टं तन्द्रानमञ्जनम् ।। देखने लगता है। (यह तिमिर रोगके लिए उप- चमेलीके फूल और कोंपल, स्याह मिर्चका योगी है।) चूर्ण, कुटकीका चूर्ण, बचका चूर्ण और सेंधानमक (२०८७) जातिपत्ररसाञ्जनम् (वं. से. । नेत्र.) का चूर्ण समान भाग लेकर बकरेके मूत्रमें धोटें। जातीपत्ररसक्षौद्रनिशाहयरसाञ्जनैः। इसे आंखमें लगानेसे तन्द्राका नाश होता है। नक्तान्ध्यमञ्जनं हन्यात्कृष्णाया गोमयान्वितम्॥ (२०९०) जातीपुष्पाद्यञ्जनम् (ग. नि. । नेत्र.) चमेलीके पत्तोंका रस, शहद, हल्दी, रसौत जात्याः पुष्पं सैन्धवं श्रृङ्गवेरं और काली गायका गोबर समान भाग लेकर, चूर्ण कृष्णावीजं कीटशत्रोश्च सारम् । योग्य ओषधियोंका कपडछन महीन चूर्ण करके एतत्पिष्ट्वा नेत्रपाके जनार्थ सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। क्षौद्रोपेतं निर्विशङ्कः प्रयोज्यम् । इसे आंखमें आंजनेसे नक्तान्ध्य (रतौंधा) | चमेलीके फूल, सेंधानमक, सोंठ, पीपलके बीजे, बायबिडंगका सैत । समान भाग लेकर नष्ट होता है। | महीन पीसकर खरल करके सुरमा बना लीजिए। (नोट-गोबर शुष्क लेना चाहिए अथवा इसे नेत्रपाक (आंख दुखने ) में शहद में ताजे गोबरका रस लेना चाहिए ।) मिलाकर लगानेसे अवश्य आराम होता है । (२०८८) जातिपुष्पादिगुटिका (ग.नि.।नेत्र.) (२०९.१) जात्यादिवत्तिः (वं. से. । नेत्र.) प्रत्यग्रजातिपुष्पाणि यावको रक्तचन्दनम्। सुमनः क्षारकं शङ्ख त्रिफलां मधुकं बलाम् । गुटिका हन्ति काचान्ध्यं तिमिरं पटलं तथा ॥ पित्तरक्तापहा वत्तिः पिष्टवा दिव्येन वारिणा ॥ १ पीपलको रात्रिके समय दूधमें भिगो दीजिए, प्रातःकाल हाथोंसे मलिए तो उसके बीज (छोटे छोटे दाने) निकल आएंगे। २ बाय बिडङ्गको कूटकर १६ गुने पानीमें पकाइये और चौथा भाग पानी शेष रहने पर छानकर फिर पकाइये; जब गाढ़ा हो जाय तो उतारकर सुखा लीजिए । यही बायविडङ्गका सत है । For Private And Personal Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अञ्जनमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २७३ ] चमेलीके फूल, जवाखार, शंख, हर्र, बहेड़ा, , दिन निकालकर धूपमें सुखा लीजिए । फिर उन्हें आमला, मुलैठी और खरैटीका समान भाग चूर्ण दूसरे नी बमें भरकर रख दीजिए और सातवें दिन लेकर आकाशजल (भूमिसे ऊपर ही इकट्ठा किया निकालकर सुखा लीजिए । यही क्रिया सात बार हुवा वर्षाजल) में पीसकर वर्तियां (बत्तियां) बना । करके जमाल गोटेकी गिरीको सुखाकर सुरक्षित लीजिए। रखिए। इन्हें आकाशजलमें घिसकर आंखमें आंजने । इसे मनुष्यको लाला (धूक) में घिसकर आंखों से पितज और रक्तज नेत्ररोग नष्ट होते हैं। में आंजनेसे सपके काटनेसे उपन हुई मृ. (२०९२) जात्याद्याइच्योतनम् (वं.से. नेत्र.)| नष्ट होती है । जात्या प्रवालं मधुकं ससर्पि यह प्रयोग एक योगिसे प्राम हुवा है और भृष्टं सुखोष्णाम्बुसुशीतरश्मिः। सत्य है। .. आश्च्योतनं शुक्रहरं पदिष्टं (२०९४) ज्वरनाशकाञ्जनम् (र.सा.सं.परि.) शुक्रापहं स्त्रीपयसा महार्हम् ॥ रसगन्धं शिलातुत्थं तालकं मृतटङ्कणम् । चमेलीकी कोंपल और मुलैठीके चूर्णको धीमें नवसादरं ककमर्कदुग्धेन मर्द येत ॥ भूनकर मन्दोष्ण जलमें मिलाकर (छानकर) उसमें चुल्लिकायामथारोप्य पचेद्यामचतुर्दशः । जरासा कर्पूर घिस लीजिए। इसकी बंदें आंखमें स्वाङ्गशीतलमादाय खल्ले तं कज्जलीकृतम् ।। टपकानेसे शुक्र (फूला) नष्ट होता है । | अञ्जनं वामनेत्रस्य दक्षिणे कौतुकं भवेत् । सफेद चन्दनको स्त्रीके दूधमें घिसकर आंख दक्षिणे चाञ्जनश्चैव आरोग्यं भवति क्षणात् ।। में डालने से भी फूला जाता रहता है। पारा, गन्धक, मनसिल, नीलाथोथा, हरताल, (२०९३) जैपालाञ्जनम् (वै. र. । विष०) सुहागे की खील और नौसादर समान भाग लेकर चूर्ण करके आकके दूधमें धोटें और फिर उसकी एकनिम्बूफले सप्तनैपालास्थि क्षिपेद्बुधः । टिकिया बनाकर सम्पुटमें बन्द करके चूल्हे पर सप्तमेहि समुद्धत्यातपे शुष्कीकृतं तथा ॥ चढ़ाकर १४ पहर तक पकाएं । तत्पश्चात् स्वांग पुनर्निम्बूफलेऽन्यस्मिन्प्रकारेणैवमुक्षिपेत् । शीतल होनेपर औषधको निकालकर धोटकर कज्जली सप्तवारानतः सिद्धं पुंसो लालाभिरञ्जनम्॥ | कर लें। क्रियेयं सर्पदष्टस्य मूर्तिस्य प्रबोधनम् । इसे बांये नेत्रमें आंजनेसे दहिने अङ्गका ज्वर भवेत्सत्यमिदं प्रोक्तं योगिनो लब्धमौषधम् ॥ नष्ट हो जाता है, फिर दहिने नेत्रमें आंजनेसे एक कागजी नीबूमें छिद्रकरके उसके भीतर बांये अङ्गका ज्वर भी उतरकर रोगी स्वस्थ हो जमाल गोटेकी सात गिरी भर दीजिए और सातवें | जाता है । भा० ३५ For Private And Personal Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २७४ ] (२०९५) ज्वरनाशकाञ्जनम् (र. सा. सं. (परि.) व्योषञ्च त्रिफला सूतं लौहं वङ्गञ्च ताम्रकम् । पुत्रमातृपयश्चैव कारयेद्वटिकां बुधैः ॥ दुग्धेन चाञ्जनं कृत्वा एकाङ्गज्वरनाशनम् । द्वितीये चाञ्जनं कृत्वा सर्वाङ्गज्वरनाशनम् ॥ भारत-- भैषज्य रत्नाकरः । त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), हर्र, बहेड़ा और आमलेका चूर्ण, पारा, लोहभस्म, वङ्गभस्म, और ताम्रभस्म । सब चीजें समान भाग लेकर पुत्रवती स्त्रीके दूध में पीसकर गोलियां बना लीजिए । एक गोलीको स्त्रीके दूध में घिसकर बांई आंखमें आंजने से दहिने अङ्गका और दहिनी आंख में आंजनेसे बांये अङ्ग का ज्वर नष्ट हो जाता है। (प्रथम प्रत्येक काष्ठादि ओषधिको अत्यन्त महीन पीसना चाहिए फिर भस्मोंके साथ पारेको खरल करके सब चीजोंको एकत्र मिलाकर दूधके साथ घोटना चाहिए |) (२०९६) ज्वरनाशकाञ्जनम् (र.सा.सं. (परि.) ऊर्णाया नाभिजालेन वर्ति कृत्वा प्रयत्नतः । ज्वालयेत्तिलतैलेन कज्जल महरेच्छनै' || अञ्जयेनेत्रयुगल द्वयाहिकं तु ज्वरं जयेत् ।। मकड़ीके जालेकी बत्ती बनाकर उसे तिल तैलमें भिगोकर जलाइये और उसकी स्याहीको इकट्ठा कर लीजिए । इसे दोनों आंख में आंजनेसे तिजारी ज्वर नष्ट होता है । (मिट्टी के दीपकमें तैल भरकर उसमें उपरोक्त बत्ती डालकर जलाइये और इस दीपक दोनों ओर दीपकसे १ बालिशत ऊंची दो ईंटें जकारादि रखकर उन ईंटों पर मिट्टीका एक कच्चा ( बिनापका ) शराव रख दीजिए। इस शराब पर जो स्याही जमे उसे छुड़ा लीजिए ।) इति जकाराद्यञ्जनप्रकरणम् । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ जकारादिनस्यप्रकरणम् (२०९७) जपापुष्परसनस्यम् (र. र. र. | उप . १ ) जपापुष्परसं क्षौद्रं कर्षैकं नस्थमाचरेत् । सप्ताहाद्रञ्जयेत्केशान् सर्वनस्येष्वयं विधिः ॥ जब के फूलों का रस और शहद समान भाग मिलाकर प्रतिदिन १ तोलेकी नस्य लेनेसे सात दिनमें सफेद बाल काले हो जाते हैं । (२०९८) जालिनीफलादिनस्यम् (बृ. नि. र. । कामला. ) जालिनीफलमाध्मानं नस्त्रं वा तण्डुलाम्भसा । जालिनीफलमध् स्वं नामासर्षपनस्वतः ॥ | बिंल डोटेको सुखाकर चूर्ण करके उसे नलकीद्वारा नाक में फूंकनेसे, या उस चूर्णको चावलों के पानी में पीसकर नस्य लेनेसे अथवा उसके गूदे के साथ निसोत, और सरसों मिलाकर 'चूर्ण करके नम्य लेनेसे कामला रोग नष्ट होता है। (२०९९ ) जिङ्गिन्यादि नस्यम् (वं. से. वातव्या.) परमौषधमपबाहु फमन्यास्तम्भोध्वज त्रुगतरोगे । शीतलजलेन नावनमुपशमने जिङ्गिनी च पुरः ॥ शीतल जल के साथ पीसकर जिंगनीके गोंद और गूगलकी नम्य देनेसे अपबाहुक और मन्या। स्तम्भादि ऊर्ध्वजत्रुगत वातव्याधियां नष्ट होती हैं । For Private And Personal Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [२७५] (२१००) ज्योतिष्मतीतैलनस्यम् ब्रह्मवीजं समुद्रस्य फलं जातीफलन्तथा । ( वं. से. । ज्वरा.) विषतिन्दुकवीजश्च ताप्यं सर्व समांशकम् ॥ ज्योतिष्मत्यास्तथा तैलं मूलं पिण्डारकस्य च। विडङ्ग समभेतैश्च सूक्ष्मचूर्ण प्रकल्पयेत् । तन्द्राविनाशनं श्रेष्ठं नस् कर्मणि योजितम् ॥ रसतुल्यं हि तचूर्ण रसेन सह मेलयेत् ॥ वासा च निम्बत्वग्वंशो वेल्लव्योषाम्बुदं तथा। ___ पिण्डाराकी जड़को ज्यो तेष्मती (मालकंगनी) के तै ठमें घिसकर नस्य देनेसे ज्वरमें होनेवाली एषां काथेन सप्ताह व्यहं मूदियोः रसे। भावयित्वा चणप्रायाः कर्तव्याः वटिकाःशुभाः। तन्द्राका नाश होता है। अश्वनिम्बादिजकाथे प्रदतैका वटी शुभा॥ (२१०१) ज्वरनाशकनस्यम् (र.सा.सं.परि.) पातयेज्जठराजन्तून्सर्वदेहगदान्हरेत् । शुद्धतुत्यं पलैकश्च भावयेजालिनीरसैः ।। कुष्ठं जन्तूनिहन्त्याशु द्वित्रिवारप्रयोगतः। सप्तविशतिवारांश्च निम्बनीरे तथैव च ॥ शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १-१ भाग, शुष्कनस्थं प्रदातव्यं सर्वज्वरविनाशनम् ।। मण्डूर भस्म दोनोंका सातवां भाग। तीनोंको यस्मिन्नासापुटे दतं ह्यांगज्वरनाशनम् ॥ घोटकर कजली बना लीजिए और फिर दो दिन शुद्ध नीले थोथेको बिंडाल और नीमके स्व- तक मूषा कर्णांके रसमें घोटिए । तत्पश्चात् मण्डू. रसकी २७-२७ भावना देकर मुखाकर रख रके समान छोटी अजवायनका चूर्ण मिलाकर एक लीजिए। दिन भिलावेके काथमें धोटिये। इसके पश्चात् नाकके जिस सुर (छिद्र) में इसकी नस्य पलाश (ढाक) के बीज, समुद्रफल, जायफल, दी जाती है उसी ओरके आधे शरीरका ज्वर नष्ट कुचला, और सोनामक्खी भस्म । इनका चूर्ण १-१ हो जाता है। भाग तथा बायबिडंगका चूर्ण इन सबके बराबर इति जकारादिनस्यपकरणम् लेकर सबको एकत्र मिलाइये और उपरोक्त कजलीमें इस चूर्णमेंसे पारेके समान मिलाकर बांसेके स्वरस, नीमकी छालके रस, बांसके रस, बायअथ जकारादिरसप्रकरणम् । विडङ्गके क्वाथ तथा सोंठ, मिर्च, पीपल और मोथेके (२१०२) जन्तुघ्नी गुटिका (रसः) काथ में सात सात दिन और मूर्वा तथा अद्रकके (र. र. स. । उ. खं. अ. २०) रसमें ३-३ दिन घोटकर चनेके बराबर गोलियां बना लीजिए। सूतगन्धौ समौ ताभ्यां मण्डूरं सप्तमांशतः।। इनमेंसे १-१ गोली अश्वगन्धादि या विधाय कजलीमाखुका सम्मदयेद् द्वयहम्॥ निम्बादि गणके क्वाथके साथ सेवन करनेसे २-३ ततो मण्डूरमानेन क्षुद्रदीप्यं विनिक्षिपेत् ।। । बारमें ही उदरसे समस्त कृमि निकलकर कुष्ट और आरुष्करकषायेण दिनमेकं विमर्दयेत् ॥ अन्य रोग शीघ्रही शान्त हो जाते हैं। For Private And Personal Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य - रत्नाकरः । [जकारादि इसे जीरे चूर्ण और शहद के साथ सेवन करने से महा भयङ्कर जीर्णज्वर, बहुत पुराना ज्वर, तथा साध्य, असाध्य, एकदोषज, द्विदोषज, विषम, मांसगत, मेदोगत, अस्थिगत, मज्जागत और शुक्रगत तथा अन्तःस्थादि समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । तथा अन्य समस्त रोग भी नष्ट होकर बल और पुष्टिको वृद्धि होती है । नोट --- प्रथम पारे और गन्धककी पृथक् कजली करके अन्य औषधें मिलानी चाहिएं । (२१०४) जयमङ्गलो रसः (२) (रसे, चिं. म. । अ. ९; २. सा. सं.; र. रा... सुं.; र. का. धे. । ज्वर. ) सुतभस्माकं तारं मुण्डतीक्ष्णालमाक्षिकम् । वह्निङ्कणकं व्योषं समं सम्मर्दयेद्दिनम् ।। पाठानिर्गुण्डिकाषष्ठीविल्वमूलकषायकैः । ततो मूषागतं रुद्ध्वा विपवेद्भूधरे पुढे ॥ ॥ माषैकं दशमूलस्य कषायेण प्रयोजयेत् । अञ्जनेनाथ वा स्यात् सन्निपातं जयेज्ज्वरम् ।। [ २७६ ] (२१०३) जयमङ्गलो रसः (१) (धन्व.; र. रा. सुं.; भै. र. 1 ज्वर . ) हिङ्गुलसम्भवं सूतं गन्धकं टङ्कन्तथा । ताम्रे व माक्षिकञ्च सैन्धवं मरिचन्तथा ॥ समं सर्व समाहृत्य द्विगुणं स्वर्णभस्मकम् । तदर्द्धं कान्तलोहञ्च रौप्यभस्मापि तत्समम् ॥ एतत्सर्व विथ भावयेत् कनकद्रवैः । शेफालीदलजैश्चापि दशमूलीरसेन च ॥ किराततिक्तककायैस्त्रिवारं भावयेत्सुधीः । भावयित्वा ततः कार्या गुञ्जायमिता वटी || अनुपानं प्रयोक्तव्यं जीरकं मधुसंयुतम् । जीर्णज्वरं महाघोरं चिरकालसमुद्भवम् ॥ ज्वरानष्टविधान्हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा । पृथगोषांश्च विविधान् समस्तान्विषमज्वरान् ॥ मेदोगतं मांसगतमस्थिमज्जागतं तथा । अन्तर्गतं महाघोरं बहिःस्थं च विशेषतः || नाना दोषोद्भवश्चैव ज्वरं शुक्रगतं तथा । निखिलं ज्वरनामानं हन्ति श्री शिवशासनात् जयमङ्गलनामायं रसः श्री शिवनिर्मितः । पुष्टिकरश्चैव सर्वरोगनिवर्हणः ॥ हिसे निकला हुवा पारा, शुद्ध आमलासार गन्धक, सुहागेकी खील, ताम्रभस्म, वङ्गभस्म, मक्खी भस्म, नमक और काली मिर्चका चूर्ण १-१ भाग; स्वर्ण भस्म १६ भाग तथा कान्त लोह भस्म और रौप्य (चांदी) भस्म ८-८ भाग | सबको एकत्र घोटकर धतूरे के रस हार सिंगार के पत्तोंके रस, दशमूलके काथ, और चिरायते के काकी ३ - ३ भावना देकर २-२ रत्ती की गोलियां बना लीजिए | Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पारेकी भस्म (अभाव में रस सिन्दूर), अभ्रक भस्म, चांदीभस्म, मुण्डलोहभस्म, तीक्ष्णलोहभस्म, हरताल, सोनामक्खी भस्म, चीतेका चूर्ण, सुहागेकी खील, तथा त्रिकुटा ( सोंड मिर्च और पीपल) का चूर्ण समानभाग लेकर सबको एकदिन पाठा, संभालु, मुलैठी और बेलकी छालके काथमें घोटकर गोला बनाकर मूषामें बन्द करके भूधरयन्त्रमें पकाइये । इसे १ माषेकी मात्रानुसार दशमूल के काथके साथ खिलानेसे अथवा इसकी नस्य देने या रोगी For Private And Personal Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रेसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२७७] - की आंखमें इसका अञ्जन लगानेसे सन्निपातज्वर समभाग मिश्रित चूर्ण उपरोक्त समस्त औषधोंके नष्ट होता है। | बराबर मिलाकर महुवेके फूलोंके रसमें घोटकर (२१०५) जयमङ्गलो रसः (३) (रसे.मं.। ज्वर.) २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। तालं ताप्यजगन्धकश्च विमलं इसे खिलाने अथवा इसकी नस्य देने या . कान्ताऽऽरतीक्ष्णाभ्रकम् । अञ्जन करनेसे वैद्योंसे त्यक्त, अचेतन सन्निपात मण्डूरं कुलिशं सुराऽऽयसघनं | रोगी और विषव्याप्त व्यक्तिको शीघ्र ही चेत हो चैभिःसमं मूतकम् ॥ जाता है। तथा यह विषम ज्वरोंको भी शीघ्र नष्ट वन्ध्याकन्दससिन्धुवारमधुकं कर देता है। शृङ्गीविषं टङ्कणम् ।। । (२१०६) जयरसः (वै. र. । ज्वर.). बोलं चित्रकलागली समरिचं रसं गन्धं च दरदं जैपालं क्रमवद्धितम् । विश्वोपकुल्याविषा ॥ दन्तीरसेन सम्पिष्य वटी गुञ्जामिता कृता॥ एभिःसर्वसमांशकैस्सुविधिना . प्रभाते सितया सार्धमशिता शीतवारिणा। बध्वा द्विगुञ्जावटी। एकेन दिवसेनैव शीतज्वरमपोहति ॥: माधूकेन रसेन दोषनिचये (भाव प्रकाश तथा वृहद्योगतरंगिणी इत्या. नस्ये प्रपाने हिता॥ दिमें इसको ज्वरनी गुटिका नामसे लिखा है।) कृत्वा नेत्रयुगेऽञ्जनं च विधिना शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, तत्सन्निपातं जये। शुद्ध हिङ्गुल ३ भाग, और शुद्ध जमाल गोटा चार द्वैद्यैस्त्यक्तमचेतनं च विषमं भाग । प्रथम पारे और गन्धक की कजली करके तापं हि सर्वोत्थितम् ।। अन्य सब चीजें मिलाकर दन्तीमूलके रसमें घोटशुद्ध हरताल, सोना मक्खी भस्म, अजमोद विमल (रौप्यमाक्षिक) भस्म, कान्त लोह भस्म, पीतल कर १-१ रत्तीको गोलियां बना लीजिए। भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, अभ्रक भस्म, मण्डूर भस्म, प्रातःकाल १ गोली मिश्रीमें मिलाकर ठण्डे हीरा भस्म, स्वर्ण भस्म और वङ्ग भस्म १-१ | पानीके साथ सेवन करनेसे शीतज्वर एकही दिन भाग तथा पारा १२ भाग लेकर प्रथम पारे और में नष्ट हो जाता है । गन्धककी कजली बना लीजिए, तत्पश्चात् उसमें । (२१०७) जयवटिका (रसायन सार । ज्वर. ) उपरोक्त सब औषधे तथा बांझ ककोड़ेकी जड़, सूते शिलातालशिवारजांसी; संभालके पत्ते, मुलैठी, शुद्ध बछनाग, सुहागेकी समानि सर्वामिते प्रमर्य । खील, बीजाबोल (मुरमुकी), चीतामूल, कलिहारीकी ताम्रस्य भस्मापि समस्ततुल्य जड़, कृष्णमरिच, सोंट, पीपल और अतीसका। मन्दारदुग्धेन रसेन वापि ॥१॥ For Private And Personal Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [जकारादि व्याघ्रीगुडूचीत्रिफलाग्निचव्य | लगजाने से दवा खराब हो जावेगी । जब कपड़ काथेन संमर्थ विधाय गोलम् । मट्टी सूख जाय तव कुक्कुटपुट में फूंक दें । स्वाङ्ग संशोष्य दयाद् दशमृत्पटानां; शीतल होनेपर उस दवाईको तौल कर देखें । योगान् पचेत् कुक्कुटनामधेये ।। २ ।। यदि सात तोले दवाई होय तो ११ माशे बछविषं कणां भर्जितटकणश्च नाम विष, ११ माशे पीपल, ११ माशे भुना वेल्लं समस्तार्धमथापि शुद्धम् । हुआ चौकिया सुहागा, ११ मासे कालीमिर्च, इन जैपालचूर्णश्च तदर्धमेव सबका कपड़छन चूर्ण करके और ३॥ तोले शुद्ध निम्बूकनीरेण च मर्दयेत ॥ ३ ॥ । जमालगोटेका चूर्ण, उस सात तोले दवामें मिलाकर आर्द्राम्बुना चापि वटीविधाय निम्बूके रसके साथ धोटकर एक भावना दें। मुद्गप्रमाणा ज्वरि शर्महेतोः। फिर आदाके रसके साथ घोटकर मूंगकी बराबर वासेषु कासेषु च वहिमान्यः गोलियां बना लें । १ गोली सायङ्काल, १ गोली चार्शसु पाण्डौ च भगन्दरेषु ॥ ४॥ । प्रातःकाल, बताशेमें रखकर या मधु के साथ बहूपकुर्युवटिका मलानां देने से सर्व प्रकारके ज्वर दूर हो जाते हैं, कफचर संशोधने तु प्रवरा मताःस्युः। | और वातज्वर में विशेष उपकारक है। और योग्यानुपानेन समस्तरोगान् श्वास, कास, मन्दाग्नि, बवासीर पाण्डुरोग और जयन्ति शीघ्रश्च नयन्ति शर्म ॥५॥ भगन्दर इन रोगों में इनका उपकार प्रत्यक्ष देखा ___ जयवटी-ज्वरादिको पर गया है. और कोष्ठकी मलशुद्धि करने के लिये भी अर्थ-१ तोला शुद्ध मैनशिल, १ तोला ये गोलियां एक ही चीज़ हैं । इनके खाने से दो शुद्ध हरिताल, १ तोला शुद्ध गन्धक, २॥ तोला तीन दस्त खुलासा हो जाते हैं ज्वर तत्काल उतर पारा, सबको मर्दन करके कजली करलें। फिर । जाता है और योग्य अनुपान से सभी रोगों में उसमें ४॥ तो, ताम्र भस्म (कपड़छनकी हुई) | फायदा करने वाली चीज़ है। डालकर मन्दार (आक) के दूधके साथ (यदि दूध | (रसायन सार से उद्धृत) नहीं मिले तो मन्दारके पत्तोंके स्वरसके साथ) और (२१०८) जयसुन्दरो रसः कटैरी (भट कटैया) गुरुच, त्रिफला, चित्रक, चव्य, इनके क्वाथके साथ दो दिन मर्दन करके गोला । (र. चं. । स्त्री.; र. र. स. । अ. २२ खं । २) बनाले फिर सुखाकर दशकपड़मट्टी उस गोलाके सुवर्ण रजतं ताम्र ताप्यसत्वं च वैकृतम् । ऊपर करदे, परन्तु यह स्मरण रहेकि जब गोलेके | एकैकं निष्कमानेन संशुद्ध परिमारितम् ॥ ऊपर कपडमिट्टी करने लगे तब गोलाको पहिले एतच्चतुर्गुणं मूतं मूताद्विगुणगन्धकम् । मन्दारके पत्तोंसे ढकदें नहीं तो गोला के मट्टी मर्दयेल्लक्ष्मणातोयैर्वन्धुजीवरसैरपि ॥ For Private And Personal Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२७९] काचकूप्यां ततःक्षिप्त्वा ताम्रपत्रं मुखे न्यसेत् । भारो न होने चाहिये । जब अग्नि शान्त होकर विलिम्पेदभितः कूपीमङ्गलोत्सेधया मृदा ॥ शीशी स्वाङ्ग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषध विशोष्य च पुटं दद्याद् भूमौ निक्षिप्य कूपिकाम् निकालकर उसे लक्ष्मणाके रसकी सात भावना गजाख्यपुटपर्याप्तिः शाणकर्षमितोत्पलैः॥ देकर सुखा कर शीशीमें भर लीजिए । स्वाङ्गशीतं विचूाथ भावयेल्लक्ष्मणाद्वैः । इसे ३ मास तक प्रतिदिन १ रत्तीकी मात्रा सप्तवारं विशोष्याथ करण्डान्तर्विनिक्षिपेत्॥ नुसार असगन्ध और गोखरुके चूर्ण, मिश्री तथा अश्वगन्धारजोयुक्तस्ताम्रगोक्षुरसंयुतः। ताम्रभस्म में मिलाकर सेवन करनेसे वन्ध्या स्त्रीके सेवितो गुञ्जया तुल्यःसितया च रसोत्तमः॥ भी पुत्र उत्पन्न होता है। मासत्रयप्रयोगेण बन्ध्या भवति पुत्रिणी।x (प्र. वि. ताम्र भस्म १ रत्ती तथा अस स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म, ताम्रभस्म, स्वर्ण गन्धादि १-१ माशा लेना चाहिए ।) माक्षिक सत्वकी भस्म और वैक्रान्त भस्म १-१ / (२१०९) जयागुटिका टङ्क (५-५ माशे) तथा पारद २० टङ्क और (र. सा. सं.; र. रा. सुं.; र. चं. । कास.) गन्धक ४० टङ्क लेकर प्रथम पारे और गन्धककी मृतक गन्धकं लौहं विषं वत्सकमेव च। कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य औषधे विडतं केशरं मुस्तमेला ग्रन्थिकरेणुकम् ॥ मिलाकर सबको लक्ष्मणा और दुपहरियाके फूलों त्रिकटु त्रिफला चित्रं शुद्धं जैपालवीजकम् । के रसमें घोटकर (सुखाकर) १ अङ्गुल मोटी कपड़ एतानि समभागानि द्विगुणो गुड उच्यते ॥ मिट्टीकी हुई आतशी शीशीमें भरकर उसके मुखको तिन्तडीवीजमानेन प्रातःकाले च भक्षयेत् । तांबेके पत्रसे बन्द कर दीजिए । तपश्चात् पृथ्वी कासं श्वासं क्षयं गुल्मं प्रमेहं विषमज्वरम् ॥ में एक गढा खोदकर उसमें वह शीशी रखकर अजीर्ण ग्रहणीरोगं शूलं पाण्ड्वामयन्तथा । (शीशोके ऊपर थोड़ा रेत चढ़ाकर) गज पुट लगा अपाने हृदये शूले वातरोगे गलग्रहे । दीजिए । पुटमें जो उपले लगाए जायं वह ४ । अरुचावतिसारे च मूतिकातङ्कपीडिते। माशेसे १ तोले तक वजनी हों, इससे अधिक 'जयाख्या निर्मिता ह्येषा भक्षणीया सुरैरपि ॥ - किसी किसी ग्रन्थमें निम्न लिखित पाठ अधिक मिलता है पुत्रिण्याःस्नानशुद्वाया रजःकौशिकचक्षुषी । गव्याज्येन च संसाध्य तत्तदानी हि भोजयेत् ॥ ऋतावृताविदं देयं यावन्मासत्रयं भवेत् । रसेन्द्रःकथितःसोऽयं चम्पकारण्यवासिभिः ॥ पूर्णामृताख्ययोगीन्द्रै मतो जयसुन्दरः। सेवितेऽस्मिन रसे स्त्रीणां न भवेत्सतिकागदः । भवेत्पुत्रश्च दीर्घायुःपण्डितो भाग्यमण्डितः ॥ For Private And Personal Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२८.] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि शुद पारा, शुद्र गन्धक, लोहभस्म, मीठा नष्टपिष्टश्च शुष्कञ्च अन्धमूषास्थितं कुरु । तेलिया (शुद्र वत्सनाभ विष), कुडेको छाल, बाय | कतुषाग्निना भूमौ मृदुस्वेदेन स्वेदयेत् ॥ बिडंग, नागकेशर, मोथा, इलायची, पीपलामूल, अहोरात्रं त्रिरात्रं वा शोभनं भस्म जायते । रेणुका (संभालुके बीज) सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, द्विरक्तिकाप्रमाणेनं भक्षयेन्मधुसर्पिषा ॥ बहेड़ा, आमला, चीता और शुद्ध जमाल गोटा त्रिकटुत्रिफलायुक्तं ज्ञात्वा चाग्निबलावलम् । एक एक भाग, और सबसे दो गुना गुड़ लेकर, सर्व तद् भक्षयेद्यावदजरामरतां ब्रजेत् ॥ समस्त चीजोंका चूर्ण करके गुड़में मिलाकर इमली ताम्रवर्णका ( तामड़े रङ्गका ) वैकान्त के बीजके समान गोलियां बना लीजिए। और हिङ्गुल समान भाग लेकर दोनोंको यदि यह 'जया' नामक वटी प्रातःकाल । घोटकर स्वर्णादि धातुओंके मारक अम्ल वगमें सेवन की जाय तो खांसी, श्वास, क्षय, गुल्म, सम्पुट करके पुट दीजिए। और इसी प्रकार अनेक प्रमेह, विषमज्वर, अजीर्ण, ग्रहणी, शूल, पाण्डु, पुट देकर वैक्रान्त भस्म बना लीजिए। अपानवायुका रुकना, हृदयशल, वातव्याधि, इस भम्मको पाग्में मिलानेसे वह बंध जाता गलग्रह, अरुचि, अतिसार और सूतिका रोगका है और उस बद्धपारदके स्पर्शसे समस्त धातुओंका नाश होता है। बेध होता है। . ___ यह वैकान्त भस्म १ पल (५ तोले), स्वर्ण (२११०) जरामरणहरो रसः (रसें.म.रसा.) भस्म १ पल और पारद २ पल लेकर सबको ताम्रवर्णश्च वैक्रान्तं हिङ्गुलेन समन्वितम् ।। खरलमें डालकर बालरण्डाके रज और मूत्रके साथ मर्दितश्चाम्लवगेण हेमाबैभेस्मकारकैः ॥ मर्दन करें फिर कडवी तंबी, इन्द्रायन, भुईआमला, तद्भस्मना युतं सूतं बन्धमायाति नान्यथा। मीठीजीवन्ती, कटैली, नीलोत्पल, सारिवा, अञ्जनी तेनैव स्पर्शमात्रेण सर्वलोहानि विध्यति ॥ (काली कपास),इक्षुरा,सिद्धा(ऋद्धि),सरफुका,सर्पाक्षी, वैक्रान्तस्य पलं ह्येकं हेनःस्याच पलन्तथा । नाई, ताइन, काकड़ाएंगी, मेढाश्रृंगी, छोटी और पारदस्य पले द्वे तु खल्वे संस्थापयेद्बुधः॥ बड़ी इन्द्रायनकी जड़ । इनमेंसे जितनी औषधे बालरण्डारजोमूत्रे मर्दयेच्च विचक्षणः। मिल सकें उन सबको समान भाग लेकर स्त्रीके अथवा द्वे महौषध्यौ कटुतुम्बीन्द्रवारुणी ॥ । मूत्रमें धोटकर चूर्ण करें । यह चूर्ण उपरोक्त भूधात्रीमधुजीवन्त्यौ व्याघी चोत्पलसारिवा। स्वर्णादि समस्त औषधों के बराबर लेकर उनमें मिलाअञ्जनी चेक्षुरासि साक्षी शरपुखिका ॥ कर धोटें। जब वह नष्ट पिष्ट अर्थात् चूर्ण हो नाइताइनके वापि द्विशृङ्गयौ चेन्द्रवारुणी। जाय तो सुखाकर अन्धमूषामें बन्द कर दीजिए। युगले च यथालाभं स्त्रीमूत्रे पेषयेद्धधः॥ । फिर भूमिमें एक गढ़ा खोदकर उसमें यह मूषा १ रक्तिकाप्रमाणेनेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग । [२८१] AAAAAAAAAAAAAAAAAwaoorvsnwmv रखकर उसे एकदिन या ३ दिन तक मृदु तुषाग्नि सबको बिदारीकन्द और जीवनीय गणकी औषधों में स्वेदित कीजिए । इस प्रकार अत्युत्तम भस्म | के स्वरस या काथकी ३-३ भावना देकर चूर्ण तैयार हो जायगी। कर लीजिए। फिर इसमें समानभाग मिश्री मिला इसे सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और कर सुरक्षित रखिए। आमलेके चूर्ण तथा घी और शहदके साथ अग्नि- इसके सेवनसे प्रमेह और मूत्रकृच्छू रोग नष्ट बलोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे मनुष्य अजर होता है। और अमर हो जाता है। (मात्रा-३ माशे। अनुपान गोखरुका काथ (२१११) जराहररसः (र.र.स. उ.खं.अ.१६) या दूध ) रसगन्धकमध्वाज्यं शिलाजत्वम्ल वेतसम । (२११३) जलोदरारिरसः (१) द्विमाषपमितं वेगान्मासमात्राजरां जयेत् ॥ । (र. का. धे. । उदर.; र. सा.सं.; र. चं.; र. मं.; शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध शिलाजीत यो. र.; र. रा. मु. । उदर.; वृ. यो. त. । और अग्लवेतका चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम त. १०५; र. चिं. म. । अ. ९.) पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए; तत्पश्चात् पिप्पलीमारितं तांदं काञ्चनीचूर्णसंयुतम् । अन्य औषधे मिलाकर घोटिए । इसे २ माषेकी स्नुहीक्षीरैर्दिनं मधे तुल्यं जैपालकं तथा ॥ मात्रानुसार शहद और धीमें मिलाकर एक मास निष्कं खादेद्विरेकोऽयं सत्यं हन्ति जलोदरम्। तक सेवन करनेसे जरा (वृद्धावस्था ) दूर हो रेचनानान्तु सर्वेषां दध्यन्नं स्तम्भने हितम॥ जाती है। आमान्ते च प्रदातव्यमन्यथा मुद्गयूपकम् । जलोदरारि नामायं रसःसर्वत्र पूजितः॥ (प्र. वि.--.-व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती ।। पीपल, ताम्रभस्म, और हल्दीका चूर्ण १-१ घी ६ माघे । शहद २ तोले) भाग तथा शुद्ध जमाल गोटा सबके बराबर लेकर (२११२) जलजामृतरसः सबको १ दिन थोहर (सेंहुड) के दूधमें घोटकर (यो. र. । प्र.; वृ. नि. र. । प्र.) चूर्ण बना लीजिए। तवक्षीरं शिलाधातुवङ्गकुण्डलिसत्त्वकम् । इसे ४ माशेकी मात्रानुसार खिलानेसे मेहारिवीजसंयुक्तं विदारीजीवनीरसैः॥ विरेचन होकर जलोदर नष्ट हो जाता है । भावयेत्रिवारन्तु सितोपलसमन्वितम् । यदि दस्त बन्द करनेकी आवश्यकता हो तो जलजामृतविख्यातो रसोऽयं मेहकृच्छनुत् ॥ दही भात खिलाना चाहिए अन्यथा आम निकल बंसलोचन, शुद्ध मैनसिल, वङ्गभस्म, सत- जानेके पश्चात् मूंगका यूष और भात खिलाना गिलोय, और बकायनके बीज समान भाग लेकर | चाहिए । १ मरिच ताम्रमिति पाठान्तरम् । भा०३६ For Private And Personal Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । जकारादि - - (४ माशे मात्रा अधिक है अतएव । एक बार विरेचन देनेके पश्चात् बल आ साधारणतः २-३ रत्तीकी मात्रानुसार देना जाने पर पुनः यही औषध देकर विरेचन कराना चाहिए । अनुपान-शीतल जल ) चाहिए। (२११४) जलोदरारिरसः (२) ___इस पर तक सेवन करनेसे जलोदर रोग (भै.र.; धन्व.;र. र. । उदर.; वृ.यो.त.।त.१०५) | नष्ट होता है। रसेन गन्धं द्विगुणं शिला च (२११५) जातीफलरसः निशा च वीजं जयपालकस्य । (र. सा. सं. । न.र. चं. । अति.; र. रा. सुं.। प्र.) फलत्रयं पूषणकञ्च चित्रं पारदाभ्रकसिन्दूरं गन्धं जातीफलं समम् । सर्व विचूापि विभावयेच ॥ कुटजस्य फलश्चैव धृतवीजानि टङ्कणम् ॥ दन्तीस्नुहीभृङ्गरसे पृथक् च व्योषं मुस्ताभया चैव चूतवीजं तथैव च । सम्भाव्य संशोष्य च सप्तवारान् । विल्वकं सर्जवीजश्च दाडिमीफलवल्कलम् ।। वयो बलं वीक्ष्य तथा ददीत एतानि समभागानि निक्षिपेत् खल्लमध्यतः । जाते विरेके च ददीत पथ्यम् ॥ | विजयास्वरसेनैव मर्दयेच्छूक्ष्णचूर्णितम् ॥ अल्पं सतर्क शिशिरानुशायि गुञ्जाफलप्रमाणान्तु वटिकां कारयेद्भिषक् । जाते बले तत्पुनरेव दद्यात् । एका कुटजमूलत्वकषायेण प्रयोजयेत् ॥ तक्रेण रोगःसमुपैति शान्ति आमातिसारं हरते कुरुते वह्निदीपनम् । सिद्धो रसो नाम जलोदरारिः॥ मधुना विल्वशुण्ठेन रक्तग्रहणिकां जयेत् ।। शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक, मनसिल, शुण्ठीधान्यकयोगेन चातिसारं निहन्त्यसौ । हल्दी, जमालगोटेके शुद्धबीज, हर्र, बहेड़ा, आमला, जातीफलरसो इथेष ग्रहणीगदनाशनः॥ त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), और चीतेका चूर्ण शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, रस सिन्दूर, शुद्ध २-२ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली गन्धक, जायफल, इन्द्रजौ, धतूरेके बीज (शुद्ध), बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य औषधोंका चूर्ण । सुहागेकी खील, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, मिलाकर दन्तीमूल, थोहर (सेहुंड) और भंगरेके | नागरमोथा, आमकी गुठलीका गर्भ, बेलगिरी, रसकी सात सात भावनाएं देकर सुखा लीजिए। रालके बीज और अनारके फलका छिलका । सब इसे आयु और बलोचित मात्रानुसार देनेसे चीजें समान भाग लेकर चूर्ण योग्य ओषधियोंका जलोदर रोग नष्ट होता है। कपड़ छन चूर्ण कर लीजिए। फिर पारे गन्धक इससे विरेचन होनेके बाद अल्प तक्रयुक्त की कज्जली बनाकर उसमें अन्य समस्त ओषधियां भात इत्यादि पथ्य देना चाहिए। और शीतल मिलाकर भांगके स्वरसमें घोटकर १-१ रत्तीकी स्थान में रहना चाहिए। गोलियां बना लीजिए। For Private And Personal Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २८३ ] इनमें से १-१ गोली कुडेकी जड़की छाल- अतिसारादि रोगोंमें प्रयुक्त करना चाहिए। के साथ देनेसे आमातिसार नष्ट होता है और साधारणतः संग्रहणीमें शहदके साथ देना चाहिए। अग्निदीप्त होती है। तथा (३ माशे) बेलगिरीके पथ्य-दही भात । चूर्णके साथ मिलाकर शहदके साथ चाटनेसे रक्तज (२११७) जातीफलादिवटी (र.सा.सं.।अर्श.) ग्रहणी नष्ट होती है। सोंठ और धनियेके चूर्णके जातीफलं लवङ्गश्च पिप्पली सैन्धवन्तथा। साथ देनेसे अतिसार नष्ट होता है । शुण्ठी धुस्तूरवीजञ्ज दरदं टङ्कणन्तथा ॥ (२११६) जातीफलादिग्रहणीकपाटरसः समं सवै विचूाथ जम्भाम्भसा विमईयेत् । ( र. सा. सं. । प्र.) जातीफलवटिकेयम निमान्यनाशिनी ॥ जायफल, लौंग, पीपल, सेंधानमक, सोंठ, जातीफलं टङ्कणमभ्रकञ्च धतूरेके बीज, हिङ्गुल और सुहागेकी खील । सबका धुस्तूरवीजं समभागचूर्णम् । समान भाग चूर्ण लेकर जम्बीरी नीबूके रसमें घोटभागद्वयं स्यादहिफेनकस्य कर गोलियां बना लीजिए। गन्धालिकापत्ररसेन मर्थम् ॥ इनके सेवनसे बवासीर और अग्निमांद्य रोग चणप्रमाणा वटिका विधेया नष्ट होता है। यत्नाद्विदध्याद् ग्रहणीगदेषु । (मात्रा-२-३ रत्ती । अनुपान-तक ।) सामेषु रक्तेषु सशूलकेषु (२११८) जातीफलाद्या वटिका पक्केष्वपक्केषु गुदामयेषु ॥ (र. सा. सं.; भै. र. व.; र. र. । ग्रह. ) रोगेषु दद्यादनुपानभेदै अभ्रस्य सूतस्य च गन्धकस्य; मधुमयुक्ता ग्रहणीगदेषु । प्रत्येकशो माषचतुष्टयश्च । पथ्यं सदध्योदनमत्र देयं विधाय शुद्धोपलपात्रमध्ये __ रसोत्तमोयं ग्रहणीकपाटः॥ सुकज्जली वैद्यवरःप्रयत्नात् ॥ जायफल, सुहागेकी खील, अभ्रक भस्म, जातीफलं शाल्मलीवेष्टमुस्त और धतूरेके बीज १-१ भाग, तथा अफीम २ ___ सटङ्कणं सातिविषं सजीरम् । भाग लेकर सबको गन्धप्रसारिणीके पत्तोंके रसमें प्रत्येकमेषां मरिचस्य शाण; घोटकर चनेके बराबर गोलियां बना लीजिए। प्रमाणमेकं विषमाषकञ्च ॥ इसे विविध अनुपानोंके साथ सामग्रहणी, विचूर्ण्य सर्वाण्यवलोड्य पश्चात् पक्कग्रहणी, रक्तग्रहणी, शूल सहित ग्रहणी तथा विभावयेत्पत्ररसैरमीषा। १ बिशुद्धसूतस्येति पाठान्तरम् । २ रखैरसोन्मानमित्रसालबझी च भदोलस्कचोनि पछाधिक्यम् कलिपयेषु ग्रन्थेप्नु । For Private And Personal Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२८४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि इन्द्राणिकेन्द्राशनकञ्च जम्बू यह गोलियां अनेक प्रकारके आमरोग और जयन्तिका दाडिमकेशराजौ ॥ वातज रोगोंका नाश करती हैं। विशेषतः अग्निअविद्धकर्णापि च भृङ्गराजो दीपक हैं। पांच प्रकारकी खांसी, अम्लपित्त, विभाव्य सम्यग्वटिका विधेया। असाध्य (कष्ट साध्य) और जीर्ण संग्रहणी, भयङ्कर कोलास्थिमानाथ बहुप्रकार, अतिसार, श्वास, पाण्डु, अरुचि, और कोष्ठविकारोंका ___ सामं निहन्यादनिलान् गदांश्च ॥ नाश करती हैं। जो रोग अन्य सैकड़ों कुर्याद्विशेषादनलप्रवृद्धि ओषधियोंसे भी नष्ट नहीं होते वह इनके सेवनसे कासश्च पश्चात्मकमम्लपित्तम् । नष्ट हो जाते हैं। इयं निहन्याद् ग्रहणीमसाध्या (२११९) जीरकादिचूर्णम् (रसः) (भै. र. । प्र.) मर्त्यस्य जीर्णग्रहणी प्रवृद्धाम्॥ जीरकं टङ्गनं मुस्तं पाठा विल्वं सधान्यकम् । असारकत्वं त्वतिसारमुग्रं बालकं शतपुष्पा च दाडिमं कुटजं तथा ॥ ___ श्वास तथा पाण्डुमरोचकश्च । समगा धातकीपुष्पं व्योषश्चैव त्रिजातकम् । चिरोद्भवां संग्रहकोष्ठदुष्टिः मोचरसःकलिङ्गश्च व्योम गन्धकपारदौ ॥ जयेभृशं योगशतैरसाध्याम् ।। यावन्त्येतानि चूर्णानि तावज्जातीफलानि च। अनेकसम्भावित मर्त्यलोका; एतत्पाशितमात्रेण ग्रहणीं दुस्तरां जयेत् ॥ नानाविधव्याधिपयोधिनौका ।। अतिसारं निहन्त्याशु सामं नानाविधं तथा। अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक कामलां पाण्डुरोगश्च मन्दाग्निश्च विशेषतः॥ ४-४ मापे लेकर पत्थरके खरलमें महीन कजली जीरकाद्यमिदं चूर्णमगस्त्येन प्रकाशितम् ॥ बना लीजिए। तत्पश्चात् उसमें ४-४. माशे जीरा, सुहागा, मोथा, पाठा, बेलगिरी, धनिया, जायफल, सेंमलको छाल, मोथा, सुहागा, अतीस, सुगन्धबाला, सोया, अनारदाना, कुडेकी छाल, जीरा और स्याह मिर्चका चूर्ण तथा १ माषा शुद्ध मजीठ, धायके फूल, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) बछनाग ( मीठा तेलिया) मिलाकर खूब खरल दालचीनी, तेजपात, इलायची, मोचरस, इन्द्रजौ, कीजिए। इसके बाद उसमें इन्द्रायन, भांग, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक और पारद समान भाग जामन, जयन्ति, अनार, भांगरा, पाठा और काले तथा जायफल सबके बराबर लेकर प्रथम पारे और भांगरेके पत्तोंके रसकी एक एक भावना देकर गन्धककी कजली बना लीजिए और फिर अन्य जंगली वेरकी गुठली के बराबर गोलियां बना ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर रखिए । लीजिए। __ अगस्त्य मुनि प्रणीत इस "जीरकादि चूर्ण' ३ “वंशाम्रभद्रोत्कटा नामिन्द्रानिकेन्द्राशकसजम्बु” इति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २८५] - - को सेवन करनेसे भयङ्कर संग्रहणी, आमातिसार | लेकर ३-३ दिन तक त्रिकुटा, त्रिफला, मोथा और अन्य अनेक प्रकारके अतिसार, पाण्डु, कामला भंगरा और संभालु के रसमें घोटकर सुखाकर और विशेषतः अग्निमान्द्य रोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट | सुरक्षित रखिए। होते हैं। इसे १ माशेकी मात्रानुसार यथोचित अनु(२१२०) जीरकादिरसः (यो. र. । छ.) पानके साथ देनेसे जीर्णज्वर, क्षय, अग्निमांद्य, खांसी अजाजीधान्यपथ्याभिः सक्षौद्रैःसकटुत्रिकैः। पाण्डु, हलीमक, गुल्म, उदररोग, अर्दित (लकवा), एतैःसाधू मूतभस्म सद्यो वान्ति विनाशयेत् ।। ग्रहणी, बवासीर और अनेक प्रकारकी अरुचि नष्ट होती तथा कान्ति, तेज, बल, और वीर्यकी वृद्धि ___ जीरा, धनिया, हर्र, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च और पीपल) तथा पारद भस्म (अभावमें रससिन्दूर) होकर शरीर पुष्ट हो जाता है। (व्यवहारिक मात्रा-२--३ रत्ती) समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए । (२१२२) जर्णिज्वरारिरसः (१) इसे शहदके साथ चाटनेसे वमन तुरन्त (र. का. धे. । ज्वर.) रुक जाती है। एको भागो रसाद्भागद्वयं शोधितगन्धकात् । (मात्रा-- १॥ माशा।) विषस्य च त्रयो भागाश्चतुर्भागा हिमावती॥ (२१२१) जीर्णज्वराङ्कुशरसः जैपालजा पञ्चभागा निम्बूकद्रवमर्दिताः। (यो. र.; वृ. नि. र.; र. चं. । ज्वर.) कृमिघ्नपतिमा वटयः कार्याः सर्वज्वरच्छिदः॥ मृतसूताभ्रनागार्ककान्तं वैक्रान्तमेव च । शङ्गवेरेण दातव्या वटिकैका दिने दिने । हिङ्गुलं टङ्कणं गन्धं विषं कुष्ठं समांशकम् ॥ जीर्णज्वरे तथाऽजीर्णे समे वा विषमे तथा । त्रिकटु त्रिफला मुस्ता भृङ्गनिर्गुण्डिकाद्रवैः । सर्वज्वरं निहन्त्याशु दावानलमिवाम्बुदः ॥ भावयेत्रिदिनं चैव माषमात्रानुपानतः ।। शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, जीर्णज्वरे क्षये कासे दोषे मन्दानलेषु च । शुद्ध बछनाग विष ३ भाग, स्वर्ण क्षीरी (सत्यापाण्डं हलीमकं गुल्ममुदरं चार्दितं जयेत् ॥ नाशीकी जड-चोक) ४ भाग और शुद्ध जमालग्रहणीमूलरोगांश्च त्वरोचकमनेकधा। गोटा ५ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली कान्ति तेजो बलं पुष्टिं वीर्य बुद्धिं विवर्धयेत् ॥ बना लीजिए, तत्पश्चात् उसमें अन्य औषधोंका साध्यासाध्यं निहन्त्याशु रसो जीर्णज्वराङ्कुशः॥ चूर्ण मिलाकर नीबूके रसमें घोटकर बायबिडङ्गके पारद भस्म, (अभावमें रस सिन्दूर) अभ्रक दानेके समान गोलियां बना लीजिए। भस्म, सीसाभस्म, ताम्र भस्म, कान्तलोह भस्म, प्रतिदिन एक एक गोली अदरकके रसके वैक्रान्त भस्म, हिङ्गुल, सुहागेकी खील, शुद्ध गन्धक, साथ देनेसे जीर्णज्वर, आमज्वर, विषमज्वर, इत्यादि शुद्ध बछनाग, और कूठ । सब चीजें समान भाग इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे वृष्टि से दावानल। For Private And Personal Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि ' (नोट-यह तीव्र रेचकौषध है इस लिए। (२१२४) जीवननामारसः गर्भिणी और बालकोंको नहीं देनी चाहिये। ( र. र. स. । उ. ख. अ. १६ ) (२१२३) जीर्णज्वरारिरसः (२) रसगन्धौ सिन्धुकणाटङ्कण(र. र. स. । उ. ख. अ. १२; र. रा. सुं. । ज्वर.) मभयाग्निहियावलीकतकफलम् । क्रमशोत्तरभागविचूर्णितया नागं वङ्गं रसं तानं गन्धकं टङ्कणन्तथा। वृहतीरससंयुतभावनया ॥ सूतं विषं च नेपालं हरितालं समं तथा ॥ वटक्षीरेण सम्मर्थ सर्व कुर्यात्तु गोलकम् । आकहिङ्गपुनर्नवपूति च्छिन्नरसै क्रमशो भावनया । तं गोलकम् भाण्डमध्ये पाचयेद्दीपवहिना ॥ . तत्र कलांशविषं च विमिश्रं ततःसंशीतलं कृत्वा भृङ्गराजेन मर्दयेत् । तद्रसमाषसमानवटी या ॥ आईकस्य रसेनापि मर्दयेच्च पुनःपुनः॥ . सर्वमजीर्णकफमारुतपाण्डु चणप्रमाणवटिका रसेनाऽऽर्द्रस्य दापयेत् । शोफहलीमककामलशूलम् । गुञ्जाद्वयपयोगेण ज्वरं जीर्ण हरत्यसौ॥ । नाशयते यदरानिकरोऽयं सीसा भस्म, वंग भस्म, खपरिया भस्म, ताम्र दीपनःजीवननाम रसेन्द्रः॥ भस्म, · शुद्ध गन्धक, शुद्ध सुहागा, शुद्ध पारा, पारा १ भाग, गन्धक २ भाग, सेंधा नमक शुद्ध बछनाग, शुद्ध जमाल गोटा और शुद्ध हरताल ३ भाग, पीपल ४ भाग, सुहागेकी खील ५ भाग, (अथवा हरताल भस्म ) समान भाग लेकर प्रथम । हर्र ६ भाग, चीता ७ भाग, हियावली ८ भाग, पारे गन्धककी कजली बना लीजिए, तत्पश्चात् और निर्मलीके फल ९ भाग लेकर प्रथम पारे अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर बड़के दूधमें गन्धककी कजली बनाकर पश्चात् अन्य ओषधियोंका घोटकर सबका एक गोला बना लीजिए और उसे महीन चूर्ण मिलाकर कटेली, अद्रक, हींग, पुनर्नवा, सुखाकर एक हांडीमें रखकर उसका मुख बन्द खट्टासी ( जुन्दबेदस्तर ) और गिलोयके रसकी कर दीजिए । इस हांडीको चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे पृथक् पृथक् १-१ भावना देकर, उसमें समस्त (४ पहर तक) दीपकके समान मन्दाग्नि जलाइये। | औषधका १६ वां भाग शुद्ध बछनागका चूर्ण तत्पश्चात् हांडीके स्वांग शीतल होने पर | मिलाकर उर्दके समान गोलियां बनाएं । उस गोलेको निकालकर भंगरे और अदरकके रसमें इनके सेवनसे सर्व प्रकारका अजीर्ण, वात३-३ बार घोटकर चनेके बराबर ( २ रत्तीकी) कफज पाण्डु, शोथ, हलीमक, कामला और शूलका गोलियां बना लीजिए । इनमेंसे १-१ गोलो | नाश होता तथा अग्नि दीप्त होती है। अद्रकके रसके साथ खिलानेसे जीर्णज्वर नष्ट नोट-हींग और जुन्दबेदस्तरको ३२ गुने होता है। पानीमें घोटकर उससे भावना देनी चाहिए । For Private And Personal Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२८७] .vvvvvvvvvvvvuAAAAAAnamvivornowwwwwwwww अथवा (२१२५) जीवनानन्दाभ्रम् जैपालं रहितं त्वगङ्कररसज्ञाभिर्मले माहिषे । ( भै. र.; र. रा. सुं. । ब्व.) निक्षिप्तं व्यहमुष्णतोयविमलं खल्वे सवासोदितम् वज्राभ्रं मारितं कृत्वा कर्षयुग्मं विचूर्णितम्। लिप्तं नूतनखपरेषु विगतस्नेहं रजःसनिभम् । जीरं कनकवीजश्च कर्ष वासारसेन च ॥ निम्बूकाम्बुविभावितं च बहुशः शुद्धं गुणाढयं कण्टकारिरसेनैव धात्रीमुस्तरसेन च।। ___ भवेत् ॥ गुडूच्याश्चस्वरसेनेव पलांशेन पृथक् पृथक् ॥ मर्दयित्वा वटी कार्या गुञ्जामात्रा प्रयोजिता। जैपालं निस्तुषं कृत्वा दुग्धे दोलायुतं पचेत् । विषमाख्याज्वरान्सर्वान् प्लीहानं यकृतं वमिम।। अन्तर्जितां परित्यज्य युज्याच रसकर्मणि ॥ रक्तपित्तं वातरक्तं ग्रहणीश्वासकासकौ ।.. जमाल गोटा--गुरु, तिक्त, वमनकारक, ज्वर अरुचिं शूलहल्लासावीसि च विनाशयेत् ॥ तथा कुष्ठनाशक, उष्ण, सर (रेचक ), व्रण (घाव) जीवनानन्दनामेदमभ्रं वृष्यं बलप्रदम् । . कफ खुजली कृमि और विषनाशक है। रसायनमिदं श्रेष्ठमनिसंदीपनं परम् ॥ ____ जमाल गोटेके ऊपरका छिलका और भीतरकी ___ वज्राभ्रककी भस्म २ कर्ष ( २॥ तोले ) जीभ ( पत्ता ) अलग करके पोटलीमें बांधकर तथा जीर और धतूरेके बीजोंका चूर्ण १-१ कर्ष भैसके गोबरमें दबा दीजिए और तीन दिन लेकर सबको बासा, कटेली, आमला, मोथा और पश्चात् निकालकर गर्म पानीसे धोकर, खरलमें गिलोयके १-१ पल ( ५-५ तोले ) रसमें घोट पीसकर मिट्टीके कोरे खरपर (अथवा घड़े की तली) कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। | पर लेप कर दीजिए जब सब तेल खरपर सोखले इनमेंसे १-१ गोली यथोचित अनुपानके और वह चूर्णके समान हो जाय तो उतारकर साथ खिलानेसे विषम ज्वर, तिल्ली, जिगर, वमन उसे नीबूके रसकी अनेक भावनाएं दीजिए । इस रक्तपित्त, वातरक्त, ग्रहणी, श्वास, खांसी, अरुचि, . प्रकार जैपाल शुद्ध और अधिक गुणवान हो जाता है। शूल, हल्लास ( उबकाई ) और बवासीरका नाश अथवा होता है। ___ जमाल गोटेका ऊपरका छिलका अलग करके यह रस वृष्य ( वीर्यवर्द्धक ) बलदायक, उसे पोटलीमें बांधकर दोलायन्त्र विधिसे (१ पहर रसायन और अग्निदीपक है। तक ) दूधमें पकाइये और फिर उसके भीतरका (२१२६) जैपालगुणशोधने पत्ता अलग करके काममें लाइये । (यो. र.; यो. त. । त. १७; वृ. यो. त.। (२१२७) जैपालरसः (र.र.स.।उ.खं.अ.१९) त. ४३; शा. धं. । खं. २ अ. १२) रसं गन्धं मृतं तानं जयपालञ्च गुग्गुलुम् । जैपालोस्ति गुरुस्तिक्तो वान्तिकृज्ज्वरकुष्ठनुत् । समांशमाज्यसंयुक्तां गुटिकां कारयेन्मिताम्॥ उष्ण सरो व्रणश्लेष्मकण्ट्रकृमिविषापहः॥ एकैकां खादयेद्वैध शोफपाण्ड्वपनुत्तये॥ For Private And Personal Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि ५.vvvvvvvvvvvvv .. शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, शुद्ध निम्ब खदिरमङ्कोलं राजवृक्षस्य मूलकम् ॥ जमालगोटा और शुद्ध गूगल समान भाग लेकर कषायं पाययेच्चानु चर्मकुष्ठविनाशकृत् ।। प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बना लीजिए | पारद भस्म और अभ्रक भस्म समान भाग फिर अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर सबको धीमें | लेकर दोनोंको लोहेके खरलमें १-१ दिन बेलधोटकर (२-२ रत्तीकी) गोलियां बना लीजिए। पत्रके रस नीलके रस धी, माल कंगुनी नीम और इनमेंसे प्रतिदिन १-१ गोली खानेसे शोथ। कपासके तैल ( कपासके बीजोंके तैल )में घोटऔर पाण्डुरोग नष्ट होता है । कर १-१ माशेकी गोलियां बना लीजिए । ( अनुपान-गोमूत्र या त्रिफलाक्काथ) _ नित्य प्रति १-१ गोली नीमकी छाल, (२१२८) जैपालशोधनम् (र.सा.सं.।पू.खं.) खैरसार, अंकोल और अमलतासकी जड़के काथके निस्तुषं जयपालश्च द्विधा कृत्वा विचक्षणः। साथ खाने अथवा पीसकर लगानेसे चर्मकुष्ठका एतद्वीजस्य मध्यन्तु पत्रवत्परिवर्जयेत् ॥ नाश होता है। अष्टमांशेन चूर्णेन टङ्कणस्य च मेलयेत। (२१३०) ज्वरकालकेतुरसः त्रिरात्रं गोमये क्षिप्त्वा पाच्यं दुग्धेन सप्लुतम् ।। (भै. र.; र. रा. सुं. । ज्व. ) एवं वै शुद्धिमायाति जैपालममृतोपमम् ॥ रसं विषं गन्धकताम्रकञ्च जमाल गोटोंको छील कर उनके बीचसे मनःशिलारुष्करतालकञ्च । विमर्थ वज्रीपयसा समांश पत्तेके समान जीभको निकाल डालिए और. फिर उनमें आठवां भाग सुहागेका चूर्ण मिलाकर पोटली गजाहयं तत्र पुटं विदध्यात् ।। बनाकर गोबरमें दबा दीजिए । ३ दिन पश्चात् द्विगुञ्जमस्यैव मधुप्रयुक्तं ___ ज्वरं निहन्त्यष्टविधं महोग्रम् । इस पोटलीको निकालकर (धोकर, १ पहर तक) दोलायन्त्र विधिसे दूधमें पकाइये । पुरा भवान्यै कथितो भवेन इस प्रकार जमाल गोटे शुद्ध होकर अमृतोपम नृणां हिताय ज्वरकालकेतुः ।। गुणकारी हो जाते हैं। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, ताम्र भस्म, शुद्ध मैनसिल, शुद्ध भिलावा, शुद्ध (२१२९) ज्योतिष्पुञ्जो रसः हरताल सब चीजें समान भाग लेकर थोहर ( र. रा. सुं. । कु; र. का. धे. । कु.) ( सेंड )के दूधमें घोटकर गोला बना लीजिए; मृतसूताभ्रक तुल्यं मद्ये विल्वरसैदिनम् । और उसे सुखाकर सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें नीलिन्याज्ये रसोप्येवमयःपात्रे विमर्दयेत् ॥ फंक दीजिए । स्वांग शीतल होने पर गोलेको कंगुणीनिम्बकासैस्तैलेनापि च मर्दयेत् । निकालकर पीसकर रख लीजिए । इसमेंसे २ रत्ती माष भजेत्तथा लेप्यं चर्मकुष्ठहरं परम् ॥ दवा शहदके साथ देनेसे आठों प्रकारके भयङ्कर ज्योतिष्पुञ्जो रलो नाम सर्वकुष्ठकुलान्तकृत् । । ज्वर नष्ट होते हैं। For Private And Personal Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसमकरणम् ] (२१३१) ज्वरकुञ्जरपारीन्द्ररमः ( भै. र. र. रा. सुं. । ज्वरा. ) मूर्च्छितं सर्वैकं तदर्द्ध जारिताभ्रकम् । तारं वाप्यश्च रसजं रसकं ताम्रकं तथा ॥ मौक्तिकं विद्रुमं लौहं गिरिजं गैरिकं शिला । गन्धकं हेमसारञ्च पलार्द्धञ्च पृथक् पृथक् ॥ क्षीरिणीसुरवल्ली च शोथनी गणिकारिका । झिण्टी मल्ली ज्योत्स्निका च सतिक्ता तु सुदर्शना। अग्निजिह्वा पूतितैला शूर्पपर्णी प्रसारिणी । प्रत्येकस्वरसं दत्वा मर्दये त्रिदिनावधि ॥ भक्षयेत्पर्ण खण्डेन चतुर्गुञ्जाप्रमाणतः । महानिकारको रोगसङ्करन्नः प्रयोगराट् ॥ सन्ततं सततान्येद्युस्तृतीयक चतुर्थकान् । ज्वरान्सर्वान्निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ॥ कामं श्वासं प्रमेहञ्च सशोथं पाण्डुकामले । ग्रहण क्षयरोगञ्च सर्वोपद्रव संयुतम् ॥ रस सिन्दूर १ कर्ष ( १ तोला ), अभ्रक भस्म ३ कर्ष, चांदी भस्म,सोनामक्खी भस्म, रसौत, खपरिया, ताम्र भस्म, मोती भस्म, प्रवाल भस्म, लोह भस्म, शिलाजीत, गेरु, मैनसिल, शुद्ध गन्धक और शुद्ध तु . ( नीला थोथा ) प्रत्येक आधा आधा पल ( २ ॥ तोले ) लेकर सबको खरल करके, ३-३ दिन सत्यानासीकी जड़ ( चोक ), गिलोय, पुनर्नवा, अरनी, कटसरैया. कुड़े की छाल, पटोल,कुटकी,सुदर्शना, करिहारी, करञ्ज, मालकंगनी, शालपर्णी, और प्रसारिणीके रसमें पृथक् पृथक् घोट लीजिए । भा० ३७ [ २८९ ] इसमें से नित्य प्रति : रत्ती रस पान में रखकर खाना चाहिए । यह रस अत्यन्त अग्निवर्द्धक, असंख्य रोग नाशक विशेषतः सतत, सन्तत, रोजाना, तिजारी, चातुर्थिक ( चौथिया ) आदि समस्त ज्वर और खांसी, श्वास, प्रमेह, शोथ, पाण्डु, कामला, ग्रहणी और उपद्रवसहित क्षयका नाश करनेवाला है । (२१३२) स्वरकृन्तनो रसः (र.प्र.सु. अ. ८) शुद्धः सूतो गन्धको वत्सनाभः प्रत्येकं वै शाणमात्रा विधेयाः । धूर्त्ताद्वजं कारयेद्वै त्रिशाणं Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सर्वभ्यो वै द्वैगुणा मवल्ली ॥ सूक्ष्मं चूर्ण कारयेत्तत् प्रयत्ना देयं गुञ्जाद्विप्रमाणं च सम्यक् । भदा चानुपाने ज्वरार्त्तः सो हन्यात्सर्वदोषान् ज्वरांश्च ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध बछनाग, १ - १ शाण (३ || माशे) धतूरे के बीज ३ शाण और इन सबसे दोगुनी सत्यानाशीकी जड़ (चोक) लेकर प्रथम पारे और गन्धककी क लीजिए और फिर अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर खरल कर लीजिए । इसमें से २ रत्ती दवा अद्रकके रसके साथ देने से समस्त प्रकारके वर नष्ट होते हैं । (२१३३) ज्वरकेसरीरसः (भै. र. र. रा. सुं. र. सा. सं. र. चं.; धन्वं ज्वर.) शुद्धमृतं विषं व्योषं गन्धं त्रिफलामेव च । जयपालसमं कृत्वा भृङ्गतोयेन मर्दयेत् ॥ For Private And Personal Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२९०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि गुञ्जामात्रां वटी कार्या बालानां सर्षपाकृतिः। (२१३५) ज्वरन्नीगुटिका सितया च समं पीता पित्तज्वरविनाशिनी ॥ । (र. प्र. सु. । अ. ८; वृ. नि. र.; र. का. धे.; र. मरिचेन प्रयुक्ता सा सनिपातज्वरापहा । रा. मुं.; यो. र. । ज्वर.; शा. ध. । र. प्र.) पिप्पलीजीरकाभ्याश्च दाहज्वरविनाशिनी ॥ भागैकः स्याद्रसाच्छद्धादेलीयःपिप्पलीशिवा। ज्वरकेसरिनामायं रसो ज्वरविनाशनः ।। आकारकरभो गन्धः कटुतैलेन शोधितः ।। . शुद्ध पारा, शुद्र बछनाग विष, सोंठ, मिर्च, फलानि चेन्द्रवारुण्याश्चतुर्भागमिता ह्यमी। पीपल, शुद्ध गन्धक, हर, बहेड़ा, आमला और | एकत्र मर्दये वर्णमिन्द्रवारुणिकारसे ॥ जमालगोटा समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक | माषोन्मितां गुटीं कृत्वा दद्यात्सर्वज्वरे बुधः। की कजली बना लीजिए और फिर उसमें अन्य छिन्नारसानुपानेन ज्वरनी गुटिका मता ॥ ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर भांगरेके रसमें घोटकर शुद्ध पारा १ भाग, एलुवा, पीपल, हर, बड़े मनुष्यों के लिए १-१ रत्तीकी तथा छोटे बच्चों के लिए सरसों के बराबर गोलियां बना लीजिए। अकरकरा, सरसों के तेल में शोधा हुवा गन्धक और इन्हें मिश्रीके साथ सेवन करनेसे पित्तज्वर, इन्द्रायनके फल ४-४ भाग लेकर प्रथम पारे और स्याह मिर्चके चूर्णके साथ देनेसे सन्निपातज्वर, गन्धककी कजली बना लीजिए और फिर अन्य और पीपल तथा जीरेके चूर्णके साथ देनेसे औषधोंका कपड़छन चूर्ण मिलाकर इन्द्रायनके दाहयुक्त ज्वर नष्ट होता है। रसमें घोटकर १-१ मासेकी गोलियां बना (२१३४) ज्वरगजसिंहरसः लीजिए। (यो. र. । ज्व. र.रा.सु. । ज्वर; र.र. स. । अ.१२) इनमेंसे एक एक गोली गिलोयके काथके गगनदरदयुक्तं शुद्धसूतं च गन्धम् । साथ देनेसे सर्व प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । महरमथ सुपिष्टं वल्लयुग्मं नरोऽद्यात ।। ज्वरनी गुटिका ज्वरहरगजसिंह शृङ्गवेरोदकेन । ( भा. प्र. । म. खं. वर; . नि. र. । ज्वरः प्रथमजनितदाहे तक्रभक्तं च भोज्यम् वृ. यो. त. । त. ५९ । र.र. प्र.) ___अभ्रक भस्म, हिंगुल, शुद्ध पारा और शुद्ध जय रस देखिए । गन्धक समान भाग लेकर १ पहरतक खूब अच्छी । (२१३६) ज्वरनीवटी (यो. स. । समु. ३ ) तरहसे खरल कर लीजिए। इसमें से २ रत्तो रस अद्रकके रसके साथ। शुद्धेन गन्धेन समो रसेन्द्रो देनेसे ज्वर नष्ट होता है। द्विभागमुक्तं गुडूचीघनस्य । म औषध खानेके बाद यदि दाह हो तो तक शिला विषं नाह्यपराजिता च भात खिलाना चाहिए। ___भागोप्यमीषां द्विगुणो नियोज्यः॥ १ रसराजसुन्दर तथा रसरत्नसमुच्चयमें इसका नाम ज्वरगजहरिरस, तथा ज्वरगजकेसरीरस है । For Private And Personal Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org स्सप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२९१] onnanorruvwwwwRRAMA कटुत्रिकाङ्कोल्लकदेवदाल्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर ३ पहर तक अद्रकके रसमें स्त्रिभागिकाःस्युःपरिचूयं सर्वम्। घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । ततो रसैःशिग्रुदलोद्भवैस्तन् इनमेंसे एक एक गोली अद्रकके रसके साथ मर्य द्विगुञ्जागुटिका विधेया॥ देनेसे नवीन ज्वर नष्ट होता है । देया समस्ते विषमे त्रिदोषे (२१३८) ज्वरध्वान्तदिवाकरो रसः __ सद्यो ज्वरघ्नी हिमवालुमिश्रा। (र. का. धे. । ज्वर.) __शुद्ध पारा और गन्धक १-१ भाग, गिलोय | पारदं गन्धकं तानं जैपालं त्रितां कणाम् । का घन ( काथको पकाकर गाढ़ा किया हुवा नलिकां कटुकी पथ्यां विषतिन्दुकवीजकम ।। सत्व ), शुद्ध मनसिल, शुद्ध बछनाग और अपरा- | समभागं समादाय सूक्ष्मचूर्णन्तु कारयेत् । जिता (कोयल)की जड़का चूर्ण २-२ भाग, तथा वजीक्षीरेण सम्मय पश्चादुन्मत्तवारिणा ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, अंकोल और देवदाली (बिंडाल | आर्द्रकस्य रसेनैव श्लक्ष्णं गुञ्जाचतुष्टयम् । डोढे )का चूर्ण ३-३ भाग । - नवज्वरे प्रयोक्तव्यो ज्वरध्वान्तदिवाकरः ॥ प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए, आमान्तशोधनात् पश्चात् पथ्य मुद्गदिनहितम्॥ तत्पश्चात् उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, सहजनेके रसमें घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां | शुद्ध जमालगोटा, निसोत, पीपल, उसारेबना लीजिए। रेवन्द, कुटकी, हर और कुचला समान इनमेंसे १-१ गोली ( ४ रत्ती ) कर्परके भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना साथ पीसकर ( ठण्डे पानी या शहदके साथ ) | लीजिए और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका महीन देनेसे सर्व प्रकारके विषमज्वर और त्रिदोषज्वर चूर्ण मिलाकर उसे थोहर ( सेंड )के दूध, धतरेके शीघ्र नष्ट होते हैं। रस और अद्रकके रसमें पृथक् पृथक् १-१ दिन (२१३७) ज्वधूमकेतुः घोटकर चार चार स्त्तीकी गोलियां बना लीजिए। ( र. सा. सं. । ज्वर.; रसें. चिं, म. । अ, ९, इनमेंसे १ गोली प्रातःकाल अद्रकके रसके भै. र.: र. चं. वै. क. द. र. का. धे. साथ देनेसे विरेचन होकर ज्वर नष्ट हो जाता है। भा. प्र. । ज्वर.) जब विरेचनद्वारा आम (कफ) निकल जाय भवेत्सम सूतसमुद्रफेनं हिङ्गलगन्धं परिमर्थ यत्नात्। तो मुंगकी दाल और भातका पथ्य देना चाहिए। नवज्वरेवल्लमितं त्रिघरमार्दाम्बुनायं ज्वरधूमकेतुः (२१३९) ज्वरनागमयूरचूर्णम् (भै.र.।ज्व.) शुद्ध पारा,समन्दर झाग,शुद्ध हिंगुल, और शुद्ध लोहाभ्रटङ्गनं तानं तालकं वङ्गमेव च। गन्धक समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी शुद्धसूतं गन्धकश्च शिग्रुवीजं फलत्रिकम् ॥ कलली बना लीजिए, तत्पश्चात् उसमें अन्य । चन्दनातिविषा पाठा वचा च रजनीद्वयम् । For Private And Personal Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२९२] भारत-मैषज्य-रस्नाकरः [जकारादि उशीरं चित्रकं देवकाष्ठश्च सपटोलकम्॥ कटेलीके फल, कटेलीकी जड, कचूर, तेजपात, जीवकर्षभकाजाज्यस्तालीसं वंशलोचना। त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), गिलोयका सत, कण्टकार्या फलं मूलं शठीपत्रं कटुत्रयम् । धनिया, कुटकी, पित्तपापड़ा, मोथा, सुगन्ध बाला, गुडूचीसत्वधन्याकं कटुका क्षेत्रपर्पटी। वेलगिरी और मुलैठी समान भाग; काला जीरा ४ मुस्तकं बालकं विल्वं यष्टीमधु समं समम् ॥ भाग, तथा तालपुष्प, दण्डोत्पला (सहदेवी) चिराभागाच्चतुर्गुणं देयं कृष्णजीरस्य चूर्णकम् ।। यता और पीपल चार चार भाग* लेकर चूर्ण बना तत्समं तालपुष्पश्च चूर्ण दण्डोत्पलाभवम् ॥ । लीजिए। कैरातं तत्समं देयं तत्समञ्चपलाभवम् ।। __इसका नाम “ ज्वरनागमयूर चूर्ण है"। एतचूर्णसमाख्यातं "ज्वरनागमयूरकम्" । | इसे १ माषा या रोगीकी अवस्थानुसार न्यूनाधिक प्रतिमापमितं खाधं युक्त्या वा त्रुटिवर्द्धनम्। मात्रामें सेवन करानेसे दुस्साध्य सन्ततादि विषम सन्ततादिज्वरं हन्ति साध्यासाध्यं न संशयः॥ ज्वर, क्षयज ज्वर, धातुस्थित ज्वर, काम, शोक क्षयोद्भवञ्च धातुस्थं कामशोकोद्भवं ज्वरम्।। और भूतावेषसे उत्पन्न ज्वर, अभिचारज ज्वर, भूतावेषज्वरश्चैवमभिचारसमुद्भवम् ॥ दाहपूर्व अथवा शीतपूर्व ज्वर, चातुर्थिकादिके दाहशीतज्वरं घोरं चातुथोदिविपयेयम् । विपर्यय, जीर्णज्वर और विषम ज्वगदि हर प्रकारके जीर्णश्च विषमं सर्व प्लीहानमुदरं तथा ।।। | ज्वरोंका नाश होता है। कामलां पाण्डुरोगञ्च शोथं हन्ति न संशयः। यह चूर्ण प्लीहा ( तिल्ली ) उदररोग, कामला, भ्रमं तृष्णां च कासश्च शूलानाही क्षयं तथा ॥ पाण्डु, शोथ, भ्रम, तृष्णा, खांसी, शूल, आनाह, यकृतं गुल्मशूलश्च आमवातं निहन्ति च ।। त्रिपृष्ठकटीजानुपार्थानां शूलनाशनम् ॥ क्षय, यकृत्वृद्धि, गुल्म,आमवात, त्रिक् पृष्ठ (पीठ) कमर, जानु और पसलीके शूलको भी अवश्य नष्ट अनुपानं शीतजलं न देयमुष्णवारिणा ।।। कर देता है। - लोह भस्म, अभ्रक भस्म, सुहागा, ताम्र भस्म, हरताल भस्म, वंग भस्म, शुद्ध पारा, शुद्ध ____ अनुपान—इसे शीतल जलके साथ खिलाना गन्धक, सहजनेके बीज, हर्र, बहेड़ा, आमला, चाहिए और उष्ण जलसे परहेज करना चाहिए । सफेद चन्दन, अतीस, पाठा, बच, हल्दी, दारु । (२१४०) ज्वरपश्चाननो रसा(र.का.धे.।ज्वर.) हल्दी, खस, चित्रक (चीता), देवदारु, पटोलपत्र, शुद्धं रसं गन्धकनागहेमजीवक ऋषभक, जीरा, तालीस पत्र, बंसलोचन, वीजं समं कोलकणाजगद्भिः । * नोट-कुछ वैद्योंका मत है कि काला जीरा उससे पहिलेकी समस्त ओषधियोंसे ४ गुना और तालपुष तथा दण्डोत्पला अपनेसे पूर्वकी समस्त औषधोंके बराबर, चिरायता अपने पहिलेकी समस्त औषधोके बमपर और परिल अभ्य सरल चूके रायर रेनी चाहिए । For Private And Personal Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] दिनत्रयं म ततः शनैः शनैजम्बीरनिम्बाकवारिणा तत् ॥ बल्लः सिताचन्द्ररसेन देयः सर्वज्वरान्नाशयति क्षणेन । सर्वेषु रोगेष्वथ सन्निपाते दध्योदनोऽस्मिन्खलु पथ्यहेतुः ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सीसा भस्म और धतूरेके बीजोंका चूर्ण समान भाग लेकर कजली करके उसे ३-३ दिन मिर्च, पीपल और सोंठके काथमें घोटिए फिर जम्मीरी नीबू, नीम और अद्भकके रसकी १-१ भावना देकर ३ - ३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । द्वितीयो भागः । इनमें से १-१ गोली सुगन्धवालाके काथमें खांड मिलाकर उसके साथ देनेसे सर्व प्रकारके वर नष्ट होते हैं । पथ्य - दही भात | (२१४१ ) ज्वरपञ्चाननो रसः (र.का.धे । ज्वर.) तैलादिना नागवङ्गौ शोधितौ द्रावितौ समौ । तत्रैकभागं सूतेन्द्रं क्षिप्त्वा समवतारयेत् ॥ रसं विषं शुद्धमेत मेलयित्वा विमर्दयेत् । कज्जलाभं दिनं खल्वे स्थापयेदन्तभाजने ॥ आर्द्रकस्य रसेनैव गुञ्जामात्रो ज्वरापहः । अतितापे सन्निपाते विहितोऽयं रसोत्तमः ॥ मुहूर्तद्वितयात्तीव्रं ज्वरं नाशयति स्फुटम् । ज्वरपञ्चाननो नाम नवज्वरविनाशनः ॥ तैलादि द्वारा शुद्ध सीसा और वंग समान भाग लेकर गलाकर उसमें १ भाग शुद्ध पारा मिलाइये । तत्पश्चात् उसे उग्निसे नीचे उतारकर उसमें एक एक भाग शुद्ध पारा और शुद्ध नाग [ २९३] विषका चूर्ण और मिलाकर एक दिन खूब घोटिए कि जिससे काजल के समान हो जाय । इसे हाथीदांत पात्रमें भरकर रख छोड़िये । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसमें से १ रत्ती दवा अद्रखके रसके साथ देनेसे नवीन ज्वर और अत्यन्त तीव्र सन्निपात ज्वर भी ४ घड़ीमें उतर जाता है । (२१४२) ज्वरभैरवचूर्णम् (भै.र.। ज्वर. ) नागरं त्रायमाणा च पिचुमन्दं दुरालभा । पथ्या मुस्तं वचा दारु व्याघ्री शृङ्गी शतावरी ॥ पर्पटं पिप्पलीमूलं विशाला पुष्करं शटी । मूर्वा कृष्णा हरिद्रे द्वे लोधं चन्दनमुत्पलम् ॥ कुटजस्य फलं वल्कं यष्टीमधुकचित्रकम् । शोभाञ्जनं बला चातिविषा च कटुरोहिणी ॥ मुसली पद्मकाष्ठं च यवानी शालपर्णिका । मरिचं चामृता विल्वं वालं पङ्कस्य पर्पटीम् ॥ तेजपत्रं त्वचं धात्री पृश्निपर्णी पटोलकम् । गन्धकं पारदं लौहमभ्रकञ्च मनःशिला ॥ एतेषां समभागेन चूर्णमेव विनिर्दिशेत् । तदर्द्ध प्रक्षिपेत्तत्र चूर्ण भूनिम्बसम्भवम् ॥ मात्रामस्य प्रयुञ्जीत दृष्ट्वा दोषबलाबलम् । चूर्ण भैरवसंज्ञन्तु ज्वरान्हन्ति न संशयः ॥ पृथग्दोषांश्च विविधान् समस्तान् विषमज्वरान् द्वन्द्वजान् सन्निपातोत्थान् मानसानपि नाशयेत् प्राकृतं वैकृतञ्चैव सौम्यं तीक्ष्णमथापि वा । अन्तर्गतं बहिःस्थश्च निरामं साममेव च ॥ ज्वरमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यं न संशयः । नानादेशोद्भवञ्चैव वारिदोषभवं तथा ।। विरुद्धभेषजभवं ज्वरमाशु व्यपोहति । अमान्यं कुल्लीहाणण्डुरोगमरोचकम् ॥ For Private And Personal Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२९४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि उदराण्यन्त्रवृद्धिं च रक्तपित्तं त्वगामयम् । (२१४३) ज्वरभैरवरसः ( १.) श्वयथुश्च शिरःशूलं वातामयरुजापहम् ॥ (र. का. धे. । अधि. १) ज्वरभैरवसंज्ञन्तु भैरवेण कृतं शुभम् ॥ पलैकं पारदं शुद्धं गन्धकश्च पलोन्मितम् । मर्दितं कज्जलाभासं क्षिपेत्ताम्रस्य सम्पुटे ।। सोंठ, त्रायमाणा, नीमकी छाल, धमासा, हर्र, कृत्वा तां पिठरीमध्ये शरावेण पिधापयेत् । नागरमोथा, बच, देवदारु, कटेली, काकड़ासिंगी, सन्धिलेपं ततःकृत्वा भस्मना परिपूरयेत् ॥ शतावर, पित्तपापड़ा, पीपलामूल, इन्द्रायन, पोखर | मन्दादिवह्निना यामषटकं तद्विपचेद्भिषक् । मूल, कचूर, मूर्वा, पीपल, हल्दी, दारुहल्दी, लोध, स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य पलार्ध वलिना दृढम् ॥ चन्दन, नीलोत्पल, कुडेको छाल, इन्द्रजौ, मुलैठी, | मर्दयित्वा शुक्तिकायाःस्वरसेन विभावयेत् । चीता, सहजना, खरैटी, अतीस, कुटकी, मूसली, | तक्रेण मर्दयत्किञ्चित्स्वेदयेत्तच्छनैःशनैः ।। पद्माख, अजवायन, शालपर्णी, कालीमिर्च, गिलोय, भावयेत्तुलसीनीरैर्देशवारं प्रयत्नतः । बेलकी छाल, सुगन्धबाला, तालाबकी पापड़ी (जमी त्रिर्नागबलारसतो भावितः शुद्धिमाप्नुयात् ॥ हुई मिट्टी ) तेजपात, दारचीनी, आमला, पृष्टपर्णी, | नागवल्लीरसेनैव त्रिगुञ्जासम्मितो ज्वरे । पटोलपत्र, गन्धक, शुद्ध पारद, लौह भस्म, अभ्रक | जन्तोर्जीर्णज्वरे देयः पथ्यं मुद्रौदनं हितम् ॥ भस्म, शुद्ध मनसिल, समान भाग और चिरायता | शुलमन्दानलं गुल्ममतिसारं गुदाकरान् । सबसे आधा । प्रथम पारे गन्धककी कजली बना कासं श्वासं जयेच्छीघं तत्तद्रोगानुपानतः॥ लीजिए पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाइये। ज्वरभैरवनामाऽयं निर्मितो रससागरे ॥ इसे दोष और बलाबलके अनुसार योग्य १-१ पल शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धकको मात्रामें सेवन करना चाहिए । एकत्र घोटकर कज्जली बनाइये और इस कजली को यह “ उचर भैरव " नामक चूर्ण पृथक् पृथक् उसके बराबर ताम्रके सम्पुटमें बन्द करके उस दोषोंसे उत्पन्न, ज्वर, विषम ज्वर, सन्निपात ज्वर, सम्पुटको एक हाण्डीमें रखकर उसको (सम्पुटको) द्वन्द्वज चर और मानस ज्वर, प्राकृत ज्वर, वैकृत शरावसे ढक दीजिए और सन्धिको चूने और ज्वर, सौम्य ज्वर, तीक्ष्ण ज्वर, अन्तर्गत ज्वर, शहदके मिश्रणसे बन्द करके हाण्डीको राखसे भरबहिर्गत ज्वर, निराम ज्वर, एवं अनेक देशोंके कर अग्निपर चढ़ा दीजिए और ६ पहर तक क्रमशः पानीसे और विरुद्धौषधके सेवनसे उत्पन्न ज्वरको मृदु, मध्यम तीब्राग्नि दीजिए। इसके पश्चात शीघ्र नष्ट कर देता है । इसके अतिरिक्त इसके हांडीके स्वांग शीतल हो जाने पर उसके भीतरसे सेवनसे अग्निमांद्य, यकृत् , तिल्ली, पाण्डु, अरुचि, सम्पुटको निकालकर उसमें आधा पल शुद्ध गन्धक उदररोग, अन्त्रवृद्धि, रक्तपित्त, त्वक्रोग, सूजन, मिलाकर (ताम्र सहित) मर्दन कीजिए और फिर शिरशूल और वातव्याधिका भी नाश होता है। उसे १ दिन चुकेके रसमें घोटकर गोला बना For Private And Personal Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२९५] InvvvvvNA लीजिए और उसे सुरखाकर थोड़ी देरतक दोला । सहदेवीभृङ्गशुण्ठीब्राह्मीनिर्गुण्डिकारसैः॥ यन्त्र विधिसे मन्दाग्नि पर छाछमें स्वेदन कीजिए। सगव्यदुग्धैर्जयति सर्वरोगानशेषतः ॥ इसके पश्चात् उसे दस भावना तुलसीके रसकी, . | शुद्ध पारा, शुद्र गन्धक, शुद्ध हरताल, कपूर, और ३ भावना नागबलाके ग्सकी देकर ३-३ | सोमल (संखिया), सुहागेकी खील, शुद्ध बछनाग, रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। और अकरकरेका चूर्ण २-२ भाग, तथा धतूरेके इनमेंसे एक एक गोली पानके रसके साथ | बीज, शुद्ध जमालगोटा, समन्दर फल और जीरेका देनेसे जीर्णज्वर नष्ट होता है । इसपर मंगका यूष चूर्ण ३-३ भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी और भातका पथ्य देना चाहिए। कजली बना लीजिए और फिर उसमें अन्य इसे यथोचित अनुपानके साथ देनेसे शूल, औषधोंका चूर्ण मिलाकर तुलसीके रसमें घोटकर अग्निमांद्य, गुल्म, अतिसार, अर्श, ग्वांसी और १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । श्वास का भी नाश होता है। इनमेंसे एक एक गोली गर्म पानीके साथ (नोट-तांबेकी जिन कटोरियोंमें कजली भर- देनेसे जीर्ण ज्वर नष्ट होता है । हींग, अजवायन कर सम्पुट बनाना हो वह कजलीके बराबर बजनी और बचके (१ माशा) चूर्णको तक्रमें मिलाकर होनी चाहिये ।) उसके साथ खिलानेसे शूल नष्ट होता है । त्रिफला, २--जिस हाण्डीमें सम्पुट रक्खा जाय उसके सोंठ, मिर्च, पीपल और चीतेके काथके साथ ऊपर ३-४ कपरौटी कर लेनी चाहिये। अथवा इनके चूर्णको गर्म पानीमें मिलाकर उसके ३-हाण्डीमेंसे औषध निकाल कर देख लेना साथ देनेसे वायु; और त्रिफलेके साथ सेवन करने चाहिए कि तांबेकी कटोरियोंकी भस्म बन गई से पित्त नष्ट होता है। एवं सहदेवी, भंगरा, सोंठ, है या नहीं यदि कमी हो तो दुबारा अग्नि लगानी ब्राह्मी और संभालके रस अथवा काथको गायके चाहिए ।) दूधमें मिलाकर उसके साथ देनेसे अन्य समस्त (२१४४) ज्वरभैरवरसः (२) गेग शान्त होते हैं। . (र. का. धेः । ज्वर. ) (२१४५) ज्वरभैरवरसः (३) रसगन्धकतालेन्दुमल्लटङ्कणकं विषम् । (र. का. धे. । अधि. १) आकल्लकं द्वि द्वि भागं कृष्णधूर्तफलं त्रिधा॥ सूतं गन्धमभ्रकं समलवं सूतार्धभागं विषम् । जैपालश्च समुद्रश्च जीरकश्च विभावयेत्।। तत्व्यशं जयपालमम्लमृदितं तद्गोलकं घेष्टितम् ।। सुलस्या गुटिका गुञ्जा रसोऽयं ज्वरभैरवः॥ पत्रैमजुभुजङ्गवल्लिमृदितैनिष्पिष्य खाते पुटम् तप्तोदकेन सकलाञ्जयेज्जीर्णज्वरान भृशम्।। | दत्वा कुकुटसंज्ञकं सहवलैः संचूर्ण्य तत्र क्षिपेत्॥ हिङ्गदीप्यवचाभिस्तु सतक्राभिः सशूलजित्॥ भागार्द्ध जयपालवीजममृतं तत्तुल्यमेकीकृतम् । त्रिकटुत्रिफलाचित्रैर्वातं पित्तं फलत्रिकैः। ! गुञ्जा नागरसिन्धुचित्रकयुतो सर्वज्वरान्नाशयेत्।। For Private And Personal Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - [ २९६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। जकारादि शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म दिन गूमाके रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां १-१ भाग, शुद्ध बछनागका चूर्ण आधा भाग | बना लीजिए। और शुद्ध जमालगोटेका चूर्ण बछनागसे तीन गुना . इनमेंसे एक एक गोली पानमें रखकर खाने लेकर प्रथम पारे गन्धक की कजली बना से नवीन वर, सन्निपात, विषम चर और जीर्ण लीजिए और फिर अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर ज्वर एक ही दिनमें नष्ट हो जाता है । पथ्यनीबूके रस या काजीमें घोटकर सबका एक गोला मंगकाष और शिखरन । बनाइये । इस गोलेको नागरबेलके पानोंमें लपेटकर | (२१४७) ज्वरभैरवो रसः (५) भूमिमें गढ़ा खोदकर उसमें रखकर कुक्कुट पुटमें (र. का. धे. । अधि. १) फूंक दीजिए । तत्पश्चात् स्वांग शीतल होनेपर रसेन्द्रगन्धकव्योषवह्निस्फाटिकटङ्कणम्। . निकालकर पानों सहित पीसकर उसमें आधा आधा फलमारुष्करं भृङ्गजयपालं समांशकम् ।। भाग शुद्ध जमालगोटे और बछनागका चूर्ण मिला- भागद्वयं विषं चात्र दत्त्वा सर्व विमर्दयेत् । कर घोटकर सुरक्षित रखिए । भावयेन्मार्कवरसैः सप्तधा रवितापतः ॥ इसमें से १-१ रत्ती रस सोंठ, सेंधा और शर्कराकनीराभ्यां दद्याद् गुञ्जाद्वयं भिषक । चीतेके चूर्ण के साथ मिलाकर खिलाने से सर्व श्वासं नवज्वरं जीर्ण विषमं कफपित्तजम् ॥ प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । वह्निमान्यं तथा शूलं जयेद्रोगानुपानतः ।। (अनुपान शीतल जल) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, त्रिकुटा ( सोंठ, (२१४६) ज्वरभैरवो रसः (४) मिर्च, पीपल) चीता, फिटकी, सुहागेकी खील, __(मै. र.; धन्व.; र. रा. सु. । ज्वर.) । भिलावा, भंगरा और जमालगोटा समान भाग तथा त्रिकटु त्रिफला टङ्कणविषगन्धकपारदम्।। बछनाग २ भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी जैपालश्च सम्मा द्रोणपुष्पीरसैदिनम् ॥ कजली बना लीजिए तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषताम्बूलेन समं ह्यस्य खादेत् गुञ्जामितां वटीम् । धियोंका चूर्ण मिलाकर भांगरेके रसमें भिगोकर मुद्गयूषं शिखरिणी पथ्यं देयं प्रयत्नतः ॥ धूपमें रख दीजिए । रस दवासे एक अंगुल ऊपर नवज्वरं त्रिदोषोत्थं जीर्णश्च विषमज्वरम् । रहना चाहिए। जब सब रस सूख जाय तो दिनैकेन निहन्त्याशु रसोऽयं ज्वरभैरवः॥ इतना ही और डाल दीजिए और इसी प्रकार सात . सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, बार रस डालकर सुखाइये । सुहागा, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा, इसमें से २ रत्ती रस अद्रकके रसमें खांड और जमालगोटेका चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम मिलाकर उसके साथ देनेसे श्वास, नवीन ज्वर, • पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए और जीर्णज्वर, विषमज्वर और कफपित्तज ञ्चर, अग्निफिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर १ ! मांद्य और शूल नष्ट होता है। For Private And Personal Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ २९७] (२१४८) ज्वरमातङ्गकेसरीरसः (२१४९) ज्वरमुरारिरसः (१) (र. रा. सुं. । ज्वर.; वृ. यो. त. । त. ५९) . ( भै. र.; र. रा. सु. । ज्वर.) रसवलिफणिलोहव्योमताम्राणितुल्यापारदं गन्धकश्चैव हरितालं समाक्षिकम् । न्यथ रसदलभागो नागरं तत्पमृष्टम् । कटुत्रयं तथा पथ्या क्षारौ द्वौ सैन्धवं तथा ॥ भवति ज्वरमुरारिश्चास्य गुञ्जावारिः निम्बस्य विषमुऐश्च वीज चित्रकमेव च। क्षपयति दिवसेन प्रौढमामज्वराख्यम् ॥ एषां माषमितं भागं ग्राह्यं प्रति मुसंस्कृतम् ॥ पारा, गन्धक, सीसाभस्म, लोह भस्म, अभ्रक द्विमाष कानकफलं विषश्चापि द्विमाषिकम् ।। भस्म और ताम्र भस्म १-१ भाग तथा सोंठका निर्गुण्डीस्वरसेनैव शोषयेत्तत् प्रयत्नतः ॥ । चूर्ण ६ भाग लेकर, प्रथम पारे गन्धककी कजली सार्द्धरक्तिपमाणेन वटी कार्या सुशोभना । बना लीजिए, तत्पश्चात् अन्य औषधोंका चूर्ण सर्वज्वरहरी चैषा भेदिनी दोषनाशिनी ।। मिलाकर अदरकके रसमें घोटकर एक एक रत्तीकी आमाजीर्णप्रशमनी कामलापाण्डुरोगहा। । गोलियां बनाइये। इनमेंसे एक गोली अदरक के रसके साथ वहिदीप्तिकरी चैषा जठरामयनाशिनी ॥ देनेसे प्रबल आमज्वर एकही दिनमें नष्ट हो उष्णोदकानुपानेन दातव्या हितकारिणी। जाता है। भाषितो लोकनाथेन ज्वरमातङ्गकेसरी॥ (२१५०) ज्वरमुरारिरसः (२) पारा, गन्धक, हरताल, सोनामक्खी भस्म, (भै. र. र. रा. सुं; ज्वर.) त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) हर्र,यवक्षार,सज्जीक्षार शुद्धमतं शुद्धगन्धं विषश्च दरदं पृथक् । (सोडा), सेंधानमक,नीमके बीज,कुचला और चीतेका चातका कर्षप्रमाणं कई लवङ्ग मरिचं पलम्॥ चूर्ण १-१ माषा तथा शुद्ध बछनाग और धतूरे, धतूर शुद्धकनकवीजं च पलद्वयमितं तथा। के बीज २-२ माघे लेकर प्रथम पारे और गन्धक त्रिता कमेकश्च भावयेदन्तिकाद्रवैः॥ की कजली बना लीजिए तत्पश्चात् उसमें अन्य सप्तधा च ततः कार्या गुटी गुञ्जामिता शुभा। ओषधियों का कपड़छन चूर्ण मिलाकर संभालके । ज्वरमुरारिनामायं रसो ज्वरकुलान्तकः ॥ . रसमें अच्छी तरह धोटकर १॥-१॥ रत्तीकी । अत्यन्ताजीर्णपूर्गे च ज्वरे विष्टम्भसंयुते । गोलियां बना लीजिए। सर्वाङ्गग्रहणे गुल्मे चामवातेऽम्लपित्तके ॥ . इन्हें उष्ण जलके साथ देनेसे सर्व प्रकारके ! कासे श्वासे यक्ष्मरोगेऽप्युदरे सर्वसम्भवे ।। वर, आमाजीर्ण, पाण्डु, कामला और उदर विकार गृध्रस्पां सन्धिमज्जस्थे वाते शोथे च दुस्तरे।। दूर होते तथा अग्नि दीप्त होती है। यह गोलियां यकृति प्लीहरोगे च वातरोगे चिरोत्थिते । भेदिनी ओर दोष नाशिनी हैं। अष्टादशकुष्ठरोगे सिद्धो गहननिर्मितः ।। भा० ३८ For Private And Personal Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि - - शुद्ध पारा, शुद्र गन्धक, शुद्ध बछनाग और शुद्र पारद १ भाग, सोना मक्खी भस्म १ शुद्र हिंगुल (संगरफ) .१-१ कर्ष (१। तोला), भाग, मन साठ २ भाग, शुद्र गन्धक ३ भाग, लौंग आधा कर्ष, काली मिर्च १ पल (५ तोले), हरताल १८ भाग, तात्रभस्म ५ भाग, और शुद्र धतूरेके शुद्र बीज २ पल, और निसोत १ कर्ष भिलावे ३ भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए, | कजली बना लीजिए त परवात् उसमें अन्य तत्पश्चात् अन्य ओषधियों का कपड्छन महीन | ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर भिलावों के साथ खूब कूट. चूर्ण मिलाकर दन्तीमूलके काथकी सात भावना कर थोहरके दूध में भिगो दीजिए और उसे ३-४ देकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। कपरमिट्टी की हुई एक हांडीमें भरकर उसके ... इन्हें यथोचित अनुपानके साथ देनेसे अत्यन्त मुखको अच्छी तरह बन्द करके सन्धिपर चूना विष्टम्भ और अजीर्ण युक्त ज्वर, समस्त शरीरका और गुड़ मिलाकर लगा दीजिए और सुखाकर जकड़ जाना, गुल्म, आमवात, अग्लपित्त, खसी, चार पहरकी अति दीजिए। हाग्डीके पांग श्वास, क्षय, सर्वदोषज उदररोग, गृध्रसी, सन्धि शीतल होनेपर औषध को निकालकर पीसकर और मजागत वायु, भयङ्कर शोथ; यकृत, प्लीहा सुरति रखिए। (तिल्ली), पुरानी वातव्याधि और अठारह प्रकारके इसमें ते चार रत्ती औषध प्रातःकाल पा में कुष्ठ नष्ट होते हैं । | रखकर खिलानेसे ८ प्रकारके घर नष्ट होते हैं। (२१५१) ज्वरराजरसः इसपर तक्रभात पथ्य देना चाहिए । यदि इसमें १ भाग तुत्थ मिला दिया जाय (र. मं. । रस.; र. का. धे. । अ. १) तो इसका नाम "चतुर्दिनिवारण" हो भागैको रसराज भागः समा ममाक्षिात् । जाता है। भागदी शिलावाश्च गन्ध करा योमताः।। (२१५२) ज्वरशतघ्नी ( रसायनसार । चि.) तालस्याष्टादशभागाः शुल्वस्त भागपञ्चकम् । भल्लातकास्त्रयो भागा सर्वोकत्र चूर्णयेत् ।। चन्द्रोदयो यो विषसंज्ञा वा वनीझ रप्लुतं कृत्वा दृढे मृन्मयभाजने। . सिन्दूरनामा दशगन्धजारी। विधाय सुदृढं मुद्रां पधाम चतुरम् ॥ मल्लाभिधो वा ज्वरि दत्तमात्रः स्वाङ्गशीतं समुद्धत्य मदयेसुदृढ पुनः । शानिकाकर्म करोति मङ ॥ गुञ्जाचतुष्यं चाया पर्णख डेन दापयेत् ।। विन चकायाश्चापरे पि रोगाः ज्वरराजप्रसिद्धोऽयमष्टज्वरविनाशकः। पलायमाना शतशोऽनुभूताः । प्रातःकाले प्रयोक्तव्य पां तक्रौदनं हितम् ॥ शं शेतत्री यदि कुण्ठिता स्मात् तुत्थभागेन संयुक्तश्चातुर्थिक नवारणः ॥ नितान्तमनं कुरुते कृतान्तः ॥ For Private And Personal Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रेसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [२९९ निराचरीकति समस्तरोगान् दशगुण गन्धकजारितसिन्दूर रसकी तो बात ही योगानुसारेण शतत्रि के पम् । । क्या है ? शत-गुणगन्धकजारित सिन्दूर रस सश्चस्करीति प्रबला बलानां । भी परिश्रमसे साध्य हो सकता है इस बातको बालाबलानामपि कायमेषा। गन्धकजारणप्रकरणमें लिख चुका हूं। ज्वरके लिए तोप (रसायनसारसे उद्धृत ) अर्थ-पद्गुण गन्धक जारित विष (२१५३) ज्वरशलहरो रसः चन्द्रोदयः ", अथवा दशगुण गन्धक जारित (र. रा. सुं.; भै. र. । रसें. चि. । अ. ९) सुवर्णसिन्दूरका बनाया हुआ “विप स्वर्ण सिन्दूर, रसगन्धकको कृत्वा कज्जलीं भाण्डमध्यगाम् । अथवा " दशगुण गन्धक जारित मल्ल सिन्दूर, तत्राधोवदनां त.म्रपात्री सन्रुध्ध शोषयेत् ॥ इन चारों से कोईसा क्यों न हो सबका नाम पद ङ्गुष्ठप्रमाणेन चुल्यां ज्वालेन तां देहत् । " ज्वर शतनी " तोप है; अर्थात् परके उद्याने यामद्वां ततस्तत्स्थं रसपात्रं समाहरेत् ॥ के लिए ये चारों प्रयोग तोपके समान हैं। इनकी चूर्णयेद्रक्तियुगलं तृतयं वा विचक्षणः । खुराक एक रत्तीसे दो रत्ती तक तरुण पुरुषके ताम्बूलीदल योगेन दद्यात्सर्वज्वरेष्वमुम् ॥ लिये है। सन्निपात आदि त काल मारक व्याधियों में जीरसैन्धवसंलिसवताय वरिणे हितम् । इनका प्रयक्ष फल देखा गया है । हैजा, अति- स्वेद द्गमो भवत्येव देवि सर्वेषु पाप्मसु ॥ .. सार, आदि व्याधियां तो एक दो ही खुराकमें चतुर्थिकादोन विमानसमागामिनं ज्वरम् । जाने कहाँ चली जाती हैं । यदि इस तोपके साधारणं सनिपा। जयत्येव न संशयः॥ छोड़ने पर भी रोगीके प्राण न बचें तो उस रोगाकी समान भाग पार और गन्धककी कजली मृत्यु अन्य योगसे टल भी नहीं सकती । कास करके उसे तीन चार कपरौटी की हुई हांडीमें श्वास साधारण ज्वर आदि रोगों में भी अपने रखकर उसके ऊपर उतने ही वजनकी शुद्ध तांबे अनुपानके साथ पाव रत्ती देनेसे तत्काल काम की कटोरी ढक दीजिए और जोडको गुड़ चूनेसे करती है । और जो अत्यन्त दुबै ठ बाल वृद्ध अच्छी तरह बन्द करके सुखाकर हाण्डीको चूल्हे अबला आदि जन इनमेंसे किसी एकको एक एक पर चढ़ा दी जए। और उसके नीचे २ पहर तक चावल प्रतिदिन सेवन किया करें तो उनके शरीर पैरके अंगूठेके बराबर मोटी लकड़ी जलाइये । को भी दिनोदिन संस्कारयुक्त ( नया ) कर देती तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल हो जाने पर है । वैद्य लोगों को यह फिक्र नहीं करना चाहिए, उसमेंसे कटोरी सहित समस्त औषधको निकाल कि यह शतघ्नी कैसे बनेगी? यद्यपि चन्द्रोदय कर पीस लीजिए। बनानेमें तो अपश्य भारी परिश्रम है क्यों कि जीरे और सेंधा नमकके 'चूर्णको पानीमें बुभुक्षित पारदमें बहुत दिन लग जाते हैं तथापि । पीसकर रोगीके मुंहके भीतर लेप करके इस रसमेंसे For Private And Personal Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३००.] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। जकारादि २-३ रत्ती पानमें रखकर देनेसे तुरन्त पसीना चातुर्थिक या अन्य किसी ज्वरमें भी इसमें से आता है और चातुर्थिकादि विषम ज्वर रुक जाते १ माशा औषध देनेसे वर तुरन्त उतर जाता है। हैं तथा सन्निपात नष्ट होता है । वर उतर जानेके बाद मुंगका यूष और (२१५४) ज्वरसिंहरसः भातका पथ्य देना चाहिए। (र. रा. मुं.; वै. क. द्रु. । ज्व.) (नोट-----मात्रा अधिक लिखी है, विचारपारदं गन्धकं तालं भल्लातकमथैव च । पूर्वक देना चाहिए।) वजीक्षीरसमायुक्तमेकत्र च विमर्दयेत् ॥ | (२१५५) ज्वरहरो रसः (र.का.धे.अ.१) मृत्तिकाभाजने स्थाप्यं मुद्रितव्यं विचक्षणैः। रसं गन्धं विषं तानं नैपालं गुग्गुलुं तथा । अग्नि प्रज्वालयेत्तत्र प्रहरद्वयसंख्यया ॥ गुटी रक्तिमिता क्षौद्रयुक्ता सर्वज्वरापहा ॥ शीतलं खल्लयेत्तत्र भावना च प्रदीयते । पारा, गन्धक, बछनाग, नैपालीताम्रकी भस्म भङ्गराजरसैरत्र गण्डदभिवै रसैः॥ और गूगल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी चित्रकस्य रसेनापि भावना दीयते पुनः। कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य औषधे पश्चात्तं चूर्णयेत् यत्नात्कूपिकायां च धारयेत्॥ मिलाकर शहदके साथ घोटकर १-१ रत्तीकी ज्वरमुत्पद्यते यस्य चतुर्थे चापरे पुनः। गोलियां बना लीजिए। मापैकश्च रसो देयं तत्क्षणान्नाशयेज्ज्वरम् ।। इनके सेवनसे सर्व प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । ज्वरे शान्ते परं पथ्यं देयं मुद्गौदनं पयः ॥ पारा, गन्धक, भिलावा और हरताल समान (१९५६) ज्वरहारी रसः (र.का.धे.।ज्वर.) भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कजली | एकवर्णदृषोन्मूत्रघटे तुत्थालकं पलम् । बना लीजिए और फिर उसमें अन्य दोनों ओषधियां | कथनाच्छुष्कं तचूर्ण ज्वरहारी रसो भवेत्॥ मिलाकर थोहरके दूधमें अच्छी तरह घोटिए और नवज्वरे तथा जीणे गुञ्जामानेन दीयते। फिर उसका गोला बनाकर उसे मिट्टीके पात्रमें उक्तानुपानसंयुक्तः सर्वज्वरहरः परः॥६०७।। रखकर उसके मुंहको शरावसे बन्द करके ऊपर ३-४ इकरंगके बैलके १६ सेर मूत्रमें ५-५ तोले कपरमिट्टी कर दीजिए । जब यह सम्पुट सूख तूतिया और हरतालको इतना पकाइये कि समस्त जाय तो उसे चूल्हे पर रखकर नीचे २ पहर तक : मूत्र शुष्क हो जाय, तब उस औषधको पीसकर अग्नि जलाइये । जब सम्पुट स्वांग शीतल हो जाय रख लीजिए, बस " वरहारी' रस तैयार है। तो उसमेंसे औषध निकाल कर उसे भंगरा, और इसे १ रत्तीको मात्रानुसार मिश्रीके साथ बड़ी दुबके रस तथा चीतेके क्वाथकी भावना देकर मिलाकर देनेसे नवीन ज्वर तथा जीर्ण ज्वर आदि सुखाकर शीशीमें भरकर रखिए । सब प्रकारके घर नष्ट होते हैं। १ भृङ्गराजरसैरण्डेति पाठान्तरम । For Private And Personal Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - - - रेसप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग । [ ३०१] (२१५७) ज्वराङ्कशः (१) धत्तुरपत्रैरपिधाय सम्यक् ( शा. सं. । ख. २. अ. १२; वृ. नि. र.; पुटेत्पुटे कुक्कुटनामधेये । र. चं.; र. का. धे. । ज्व.; र. प्र. सु. । अ. ८) शीते स्वतो जात गुणप्रकर्षों खण्डितं मृगशृङ्गं च ज्वालामुखिरसैःसमम्। ज्वराङ्कुशोऽयं सितया प्रदेयः ।। रुध्वा भाण्डे पचेच्चुल्यां यामयुग्मं ततो नयेत्॥ शीते ज्वरे मङच बहुपकारी अष्टांशं त्रिकटुं दद्यानिष्कमात्रं च भक्षयेत् । दुग्धोदनं पथ्यमुषन्ति वैयाः॥ . नागवल्या रसैःसार्ध वातपित्तज्वरापहम् ॥ . अयं ज्वराशो नाम रसः सर्वज्वरापहः॥ अर्थ-शुद्ध मैनशिल और शुद्ध हरताल मृगशृंगके छोटे छोटे टुकडोंको एक हाण्डीमें और शुद्ध गन्धक इन चारोंकी कजली करके भरकर उसमें ज्वालामुखोका रस इतना भर दीजिए मन्दारके (आकके) दूधमें घोटकर पिट्टी करलें फिर कि जिससे वह सींगके टुकड़ोंसे १ अंगुल ऊपर तूतिया से निकाले हुए शुद्ध ताम्बेके पत्रोंको रहे । अब इस हण्डी के मुखपर कपर | | पिढीके बीचमें रखकर गोला बनालें । उस गोलेके मिट्टी करके सुखाकर चूल्हे पर चढ़ा दीजिए ऊपर धतूरेके पत्ते लपेटकर सात कपडमिट्टी करके और दो पहर तक अग्नि जलाकर स्वांग शीतल कुक्कुट पुटमें हांडीके सम्पुट में रखकर फूंकदें । होने पर हाण्डीके भीतरसे औषधको निकालकर जब स्वाङ्ग शीतल हो जाय तब यह ज्वराङ्कुश पीसकर उसमें उसका आठवां भाग त्रिकुटेका चूर्ण तैयार होता है । इसको मिश्रीकी चाशनीके साथ मिलाकर घोटकर सुरक्षित रखिए । देनेसे शीत ज्वर शीघ्र शान्त होता है । इसके इसमेंसे नित्य प्रति ४ माशे रस नागरबेलके ऊपर दृध भातका पथ्य है। इसमें जितने ताम्बेके पत्र लिए जायं उनसे दुने मैनसिल आदि चारों पानके रसमें मिलाकर चाटनेसे वातपित्तज तथा पदार्थ लें, अर्थात् शुद्ध किए हुए ताम्बेके पत्र अन्य समस्त ज्वर नष्ट होते हैं । यदि आध पाव ( १० तोले ) हों तो मैनशिल ( व्यवहारिक मात्रा आधेसे १ माशा तक ) आदि चारों वस्तुएं १-छटांक (५ तोले ) (२१५८) ज्वराङ्कशरसः (२) रहें । यदि रस बनने पर ताम्रपत्र कुछ ( रसायनसार. । चि. ) कच्चे निकले तो फिर उनको मंदारके दृधमें घुटी शुद्धे शिलाले रसगन्धको च हुई पिढीके अन्दर रखकर पूर्ववत् फूंक दो फिर मन्दारदुग्धेन करोतु पिष्टिम् । सब रसको कृट कपड़छन कर रख छोड़ो । तुत्थोत्थताम्रस्य दलानि मध्ये निधाय तत्र प्रविधाय गोलम् ।। ( रसायनसारसे उद्धृत) १-कहीं कहीं इसका नाम ज्वालामुखीरस' भी लिखा है। . For Private And Personal Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि (२१५९) ज्वराङ्कशरसः (३) (र.का.धे.।ज्व.) (नोट-यह प्रयोग केवल अनुभवी वैवको शिखितत्थं सोममलं हरांशं मर्द त व्यहम् । ही करना चाहिए, और मात्रा विचारपूर्वक निश्चित कृष्णधतूरतोयेन मर्दनाच्च ज्वराङ्कशः॥ करनी चाहिए।) साध्यासाचं निहन्त्याशु ज्वरांश्च विषमान् हठात् (२१६१) ज्वराङ्कुशरसः (५) (र.का.धे.।ज्व.) तुत्थ, सोमल, और पारा समान भाग लेकर रसादधेस्त्रास्तालाद्भल्लाताद्वादशांशकाः। कजली करके उसे ३ दिन तक काले धतूरेके | स्तुकक्षीरसप्तपुटितास्त्रिगुजो ज्वरजिदूसः॥ रसमें घोट लीजिए। ___ रस सिन्दूर आधा भाग, हरताल ३ भाग और शुद् भिलावे १२ भाग लेकर सबको :: इसमें से १-१ रत्ती औषध उचित अनु एकत्र खरल करके थोहरके दूधकी सात भावनाएं पानके साथ देनेसे समस्त विषम ज्वर नष्ट होते हैं। दीजिए। मात्रा बहुत अधिक लिखी है। यह विषैली। इसमेंसे ३ रत्ती औषध उचित अनुपानके औषध है अत एव इसका प्रयोग अनुभवहीन साथ देनेसे ज्वर नष्ट होता है। वैद्योंको न करना चाहिए । ) (२१६२) ज्वराङ्कुशरसः (६) (२१६०) ज्वराङ्कशरसः (४) (र. चं. । ज्व.; र. प्र. सु. । अ. ८) (भा. प्र. म. ख. । ज्व.; वृ. यो. त. । त. ५९) एक एव कथितस्तु सोमल: दारुमृषां शिखिग्रीवां रसकश्च पृथा पृथा। स्वेदितो पि सह चूर्णजलेन । टङ्कत्रयानुमानेन गृहीत्वा कनकद्रवैः॥ यामपूर्वमपि रक्तिकामितो __ भक्षितःसकलशीतजूतिहत् ॥ मर्दयेत्रिदिनं कार्या वटी चणकमात्रया। सोमलको चूनेके पानीमें ( ७ दिन तक ) मरिचैरेकविंशत्या सप्तभिस्तुलसीदलैः॥ स्वेदित करके पीसकर रख लीजिए। खादेवटीद्वयं पथ्यं दुग्धभक्तं सशरम्। ब्ध दुग्धभक्त सशकरम्। इसमेंसे १ रत्ती औषध शीतज्वर आनेसे १ तरुणं विषमं जीर्ण हन्यात्सर्वं ज्वरं ध्रुवम् ॥ पहर पहिले देनेसे शोत ज्वर रुक जाता है। ... दारचिकना, तुत्थ और खपरिया ३-३ टङ्क (नोट-इसे अनुभवी चिकित्सकके अतिरिक्त लेकर ३ दिन तक धतूरेके रसमें घोटकर चनेके | अन्य किसीको प्रयुक्त न करना चाहिए और मात्रा बराबर गोलियां बना लीजिए। समयानुकूल १ चावल या न्यून देनी चाहिए। १ काली मिर्च और सात तुलसीपत्र एकत्र सोमल १ रत्ती मात्रानुसार कदापि न देना चाहिए) पीसकर उसके साथ २ गोली खानेसे तरुण ज्वर, (२१६३) ज्वराङ्कशरसः (७) . विषमज्वर, और जीर्णज्वर अवश्य नष्ट होता है। (र. सा. सं. । ज्वर.) पथ्यमें दूध भात और ग्वांड देनी चाहिए। ताम्रतो द्विगुगं तालं मईयेत्सुषवीद्रवैः । For Private And Personal Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् । द्वितीयो भागः। [३०३ । AAAAAAAAAAAAAmAvne मपुटेद्भधरे शीते वनीक्षी रैर्विमईयेत् ॥ (२१६५) ज्वराङ्कशरसः (९) प्रपुटेधरे पश्चात्पश्चगुञ्जामितं शुभम् । (र. चं.; र. सा. सं.; र. रा. सुं. । ज्वर.) आद्रकस रसेनैव सर्वज्वरनिकृन्तनः ॥ रसस्प द्विगुणं गन्धं गन्धतुल्यं च टङ्कणम् । ऐकाहिकं द्वयाहिकश्च व्याहिकश्चातुराहिकम्। रसतुल्यं विषं योज्यम् मरीचं पश्चधा विषात् ॥ विषमश्चापि शीतादयं ज्वरं हन्ति ज्वराङ्कशः।। कट्फलं दन्तिवीजच प्रत्येक मरिचीन्मितमः । ताम्र भस्म. १ भाग और हरताल भस्म २ ज्वराङ्कशरसो नाम मर्दयेद्याममात्रकम् ।। भाग लेकर दोनोंको करेलेके रसमें घोटकर टिकिया मापैकेन निहन्त्याशु ज्वरं जीण त्रिदोषजम् ॥ बनाकर सुखाकर भूधर यन्त्रमें पकाइये । तत्पश्चात् शुद्र पारा १ भाग, गन्धक २ भाग, सुहागा थोहरके दूधमें धोटकर फिर भूधर पुटकी आंच २ भाग, शुद्ध बछनाग १ भाग तथा काली मिर्च, दें। जब स्वांगशीतल हो जाय तो निकालकर पीस | कायफल और शुद् जमालगोटा ५-५ भाग लेकर लीजिए। प्रथम पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए इसमेंसे ५ रत्ती दवा अद्रकके रसके साथ और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर देनेसे एकाहिक, द्वयाहिक, तृतीयक और चातुर्थि १ पहर तक घोटिए । कादि सर्दी लगकर आने वाले समस्त विषम __इसे १ माषेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे स्वर नष्ट होते हैं। त्रिदोषज जीर्णज्वर अवश्य नष्ट होता है । (२१६४) ज्वराङ्कशरसः (८) (भै.र. । ज्व.) ( अनुपान-अदरकका रस ।) (२१६६) ज्वराङ्कशारसः (अल्प) (१०) शुद्धमू तथा गन्धं वीज कनकसम्भवम् । ( भै.र.;वृ.नि. र. र.रा.सु.।ज्वर. आयु.वि.अ.४ ) महोपत्र टङ्गनश्च हरितालं तथा विष॥ L. शुद्धसूतं विषं गन्धं धूतवीजं त्रिभिः समम् । भृङ्गराजाम्भसा सर्व मर्द पित्वा वटीं चरेत् । चतुर्णा द्विगुगं व्योषं चूणे गुञ्जाद्वयं हितम् ।। गुजाप्रमाणां खादे तां यथादोषानुपानतः॥ । जम्बीरसा च मज्जाभिराईका रसैयुतम् । एर ज्वराङ्कश। नाम्ना विषम ज्वरनाशनः । | बरा शो रसो नाम्नाज्वरान्सर्वान्त्रणाशयेत् ।। ज्वरातिसारं मन्दानि नाशोच्चाविकल्पत ॥ शुद्ध पारा, शुद्र बछनाग और शुद्रः गन्धक शुद्र पारा, शुद् गन्धक, धतूरेके बीज, सी, १-१ भाग, धतूरेके बीज.. ३ भाग, त्रिकुटा सुहागेकी खील, हरताल, और शुद्ध बंछनाग समान (सों ; मिर्च, पीपल ) १२ भाग लेक. प्रथम पारे भाग लेकर मैगरेके रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गन्धककी कजली बना लीजिए, फिर अन्य ओपगोलियां बना लीजिए। धियोंका महीन चूर्ण मिलाकर खरल करके रखिए । इनमेंसे १-१ गोली यथोचित अनुपानके . इसमेंसे २ रत्ती चूर्ण जम्भीरी नीबूकी मजा साथ देनेसे विषमज्वर, ज्वरातिसार और अग्निमांद्यः। अथवा अद्रकके रसके साथ सेवन करनेसे समस्त अवश्य नष्ट होता है। प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । For Private And Personal Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। | जकारादि (२१६७) ज्वराङ्गशो रसः ( ११ ) इसमेंसे १ रत्ती रस पानमें रखकर खिलानेसे (र. प्र. सु. । अ. ८) आठ प्रकारके वर नष्ट होते हैं । सूतगन्धविषकारवीकणा (२१६९) ज्वरान्तकोरस:(भै.र.;धन्वः।ज्वर.) दन्ती वीज मिति वर्धितः क्रमात् । भास्करो गन्धकःसर्वो देवी विहङ्गं तीक्ष्णकम् । मर्दितैश्च दशनिम्बुकद्रवै शोणितं गगनश्चैव पुष्पकश्च महेश्वरम् ।। रक्तिकातुलिता वटी कृता ।। भूनिम्बादिगणैर्भाव्यं मधुना गुटिका दृढा । भक्षिता ज्वरगणानिहन्ति चै चातुर्थिकं तृतीयश्च ज्वरं सन्ततकन्तथा ।। सय एव विनिहन्ति सूचिकाम् ।। आमज्वरं भूतकृतं सर्वज्वरमपोहति ॥ (अत्र सर्वो रसः; देवो सौराष्ट्रमृत्तिका, विहङ्गं पारा १ तोला, गन्धक २ तोले, बछनाग | स्वर्णमाक्षिक, पुष्पकं कासीसं, महेश्वरं कनकवीजं ३ तोले, काली जीरी ४ तोले, पीपल ५ तोले और जमालगोटा ६ तोले लेकर प्रथम पारे गन्धककी अन्यत् सुगमम् । ताम्रादीनां समभागचूर्ण भूनिकजली बना लीजिए, तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका म्बादिकाथेन भावयेत् । भूनिम्बाद्यष्टादशद्रव्याणि चूर्ण मिलाकर दश कागजी नीबूके रसमें घोटकर सर्वद्रव्यतुल्यानि अष्टावशिष्टं काथं कृत्वा दिन आधी आधी रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। त्रयं विभाव्य विशोष्य मधुना विमर्यानुरूपं लिहेत् ।) ___ताम्र भस्म, गन्धक, पारा, सौराष्ट्री, सोनामक्खी इनके सेवनसे सर्व प्रकारके ज्वर और विसू- भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, शिंगरफ, अभ्रक भस्म, चिका अत्यन्त शीघ्र नष्ट होती है। कसीस और धतूरे के बीज समान भाग लेकर प्रथम पारे (२१६८) ज्वराङ्कुशो रसः (१२) | गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् उसमें (वै. क. दु. । ज्वर.) अन्य ओषधियोंका अत्यन्त महीन चूर्ण मिलाकर मरिच टङ्कणं शङ्खचूर्ण पारदगन्धकम् । भूनिम्बादि गणके' काथमें ३ दिन तक घोटकर. शोधितं ब्रह्मपुत्रश्च भागमेकं विनिक्षिपेत् ॥ (१-१ रत्तीकी ) गोलियां बना लीजिए। . . गुञ्जामानं प्रदातव्यं नागवलीदलै सह । इनमेंसे प्रतिदिन प्रातः सायं १-१ गोली. ज्वराङ्कुशो रसो ह्येष ज्वरमष्टविधं जयेत् ॥ शहदके साथ खिलानेसे चातुर्थिक (चौथिया) प्रथम पारे गन्धककी कमली बना लीजिए। तृतीयक (तिजारी) और सन्तत ज्वर तथा आमतत्पश्चात् अन्य औषधियोंका चूर्ण मिलाकर अच्छी ज्वर और भूतज्वरादि समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट तरह खरल करके रखिए । | होते हैं। १-भूनिम्बादि गण-चिरायता, देवदारु, सोठ, नागरमोथा, कुटकी, इन्द्र जौ, धनिया, गजपीपल और दशम्ल । यह सब चीजें समान भाग मिलाकर ताम्रादि समस्त औषधोंके बराबर लें और आठगुनें पानीमें पकाकर आठवां भाग शेष रहने पर छान लें । For Private And Personal Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३०५] (२१७०) ज्वरारिरसः (१) तीत्र विषमज्वर, चातुर्थिक, तृतीयक, द्वयाहिक ( शा. सं. । खं. २, अ. १२) और दैनिक ज्वर नष्ट हो जाते हैं। पारदं रसकं तालं तुत्थं टङ्कणगन्धके । (२१७१) ज्वरारिरसः (२) सर्वमेतत्समं शुद्ध कारवेल्या रसैदिनम् ॥ (धन्वं., भै. र.; र. र. । ज्व. ) मईयेल्लेपयेत्तेन ताम्रपात्रोदरं भिषक। - दरदवलिरसानां शुल्वनागाभ्रकाणाम्। अङ्गुल्यर्धप्रमाणेन ततो रुद्ध्वा च तन्मुखम् ॥ ! सुभगविडशिलानां सर्वमेकत्र योज्यम् । पचेत्तं बालुकायन्त्रे क्षिप्त्वाधान्यानि तन्मुखे। विपिननृपदलोत्थैः भावयेत्शोषयेत्तम् यदा स्फुटति धान्यानि तदा सिद्धं विनिर्दिशेत् ॥ दिवसदशसमाप्तौ वर्तिका कारणीया ।। ततो नयेत स्वाङ्गशीतं ताम्रपात्रोदराद भिषक। एकैकां भक्षयेदस्य आर्द्रकस्य रसैयुताम्। रसं ज्वरारि नामानं विचूप मरिचैःसमम् ॥ । दत्तमात्रो ज्वरं हन्ति ज्वरारिः स निगद्यते । माकं पर्णखण्डेन भक्षयेन्नाशयेज्वरम । सर्वशूलविनाशी च कफपित्तविनाशनः ।। त्रिदिनैर्विषमं तीवमेकद्वित्रिचतुर्थकम् ॥ (सर्व आरग्वधपत्ररसेन दशदिनं भावयित्वा शुद्ध पारा, शुद्ध खपरिया, शुद्र हरताल, गुञ्जाप्रमाणमाईकरसेन देयम् ।) शुद्ध तुत्थ, सुहागेकी खील, और शुद्ध आमलासार शुद्ध शिंगरफ, गन्धक, पारा, ताम्रभस्म, गन्धक समान भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर सीसा भस्म, अभ्रक भस्म, सुहागेकी खील, विडकजली बना लीजिए और फिर उसे १ दिन नमक और शुद्ध मैनसिल समान भाग लेकर प्रथम करेलेके रसमें घोटकर पीठी (लुगदी) बना लीजिए; पारे गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य और तांबेके पात्रमें इसका आधा अंगुल मोटा लेप ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर दस दिन तक अमलतासके पत्तोंके रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी करके उसके मुखपर शराव ढककर सन्धिको गोलियां बनाकर सुखाकर रखिए । अच्छी तरह बन्द कर दीजिए. और फिर इसे . इनमेंसे प्रतिदिन प्रातः सायं १-१ गोली बालकायन्त्रमें पकाइये। । अद्रकके रसके साथ देनेसे ज्वर तुरन्त नष्ट हो जब बालुकायन्त्रके रेत पर धान इत्यादि जाता है। इसके अतिरिक्त यह ' ज्वरारि रस' डालनेसे उसकी खील हो जायं तो अग्नि लगानी सर्व प्रकारके शूल और कफ तथा पित्तको भी बन्द कर दीजिए और यन्त्रके स्वांगशीतल होने शान्त करता है। पर ताम्रपात्रमेंसे रसको निकाल कर पीस कर रख (२१७२) ज्वरारिरसः (३) लीजिए। (र. चं.; र. रा. सुं. । ज्व. ) इसमेंसे १ रत्ती रस १ माशा मरिचके रसगन्धककासीसत्यूषणातिविषाऽभयाः। चूर्णके साथ पानमें रखकर खिलानेसे ३ दिनमें चम्पकत्वक् च सर्वाणि यवतिक्तारसैदिनम् ।। १ शुद्धनागाभ्रकाणामिति पाठान्तरम् । मा० ३९ For Private And Personal Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३०६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि मर्दयित्वा वटी कार्या रक्तिकाद्वयसम्मिता। शीतल होने पर ऊपरकी हांडीमें लगे हुए संख्याके आईकस्वरसेनाऽथ दापयेज्ज्वरशान्तये ॥ फूलको तो जुदा निकाल ले और नीचेकी हांडीके रसैर्वा बहुमंजर्याः केवलेन जलेन वा। तलमें जमी हुई फटकिरीकी खील और उससे दो नवज्वरं महाघोरं वातपित्तकफोद्भवम् ॥ दो गुनी छोटी पीपल और काली मिरचको कूट सोपद्रवं त्रिदोषाख्यं जीर्णश्च विषमज्वरम् । कपड़छन करके तीनो चीजोंको घृतकुमारीके रसमें ज्वरारिरसनामा सौ नाशयेनात्र संशयः॥ : खूब घोटकर मुंगके समान गोली बनाकर सुखाले । पारा, गन्धक, कसीस, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, ज्वर वाले रोगीको एक एक गोली प्रातःकाल तथा पीपल ), अतीस, हर्र और चम्पककी छाल समान सायंकाल पानीसे साबुत निगलवा दें । यह ज्वरारि भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना | रस दो तीन दिन में चरको निकालकर सुखी कर लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला- देता है । इस योगमें जो संखिया डाला जाता है कर एक दिन तितलीके रसमें घोटकर २-२ उसको नीम्बूके रसमें या घृतकुमारीके रसमें घोट रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। कर शुद्ध करले बाद फिटकिरीमें मिलावे और इनमेंसे १-१ गोली अद्रकके रस, तुलसी- ऊपरकी हाड़ीमें लगे हुए संख्याके फूलको १ पत्रके रस अथवा पानीके साथ देनेसे घोर नवीन शीशीमें रख छोड़े, और उसकी भी समभाग ज्वर, वातज पित्तज और कफज ज्वर, उपद्रव । तम्बाकू तथा कालीमिर्च मिलाकर ज्वरवटी बनाले। सहित सन्निपात, जीर्णज्वर तथा विषमज्वरका (मूल ग्रन्थसे ) नाश होता है। (२१७४) ज्वरारिरसः (५) (र.प्र.सु.।अ.८) (२१७३) ज्वरारिरसः (४)(रसायनसार । चि.) ___ मूतं गन्धं हिङ्गलं दन्तिवीज खट्वाङ्गयन्त्रेण समुद्धते द्वे ___ भागैर्वृद्धं कारयेच्च क्रमेण । __ मल्लस्फटीतुल्यतया गृहीते ।। चूर्ण कृत्वा मर्दितं दन्तितोये कृष्णोषणे तद्विगुणे स्फटीं तां ___ गुञ्जामात्र भक्षितं जूर्तिहारि ।। ___ कन्याद्रवै श्लक्ष्णतरं विमर्थ ।। शुद्र पारा ४ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, वटीविधायाथ ददीत मुद्गमानां शुद्ध हिंगुल ( शिंगरफ) ३ भाग और शुद्ध द्विसन्ध्यं ज्वरिताय चैकाम् । जमाल गोटा ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी जलानुपानेन रसो ज्वरारि--- कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य दोनों ओष निरस्य रोगं सुखितं करोति ॥ धियां मिलाकर दन्तीमूलके 'रसमें घोटकर १-१ अर्थ--आध पाव संखिया विष, आध पाव रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । गुलाबी फटकरी, दोनोंको खरलमें घोटकर डमरू : ___ इनके सेवनसे ज्वर नष्ट होता है । यन्त्रमें रखकर चार पहरकी अग्नि दे यन्त्रके स्वाङ्ग ( अनुपान-शीतल जल । ) For Private And Personal Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३०७] ( नोट—यह रस विरेचक है । गर्भिणीको | वातज ज्वर, पित्तज ज्वर, कफज ज्वर, सन्निपात, न देना चाहिए ।) विषमज्वर, धातुगत विषमज्वर, प्लीहा, यकृत् , (२१७५) ज्वरार्यगदः ( र. का.धे. । अ.१) गुल्म, अग्रमांस, शोथ, हिचकी, श्वास, खांसी, विषद्वयश्च नैपालं तुत्थकोषणसादरम् । अग्निमांद्य और अरुचि अवश्य नष्ट हो जाती है । स्वर्जीक्षारसमायुक्तमगदोऽयं ज्वरशल्यजित् ॥ (२१७७) ज्वराशनिरसः शुद्ध बछनाग १ भाग, जमाल गोटा, तुत्थ, (र. सा. सं.; भै. र.; र. चं.; धन्व. । ज्वर.) मरिच, नौसादर और सज्जीक्षार १-१ भाग लेकर रसं गन्धं सैन्धवश्च विषं तानं समांशिकम् । खरल करके रखिए। सर्वचूर्णसमं लौह तत्समं शुद्धमभ्रकम् ॥ इसके सेवनसे ज्वर नष्ट होता है । ( मात्रा लौहे च लौहदण्डेन निर्गुण्डीस्वरसेन च । २ रत्ती । अनुपान अद्रकका रस, या शहद । ) मर्दयेद्यत्नतःपश्चान्मरिचं मूततुल्यकम् ॥ (२१७६) ज्वरार्यभ्रम् । नागवल्ल्या दलेनैव दातव्यो रक्तिसम्मितः। (र. चं.; र. सा.सं.; र. रा. सुं.; भै. र. । ज्व.) सर्वज्वरहर श्रेष्ठो ज्वरान्हन्ति सुदारुणान् ॥ अभं तानं रसं गन्धं विषञ्चैव समं समम् । कासं श्वासं महाघोरं विषमाख्यं ज्वरं वमिम्। द्विगुणं धुर्तवीजश्च व्योषं पञ्चगुणं मतम् ॥ धातुस्थं परमं दाहं ज्वरं दोषत्रयोद्भवम् । आईकस्य रसेनैव वटी कार्या द्विगुञ्जिका। पारा, गन्धक, सेंधा, बछनाग और ताम्र अनुपानं प्रयोक्तव्यं यथादोषानुसारतः ॥ भस्म १-१ भाग, लोह भस्म ५ भाग और अभ्रक अभ्रं ज्वरारिनामेदं सर्वज्वरविनाशनम् । भस्म १० भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की वातिकं पैत्तिकञ्चैव श्लैष्मिकं सानिपातिकम् ।। कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका विषमाख्यां ज्वरान्सर्वान्धातुस्थान्विषमज्वरान् महीन चूर्ण मिलाकर लोहेके खरलमें लोहे की प्लीहानं यकृतं गुल्ममग्रमांसं सशोथकम् ॥ मूसलीसे संभालके रसमें घोटकर उसमें १ भाग हिक्कां श्वासं च कासश्च मन्दानलमरोचकम् ।। | कृष्णमरिचका चूर्ण मिलाकर १-१ रत्ती की ' गोलियां बना लीजिए। नाशयेन्नात्र सन्देहो वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा॥ इनमेंसे एक एक गोली पानमें रखकर देनेसे ___अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, पारा, गन्धक और । सर्व प्रकारके ज्वर, विशेषतः विषमज्वर, खांसी, बछंनाग एक एक भाग तथा धतूरेके बीज २ भाग श्वास, वमन और दाहयुक्त धातुगत ज्वर नष्ट और त्रिकुटा ५ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | होता है। कजली बना लीजिए, तत्पश्चात् अन्य औषधोंका। । (२१७८) ज्वरभसिंहो रसः महीन चूर्ण मिलाकर अद्रकके रसमें घोटकर २-२ (रस. का. धे. । अधि. १) रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। पारदं मरिचं शोषं शङ्खभस्म विषं समम् । इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे जयपालं तथा गन्धं त्रिभागं मर्दयेद् दिनम् ।। For Private And Personal Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [जकारादि wwwvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv जयायाःस्वरसेनैव दद्याद् गुञ्जाद्वयं भिषक् ।। इसमें से १ रत्ती दवा ६ माशे मिश्रीमें कफवातज्वरं तीव्र हन्याद्रोगांश्च तत्क्षणात्॥ | मिलाकर अदरक के रसके साथ देनेसे ज्वर नष्ट हृद्रोगमामवातश्च शूलं शीतं ज्वरं दृढम् ।। | होता है। विसूचिकां च मान्यश्च जयेद्रोगानुपानतः॥ | यदि दाहादि पित्तविकार उत्पन्न हो तो यथा दानववृन्दानां नरसिंहो भयावहः। शरीर पर तिल तैलकी मालिश करके ठण्डे जलसे तद्वज्ज्वरेभसिंहोऽयं कफवातनिवारणः॥ स्नान करना तथा अन्य शीतोपचार करने चाहिएं। पारा, कृष्णमरिच, समन्दरसोख, शंखभस्म (२१८०) ज्वालानलरसः और शुद्ध बछनाग १-१ भाग तथा जमाल गोटा (र. का. धे. । अ. १३; र. सा. सं.। अजी.) और गन्धक ३-३ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की कजली बना लीजिए फिर उसमें अन्य क्षारत्रयं मूतगन्धौ पञ्चकोलमिदं समम् । ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर १ दिन भांगके रसमें सर्वतुल्या जया भ्रष्टा तदर्धा शिग्रुजा जटा। घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। एतत्सर्वं जयाशिवह्निमार्कवजैवैः। . उन्हें यथोचित अनुपान के साथ सेवन करने भावयेत् त्रिदिनं धर्मे ततो लघुपुटे क्षिपेत् ॥ से कफवातज्वर, हृद्रोग, आमवात, शूल, शीतज्वर, सप्तधाऽऽद्रवैर्घष्टो रसो ज्वालानलो भवेत्। विसूचिका और अग्निमांद्यका नाश होता है। निष्कोऽस्य मधुना लीढो ऽनुपानं गुडनागरम्॥ जिस प्रकार दानवोंके लिए नरसिंह भयावह हन्त्यजीर्णमतीसारं ग्रहणीमग्निमार्दवम् ।। हैं ऐसे ही इसके सामने वातज और कफज रोग ! श्लेष्महल्लासवमनमालस्यमरुचि जवात् ॥ थर्राते हैं। सज्जीखार, जवाखार, सुहागा, पारा, गन्धक, (२१७९) ज्वरेभसिंहरसः (र. का.धे.। अ. १) पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ। एक एक पारदं गन्धकं तानं विषं तुल्यं विमर्दयेत् । भाग तथा इन सबके बराबर (धीमें ) भुनी हुई शेफालिकास्वरसतो भावयेदातपे दृढे ॥ भांग और भांगसे आधी सहजनेकी जड़की छाल शृङ्गवेराम्बुना तद्वद्भावितं सिद्धिमाप्नुयात् ।। लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए गुब्जैकं ससितं दद्याच्छृङ्गवेराम्बुना भिषक ।। तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको अभ्यङ्गस्तिलतैलेन कृत्वा स्नानं हिमोदकैः।। ३-३ दिन भांग, सहजना चीता और भंगरेके पित्तरोगे तथोष्णेन विदध्यात्पयसा ततः ॥ । रसकी धूपमें भावना देकर उसका एक गोला बना तत्तच्छीतोपचारैस्तु हन्यात्तत्तदुपद्रवान् ॥ लीजिए और उसे सम्पुट में बन्द करके लघुपुट में पारा, गन्धक, ताम्रभस्म और बछनाग समान | फूंक दीजिए। तत्पश्चात् उसे निकालकर अद्रक के भाग लेकर कजली करके १-१ दिन हार | रसकी सात भावनाएं दीजिए। सिंगार और अदरक के रसमें घोटकर धूपमें इसमेंसे ५-५ माशे दवा शहद के साथ सुखा लें। चाटकर ऊपरसे सोंठ के चूर्ण को गुड़में मिलाकर For Private And Personal Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३०९] खानेसे अजीर्ण, अतिसार, ग्रहणी, अग्निमांद्य, कफ, | ज्वालालिङ्गो रसो नाम त्रिदोषां ग्रहणीञ्जयेत्। हृल्लास ( जी मिचलाना ), वमन, आलस्य और निहन्ति ग्रहणीरोगं साध्यासाध्यं न संशयः॥ अरुचिका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है। रस सिन्दूर, सोनेकी भस्म, मरिचका चूर्ण (व्यवहारिक मात्रा-आधा माषा) और तुत्थ भस्म समान भाग लेकर सबको ज्वाला(२१८१) ज्वालालिङ्गरसः मुखी, चीता और जलमुण्डी के रसमें एक एक (र. का. धे. । अ. १; र. रा. सुं. । उत्तर.) | दिन घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। शुद्धं मूतं मृतं स्वर्ण मरिचं तुत्थकं समम्। इनमेंसे १-१ गोली खाकर ऊपरसे १ तोला ज्वालामुख्यमिजैवर्जलमुण्डितिकाद्रवैः ।। चीतेकी जड़को तक्रमें पीसकर पीनेसे त्रिदोषज दिनैकं मर्दयेत्खल्वे गुञ्जामानं च भक्षयेत्।। | संग्रहणी नष्ट होती है। ज्वालालिङ्गो रसो नाम त्रिदोषेदीयते सदा॥ ककं वहिमूलन्तु तक्रेण च पिबेदनु॥ इति जकारादिरसप्रकरणम् । अथ जकारादिकल्पप्रकरणम् । (२१८२) ज्योतिष्मतीकल्पः बनस्पति है; इसकी लता पीले रंगकी होती है (र. र. स. । उ. खं. अ. २६) और उसपर सुन्दर पीले रंगके ही फल आते हैं । ज्योतिष्मती नामलता पीता पीतफलोज्ज्वला। अषाढके प्रथम पक्षमें उसके उत्तम बीज आषाढे पूर्वपक्षे स्याद् गृहीत्वा वीजमुत्तमम् ।। लेकर तिलोंकी भांति उन्हें कोल्हूमें पिलवा कर आहरेत्तिलवत्तैलं मुष्टिना वापि तत्पचेत् । अथवा कूटकर मुट्ठीसे निचोड़कर उनका तेल निकक्षीरतुल्यं चतुर्थशमाक्षिकं तैलशेपितम् ॥ लवाना चाहिए । इस तैलको समान भाग दूध ततस्तत्कोलकर्पूरत्वग्जातीफलमिश्रितम्। । और चतुर्थांश मधुमें मिलाकर तैलमात्र शेष रहने स्निग्धभाण्डगतं धान्येष्वनुगुप्तं निधापयेत् ॥ तक मन्दाग्नि पर पकाइये और फिर उसमें थोड़ा पिबेत्सूर्योदये तैलात्पलं याति विसंज्ञताम्। थोड़ा कंकोल, कपूर, दारचीनी और जायफल ततः संज्ञां शनैर्लब्ध्वा ततःक्रन्दति रोदिति॥ का चूर्ण मिलाकर मिट्टीके चिकने पात्रमें ( अथवा एवं मासे श्रुतधरः परस्मिन्सूर्यसनिमः। कांच या चीनी आदिकी बरनीमें ) भरकर मुख तृतीये पूज्यते देवैश्चतुर्थे नैव दृश्यते ॥ बन्द करके अनाजके ढेर में दबा दीजिए। (२१ खेचरःपञ्चमे षष्ठे सिद्धैमिलति सप्तमे। दिन पश्चात् निकालकर' काममें लाइये ।) विष्णोसमदिन जीवेज्जीवनमुक्तोऽष्टमे भवेत्॥ इसमेंसे ५ तोले तैल सूर्योदयके समय पीना __ ज्योतिष्मती (माल कंगनी) लता जाति की । चाहिए । इसके पीनेसे मनुष्य बेहोश हो जाता For Private And Personal Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३१] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [जकारादि है और जब होशमें आता है तो बेचैनीके मारे | अपना पूज्य मानने लगते हैं। चौथे मासमें उसका चिल्लाता और रोता है। जब तक तैल सात्म्य शरीर अदृश्य हो जाता है अर्थात् उसे अन्य मनुनहीं होजाता तबतक नित्य यही दशा होती है। | प्य नहीं देख सकते । पांचवें मासमें आकाशइस प्रकार इस तेलको १ मास पर्यन्त सेवन करने गमनकी शक्ति प्राप्त हो जाती है, छठे मासमें सिद्धपुरुषोंसे भेंट होती है। सात मास तक सेवन से मनुष्य श्रुतधर हो जाता है अर्थात् वह जो करनेसे विष्णुके एकदिनके समान आयु प्राप्त होती कुछ सुनता है वह उसे कण्ठस्थ हो जाता है। है और यदि आठ मास तक इसका सेवन किया दो मास सेवन करनेसे सूर्य समान कान्ति हो जाती | जाय तो मनुष्य जीवनमुक्त हो जाता है। है। तीन मास सेवन करनेसे उसे देवता भी । इति जकारादिकल्पप्रकरणम् अथ जकारादिमिश्रप्रकरणम् (२१८३) जम्बीरद्रावः (यो. चि. । मिश्रा.) | चिकने मटकेमें भरकर उसका मुंह बन्द करके शतं च जम्बीररसं रामठं च पलद्वयम्। घोड़ेकी लीदमें दबा दीजिए; और २१ दिन सैन्धवं च विडङ्गश्च पृथक् दत्त्वा पलं पलम् ॥ पश्चात् निकालकर छानकर बोतलों में भरकर कार्क त्र्यूषणं पलमेकैकं सौवर्चल चतुष्टयम् । लगाकर रख दीजिए। यवानीका पलं चैकं सर्षपानां चतुष्टयम्॥ इसके सेवनसे यकृतोग, प्लीहा (तिल्ली) स्निग्धभाण्डे विनिक्षिप्य अश्वशालां निधापयेत् गुल्म, आम, विद्रधि, अष्टीला, और विशेषतः वात एकविंशदिनं यावत्ततः सर्व समुद्धरेत् ॥ गुल्म तथा शूल, अतिसार, पसलीका दर्द, हृच्छूल, सुचन्द्रे सुदिने लोके पूजयित्वा भिषग्गुरून् । नाभिशूल, कब्ज, अफारा और अन्य उदरविकार यकृत्प्लीहामगुल्मे च विद्रध्यष्ठीलिकादयः॥ तथा वातज और कफज रोग नष्ट होते हैं। वातगुल्ममतीसारं शूलं पाचहृदामयम् । (मात्रा-६ माशे । पानीमें मिलाकर पीना चाहिए।) नाभिशूलं विबन्धे च आध्मानश्च गदोदरम् ॥ नश्यन्ति तस्य शीघ्रण वातश्लेष्मामयाश्च ये । (२१८४) जलतैलप्रयोगः (वै. म. । प. ६) जीर्यन्ते तस्य कोष्ठे तु जम्बीरीद्रवसेवनात् ॥ पूर्वयुरानीतसुरक्षितं जलं प्रभातकाले प्रपिबेत्सतैलम् । जम्बीरी नीबूका रस १०० पल (६। सेर), . चिरन्तनं द्राक् शमयेत् सुघोरं हींग २ पल, सेंधानमक, बायबिडंग, सोंठ, मिर्च । प्रवाहणं रक्तकफान्वितश्च ॥ और पीपल १-१ पल (५-५ तोले), सौवर्चल पहिले दिनके रक्खे हुवे बासी पानी को (कालानमक) चार पल,अजवायन १ पल,और सरसों प्रातःकाल तैलमें मिलाकर पीनेसे पुराना रक्तातिसार ४ पल लेकर कूटने योग्य चीजोंको कुटवा कर सबको | और कफातिसार अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है। For Private And Personal Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३११] - - (प्र. वि. तैल १ तो. पानी ८ तो. लेना | रात्रि बीतने पर (ब्राह्म मुहूर्तमें ) जलपान चाहिए)। करनेसे खांसी, श्वास, अतिसार, ज्वर, पिडिका, (२१८५) जलधाराप्रयोगः (भा.प्र.म.खं.ज्वर.) कटिशूल, कुष्ट, मेद, मूत्राधात, उदररोग, अर्श (बवासीर) शोथ, गले या शिरसे स्राव होना उत्तानसुप्तस्य गभीरताम्रकांस्यादिपात्रे निहितश्च नाभौ।। (नज़ला और जुकाम) शिरशूल, गलेका दर्द, नेत्र शीताम्बुधारा बहुला पतन्ती | रोग, तथा अन्य वातज, पित्तज, कफज और श्रम जनित रोग नष्ट होते हैं । निहन्ति दाहं त्वरितं ज्वरश्च॥ रोगीको सीधा लिटाकर उसकी नाभि पर (लगभग १ शेर पानी पी लेना चाहिए।) ताम्र वा कांसीका खूब गहरा पात्र रखकर उसमें | (२१८८) जलप्रयोगः (वं. से. । रसा.) (कुछ देर तक) शीतल जलकी धारा छोडनेसे ज्वर विगतघननिशीथे प्रातरुत्थाय नित्यम् । और उसका सन्ताप नष्ट होता है। पिबति खलु नरो यो वाणरन्ध्रेण वारि ॥ (२१८६) जलनस्यम् (वं. से. । रसाय.) । स भवति मतिपूर्णश्चक्षुषा तायतुल्यो। बलिपलितविहीनस्सर्वरोगैविमुक्तः॥ व्यङ्गबलीपलितघ्नं पीनसवैस्वर्यकासशोथघ्नम्। रात्रि बीतने पर (ब्राह्म मुहूर्तमें) नित्य प्रति रजनीक्षयेम्बुनस्य रसायनं दृष्टिजननश्च ॥ नासिका द्वारा जलपान करनेसे बुद्धि और दृष्टिकी रात्रि बीतने पर (ब्राह्म महूर्तमें) पानीकी नस्य वृद्धि तथा बलिपलित और अन्य समस्त रोगोंका लेनेसे व्यङ्ग (चेहरेकी झाई), बलि (झुरीं) पलित, । नाश होता है। पीनस, वैस्वर्य (आवाजका खराब होना), खांसी १२१ | (२१८९) जलमजनमृतप्रतीकारः और श्वासका नाश होता तथा दृष्टि बढ़ती है। (वै. म. । प. । १७) यह रसायन प्रयोग है। वारिमज्जनमृतस्य विग्रह (२१८७) जलप्रयोगः (वं. से. । रसा.) तिन्तडीदलरसेन सेचितम् । कासश्वासातिसारज्वरपिटक आतपे धृतमथास्य चेन्द्रियेकटीकुष्ठमेदोविकारान। वाशु जीवितमवाप्नुयाधुवम् ॥ मूत्रघातोदराशेः श्वयथु पानीमें डूबकर मरे हुवे (अचेत हुवे) मनुगलशिरःस्रावशूलाक्षिरोगान् ।। ष्यके शरीरको तिन्तडीकके पत्तोंके रससे सेचन ये चान्ये वातपित्तश्रमजकफ--- करके धूपमें लिटा देनेसे शीघ्र ही चेत हो जाता है। • कृता व्याधयःसन्ति जन्तोः। (२१९०) जातीपत्रयोगः (ग. नि.। मुख.) तांस्तानभ्यासयोगादपन सञ्चवितैर्वतधृतैःप्रशान्ति यतिपयः पीतमन्ते निशायाः॥ बक्तामयो गच्छति जातिपत्रैः। For Private And Personal Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । जकारादि दन्तास्तु वीजैर्बकुलद्रुमस्य पिष्ट्वा तैलं घृतं क्षीरे साधयेच्चतुर्गुणे ॥ स्थानच्युताऽप्यचला भवन्ति ॥ वृंहणं वातपित्तनं बलशुक्राग्निवर्द्धनम् । चमेलीके पत्तोंको चबानेसे मुखरोग नष्ट होते मूत्ररेतोरजोदोषान् हरेत्तदनुवासनम् ।। हैं और मौलसिरीके बीजोंको चबानेसे स्थानच्युत जीवन्ती, मयनफल, मेदा, मुण्डी, मुलैठी, (जड़ छोड़े हुवे) दांत भी जम जाते हैं । खरैटी, सौंफ, ऋषभक, पीपल, कांकनासा, शतावर, (२१९१) जात्यादिवत्तिः कौं चके बीज, क्षीरकाकोली, काकड़ासिंगी, कचूर (. मा.;भा. प्र.; वं. से. । नाटी व.) । और बच । सबको पीसकर क क बना लीजिए । जात्यर्कशम्पाककरञ्जदन्ती इस कल्क के साथ इससे ४ गुना धी या तैल सिन्धुत्थसौवर्चलयावशूकैः । । और उससे ४ गुना दूध एकत्र मिलाकर पकाइये । वर्तिः कृता हन्त्यचिरेण नाडी स्नुकक्षीरपिष्टा सह चित्रकेण ।। इस स्नेहकी अनुवासन बस्ति लेनेसे मूत्र चमेलीके पत्ते, अर्क (आक) के पत्ते या जड़ विकार, शुक्रदोष और वातज तथा पित्तज रोग नष्ट होते और बल वीर्य तथा अग्निकी वृद्धि अमलतासके पत्ते, करञ्ज, दन्ती, सेंधा, सौवर्चल (काला नमक), जवाखार, और चीतेको सेहुंडके होती है। दूधमें पीसकर उसमें कपड़ा भिगोकर उसकी बत्ती | (२१९४) ज्योतिष्मतीरसायनम् बनाकर नासूरके भीतर लगानेसे नासूर अत्यन्त (र. र. स. । उ. ख. अ. २६) शीघ्र भर जाता है। (२१९२) जालिनीफलवतिः ज्योतिष्मत्त्यास्तैलमाज्यं सगन्धम् (रा. मा. । अर्श. १८) गुञ्जाद्धया सेवयेन्मासमात्रम् । यत्नेन वतिरथवा गमिता गुदेन । यावच्च स्थावस्तु स प्राप्य मूर्तिया जालिनीफलरजोगुडसम्पयुक्ता। मेंधायुक्तो दिव्यदृष्टिर्नियक्ष्मा ॥ कड़वी तूंबी ( अथवा विन्दाल) के फलके ___ ज्योतिष्मती (मालकंगनी ) का तैल, धी चूर्णको गुड़में मिलाकर उसकी बत्ती बनाकर गुदामें और शुद्ध आमलासार गन्धक समान भाग लेकर रखनेसे अर्श नष्ट होती है। एकत्र मिलाकर एक रत्तीकी मात्रासे सेवन करना (२१९३) जीवन्त्याद्यनुवासनम् आरम्भ करें और प्रतिदिन एक एक रत्ती मात्रा (च. सं. । चि. । अ. ४) बढ़ाते जाएं। जीवन्ती मदनं मेदां श्रावणी मधुकं बलाम् । इस प्रकार १ मास तक सेवन करें। इस शतावर्षभको कृष्णां काकनासां शतावरीम् ॥ प्रयोगसे मेधावृद्धि होती है, दृष्टि दिव्य हो जाती स्वगुप्तां क्षीरकाकोली कर्कटाख्यां शटी वचाम्। है तथा यक्ष्मा रोग नष्ट होता है । For Private And Personal Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३१३] vvvvvvvvvvvvvunnyvvvvvvvanA (२१९५) ज्वरनाशकवस्तिः सेहुंड ( थोहर ) के दूधमें समान भाग सेंधा (च. सं. । चि. अ. ३) | नमक मिलाकर अग्नि पर पकाकर गाढ़ा कर पटोलारिष्टपत्राणि सोशीरश्चतुरङ्गलः। लीजिए। हीवेरं रौहिणं तिक्ता श्वदंष्ट्रा मदनानि च ॥ । इसमें से २ वल्ल (४ या ६ रत्ती ) औषध स्थिरा बला च तत् सर्व पयस्यद्धोदके शतम्। | उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे विरेचन होकर क्षीरावशेष नि!हं संयुक्तमधुसर्पिषा ॥ ज्वर नष्ट हो जाता है। कल्कैर्मदनमुस्तानां पिप्पल्या मधुकस्य च ।। (२१९७) ज्वरहरी वस्तिः वत्सकस्य च संयुक्तं वस्ति दद्यात् ज्वरापहम् ।। (च. सं. । चि. स्था. अ. ३ ) पटोलपत्र, नीमके पत्ते, खस, अमलतासका जीवन्ती मधुकं मेदां पिप्पली मरिचं वचाम् । गूदा, सुगन्धबाला, कुटकी, गोखरु, मयनफल, ऋद्धिं रास्नांबलां विश्वं शतपुष्पां शतावरीम् ॥ शालपर्णी, और खरैटी । सब चीजें समान भाग पिष्टवा क्षीरञ्जलं सर्पिस्तैलश्च विपचेद् भिषक् । लेकर कूटकर उनमें सबसे चार गुना दूध और आनुवासनिकं स्नेहमेतद् विद्याज्ज्वरापहम् ॥ उतना ही पानी मिलाकर पकाइये । जब दूध मात्र जीवन्ती, मुलैठी, मेदा, पीपल, स्याह मिर्च, शेष रह जाय तो उतारकर छान लीजिए। बच, ऋद्धि, रास्ना, खरैटी, सोंठ, सौंफ और इस दूधमें घी और शहद तथा मैनफल, शतावर । सब चीजें समान भाग लेकर पीस मोथा, पीपल, मुलैठी और इन्द्रजौका कल्क लीजिए । इस कल्क और दूध तथा पानीके साथ घृत और तैल पका लीजिए।। मिलाकर वस्ति देनेसे ज्वर नष्ट होता है। इस स्नेहकी वस्ति लेनेसे ज्वर नष्ट होता है। (२१९६) ज्वरनाशनो विरेका __ (विधिः-कल्क १ भाग, घी २ भाग, (र. स. क. । उ. ५) | तैल २ भाग, दूध ८ भाग, पानी ८ भाग । एकत्र सैन्धवेन युतं वनक्षीरमग्निविपाचितम् । मिलाकर स्नेह मात्र शेष रहने तक पकावें । द्विवल्लमुष्णकैःपीतं विरेकाज्ज्वरनाशनम् ॥ । इति जकारादिमिश्रप्रकरणम् । भा... For Private And Personal Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ३१४ ] www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । ट Boocod अथ टकारादि चूर्ण प्रकरणम् (२१९८) टङ्कणप्रयोगः ( वं. से. । क्षु. ) कोटिप्रविष्टेन टङ्कणेन न शाम्यति । कुनखश्चेत्तदा भ्रान्तः शैलोपि लवते जले || सुहागेकी खीलको नाखूनके नीचे भरने से ( अथवा घी में मिलाकर लगानेसे ) कुनखं रोग अवश्य नष्ट होता है । (२१९९) टङ्गनादिचूर्णम् (आ.वे. वि. | योनि . ) टङ्गनं पञ्चवणं तुगाक्षीरीं शिलाजतु । नागरं मुस्तकं वह्नि पद्मकं नीलमुत्पलम् ।। जीवन्तीं मधुकं द्राक्षां गुडूचीं चन्दनद्वयम् । चूर्णयित्वाम्भसा नारी पिबेत् कण्डूमशान्तये ।। योनिकण्डूगदे योनौ शीततोयाभिषेचनम् । स्नेहस्वेदश्च कर्तव्यो वस्तिश्चोत्तरसंज्ञितः ॥ सुहागा, पांचों लवण, बंसलोचन, शिलाजीत, सोंठ, नागरमोथा, चीता, पद्माख, नीलो पल ( नीलोफर ), जीवन्ती, मुलैठी, मुनक्का, गिलोय, लाल चन्दन और सफेद चन्दन । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए । इसे ठण्डे पानी के साथ पीने से योनिकी खुजली शान्त होती है । योनिकी खाजको शान्त करनेके | लिए, योनिको ठण्डे पानीसे धोना तथा स्नेहन | स्वेदन और उत्तरवस्ति करानी चाहिए । इतिटकारादिचूर्ण प्रकरणम् । अथ टकाराद्यञ्जन त्रकरणम् (२२००) टङ्कणाद्यञ्जनम् ( र. र. | ने. ) टगं रस पिवा जम्बीरैः कांस्त्रभाजने । परमरोगहरं कण्डं रक्तत्रावञ्च नाशयेत् ॥ समान भाग सुहागेकी खील और खपरिया ( अभा में जत भस्म ) को नीबू के रस में कोसीके पात्र में पीलर महीन कर लीजिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसका अञ्जन करनेसे नेत्रों की पलकों के रोग, खुजली और रक्तस्रावका नाश होता है । इति टारायजनन करणन् । दि अथ टकारादिरसत्रकरणम् (२२०१) टङ्गनादिवटी ( भै. र. र. रा. सुं. । अग्निमां. ) टङ्गननागरगन्ध कपारद गरले मरिच समभागयुतम् । लकुचस्त्र सैश्वण इनतिमा गुटिका जनयत्यचिरादनलम् ॥ शुद्र सुहागेकी खील, सोंड, गन्धक, शुद्ध पारद, मीठा तेलिया और स्याह मिर्चका चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर १- नखके नीचेका मांस कठोर हो जाना तथा उसमें दाह होना । For Private And Personal Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३१५] NAWwwvoriwww लकुच ( बढ़ल )के स्वरसमें धोटकर चनेके बराबर सुहागा अग्निवर्द्धक और स्वर्ण तथा चांदीको गोलियां बना लीजिए। शुद्ध करने वाला है। तथा विषके दोषोंको नष्ट इनके सेवनसे अग्निकी वृद्धि अत्यन्त शीघ्र करने वाला, हृद्य ( हृदयके लिए हितकारी) और होती है। वात कफनाशक है। ( मात्रा-२-३ गोली । अनुपाल उष्ण एक दूसरे प्रकारका टङ्कण भी होता है जल या अद्रकका रस ।) | जिसमें कुछ नीली झलक होती है। उसे नीलकण्ठ इति टकारादिरसप्रकरणम् । टङ्कण कहते हैं । यह गुणोंमें पहिले प्रकारसे श्रेष्ठ होता है । इसको शोधनविधि भी पहिलेके समान... अथ टकारादिमिश्रप्रकरणम् । (२२०२) टङ्कणक्षारः (आ. वे. प्र.अ. ८) (२२०३) टङ्कणशोधनम् (शा.सं.खं.२अ.११) सौभाग्यं टङ्कणक्षारो धातुद्रावकमुच्यते । जीलाञ्जनं चूर्णयित्वा जम्बीरद्रवभावितम् । टङ्कणोऽनिकरो रूक्षः कफनो वात.पेत्तकृत् ॥ दिनैकमातपे शुद्धं भवेत्कार्येषु योजयेत् ।। अशुद्धष्टङ्कणो वान्तिभ्रान्तिकारी प्रयोजितः । एवं गैरिकं कासीसं टङ्कणानि वराटिका । अतस्तं शोधयेदेव वहावु फुल्लितःशुचिः॥ तुवरीशङ्खकङ्कुष्ठं शुद्धिमायाति निश्चितम् ।। नीलाञ्जनके चूर्णको एक दिन जम्बीरी टङ्कणो वहिकृत्स्वर्णरूप्ययोः शोधनः परः। नीबूके रसमें घोटकर धूपमें सुखानेसे वह शुद्ध विषदोषहरो हृयो वातश्लेप्मविकारन्त ॥ और कार्योपयोगी हो जाता है। अपरो नीलकण्ठाख्यष्टङ्कण पूर्वटङ्कगात् । गेरु, कसीस, मुहागा कौड़ी, फिटकी, शङ्ख श्रेष्ठो नीलच्छवि:किञ्चिच्छोधनं तस्य पूर्ववत् । और कंकुष्ठकी शुद्धि भी इसी प्रकार होती है । टङ्कणको सौभाग्य (सुहागा ) टङ्कणक्षार (२२०४) टङ्कणशोधनम् (र.सा.सं.।उपरसा.) और धातुद्रावक कहते हैं। आदौ टङ्कणमादाय काञ्जिकाम्ले विनिक्षिपेत् । सुहागा अग्निवर्द्धक, रूक्ष, कफनाशक और एकरात्रात् समुदृत्य शोषयेद्वै निरातपे ॥ वातपित्तवर्द्धक है। नरमूत्रगतं टङ्कं गवां मूत्रगतं तथा । अशुद्ध टङ्कण सेवन करानेसे वमन और दिनान्ते तत्समुद्धृत्य जम्बीराम्बुगतं ततः ॥ भ्रान्ति होती है अत एव उसे शुद्ध अवश्य जम्बीराम्लात्समुद्धृत्य नारिकेलस्य पात्रके। कर लेना चाहिए; और उसे शुद्ध करनेके लिए मरीचचूर्णसंयुक्तं क्षालयेच्छीतलाम्बुना ॥ । एवं टङ्क समादाय सर्वरोगेषु. योजयेत् । केवल अग्नि पर फुला लेना पर्याप्त है। टङ्गणोऽग्निकरो रूक्षः कफनो रेचनो लघुः॥ For Private And Personal Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३१६ ] सुहागेको एक दिन काञ्जी में भिगोकर छाया में सुखा लीजिए। इसके पश्चात् उसे एक एक दिन मनुष्यके मूत्र और गोमूत्र में भिगोकर (छाया में सुखाकर ) जम्बीरी नीबूके रसमें डाल दीजिए, और एक दिन पश्चात् निकालकर नारयलके पात्र में ( नरेली में ) रखकर थोड़ासा स्याह मिर्चका चूर्ण मिलाकर ठण्डे पानीसे धो डालिए । इस प्रकार सुहागा शुद्ध हो जाता है । इसे सर्वत्र प्रयुक्त कर सकते हैं । भारत - भैषज्य रत्नाकरः । सुहागा अग्निवर्द्धक, रूक्ष, कफनाशक, रेचक और लघु है । ग्रन्थिकं दहनमूलसमेतम् ॥ एकशश्च पलिकैरिह वै मर्दितं सुवलितं गुरुहिकाम् । श्वासकासमुदरं चिरमेहान् पाण्डुरोग यकृतीगलरोगान् ॥ इति टकारादिमिश्रमकरणम् । (२२०६) डामरेश्वराभ्रम् (भै. र. । हिक्का.) मेचकं पलमितं मृतमभ्रं ब्रह्मयष्टिकनकामृतवासाः । कासमर्दवननिम्बकचव्यं [टकारादि मिश्रमकरणम् (२२०५) टिण्डुकादिपुटपाकः x (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३ ) टिण्डुकत्वचमाहृत्य काश्मीरीपत्रवेष्टितम् । मृदा विलिप्य विधिवद्दन्मृद्वनिना भिषक् ॥ गृहीत्वा मधुसंयुतं पानं सर्वातिसारन्नश्च ॥ सोनापाठा ( श्योनाक ) वृक्षकी छालको कूटकर खम्भारीके पत्तोंमें लपेटकर सुतलीसे बांध दीजिए फिर उसके ऊपर मिट्टीका १ अंगुल मोटा लेप करके मृद्वग्नि ( भूबल ) में दबा दीजिए । मिट्टीका रंग लाल हो जाय तो भीतरसे छालको निकालकर रस निचोड़ लीजिए । इस रसमें शहद डालकर पीने से सर्व प्रकार के अतिसार नष्ट होते हैं । अथ डकारादिरसप्रकरणम् । ड Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शोथमोहनयनास्यजरोगं यक्ष्मपीनसगरं बलसादम् । गण्डमण्डल व मिभ्रमदाहं प्लीहशुल विषमज्वरकृच्छ्रम् ॥ हन्ति वातकफपित्तमशेषं द्वन्दरोगमनुपान विशेषैः । डामेश्वरमिदं महदभ्रं पूर्ववैयगदितं सुखहेतु || ५ तोले कृष्णाभ्रक भस्म तथा ५ तोले For Private And Personal Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir डकारादि रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३१७ मोरपंखके अगले भागकी भस्म लेकर उसे भारंगी, दाह, तिल्ली, शूल, विषमज्वर, मूत्रकृच्छ्र, और धतूरा, गिलोय, बासा, कसौंदी, बकायन ( बन अन्य वातज, पित्तज तथा कफज रोगोंका नाश निम्ब) चव्य, पीपलामूल, और चीतामूल के ५- होता है । ५ तोले स्वरसमें घोटकर गोलियां बना लीजिए। यह रस हिक्का तथा श्वास रोगमें विशेष इसके सेवनसे भयङ्कर हिक्का, खांसी, श्वास, । गुणकारी है। उदरविकार, पुराना प्रमेह, पाण्ड, यकृतोग, गलरोग, शोथ, मोह, नेत्ररोग, मुखरोग, राजयक्ष्मा, | (मात्रा-१ रत्तोसे २ रत्ती तक । साधारण पीनस, विषदोष, बलक्षय, गण्डमाला, वमन, भ्रम, J अनुपान शहद ।) इति डकारादिरसमकरणम् । अथ तकारादिकषायप्रकरणम् । (२२०७) तगरमूलादियोगः (रा. मा.। वात.) | जलधरकृतमालश्चेतकीगोस्तनीभ्यां तक्रेण पिटं तगरस्य मूल सह हरति कषायो मक्षु पानात्मलापम् ॥ मा निपीतं विनिहन्ति शीघ्रम् । तगर, असगन्ध, पित्तपापड़ा, शंखपुष्पी, शेफालिकामूलविनिर्मितो वा देवदारु, कुटकी, ब्राह्मी, निर्गुण्डी, नागरमोथा, ____ काथो नृणां सन्धिकवातरोगम् ॥ अमलतास, छोटी काली हर्र और मुनक्का। इनका सगरकी गीली (ताजी) जड़को तकके साथ | काथ पीनेसे प्रलाप नष्ट होता है । पीसकर अथवा निर्गुण्डी (संभालु ) की जड़का (२२०९) तण्डुलीयकमूलप्रयोगः काथ बनाकर पीनेसे सन्धिवायु (गठिया) नष्ट (यो. र. । विष.) होती है। तण्डुलीयकमूलन्तु पीतं तण्डलवारिणा । (२२०८) तगरादिक्काथ तक्षकेणापि दष्टं हि निर्विषं कुरुते नरम्॥ (यो. चि. । अ. ४; यो. र.। सन्नि.) ___ चौलाई की जड़को तण्डुल जल (चावलों के तगरतुरगगन्धापर्पटीशङ्खपुष्पी पानी) के साथ पीसकर पीनेसे सर्पविष नष्ट त्रिदशविटपि तिक्ता भारती भूतकेशी। । होता है। For Private And Personal Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir RANAYAN. AAVVVVVV. Vvvvvm [३१८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि (२२१०) तण्डुलीयकल्कः (शा.सं.खंरअ.५) । कृष्णाचूर्णयुतस्त्रिदोषजनिते विष्टम्भदाहान्विते। - तंदुलीयजटाकल्कः सक्षौद्रःसरसाञ्जनः। कासश्वासविलापतृट्वति हितःसन्दीपनःपाचनः।। तन्दुलोदकसंपीतो रक्तप्रदरनाशनः ॥ कुटकी, पद्माख, सुगन्धबाला, लालचन्दन, चौलाई की जड़ और रसौतको पीसकर शहदमें धनिया, बासा (अडूसा), हर्र, अमलतास, पाठा, मिलाकर चावलोंके धोवन (तण्डुल जल) के साथ | सोंठ, इन्द्रजौ, गिलोय और मोथेका काथ बनाकर सेवन करनेसे रक्तप्रदर नष्ट होता है। उसमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे कब्ज और (२२११) तण्डुलीयमूलप्रयोगः (रा.मा.अति.)| दाहयुक्त सन्निपात ज्वर, खांसी, श्वास, प्रलाप घृष्ट्वोदकेन घननादजटा तु हन्ति । और तृष्णा नष्ट होती है । यह कार्य दीपन तं रक्तयुक्तमपि मालिकशर्कराढ्या ॥ पाचन भी है। चौलाईकी जड़को पानीमें पीसकर उसमें (२२१५) तिक्तादिकाथः ( ग. नि. । व्व. ) शहद और खांड मिलाकर पीनेसे रक्तातिसार काथः सततके तिक्ता पटोलं सारिवा धनम् । नष्ट होता है। सतत ज्वर ( दिन रातमें २ बार आनेवाले (२२१२) तण्डुलीयमूलप्रयोगः ज्वर )में कुटकी, पटोलपत्र, साश्विा और मोथेका (यो. त. । त. ७५; ग. नि.) काथ देना चाहिए । तण्डुलीयकमूलानि पिष्टवा तण्डुलवारिणा। (२२१६) तिक्तादिक्वाथ: ऋत्वन्ते तुत्र्यहं पीत्वा वन्ध्याकुर्वन्ति योषितः॥ (वं. से.; वृ. नि. र. । ज्व. ) मासिक धर्म होनेके पश्चात् तीन दिन तक तिक्ता पर्पटभूनिम्बौ मुस्तां छिनरुहां पिबेत् । चौलाईकी जड़को चावलोंके पानीमें पीसकर पीनेसे अभ्यासेन जयत्येष ज्वरमामृत्युमातुरः ॥ स्त्री वंध्या हो जाती है। कुटकी, पित्तपापड़ा, चिरायता, मोथा और (२२१३) ताम्बूलपत्रयोगः (वं.से.स्लीप.) | गिलोयका काथ नित्य प्रति कुछ दिनों तक पीनेसे सप्तताम्बूलपत्राणां कल्कं तप्तेन वारिणा। मरणासन्न ज्वररोगी भी स्वस्थ हो जाता है। संसृष्टलवणोपेतं श्लीपदं हन्ति सेवितम् ॥ । (२२१७) तिक्तादिकाथः (वृ. नि. र. । ज्व.) ५ ताम्बूलपत्रों ( पानों )को नमकके साथ तिक्तातिक्तकपर्पटमृतसठीरास्नाकणापौष्करम्। पीसकर गर्म पानीसे सेवन करनेसे श्लीपद (हाथी प्रायन्तीहतीसुरौषधशिवादुःस्पर्शभार्गीकृतः॥ पग ) रोग नष्ट होता है। कायो नाशयति त्रिदोषनिकर स्वापं दिवा जागरम् (२२१४) तिक्तादिकाथः (वैद्यामृत. वि. ६) नक्तं तृण्मुखशोषदाहकसनश्वासानशेषानपि ॥ तिक्तापद्मकतोयचन्दनधनावासाभयारग्वधैः। कुटकी, कड़वा पटोल, गिलोय, कचूर, पाठविश्वकलिङ्गकामृतलतामुस्तैःकषायःकृतः॥ रासना, पीपल, पोखरमूल, त्रायमाणा, बड़ी कटैली, For Private And Personal Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३१९] देवदारु, सोंठ, धमासा और भारंगीका काथ पीनेसे | और नागरमोथे का काथ पीनेसे लौट लौट कर सन्निपात ज्वर, दिनको नींद आना, रातको नींद आने वाला ज्वर नष्ट होता है। न आना, तृष्णा, मुखशोष, दाह, खांसी और (२२२२) तिक्तादिकाथः (वृ.नि.र.;वं.से.।ज्वर.) श्वास नष्ट होता है। तिक्ताभयावहद्दन्ती त्रायन्ती राजवृक्षकः। . (२२१८) तिक्तादिकाथः क्षारायःसैन्धवोपेतःकाथो भेदी ज्वरापहः ॥ (वृ. नि. र. । ज्व.; भा. प्र. । ख. २ ज्व.) कुटकी, हर्र, बड़ीदन्तीकी जड़, त्रायमाणा, तिक्तामुस्तायवैःपाठाकटफलाभ्यां सहोदकम् । और अमलतासके काथमें जवाखार तथा सेंधानमक पकं सशर्करं पीतं पाचनं पैत्तिकज्वरे ॥ मिलाकर पीनेसे विरेचन होकर ज्वर नष्ट हो ___कुटकी, मोथा, इन्द्रजौ, पाठा और कायफल जाता है। के काथमें मिश्री मिलाकर पैत्तिक ज्वरमें पोनेसे | (२२२३) तिक्तानवको काथः (यो.स.अ.५) दोषोंका पाचन होता है। तिक्तेन्द्रवीजघनकौटजभङ्गराभिः (२२१९) तिक्तादिकाथ: पथ्यारसाञ्जनमहौषधधातकीभिः। (वं. से.; वृ. नि. र. । ज्वर.) तिक्तानिम्बविषाव्योषशक्राह्वाभिःशृतं जलम्। पित्तोद्भवं बहुविधं ग्रहणीगदश्च ॥ काथो हरेत्सगुदशूलमतिप्रवृद्धं पिबेत्कफज्वरं घोरं हन्ति काससमन्वितम् ॥ कुटकी, नीमकी छाल, अतीस, त्रिकुटा (सोंठ, ___ कुटकी, इन्द्रजौ, मोथा, कुड़ेकी छाल, अतीस, मिर्च, पीपल) और इन्द्रजौका काथ पीनेसे कास हर्र, रसौत, सोंठ और धायकी जड़ । इनका काथ युक्त भयङ्कर कफज्वर नष्ट होता है। पीनेसे गुदाका प्रबल शूल और अनेक प्रकारकी पित्तज संग्रहणी नष्ट होती है। (२२२०) तिक्तादिक्वाथः (वृ.नि. र. । ज्वर ) (२२२४) तिक्तालावुयोगः (यो.त. । त. ५७) तिक्तायासकभूनिम्बश्यामापर्पटवासकैः। | तिक्तालाबुफले पकं सप्ताहमुषितं जलम् । शृतं जलं सितायुक्तं रक्तपित्तज्वरं जयेत् ।। | गलगण्डं निहन्त्याशु पानात्पथ्यानुशीलितम् ।। कुटकी, धमासा, चिरायता, काली निसोत, एक अच्छी बड़ी कड़वी तूंबी को भीतरसे पित्तपापड़ा और बांसेका काथ मिश्री मिलाकर थोड़ा खाली करके उसमें गर्म पानी भरकर उसके पीनेसे रक्तपित्त और ज्वर नष्ट होता है। मुंहको मोम इत्यादि से अच्छी तरह बन्द करके रख(२२२१) तिक्तादिकाथः ( वृ.नि.र. । ज्वर ) तितोशीरबलाधान्यपर्पटाम्भोधरैकृतः। सात दिन पश्चात् इस पानीको निकालकर काथःपुनःसमायातं ज्वरं शीघ्रं निवारयेत् ॥ इसमेंसे नित्य प्रति थोड़ा थोड़ा पीने और पथ्य कुटकी, खस, खरेंटी, धनिया, पित्तपापड़ा | पालन करनेसे गलगण्ड नष्ट होता है । दीजिए For Private And Personal Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि (२२२५) तिन्तिडीपानकम् (भै. र. । अरु.) | की छाल, मजीठ, खैरसार, और लाल चन्दनका भागास्तु पञ्च चिश्चायाःखण्डस्थापि चतुर्गुणाः। काथ पीने से भयङ्कर लसिकामेह, माञ्जिष्ठमेह, धान्यकाकयोर्भागं चातुर्जातार्द्धभागिकम ॥ | और अन्य उपद्रव युक्त प्रमेहोंका नाश होता है । द्विगुणं जलमेतेषामेकपात्रे विलोडितम् । (२२२७) तिलकाथ: पिहितन्तप्तदुग्धेन ततो वस्त्रपरिघुतम् ॥ | (वृ. नि. र.; वं. से., बूं. मा.; यो. र. । गुल्म; विधिना धूपिते पात्रे कृत्वा कपूरवासितम्। वृ. यो. त. । त. ९८) नृपयोग्यमिदं पानं वेदयुक्त्या प्रयोजितम् ॥ तिलकाथो गुडघृतव्योषभामरजोन्वितः। इमलीका गूदा ५ पल, (२५ तोले ), खाण्ड पीतो रक्तभवे गुल्मे नष्टे शुक्रे च योषितः ॥ २० पल, धनिया और अद्रक १-१ पल, चातु ___तिलके काथमें गुड़, घी और त्रिकुटे ( सोंड, र्जात (दालचीनी, इलायची, तेजपात और मिर्च, पीपल) तथा भारंगीका चूर्ण मिलाकर नागकेसर) आधा पल और पानी ५५ पल लेकर, पिलानेसे रक्त गुल्म और नष्टपुष्प ( रजोदर्शन न कूटने योग्य चीजोंका चूर्ण करके सबको मिट्टीके होना) रोग मिट जाते हैं। पात्रमें पानीमें मिलाकर मथ डालिए। तत्पश्चात् (२२२८) तिलादिकल्कः (वं. से. । अति.) उसमें थोड़ासा गर्म दूध मिलाकर कपड़ेमें छान । कल्कास्तलाना कृष्णाना शकरा पञ्चभागकः। लीजिए। अब इसमें तनिकसा कपूर मिलाकर आजेन पयसा पीतःसयो रक्त नियच्छति ॥ अगर इत्यादि से धूपित मिट्टी या पत्थरके पात्रमें १ भाग काले तिल और ५ भाग मिश्रीको भरकर रख दीजिए। एकत्र पीसकर बकरीके दूधके साथ पीनेसे रक्ता___ यह पानक राजाओंके सेवन करने योग्य है। तिसार नष्ट होता है । इसके पीनेसे अरुचि नष्ट होती है। (२२२९) तिलादिक्काथः (२२२६) तिन्दुकादिक्काथः । (वं. से. । अश्म.; वृ. यो. त. । त. १०२) ___ ( आ. वे. वि. । चि. अ. ६८) तिला पामार्गकदलीपलाश पववित्वजः। तिन्दुवित्वं विडङ्गश्च व्याघ्री धात्री च जाम्बपी। काथः पेयो विमूत्रेण शराश्मरिनाशनः॥ चब्बूलं लोहितश्चैव खदिरं रक्तचन्दनम् ।। तिल, चिरचिटा, केलेकी जड़, ढाक (पलाश) एषांकाथो हरेन्मेहान् लसिका सुदारुणम्। की छाल, जौ और बेलकी छाल को भेड़के मूत्रमें तथा मञ्जिष्ठमेहादिनानोपदवसंयुतम् ॥ पकाकर पीनेसे शर्करा और अश्मरी ( पथरी ) नष्ट तिन्दु (तेन्दु ) की छाल, बेल छाल, बाय- होती है । अथवा इनके क्षारोंको भेड़के मूत्रके बिडंग, कटैली, आमला, नागदमन, बबूल (कीकर) | साथ पीनेसे भी पथरी नष्ट होती है। १ क्षार इति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३२१] Anuvvvvvvinvwwwwvvvvvvvniwomans (२२३०) तिलादिक्काथः (यो. त. । त.७४) । तुलसीपत्र अथवा द्रोणपुष्पी ( गूमा )के काथस्तिलानां विनिधाय पीतः रसमें मिर्चका चूर्ण मिलाकर पीनेसे विषमज्वर ___ कटुत्रयं ब्राह्मणयष्टिचूर्णम् । नष्ट होते हैं। निहन्ति सद्यःकुसुमं सलोभ्रं | (२२३४) तुलसीपत्रस्वरसयोगः (रा.मा.स्त्री.) स्त्रीणामसृग्दाहमतिप्रवृद्धम् ॥ सुरसादलनिष्यन्दः पुराणगुडमद्यखण्डसंमिश्रः। यदि स्त्री को मासिक धर्म के समय अधिक पीतःप्रसूति समयादनन्तरं शूलमपहरति ॥ रक्त आता हो तो तिलोंके क्वाथमें, त्रिकुटा, भारंगी तुलसीपत्रके स्वरसमें पुराना गुड़, मद्य और और लोधका चूर्ण मिलाकर पीनेसे वह बन्द हो । खाण्ड मिलाकर स्त्रीको प्रसवके पश्चात् तुरन्त जाता है । यह क्वाथ स्त्रियोंके रक्तप्रदर और दाहको पिलानेसे शूल नष्ट होता है। भी नष्ट करता है। । (२२३५) तृणपश्चमूलादिकाथ: (२२३ १) तिलादिकाथः ( यो. र. । स्त्री.) ( यो. र.; वै. र.; भा. प्र.; ग. नि.; भै. र.; वृं. सगुडःश्यामतिलानां काथापीतःसुशीलितो नार्या। मा.; धन्वं. । मूत्र. कृ.; यो. त. । त. २८) जनयति कुसुमं सहसागतमपि सुचिरं निरातङ्कम् ॥ कुश काशशरों दर्भ इक्षुश्चेति तृणोद्भवम् । काले तिलोंके क्वाथमें गुड़ मिलाकर नित्य | पित्तकृच्छ्रहरं पञ्चमूलं वस्तिविशोधनम् ।। प्रति कई दिन तक पीने से बहुत दिनोंसे बन्द एतत्सिद्धं पयःपीतं मेढूगं हन्ति शोणितम् ॥ ऋतुस्राव भी खुलकर होने लगता है। कुश, कांस, शर, दाभ और ईखकी जड़ । (२२३२) तिलादिकाथः ( यो. र. । स्त्री.) इन सबके योगका नाम तृणपञ्चमूल है । तिलशेलुकारवीणां काथं पीत्वा नष्टरजामहिला। यह पित्तज मूत्रकृच्छूनाशक तथा वस्तिसगुडं शिशिरं त्रिदिनाजयति कुसुमं न सन्देहः॥ शोधक है। तिल, लिहसोड़ा, और कलौंजी के काथको | इनके साथ दूध पकाकर पीनेसे मूत्रेन्द्रियसे ठण्डा करके गुड़ मिलाकर नित्य प्रति तीन दिन आनेवाला रक्त बन्द हो जाता है । तक पीनेसे नष्टार्तव (ऋतु बन्द होना) नष्ट होकर | (२२३६) तृणपञ्चमूलादिसिद्धपयः रजोस्राव होने लगता है। (. मा. । कास.; वं. से. । कास.) (२२३३) तुलसीपत्रस्वरसः शरादिपञ्चमूलस्य पिप्पलीद्राक्षयोस्तथा। (शा. सं. । खं. २ अ. १) कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत्समधुशर्करम् ॥ पीतो मरिचचूर्णेन तुलसीपत्रजो रसः। । तृणपञ्चमूल (कुश, कास, शर, दाभ और द्रोणपुष्पीरसोप्येवं निहन्ति विषमज्वरान् ॥ । ईखकी जड़ ) पीपल और द्राक्षा ( मुनक्का )के १ सुश्रुतमें शरके स्थानपर नल पाठ है । भा० ४१ For Private And Personal Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि vRRVAVvvvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv काथके साथ दूध पकाकर उसमें शहद और | (२२३९) तृष्णानिग्रहणो कषायदशकः शर्करा ( खाण्ड ) मिलाकर पीनेसे खांसी नष्ट (च. सं. । सू. अ. ४) होती है। नागरधन्वयासकमुस्तपर्पटकचन्दनकिरात(यह पित्तज कासमें विशेष हितकारी है। तिक्तकगुडूचीहीवेरधान्यकपटोलानीति दशेमानि (२२३७) तृणपञ्चमूलीसिद्धपयः तृष्णानिग्रहणानि भवन्ति ।। सोंठ, धमासा, मोथा, पित्तपापड़ा, लाल (वं. से. । रक्तपित्ता.) चन्दन, चिरायता, गिलोय, सुगन्धबाला, धनिया शतं क्षीरं पिबेच्चापि पञ्चमूल्या तृणाहया। और पटोलपत्र । यह दश चीजें तृष्णानाशक हैं । गोकण्टकानां स्वरसै पणिनीभिस्तथा पयः ॥ । (२२४०) त्रायन्त्यादिकषायः (ग.नि.।ज्वर.) हन्त्याशु रक्तं सरुजं विशेषान्मूत्रमार्गगम् । त्रायन्ती कटुका मुस्तं चन्दनोशीरसारिवाः। मेढ़गे विहतश्चापि वस्तिरुत्तरसंज्ञिकः॥ पटोलपत्रं मधुकं मधुकं चाक्षसम्मितम् ॥ तृणपञ्चमूलके साथ अथवा शालपर्णी, पृष्ट तत्पकं मधुना पेयं कफपित्तोद्भवे ज्वरे ।। पर्णी, मुद्गपर्णी और माषपर्णीके साथ अथवा त्रायमाणा, कुटकी, मोथा, लाल चन्दन, खस, गोखरुके स्वरसके साथ दूध पकाकर पीनेसे सारिवा, पटोलपत्र, मुलैठी और महुवेके फूल ११-१। रक्तपित्त और विशेषकर मूत्रमार्गसे आने वाला तोला लेकर काथ बनाकर ठण्डा करके उसमें शहद रक्त शान्त होता है। मिलाकर पीनेसे कफपित्तज्वर नष्ट होता है । ____ मूत्रमार्गसे रक्त आता हो तो उसमें इस (२२४१) त्रायन्त्यादिक्वाथः (ग.नि.पाण्डु) दूधकी उत्तरवस्ति भी लाभ पहुंचाती है। त्रायन्तिकामधुकपिप्पलीमूलमुस्ता (दूध ८ भाग, पानी ३२ भाग, कुटी हुई वासागुडूचिपिचुमन्दकिरातजातम् । औषध १ भाग । सबको मिलाकर पानी जलने शीतीकृतं मधुयुतं पिबतः कषायम् तक पकाकर छान लें।) हारिद्रकज्वरमसौ विनिहन्ति शीघ्रम् ।। त्रायमाणा, मुलैठी, पीपलामूल, मोथा, वासा, (२२३८) तृप्तिन्नो कषायदशकः गिलोय, नीमकी छाल और चिरायता । इनके (च. सं. । सू. अ. ४) काथको ठण्डा करके शहद मिलाकर पीनेसे हारिद्रक नागरचित्रकचव्यविडङ्गमूर्वागुडूचीवचामुस्त- सन्निपात शीघ्र नष्ट होता है । पिप्पलीपटोलानीति दशेमानि तृप्तिन्नानि भवन्ति। (२२४२) त्रायन्त्यादिक्वाथः सोंठ, चीता, चव, बायबिडंग, मूर्वा, गिलोय, (वं. से.; वृ. नि. र.; यो. र. । ज्वर. ) वच, मोथा, पीपल और पटोलपत्र । यह दश | त्रायन्तीकटुकानन्तासारिवाभिः शृतं जलम् । चीजें तृप्तिका नाश करती हैं। सन्तताये ज्वरे देयं वातादीनां निवृत्तये ॥ १ तृप्ति-कफजरोग, जिसमें पूर्णाहार किए बिना ही तृप्ति रहती है । For Private And Personal Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३२३] सन्ततादि ज्वरोमें त्रायमाणा, कुटकी, अनन्त- | और मुलैठी, १-१ भाग; निसोत और पटोल मूल और सारिवाका क्वाथ देनेसे वातादि दोष | ४-४ भाग तथा छिलके रहित मसूर ८ भाग । शान्त होते हैं। इनके काथमें घी डालकर पीनेसे विद्रधि, गुल्म, (२२४३) त्रायन्त्यादिक्काथः वीसर्प, दाह, मोह, मद, ज्वर, तृष्णा, मूर्छा, ( वृ. नि. र.; ग. नि. । ज्वर ) वमन, हृद्रोग, रक्तपित्त, कुष्ठ और कामलाका नाश त्रायन्तीदशमूलपुष्करजटावातारिभिः कारवी। होता है। भार्गी स्यादमृताटरूषकशटीगोमूत्रसंयोजितैः ॥ (२२४६) त्रायन्त्यादिकाथः (वृद्ध) शृङ्गीव्योषपुनर्नवाभिरचिरादुष्णकषायो हरेत् । (यो. चि. । का.) साभिन्यासगदं कफज्वरहरं निःसंशयं पाययेत्॥ त्रायन्तीन्द्रयवावासाछिन्नातिक्तापटोलकैः। __ त्रायमाणा, दशमूल, पोखरमूल, अरण्डमूल, निम्बदस्पर्शभूनिम्बशम्पाकपद्मकपर्पटैः॥ कलौंजी, भारंगी, गिलोय,बासा (अडूसा ), कपूर- अष्टावशेषितःकाथः पित्तश्लेष्मज्वरापहः॥ कचरी, काकडासिंगी, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) त्रायमाणा, इन्द्रयव, बासा, गिलोय, कुटकी, और पुनर्नवाको गोमूत्रमें पकाकर गर्म गर्म पीनेसे पटोलपत्र, नीमकी छाल,धमासा,चिरायता,अमलतास कफज्वर और अभिन्यास सन्निपात शीघ्र नष्ट पद्माख, और पित्तपापड़ा समान भाग लेकर होता है। अधकुटा करके आठगुने पानीमें पकाकर आठवां (२२४४) त्रायन्त्यादिकाथः (यो.चि.का.) भाग पानी शेष रहने पर छानकर पिलानेसे पित्तजायन्तीपर्पटोशीरतिक्तानिम्बदुस्पृशा- कफज ज्वर नष्ट होता है। कषायो मधुसंयुक्तो पित्तज्वरविनाशनः ॥ (२२४७) त्रायमाणाकाथ: त्रायमाणा, पित्तपापड़ा, खस, कुटकी, नीमकी (वा. भ. । चि. स्था. अ. १४) छाल और धमासेके काथमें शहद डालकर पीनेसे द्विपलं त्रायमाणाया जलद्विपस्थसाधितम् । पित्तज्वर नष्ट होता है। अष्टभागस्थितं पूतं कोष्णं क्षीरसमं पिबेत् ॥ (२२४५) त्रायन्त्यादिक्वाथः पिबेदुपरि तस्योष्णं क्षीरमेव यथा बलम् । (वा. भ. । चि. । अ. १३) तेन नि तदोषस्य गुल्मः शाम्यति पैत्तिकः ।। प्रायन्ती त्रिफला निम्ब कटुका मधुकं समम्। १० तोले त्रायमाणाको २ सेर पानीमें पकात्रिवृत्पटोल्काभ्याञ्च चत्वारोंशाः पृथक् पृथक्॥ इये जब पावसेर पानी शेष रह जाय तो छान मसूरान्निस्तुपादष्टौ तत्काथःसघृतो जयेत् ।। लीजिए। विद्रधीगुल्मवीसर्पदाहमोहमदज्वरान् ॥ । प्रथम विरेचनादि द्वारा शरीर शुद्धि करा तृण्मूर्छाच्छर्दिहृद्रोगपित्तामृकुष्ठकामलाः॥ देनेके पश्चात् इस काथमें समान भाग दूध मिला"बायमाणा, त्रिफला, नीमकी छाल, कुटफो । कर मन्दोण पिलाकर ऊपरसे यथाशक्ति उष्ण दूध For Private And Personal Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि पिलाइये। इसके सेवनसे पैतिक गुल्म नष्ट (२२५१) त्रिकटुकादिगणः (सु.सं.।सू.अ.३८) होता है। पिप्पलीमरिचशृङ्गवेराणि त्रिकटुकम् । (२२४८) त्रायमाणादिकाथः (वृ.नि.र.शू.) । ज्यूषणं कफमेदोन्नं मेहकुष्ठत्वगामयान् ॥ त्रायमाणकणामूलं त्रिता मधुकं शिवा।। निहन्यादीपनं गुल्मपीनसाग्न्यल्पतामपि ॥ गिरिमालाशिवाद्राक्षाकुरण्टपित्तशूलहृत् ॥ पीपल, कृष्णमिर्च और सोंठके मिश्रणको ___त्रायमाणा, पीपलामूल, निसोत, मुलैठी, सोंठ, त्रिकटु या त्र्यूषण कहते हैं। अमलतास, हर्र, मुनक्का और पिया बांसेका काथ त्रिकुटा-कफ, मेद, प्रमेह, कुष्ठ, चर्मरोग, पीनेसे पित्तज शूल नष्ट होता है । गुल्म, पीनस और अग्निमांद्य नाशक तथा अग्नि(२२४९) त्रायमाणादि क्वाथः । दीपक है। (वृ. यो. त.। त. १२३) । (२२५२) त्रिकवादिकाथः (वृ. नि. र.। कृ.) त्रायमाणपटोलपर्पटकच्छुराकटुरोहिणी । त्रिकटुत्रिफलाकाथःसक्षारलवणःपिबेत् । पावकेन लघीयसा परिपाच्य साधुशृतं हितम् । कफवातप्रकोपन्नो विरेकात्कफदिजित् ॥ हन्ति सर्वविसर्पजालमुपद्रवौघसमायुतम् । सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, और आमद्वन्द्वजं विषजं च तं पुरसंयुतं गुणवत्तरम् ॥ लेके काथमें यवक्षार और सेंधानमक मिलाकर त्रायमाणा, पटोल, पित्तपापड़ा, धमासा और पीनेसे विरेचन होकर कफ और वायुके प्रकोप कुटकीको अधकुटा करके रातको पानीमें भिगो | तथा अण्डवृद्धिका नाश होता है। टीजिा और प्रातःकाल मन्दाग्रिपर पकाकर ठान- (२२५३) त्रिकटवादिकाः कर रोगीको पिला दीजिए । यह द्वन्द्वज, विषज __ (वं. से.; यो. र.; वृ. नि. र.; वृं. मा. । शिर.) और अन्य सर्व प्रकारके विसोको नष्ट करता है। त्रिकटुपुष्करवीजकरञ्जरास्नातुरङ्गगन्धानाम् । यदि इसमें गूगल मिला लिया जाय तो और भी काथः शिरोतिजालं नासापीतो निवारयति । अधिक गुणकारी हो जाता है। त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), कमलगट्टे (२२५०) त्रायमाणादिकाथः । करञ्जकी गिरी, रास्ना और असगंधका काथ (च. सं. । चि. अ. ३.) नासिका द्वारा पीनेसे शिरशूल नष्ट होता है। त्रायमाणामृतानिम्बपटोलत्रिफलाशतम् ।। (२२५४) त्रिकट्वादिकाथ: गुरुक्षीरा पिबेदेतत् स्तन्यदोषविशुद्धये ॥ (वै. जी. । विलास १ ) यदि बालककी माताका दूध भारी हो तो | त्रिकटुत्रिफलाकलिङ्गनिम्ब उसे (माताको) त्रायमाणा, गिलोय, नीमकी छाल, | त्रिदुग्राखदिरोद्भवःकषायः । पटोल और हरै, बहेड़ा तथा आमलेका काथ पशुमूत्रसमन्वितो निपीतः पिलाना चाहिए। कृमिकोटीरपि हन्ति वेगतोऽयम्।। १ त्रिकटुपुष्कररजनीरास्नासुरदारुग्रगन्धानामिति पाठभेदः । For Private And Personal Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३२५] त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, बहेड़ा, गोखरु, खरैटी, कटैली, और सोंठ २-२ आमला, इन्द्रजौ, नीमकी छाल, निसोत, बच और तोले, पानी १२८ तोले, गायका दूध ३२ तोले। खैरके काथमें गोमूत्र मिलाकर पीनेसे पेटके कृमि सबको एकत्र मिलाकर पकाइये जब पानी जल शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जाय तो छान लीजिए। इसमें गुड़ मिलाकर (२२५५) त्रिकट्वादिक्काथः (यो. र. । सन्नि.) पीनेसे मूत्रावरोध, कब्ज़ और कफज्वर नष्ट त्रिकटुकलिङ्गकटुकाहरीतकीविभीतकामलकैः। होता है। ध्वंसयति कण्ठकुब्ज वृषरजनीद्वययुतः काथः।। (२२५८) त्रिकण्टकादिसिद्धपयः (च.द.।मू.) त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), इन्द्रजौ, त्रिकण्टकैरण्डशतावरीभिः कुटकी, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी, दारुहल्दी सिद्धं पयो वा तृणपश्चमूलैः । तथा बासेका काथ पीनेसे कण्ठकुञ्ज सन्निपात गुडप्रगाढं सघृतं पयो वा नष्ट होता है। रोगेषु कृच्छ्रादिषु शस्तमेतत् ॥ (२२५६) त्रिकण्टकादिकाथः । गोखरु, अरण्डमूल और शतावर अथवा (धन्व.; यो. र.; भै. र.; . मा.; । मूत्र; | तृणपञ्चमूल (कुश, कास, शर, दर्भ और ईखकी वृ. यो. त. । त. १०० ) जड़) से सिद्ध दूधको गुड़से मीठा करके घी डालत्रिकण्टकारग्वधदर्भकास कर पीनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट होता है । __दुरालभाःप्रस्तरभेदपथ्याः। (औषध ५ तोले, दूध ४० तो०, पानी १६० तो. । मिलाकर पकाएं । पानी जल कर निघ्नन्ति पीडां मधुनाऽश्मरीं च दूध मात्र शेष रहने पर उतार लें।) __सम्माप्तमृत्योरपि मूत्रकृच्छ्रम्॥ (२२५९) त्रिकार्षिकादिकषायचतुष्टयः गोखरु, अमलतास, दाभ, कास, धमासा, (ग. नि. । ज्वरा. ) पखानभेद और हर्रके काथमें शहद डालकर पीने | इमं चान्यं प्रवक्ष्यामि समासेन यथा क्रमम् । से पथरी और मृत्युके समीप पहुंचा देने वाले सर्वज्वरहरं श्रेष्ठं कषायममृतोपमम् ॥ मूत्रकृच्छ्रकी पीड़ा भी नष्ट होजाती है। त्रिकर्ष पञ्चकर्ष वा सप्तकर्षमथापि वा । (२२५७) त्रिकण्टकादिक्षीरः । - एवं सशमनार्थ तु देयं स्यान्नवकार्षिकम् ॥ (वृ. नि. र.; . मा.; वं. से. । ज्व.; शा. सं । त्रिकार्षिकं पटोलन्तु मधुकं भद्ररोहिणी। खं. २ अ. २) एतदेव समुस्तं स्यात्साभयं पञ्चकार्षिकम् ।। त्रिकण्टकबलाव्याघ्रीगुडनागरसाधितम्। सनिम्बपत्रं सोशीरं विज्ञेयं सप्तकार्षिकम् । वर्षोमूत्रविबन्धनं कफज्वरहरं पयः॥ त्वचात्र सप्तपर्णस्य फलान्यारग्वधस्य च ॥ १ बचेति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि क सन्निपातप्रशमनं विज्ञेयं नवकार्षिकम् । (२२६०) त्रिफला (सु. सं. । सू. स्था. ३८) एतदेव कपायन्तु सर्पिपा सह योजितम्॥ हरीतक्यामलकविभीतकानि त्रिफला ॥ वातपित्तसमुत्थस्य ज्वरस्य त्वमृतोपमम् । त्रिफला कफपित्तनी मेहकुष्ठविनाशिनी। सुखोष्णलवणं दद्याद्वातश्लेष्मोद्भवे ज्वरे ॥ चक्षुष्या दीपनी चैव विषमज्वरनाशिनी ॥ शर्करा संयुतं पीतं पित्तज्वरविनाशनम् । हर्र, बहेड़ा और आमला मिलकर "त्रिफला" क्षौद्रेण सह संयुक्तं श्लेष्मज्वरहरं परम् ॥ गोमूत्रेण समायुक्तं सन्निपातज्वरापहम् ॥ त्रिफला कफ, पित्त, प्रमेह, कुष्ठ और विषम निम्न लिखित त्रिकार्षिक, पञ्चकार्षिक, सप्त- ज्वरनाशक तथा नेत्रोंके लिए हितकारी और कार्षिक या नव कार्षिक कषाय समस्त प्रकारके | दीपन है। ज्वरोंको नष्ट करनेके लिए अमृतके समान गुण- | (२२६१) त्रिफलाकल्कः कारी हैं। (वृ. नि. र.; यो. र. । मूत्रकृ.) १ पटोलपत्र, मुलैठी और कुटकी। तीनों त्रिफलाया सुपिष्टाया:कल्क कोलसमन्वितम् । चीजें १-१ कप लेकर काथ बनावें । इसका | वारिणा लवणीकृत्य पिबेन्मूत्ररुजापहम् ॥ नाम “त्रिकार्षिक ___ त्रिफला और बेरको पानीमें कल्क (पिट्ठी)की २-इसी काथमें १-१ कप मोथा और हरी भांति पीसकर उसे सेंधा नमकसे नमकीन करके भी मिला लिया जाय तो इसका नाम “पञ्चकार्षिक" | पानीके साथ पीनेसे मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता है । हो जाता है। (२२६२) त्रिफलाकषायः (यो.र.;वं.से.नेत्र) ३-पञ्चकार्षिक काथमें नीमके पत्ते और | त्रिफलायाःकषायस्तु धावनान्नेत्ररोगजित् । खस मिलाने से “ सप्तकार्षिक " हो जाता है। कवलान्मुखरोगन्नःपानतःकामलापहः॥ ४-सप्त कार्षिकमें सप्तपर्ण (सतौने) की छाल त्रिफलाके कषायसे आंखें धोनेसे नेत्ररोग, और अमलतासके फलका गूदा (गर्भ) मिलानेसे वह " नवकार्षिक" क्वाथ कहलाता है । यह | कुल्ले करनेसे मुखरोग और पीनेसे कामला रोग क्वाथ सन्निपात के लिए विशेष उपयोगी है। नष्ट होता है। उपरोक्त काथोंमें घी डालकर पिलानेसे वह | (२२६३) त्रिफलाकाथः (वं. से. । नेत्र.) वातपित्त ज्वरमें अमृतके समान लाभ पहुंचाते हैं। पथ्यास्तिस्रो विभीतक्याषट् धाग्यो द्वादशैव तु । इन्हें वातकफ ज्वरमें जरासा सेंधा लवण प्रस्था? सलिले काथ्यमष्टभागावशेषितम् ॥ मिलाकर ( कुछ गर्म ) पिलाना चाहिए । पित्त । पित्ताभिष्यन्दमात्रा रोग वा तिमिरं जयेत् । ज्वरमें मिश्री मिलाकर, कफज ज्वरमें शहद मिला सरम्भदाहशूलासृनाशनं दृक्प्रसादनम् ॥ कर और सन्निपात ज्वरमें गोमूत्र मिलाकर सेवन हर्र ३ नग, बहेड़े ६ नग और आमले १२ कराना चाहिए। नग लेकर उनकी गुठली निकालकर, अधकुटा For Private And Personal Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायपकरणम् ] द्वितीयो भाग । [३२७ ] करके आधा सेर पानीमें पकाकर आठवां भाग त्रिफलाके काथ या भंगरेके रससे उपदंश शेष रहने पर छानकर पीनेसे पित्ताभिष्यन्द (गी । (आतशक ) के घावोंको धोनेसे वह नष्ट हो से आंख दुखना), आंखोंसे पानी बहना, तिमिर, | जाते हैं। सूजन, दाह और शूल शान्त होकर नेत्र स्वच्छ (२२६८) त्रिफलादिकल्कः हो जाते हैं। (वा. भ. । चि. स्था. अ. १२) (२२६४) त्रिफलाकाथः (वं. से. । विसर्प.) त्रिफलाव्योषपत्रैलात्वकक्षीरीचित्रकत्वचाम् । त्रिफलारससंयुक्तं सर्पित्रिवृतया सह। विडङ्गं पिप्पलीम् लोमशं वृषकं वचाम् ॥ प्रयोक्तव्यं विरेकार्थवीसर्पज्वरशान्तये ॥ ऋद्धिं लाङ्गलिकं चव्यं समभागानि पेषयेत् । विसर्पजन्य ज्वरमें विरेचन कराने के लिए कल्केलिप्त्वायसी पात्रीं मध्याह्ने भक्षयेदिदम् ।। त्रिफलाके काथमें निसोतका चूर्ण और घी मिलाकर वाताने सर्वदोषेऽपि परं शूलान्विते हितम् ।। पिलाना चाहिए। त्रिफला, त्रिकुटा, तेजपात, इलायची, बनस(२२६५) त्रिफलाकाथः (ग. नि. । नेत्र.) लोचन, चीता, दालचीनी, बायबिडंग, पीपल, कल्कःकाथोऽथवा चूर्ण त्रिफलाया निषेवितम्। जटामांसी, बासा, बच, ऋद्वि, कलिहारी, और मधुना हविषा वापि समस्ततिमिरान्तकृत् ।। चव । समान भाग लेकर पानीमें पीसकर प्रातःकाल त्रैफलेनाथ हविषा लिहानस्त्रिफलां निशि। लोहेकी कटोरीमें लेप कर दीजिए और दोपहरको यष्टीमधुकसंयुक्तां मधुना च परिप्लुताम् ॥ (शहदमें मिलाकर ) चाट लीजिए। त्रिफलेका कल्क, काथ अथवा चूर्ण शहद इसके सेवनसे सर्वदोषज वातरक्त और शूल या घीमें मिलाकर सेवन करनेसे समस्त तिमिर । नष्ट होता है। रोग नष्ट होते हैं। (२२६९) त्रिफलादिकषायः (ग. नि.। चर.) रात्रिके समय त्रिफला और मुलैठी के चूर्णको फलत्रिकमुशीरञ्च पटोलं मधुयष्टिका । त्रिफलाघृत और शहदमें मिलाकर चाटनेसे तिमिर आटरूप कषायोऽयं पेयःपित्तकफज्वरे ।। रोग नष्ट होता है। त्रिफला, खस, पटोलपत्र, मुलैठी, और बासे (२२६६) त्रिफलाकाथः (वं. मा.। ज्व.)। ( अडूसे) का काथ पित्तकफज ज्वरमें लाभ पहुंचाता है। गुडप्रगाढां त्रिफलां पिबेद्वा विषमार्दितः।। त्रिफलेके क्वाथको गुड़से मीठा करके पीनेसे (२२७०) त्रिफलादिकषायः (ग. नि.। ज्वर.) त्रिफलाव्योषकटुकगुडूचीनिम्बवत्सकान् । विषमज्वर नष्ट होता है। किराततिक्तकं मुस्तं पटोलञ्चैव संहरेत् ॥ (२२६७) त्रिफलाकाथः (बृ.मा.।उप. वृ.नि.र.) | सिद्धःकपायःपातव्यो वातश्लेष्मोद्भवे ज्वरे ॥ त्रिफलायाःकषायेण भृङ्गराजरसेन वा।। __ त्रिफला, त्रिकुटा, कुटकी, गिलोय, नीमकी वणमक्षालनं कुर्यादुपदंशपशान्तये ।। | छाल, इन्द्रजौ, चिरायता, मोथा, पटोलपत्र । For Private And Personal Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि दडालकर इनका काथ बनाकर पीनेसे वातकफज ज्वर नष्ट शुद्ध लोह चूर्ण । सब चीजें समान भाग लेकर होता है। अधकुटी करके मिट्टी के बरतनमें आठ गुने पानीमें (२२७१) त्रिफलादिकषायः पकाइये । जब चौथाई पानी शेष रहे तो उतारकर (ग. नि.। ज्वर.; . मा.; वृ. नि. र.; वं. से. ।। छान लीजिए । इसमें शहद मिलाकर पीनेसे कफज ___ ज्वर.; वृ. यो. त.। त. ५९) ज्वर तथा अन्य कफज रोग नष्ट होते हैं। यह त्रिफलाशाल्मलीरास्नाव्याधिघाताटरूषकैः। हृदयके लिए भी हितकर है। एषां काथः सितायुक्तो वातपित्तज्वरापहः ।। (२२७४) त्रिफलादिकषायः(ग.नि.;.मा.ज्वर) त्रिफला, सेंमलकी मूसली, ( अथवा छाल), रास्ना, अमलतास, और बासे ( अडूसे ) के काथमें त्रिफलापटोलवासाच्छिन्नरुहा (तिक्त)रोहिणीषड्गन्थाः। मिश्री मिलाकर पीनेसे वातपित्तज ज्वर नष्ट होता है। मधुना श्लेष्मसमुत्थे (२२७२) त्रिफलादिकषायः दशमूलीवासकस्य वा काथः ॥ (ग. नि.; . मा. । प्रमे.) कफज ज्वरमें त्रिफला, पटोलपत्र, बासा त्रिफलारग्वधद्राक्षाकषायो मधुसंयुतः। (अडूसा), गिलोय, कुटकी, और बचके काथमें पीतो निहन्ति फेनाख्यं प्रमेहं नियतं नृणाम् ॥ अथवा त्रिफला, अमलतास, और मुनक्काके काथमें पीना चाहिए। शहद मिलाकर पीनेसे फेनाख्य प्रमेह ( वातज (२२७५) त्रिफलादिक्काथः (बु. मा. । शोथा.) प्रमेह भेद ) अवश्य नष्ट हो जाता है। त्रिफलायोरजःक्षारैःशोथजित्रिफलारसः । (२२७३) त्रिफलादिकषायः (ग.नि. । ज्वर.) त्रिफलाके काथमें त्रिफलाका चूर्ण, लोहभस्म और यवक्षार मिलाकर पीनेसे शोथ रोग नष्ट त्रिफलोशीरभूतीकं निम्बरोहिषमुस्तकम् । | होता है। सरलं दारु खदिरं पटोलं विश्वभेषजम् ॥ त्वक्सप्तपर्णात्पिप्पल्याकार्पासास्थि त्वयोरजः। (२२७६) त्रिफलादिक्काथः (वृ.नि.र. । व्रण.) पक्त्वा तुल्यानि निःस्राव्य स्थापयेन्मृण्मये नवे॥ ये क्लेदपाकतिगन्धवन्तो ततःसंपते हृद्यं स्थितं क्षौद्रयुतं पिबेत् । । व्रणा महान्तःसरुजा सशोथाः । हन्याच्च श्लैष्मिकान् रोगान् ज्वरश्च कफसम्भवम् प्रयान्ति ते गुग्गुलुमिश्रितेन त्रिफला, खस, अजवायन, नीमकी छाल, पीतेन शान्ति त्रिफलाजलेन ॥ रोहिषतृण (मिर्चियागन्ध), मोथा, चीरका बुरादा । त्रिफलाके काथमें गूगल मिलाकर पीनेसे क्लेद देवदारु, खरसार, पटोलपत्र, सोंठ, सतौने (सप्तपर्ण) | पाक, स्राव, दुर्गन्ध, शोथ और पीडायुक्त भयङ्कर की छाल, पीपल, कपासके बीज (बिनौले ) और | घाव भी नष्ट हो जाते हैं। For Private And Personal Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग । [ ३२९ ] vvvvin/IN. AAAAAAAAAAAAAAAAAwavimoviwwvAAAAAM (२२७७) त्रिफलादिक्काथः संहजनेकी छालके काथमें पीपल और बायबिड़ङ्गका ( आ. वे. वि. । चि. अ. ४०) चूर्ण मिलाकर पीनेसे कृमि रोग नष्ट होता है। त्रिफला कटुका भीरु पटोलामृतपर्पटः । | (२२८१) त्रिफलादिकाथः (ग. नि. । ज्वर.) काथं पीत्वा जयेजन्तू रोगं दुष्टस्तोद्भवम् ॥ | त्रिफलाऽतिविषाँ मुस्तं क्रमुकं सकलिङ्गकम् । त्रिफला, कुटकी, शतावर, पटोलपत्र, गिलोय पटोलारग्वधश्चैव रोहिणी चित्रकं समम् ॥ और पित्तपापड़े का काथ पीनेसे अशुद्ध पारद काथ:क्षौद्रयुतः श्लेश्म ज्वरकासगलामये । खानेसे उत्पन्न विकार नष्ट होते हैं। त्रिफला, अतीस, मोथा, सुपारी, इन्द्रजौ, (२२७८) त्रिफलादिक्काथः पटोलपत्र, अमलतास, कुटकी, और चीतेके काथ (वृ. नि. र.; यो. र. । शोथ.) में शहद मिलाकर पीनेसे कफजज्वर, खांसी त्रिफलाकाथपानं हि महिषीसर्पिषा सह। और गलरोग नष्ट लोते हैं। हन्ति शोथं प्रमेहश्च नाडीव्रणभगन्दरम् ॥ (२२८२) त्रिफलादिकाथ: (वं. मा. प्र. वृ.नि.र) त्रिफलाके क्वाथमें भैंसका घृत मिलाकर पीनेसे त्रिफलादारुदाय॑द्वकाथः क्षौद्रेण मेहहा। शोथ, प्रमेह नाडीव्रण ( नासूर ) और भगन्दर नष्ट गुडूच्या स्वरस पीतो मधुना सर्वमेहंजित् ॥ होता है। त्रिफला, देवदारु, दारुहल्दी और मोथेके (२२७९) त्रिफलादिक्काथः काथमें अथवा गिलोयके स्वरसमें शहद मिलाकर (ग. नि. । अम्ल.; वं. मा. । अ. पि.) पीनेसे सर्व प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं। फलत्रिकं पटोलश्च तिक्ताकाथः सितायुतः। (२२८३) त्रिफलादिकाथः (. मा.। व्रणशो.) पीतालीतकमध्वाक्तो ज्वरच्छर्यम्लपित्तहा॥ त्रिफला खदिरो दावी न्यग्रोधादिबलाकुशाः। त्रिफला, पटोलपत्र और कुटकीके काथमें निम्बकोलकपत्राणि कषायःशोधने हितः ।। मिश्री, शहद और मुलैठी का चूर्ण मिलाकर पीनेसे | । त्रिफला, खैरसार, दारुहल्दी, न्यग्रोधादिगण, ज्वर, वमन और अम्लपित्त रोग नष्ट होता है। खरैटी, कुशा, नीम, और बेरीके पत्तोंका काथ घावों (२२८०) त्रिफलादिकाथः के शुद्ध करनेके लिए प्रयुक्त करना चाहिये । (शा. सं.। ख. २ अ. २ ) (इनके काथसे घाव धोने चाहियें ।) त्रिफलादेवदारुश्च मुस्ता मूषककर्णिका। (२२८४) त्रिफलादिक्काथः शिरेतैःकृतः काथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः ॥ (वा. भ. । चि. अ. अ. १) विडङ्गचूर्णयुक्तश्च कृमिघ्न कृमिरोगहा ॥ त्रिफला पिचुमन्दत्वङ्मधुकं वृहतीद्वयम् । त्रिफला, देवदारु, मोथा, मूषाकर्णी, और समसूरदलं काथःसघृतो ज्वरकासहा ।। १ त्रिवृतेति पाठान्तरम् । २ कटुकमिति पाठान्तरम् भा०४२ For Private And Personal Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - [ ३३० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ तकारादि त्रिफला, नीमकी छाल, मुलैठी, कटैली, । (२२८८) त्रिफलादिक्वाथः (यो. र. । बहुमू.) कटैला, और मसूर के काथमें घी मिलाकर पीनेसे त्रिफलावेणुपत्राब्दपाठामधुयुतैः कृतः। कास और ज्वर नष्ट होता है। कुम्भयोनिरिवाम्भोधिं बहुमूत्रन्तु शोषयेत् ॥ (नोट-यह काथ जीर्णज्वर और वातज त्रिफला, बांसके पत्ते, मोथा और पाठाका कासमें हितकर है । कफज कास अथवा नवीन मधुमिश्रित काथ बहुमूत्रको इस प्रकार नष्ट कर ज्वरमें नहीं देना चाहिये।) देता है जिस प्रकार कुम्भज ऋषिने क्षणभरमें (२२८५) त्रिफलादिक्काथः (वं. मा. । मुख.) समुद्रको सुखा दिया था। (२२८९) त्रिफलादिक्काथः कथिता त्रिफला पाठा मृद्वीका जातिपल्लवाः। (वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र. । शूल.; शा. सं.। निषेव्या भक्षणीया वा त्रिफला मुखपाकहा ॥ ख. २ अ. २) त्रिफला, पाठा, मुनक्का, और चमेलीके पत्तों | त्रिफलारग्वधकाथः शर्कराक्षौद्रसंयुतः । का काथ पिलाने अथवा शहदके साथ त्रिफला रक्तपित्तहरो दाहपित्तशूलनिवारणः॥ चूर्ण चटानेसे मुखपाक नष्ट होता है । त्रिफला और अमलतासके काथमें खांड और (२२८६) त्रिफलादिकाथः शहद मिलाकर पीनेसे रक्तपित्त, दाह और पित्तज (वै. जी.वि. ३; भा. प्र.। पां.; शा. सं.।खं.२अ.२) शूल नष्ट होता है । त्रिफलावृषभूनिम्बनिम्बतिक्तामृताकृतः। (२२९०) त्रिफलादिकाथः (यो. र. । ने.) काथो मधुयुतःपीतः कामलापाण्डुरोगजित् ॥ अयःस्थं त्रिफलाकाथं सर्पिषा सह योजितम् । ___ त्रिफला, बासा, चिरायता, नीमकी छाल, भुक्तोपरि पिबेत्सायं मासेनान्धोऽपि पश्यति ।। कुटकी, और गिलोयके काथमें शहद मिलाकर प्रातःकाल त्रिफलेके क्वाथमें घी डालकर लोहे पीनेसे कामला तथा पाण्डुरोग नष्ट होता है। के बर्तनमें भरकर रख दीजिए और उसे सायङ्काल(२२८७) त्रिफलादिक्काथः के भोजनके पश्चात् पीजिए। इस प्रकार १ मास तक त्रिफला काथ सेवन करनेसे अन्धेको (ग. नि. । कु.; च. सं. । चि. अ. ७ कु.) भी दीखने लगता है। त्रिफलापटोलपिचुमन्दवचा (२२९१) त्रिफलादिकाथः रुणयष्टिकाःसकटुका रजनी । (च. सं. । चि. अ. ३ ज्व.; वं. से. । ज्व.) नवःभिशृतं प्रपिबतःसलिलं त्रिफलां त्रायमाणाश्च मृद्वीकां कटुरोहिणीम् । न भवन्ति पित्तकफकुष्ठरुजः॥ पित्तश्लेष्माहरस्त्वेष कषायो ह्यानुलोमिकः॥ हर्र, बहेड़ा, आमला, पटोलपत्र, नीमकीछाल, त्रिफला, त्रायमाणा, मुनक्का और कुटकीका बच, मजीठ, कुटकी और हल्दी। इन नौ वस्तुओं-_ काथ पीनेसे पित्तकफज ज्वर नष्ट होता और वायु का काथ पीनेसे पित्तकफज कुष्टका नाशहोता है। अनुलोम होता है। For Private And Personal Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३३१] savvvxy (२२९२) त्रिफलादिक्काथः (बृ. नि. र.। शूल.) | (२२९६) त्रिफलादिपाचनकषायः त्रिफलारिष्टयष्टयाहाकटुकारग्वधैः शृतम् ।। (ग. नि. । कुष्ठ ) पाययेन्मधुसंमिश्रं दाहशूलोपशान्तये ॥ त्रिफला खदिरं काष्ठं निम्बत्वक् च जले शृतम्। __दाह और शुलकी शान्तिके लिए. त्रिफला, कुष्ठेषु पाचनं दद्यात्सर्वदोषोद्भवेष्वपि ॥ नीमकी छाल, मुलैठी, कुटकी और अमलतासके पृथक् पृथक् दोषोंसे तथा सर्व दोषोंसे उत्पन्न क्वाथमें शहद डालकर पिलाना चाहिए। कुष्ठमें त्रिफला, खैरसार और नीमकी छालका काथ (२२९३) त्रिफलादिवाथः पिलाकर दोषोंको पचाना चाहिए । (च. सं. । चि. स्था. कामला.; च. द.। काम.) | (२२९७) त्रिफलादिविरेचनम् त्रिफलाया गुडूच्या वादाा निम्बस्य वारसम्। (. मा. । शीतपि.; वृ. नि. र.) शीतं मधुयुतं प्रातः कामलाःपिबेन्नरः॥ । त्रिफलापुरकृष्णाभिर्विरेकश्चात्र शस्यते । कामला रोगकी शान्तिके लिए प्रातःकाल त्रिफलां क्षौद्रसहितां पिबेद्वा नवकार्षिकम् ॥ त्रिफला, या गिलोय, या दारुहल्दी अथवा नीमकी शीतपित्त रोगमें त्रिफलेके काथमें गूगल और छालके शीत कषायमें शहद डालकर पीना चाहिए। पीपलका चूर्ण मिलाकर उससे घिरेचन कराना (२ तोले औषधको कूटकर रातको १० तोले चाहिए अथवा शहदके साथ त्रिफला चूर्ण चटाना पानीमें भिगो दें प्रातःकाल मल छानकर १॥ चाहिए, या नवकार्षिक काथ पिलाना चाहिए। तोला शहद डालकर पिएं। (२२९८) त्रिफलादिविरेचनम् (वं.से. नेत्र.) (२२९४) त्रिफलादिकाथः (वृ.नि.र.मूत्राघा.) त्रिफलादशमूलानां नियूहं दुग्धमिश्रितम् । वराम्बुलवणञ्चैव समूतं यः पिबेन्नरः। गन्धर्वतैलसंयुक्तं प्रयुञ्जीत विरेचनम् ।। तस्य नश्यन्ति वेगेन मूत्राघातास्त्रयोदशः॥ त्रिफला और दशमूलके क्वाथमें समान भाग त्रिफलाके काथमें सेंधानमक मिलाकर उसके । दूध और ४-५ तोले अरण्डका तैल (काष्ट्रालय) साथ रस सिन्दूर सेवन करनेसे १३ प्रकारके | मिलाकर पिलानेसे विरेचन होकर वातज तिमिर मूत्राघात अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। | रोग नष्ट होता है। (२२९५) त्रिफलादिक्काथ: । (२२९९) त्रिफलायोगः ।(ग. नि. । ग्रन्थ्य.) (र. र. । अ. १२ प्रेम.; वं. से. । प्र.) सकाञ्चनारात्रिफलाजले श्रृता त्रिफला मुस्तकं दारुहरिद्रा देवदारु च । प्रशस्यते मागधिकावचूर्णिता । तत्काथं मतिमान्मेहान्बहुपत्ररजं जयेत् ॥ सगण्डमालागलगण्डरोगिणां त्रिफला, मोथा, दारु हल्दी, और देवदारुके - फलत्रिकाढयं यवमुद्गभोजनम् ।। काथके साथ अभ्रकभस्म सेवन करनेसे प्रमेह त्रिफला और कचनारकी छालके काथमें पीपनष्ट होता है। | लका चूर्ण मिलाकर पिलाने और त्रिफला चूर्ण For Private And Personal Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३३२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [ तकारादि vvvvAANA मिलाकर मूंगकी दाल तथा जौकी रोटी खिलानेसे | त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), पीपलामूल, गण्डमाला और गलगण्ड रोग नष्ट होता है। देवदारु, हर्र, बहेड़ा और आमला, समान भाग (२३००) त्रिफले ( भै. र. । परि.) लेकर काथ बनाकर उसमें यवक्षार सेंधानमक, पथ्या विभीतकं धात्री महती त्रिफला मता। सामुद्रनमक और कालानमक मिलाकर पीनेसे स्वल्पा काश्मयखजूरपरूषकफलैभवेत् ॥ | वातकफज अण्डवृद्धि नष्ट होती है। हर, बहेड़ा और आमलेके मिश्रणको (यवक्षार २ माशे और तीनों नमक मिला"वृहत्त्रिफला" और खम्भारी, खजूर तथा फालसेके | कर १ माशा लेने चाहियें।) फलोंके मिश्रणको "लघुत्रिफला" कहते हैं। । (२३०४) त्र्यषणादिकाथ: (२३०१) त्रिवृतादिक्काथः (बृ.मा.शो. वृ.नि.र.) (वृ. नि. र. । ज्वर.; वं. से.) क्षीराशिनःपित्तकृते तु शोथे त्र्यूषणःदशमूलशुण्ठीभार्गीछिन्नोद्गवः काथः । त्रिद्गुडूचीत्रिफलाकषायम् । पीतःशमयति सहसा ज्वरमुग्रं सन्निपाताख्यम् । पिबेद्वां मूत्रविमिश्रितं वा त्रिकुटा, दशमूल, सोंठ, भारंगी और गिलोय फलत्रिकचूर्णमथाक्षमात्रम् ॥ का काथ पीनेसे भयङ्कर सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। पित्तज शोथमें निसोत, गिलोय और त्रिफला इति तकारादिकषायप्रकरणम । का काथ अथवा गोमूत्रके साथ १। तोलाकी मात्रा नुसार त्रिफलाका चूर्ण पिलाना चाहिए। अथ तकारादिचूर्णप्रकरणम् (२३०२) त्रिवृतादिक्काथः । | (२३०५) तवराजादिचूर्णम्(वृ. नि. र. । क्षय.) (वं. से.; ग. नि.; . मा.; । वृ. नि. र.; र. र.; तवराजकणाद्राक्षा खर्जरं मधुकं त्रुटी । च. द.। ज्वर.; हा. सं. । स्था. ३ अ. २) लवङ्गं पत्रकश्चैव नागकेसर नामतः ॥ त्रिद्विशालाकटुकात्रिफलारग्वधैःशृतः। मधुना भक्षितं हन्ति चूर्णमेषां हि निश्चितम्। समारों भेदनःकाथः पेयः सर्वज्वरापहः॥ भ्रमं दाहं शिरःपीडां क्षयरोग न संशयः ।। निसोत, इन्द्रायण, कुटकी, त्रिफला और यवासशर्करा (जवासेकी खांड-शीरखिस्त), अमलतासके क्वाथमें यवक्षार मिलाकर पीनेसे पीपल, मुनक्का, खजूर, मुलैठी, सफेद या हरी विरेचन होकर समस्त ज्वर नष्ट हो जाते हैं। इलायची, लौंग, तेजपात और नागकेसर समान २३०३) त्र्यूषणादिक्काथः (वं.मा.।वृद्धय.;वं.से.) | भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। त्र्युषणं पिप्पलीमूलं देवदारू फलत्रिकम् । इसे शहदके साथ सेवन करनेसे भ्रम, दाह, कषायं पाययेद् ह्येष समारलवणत्रिकम् ॥ ! शिरपीड़ा और क्षय रोग अवश्य नष्ट हो जाता है। : संस्कारै इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] ( मात्रा - ३ माशे प्रातः, ३ माशे सायम् । ) प्रकरण में देखिए ताप्यादिचूर्णम् | ताम्रादिचूर्णम् (२३०६) तालकन्दादियोगः (यो. र. । मूत्र.) तालकन्दञ्च खर्जूरं मधुकञ्च विदारिकाम् । सितामधुयुतां खान्मूत्रातीसारनाशनम् ॥ तालवृक्षकी जड़, खजूर, मुलैठी, विदारीकन्द और मिश्री समान भाग लेकर चूर्ण करके शहदके साथ सेवन करनेसे मूत्रातिसार नष्ट होता है । द्वितीयो भागः । ( मात्रा - प्रातः सायं ३ - ३ माशे । ) (२३०७) तालपत्रक्षारः ( वृ. नि. र. । मेदो . ) क्षारं वा तालपत्रस्य हिङ्गुयुक्तं पिवेन्नरः । मेदोवृद्धिविनाशाय भक्तमण्डसमन्वितम् ॥ | 1 तालपत्र ( ताड़ के पत्तों के ) क्षारको समान भाग हींगमें मिलाकर चावलों के साथ सेवन करनेसे मेदोवृद्धि रोग नष्ट होता है (२३०८) तालीसगैरिकयोगः (यो.त. त.७५) aretara पी विडालपदमात्रके । शीताम्बुना चतुर्थे वन्ध्या नारी प्रजायते ।। तालीसपत्र और गेरु का समान भाग चूर्ण मिलाकर १। तोलेकी मात्रानुसार ठण्डे पानीके साथ मासिक धर्मके चौथे दिन पीनेसे स्त्री वन्ध्या हो जाती है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३३ ] शहद मिलाकर पीने से कफपित्तज खांसी, तमकश्वास, स्वरभेद और रक्तपित्त नष्ट होता है । (२३१०) तालीसादिचूर्णम् ( वृ. नि. र. यो. र. । ज्वर; शा. सं. । ख. २ अ. ६; यो त । त. २७ ) तालीस मरिचं शुण्ठी पिप्पली वंशरोचना | एकद्वित्रिचतुः पञ्च कर्षेर्भागान्प्रकल्पयेत्॥ एलात्वचोस्तु कर्षां प्रत्येकं भागमाहरेत् । द्वात्रिंशत्कर्षतुलिता प्रदेया शर्करा बुधैः ॥ तालीसाद्यमिदं चूर्ण रोचनं पाचनं स्मृतम् । कासश्वासज्वरहरं छर्द्यतीसारनाशनम् ॥ शोफाध्मानहरं प्लीहग्रहणीपाण्डुरोगजित् । पक्त्वा वा शर्करा चूर्ण क्षिपेत्सा गुटिका मता ।। तालीसपत्र १ । तोला, काली मिर्च २॥ तोले, सोंठ ३ ॥ तोले, पीपल ५ तोले, बंशलोचन ६ । तोले, इलायची ७॥ मापे, दालचीनी ७॥ माषे और मिश्री ४० तोले लेकर यथाविधि चूर्ण बना लीजिए अथवा मिश्री की चाशनी करके उसमें समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर गोलियां बना लीजिए । यह ' तालीसादि चूर्ण' रुचिवर्धक, पाचक, तथा खांसी, श्वास, ज्वर, वमन, अतिसार, शोथ, अफारा, संग्रहणी, तिल्ली और पाण्डु रोग नाशक है । ( मात्रा - २ - ३ माशे । प्रातः सायं शहदके साथ चाटें । ) (२३०९) तालीसचूर्णम् (२३११) तालीसादिचूर्णम् ( वृं. मा. । रक्त. पि.; हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) तालीशचूर्णयुक्तः पेयःक्षौद्रेण वासकस्वरसः । कफपित्तकासतमकश्वासस्वरभेदरक्तपित्तहरः । ( यो त । त. २२; यो. र. ) तालीसोग्रातुगापडूषण निशाविल्वाजमोदासठी । तालीस पत्रके चूर्णमें बासेका स्वरस और चातुर्जातलवङ्गधातु किंविषाजातीफलं दीप्यकम् ।। For Private And Personal Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org –भैषज्य–रत्नाकरः । [ ३३४ ] पाठा मोचरसालपञ्चलवणाजाजीद्वयं वेल्लकम् । वृक्षाम्लाम्लवरापलाशतरुजं मांस्यम्बुदं बालकम् ।। ऐन्द्र ब्रह्मवर्चला दृढपदी कु समस्तं समम् । बल्या सर्वसमा जयाखिलसमा मत्स्यण्डिका भारत कारादि यह बालकों के लिए विशेष हितकारी और उनके स्वरको स्पष्ट करनेवाला है । ( मात्रा १ || माशा ) (२३१२) तालीसाद्यंचूर्णम् (वं. से. । राजय.) वासिता ॥ तालीसमरिचनागरपिप्पलीतन्मूलत्रुटिफलत्वचः । चूर्णोयं ग्रहणीक्षयादिकसनश्वासारुचिप्लीहरुक् । जातिफलमृणालं त्वक्क्षीरीमुस्ततुल्यांशम् ॥ दुर्नामातिष्टतिज्वरातिंपवनस्थौल्यप्रमेह प्रणुत् ॥ चूर्ण त्रिगुणसितोपलमेतदुच्यं प्रदीपनं हृद्यम् । तीव्रापस्मृतिपाण्डुगुल्मजठरश्लेष्मोत्थपित्तोद्भवो ज्वररक्तपित्तकासश्वासक्षयगुल्मशूलघ्नम् ॥ न्मादध्वंसविधायको विजयते सर्वामयध्वंसकः॥ कृम्यतिसारग्रहणीहृद्रोगामूढमारुतं दाहम् । करचरणादिषु शमयति पाण्डुगदं कण्ठरोगश्च ॥ बालानां च विशेषहितकरो सुस्पष्टवाणीप्रदः । तालीसपत्र, मिर्च, सोंठ, पीपल, पीपलामूल, पुष्ट्यायुर्बलकान्तिधी स्मृतिमहामेधाविलासप्रदः । सफेद इलायची, दालचीनी, जायफल, कमलनाल, बसलोचन और मोथेका चूर्ण १-१ भाग तथा मिश्रीका चूर्ण ३३ भाग लेकर सबको एकत्र मिला लीजिए । तालीसपत्र, बच, बंसलोचन, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, मिर्च, हल्दी, बेलगिरी, अजमोद, कचूर, दालचीनी, तेजपात, नागकेसर, इलायची, लौंग, धायके फूल, अतीस, जायफल, अजवायन, पाठा, मोचरस, हरताल, पांचोनमक, सफेद जीरा, काला जीरा, बायबिडंग, तिंतड़ीक, चूक, त्रिफला, पलाशका क्षार, जटामांसी, नागरमोथा, सुगन्धवाला, इन्द्रायनकी जड़, हुलहुल, भूई आमला और कूठ । १--१ भाग, असगन्ध ४६ भाग, भांग ९२ भाग, और मिश्री १८४ भाग लेकर यथाविधि चूर्ण बना लीजिए । इसके सेवनसे ग्रहणी, खांसी, क्षय, श्वास, अरुचि, तिल्ली, बवासीर, अतिसार, ज्वर, वायु, स्थूलता, प्रमेह, अपस्मार (मिर्गी), पाण्डु, गुल्म, उदरविकार, कफज और पित्तज उन्माद इत्यादि सैकड़ों रोग नष्ट होते और आयु, बल, पुष्टि, कान्ति, मेधा और स्मरणशक्ति की वृद्धि होती है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्वास, यह चूर्ण रुचिवर्द्धक, अग्निदीपक, हृदयके लिए हितकारी, और ज्वर, रक्तपित्त, खांसी, क्षय, गुल्म, शूल, कृमि, अतिसार, ग्रहणी, हृद्रोग, मूढवात, हाथपैरोंकी दाह, पाण्डु तथा कण्ठ रोगों को नष्ट करने वाला है । ( मात्रा ६ माशे । शहद में मिलाकर प्रातः सायं चाटें ।) (२३१३) तिक्तकं चूर्णम् (ग. नि. । चूर्णा . ) मुस्तं त्रिकटुकं पाठां त्वग्वीजं वत्सकस्य च । निम्बं पटोलं कटुकां हरिद्रां धन्वयासकम् ॥ जातीमवालं भूनिम्बं मधुकं सरसाञ्जनम् । त्रायमाणां गुडूचीं च त्रिफलां चेति चूर्णयेत् ॥ चूर्णोऽयं तिक्तको नाम कवलः प्रतिसारिणम् । दन्तमूलास्यगलजान्रोगानाशु व्यपोहति ॥ For Private And Personal Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३३५] मोथा, त्रिकुटा, पाठा, दालचीनी, इन्द्रजौ, । (२३१५) तिक्ताचूर्णम् (वं. से. वै. र. । ज्व.) नीमकी छाल, पटोलपत्र, कुटकी, हल्दी, धमासा, | सशर्करामक्षमात्रां कटुकामुष्णवारिणा। चमेलीकी कली, चिरायता,मुलैठी, रसौत, त्रायमाणा, ! पीत्वा ज्वरं जयेज्जन्तुः कफपित्तसमुद्भवम् ॥ गिलोय, और त्रिफला समान भाग लेकर चूर्ण १। तोला कुटकी के चूर्ण और खांडको एकत्र बना लीजिए। मिलाकर गर्म पानीसे खानेसे कफपित्तज ज्वर नष्ट इस चूर्णका मञ्जन करनेसे मसूढे, मुख और | होता है गलेके समस्त रोग शीघ्र नष्ट होते हैं। | (२३१६) तिलबाकुच्योर्योगः (ग. नि.। कु.) (२३१४) तिक्ताख्यं चूर्णम् । तिलैःसमां बाकुचिकां हिताशी (वं. से. । हृद्रो. ग. नि.। परि. चूर्णा.) ___ संवत्सरं यो नियमेन खादेत् । मुस्तैलाचन्दनोशीरजीवनीव्योषचित्रकाः।। तस्य प्रणश्येत्पवलं हि कुष्ठं । बिल्वत्वक्कटुकादारुदावीत्वक्पर्पटत्वचः॥ मेधादयश्चापि भवन्ति भावाः ॥ पटोलं निम्बषड्ग्रन्थाऋद्धिभूनिम्बशिग्रकाः।। १ वर्ष तक पथ्य पालनपूर्वक तिल और चूर्ण त्रायन्ती सौराष्ट्री केशरातिविषा:समाः॥ बाबचीका समान भाग मिश्रित चूर्ण नित्य प्रति तिक्ताख्यं हन्ति हृद्रोगं शुलहृत् सन्निपातजित ॥ नियमपूर्वक यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे ____ मोथा, इलायची, सफेद चन्दन, खस, भयङ्कर कुष्ठ नष्ट होकर बुद्धि और स्मरणशक्ति जीवनीय गण, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च पीपल) चीता, आदि की वृद्धि होती है। बेलकी छाल, कुटकी, देवदारु, दारु । (२३१७) तिलमूलादिचूर्णम् हल्दीकी छाल, पटोलपत्र, दालचीनी, नीमको छाल, (यो. र.; वृ. नि. र. । गुल्म.) बच, ऋद्धि, चिरायता, सहजना, त्रायमाणा, फटकी, तिलमूलश्च शिग्रुश्च ब्रह्मदण्डीयमूलकम् । नागकेसर और अतीस । सब चीजें समान भाग | मधुयष्टीत्रिकटुकैर्युतं चूर्णमुपासते ॥ लेकर चूर्ण बनावें। पुष्परोधे वातगुल्मे स्त्रीणां सद्यःसुखावहम् ।। इसके सेवनसे हृद्रोग, शूल और सन्निपात तिलकी जड़, सहजने की जड़की छाल, नष्ट होता है। | ब्रह्मदण्डी की जड़, मुलैठी और त्रिकुटा (सोंठ, ग. नि. में ऐसा पाठ है १ मुस्तैलाचन्द नोशीरं यवानी व्यीषवत्सको । फलं त्वक् कटुका दारु दाऊत्वकूपर्पटस्तथा ॥ पटोलपत्रं षड्ग्रन्था मूर्वा भूनिम्बशिकाः त्रायमाणा च सौराष्ट्री सुरा प्रतिविषासमाः तितकं नाम हृदगुल्मशूलनं सन्निपातनुत् ॥ For Private And Personal Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि मिर्च, पीपल ) के चूर्णको सेवन करनेसे पुष्परोध (२३२०) तिलादिक्षारयोगः (मासिक धर्म न होना) और वातज गुल्म नष्ट (यो. र.; ग. नि. । अश्म.) होता है। क्षारोनिपीतस्तिलनालजातः (मात्रा ३ माशे । अनुपान तिलका काथ या समाक्षिकक्षीरयुतस्त्रिरात्रम् । गर्म पानी ।) हन्त्यश्मरी सिन्धुविमिश्रितं वा (२३१८) तिलसप्तकचूर्णम् (यो. स. । स. ४) निपीयमानं रुचकं प्रयत्नात् ।। तिलाग्निकव्योषविडङ्गपथ्या तिलनालका क्षार शहदमें मिलाकर ३ दिन चूर्ण गुडेनाथ जयेत्समस्तान् । तक दूधके साथ सेवन करनेसे अश्मरी(पथरी)नष्ट हो दुर्नामकान्पाण्डुगदान् कृमींश्च जाती है । अथवा मूलीके बीजोंके क्वाथमें सेंधानमक कासाग्निसादज्वरगुल्मरोगान् ॥ मिलाकर पीनेसे भी पथरी नष्ट हो जाती है। तिल, चीता, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल). (२३२१) तिलादिक्षारयोगः बायबिड़ङ्ग, और हरके चूर्णको गुड़के साथ सेवन | (. मा.; वृ.नि. र. । अश्मरी; वा. भ.चि.अ. ११) १. ना. करनेसे सर्व प्रकारकी बवासीर, पाण्डु, कृमि, । तिलापामार्गकदलीपलाशयवसंभवः । खांसी, अग्निमांद्य, ज्वर, और गुल्मरोग नष्ट होता है। क्षारःपेयोऽविमूत्रेण शर्करास्वश्मरीषु च ॥ तिल, अपामार्ग, केला, पलाश और यव । (चूर्णकी मात्रा-६ माशे। गुड़ ६ माशे । इन सबके क्षार समान भाग एकत्र मिलाकर गरम पानीसे प्रातःसायं खाएं ) यथोचित मात्रानुसार भेड़के मूत्रके साथ सेवन (२३१९) तिलादिक्षारः (वं. से. । उदर.) करनेसे शर्करा (पेशाबके साथ आनेवाली रेते ) तिलैरण्डद्रमस्तस्य क्षारो भल्लातकं कणा। और अश्मरी (पथरी) नष्ट होती है। एपां भाग समं कृत्वा तत्तुल्यन्तु गुडं मतम् ॥ (मात्रा-१-१॥ माषा । ) खादेदग्निबलं मत्वा पावकस्य विवृद्धये। (२३२२) तिलादिचूर्णम् (ग. नि. । राजय.) जयेप्लीहानमत्युग्रं यकृद्गुल्मं तथैव च॥ तिलमाषाश्वगन्धानां चूर्णमाजघृतान्वितम् । तिल और अरण्डका क्षार,शुद्ध भिलावा और पीपल लियाद्रौद्रयुतं प्रातः क्षयव्याधि निबर्हणम् ।। समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए । इसे समान : तिल, उर्द और असगन्धका समान भाग भाग गुड़में मिलाकर यथोचित मात्रानुसार सेवन । चूर्ण एकत्र मिलाकर बकरीके धी और शहदके करनेसे अत्यन्त प्रवृद्ध प्लीहा (तिल्ली) यकृत् साथ प्रातःकाल सेवन करने से क्षय रोग नष्ट ( जिगर ) और गुल्मका नाश होता तथा अग्निकी होता है। वृद्धि होती है। ( मात्रा-१।। मासे ३ माशे तक । घी ( मात्रा-१॥ माशा। गर्म पानीसे खाएं) ! १ तोला । शहद ३ तो.) For Private And Personal Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir vvvvvvvvvvvvvvvvvvvinARYANVRAPAYVnonvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvin चूर्णप्रकरणम् द्वितीयो भागः। . [३३७] (२३२३) तिलादिप्रयोगः (यो. स.। स. ४) (२३२६) तिलाद्यं चूर्णम् (ग. नि. चूर्णा.) हैयङ्गवीयेन समं तिलानां तिलकर्कन्धुलाजानां चूर्ण मध्वाज्यलेहितम् । चूर्ण युतं शरिया निहन्यात् ।। क्षीरानुपानं मासेन शोषघ्नं नास्त्यतःपरम् ॥ अशशि दुष्टान्यपि पित्तजानि तिल, बेरको गुठलीकी गिरी, और धानकी दिनैरन पैश्च चिरन्तनानि ।। । खीलों के समान भाग मिश्रित चूर्णको शहद और काले तिलोंका चूर्ण और खांड समान भाग | घीमें मिलाकर चाटकर ऊपरसे दूध पीनेसे १ मासमें मिलाकर गायके नवनीत (नौनी धी-मस्का) के शोष रोग नष्ट हो जाता है । शोषके लिए. इससे साथ चाटनेसे पुरानी, दुष्ट पित्तज बवासीर नष्ट अच्छी अन्य एक भी औषध नहीं है। होती है। (मात्रा-२ तोलेसे ३ तोले तक। धी १ (२३२४) तिलादिप्रयोगः तोला । शहद ४ तोले ) (वै. म. र. । प. १;. मा.; च. द.; वं. से. । अर्श.) नोट-यह चूर्ण बमनके लिए भी अत्युत्तम है। तिलभल्लातकं पथ्या गुडश्चेति समांशिकम्। (२३२७) तुगाचूर्णम् (वृ. नि. र. । बा. रो.) दुर्नामकासश्वासनं प्लीह पाण्डुज्वरापहम् ॥ तुगां क्षौदैश्च संलिह्याच्छासकासौ शिशोर्जयेत्। तिल, शुद्ध भिलावा, हर्र और गुड़ समान । बंसलोचन के चूर्णको शहद में मिलाकर भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। इसे यथोचित चटानेसे बालकोंका श्वास और खांसी नष्ट होती है। (१ तोला तक ) मात्रानुसार (गर्म पानी के साथ) (२३२८) तुम्बर्वादिकं चूर्णम् . सेवन करने से बवासीर, खांसी, श्वास, तिल्ली. (शा. सं. | खं. २ अ. ४; यो. चि, । अ. २; पाण्डु और ज्वर नष्ट होता है। __ वृ. यो. त.। त. ९४; यो. र.; ग. नि.; __ वृ. नि. र. । उदर.) (२३२५) तिलादिप्रयोगः तुम्बरूणि त्रिलवणं यवानी पुष्कराहयम् । (यो. त. । त. ६२; वं. से. । कु.) यवक्षाराभया हिङ्ग विडङ्गानि समानि च ॥ तिलाज्यत्रिफलाक्षौद्रव्योषभल्लातशर्कराः । त्रितत्रिभागा विज्ञेया मूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । वृष्या सप्तसमा मेध्य कुष्ठहा कामचारिणः ॥ | पिबेदुष्णेन तोयेन यवकाथेन वा पिबेत् ।। _ तिल, त्रिफला, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) ला, त्रिकुटा (साउ, मिच, पापल) जयेत्सर्वाणिशूलानि गुल्माध्मानोदराणि च ॥x शुद्ध भिलावा और खांड तथा घी और शहद १-- ____ कुस्तुम्बरु, सेंधानमक, विडनमक, कालानमक, १ भाग एवं असगन्ध ७ भाग लेकर चूर्णयोग्य अजवायन, पोखरमूल, जवाखार, हर, हींग (भुना चीजोंका चूर्ण करके सबको एकत्र मिलाकर सेवन हुवा ) और बायबिडंग । इन सबका चूर्ण १--१ करनेसे कुष्ठ का नाश होता तथा मेधा की वृद्धि भाग और निसोतका चूर्ण ३ भाग लेकर एकत्र होती है। मिला लीजिए। १ योगसमुच्चय में इसी प्रयोग में शुण्ठि भी लिखी है। x ७. यो. त, में मिर्च और त्रिकुटा अधिक हैं। भा.४३ For Private And Personal Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३३८ ] भारत - भैषज्य रत्नाकरः [ तकारादि इसे गर्म पानी या जौके काथके साथ सेवन (२३३१) तेजोद्वादिदन्तधावन चूर्णम् । करनेसे सब प्रकारके गुल्म, शूल, अफारा और (वं. से. । मुख.) उदरविकार नष्ट होते हैं । ( मात्रा - ३ माशे । ) (२३२९) तुम्बुर्वादिचूर्णम् तेजोवा मागधीमूलं समङ्गा कटुका घनम् । पाठा ज्योतिष्मती लोध्रं दार्विकुष्ठञ्च चूर्णयेत् ॥ दन्तानां घर्षणं कण्डूरक्तस्रावरुजापहम् ॥ ( वृ. नि. र. ग. नि.; वं. से.; वृं. मा. । उदर . ) च. सं. । चि. स्था. अ. ९ ) तुम्बुरुन्यभयाहिङ्ग पौष्करं लवणत्रयम् । पिबेद्यवाम्बुना वातशूलगुल्महरं परम् ॥+ चच, पीपलामूल, मजीठ, कुटकी, मोथा, पाठा, मालकंगनी, लोध, दारूहल्दी और कूठ समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए । तुम्बुरु ( नैपाली धनिया ), हर्र, हींग, पोखरमूल, सैंधा, विडलवण और कालानमक । समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। इसे जोके पानी के साथ सेवन करने से वातजशूल और गुल्म नष्ट होता है। इसका मञ्जन करनेसे मसूढ़ोंकी खुजली, रक्तस्राव और पीड़ा नष्ट होती है । (२३३२) पुषवीजादियोगः (ग.नि.मूत्रा.) त्रपु सैर्वास्वीजानि कुमुदं कृषकं बला | पुष्करस्य तु वीजानि पिवेद्राक्षारसेन तु ॥ एतेन मूत्रकृछ्राणि पैत्तिकानीतराणि च । अश्मरीशर्करा चैव वस्तिशूलञ्च शाम्यति ॥ (नोट- पिछला प्रयोग " तुम्बुर्वादिचूर्ण' इसी चरको प्रयोगका परिवर्द्धित रूप प्रतीत होता है | ) "" (२३३०) तुम्बुर्वादिचूर्णम् (हा.सं.स्था. ३ अ. ७) तुम्बरु ग्रन्थिकैरण्डव्योषं पथ्याजमोदकम् । सक्षारलवणोपेतं चूर्ण शुले कफात्मके ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तुम्बुरु ( नेपाली धनिया ), पीपला मूल, अरण्डमूल, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल ), हरे, अजमोद, यवक्षार और सेंधानमक समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए । खीरे और फूट ( ककड़ी भेद) के बीज, नीलोत्पल, बासा, खरैटी और कमलगट्टे समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए । इस चूर्ण को द्राक्षाके रस ( ताज़ी द्राक्ष न मिले तो मुनक्का के शीतकषाय ) के साथ सेवन करनेसे पैत्तिक तथा अन्य सब प्रकारके मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, शर्करा और वस्तिशूल नष्ट होते हैं। ( मात्रा १ - १ | तोला । ) 1 (२३३३) त्रपुषादियोगः (ग. नि. अश. ) पुसैव रुवीजानि हरिद्रे दारुसाद्दयम् । इसे ( गर्म पानी के साथ ) खाने से कफज शूल | तण्डुलं. दकपीतश्च हन्यादर्शो हि पित्तजाम् ॥ नष्ट होता है । खीरे और ककड़ी के बीज तथा हल्दी, दारु ( मात्रा २ - ३ माशा | ) हल्दी और देवद्वारके समान भाग मिश्रित चूर्णको + इस प्रयोगमें गदनिग्रह में अम्लवेतस अधिक है । For Private And Personal Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३३९ ] AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMANANA चावलों के पानीके साथ सेवन करनेसे पित्तज | (मात्रा १ माशा । अनुपान अदरकका रस बवासीर ( अर्श ) नष्ट होती है। और शहद) (२३३४) त्रपुसीवीजादियोगः (वं.से.।मूत्र.) (२३३७) त्रिकटुकादिचूर्णप्रयोगः पीतञ्च त्रपुसीवीजं सतिलाज्यं पयोन्वितम् ॥ (वै. जी. । वि. ३ ) खीरेके बीज और तिल के चूर्णको घीमें | सयुक्तो गुडसर्पिभ्यां चूर्णस्त्रिकटुसम्भवः । मिलाकर दृधके साथ पीनेसे मूत्रकृच्छ रोग नष्ट निहन्ति तरसा श्वासं त्रासानिव सतां हरिः॥ होता है। सोंठ, मिर्च और पीपलके चूर्ण को गुड़ और (२३३५) पुसीवीजादियोगः धीमें मिलाकर सेवन करनेसे श्वास नष्ट होता है। (यो. र.; वं. से. । अश्म.; वृ.यो. त.।त. १०२) (२३३८) त्रिकटुकादिप्रयोगः त्रपुसीवीजं पयसा पीत्वा वा नारिकेरजं कुसुमम (वं. से.; यो. र. । स्त्री. ) दृढमूत्रशर्करावान्भवति सुखी कतिपयैर्दिवसैः॥ ___ खीरेके बीजोंको अथवा नारयलके फूलोंको | | त्रिकटुचातुर्जातककुस्तुम्बरुचूर्णसंयुक्तम् । । खादेद्गुडं पुराणं नित्यं नारी मक्कल्लदलनाय ॥ दूधके साथ पीसकर पीनेसे कुछ दिन में ही मूत्र शर्करा ( पेशाबके साथ आने वाली रेत ) नष्ट हो ___त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), दाल चीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर और कुस्तुम्बरु के (२३३६) त्रिकटुकादिचूर्णम् (वै.म.र.पट.३) चूर्णको पुराने गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे मक्कले त्रिकटुकमजमोदा चित्रको हिङ्ग भार्गी । | शूल नष्ट होता है। विडमपि सह चव्यं सैन्धवं यावशूकम् ॥ (२३३९) त्रिकट्वादिचूर्णम् अमृतमिति भिषग्भिः पूजितश्चूर्णराजः। (वृ.नि.र.;वं. से.; यो. र. । अम्ल;वृ.यो.त.।त.१२२) कफपवनहन्ता शूलहा दीपनश्च ॥ त्रिकटुकसकण्टकारिपर्पटवारिकुटजवीजानाम् । त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), अजमोद, सौराष्ट्रिकापटोलित्रायन्तीदारुमूर्वाणाम् ॥ चीता, हींग, भारंगी, विडनमक, चव, सेंधा, जवा- तिक्तामृणालमलयजकलिङ्गकैलाकिराततिक्तानाम्। खार और बछनाग विष। समान भाग लेकर चूर्ण | सवचातिविषाकेसरदीप्यकमधुशिवीजानाम् ॥ बना लीजिए। चूर्ण परं धमिदं पीतं शिशिरेण वारिणा मातः। इसके सेवनसे कफ, वायु और शूल नष्ट होता क्षौद्रेण चाथ लीढं प्रायेणाधोगतं हन्ति ॥ तथा अग्नि दीप्त होती है। अतिविषममम्लपित्तं पथ्यभुजो वासरै:कैश्चित् ।। १ दध्नेति पाठान्तरम् २ प्रसबके पश्चात् भलीभांति रक्तस्राव न होनेसे वायुद्वारा हृदय, शिर' और वस्तिमें होनेवाले शूलको "मकल झूल" कहते हैं। जाती है। For Private And Personal Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३४०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि - - ~ ~ R.. :.... .. - - y M y V . त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), कटेली, पित्त त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), पीपलामूल, पापड़ा, सुगन्धबाला, इन्द्रजौ, सौराष्ट्री', पटोलपत्र, ब्राह्मी, रेणुका, अकरकरा; पोखरमूल, लौंग, असत्रायमाणा, दारुहल्दी, मूर्वा, कुटकी, कमलनाल, गन्ध, चिरायता, हाऊबेर, कचूर, रास्ना, श्वेतासफेद चन्दन, कुडेकी छाल, इलायची, चिरायता, पराजिता (कोयल), बच और भांगरा । सब चीजें बच, अतीस, केसर, अजवायन, मुलैठी और समान भाग लेकर चूर्ण बनाकर रक्खें । संहजनेके बीज । सब चीजोंका समान भाग महीन इसके सेवनसे सन्निपात और वात व्याधि चूर्ण लेकर एकत्र मिला लीजिए। नष्ट होती है। __ इसे पथ्यपालन पूर्वक शीतल जलके साथ (२३४२) त्रिकट्वादिचूर्णम् (यो. चि.अ.२) फांकने या शहदमें मिलाकर चाटनेसे कुछदिनोंमें | त्रिकटुत्रिफलाधान्ययवानी शतमूलिका । ही भयङ्कर अम्लपित्त भी नष्ट हो जाता है। वचाभार्गी तथा ब्राह्मी चूर्ण समधुलेहयेत् ।। (२३४०) त्रिकटवादिचूर्णम् (र. र. । कास.) वाक्पतित्वं च वालानां वाणीवाद्यसमज्वरम् । तैलं तीक्ष्णं रूक्षमम्लं वातलश्च विवर्जयेत् ॥ कटुत्रयं पाठा देवदारु ___त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, बहेड़ा रास्ना विडङ्गत्रिफलाषाणाम् । आमला, धनिया, अजवायन, शतावर, बच, भारंगी चूर्ण समांशं सितया विमिश्रं और ब्राह्मी समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। कासं जयेद्विष्णुरिवातिपापम् ॥ इसे शहदके साथ चटानेसे बालकोंका स्वर त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), पाठा, देव- शुद्ध होता और ज्वर नष्ट होता है। दारु, रास्ना, बायबिडङ्ग, त्रिफला, और बासा। परहेज़-तेल, मिर्च इत्यादि तीक्ष्ण पदार्थ, समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए और उस | तथा रूक्ष, अम्ल और वातल पदार्थोसे परहेज़ सबके बराबर मिश्री मिलाकर रखिए। कराएं। इसके सेवनसे खांसी अत्यन्त शीघ्र नष्ट । (२३४३) त्रिकण्टकादिचूर्णम् होती है। (वृ. नि. र.; ग. नि.; वृं. मा.; च. द.; यो. र.; - (मात्रा ६ माशे । अनुपान शहद ।) वं. से । अश्म०) (२३४१) त्रिकट्वादिचूर्णम् (यो. चि.अ.२) त्रिकण्टकस्य वीजानां चूर्ण माक्षिकसंयुतम् । त्रिकटुकग्रन्थिकं ब्राह्मी रेणुकाऽऽकल्लपुष्करम्। आविक्षीरेण सप्ताहं पिबेदश्मरिभेदनम् ॥ लवङ्गमश्वगन्धा च किरातं हपुषा सठी॥ गोखरुके फलोंके चूर्णको शहदमें मिलाकर रास्ना श्वेता वचा भृङ्गं सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । चाटकर ऊपरसे भेड़का दूध पीनेसे १ सप्ताह में सन्निपाते महावाते चूर्ण मेवं सदाहितम् ॥ पथरी नष्ट हो जाती है । १ एक प्रकारकी सुगन्धित मिट्टी । अभावमै गोपीचन्दन के। For Private And Personal Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३४१] - कादिचूणम् (२३४४) त्रिकण्टकादिचूर्णम् | भी मिला ली जाय तो उसका नाम 'चतुर्जात' (वं. से. । वाजी.; नपुंसका. । त. ३) हो जाता है। त्रिकण्टकामगुप्तानां वीजचूर्णसशर्फरम् । त्रिगन्ध और चतुर्जात रूक्ष, उष्ण, तनिक क्षीरेण यापिबद्गच्छेद्दशवार निरन्तरम् ॥ पित्तकारक, वर्ण (शरीरके रंग) को सुधारने वाले, गोखरु, और कौं चके बीज बराबर बराबर रुचिकारक, तीक्ष्ण और पित्तश्लेष्म नाशक हैं । लेकर चूर्ण बनाएं। इसमें सबके बराबर खांड । (२३४७) त्रिजातकादिचूर्णम् मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे नित्यप्रति दश (वै. मृ. । अलं. २ विषय १३) बार स्त्री रमणकी शक्ति प्राप्त होती है। त्रिजातकव्योषलवङ्गजीर(मात्रा-३ से ६ माशे तक ।) नागाहयग्रन्थिकचूर्णमेतत् । (२३४५) त्रिकण्टकादिप्रयोगः मधुप्रयुक्तं सहसा निहन्ति (यो. स. । समु. ४) द्विष्टार्थनां छदिमपि प्रसक्ताम् ॥ त्रिफण्टवीर्यामुशलीस्वगुप्ता ___ इलायची, दालचीनी, तेजपात, सोंठ, मिर्च, ___ चूर्ण सिताढयं मधुनानु दुग्धम् ।। पीपल, लौंग, जीरा, नागकेसर और पीपलामूलका लीढ़वाप्तवीर्यो विगतलमोसौ समान भाग चूर्ण शहदके साथ मिलाकर चाटनेसे ___ स्त्रीणां शतं क्रीडति कामकेलौ॥ खराब पदार्थोके देखने या सूंघने आदिसे उत्पन्न गोखरु, शतावर, मूसली, और कौं वके बीजों उल्टी तुरन्त नष्ट हो जाती है। (मात्रा ३ माशे।) का समान भाग चूर्ण और सबके बराबर मिश्री (२३४८) त्रिजात्यादिचूर्णम् (यो.चि.।चूर्णा.) लेकर एकत्र मिला लीजिए। त्रिजातिविश्वात्रिफलाविडङ्ग, इसे शहदमें मिलाकर चाटकर ऊपरसे दूध ___ द्राक्षानिशायुग्ममरिष्टपत्रम् । पीनेसे, वीर्य और कामशक्तिकी वृद्धि तथा क्लम (बिना कृष्णा गुडूची मिषिमेषशृङ्गी, परिश्रम किए ही थकान रहना)का नाश होता है। पुरातनाः षष्टिकतन्दुला च ॥ एतानि चूर्णानि समानि कृत्वा, ( मात्रा ६ माशे ।) सिता प्रदेया तदनन्तरं समा। (२३४६) त्रिगन्धम् (शा. सं. । ख. २ अ. ६) दिनोदये चूर्णमिदं हि खादन् , त्रिगन्ध मेलात्वपत्रैष्चातुर्जातं सकेशरम् । कुर्यानरं शीतरसापहारी ॥ त्रिगन्धं स चतुति रूझोष्णं लघु पेतकृत् ॥ दद्रुणि रक्तं कुपितं च पित्तं, घर्यरुचिकर तीक्ष्णं पितश्लेष्माम पाञ्जयेत् ॥ कुष्ठाम्लपित्तं खसखुजिपामा । इलायची, दाल चीनी ओर तेजपातके समूह . विस्फोटकान् मण्डलकान् प्रदोषान् , का नाम 'निगन्ध' है। यदि निगन्धमें नागकेसर । अनेकदोषान् प्रशमं प्रयान्ति ॥ For Private And Personal Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३४२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि vvvvvvvvvv इलायची, दालचीनी, तेजपात, सोंठ, हर्र, विडङ्ग पिप्पलीमूलं स्वजिकां निम्बचित्रकौ॥ बहेड़ा, आमला, बायबिडङ्ग, मुनक्का, हन्दी, दारु मूर्वाजमोदेन्द्रश्वान् गुडूची देवदारु च । हल्दी, नीमके पत्ते, पीपल, गिलोय, सौंफ, मेढा- कार्षिकं लवणानाञ्च पश्चानां पालिकान्पृथम्।। सिंगी, और पुराने साठी चावल, समान भाग तथा भागान्दनि त्रिकुडवे चततैलेन मूछितान् । मिश्री इन सबके बराबर लेकर चूर्ण बना लीजिए। अन्तमं शनैर्दग्ध्वा तस्मात्पाणितलं पिबेत् ॥ __ इस चूर्णको सेवन करने और शीतल पदार्थो सर्पिषा कफवाताझे ग्रहणीपाण्डुरोगवान् । का त्याग करनेसे दाद, रक्तकोप, पित्त, कुष्ट, अम्ल- प्लीहमूत्रग्रहश्वासहिक्काकासकृमिज्वरान् ॥ पित्त, खुजली, पामा, विस्फोटक, मण्डल इत्यादि शोषातिसारौ यक्ष्माणं प्रमेहानाहहृद्ग्रहान् । अनेकों रोग नष्ट होते हैं। हन्यात्सर्वविषाणाञ्च क्षारोऽनिजननोवरः॥ (२३४९) त्रिफलाचूर्णम् त्रिफला, मालकंगनी, चव, बेलगिरी, लोहचूर्ण, (वृ.नि. र.;.मा.; यो, र. । उरु.; वं. से. । आ. वा.) मांसरोहिणी, कुटकी, मोथा, कूठ, पाठा, हींग, लिह्याद्वा त्रिफलाचूर्ण क्षौद्रेण कटुकायुतम्। । जौकाक्षार, मुष्कक (घण्टापारुल-मोषा ) का क्षार, सुखाम्बुना पिबेद्वापि चूर्ण षड्धरणं नरः॥ मुलैठी, त्रिकुटा, वच, बायबिडंग, पीपलामूल, सज्जी, हर्र, बहेड़ा, आमला और कुटकीके चूर्णको नीमकी छाल, चीता, मूर्वा, अजमोद, इन्द्रजौ, शहदके साथ चाटनेसे अथवा “षधरण" चूर्णको गिलोय और देवदारु १।-१। तोला, सेंधा, मन्दोष्ण पानीके साथ पीनेसे उरुस्तम्भ रोग नष्ट विडलवण, सामुद्रलवण, कालानमक, और काच होता है। लवण ५-५ तोले लेकर सबको कूटकर थोड़ा (२३५०) त्रिफलाचूर्णम् (यो. चिं. । चूर्णा.) थोड़ा घी और तैल मिलाकर एक हांडीमें भर त्रिफला त्रपुषीवीजं सैन्धवन्तु शिलाजतु । दीजिए और उसमें ६० तोले दही मिलाकर उसके वद्धमूत्रे हितं चूर्ण नात्र कार्या विचारणा ॥ मुखपर शराव ढककर कपर मिट्टी कर दीजिए। हर, बहेड़ा, आमला, खीरेके बीज, सेंधानमक जब कपरौटी सूख जाय तो हाण्डीको चूल्हे पर और शिलाजीत समान भाग लेकर चूर्ण बना चढाकर उसके नीचे (१ पहर तक ) मन्दाग्नि लीजिए। जलाइये और फिर हाण्डीके स्वांगशीतल हो जाने इसके सेवनसे बद्धमूत्र खुल जाता है। पर उसके भीतरसे औषधको निकालकर पीस (२३५१) त्रिफलादिक्षार: लीजिए। (च. सं. । चि. स्था. अ. १९; ग. नि. ग्रह. ) | इसे १। तोलेकी मात्रानुसार धीमें मिलाकर त्रिफलां कटभी चव्यं बिल्वमध्यमयोरजः। सेवन करनेसे कफ और वातज अर्श, ग्रहणी, पाण्ड, रोहिणीं कटुकां मुस्तं कुष्ठं पाठाञ्च हिङ्ग च ॥ तिल्ली, मूत्रावरोध, खांसी, स्थास, हिचकी, कृमि, यवमुष्ककयोक्षारं मधुकं त्र्यूषणं वचाम् । ज्वर, शोष, अतिसार, यस्मा, प्रमेह, आनाह, For Private And Personal Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३४३] हृद्ग्रह और विर्षोंका नाश होता तथा अग्निवृद्धि | त्रिफलादिचूर्णम् (यो. र.; वं. से. । नेत्र.) होती है। रसप्रकरणमें देखिए । ( व्यवहारिक मात्रा ३ माशे) (२३५४) त्रिफलादिचूर्णम् (वं. से.। शू.) (२३५२) त्रिफलादिचूर्णम् | त्रिफलायास्तथा चूर्ण चूर्ण वा काललोहजम् । (हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) शर्कराचूर्णसंयुक्तं सर्वशूलनिवारणम् ॥ रक्तातिसारे च प्रयोजनीयं त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ) के चूर्ण रक्तप्रवाहे सरुजे सदाहे। अथवा तीक्ष्णलोहके चूर्णको समान भाग मिश्रीमें फलत्रिकञ्चैव विषा समङ्गा मिलाकर खानेसे सर्व प्रकारके शूल नष्ट होते हैं । सपर्पटं दाडिमधातुकीनाम्॥ (मात्रा-त्रिफलाचूर्ण ६ माशे। लोहचूर्ण । चूर्ण मधुशर्करया समेत माशा।) तथैव दध्ना सघतं सलेहम् । नोट-लोहचूर्ण शुद्ध लेना चाहिए, अथवा रक्तातिसारं रुधिरप्रवाह शुद्ध मण्डूर प्रयुक्त करना चाहिए। योनिप्रवाहं सततं स्त्रियश्च ॥ (२३५५) त्रिफलादिचूर्णम् (बृ.यो.त.;ग.नि.) निवारयत्याशु हितं नराणां त्रिफलारजःसमानं रजो रजन्या सितासमानेन । बालातिसारे प्रशमाययोग्यम् ॥ त्रिफला, अतीस, मजीठ, पित्तपापड़ा, अनार मधुना च लीढमेतत्पमेहनामापि नाशयति । त्रिफला और हल्दी का समान भाग चूर्ण दाना और धायके फूल । समान भाग लेकर चूर्ण एकत्र मिलाकर उसमें उसके बराबर मिश्री मिला बनाएं। लीजिए। ___ इसे मिश्री और शहद में अथवा दही और घीमें मिलाकर चाटनेसे पीड़ा और दाहयुक्त रक्तातिसार, प्रमेह नष्ट हो जाते हैं। इसे शहदके साथ सेवन करनेसे सर्व प्रकारके रक्तस्राव, रक्तप्रदर और बालकोंका अतिसार नष्ट (मात्रा-६ माशे।) होता है। (२३५६) त्रिफलादिचूर्णम् (२३५३) त्रिफलादिचूर्णम् । (वृ. नि. र.; ग. नि. । ज्व.) (यो.र.; वृ. नि.र.। ऊस्त.; वृं. मा.। आ.वा.) लिवावरातत्रिफलां पिप्पलीच समाक्षिकाम। त्रिफलाचव्यकटुकाग्रन्थि मधुना लिहेन् । कासे श्वासे च मधुना सर्पिषा च सुखी भवेत् ॥ ऊरुस्तम्भविनाशाय पुरं मूत्रेण वा पिवेत् ॥ त्रिफला और पीपल के चूर्णको शहदके साथ त्रिफला, चव, कुटकी, और पीपलामूल के चाटनेसे ज्वर, और शहद तथा घीके साथ चाटनेसे चूर्णको शहदके साथ चाटने अथवा गूगलको खांसी श्वास नष्ट होते हैं । गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट ( मात्रा-३ से ६ माशे तक। घी १ तो. होता है। शहद ४ तोले ।) For Private And Personal Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि ANMAAVAvvwwwww (२३५७) त्रिफलादिचूर्णम् (वै. जी.। वि. ३) ३ ब्रह्म दिन (६००० दिव्ययुग) की आयु हो फलत्रयं छिन्नरुहा सचित्रा | जाती है। रास्ना कृमिघ्नं सकटुत्रयश्च । । (२३६०) त्रिफलादिविरेचनम् (ग.नि.।ज्व.) चूर्ण समांशं सितया समेतं चूर्णितैत्रिफलाश्यामा त्रिवृत्पिप्पलीकेसरैः। __कासं जयेन्नात्र विचारणीयम् ॥ सक्षौद्रःशहरायुक्तो विरेकस्तु प्रशस्पते ॥ हर बहेडा, आमला, गिलोय, मजीठ, रास्ना, ___ ज्वरमें विरेचन देनेके लिए त्रिफला, काला बायबिडङ्ग, और त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च और पीपल) । निसोत, सफेद निसोत, पीपल और नागकेसरके का समान भाग चूर्ण एकत्र मिलाकर उसमें सबके समान भाग मिश्रित चूर्णको मिश्री और शहद में बराबर मिश्री मिला लीजिए। इसके सेवनसे खांसी मिलाकर खिलाना चाहिए। अवश्य नष्ट हो जाती है । (मात्रा ६ माशेसे १ तोले तक ।) (मात्रा ३से ६ माशे तक। शहदमें मिला- । (२३६१) त्रिफलादीनां योगः (ग.नि.।मूर्छा.) कर दिनमें ३-४ बार चाटें ।) फलत्रिकैश्चित्रकनागराढयै(२३५८) त्रिफलादिप्रयोगः (वं.से.। स्व.मे.) स्तथाऽश्मजाताञ्जतुनः प्रयोगैः। फलत्रिकत्र्यूषणयावशूक सशर्मासमुपक्रमेत चूर्णश्च हन्यात्स्वरभेदमाशु । ___ विशेषतो जीर्णघृतं सपाय्यः ॥ किम्वा कुलित्थं वदनान्तरस्थं त्रिफला, चीता, सोंठ, और शिलाजीत १-१ स्वरामयं हन्त्यथ पौष्करम्बा ॥ भाग तथा खांड इन सबके बराबर लेकर चूर्ण त्रिफला, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) और बना लीजिए। जवाखारके चूर्णको (शहदमें मिलाकर) चाटने या इसे १ मास तक पुराने घृतके साथ सेवन कुलत्थ अथवा पोखरमूलको मुखमें रखकर उसका करानेसे मूर्छा रोगका नाश होता है। रस चूसनेसे स्वरभंग रोग नष्ट होता है। (२३६२) त्रिफलाद्यं चूर्णम् (ग.नि. । चूर्णा.) (२३५९) त्रिफलादियोगः (र. र.र खं.। उप.५) त्रिफलातिविषाकटुका--- त्रिफला बाकुचीवीज पिप्पली चाश्वगन्धिका निम्बकलिङ्गवचापटोलानाम् । सर्व तुल्यं कृतं चूर्ण मध्वाज्याभ्यां लिहेल्पलम् ॥ मागधिरजनीद्वयपाकवर्षान्मृत्युं जरां हन्ति जीवेब्रह्मदिनत्रयम् ॥ ___भार्गीमूर्वा विशालानाम् ॥ त्रिफला, बाबची, पीपल और असगन्धका । भूनिम्बपलाशानां दद्याद् द्वपलं त्रित्रिगुणा। समान भाग चूर्ण एकत्र मिलाकर १ पल (५ तोले) तैश्च समाना ब्राह्मी तचूण सुप्तिनुत् परमम् ॥ की मात्रानुसार घी और शहदके साथ नित्य प्रति । त्रिफला, अतीस, कुटकी, नीमकी छाल, १ वर्ष तक सेवन करनेसे जरामृत्युका नाश होकर इन्द्रजौ, बच, पटोलपत्र, पीपल, हल्दी, दारुहल्दी, For Private And Personal Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३४५] - पनाक, भारंगी, मूर्वा, इन्द्रायण चिरायता और | नियमेन नरा निषेवितारो पलाशकी छाल २-२ पल, निसोत सबसे ३ गुना यदि जीवन्त्यजराःकिमत्र चित्रम् ॥ और इन सबके बराबर ब्राह्मी लेकर यथाविधि चूर्ण | त्रिफलाके चूर्णको खैर, और असन वृक्षकी बना लीजिए। छालके काथको भावना देकर शहद और घीके __इसके सेवनसे सुप्ति (किसी अङ्गका शून्य साथ मिलाकर नियमपूर्वक सेवन करने वाले हो जाना) रोग नष्ट होता है। मनुष्योंको मरणपर्यन्त वृद्धावस्था नहीं आती। (२३६३) त्रिफलाप्रयोगः (ग. नि. । चरा.) । (२३६६) त्रिफलायोगः ( यो. त.। त.७१) दुग्धेन त्रिफला पीता हन्ति चातुर्थिकं ज्वरम्। यस्वैफलं चूर्णमपथ्यवर्जी ___ दूधके साथ त्रिफला पीनसे चातुर्थिक सायं समश्नाति समाक्षिकाज्यम् । (चौथिया) ज्वर नष्ट होता है। स मुच्यते नेत्रगतैविकारै-. (ज्वर आनेसे पहिले दिन १ से १॥ तोले । त्यैर्यथा क्षीणधनो मनुष्यः॥ तककी मात्रामें पीना चाहिए कि जिससे विरेचन __ जिस प्रकार धनहीन मनुष्यको उसके नौकर होकर कोष्ठ शुद्ध हो जाय ।) छोड़कर चले जाते हैं, इसी प्रकार सायङ्कालके (२३६४) त्रिफलाप्रयोगः (यो. स.। समु. ६) | समय घी और शहदके साथ त्रिफला सेवन करने फलत्रिकं त्रिकटुकं भागी कुष्ठमुच्चटा। और पथ्य पालन करने वाले मनुष्योंको नेत्ररोग एतानि सममात्राणि तावन्ति लवणानि च ॥ छोड़ जाते हैं। उष्णेन पयसा चूर्ण हिक्कावासहरं परम् ॥ (मात्रा-३ से ६ माशे तक । ) हर्र, बहेड़ा, आमला, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, | (२३६७) त्रिमदः ( भै. र. । परि.) पीपल ), भारंगी, कूठ और लहसन। समान भाग बिडङ्गमुस्तचित्रश्च त्रिमदःसमुदाहृतः ॥ तथा इन सबके बराबर पांचोलवण (सेंधानमक, बायबिडङ्ग, मोथा और चीतेके समूहको कालानमक, काचलवण, खारीनमक, सामुद्रलवण) 'त्रिमद' कहते हैं। लेकर चूर्ण बना लीजिए। (२३६८) त्रिलवणादिचूर्णम् इसे गर्म पानीके साथ सेवन करनेसे हिचकी (वृ. यो. त. । त. ९४; यो. र. । श.). और श्वास रोग नष्ट होता है। लवणत्रयसंयुक्तं पञ्चकोलं सरामठम् । (मात्रा-१-१॥ माशा) सुखोष्णेनाम्भसा पीतं कफशूलहरं परम् ।। (२३६५) त्रिफलायोगः (ग. नि. । रसा.) सेंधानमक, कालानमक, खारी नमक, पीपल, खदिरासनयूषभाविताया-- पीपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ और भुनी हुई त्रिफलाया घृत्तमाक्षिकप्लुतायाः। । हींग समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। भा० ४४ For Private And Personal Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३४६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि इसे गर्म पानीके साथ खानेसे कफज शूल (२३७३) त्रिवृतादिचूर्णन नष्ट होता है । (मात्रा १ माशा ।) । (वा. भ. । क. अ. २; च. सं. । क. अ. ७) (२३६९) त्रिवृवर्णम् (वं से.; वृ. नि. र. । ज्व.) त्रिवृतरालमा मुस्ता शरोदीच्यचन्दनम् । चूणे त्रि कगाश्यामा त्रिफलानां सिता समम्। द्राक्षाम्बुना सपष्टयाह शीतलं जलदात्यये ॥ भेदि कोष्ठरुजादाहगौरवज्वरनाशनम् ॥ निसोत, धमासा, मोथा, खांड, सुगन्धबाला, निसोत, पीपल, कालानिसोत, त्रिफला और लाल चन्दन और मुलैठी। समान भाग लेकर चूर्ण मिश्रीका चूर्ण सेवन करनेसे विरेचन होकर उदरपीड़ा करके मुनक्का के शीतकषाय के साथ खिलानेसे दाह, शरीरका भारी पन और ज्वर नष्ट होता है। शरद ऋतुमें (आश्विन, कार्तिक मासमें ) भली (२३७०) त्रिवृतादिचूर्णम् (भा.प्र.ख.२।वा.र. भांति विरेचन हो जाता है । धारोष्णं मत्र युक्तं क्षीरं दोषानुल मनम् । (२३७४) त्रिवृतादिचूर्णम् पिवेद्वा सत्रिचूर्ण पित्तरक्तातानिले ॥ (च. सं. । क. अ. ७; वा. भ. । कप. अ. २) पित्तप्रधान वातरक्तमें धारोष्ण दूधमें गोमूत्र । त्रिवृतां चित्रकं पाठामजाजी सरलं वचाम् । मिलाकर पीना चाहिए अथवा उसके साथ निसोत स्वर्णक्षीरीं च हेमन्ते चूर्णमुष्णाम्बुना पिबेत् ।। का चूर्ण सेवन करना चाहिए। हेमन्त ऋतु ( अघन, पौष मास )में विरेचन (२३७१) त्रिवृतादिचूर्णम् (वा.भ.क.प.अ.२) । करानेके लिए निसोत, चीता, पाठा, जीरा, चीरका त्रियता शर्करा तुल्या ग्रीष्मकाले विरेचनम्। ग्रीष्मकाल ( जेठ, अषाढ़ मास ) में विरेचन | बुरादा, बच और स्वर्णक्षीरी ( सत्यानाशी ) की जइ, समान भाग लेकर चूर्ण करके गर्म पानी करानेके लिए समान भाग निसोत और मिश्री मिलाकर प्रयुक्त करनी चाहिए। | से खिलाना चाहिए। ( मात्रा-१ तोला। गर्म पानीके साथ (२३७५) त्रिवृतादिचूर्णम् (वृ.नि. र. । हृद्रो.) त्रिच्छठी बला रास्ना शुण्ठी पथ्या सपौष्करा। खिलाएं) (२३७२) त्रिवृतादिचूर्णम् चूर्णिता वा शृता मूत्रे पातव्या कफहृद्दे ॥ (च. सं. । क. अ. ७; वा. भ. कल्प. अ. २) कफज हृद्रोगमें निसोत, कपूरकचरी, खरैटी, त्रिवृताकौटजं वीजं पिप्पलीविश्वभेषजम् । । रास्ना, सोंड, हर और पोखरमूल समान भाग क्षौद्राक्षारसोपेतं वर्षाकाले विरेचनम् ॥ लेकर चूर्ण करके, अथवा गोमूत्रमें पकाकर सेवन वर्षाकाल ( सावन भादों मास) में विरेचन कराना चाहिए। कराने के लिए निसोत, इन्द्रजौ, पीपल और सों3 (२३७६) त्रिवृतादियोगः (ग. नि. । उदर.) समान भाग लेकर चूर्ण करके शहद और द्राक्षारस त्रिता दन्तिनीमूलं देवदाली यवासकः । ( मुनक्काके रस या काथ) के साथ खिलाना चाहिए। एकै वारिणा पीतं हन्ति सर्व जलोदरम्॥ For Private And Personal Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्ण प्रकरणम् ] निसोत, दन्तीमूल, देवदाली (बिण्डालडोढा ) और जवासा । इनमें से किसी एक का भी चूर्ण पानी के साथ सेवन करनेसे सर्व प्रकार के जलोदर नष्ट होते हैं । द्वितीयो भागः । (२३७७) त्रिवृता दिशोधनम् ( वृ. नि. र. । विसप. ) वृद्धरीतकीभिर्वा विसर्पे शोधनं हितम् ॥ विसर्प रोगमें निसोत और हर्र, चूर्णको खिलाकर विरेचन कराना लाभदायक है । (२३७८) त्रुटयादि चूर्णम् (बृ.नि.र. | आमवा. ) त्रुटि लवङ्गविडङ्गकटुत्रिकं घनशिवाशिवपत्रकं समम् । त्रिगुणितं त्रिवृता च सिता समा अदत आम पतिष्यति कामतः ॥ सफेद इलायची, लौंग, बायबिडंग, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल), मोथा, हर्र, आमला और तेजपात १ - १ भाग तथा निसोत इन सबसे ३ गुना और मिश्री सब बराबर लेकर चूर्ण बना लीजिए । इसके सेवन से आम निकल जाती है। (२३७९) त्र्यूषणादिचूर्णम् ।। ( च. सं. चि. अ. २० ) सत्र्यूषणं विल्वपत्रं पिवेन्ना कामलापहम् । दन्त्यर्द्धपलकल्कं वा द्विगुडं शीतवारिणा ॥ कामलौत्रतां वापि त्रिफलाया रसैः पिबेत् त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल ), और बेलके पत्तों का चूर्ण सेवन करनेसे अथवा आधापल (२|| तोले ) दन्तीमूलको पानी के साथ पीसकर दो गुने गुड़में मिलाकर ठण्डे पानी के साथ खाने से अथवा Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४७ ] निसोत के चूर्णको त्रिफला काथके साथ पीने से कामला रोग नष्ट होता है । (२३८०) त्र्यूषणादिचूर्णम् ( ग. नि. वृं. मा. यो. र । अति.; हा सं. । स्था. ३ अ. ३ ) त्र्यूषणातिविषाहिङ्गवचासौवर्चलाभयाः । पीत्वाष्णेनाम्भसा हन्यादामातीसारमुद्धतम् ।। त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), अतीस, हींग, बच, सौंचल ( कालानमक ), और हर्र के समान भाग मिश्रित चूर्णको गर्म पानी के साथ पीने से प्रबल आमातिसार नष्ट होता है । (२३८१) त्र्यूषणादिचूर्णम् (ग.नि. । उदर. ) त्र्यूषणं निचुलं दन्ती केशरं लवणत्रयम् । विशालां त्रिफलां दार्वी पटोलं चेति चूर्णयेत् ॥ मुखाम्बुनाथ सूत्रेण धात्रीफलरसेन वा । पीतमेतथादोषं प्लीहोदरहरं परम् ॥ त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल), समन्दरफल, दन्ती, नागकेशर, सेंधानमक, काला नमक, खारी नमक, इन्द्रायण, हरे, बहेड़ा, आमला, दारूहल्दी, और पटोलपत्र । समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए । इसे दोषानुसार मन्दोष्ण जल, गोमूत्र या आमलेके रसके साथ सेवन करनेसे लीहोदर (तिल्ली) रोग नष्ट होता है । ( नोट- वातज रोगों में गर्म पानीसे कफजमें गोमूत्रसे और पित्तज रोगों में आमलेके रसके साथ सेवन कराना चाहिए। मात्रा ३ माशे । ) For Private And Personal Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि (२३८२) त्र्यूषणादिचूर्णम् | हाऊबेर, बायबिडंग, सेंधा, बच और तिन्तडीकके __ (ग. नि.; वृं. मा.; यो. र.; । अरोचका.) समान भाग मिश्रित चूर्णको मण्ड, मद्य अथवा त्रीण्यूषणानि त्रिफला रजनीद्वयश्च । गर्म पानीके साथ सेवन करनेसे अर्श, ग्रहणी, चूर्णीकृतानि यावशूकविमिश्रितानि ॥ शूल और आनाह (अफारे)का नाश होता है । क्षौद्रान्वितानि वितरेन्मुखधावनार्थ- । | (२३८५) त्र्यूषणाद्यं चूर्णम् मन्यानि तिक्तकटुकानि च भेषजानि ॥ (वृ. यो. त. । त. १०४) ___ अरुचिमें त्रिकुटा, त्रिफला, हल्दी, दारुहल्दी | त्र्यूषणं त्रिफला चव्यं चित्रकं विडमौद्भिदम् । और जवाखार के समान भाग मिश्रित चूर्णको वाकुची सैन्धवञ्चैव सौवर्चलसमन्वितम् ॥ शहदमें मिलाकर उससे अथवा अन्य कटु (चरपरी) | माषमात्रमिदं चूर्ण लिहेदाज्यमधुप्लुतम् । और तिक्त ( कड़वी ) ओषधियोंके चूर्णसे मञ्जन | अतिस्थौल्यमिदं चूर्ण निहन्त्यग्निविवर्धनम् ॥ कराना चाहिए, और इनकी जिह्वापर मालिश करानी | मेदानं मेहकुष्ठनं श्लेष्मव्याधिनिणम् । चाहिए। नाऽहारे नियमश्चात्र विहारे वा विधीयते ॥ (२३८३)त्र्यूषणादिचूर्णम् (वं. से. । नासा.) ऋषणायमिदं चूर्ण रसायनमनुत्तमम् ॥ त्र्यूषणं गुडसंयुक्तं स्निग्धं दुग्धान्नभोजनम् । । त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), हरे, बहेड़ा, प्रतिश्यायहरं प्रोक्तं विशेषात्कफनाशनम् ॥ आमला, चव्य, चीता, बिड (खारी) नमक, - त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च और पीपल) के चूर्णको औद्भिद् नमक ( शोरा ), बाबची, सेंधा और गुड़में मिलाकर (गरम पानीके साथ ) सेवन सौं वल ( काला नमक ) समान भाग लेकर चूर्ण करने और दूध भातादि स्निग्ध भोजन करनेसे बना लीजिए। प्रतिश्याय और विशेषतः कफ नष्ट होता है। इसे १ मापेकी मात्रानुसार घी और शहदमें (२३८४) त्र्यूषणाद्यं चूर्णम् मिलाकर चाटनेसे अति स्थूलता ( मुटापा), मेद, (च. सं. । चि. अ. ८ संप्र.) प्रमेह, कुष्ठ और कफज रोग नष्ट होते तथा अग्नि त्र्यूषणं पिप्पलीमूलं पाठां हिॉ सचित्रकम् । प्रदीप्त होती है। सौवर्चलं पुष्कराख्यमजाजी विल्वपेशिकाम्॥ यह चूर्ण अत्यन्त रसायन है । इसके सेवन विडं यवानी हपुषां विडङ्गं सैन्धवं वचाम् । कालमें किसी प्रकारके परहेज़की भी आवश्यकता तिन्तडीकं च मण्डेन मोनोष्णोदकेन वा ॥ नहीं होती । तथाऽर्शाग्रहणीदोषशूलानाहाच मुच्यते ॥ (२३८६) त्वगाद्यमुद्वर्त्तनम् । त्रिकटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), पीपलामूल, ! ( ग. नि.; . मा. । अजी. ) पाठा, हींग, चीता, काला नमक, पोखरमूल, जीरा, त्वपत्ररास्नागुरु शिवकुष्ठेबेलगिरी, बिडनमक ( खारी नमक ), अजवायन, । रम्लमपिष्टैः सवचाशताहैः। For Private And Personal Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चूर्णगुटिकाप्रकरणम् ] उद्वर्तनं खल्लिविषूचिकानं तैलं विपक्कं च तदर्थकारि ॥ www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । दालचीनी, तेजपात, रास्ना, अगर, सहजने की छाल, कूठ, बच और सोयेका समान भाग मिश्रित चूर्ण लेकर काञ्जीमें पीसकर मलने से विषूचिका रोगमें होने वाली हाथ पैरों की ऐंठन नष्ट होती है । इन ओषधियोंसे पका हुवा तैल भी ऐसा ही गुणकारी होता है । ( २३८७) त्वगेलाद्यं चूर्णम् (ग.नि. ( चूर्णा. ) त्वगेलाव्योषधान्याम्लनाग के सरजीरकम् । लवलीफलकङ्कोलं लव जातिपत्रिका ॥ भागानिमान्समान्कृत्वा दद्याद्विगुणितां सिताम् ईषत्कर्पूर संयुक्तं चूर्ण रुचिकरं परम् ॥ दालचीनी, इलायची, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), धनिया, अम्लबेत, नागकेसर, जीरा, लवलीफल, कङ्कोल, लौंग और जावित्री । एक एक भाग तथा मिश्री इन सबसे दो गुनी लेकर तवटी ( भै. र. । ग्रहणी ) रसप्रकरण में देखिए । अथ तकारादिटिकाप्रकरणम् ताम्रेश्वर गुटिका (र. सा. सं.; र. चं.; धन्वं. र. रा. सुं । प्लीहा . ) रसप्रकरण में देखिए । तारकेश्वर गुटिका ( र. र. र. खं. | अ. ५) रसप्रकरण में देखिए । तारसुन्दरीवटी (र. सा. । प. २४ ) रसप्रकरण में देखिए । तारामण्डूरवटका ( ग. नि.; भै. र. । शूल ) प्रकरण में देखिए | [ ३४९ ] कूटकर जरासा कपूर मिलाकर घोटकर रखिए । यह चूर्ण अत्यन्त रुचिकारक है । (२३८८) त्वङ्मुस्तादिचूर्णम् ( वृ. नि. र. । अरुचि . ) त्वङ्मुस्त ेलाधान्यानि मुस्तमामलकत्वचा । त्वक् च दार्वी यवान्याश्च पिप्पली तेजवत्यपि ॥ यवानीतिन्तडीकञ्च पञ्चैते मुखशोधनाः । श्लोकपादैरभिहिताः सर्वारोचकनाशनाः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १ ) दालचीनी, मोथा, इलायची और धनिया । (२) मोथा और आमला । (३) दालचीनी, अजवायन और दारूहल्दी । ( ४ ) पीपल और मालकंगनी (५) अजवायन और तिन्तडीक । यह पांचों प्रयोग मुखशोधक और हर प्रकारकी अरुचिको नष्ट करनेवाले हैं । ( इनका चूर्ण करके उसे जिह्वा पर मलना चाहिए और शहद में मिलाकर चाटना चाहिए । ) ।। इति तकारादिचूर्णप्रकरणम् || तलकादिगुटिका ( र. रा. सुं. । वा. व्या.) प्रकरण में देखिये | तालकादिवटी ( र. चं. । शी. पि. ) प्रकरण में देखिए । तालवाटका ( र. चं । रसा. ) रसप्रकरण में देखिए । (२३८९) तालीसादिगुटिका ( यो. चि. अ. ३०) चव्याम्लवेतस कटुत्रिक तिन्तडीकं तालासजीरकतुगादहनैः समांशैः । चूर्ण गुडममृदितं त्रिसुगन्धयुक्तं वैस्वर्य पीनसकफा रुचिषु प्रशस्तम् ॥ For Private And Personal Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि ه عمره که با ما به یه به به ره یه حه مه يه به موها فيه مره ای به مه سه ره وه بويه البيع ی ميه ميه ميه ميه ميه بي مه که به مه مه vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv चव्य, अमलबेत, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, । सा चैव गुटिका पथ्या फलत्रयविशेषिता । पीपल ), तिन्तडीक, तालीसपत्र, जीरा, बंसलोचन, शोफार्थीग्रहणीरोगपाण्डुशूलापहारिणी॥ चीता, दालचीनी, इलायची और तेजपातका चूर्ण तालीस पत्र, चव्य और मरिचका चूर्ण आधा समान भाग लेकर गुड़में मिलाकर गोलियां बना | आधा पल ( २॥ तोले ), सोंउका चूर्ण १॥ पल, लीजिए। पीपल और पीपलामूलका चूर्ण १-१ पल, नागइनके सेवनसे पीनस, स्वरभंग (गला बैठना) केसरका चूर्ण १ कर्ष (१। तोला ), सफेद इलाऔर कफज अरुचि नष्ट होती है । यचीका चूर्ण आधा कर्ष तथा दालचीनी, तेजपात ( गुड़ सब ओषधियोंके बराबर लेना चाहिए। और खसका चूर्ण १-१ कर्ष एवं इन सबसे ३ मात्रा १ तोला । अनुपान-उष्णजल ) गुना गुड़ लेकर सबको एकत्र मर्दन करके ११-१। तालीसादिगुटिका तोलेके मोदक बना लीजिए। (वं. से.; च. द.; र. र. । राजय.; वृं. मा; इन्हें मद्य, यूष, दूध अथवा पानीके साथ भै. र. । कासा.) सेवन करनेसे अर्श, शूल, पानात्यय, छर्दि, प्रमेह, तालीसादिचूर्ण संख्या २३१० देखिए । विषमज्वर, गुल्म, पाण्डु, सूजन, हृद्रोग, ग्रहणी, (२३९०) तालीसाद्या गुटिका खांसी, हिचकी, श्वास, अरुचि, कृमि, अतिसार, (ग. नि. । गुटि., वृ. नि. र. । सं.) कामला, अग्निमांद्य, मूत्रकृच्छू, और शोथका नाश तालीसचव्यं मरिचं पला(शानि नागरात् । होता है। अध्यधै पिप्पलीमूलात्पिप्पल्याश्च पलं पलम् ॥ यदि उपरोक्त ओषधियोंके चूर्णमें चार गुनी कर्षन्तु नागपुष्पस्य त्रुटी कांधमेव च । । मिश्री मिलाली जाय तो वह चूर्ण पित्तज रोगोंके त्वपत्रोशीरकर्षस्तु चूर्णात्रिगुणितो गुडः ॥ लिए विशेष गुणदायक हो जाता है। ततोऽक्षमात्रा गुटिका मद्ययूषपयोरसैः। यदि इस गुटिकामें हर, और त्रिफलेका पीताम्भसा भक्षिता वा सर्वान् हन्याद्गुदोद्भवान्।। चूर्ण बढा दिया जाय तो सूजन, बवासीर, ग्रहणी, शूलं पानात्ययं छदि प्रमेहं विषमज्वरान् । | पाण्डु और शूल रोगमें विशेष गुण करती है। गुल्मं पाण्डुरुजं शोफं हृद्रोगं ग्रहणीगदान । कासहिकारुचिश्वासकम्यतीसारकामलाः। (२३९१) तिलादिगुटिका मन्दाग्नितां मूत्रकृच्छ्रे हन्याच्छोकं च सा भृशम् ॥ ( भा. प्र. खं. २; . मा.; वं. से. । शूल ) एतदेव भवेचूर्ण सिताचूर्ण चतुर्गुणम् । तिलैश्च गुटिकां कृत्वा भ्रामयेज्जठरोपरि। सपित्तेषु विकारेषु विशेषेणामृतोपमम् ॥ शूलं सुदुस्तरं तेन शान्ति गच्छति सत्वरम् ।। १ वृहनिघन्टुरत्नाकरमें पाठभिन्न है, योग यही है । For Private And Personal Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग । [३५१] तिलोंको पीसकर गोला बनाकर पेटके ऊपर क्षौद्रेण कुर्याद्गुटिकां मुखेन घुमानेसे भयङ्कर शूल भी नष्ट हो जाता है। तां धारयेत्सर्वगलामयनीम् ॥ (२३९२) तिलादिवटी (वृ. नि. र. । शूल.) बच, दारुहल्दी, पीपल, जवाखार, रसौत तिलनागरपथ्यानां भागं शम्बृकभस्मनाम् । और पाठाका समान भाग चूर्ण लेकर सबको द्विभागगुडसंयुक्तं वटी कृत्वाक्षभागिकाम् ॥ शहदमें मिलाकर गोलियां बना लीजिए। शीताम्बुना पिबेत् प्रातर्भक्षयेत् क्षीरभोजनम् । इन्हें मुंह में रखकर रस चूसनेसे गलेके सायाह्ने रसकं पीत्वा नरो मुच्येत दुर्जरात् ॥ समस्त रोग नष्ट होते हैं । परिणामसमुत्थाच्च शूलाच्चिरभवादपि ॥ (२३९५) त्रिकटुकादिगुटी (यो.चि.मिश्रा.) तिल, सोंठ और हर्रका चूर्ण तथा शंख मरीचं पिप्पली शुण्ठी ग्रन्थिकं च समांशतः। भस्म १-१ भाग लेकर दो भाग गुड़में मिलाकर । गुडेन गुटिका कार्या पकखण्डेन वा पुनः ॥ १-१ कर्ष ( ११ तोले )के वटक बना लीजिए। एतत्त्रिकटुकं नाम शून्यवाधिर्यवारणम् । प्रति दिन प्रातःकाल शीतल जलके साथ शीतकाले सदा ग्राह्य बुद्धिचैतन्यकारणम् ।। १-१ वटक खाने, सायंकालको खपरिया सेवन सोंठ, मिर्च, पीपल और पीपलामूल समान करने और दूध भातका आहार करनेसे अजीर्ण भाग लेकर महीन चूर्ण करके उसको सबके बराबर और पुराना परिणामशूल नष्ट हो जाता है। गुड़ या खांडकी चाशनीमें मिलाकर गोलियां बना (२३९३) तृष्णानी गुटी ( यो. र. । तृ.) । लीजिए। नीलाम्बुनादमधुलाजावटावरोहै। इनके सेवनसे शून्यता ( स्पर्शशक्तिका नष्ट श्लपणीकृतैर्विरचिता गुटिका मुखस्था॥ हो जाना ) और बधिरता नष्ट होती है। तृष्णां निवारयति तत्क्षणमेव तीव्राम् ।। यह गोलियां बुद्धि और चैतन्यकी वृद्धिके मृत्यो.स्पृहामिव यतेः परमार्थचिन्ता ॥ लिए शीतकालमें सेवन करने योग्य हैं । . नील कमल, मोथा, धानकी खील, वटके (२३९६) त्रिकटुकादिमोदकः अंकुर । समान भाग लेकर महीन पीसकर शहद में (हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) मिलाकर गोलियां बना लीजिए । त्रिकटुकमभयानां पुष्करं चित्रकाणां इनको मुंहमें रखनेसे प्रबल तृष्णा भी तुरन्त कृमिरिपुतिलचूर्ण कारयेत् सगुडेन । शान्त हो जाती है। उपसि वटकमेकं भक्षयेयो मनुष्यो (२३९४) तेजोवत्यादिगुटिका विनिहन्तिगुदरोगं चाग्निवृद्धिं करोति॥ ( वृ. यो. त. । त. १२८) __ त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), हर्र, पोखर तेजोवती दारुनिशां सकृष्णां मूल, चीता, तिल और बायबिडंगका समान भाग यवाग्रज तायगिरिश्च पाठाम् । | चूर्ण लेकर गुड़में मिलाकर मोदक बना लीजिए। For Private And Personal Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - - - - [३५२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। - [ तकारादि __प्रतिदिन प्रातःकाल १ मोदक खानेसे बवा- (२३९८) त्रिकण्टकाद्यो मोदकः सीर नष्ट और अग्निदीप्त होती है । ( मात्रा १ (भै. र. । वाजी.) तोला । अनुपान उष्ण जल ) गोक्षुरेक्षुरबीजानि वाजीगन्धा शतावरी। (२३९७) त्रिकटुकाद्यो मोदकः मुषलो वान रीबीजं यष्टीनागवला बला ॥ (भा. प्र. । प्रमेह. ) एषाञ्चूर्ण दुग्धसिद्धं गव्येनाज्येन भर्जितम्। त्रिकटु त्रिफला पाठा मूलं शोभाञ्जनस्य च । सितया मोदकं कृत्वा भक्ष्य वाजीकरं परम् ॥ विडङ्गतन्दुला हिङ्गु तथा कटुरोहिणी॥ चूर्णादष्टगुणं क्षोरं घृतं चूर्णसमं स्मृतम् । वृहती कण्टकारी च हरिद्रे द्वे यवानिका। सर्वतो द्विगुणं खण्डं खादेदग्निबलं यथा । केम्बुकं शालपर्णी च तथातिविपचित्रसौ॥ वाजीकराणि भूरीणि संगृहय रचितो यतः । सौवर्चलं जीरकश्च हपुषा धान्यमेव च।। | तस्माद्वहुषु योगेषु योगोऽयं प्रवरो मतः ॥ एषां कर्षप्रमाणश्च श्लक्ष्णचूर्णश्च कारयेत् ॥ गोखरु, तालमखानेके बीज, असगन्ध, यवशक्तुपलानाञ्च नवतिं द्वितपाधिकाम् । शतावर, मूसली, कौं चके बीज, मुलैी, नागबला घृततैलमधूनाञ्च प्रत्येकञ्च पलानि षट् ॥ (गंगेरन )की जड़ और बला (खरैटी ) मूल । एभिःकर्षप्रमाणश्च प्रत्यहं मोदकं सुधीः । सबका समान भाग चूर्ण लेकर उसे सबसे ८ भक्षयन्नाशयेदुग्रान्प्रमेहानतिदारुणान् ॥ गुने दूधमें पकाएं जब मावा हो जाए तो उसमें त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), हरी, बहेड़ा, चूर्णके बगबर गायका घी डालकर भूनिए और आमला, पाठा, सहं जनेकी जड़, बायबिडंगके चावल फिर उसे सबसे दोगुनी खाण्डकी चाशनीमें मिला( बीज ), हींग, कुटकी, बड़ी कटेली, छोटी कर मोदक बना लीजिए । मात्रा अग्निबलानुसार कटेली, हल्दी, दारुहल्दी, अजवायन, सुपारी, १ तो० तक । अनुपान दूध । यह मोदक बहुतसी शालपर्णी, अतीस, चीता, सौवर्चल (काला नमक), बाजीकरण औषधोंके योगसे बनते हैं अतएव यह जीरा, हाऊबेर और धनिया । प्रत्येकका महीन । अत्युत्तम बाजीकर (कामशक्तिवर्द्धक ) मोदक हैं । चूर्ण १-१ कर्ष (११ तोला ), जौका सत्तू (२३९९) त्रिजातगुटिका (ग.नि.।गुटिका.) ९२ पल ( ५ सेर १२ छटांक ) तथा घी, तेल विजात त्रिफला व्योषं सूक्ष्मचूर्णन्तु कारयेत् । और शहद ६-६ पल (३० तोले ) लेकर तत्तुल्यं त्रिवृताचूर्ण शर्करा क्षौद्रमेव च ।। सबको एकत्र मिलाकर मर्दन करके १-१ कर्ष बद्धवात्र मोदकान्वैतान भक्षयेच यथा बलम् । (११ तोले )के मोदक बना लीजिय । इनमेंसे विरेक एष प्रबलस्तथा काडूविनाशनम् ॥ १-१ मोदक प्रतिदिन खानेसे भयङ्कर प्रमेह भी दालचीनी, इलायची, तेजपात, हर्र, बहेड़ा, नष्ट हो जाता है। आमला, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च और पीपल )का • ( अनुपान दूध ) चूर्ण १-१ भाग तथा निसोतका चूर्ण समस्त For Private And Personal Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३५३ ] औषधोंके बराबर और निसोतके बराबर ही खाण्ड ! त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) और सुहागे तथा शहद लेकर खाण्डकी चाशनीमें समस्त चूर्ण की खील समान भाग लेकर चूर्ण करके पानके मिलाकर ठण्डा होने पर शहद मिलाइये और फिर रसमें घोटकर स्याह मिर्च के बराबर गोलियां बना मोदक बना लीजिए। लीजिए। इन्हें यथोचित मात्रानुसार खानेसे विरेचन । इनके सेवनसे कफ नष्ट होता है। होकर कण्डू ( खुजली ) नष्ट हो जाती है। । (से. वि.-मुंहमें रखकर रस चूसें । दिन ( मात्रा-१ तोला । अनुपान-गर्म जल ) भरमें २०-२५ गोली तक खा सकते हैं ।) (२४००) त्रिजातादिगुटिकाः (२४०२) त्रिफलादिगुटिका (वृ. नि. र. । कास.) (वा. भ. । उत्त. अ. २२) त्रिजातमधकर्षश्च पिप्पल्पर्धपलं सिता। फलत्रयद्वीपिकिराततिक्तद्राक्षामधुकखर्जरं पलांशं इलक्ष्णकल्कितम् ॥ | ___ यष्टयाहसिद्धार्थककटुत्रिकाणि । मधुना गुटिका नन्ति ता वृष्याःपित्तशोणिते। मुस्ताहरिद्राद्वययावशूफकासश्वासारुचिच्छदिमूच्छाहिमामदभ्रमान्।। वृक्षाम्लकाम्लाग्रिमवेतसाश्च ।। क्षतक्षये ज्वरभ्रंशे प्लीहशापाढयमारुतान् । | अश्वत्थजम्ब्बाम्रधनञ्जयत्वक रक्तनिष्ठीवहृत्पावरुपिपासाज्वरानपि ॥ त्वचाहिमारात्खदिरस्थ सारः।। ___दालचीनी, इलायची, तेजपात । प्रत्येक आधा काथेन तेषां घनतां गतेन आधा कर्ष (७॥ माशे ). पीपल आधापल ( २॥ __ तच्चूर्णयुक्ता गुटिका विधेया॥ तोले ); मिश्री, मुनक्का, मुलैठी खजूर । १-१ । ता धारिता नन्ति मुखेन नित्यं पल । सबको बारीक पीसकर शहदमें मिलाकर ___ कण्ठोष्ठताल्वादिगदान्सुकृच्छ्रान् । गोलियां बना लीजिए। विशेषतो रोहिणिकास्यशोष___ यह गोलियां वृष्य (वीर्यवर्द्धक ) हैं और गन्धान्विदेहाधिपतिप्रणीताः ॥ रक्तपित्त, खांसी, श्वास, अरुचि, वमन, मूर्छा, __त्रिफला, ( हर्र, बहेड़ा, आमला ), चीता, हिचकी, मद, भ्रम, क्षतक्षीणता, स्वरभंग ( गला | चिरायता, मुलैठी, सरसों, त्रिकटु (सोंठ, मिर्च, बैठना), प्लीहा (तिल्ली ) ऊरुस्तम्भ, शोथ, रक्त- पीपल), मोथा, हल्दी, दारुहल्दी, यवक्षार, तिंतड़ीक, थूकना, हृदय और पसलीका दर्द, तथा ज्वरका बिजौरे नीबूके छिलके, अम्लवेत, पीपल वृक्षकी नाश करती हैं। छाल, जामन, आम, कोह (अर्जुन) और दुर्गन्धित (२४०१) त्रिपुरभैरवीगुटी (वृ.नि.र.श्वास.) खैरकी छाल तथा खैर सार समान भाग लेकर त्रिकटुटङ्कणं नागपत्रेण क्रियते वटी। चूर्ण कर लीजिए । इसमेंसे आधे चूर्णको ८ गुने मरिचप्रमाणा कफजिन्नाम्ना त्रिपुरभैरवी ॥ पानीमें पकाइये जब चौथा भाग पानी शेष रहे तो भा, १५ For Private And Personal Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि उसे छानकर फिर पकाइये और जब वह गाढ़ा हो बेरकी गुठलीके बराबर गोलियां बना लीजिए। जाय तब उसमें शेष रहा हुवा उपरोक्त चूर्ण मिला इन्हें भिन्नभिन्न अनुपानों के साथ सेवन कराने कर गोलियां बना लीजिए। - से अनेको रोग नष्ट होते हैं। इन्हें मुखमें रखनेसे कण्ठ, ओष्ठ, तालु और इन्हें अर्शमें तक्रके साथ, गुममें काञ्जी या गलेके कष्टसाध्य रोगोंका और विशेषतः रोहिणी, नीबूके रस के साथ, अग्निमांद्य में उष्ण जलसे, मुखशोष तथा मुखको दुर्गन्धका नाश होता है। चर्म रोगों में खे की छाल के क्वाथके साथ, मूत्रकृत में त्रिफलादिगुटिका (यो. र. । कुष्ठ.) ताजे पानीके साथ, हृद्रोगमें तैलके साथ, ज्वरोंमें ___ रसप्रकरणमें देखिए। इन्द्रजौके स्वरसके साथ, शूलमें बिजौ रेके रसके (२४०३) त्रिफलादिगुटिका (पृ.नि.र.संप्र.) साथ और विषविकारमें कैथ या तेन्दुके रसके साथ त्रिफला पश्चलवणं कुष्ठं कटुकरोहिणी।। सेवन कराना चाहिए। देवदारु विडङ्गानि पिचुमन्दफलानि च ॥ (२४०४) त्रिफलादिमोदकः बला चातिबला चैव द्विहरिद्रा सुवर्चला। (वृ. नि. र. । पातच.) एतत्संभृतसंभारं करञ्जत्वग्रसेन तु ॥ | त्रिफला पोषगुडकं शरा त्रिवृतार्धकम् । पिष्टवा च गुटिकां कृत्वा बादरास्थिसमां बुधः मोदई भारित्वा तु पियेवोष्णजलं पुनः ॥ एकै कां तां समुद्धत्य रोगे रोंगे पृथक् पृथक् ।। | पार्श्वयूले रुचौ कासे ज्वरे चानिलसम्भवे ॥ अर्श.सि हन्ति तक्रेण गुल्मानम्लेन निहरेत् । हर, बहे , आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, उष्णेन वारिणा पीता शान्तमनि प्रदीपयेत् ।। जन्तुजुष्टा तु योगेन त्वग्दोषं ख.देराम्बुना। गुड़, और खांड एक एक भाग तथा निसोत सबसे | आधा लेकर सब ओषधियों को कूटकर गुमें मूत्रकृच्छं तु तोयेन हृद्रोगं तैलसंयुता ॥ मिलाकर मोदक बना लीजिए। इन्द्रस्वरससंयुक्ता सर्वज्वरविनाशिनो । मातुलुङ्गरसेनाथ सय शूलहरी स्मृता ॥ इन्हे गर्म पानी के साथ सेवन करनेसे पसलीका कपित्थतिन्दुकानान्तु रसेन सह मिश्रिता। शूल, अरुचि, खसी, श्वास और वातज्वर नष्ट विषाणि हन्ति सर्वाणि पानाशनप्रयोगतः ॥ होता है। त्रिफला (हर, बहेड़ा, आमला ) पाँचॉलवण त्रिफलादिमोइकः (सेंधा, काला नमक, खारी नमक, काचलपण, (शा. सं. । खं. २; यो. चि. म. । अ. ३) सामुद्रल प्रण) कूठ, कुटकी, देवदारु, बायबिग, . रसपकरणमें देखिए । नीमके फल, बला, (खरैटी ), अतिबला (कंपी), (२४०५) त्रिफलादिवटिका ( ग.नि. श्वय.) हल्दी, दारुहल्दी और हुलहुल । सबका समान त्रिफलागुरुकृष्णानां त्रिपञ्चशफल्पिता। भाग चूर्ण लेकर करञ्जकी छालके रसमें घोटकर गुडेन गुटिका हन्ति शोफपाण्डुभगन्दरान् ॥ For Private And Personal Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । गुटिकाप्रकरणम् ] त्रिफला ३ भाग, अगर ५ भाग और पापल १ भाग लेकर चूर्ण करके गुड़ में मिलाकर गोलियां बना लीजिए | इनके सेवन से सूजन, पाण्डु और भगन्दर नष्ट होता है | ( गुड़ सबके बराबर लेना चाहिए। मात्रा १ तोला ) (२४०६) त्रिफलादिवटी ( आ. व. वि. । रसाय. अ. ८५ ) त्रिफलां पर्पट कहीं त्रायन्तों च समांशिकाम् । सर्वे समं कुपीलुश्च रक्तिद्वमिता वटी ॥ नाशयेच्छुक्रतारलं शं. घयेच्छाणितं भृशम् । हरेन्द्र शैथिल्यं बलं वह्निञ्च वर्द्धयेत् ॥ त्रिफला, पित्तपापा, कुटकी और त्रायमाणा का चूर्ण समान भाग तथा सबके समान शुद्ध कुचले का चूर्ण लेकर सबको पानी में घोटकर २-२ रत्तोकी गोलियां बना लीजिए । इनके सेवनसे शुक्र तारत्य दूर होता और रक्त शुद्ध होता है तथा अग्नि और शारीरिक बलकी वृद्धि होकर इन्द्रियोंकी शिथिलता नष्ट होती है । (२४०७ त्रिफलाद्या गुटिका ( ग. नि. । परि. गुटि . ) त्रिफलावदराणां स्याद् व्योषस्य च पलद्वयम् कर्पूरकर्षो लाजानां पलद्वादशक भवेत् ॥ एलात्वक्पत्रकानान्तु पलं स्वाद्वंशरोचना । पलाष्टिका वेतसश्च चतुष्पल उदाहृतः ॥ चूर्णाद् द्विगुणखण्डं स्याद् हया वमिहरा परम् यक्ष्माण रक्तपित्तश्च ज्वरं कासं च नाशयेत् ॥ । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५५ ] त्रिफला, (हर्र, बहेड़ा, आमला ), बेर, और त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पापल) २ - २ पल ( १०१० तोल ); कपूर १ कर्ष ( १| तोला ), धानकी खील १२ पल, इलायची, दालचीनी और तेजपात १ - १ पल, बंसलोचन ८ पल, और अम्लवेत ४ पल लेकर सबका चूर्ण करें और उसे समस्त ओषधियोंस २ गुनी खांडकी चाशनी में मिलाकर गोलियां बनाएं। इनके सेवन से वमन, राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, खांसी और ज्वर नष्ट होता है । यह हृदय के लिए भी हितकारी हैं । त्रिफलाद्यावटका (ग.नि.; यो. र.; वं. से. । कु.) रसप्रकरण में देखिये | (२४०८) त्रिवृतादिगुटिका (भै.र.; वृ.नि. र.; वै. र.; ग. नि; वं. से.; र. र. । उदावर्त्त. ) कृष्णा हरीतक्यो द्विचतुःपञ्चभागिकाः । गुडिका गुडतुल्या सा विविबन्धगदापहा ॥ निसोत २ भाग, पीपल ४ भाग और हर्र ५ भाग | सबके महीन चूर्णको समान भाग गुड़ में मिलाकर गोलियां बना लीजिए । इनके सेवन से मलावरोध नष्ट होता है । ( मात्रा - १ तोले तक । अनुपान - उष्ण । जल | ) (२४०९) त्रिवृतादिमोदक : ( भै. र. | परि. ) त्रिवृतामृतां द्राक्षां जातीकोषफलेऽभयाम् । जीवन्तीं मधुरं श्यामामनन्तामिन्द्रवारुणीम् ॥ अब्द मन्दीवरं वह्नि मधुकं मागधीं मुराम् । afari चोरपुष्पीञ्च चन्द्रशूरच चन्द्रिकाम् ॥ For Private And Personal Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि चूर्ण डिमानां विजयां शुद्धां वीजविवर्जिताम् । | और सोंठ २५-२५ तोले लेकर चूर्णकर उसे ७५ सितां सर्वद्विगुणितां निकुम्भेन्धनवह्निना॥ तोले गुड़की चाशनीमें मिलाकर १।-१। तोलेके यथाशास्त्रं भिपरपक्त्वा मोदकं परिकल्प्य च।। मोदक बना लीजिए। प्रयुज्यात् पयसोष्णेन सायाह्ने शाणमात्रया॥ इनके सेवनसे जठराग्नि अत्यन्त शीघ्र तीक्ष्ण हो जाती है। मास्तिष्के दारुणे रोगे स्नायव्ये मारुतोद्भवे। पित्तजे कफजे चापि ग्रहण्यां विकृतेऽनले । (अनुपान-उष्ण जल ।) क्लीवतायां ज्वरे जीर्णे दुष्टे रजसरेतसी । (२१११) त्रिवृतादिमोदकः (च.सं.क.अ.७) प्रयोज्यं देवदेवोक्तं मोदकं त्रितादिकम् ॥ | त्रिवृद्वैमवती श्यामा नीलिनी हस्तिपिप्पली । । निसोत, गिलोय, मुनक्का, जावित्री, जायफल, समूलापिप्पली मुस्तमजमोददुरालभा ॥ हर्र, जीवन्ती, मुलैठी, काला निसोत, अनन्तमूल, अधोशिकं पलं शुण्ठया गुडस्य पलविंशतिम् । इन्द्रायण, मोथा, कमल, चीता, मुलैठी, पीपल, चूर्णितं मोदकान्कुर्यादुदुम्बरफलोपमान् ॥ मुरामांसी, चव, चोरपुष्पी, हालों और इलायची । हिङ्गुसौवर्चलव्योषयवानीविडजीरकैः । एक एक भाग तथा शुद्ध बीजरहित भांग सबसे वचाजगन्धात्रिफलाचव्यचित्रकधान्यकैः ॥ मोदकान् वेष्टयेच्चूर्णैस्तान् सतुम्बरुदाडिमैः । चौथाई और इस सब चूर्णसे २ गुनी खांड लेकर त्रिकवंक्षणहृद्वस्तिकोष्ठार्श प्लीहशूलिनाम् ॥ खांडको दन्तीवृक्षकी अग्नि पर पकाकर चाशनी बनावें और फिर उसमें अन्य समस्त औषधोंका चूर्ण हिक्काकासारुचिश्वासकफोदावर्तिनां शुभाः॥ निसोत, हर्र ( अथवा सत्यानाशीकी जड़-. मिलाकर ४-४ माशे के मोदक बनाएं। चोक ), काला निसोत, नीलिनी, गजपीपल, पीपल, ___ इन्हें सायंकालके समय उष्ण दुग्धके साथ | | पीपलामूल, मोथा, अजमोद और जवासा । आधा सेवन कराना चाहिए। आधा पल तथा सोंठ १ पल (५ तोले ) और इनके सेवनसे मस्तिष्क रोग, वातज पित्तज गुड़ २० पल लेकर चूर्ण बनाकर सबको गुड़में और कफज स्नायु रोग, ग्रहणी, अग्निविकार (अग्नि- | | मिलाकर गूलरके फलके समान मोदक बना मांद्यादि), नपुंस्कता, जीर्णज्वर, तथा रज और लीजिए । तत्पश्चात् हींग, कालानमक (सौवर्चल), वीर्य दोष नष्ट होते हैं। सोंठ, मिर्च, पीपल, अजवायन, खारी नमक, जीरा, (२४१०) त्रिवतादिमोदकः (भै. र. । अग्नि.) बच, अजमोद, हरी, बहेड़ा, आमला, चव, तुम्बरु, त्रिदन्ती कणामूलं कणा वह्नि पलं पलम् । । कणा वाह्न पल पलम् । अनारदाना, चीता और धनियेका समान भाग चूर्ण सर्वतुल्यामृता शुण्ठी गुडेन सहमोदकम् ॥ एकत्र मिलाकर उसे उपरोक्त मोदकोंके ऊपर लपेट कपैकं भक्षयेनित्यं दीप्ताग्निं कुरुते क्षणात् ॥ । दीजिए। _ निसोत, दन्तीमूल, पीपलामूल, पीपल और इन मोदकोंके सेवनसे त्रिकशूल, वंक्षणशूल, चीतेका चूर्ण १-१ पल (५-५ तो०) गिलोय हृदयशूल, बस्तिशूल, उदररोग, अर्श, प्लीहा (तिल्ली), For Private And Personal Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३५७ ] हिचकी, खांसी, अरुचि, श्वास, कफ और उदावर्त । निसोत और पिप्पलीके चूर्णको घीमें भूनकर रोग नष्ट होता है। समान भाग गुड़की चाशनीमें मिलाकर मोदक ___ मात्रा-१ मोदक । अनुपान उष्ण जल ।) बना लीजिए। (२४१२) त्रिवृतादिमोदकः ___ इन्हें मण्डके साथ सेवन करनेसे सन्निपात (वं. से.; . मा. । रक्तपित्ता.) नष्ट होता है। त्रिता त्रिफला श्यामा पिप्पली शर्करा मधु । (२४१५) त्रिवृतादिवटिका (ग.नि.।उदावत.) मोदकःसन्निपातोत्थरक्तपित्तज्वरापहः॥ त्रिटद्धरीतकी श्यामा स्नुहीक्षीरेण भावयेत् । निसोत, हर्र, बहेड़ा, आमला, काला निसोत, वटिका मूत्रपीतास्ताः श्रेष्ठास्त्वानाहभेदने ॥ और पीपलका चूर्ण १-१ भाग तथा खांड और निसोत, हर्र और काली निसोतका चूर्ण शहद इन सबके बराबर लेकर खांडकी चाशनी । समान भाग लेकर उसे थोहर (सेहुंड)के दूधमें घोटकर करके उसमें समस्त चूर्ण मिला दीजिए और । ( चनेके बराबर ) गोलियां बना लीजिए । ठण्डा होने पर शहद मिलाकर मोदक बना लीजिए। इन्हें गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे विरेचन इनके सेवनसे सन्निपातज रक्तपित्त और ज्वर होकर अफारा नष्ट हो जाता है। नष्ट होता है। (२४१६) त्रिवृदष्टकमोदकः (२४१३) त्रिवृतादिमोदकः (च.स.। कल्प.) (सु. संहिता । सूत्र. अ. ४४ ) व्योषं त्रिजातकं मुस्ता विडङ्गामलके तथा । त्रिवृत्पलं द्विप्रमृतं पथ्या धान्योवृकयोः।। नवैतानि समांशानि त्रिवृदष्टगुणानि वै॥ दशैतान् मोदकान् कुर्यादीश्वराणां विरेचनम् ।। | श्लक्ष्णचूर्णीकृतानीह दन्तीभागद्वयं तथा। निसोतका चूर्ण १ पल (५ तोले ), हर्र, सर्वाणि चूर्णितानीह गलितानि विमिश्रयेत् ॥ धनिया और अरण्डमूल का चूर्ण ४-४ पल लेकर षड्भिश्च शर्कराभागैरीषत्सैन्धवमाक्षिकैः । सबको सब चर्णके बराबर गुड़की चाशनीमें मिलाकर | पिण्डितं भक्षयित्वा तु ततः शीताम्बु पाययेत् ।। उस सबके दश मोदक बना लीजिए। . वस्तिरुक्तृड्ज्वरच्छर्दिशोष पाण्डुभ्रमापहम् । धनिक पुरुषोंको विरेचन कराने के लिए यह नियन्त्रणमिदं सर्व विषन्नन्तु विरेचनम् ॥ मोदक अत्युपयोगी हैं। त्रिवृदष्टकसंज्ञोयं प्रशस्त पित्तरोगिणाम् । ( व्यवहारिक मात्रा २ तोले । अनुपान | भक्ष्यःक्षीरानुपानो वा पित्तश्लेष्मातुरैर्नरैः ।। उष्ण जल)। सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची, (२४ १४) त्रिवृतादिमोदकः (ग.नि.।ज्वर.) तेजपात, मोथा, बायबिडंग और आमलेका चूर्ण त्रिवृत्पिप्पलिसंयुक्तो गुडसर्पिर्विपाचितः। १-१ भाग; निसोतका चर्ण ८ भाग, तथा दन्ती. मण्डानुपानो दातव्यो मोदकः सन्निपातहा॥ मूलका चूर्ण २ भाग । For Private And Personal Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि सबको ६ भाग मिश्रीकी चाशनीमें मिलाएं मिलाकर आमलेके बराबर गोलियां बना लीजिए। और उसके ठण्डा हो जाने पर उसमें ११-१। इनके सेवनसे भयङ्कर कफज रोग और तोला शहद और सेंधा नमकका चूर्ण मिलाकर | वातज प्रमेह नष्ट होते हैं। मोदक बना लें। त्र्यूषणादिगुटिका ( वं. से. । पाण्डु) इन्हें शीतल जलके साथ सेवन करनेसे रसप्रकरणमें देखिये । वस्तिकी पीडा, तृषा, ज्वर, छर्दि, शोष और पाण्डु - त्र्यूषणादिगुटिका ( र. र. । शिरो.) रोग नष्ट होता है। रसप्रकरणमें देखिए। यह विकार रहित विरेचन और विषप्नौषध व्यषणादिमण्डरवटिकाः (भा.प्र.खं.२।पाण्डु) है । तथा पित्त रोगोंमें अत्यन्त उपयोगी है । पित्त । रसप्रकरणमें देखिए । कफज रोगोंमें दूधके साथ भी दे सकते हैं। (२४१८) त्र्यषणादिवटी (वृ.नि.र.।अरुचि.) (२४ १७) त्रोटहरीगुटिका (ग.नि.परि.गुटि.) 2.) त्र्यूषणकपित्थरारोचकेन च साधयेवटी । शुण्ठीसक्तपुनर्नवात्रिफलिकासरेयशेफालिका- सेविता च साजायतेनरोभीमसेनवद्भक्षयेत् लालस: मुस्तावासकनिम्बपत्रकटुकाबोलाश्वगन्धावचाः। सोउ. मिर्च, पीपल, कैथका गूदा (गर्भ) व्योपच्छिन्नरुहाविडङ्गसहिताःसर्वाःसमांशा बुधै- सञ्चल और मिश्री समान भाग लेकर महीन चर्ण विंशांशाचमहौषधीपरिमिता,खण्डस्यविंशांशकाः।। करके गोलियां बना लीजिए। तत्तुल्येन च गोघृतेन मधुना सर्व च सम्मदितम् । इनके सेवनसे रुचि और अग्नि अत्यधिक बद्धा तेन शिवाप्रमाणगुटिका श्लेष्माणमुग्रं जयेत् । क्षीणस्यानिलजानि हन्ति सहसा सर्वप्रमेहांस्तथा बढ़ जाती है। नाम्ना त्रोटहरी गुटी च विजयालोके च या विश्रुता॥ इति तकारादिगुटिकाप्रकरणम् ॥ सोंठ, सत्तू, पुनर्नवा, हर्र, बहेड़ा, आमला, कटशरैया, हरसिंगारकी जड़, मोथा, बासा, नीमके __ अथ तकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् पत्ते, कुटकी, बोल, असगन्ध, बच, त्रिकुटा (सोंठ, (२४१९) त्रयोदशाङ्गगुग्गुलः मिर्च, पीपल ), गिलोय और बायबिडङ्गका चूर्ण ( भै. र.; वं. से.; वै. र.; भा. प्र.; ग. नि. १-१ भाग, सोंठका चूर्ण २० भाग, खाण्ड, खं. २; वृ. मा.; र. र.; च. द. । वा. व्या.; गायका घी और शहद २०-२० भाग लेकर वृ. यो. त. । त. ९०; यो. त. । त. ४०) समस्त चूर्णको घीमें मर्दन करके खांडकी चाशनीमें आभाश्वगन्धा हबुषा गुडूची मिलाइये और कुछ ठण्डा होनेपर उसमें शहद । शतावरी गोक्षुरद्धदारम् । १ गोक्षुरकश्च गस्नेति, गोक्षुरकं समङ्गेति च पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३५९] ANMNvMAN AAAAAAAAAVAVIAAIAANA रास्नां शताहा सशटी यमानी* | वातज और कफज रोग, हृद्ग्रह, योनिदोष, सनागरा चेति समैश्च चर्गम् ॥ खञ्जवात और अस्थिभन्नादिरोग नष्ट होते हैं । तुलां भवेत्कौशिकमत्र मध्ये नोट-अनुभवी वैद्य इसमें घृत उतना ही दे तथा सपिरथार्धभागम् । डालते हैं कि जितने से अच्छी तरह कूटा जा सके। अक्षा मात्रन्तु ततःप्रयोगात् ( व्यवहारिक मात्रा ३ माघे तक ) ___ कृत्वानुपानं सुरयाथ यूषैः ॥ (२४२०) त्रिकण्टकादिगुग्गुलु: कटिग्रहे गृध्रसि बाहुाष्ठे ( वृ. नि. र. । मूत्र.) हनुग्रहे जानुनि पादयुग्मे । त्रिकण्टकानां कथितेष्टनिघ्ने सन्धिस्थिते चास्थिगते च वाते पुरं पचेत् पाकविधानयुक्त्या । ___ मज्जाश्रिो स्नायुगते च कुष्ठे ॥ फलत्रिकव्योषपयोधराणां रोगाचयेद्वातककानुविद्धान् चूर्ण पुरेण प्रमितं विदध्यात् ॥ चातेरितान् हृदहयोनिदोषान् । वटी प्रमेहञ्च समूत्रघातं भनास्थि विद्वेषु च खञ्जवाते सवातकृच्छ्रश्च तथाश्मरीश्च । त्रयोदशाङ्गं प्रवदन्ति सन्तः ॥ शुक्रस्य दोषान् सकलांश्च वातान् टि०---गुग्गुलोरर्धभागं घृतं । वृद्ववैधास्तु यावता निहन्ति मेघानिव वायुवेगः ॥ घृतेन गुग्गुलु पिट्टनं भवति तावदेव घृतं १ सेर गोखरुको ८ सेर पानीमें पकाकर गृह्णन्ति । १ सेर शेष रहने पर छानकर उसमें १० तोले कीकरके फल, असगन्ध, हाउबेर, गिलोय, गूगल मिलाकर पकाएं जब वह गाढ़ा हो जाय शतावर, गोखरु, विधारा, रास्ना, सौंफ, कचर, तो उसमें त्रिफला, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), अजवायन और सों का चूर्ण समान भाग और और मोथेका समभाग मिश्रित १० तोले चर्ण सबके बराबर शुद् गूगल तथा गूगलसे आधा मिलाकर कूटकर गोलियां बनाएं। घृत लेकर गूगल और समस्त द्रों के चूर्णको | इनके सेवनसे प्रमेह, मूत्राघात, वातज मूत्रएकत्र मिलाकर थोड़ा थोड़ा घी डालकर कूटें। कृच्छू, अश्मरी और शुक्रदोष नष्ट होते हैं । ___ इसे आधे कर्ष ( ७॥ माशे )की मात्रानुसार ( मात्रा-३ मापे तक । अनुपान त्रिफलामद्य अथवा यूपके साथ सेवन करनेसे कटिग्रह, | गृध्रसि, हनुग्रह बाहु पृष्ठ जानु ( घुटना ) पैर (२४२१)त्रिफलागुग्गुल (भा.प्र.ख.२.वात.र.) सन्धि अस्थि मज़ा और स्नायुगत वायु; कुष्ठ, त्रिफलातिविषादारुदावींमुस्तापरूषकैः ।। २ श्यामेति पाठान्तरम् । * श्यामा शटी घोषवती यमानीति पाठान्तरम् । काथ या उष्ण For Private And Personal Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३६० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । तकारादि खदिरासननक्ताहगुडूचीनृपपादपैः॥ इसे त्रिफलाक्काथके साथ २१ दिन तक भूनिम्बकटुकाकलिङ्गकुलकैःसमैः । सेवन करनेसे भयङ्कर वातरक्त, कुष्ठ और व्रण नष्ट काथं कृत्वा ततःपूतं शृतमष्टगुणेम्भसि ॥ होते हैं। गुडूच्यास्तत्र सुकृतं चूर्णमर्द्धन्तु वारिणि । ( मात्रा-३ माशे तक ) क्षिप्त्वा सुन्तने भाण्डे वासयेद्रजनीगतम् ॥ (२४२२) त्रिफलागुग्गुलः (र. र. । वात.) सोमोपेतेन पूतेन कौशिकं परिभावयेत् । त्रिफला मुस्तकं व्योषं विडङ्गं पुष्करं वचा। चित्रकं मधुकश्चैव पलांशं श्लक्ष्णचूर्णितम् ॥ षड्गुणेन तु सप्ताहं शिलाजतुसमन्वितम् ॥ सूक्तस्य तु पलान्यष्टौ समावाप्य विचक्षणः । अयश्चूर्ण पलान्यष्टौ गुग्गुलुस्तावदेव च । आलोच्य मधुनोपेतं पलद्वादशकेन च ॥ ताप्यचूर्ण पलञ्चैकं द्वे पले मधुसर्पिषो॥ प्रातर्विभज्य भुञ्जानो जीणे तस्मिञ्जयेद्रुजः। एकीकृत्य समं सर्वे लिह्यात्सुत्रिफलाम्बुना। आमवातं तथा गुल्मं श्वयधुं विषमज्वरम् ॥ त्रिसप्ताहप्रयोगेण वातरक्तं सुदारुणम् । जीर्णानुसम्भवं शूलं पाण्डुरोगं हलीमकम् ।। निहन्ति वीर्यतःक्षिप्रं कुष्ठरोगान्त्रणानपि ॥ त्रिफला, मोथा, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), __हर्र, बहेड़ा, आमला, अतीस, दारुहल्दी, बायबिडंग, पोखरमूल, बच, चीता और मुलैठीका देवदारु, मोथा, फालसेकी छाल, खैरसार, असन, सूक्ष्म चर्ण १-१ पल (५-५ तोले ) तथा हल्दी, गिलोय, अमलतासकी छाल, चिरायता, लोहचर्ण और गूगल ८-८ पल लेकर सबको एकत्र नीमकी मिलाकर खूब कूटें और फिर उसमें १२ पल शहद समान भाग लेकर आठ गुने पानीमें पकाइये जब मिला लें। आठवां भाग पानी शेष रहे तो छानकर उसमें इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिए और उससे आधा गिलोयका चूर्ण मिला दीजिए और इसके पचने पर यथोचित आहार करना चाहिए । एक रात रक्खा रहने दीजिए । दूसरे दिन उसमें इसके सेवनसे आमवात, गुल्म, सूजन, काथका आठवां भाग बाबचीका चूर्ण मिलाकर विषमज्वर, परिणाम शूल, पाण्डु और हलीमक रोग थोड़ा पकाकर छान लीजिए । अब गूगल और नष्ट होता है। शिलाजीत समान भाग लेकर दोनोंमें छ गुना (मात्रा-१ माशा । अनुपान-उष्ण जल ।) उपरोक्त काथ मिलाकर घोटिए, जब काथ सूख जाए तो फिर डालकर घोटिए इसी प्रकार ७ | (२४२३) त्रिफलागुग्गुल: भावनाएं दीजिए तत्पश्चात् उसमें ८ भाग सुक्त | (शा. ध. । खं. २ अ. ७; यो. चि. म. । अ. ७) ( कांजी ) १ भोग सोनामक्खीकी भस्म, १ भाग त्रिपलं त्रिफलाचूर्ण कृष्णाचूर्ण पलोन्मितम् । घी और १ भाग शहद मिलाकर मर्दन कर लीजिए। गुग्गुलुपश्चपलिकः क्षोदयेत्सर्वमेकतः ॥ For Private And Personal Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भाग : । गुग्गुलुप्रकरणम् ] ततस्तु गुटिकां कृत्वा प्रयुञ्ज्याद्वह्नयपेक्षया । भगन्दरं गुल्मशोथावसि च विनाशयेत् ॥ त्रिफलाका चूर्ण ३ पल, पीपलका चूर्ण १ पल ( ५ तोले ) और गूगल ५ पल लेकर सबको एकत्र कूटकर गोलियां बना लीजिए । इनके सेवन से भगन्दर, गुल्म, शोथ और अर्श रोग नष्ट होता है । ( मात्रा - ३ माशे । अनुपान त्रिफलाकाथ, गोमूत्र या उष्ण जल । ) नोट - योगरत्नाकर में यही प्रयोग अन्तर्विद्रध्यधिकार में लिखा है, उसमें पीपल २ पल लिखी हैं । गुणोंके विषयमें लिखा है कि इसके सेवनसे अत्यन्त पीपवाली पकविद्रधि, नासूर और गण्डमाला नष्ट होती है । पथ्य - घृत युक्त आहार । (२४२४) त्रिफलादिगुग्गुलुः (वृ. नि. र. ऊरु.; वं. से . । गण्डमा ; ग ; नि. । गुटि . ) त्रिफलात्रिवृतादन्तीनी लिनीचतुरङ्गलैः । पञ्चविंशतिसंख्यातैः प्रत्येकं पलमात्रया || Safed कुट्टि चैभिचतुर्द्रोणे प्रमाणतः । पवेत्तत्सलिले तावद्यावद्द्द्रोणावशेषितम् ॥ पञ्चाशतत्र निक्षिप्य गुग्गुस्तु पलान्यपि । कथयेद्धि धनं यावत्तावत्पूर्ववत्पचेत् ॥ तावतास्मिन् घनीभूते त्वगेलानागकेसरम् । त्रिकटु त्रिफला पत्रं यवानी जीरकाणि च ॥ पिप्पी दहनचैव हपुषा कृष्णजीरकम् । वाष्पिका साजमोदा च तिन्तडीचाम्लवेतसौ ॥ सौवर्चलयुता कृत्वा श्लक्ष्णचूर्ण विनिःक्षिपेत् । प्रत्येक मेकप लिकैर्भागैः ः सम्यक् विचक्षणैः ॥ भा० ४६ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६१ ] ततोक्षमात्रा गुटिका भक्षयेत्तु दिने दिने । ऊरुस्तम्भोरुग्रन्थितगण्डमालोदरार्दितः ।। हर्र, बहेड़ा, आमला, निसोत, दन्तीमूल नीलीनि और अमलतास । इनमें से प्रत्येकका चूर्ण २५ पल ( १ सेर ९ छटांक ) लेकर सबको १२८ सेर पानी में पकाइये, जब ३२ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें ५० पल गूगल मिलाकर पुनः पकाइये और जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें १ - १ पल ( ५ - ५ तोले ) दालचीनी, इलायची नागकेसर, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, तेजपात, अजवायन, जीरा, पीपल, चीता; हाउबेर, कालाजीरा, हिङ्गुपत्री, अजमोद, तिन्तडीक, अम्लवेत और सौंचल ( काला नमक ) का चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह कूटकर १-१ कर्ष ( १ 1 तोले ) की गोलियां बना लीजिए । इनके सेवन से ऊरुस्तम्भ, ऊरुग्रन्थि, गण्डमाला और उदररोग नष्ट होते हैं । ( व्यवहारिक मात्रा २ - ३ माषे । अनुपानउष्ण जल ) (२४२५) त्रिफलाद्यो गुग्गुलुः ( ग. नि. । गुटिकाधिकार . ) पलानि कथयेत्षष्टिं त्रिफलायास्तु गुग्गुलोः । पलैः शोडषभिः सार्धमपां द्रोणद्वयेन तु ॥ चतुर्भागावशेषन्तु कृत्वा भूयोऽप्यधिश्रयेत् । घनीभूतं कषायन्तु ज्ञात्वा चोद्धृत्य निःक्षिपेत् ॥ छिन्नाविडङ्गव्योषाणां चूर्णानि पलिकानि च । ततो मात्रां बलापेक्षी भक्षयेद्वातरक्तिनम् ॥ कुष्ठिनं श्वित्रिणञ्चैव गुल्मिनं मेहिनन्तथा । बलं मेघां स्मृतिं ज्ञानं तेज आयुर्विवर्धयेत् ॥ ६० पल ( ३०० तोले ) त्रिफलाको For Private And Personal Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि कूटकर २ द्रोण ( ३२ सेर ) शुद्ध पानीमें पका- (२४२७) त्र्यूषणादिगुटिका ( गुग्गुलः ) इये और पकते समय उसमें १६ पल ( ८० (र. र. । वात.) तोले ) शुद्ध गूगल कपड़ेकी पोटलीमें बांधकर व्यूषणं पिप्पलीमूलं चित्रकं रजनीद्वयम् । डाल दीजिए । जब २५ पल पानी शेष रहे तो अजमोदां यवानी च पथ्या तुल्या सुवर्चलैः ।। काथको बारीक छलनी या धोतरसे छानकर | सैन्धवं वाकुचीवीजं यवक्षारं विडं वचाम् । पुनः पकाइये ( यदि कपड़े में कुछ प्रत्येकञ्च त्रिमाषन्तु सर्वतुल्यं च गुग्गुलुम् ॥ गूगल रह गया हो तो उसे निकालकर इस अम्लवेतसकर्षकं किश्चिदाढयेन कुट्टयेत् । काथमें ही डाल दीजिय । ) जब काथ गाढ़ा हो गुटिका च हिता वाते सामे सन्ध्यस्थिमज्जगे।। जाय तो उसमें गिलोय, बायबिडंग, त्रिकुटा (सोंठ दृढं करोति भग्नश्च जठरानलदीपिनी ।। मिर्च और पीपल )का १-१ पल (५-५ तोले) त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), पीपलामूल, चूर्ण मिला दीजिए। चीता, हल्दी, दारुहल्दी, अजमोद, अजवायन, हर्र, काला नमक ( सञ्चल ), सेंवा, बाबची, इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे यवक्षार, बायबिडंग और बचका चूर्ण ३-३ वातरक्त, कुष्ट, श्वित्र ( सफेदकोढ़ ), गुल्म और माशे तथा इन सबके बराबर शुद्र गूगल प्रमेह नष्ट होता तथा बल, बुद्धि, स्मरणशक्ति, और ११ तोला अमलबेतका चूर्ण एकत्र मिलाकर ज्ञान, तेज और आयुकी वृद्धि होती है। घृत डालकर अच्छी तरह कूटकर गोलियां बना (२४२६) त्र्यूषणादिगुग्गुलः लीजिए। ( भा. प्र. । ख. २ मेदो.) इनके सेवनसे आमवात, सन्धि अस्थि और यूषणानिवनवेल्लवचाभि मज्जागत वायु नष्ट होती तथा टूटी हुई हड्डीका भक्षयन्समघृतं महिषाक्षम् । जोड़ मजबूत और अग्निदीप्त होती है। (२४२८) न्यूषणादिगुटिका ( गुग्गुलुः ) आशु हन्ति कफमारुतमेदो (च. द. । प्रमे.) दोषजान्बलवतोऽपि विकारान्॥ त्रिकटु त्रिफला चूर्ण तुल्ययुक्तं तु गुग्गुलुम् । त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), चीता, | गोक्षुरकाथसंयुक्तं गुटिकां कारयेद्भिषक् । सुगन्धवाला, बायबिडंग और बचका चूर्ण १-१ दोषकालबलापेझी भक्षये चानुलो मेकीन् । भाग और गूगल इन सबके बराबर लेकर घी न चात्र परिहारोस्ति कर्मकर्यायथेप्सितम् ॥ डालकर कुटवा लीजिए। प्रमेहान्मूत्रघातांश्च बालरोगोदरं जयेत् । इसके सेवनसे कफज, वातज और मेदज त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), हर्र, बहेड़ा, बलवान रोग भी अत्यन्त शीघ्र शान्त हो जाते हैं। और आमलेका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल For Private And Personal Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । घृतप्रकरणम् ] सबके बराबर लेकर गोखरुके काथमें घोटकर गोलियां बना लीजिए । इन्हें दोषकाल और बलाबलके अनुसार सेवन करनेसे प्रमेह, मूत्राघात, बालरोग और उदर विकार नष्ट होते हैं। अथ तकारादिलेहप्रकरणम् (२४२९) त्रिफलापाकः (नपुंसकामृतार्णव । त. ७) प्रस्थार्द्ध त्रिफला चूर्ण शुद्धतोये विभावयेत् । चतुःपले घृते भये मन्दमन्देन वह्निना ॥ त्रिकटु गोक्षरु एला चित्रकं पुष्करं तथा । शाणद्वयप्रमाणेन मुस्तकं त्वक्पत्रजम् ।। निस्तुषं धान्यकं दद्यात्पलार्द्धं च प्रमाणतः । काश्मीरमश्मजं शुद्धं षण्मासञ्च प्रमाणतः । प्रस्थैकस्य सितायास्तु पाकं कृत्वा विधानतः । शीते मधु प्रदातव्यं वैकमितन्तथा ॥ कर्षद्वयमाणेन भोक्तव्यं च द्विसन्धययोः । नेत्ररोगशिरोरोगान्सर्वान्मेहांश्च नाशयेत् ॥ आधे प्रस्थ ( ४० तोले ) त्रिफला चूर्णको स्वच्छ पानी में भिगो दीजिए; जब वह कोमल हो जाय तो उसे पीसकर पिट्टीसी बना लीजिए और फिर ४ पल ( २० तोले) घीमें मन्दाग्नि पर भून लीजिए । तत्पश्चात् १ प्रस्थ ( ८० तोले ) खांडकी चाशनी करके उसमें यह त्रिफला और त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), गोखरु, इलायची, चीता और पोखरमूलका चूर्ण २-२ शाण (१० माशे ); मोथा, दालचीनी, तेजपात और तुष ( भूसी) रहित धनिये का चूर्ण २॥ - २॥ तथा ७|| माशे शुद्ध शिलाजीत और | तोले केसर [ ३६३ ] इनके सेवन कालमें किसी प्रकारके भी परहेकी आवश्यकता नहीं हैं । ( मात्रा ३ माशे । अनुपान उष्ण जल ) इति तकारादिगुग्गुलु प्रकरणम् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मिला दीजिए और ठण्डा होने पर उसमें २० तो शहद मिलाइये । इसे प्रतिदिन प्रातः सायं २ कर्ष ( २ || तोले ) मात्रानुसार सेवन करने से समस्त नेत्ररोग, शिरोरोग और प्रमेह नष्ट होते हैं । (२४३०) त्रिफलावलेह : (बृ.नि.र. | अजी.) त्रिफलामुस्त विडङ्गैः कणया सितया समैः । स्थात्वरमज्ञ्जिरिवीजैर्लेहो भस्मकनाशनः ॥ हरे, बहेड़ा, आमला, मोथा, बायबिडंग, पीपल, अपामार्ग ( चिरचिटे ) के बीज और मिश्री समान भाग लेकर पीसकर शहद में ( अथवा मिश्रीकी चाशनी में ) मिलाकर अवलेह बना लीजिए । इसे सेवन करने से भस्मक रोग नष्ट होता है । इति तकारादिलेहप्रकरणम् ॥ अथ तकारादिघृतप्रकरणम् (२४३१) तण्डुलीयकं घृतम् (र. र.; वं. से.; भै. र.; धन्वं । विष. ) तण्डुलीयकमूलेन गृहधूमेन चैकतः । क्षीरेण सघृतं सिद्धं समस्तविषरोगनुत् ॥ चौलाई की अड़ और घरके धुवेंके कल्क तथा दूधके साथ पका हुवा घृत पीने से समस्त विषविकार नष्ट होते हैं । For Private And Personal Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३६४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। - [तकारादि PRunnaphlori.RJARATH . . . (चौलाईकी जड़ ४ तो. घरका धुवां ४ तो. । (श्वेत कुष्ठ) कामला, भगन्दर, अपस्मार, उदररोग, घी ३२ तोले । दूध १२८ तोले) प्रदर, अर्श और रक्तपित्तादि पित्तज रोगोंका नाश (२४३२) तिक्तकं घृतम् (ग. नि. । घृता.; वृ. नि. र. । त्व.; वं. से.; . । (२४३३) तिक्तादिघृतम् मा. । कुष्ठ.; वा. भ. । चि. स्था अ. १८) । (वृ. नि. र.; यो. र.; वं. से.; च. द. । व्रण.; पटोलनिम्बकटुकादावर्वीपाठादुरालभाः। वृ. यो. त. । त. ११२) पर्पटं त्रायमाणां च पलांशं पाचयेदपाम् ॥ | तिक्तासिक्थनिशायष्टीनक्ताहफलपल्लवैः। द्वयाढकेऽष्टांशशेषेण तेन कर्पोन्मितैस्तथा। पटोलमालतीनिम्बपर्वण्य घृतं शृतम् ॥ त्रायन्तीमुस्तभूनिम्बकलिङ्गकणचन्दनैः ॥ कुटकी, मोम, हल्दी, मुलैठी, करञ्जके पत्ते सर्पिषो द्वादशपलं पचेत्तत्तिक्तकं जयेत् । और फल, पटोलपत्र, चमेली और नीमके पत्तेपित्तकुष्ठपरीसर्पपिटिकादाहतृभ्रमान् ॥ | इनके क्वाथ और इनहीके कल्कसे सिद्ध घृत को कण्डूपाण्ड्वामयान्गण्डान् दुष्टनाडीव्रणापचीः। घाव आराम होनेके पश्चात् उस स्थान पर लगाने विस्फोटकविद्रधीगुल्मशोफोन्मादमदानपि ॥ । से त्वचाका रंग ठीक हो जाता है। हृद्रोगतिमिरव्यङ्गग्रहणीश्वित्रकामलाः।। (२४३४) तिक्ताद्य घृतम् (वं. से. । श्वास.) भगन्दरमपस्मारमुदरं प्रदरं गरम् ॥ तिक्तासौवर्चलक्षारपथ्यात्रिकटुहिङ्गुभिः । अर्शोस्रपित्तमन्यांश्च सुकृच्छ्रान्पित्तजान् गदान्।। समालूरैघृतं सिद्धं सक्षीरं श्वासकासनुत् ।। ___पटोलपत्र, कुटकी, नीमकी छाल, दारुहल्दी, | गुल्मानाहश्च शमयेत्पद्धान्गुदजानपि ॥ पाठा, धमासा, पित्तपापड़ा, और त्रायमाणा १-१ कुटकी, सौवर्चल ( काला नमक-सञ्चल) पल (५-५ तोले) लेकर १६ सेर पानीमें पका- | यवक्षार, हर्र, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल), हींग इये जब २ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें और बेलको छालके क-क तथा दूधके साथ सिद्ध १-१ कर्ष (११-१। तोला) त्रायमाणा, मोथा, घृत खानेसे खांसी, श्वास, गुल्म, अफारा और चिरायता, इन्द्रजौ, पीपल और चन्दनका कल्क | अर्श (बवासीर) रोग नष्ट होता है। तथा १२ पल (६० तोले) घी मिलाकर पकाइये। (कुटकी आदि प्रत्येक द्रव्य ५ तो० घी जब समस्त पानी जल जाय तो उतारकर छान | १८० तोले, दूध ७२० तो. अर्थात् ९ शेर ) लीजिए। (२४३५) तिल्वकघृतम् (वं. से. वात व्याध्य.) यह घृत पित्त कुष्ठ, विसर्प, पिटिका, दाह, पलाष्टकं तिल्वकतो वचायाः तृष्णा, भ्रम,खुजली,पाण्डु, नाडीव्रण, (नासूर),अपची __ प्रस्थं पलं शिग्रु च पञ्चमूलम् । (गण्डमाला भेद), विस्फोटक, विद्रधी, गुल्म,शोथ, सैरण्डसिंही त्रिवृतं घटेपाम् उन्माद, मद, हृद्रोग, तिमिर, व्यङ्ग, ग्रहणी, श्वित्र | पक्वा पचेत्पादशृतेन तेन ॥ For Private And Personal Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३६५ ] wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww दध्नोपेतं यावशूकांशविल्वैः। । (२४३७) तिल्वकाद्यं घृतम् (ग. नि.घृता.) सर्पिष्पस्थं हन्ति तत्सेव्यमानम् ॥ तिल्वकस्य पलान्यष्टौ त्वचस्तु सुकृतादतः । दुष्टान्वातानेकसर्वाङ्गसंस्थान । | अंशुमत्युरुबूकञ्च विल्वायश्च पृथक् पलम् ॥ योनिव्यापद्वध्नगुल्मोदरश्च ॥ यवकोलकुलत्थानां प्रस्थं प्रस्थं फलत्रिकात् । लोध ८ पल (४० तोले ), बच १ प्रस्थ तत्साधयेज्जलद्रोणे चाष्टभागावशेषितम् ।। (१ सेर), संहजनेकी छाल, बेल, सोनापाठा (अरलु) घृतपस्थं पचेत्तेन दत्वा दधस्तथाढकम् । . की छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलछाल, अरणी, | कर्षेण यावशूकस्य पकं तदवचूर्णयेत् ॥ अरण्डमूल, कटैली और निसोत १-१ पल (५- | एतत्तु तैल्वकं नाम जीर्णज्वरविषापहम्। ५ तोले) लेकर सबको १६ सेर पानीमें पकाइये। कृमिकुष्ठहरश्चैव शोफपाण्ड्डामयापहम् ॥ जब ४ सेर पानी जल जाय तो उसे छानकर ___ लोध आठ पल, मेंडफलकी छाल, शालपर्णी, उसमें १ प्रस्थ (१ सेर) घी, ४ सेर दही और १०-१० तोले जवाखार तथा बेलकी छालका अरण्डमूल, बेलछाल, अरलुकी छाल, खम्भारीछाल, कल्क मिलाकर पकाइये। पाढलछाल और अरनी १-१ पल (५-५ तोले) __ इसके सेवनसे एकांगगत तथा सागगन दुष्ट तथा जौ,बेर,कुलत्थ और त्रिफला(हर्र,बहेड़ा,आमला) वातव्याधि, योनिरोग, बध्न और गुल्मरोग तथा १-१ प्रस्थ (८० तोले) लेकर सबको ३२ सेर उदररोग नष्ट होते हैं। पानीमें पकाइये जब ४ सेर पानी शेष रहे तो (२४३६) तिल्वकाख्यं घृतम् उसे छानकर उसके साथ १ आढक (४ सेर) (वं. से. । वातव्याधि.) दही मिलाकर १ प्रस्थ घृत पकाइये और सब त्रिफला शजिनी दन्ती विडङ्गं त्रिता सुधा। पानी जल जानेके पश्चात् घीमें १ कर्ष (१। तोला) कार्षिकाणि पवेत्तानि तिल्वकस्य पलेन च ॥ जवाखार मिला दीजिए। दनि च त्रिवृताकाथे घृतपस्थं चतुर्गुणे।। इसके सेवनसे जीर्णज्वर, विष, कृमि, कुष्ठ, तिल्वकाख्यं घृतं तत्स्याद्विरेके वातरोगिणम॥ शोथ और पाण्डुरोग नष्ट होता है। ____ हर्र, बहेड़ा, आमला, शंखपुष्पी, दन्ती, बाय (२४३८) तुरङ्गगन्धावृतम् यो.स.। समु.५) बिडङ्ग, निसोत और थूहर (सेंड) का दूध १-१ | तुरनगन्धाकाथेन विपचेदाज्यमुत्तमम् । कर्ष (१।-१। तोला)तथा लोध १ पल (५ तोले) ऋतुकाले मुहुःपीतं वन्ध्यानां गर्भदं परम् ॥ लेकर इनके कल्क तथा १ प्रस्थ दही ओर ४ प्रस्थ असगन्धके काथके साथ पका हुवा घृत ऋतुनिसोतके काथके साथ १ प्रस्थ (८० तोले) घृत | कालमें सेवन करानेसे वन्ध्या स्त्री गर्भ धारण पका लीजिए। करती है। ___ यह घृत वातरोगियोंको विरेचन देनेके लिए (घी १ सेर । काथ ४ सेर। असगन्धका उपयोगी है। कल्क पाव सेर । मात्रा-१ तोला । अनुपान दूध ।) For Private And Personal Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि - - - (२४३९) तृणपञ्चमूलाद्यं घृतम् तालीसपत्र, जीवन्ती, और वच । एक एक कर्ष (भा. प्र. म. ख.; वं. से, । अश्म.) (११-१। तोला) तथा हींग २० तोले लेकर पञ्चमूल्यास्तृणाख्यायास्तथा गोक्षुरकस्य तु। सबको पानीके साथ पीसकर कल्क बनाइये । पृथग्दशपलान्भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ तत्पश्चात् यह कल्क, १ सेर घी और ४ गुडगोक्षुरबीजश्च कल्कं तत्र प्रदापयेत् ।। सेर पानी एकत्र मिलाकर पकाइये। जब सब तत्सिद्धं मूत्रदोषेषु शर्करास्वश्मरीषु च ॥ पानी जल जाय तो घृतको छानकर रख लीजिए। स्नेहने भोजने चैव प्रयोज्यं सर्पिरुत्तमम् ॥ इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे ___ तृणपञ्चमूल (शर, दाब, कुश, कास और हिचकी, श्वास, शोथ, अग्निमांद्य, अर्श, ग्रहणीरोग ईख) तथा गोखरु । प्रत्येक वस्तु १०-१० पल | और हृदय तथा पसलीकी पीड़ा शान्त होती है। (५०-५० तोले) लेकर सबको ३२ सेर पानीम (२४४१) त्रायमाणाद्यं घृतम् पकाइये जब ४ सेर पानी शेष रहे तो छान (च. सं.। चि. अ. ५; वं. से.; भै. र.; धन्व.; लीजिए। इस क्वाथ और १०-१० तोले गुड़ च. द. । गुल्म.) और गोखरुके कल्कके साथ १ सेर घृत पका जले दशगुणे साध्यं त्रायमाणा चतुष्पलम् । लीजिए। : इसके सेवनसे मूत्रदोष, शर्करा और अश्मरी पश्चभागस्थितं पूतं कल्कैः सयोज्य कार्षिकैः।। नष्ट होती है। रोहिणीकटुकामुस्तत्रायमाणादुरालभाः। .. इसे स्नेहनके लिए अथवा भोजनमें प्रयुक्त द्राक्षातामलकीवीराजीवन्तीचन्दनोत्पलैः ।। करना चाहिए। रसस्यामलकानाश्च क्षीरस्य च घृतस्य च । (२४४०) तेजोवत्यादिघृतम् एतानि पृथगष्टाष्टौ दत्वा सम्पग्विपाचयेत् ॥ __ (च. द.; धन्वं.; । हिक्का; च. सं.;) पित्तगुल्मं रक्तगुल्म वीसपै पैसिकं ज्वरम् । तेजोवत्यभयाकुष्ठं पिप्पली कटुरोहिणी। हृद्रोगं कामलां कुष्ठं हन्यादेतद्धृतोत्तमम् ॥ भूतिकं पौष्करं मूलं पलाशं चित्रकं शठी ॥ ४ पल (२० तोले ) त्रायमाणाको ४० पल सौवर्चलं तामलकी सैन्धवं विल्वपेशिका । पानीमें पकाइये, जब २० पल पानी शेष रहे तो तालीसपत्रं जीवन्तीं वचा तैरक्षसंमितैः॥ उसे छान लीजिए । तत्पश्चात् मांसरोहिणी, हिङ्गपादैघृतं प्रस्थं पचेत्तोयचतुर्गुणे। कुटकी, मोथा, त्रायमाणा, धमासा, मुनक्का, भुईएतद्यथावलं पीत्वा हिक्काचासौ जयेन्नरः॥ आमला, खस, जीवन्ती, चन्दन और नीलोफर, शोथानिला ग्रहणीहत्पार्थरुज एव च ॥ १-१ कर्ष (११-१। तोला) लेकर सबको चव्य, हर्र, कूठ, पोपल, कुटकी, अजमायन, पानीके साथ पीस लीजिए । पश्चात् यह कल्क, पोखरमूल, पलाश (ढाक) की छाल, चीता, कचूर, । उक्त काथ, और ८-८ पल आमलेका रस, दूध सञ्चल (कालानमक), भुई आमला, सेंधा, बेलगिरि, | और घी एकत्र मिलाकर पकाइये । For Private And Personal Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वृतप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३६७ ] जब समस्त दूध और क्वाथ जल जाय तो सर्पिगुंडाशमितं प्रयोज्यं घृतको छान लीजिए। ___ कृच्छ्राश्मरीमूत्रविघातदोषे ॥ इसके सेवनसे पित्तज और रक्तज गुल्म, गोखरु, अरण्डमूल, और कुशादि पञ्चमूल विसर्प, पित्तज्वर, हृद्रोग, कामला और कुष्ठ नष्ट (कुश, काश, शर, दाभ, ईखकी जड़)का काथ होता है । ४ शेर, शतावर, पेठा और ईखका रस, ४-४ (२४४२) त्रिकण्टकादिघृतम् सेर तथा घी ४ सेर लेकर एकत्र पकाइये । जब (च. सं. । चि. स्था. प्र.; . मा.; र.र. । प्रमे.) घृतमात्र शेष रहे तो छानकर उसमें २ सेर गुड़ त्रिकण्टकाश्मन्तकसोमवल्कै मिलाकर अच्छी तरह विलोडित कर लीजिए। भल्लातकैःसातिविषैःसरोधैः । इसके सेवनसे मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी और मूत्रावचापटोलार्जुननिम्बमुस्तै घात रोग नष्ट होता है । ( मात्रा २ तोले ) हरिद्रया पद्मकदीप्यकैश्च ॥ (२४४४) त्रिफलाघृतम् (शा.ध.। ख. २.अ. ९) मञ्चिष्ठया चागुरुचन्दनैश्च त्रिफलाया रसमस्थं प्रस्थं वासारसोद्भवम् । ___ सर्वैः समस्तैः कफवातजेषु । भृङ्गराजरसमस्थं प्रस्थमाज पयः स्मृतम् ।। मेहेषु तैलं विपचेद्धृतन्तु दत्वा तत्र घृतप्रस्थं कल्कैः कर्षमितैः पृथक् । त्रिफला पिप्पली द्राक्षा चन्दनं सैन्धवं बला॥ पैत्तेषु मिश्रं त्रिषु लक्षणेषु ॥ काकोली क्षीरकाकोली मेदा मरिचनागरम् । गोखरु, पत्थरचटा, बाबची, भिलावा, अतीस, शर्करा पुण्डरीकं च कमलं च पुनर्नवा ॥ लोध, बच, पटोल पत्र, अर्जुनकी छाल, नीमकी निशायुग्मं च मधुकं सर्वैरेभिर्विपाचयेत् । छाल, मोथा, हल्दी, पद्माक, अजवायन, मजीठ, नक्तान्ध्यं नकुलान्ध्यं च कण्डूं पिल्लं तथैव च । अगर और चन्दन । इनके कल्क तथा काथके नेत्रस्रावं च पटलं तिमिरं चाजकं जयेत् । साथ तैल पकाकर वातज तथा कफज प्रमेहमें अन्येपि प्रशमं यान्ति नेत्ररोगाः सुदारुणाः॥ और घृत पकाकर पित्तज प्रमेहमें प्रयुक्त कराना त्रैफलं घृतमेतद्धि पाने नस्यादि सूचितम् ॥ चाहिए। यदि तीनों दोषोंसे उत्पन्न प्रमेह हो तो __ त्रिफलेका काथ १ सेर, बासेका रस १ सेर, घृत और तैल मिलाकर पका लेने चाहियें। भंगरेका रस १ सेर, और बकरीका दूध १ सेर (२४४३) त्रिकण्टकाद्यं धृतम् तथा घी १ सेर और १-१ कर्ष (१।-१। तोला) ( वं. से.; भै. र.; Q. मा. ग. नि; र. र.; यो. र; त्रिफला, पीपल, मुनका चन्दन, सेंधा, बला च. द; भा. प्र.; धन्व.; । मूत्रकृ.; (खरैटी), काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, मिर्च, सोंठ, र. यो. त. ।त. १००) मिश्री, लाल कमल, श्वेत कमल, पुनर्नवा, हल्दी, त्रिकण्टकैरण्डकुशायभीरु दारुहन्दी और मुलैठीका कल्क लेकर सबको कारुकेक्षुस्वरसेन सिद्धम् । एकत्र मिलाकर पकाइये। For Private And Personal Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३६८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि इसके सेवनसे नक्तान्ध्य (रतौंधा), नकुलान्ध्य, इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे तिमिर, आंखोंकी खुजली, रोहे, नेत्रस्राव, पटल, तिमिर, नेत्रस्राव, कामला, काच, नेत्रार्बुद, विसर्प, प्रदर, और अन्य कितने ही भयङ्कर नेत्ररोग नष्ट होते हैं। नेत्रकण्डू, सूजन, खालित्य (गंज), पलित [ बाल इस घृतको पिलाना तथा नस्यद्वारा प्रयुक्त । सफेद होना], बालोंका गिरना, विषमज्वर, नेत्रकराना चाहिए। फूला और अन्यान्य नेत्ररोग नष्ट होते हैं । (मात्रा-१ तोला । गर्म दूधमें डालकर पिलाएं) । (२४४६) त्रिफलादिघतम् (२४४५) त्रिफलावृतम् (मध्यम) (वं. से.; वृं, मा. । नेत्र० ) (वै. र.; वृ. यो. त.; वं. से.; . मा.। नेत्ररोगा.) फलत्रिकाभीरुकपायसिद्ध त्रिफला त्र्यूषणं द्राक्षा मधुकं कटुरोहिणी । __ कल्केन यष्टीमधुकांशयुक्तम् ।। प्रपौण्डरीकं सूक्ष्मैला विडङ्ग नागकेसरम् ॥ सर्पिःसमं क्षौद्रचतुर्थभागं नीलोत्पलं सारिवे द्वे चन्दनं रजनीद्वयम् । हन्यात्रिदोष तिमिरं भवन्तम् ।। कार्षिकैः पयसा तुल्यं त्रिगुणं त्रिफलारसम् ॥ त्रिफलेका काथ २ सेर, शतावरका रस घृतपस्थं पचेदेतत्सर्वनेत्ररुजापहम् । २ सेर, घी १ सेर, और मुलैठीका कल्क पावसेर तिमिरं दोषमास्रावं कामलां काचमर्बुदम् ।। वीसपै प्रदरं कण्डूं रक्तं श्वयथुमेव च । लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकाइये; जब समस्त खालित्यं पलितं चैव केशानां पतनं तथा।। | पानी जल जाय तो घीको छानकर उसमें २० तोले विषमज्वरमर्माणि शुक्रं चाशु व्यपोहति । शहद मिला लीजिए। अन्ये च बहवो रोगा नेत्रजा ये च मर्मजाः ॥ इसे सेवन करनेसे त्रिदोषज तिमिर रोग नष्ट तान्सर्वान्नाशयत्याशु भास्करस्तिमिरं यथा। न चैवास्मात्परं किश्चिदृषिभिः काश्यपादिभिः॥ (२४४७) त्रिफलादिघृतम् (सु. सं.। उत्तर.) दृष्टिप्रसादनं दृष्टं तथा स्यात्रैफलं घृतम् ॥ त्रिफलोशीरशम्पाककटुकातिविषान्वितैः । हर्र, बहेडा, आमला, त्रिकुटा सोंठ, मिर्च, शतावरीसप्तपर्णगुडूचीरजनीद्वयैः ।। पीपल ), मुनक्का, मुलैठी, कुटकी, पुण्डरिया, छोटी चित्रकत्रितामूपिटोलारिष्टवालकैः । इलायची, बायबिडंग, नागकेसर, नीलोत्पल, सारिवा, किराततिक्तकवचाविशालापनकोत्पलैः ।। कृष्णसारिया, चन्दन, हल्दी और दारुहल्दी। सारिवाद्वययष्ट्याहचविकारक्तचन्दनैः। प्रत्येकका कल्क १-१ कर्ष (१।-१। तोला), दुरालभापर्पटकत्रायमाणाटरूषकैः ॥ दूध १ सेर, और त्रिफलेका काथ ३ सेर तथा रास्नां कुङ्कममञ्जिष्ठामागधीनागरैस्तथा । घी १ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकाइये। धात्रीफलरसैःसम्यग्द्विगुणै साधितं हविः ॥ जब समस्त पानी जल जाय तो घी को छानकर परिसर्पज्वरश्वासगुल्मकुष्ठनिवारणम् । रख लीजिए। पाण्डुप्लीहाग्निमान्येभ्य एसदेवं परमं हितम् ।। For Private And Personal Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३६९] त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ), खस, त्रिफलाका काथ, २ सेर, दही २ सेर, घी अमलतास, कुटकी, अतोस, शतावर, सतौनेकी १ सेर, और मुलैठीका कल्क पाव सेर लेकर सबको छाल, गिलोय, हल्दी, दारु हल्दी, चीता, निसोत, एकत्र पकाइये । जब सब पानी जल जाय तो मूर्वा, पटोलपत्र, नीमकी छाल, सुगन्धबाला, चिरायता, घीको छान लीजिए । इसकी नस्य लेनेसे शिरोरोग बच, इन्द्रायण, पद्माख, नीलोत्पल, दोनों प्रकारकी नष्ट होते हैं। सारिवा, मुलैठी, चव, लाल चन्दन, धमासा, (२४५०) त्रिफलादिघतम् पित्तपापड़ा,त्रायमाणा, वासा [अडूसा,रास्ना, केसर, (यो. र. । स्त्री.; भा. प्र. । ख. २ यो. रो.) मजीठ, पीपल और सोंठका कल्क पावसेर [प्रत्येक त्रिफलां द्वौ सहचरौं गुडूची सपुनर्नवाम् । वस्तु समान भाग मिश्रति ], घी १ सेर और शुकनासा' हरिद्रे द्वे रास्नां मेदां शतावरीम्॥ आमलेका स्वरस २ सेर लेकर सबको एकत्र कल्कीकृत्य घृतप्रस्थं पचेत् क्षीरे चतुर्गुणे । मिलाकर पकाएं । जब समस्त रस जल जाय तो | तत्सिद्धं पाययेनारी योनिरोगप्रशान्तये ॥ घी को छान लें। त्रिफला, नीले और पीले फूलवाली ( दोनों ___ इसके सेवनसे विसर्प, ज्वर, श्वास, गुल्म, प्रकारकी ) कटशरैया, गिलोय, पुनर्नवा, शुकनासा कुष्ठ, पाण्डु, तिल्ली और अग्निमांद्यका नाश होता है। ( श्योनाक वृक्षकी छाल ), हल्दी, दारुहल्दी, (मात्रा ६ माशेसे १ तोले तक । गर्म दूधमें | रास्ना, मेदा और शतावरी । सब चीजें समान डालकर पिएं) भाग मिलाकर पाव सेर लें और सबको पानीके (२४४८) त्रिफलादिघृतम् साथ पीसकर कल्क बनालें । फिर यह कल्क; ४ (Q. मा.; वं. से.; यो. र.; च. द. | नेत्र०) सेर दूध और १ सेर घी एकत्र मिलाकर पकाएं। त्रिफलाव्योषसिन्धृत्थैघृतं सिद्धं पिबेन्नरः। जलांश जल जाने पर घीको छान लें । चक्षुष्यं भेदनं हृद्यं दीपनं कफनाशनम् ॥ इस घीको पीनेसे योनिरोग नष्ट होते हैं। - हर्र, बहेड़ा, आमला, त्रिकुटा (सोंड, मीर्च, ( मात्रा—१ तोला तक । ) पीपल ), और सेंबाके कल्क तथा इन्हीके काथके (२४६१) त्रिफलादिघतम साथ सिद्ध घृत आंखोंके लिए हितकारी, भेदन, (यो. र. । नेत्र.; भाव. प्र. । ख. २ नेत्र.) हृद्य, दीपन और कफनाशक होता है। | शतमेकं हरीतक्या द्विगुणं च विभीतकम् । (२४४९) त्रिफलादि घृतम् (वै.म.र. । प. १६) चतुर्गुणं त्वामलकं वृषमार्कवयोःसमम् ॥ वरायाःकाथसंसिद्धं क्षीरोत्थदधिसाधितम् । चतुर्गुणोदकं दत्त्वा शनैर्मद्वमिना पचेत् । सर्पिर्मधुकसंसिद्धं नस्याद्वै मूर्धरोगजित् ॥ भागं चतुर्थ संरक्ष्य काथं तमवतारयेत् ॥ १ त्रिवृतां शुण्ठीमिति पाठान्तरम् । २ विंदारिकामिति पाठान्तरम् । भा. ४७ For Private And Personal Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः । [ ३७० ] शर्करामधुकं द्राक्षा मधुयष्टी निदिग्धिका । काकोलीक्षीरकाकोली त्रिफला नागकेसरम् । पिप्पली चन्दनं मुस्तं त्रायमाणा तथोत्पलम् । घृतं प्रस्थं समं क्षीरं कल्कैरेतैः शनैः पचेत् ॥ हन्यात्सतिमिरं काचं नक्तान्ध्यं शुक्रमेव च । तथा स्रावं च कण्डूं च श्वयथुं च कषायताम् || कलुषत्वं च नेत्रस्य विङ्कर्त्मपटलान्वितम् । बहुनाऽत्र किमुक्तेन सर्वान्नेत्रामयान्हरेत् ॥ यस्य चोपहता दृष्टि सूर्याग्निभ्यां प्रपश्यतः । तस्मै तद्भेषजं प्रोक्तं मुनिभिः परमं हितम् ॥ मार्जितं दर्पणं यद्वत्परां निर्मलतां व्रजेत् । तद्वदेतेन पीतेन नेत्रं निर्मलता मियात् ॥ हर्र १००, बहेड़े २०० और आमले ४०० तथा बासा और भंगरा चार चारसो तोले लेकर सबको ४ गुने पानी में पकाइये, जब चौथा भाग पानी शेष रहे तो क्वाथको छान लीजिए । तत्पश्चात् इस काथ और खांड, महुवे के फूल, मुनक्का, मुलैठी, कटेली, काकोली, क्षीरकाकोली, त्रिफला, नागकेसर, पीपल, चन्दन, मोथा, त्रायमाणा और नीलोफरके कक तथा समान भाग दूधके साथ ९ प्रस्थ (१ सेर) घृत पका लीजिए । इसके सेवन से तिमिर, काच, नक्तान्ध्य (रतौंधा) नेत्रशुक्र (फूला), नेत्रस्राव, नेत्रकण्डु ( आंख में खाज आना), सूजन, कषायता, नेत्रकी कलुषता, पटल, विड्वर्त्म, इत्यादि समस्त नेत्ररोग नष्ट होते हैं । सूर्य और अनिकी ओर देखनेसे नष्टदृष्टि इसके सेवन से यथावत् हो जाती है । जिस प्रकार मांजने से दर्पण स्वच्छ हो जाता Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ तकारादि है उसी प्रकार इसके सेवन से दृष्टि भी अत्यन्त निर्मल हो जाती है । नोट - मूलपाठ में हर्र, बहेड़े और आमलेकी स्पष्ट तोल नहीं लिखी ; यह सन्देह होता है कि हरे इत्यादि १०० - २००-४०० नग ली जाये या पल अथवा तोला ? परन्तु बासा और भंगरा समान भाग लेने के लिए लिखा है इससे प्रकट होता है कि १००-२०० और ४०० नग नहीं अपितु पल या तोलोंकी संख्या हैं । अब यदि इनको तोला भी मानें तो भी सबका मिलकर १५०० तोले (लगभग १८ सेर) काथ होता है। जो १ सेर घीके लिए बहुत अधिक है, इसलिए सब काथ एक बार में न डालकर हरबार चार सेर डालना चाहिए और इस प्रकार १ प्रस्थ धीको ५ बार पकाकर सिद्ध करना चाहिए । त्रिफलायास्त्रयः प्रस्थाः विडङ्गं प्रस्थ एव च । (२४५२) त्रिफला घृतम् (भै. र. । कृमि . ) दीपनं दशमूलञ्च लाभतः समुपाहरेत् ॥ पादशेषे जलद्रोणे शते सर्पिर्विपाचयेत् । प्रस्थोन्मितं सिन्धुयुतं तत्परं कृमिनाशनम् ॥ त्रिफला घृतमेतद्धि ले शर्करया सह ॥ त्रिफला ३ सेर, बायबिडंग १ सेर और यदि मिल सकें तो अजवायन और दशमूल भी १-१ सेर लेकर सबको द्रोण (१६ सेर ) पानीमें पकाएं। जब ४ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें १ सेर घी और पावसेर सेंधानमक मिलाकर पकाइये । जब सब पानी जल जाय तो घीको छान लीजिए । इसे खाण्डमें मिलाकर चाटने से कृमिरोग नष्ट होता है । (मात्रा- -१ तोले तक । ) For Private And Personal Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३७१) (२४५३) त्रिफलाद्यं घृतम् (वा.भ.।उ.अ.१३) त्रिफलाका क्वाथ १ सेर, भंगरेका रस १ सेर, त्रिफलाष्टपलं क्वाथ्यं पादशेष जलाढके। बासेका रस १ सेर, बकरीका दूध १ सेर, घी १ तेन तुल्यपयस्केन त्रिफलापलकल्कवान् ॥ । सेर और पीपल, मिश्री, मुनक्का, त्रिफला, नीलोफर, अर्द्धप्रस्थो घृतात्सिद्धः सितया माक्षिकेण वा। मुलैठी, क्षीरकाकोली, गिलोय, कटेली, मजीठ, युक्तं पिबेत्तत्तिमिरी तयुक्तं वा वरारसम् ॥ पद्माख, खस, चन्दन, सारिवा और देवदारुका आठ पल (४० तोले) त्रिफलाको १ आढक ११-१। तोला अत्यन्त महीन पिसा हुआ कल्क (४ सेर) पानीमें पकाकर १ सेर पानी शेष रक्खें | लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकाइये। जब समस्त और छानकर उसमें १ सेर दूध तथा १ पल जलांश जल जाय तो घृतको छान लीजिए। (५ तोले) त्रिफलेका कल्क और आधा सेर घी इसे सेवन करनेसे रक्तदुष्टि, रक्तस्राव, नक्तामिलाकर पकाएं। जब सब पानी जल जाय तो न्थ्य (रतौंधा), तिमिर, काच, और सूर्यकेतेजको घृतको छान लें। न सहना आदि समस्त नेत्ररोग नष्ट होते और इसमें मिश्री और शहद मिलाकर चाटने या बलवर्ण तथा अग्निकी वृद्धि होती है। त्रिफलाके क्वाथके साथ पीनेसे तिमिररोग नष्ट (२४५५) त्रिफलाद्यं घृतम् (ग. नि.। घृता.) होता है। त्रिफला मदन कुष्ठं शाङ्गेष्टा रजनीद्वयम् । (२४५४) त्रिफलाद्यं घृतम् (ग. नि. । घृता.) ! शुकनासा काकमाची हपुषा ऽतिविषा वचा॥ त्रिफलाया रसपस्थं प्रस्थं भृङ्गरसस्य च । । पाठा कोशातकी मूर्वा तिक्ता काकादनी घृतम् । पीडयित्वा वृष वालं रसप्रस्थं प्रदापयेत् ॥ एतत्कषायकल्काभ्यां सिद्धं पीतं घृतोत्तमम् ।। अजाक्षीरस्य च प्रस्थं कार्षिकैः श्लक्ष्णपेषितैः।। । विशीयमाणं विध्वस्तस्नायुकेशनखं नरम् । पिप्पलीशर्कराद्राक्षात्रिफलानीलमुत्पलम ॥ कुष्ठातुरं तु जनयेन्मुमूर्षुमपि निर्गदम् ॥ मधुकं क्षीरकाकोलीमधुपर्णीनिदिग्धिका । त्रिफला, मैनफल, कूठ, काकजंघा, हल्दी, मञ्जिष्ठापद्मकोशीरसारिवादारुचन्दनैः ॥ दारुहल्दी, शुकनासा, काकमाची (मकोय), हाऊघृतं प्रस्थं पचेत् प्राज्ञः कल्कैरेभिः समन्वितम्। बेर, अतीस, बच, पाठा, कोशातकी (कड़वी तूंबी), ऊर्ध्वपानमधःपानं मध्ये पानं विशिष्यते ॥ मूर्वा, कुटकी और चौंटली । समान भाग लेकर अतिपदुष्टे रक्ते च रक्ते वातिनुते तथा। इनके क्वाथ और कल्कसे घृत पका लीजिए। नक्तान्ध्ये तिमिरे काचे सर्वनेत्ररुजासु च ॥ इस घृतको पीनेसे मृत्प्रायः कुष्ठरोगी भी बकविद्योतितं भ्रान्तं सूर्य तेजोद्विपं तथा। स्वस्थ हो जाता है। यदि स्नायु गल गए हों, गृध्रदृष्टिकरं धन्यं बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ या केश और नखादि गिर गए हों तो वह भी त्रिफलाया घृतं सिद्धं सर्वनेत्ररुजान्तकृत् ॥ । ठीक हो जाते हैं। For Private And Personal Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३७२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि (२४५६) त्रिफलायं घृतम् त्रिफलाका काथ १ सेर, भांगरेका रस १ (ग. नि.; . मा; र. र.; भै. र.; वं. से. । कृमि.) सेर, अडूसेका रस १ सेर, शतावरका रस १ सेर, त्रिफला त्रिवृता दन्ती वचा कम्पिल्लकस्तथा। | बकरीका दूध १ सेर, गिलोयका रस १ सेर, सिद्धमेभिर्गवां मूत्रे सर्पिः कृमिविनाशनम् ॥ । आमलेका रस १ सेर तथा घी १ सेर । . त्रिफला, निसोथ, दन्तीमूल, बच और कबीला कल्क द्रव्य–पीपल, मिश्री, मुनक्का, त्रिफला, समान भाग मिश्रित पावसेर, घी १ सेर तथा नीलोत्पल, मुलैठी, क्षीरकाकोलो, गिलोय और गोमूत्र ४ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि छोटी कटेली। सब समान भाग मिलाकर २० पर पकाइये । जब गोमूत्र जल जाय तो घीको | तोले लें। छान लीजिए। सब चीज़ोंको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर इसके सेवनसे कृमिरोग नष्ट होता है। पकाएं और पानी जल जाने पर घृतको छानकर (२४५७) त्रिफलादि घृतम् (महा) चिकने पात्रमें भरकर रख दें। (भै. र.; वं. से.; च. द.; यो. र.; यो. त. । नेत्ररोग) इसे भोजनसे पहिले, भोजनके मध्यमें या भोजनान्तमें सेवन करना चाहिये । त्रिफलाया रसप्रस्थं प्रस्थं भृङ्गरसस्य च । इसके सेवनसे नक्तान्ध्य (रतौंधा), तिमिर, वृषस्य च रसप्रस्थं शतावयोश्च तत्समम् ॥ काच, नीलिका, पटल, अर्बुद, अभिष्यन्द (आंख अजाक्षीरं गुडूच्याश्च आमलक्या रसं तथा। दुखना), अधिमन्थ, पक्ष्मकोप, तथा अन्य समस्त प्रस्थं प्रस्थं समाहृत्य सर्वैरेभिघृतं पचेत् ॥ वातज, पित्तज और कफज नेत्ररोग एवं अदृष्टि कल्कः कणा सिता द्राक्षात्रिफला नीलमुत्पलम् । | (अन्धता), मन्ददृष्टि, कफवातसे दूषित दृष्टि, वातमधुकं क्षीरकाकोली मधुपर्णी निदिग्धिका ॥ पित्तजस्राव (आंखसे पानी बहना-ढलका), आंखों तत्साधुसिद्धं विज्ञाय शुभे भाण्डे निधापयेत् । । की खुजली, आसन्न दृष्टि (शॉर्ट साइट-दूरसे ऊर्ध्वपानमधः पानं मध्ये पानश्च शस्यते ॥ स्पष्ट दिखाई न देना), दूर दृष्टि (लौंग साइटयावन्तो नेत्ररोगास्तान् पानादेवापकर्षति । पाससे बारीक अक्षर स्पष्ट दिखाई न देने) इत्यादि नक्तान्ध्ये तिमिरे काचे नीलिकापटलार्बुदे ॥ समस्त नेत्ररोग नष्ट होकर दृष्टि गृध्रके समान अभिष्यन्देऽधिमन्थे च पक्ष्मकोपे च दारुणे। तीव्र हो जाती है। नेत्ररोगेषु सर्वेषु वातपित्तकफेषु च ॥ इसके सेवनसे शरीरमें बल बढ़ता, अग्नि अदृष्टि मन्ददृष्टिश्च कफवातप्रदूषिताम् । तीव्र होती और शरीरका रंग निखरता है। स्रवतो वातपित्ताभ्यां सकण्ड्वासनदरहा ॥ ___(मात्रा-आधा तोला । दूधमें डालकर पियें) गृध्रदृष्टिकरं सयो बलवर्णानिवर्द्धनम् । नोट-पूरा लाभ प्राप्त करनेके लिए ५-६ सर्वनेत्रामयं हन्यात्रिफलायं महद् घृतम् ॥ । मास तक सेवन करना चाहिए । For Private And Personal Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३७३ ] (२४५८)त्रिवृतादिघृतम् (भै. र. । वृद्धय.) चारगुने पानीमें पकाइये जब चौथा भाग पानी त्रिवृतामधुयष्टयम्बुपयोधरयमानिकाः।। शेष रहे तो छान लीजिए । तत्पश्चात् यह काथ श्यामाविदारीमिश्रेया पिप्पलीगिरिमल्लिका॥ | और इतना ही दूध तथा इससे चौथाई घी और घृतप्रस्थं पयःप्रस्थं दध्याढकसमन्वितम् ।। उतना ही अरण्डीका तैल लेकर सबको एकत्र शतावरीरसप्रस्थं सर्वाण्येकत्र सम्पचेत् ।। मिलाकर पकाइये । जब सब पानी जल जाय तो त्रिवृतादिघतश्चैतदन्त्रजान्निखिलान् गदान् । स्नेहको छान लीजिए। प्रमेहान् विंशतिंश्वासान् कुष्ठान्य सि कामलाम। इसमें शहद मिलाकर सेवन करनेसे कफज हलीमकं पाण्डुरोगं गलगण्डं तथार्बुदम् । गुल्म, कफ, वायु, मलावरोध, कुष्ठ, प्लीहा और विद्रधि व्रणशोथश्च हन्ति नास्त्यत्र संशयः ॥ विशेषतः योनिशूल नष्ट होता है। __ कल्क द्रव्य-निसोत, मुलैठी, सुगन्धबाला, (२४६०) त्रिवृताधं घृतम्(वं.से. यो.र.।उदर.) मोथा, अजवायन, काली निसोत, विदारीकन्द, पयस्यष्टगुणे सर्पिः प्रस्थं स्नुक्पयसापलम् । सौंफ, पीपल और कुड़ेकी छाल २-२ तोले.। घी त्रिवृतापलषट्केन सिद्धं जठरगुल्मनुत् । १ सेर, दूध १ सेर, दही १ सेर और शतावरका घी १ प्रस्थ (८० तोले), दूध ८ प्रस्थ, रस १ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पकाएं। सेहुंड (थोहर) का दूध १ पल (५ तोले) और इसे सेवन करनेसे समस्त अन्त्ररोग ( अन्त्र निसोतका कल्क ६ पल । सबको एकत्र मिलाकर दूध जल जाने तक पकाएं। वृद्धयादि ), बीस प्रकारके प्रमेह, श्वास, कुष्ट, | इसके सेवनसे उदररोग और गुल्म नष्ट अर्श, कामला, हलीमक पाण्डु, गलगण्ड, अर्बुद, | विद्रधि और व्रणशोथ इत्यादि रोग नष्ट होते हैं। (२४६१) त्र्यूषणदिघृतम् (मात्रा-१ तोला तक ।) (चं. सं. । चि. । स्था. अ. २६; यो. र.।) (२४५९) त्रिवृतादिमिश्रकस्नेहः स्यात् त्र्यूषणं द्वे त्रिफले सपाठे (च. सं. । चि. अ. ५) निदिग्धिका गोक्षुरको बले द्वे । त्रिवृतां त्रिफलां दन्ती दशमूलं पलोन्मितम् । ऋद्धिस्सुटिस्तामलकी स्वगुप्ता जले चतुर्गुणे पक्ता चतुर्भागस्थितं रसम् ॥ मेदे मधृकं मधुकं स्थिराञ्च । सर्पिरेरण्डजं तैलं क्षीरश्चैकत्र साधयेत् । शतावरी जीवकपृश्निपण्य? स सिद्धो मिश्रकस्नेहः सक्षौद्रः कफगुल्मनुत् ॥ द्रव्यैरिमैरक्षसमैः सुपिष्टैः। कफवातविबन्धेषु कुष्ठप्लीहोदरेषु च। प्रस्थं घृतस्येह पचेद्विधिज्ञः प्रयोज्यो मिश्रकःस्नेहो योनिशूलेषुचाधिकम् ॥ प्रस्थेन दन्नस्त्वथ माहिषस्य ।। निसोत, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्ती और | मात्रां पलं चार्द्धपलपिचुम्बा दशमूल । १-१ पल (५-५ तोले) लेकर सबको ! प्रयोजयेन्माक्षिकसम्प्रयुक्तम् । For Private And Personal Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३७४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि श्वासे सकासे खथ पाण्डुरोगे (२४६३) त्र्यूषणाचं घृतम् (ग.नि.।ग्रहणी०) हलीमके हृद्ग्रहणीप्रदोषे ।। त्र्यूषणत्रिफलाकल्के विल्वमात्रे गुडात्पलम् । त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, बहेड़ा, सर्पिषोऽष्टपलं पक्त्वामात्रांमन्दानलः पिबेत् ॥ आमला, खम्भारीके फल, मुनक्का, फालसेके फल, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) और त्रिफलाका पाठा, कटेली, गोखरु, बला (खरैटी), अतिबला कल्क आधा आधा पल ( २॥ २॥ तोले ) गुड़ (कंघी), ऋद्धि, छोटी इलायची, भुई आमला, १ पल और धी ४० तोले तथा पानी २ सेर कौंचके बीज, मेदा, महामेदा, मुलैठी, महुवेके फूल, एकत्र मिलाकर पानी जलने तक पकाइये और शालपर्णी, शतावर, जीवक और पृश्निपर्णीका कल्क | फिर घृतको छान लीजिए। १-१ कर्ष (१।–१। तोला), घी १ सेर, भैंसका इसे यथोचित मात्रानुसार पीनेसे मन्दाग्नि दही १ सेर और पानी ४ सेर। सबको एकत्र नष्ट होती है । ( मात्रा-१ तोले तक) मिलाकर पकाएं। (२४६४) त्र्यूषणाद्यं घृतम् इसे ५ तोले, २॥ तोले या ११ तोलेकी (ग. नि.।घृता.; यो. र.; च. सं.। चि. अ. २२) मात्रानुसार शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे श्वास, त्र्यूषणं त्रिफलां द्राक्षां काश्मयं च परूषकम् । खांसी, पाण्डुरोग, हलीमक, हृद्रोग, और ग्रहणी द्वे पाठे देवदारुवद्धिःस्वगुप्तां चित्रकं शठीम्।। रोग नष्ट होता है। व्याघ्रीमामलकी मेदां काकनासां शतावरीम्। (२४६२) ज्यूषणादिघृतम् त्रिकण्टकं गुडूची च पिष्ट्वा कर्षसमान्घृतात् ।। (वृ. नि. र. । अति.; वृ. यो त.। त. ६४) । चतुःप्रस्थं चतुर्गुणे क्षीरे सिद्धं कासहरं पिबेत् । यषणा त्रिफला चैव चित्रको गजपिप्पली ज्वरगुल्मारुचिप्लीहशिरोहृत्पार्श्वशूलनुत् ॥ विल्वं कर्कटिका हिंस्रा विडङ्ग सनिदिग्धिकम्॥ | कामलार्शोऽनिलार्तिघ्नं क्षतशोषक्षयापहम् । घतपस्थं पचेदेभिर्गवां मूत्रे चतुर्गुणे। यूषणं नाम विख्यातमेतद्धतमनुत्तमम् ॥ त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), हर्र, बहेड़ा, तत्पयोगं पिबेत्कोलं हन्यात्तेन प्रवाहिकाम् ॥ | | आमला, द्राक्षा ( मुनक्का ), खम्भारीके फल, ___ त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, बहेड़ा, | फालसा, दो प्रकारका पाठा, देवदारु, वृद्धि, आमला, चीता, गजपीपल, बेलगिरी, ककड़ी, कौंचके बीज, चीता, कचूर, कटैली, आमला, मेदा, कटेला, बायबिड़ङ्ग और कटेली प्रत्येक १॥ तोला | काकनासा, शतावर, गोखरु, और गिलोयका कल्क लेकर पानीके साथ पीस लें। तत्पश्चात् इस कल्क ११-१। तोला, दूध ४ सेर तथा घी १ सेर (८० और ४ सेर गोमूत्रके साथ १ सेर घी पकाएं। तोले ) लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकाएं । इसे १। तोलेकी मात्रानुसार पीनेसे प्रवाहिका इसे यथोचित मात्रानुसार ( १ तोला तक ) नष्ट होती है। । पीनेसे खांसी, ज्वर, गुल्म, प्लीहा, शिरो-पीड़ा, For Private And Personal Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृततैलपकरणम् द्वितीयो भागः। [३७५] हृदयका शूल, पसलीका दर्द, कामला, अर्श, वात- त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल,), हर्र, बहेड़ा, व्याधि, क्षतज शोष और क्षय रोग नष्ट होता है। आमला, धनिया, बायबिडंग, चव्य और चीता (२४६५) त्र्यूषणायं घृतम् समान भाग लेकर इनके कल्क और चार गुने | दूधके साथ घी पका लीजिए । (ग. नि.; वृ.नि.र.; च. द.; वृं. मा.; च. सं. । गुल्मे) त्रयूषणत्रिफलाधान्यविडङ्गचव्यचित्रकैः । इसके सेवनसे वातज गुल्म नष्ट होता है । कल्कीकृतैघृतं सिद्धं सक्षीरं वातगुल्मनुत् ॥ । इति तकारादिघृतप्रकरणम्॥ अथ तकारादितैलप्रकरणम् (२४६६)तप्तराजतैलम् (भै.र.;धन्वं.शिरो.) । पानी ३२ सेर । पकाकर ८ सेर पानी शेष रहने धुस्तूरं पूतिकं पीता जयन्ती सिन्धुवारकम् । पर छानले । शिरीषं हिज्जलं शिशु दशमूलं समं भवेत् ॥ कल्क—मैनफल, त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च प्रस्थं प्रस्थं समादाय कटुतैलं समांशकम् ।। पीपल) कूठ, जीरा, सोंठ, कायफल, बरनेकी छाल, जलद्रोणे विपक्तव्यं ग्राह्यं पादावशेषितम् ॥ मोथा. समुद्रफल. बेलछाल, हरताल. जवापुष्प गोमूत्रञ्चाढकं दत्त्वा शनैमृद्वनिना पचेत् ।। (गुढलका फूल), शुद्ध बछनागविष, मनसिल, मदनं त्र्यूषणं कुष्ठमजाजी विश्वभेषजम् ।। काकड़ा सिंगी, सफेद चन्दन, सहिजनेकी छाल, कट्फलं वरुणं मुस्तं हिज्जलं विल्वमेव च। अजवायन, और कटाई । प्रत्येक एक एक कर्ष हरितालं जवापुष्पममृतं कुनटी तथा ॥ (११ तोला)। कर्कटं चन्दनं शिग्रु यमानी व्याघ्रपादपि । | गोमूत्र ८ सेर और कड़वा (सरसोंका) तैल एतेषां कार्षिकैर्भार्गः समभागं प्रकल्पयेत् ॥ २ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पकाएं। सप्तराजमिति ख्यातं महादेवेन निर्मितम् । इसके उपयोगसे भयङ्कर सन्निपात, शिरोरोग, सन्निपातं महाघोरं शिरोरोगं महोत्तरम् ॥ शिरशूल, नेत्ररोग, कर्णशूल, ज्वर, दाह, अत्यधिक शिरःशूलं नेत्ररोगं कर्णशूलञ्च दारुणम् । पसीना आना, कामला, पाण्डु, हलीमक, और ज्वरं दाहं महाघोरं स्वेदश्चैव महोत्तरम् ।। पीनसका नाश होता है। कामलां पाण्डुरोगश्च सहलीमकपीनसम्। (२४६७) ताम्रगर्भतैलम् त्रयोदशसन्निपातं हन्ति सद्यो न संशयः॥ (र. र. स. । उ. खं. अ. २६ ) काथद्रव्य-धतूरा, करज, हल्दी, जयन्ती, भूमावरनिमात्रायां तानं तैलेन पूरयेत्। सम्भालु, सिरसकी छाल; हिजल ( समुद्र फल ), षण्मासं तापयेदृर्श्व मृदुना तुषवहिना । सहजनेकी छाल और दशमूल, । प्रत्येक १ सेर । पीत्वामाषादिनिष्कान्तं तत्रिवर्षान्महाकविः।। For Private And Personal Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३७६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि - एक ताम्रपात्रमें मालकंगनीका तैल भरकर गोदुग्ध या गोमूत्रमें बुझाइये ।) इसी प्रकार बार उसके मुखपर ढक्कन रखकर उसे टांकेसे अच्छी बार करनेसे ताम्रका चूर्ण हो जायगा । अब यह तरह बन्द करा दीजिए फिर भूमिमें १ अरनि । ताम्र चूर्ण १ भाग, तेल ४ भाग और गोदुग्ध प्रमाण गहरा गढा खोदकर उसमें इस पात्रको ३२ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि दबा दीजिए। छः मास इसके ऊपर मृदु पर पकाइये। जब दूध जल जाय तो तैलको तुषाग्नि जलाएं और स्वांग शीतल होनेपर छानकर उसमें प्रतिपल (५ तोले) तैलमें १ कर्ष निकाल लें। (१। तोला) मोम और आधा कर्ष काश्मीरी केसर इसमें से प्रथम दिन १ माषा तैल पिएं और मिलाइये। फिर रोज थोड़ा थोड़ा बढ़ाते जाएं । जब चार ___ इस तैलकी मालिश करनेसे मुखके व्यङ्ग, माषे मात्रा पर पहुंच जाएं तो मात्रा न बढ़ाएं | कलङ्क ( झांई, कलौस) और वलि इत्यादि नष्ट और रोज ४ माषे ही पीते रहें। होकर मुख चन्द्रमाके समान अत्यन्त सुन्दर हो ___ इसे तीन वर्ष पर्यन्त सेवन करनेसे मनुष्य | जाता है। महाकवि (अत्यन्त तीब्र बुद्धिः) हो जाता है। (२४६८) ताम्रादितैलम् (रा. मा. । मुखरो.) । (२४६९) तालीसायं तैलम् अम्भःक्षालितटङ्कणेन ममृणोत्पिष्टेन यल्लेपितम्। ( सु. सं. । चि. क्षतचि.) तानं तत्परिताप्य सूक्ष्मं कणिकाभावं तालीसं पद्मकं मांसी हरेण्वगुरुचन्दनम्। क्रमात्मापयेत् ॥ हरिद्रे पद्मवीजानि सोशीरं मधुकश्च तैः॥ तैलं तत्र चतुर्गणं विनिहितं तैलात् सुरभ्याः पयो। पकं सद्यो व्रणेपूक्तं तैलं रोपणमुत्तमम्।। विन्यस्याष्टगुणं पचेत्सुनिपुणो नात्यन्ततीवेऽनले॥ ___तालीसपत्र, पद्माक, जटामांसी, रेणुका (संभाकर्ष तैलपले क्षिपेदथ मधूच्छिष्टस्यकाश्मीरजस्याष्टांशं विनिधाय तेन शिशिरे वक्त्रं लुके बीज), अगर, चन्दन, हल्दी, दारुहल्दी, समालेपयेत् ॥ कमलगट्टा, खस और मुलैठी । समान भाग लेकर इनके कल्क और इन्हींके क्वाथसे तैल पकाकर एवं व्यङ्गकलङ्कविन्दुवलिभिनिर्मुक्तमत्युज्ज्वलम् । रखिए। तत्स्यात् पार्वणचन्द्रविम्बविजयी प्रस्फारचारद्युतिः ॥ इसे ब्रण (घाव) में लगानेसे घाव भर आता सुहागेको पानीके साथ अत्यन्त महीन पीस- है। (काथके लिए प्रत्येक ओषधि ४ तो०; पानी कर ताम्रपत्रपर लेप कर दीजिए और फिर उसे ४ सेर ३२ तो., शेष १ सेर ८ तोले । तैल २२ अग्निमें तपाइये । (और खूब लाल होनेके पश्चात् | तोले । कल्कके लिए प्रत्येक वस्तु आधा तोला ।) १ अरनिकनउंगलीको फैलाकर बन्द की हुई मुठीका माप । For Private And Personal Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग:। [ ३७७] - - - (२४७०) तिलतैलादिप्रयोगः (यो.र.।स्त्री.रो.) मजीठ, कूठ, हल्दी, पंवाड़ और अमलतासके तिलतैलदुग्धफाणितदधि पत्ते ५--५ तोले लेकर पीस लें फिर यह कल्क; घतमेकत्र पाणिना मथितम् । १। सेर सरसोंका तैल तथा ५ सेर गन्धतृण पीतं सपिप्पलीकं जनयति (मिर्चिया गन्ध)का स्वरस एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पुत्रं परं महिला ।। पर पकाएं। तिलका तेल, ध, फाणित (पतली राब), इस तैलकी मालिशसे कुष्ठ रोग नष्ट होता है। दही और घी समान भाग लेकर सबको हाथसे । (२४७३) त्रिकटुकाद्यं तैलम् भली भांति मथकर उसमें पीपलका चूर्ण मिलाकर (वं. से.; . मा.; ग. नि. । नासा.) पीनेसे बन्ध्या स्त्री गर्भ धारण करती और उत्तम त्रिकटुकविडङ्गसैन्धवहतीफलशिग्रुपुत्रको जन्म देती है। सुरसदन्तीमिः। (२४७१) तुम्बीतेलम् तैलं गोजलसिद्धं नस्यं स्यात् पूतिनस्यस्य । (भै. र.; योर.; . मा.; र. र.; वं. से. । गलगण्डा. त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), बायबिडंग, वृ. यो. त. । त. १०८. यो. त. । त. ५७ ) | सेंधानमक, कटेलीके फल, सहिजनेकी छाल, तुलसी विडङ्गक्षारसिन्धुत्थरास्नामिव्योषदारुभिः। और दन्तीमूलके कल्क तथा गोमूत्रके साथ तैल कटुतुम्बीफलरसे कटुतैलं विपाचितम् ॥ पका लीजिए। चिरोत्थमपि नस्येन गलगण्डं विनाशयेत् ॥ - इसकी नस्य लेनेसे पूतिनस्य रोग नष्ट बायविडंग, जवाखार, सें नमक, रास्ना, होता है । (तैल १ सेर, गोमूत्र ४ सेर; समान चीता, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) और देव- भाग मिश्रित और जलपिष्ट कल्क द्रव्य पावसेर।) दारुका कल्क २-२ तोले, सरसों का तैल ७२ । (२४७४) त्रिफलातैलम् (शा.ध.सं.ख.२अ.९) तोले, और कड़वी तूंबीका रस २८८ तोले लेकर त्रिफलारिष्टभूनिम्बं द्वेनिशे रक्तचन्दनम् । सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाइये । एतैःसिद्धमरूंपीणां तैलमभ्यञ्जने हितम् ॥ जब सब रस जल जाय तो तैलको छान लीजिए। हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, चिरा इसकी नस्य लेनेसे पुराना गलगण्ड भी नष्ट यता, हल्दी, दारु हल्दी और लालचन्दनके कल्क हो जाता है। और इन्हींके काथसे सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे (२४७२) तृणकतैलम् अरुषिका रोग (शिरोरोग विशेष) नष्ट होता है। (च. द; वं. से.; वृं. मा.; ग. नि.। कुष्ठा.; वृ. यो. | (कल्कके लिए प्रत्येक द्रव्य ५ तोले लेकर त. । त. १२०) | पानीमें पीस लें। मञ्जिष्ठारुङनिशाचक्रमर्दारग्वधपल्लवैः । । काथके लिए प्रत्येक द्रव्य ४० तोले, पानी तृणकस्वरसे सिद्धं तैलं कुष्ठहरं कटु ॥ ३२ सेरः शेष ४ सेर । तेल २ सेर ।) भा० ४८ For Private And Personal Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३७८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि (२४७५) त्रिफलातलम् (वं. से। अपस्मा.) उसके मुख को अच्छी तरह बन्द करके भूमिमें त्रिफलाव्योषकुष्ठाब्दयवक्षारफणिज्झकैः। दबा दीजिए । और एक मास पश्चात् निकालकर कल्कीकृतैरेभिर्द्रव्यैर्गजनत्रे चतुर्गुणे। छान लीजिए । साधितं नावनं तैलमपस्मारं विनाशयेत् ॥ सफेद बालों पर यह तैल लगाकर ऊपरसे हर्र, बहेड़ा आमला, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, करेलेके पत्ते रखकर कपड़ा बांध दीजिए । दूसरे पीपल) कूठ, मोथा, जवाखार, और बनतुलसीके दिन बालोंको त्रिफलेके काथसे धो डालिए और कल्क तथा चार गुने हाथीके मूत्रके साथ तैल | फिर इसी प्रकार तैल लगाइये । इस प्रकार सात पका लीजिए। | दिन तक यह तेल लगाने और निर्वात स्थानमें इसकी नस्य लेनेसे अपस्मार (मिरगी) रोग | रहने तथा दुग्धाहार करनेसे सफेद बाल आयु भरके नष्ट होता है। लिए काले हो जाते हैं। - (तैल १ भाग, हस्तीमूत्र ४ भाग, समान (२४७७) त्रिफलाद्यं तैलम् भागमिश्रित कल्क द्रव्य ३ भाग । सबको मिलाकर ! (वं. से.; वृ. नि. र.; यु. मा.; भा. प्र.; यो. र.; पकाएं) ग. नि.; भै. र.; च. द. । मेदो वृ.; वृ. यो. (२४७६) त्रिफलादितलम् । त. । त. १०४) (र. र. र. । उपदे. ५; र. मं. । अ. ८) त्रिफलातिविषामूत्रिवृच्चित्रकवासकैः। त्रिफलालोहचूर्ण तु वारिणा पेषयेत्समम् । निम्बारग्वधषग्रन्थासप्तपर्णनिशाद्वयैः । तत्तुल्येन च तैलेन भृङ्गराजरसेन च ॥ गुडूचीन्द्रसुरीकृष्णाकुष्ठसर्षपनागरैः । पचेत्तैलावशेष तस्निग्धभाण्डे निरोधयेत् ।। तैलमेभिःसमैःपकं सुरसादिरसप्लुतम् ।। मासैकं भूगतं कुर्यात्तेन शीर्ष प्रलेपयेत् ॥ पानाभ्यजनगण्डूपनस्यवस्तिषु योजितम् । कारवल्लया दलैर्वेष्टय ततो वस्रेण बन्धयेत् । स्थूलताऽऽलस्थपाण्डादीन्जयेत्कफकृतान्गदान्। निर्वाते क्षीरभोजी स्यात्क्षालयेत्रिफलाजलैः॥ कक द्रव्य-हरे, बहेड़ा, आमला, अतीस, नित्यमेवं प्रकर्त्तव्यं लेपनं दिनसप्तकम् । मूर्वा, निसोत, चीता, बासा (अडूसा), नीमकी कपालरञ्जनं ख्यातं यावज्जीवं न संशयः॥ छाल, अमलतासका गूदा, बच, सप्तपर्ण (सतौना) + १-१ भाग त्रिफला और लोहचूर्णको पानीके । वृक्षकी छाल, हल्दी, दारुहन्दी, गिलोय, इन्द्रायण, साथ एकत्र खरल करें फिर उसमें समान भाग पीपल, कृट, सरसों और सोंठ। समान भाग तैल और तैलसे चार गुना भंगरेका रस मिलाकर मिश्रित आधा सेर । मन्दाग्नि पर पकाएं । जब समस्त रस जल जाय सुरसादिगणका काथ १६ सेर और तेल तो उस तैलको बिना छाने ही मिट्टीके चिकने । ४ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पकाएं । पात्रमें ( अथवा चीनीके मर्तबान आदिमें ) भरकर इसे पान, अभ्यङ्ग, बस्ति, नस्य और For Private And Personal Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] गण्डूषादि द्वारा प्रयुक्त करनेसे स्थूलता, आलस्य, पाण्डु और कफजरोग नष्ट होते हैं । (२४७८) त्रिफलाद्यं तैलम् (वं. से. । नेत्ररो.) संपिष्य त्रिफला लोध्रमुशीराणि प्रियङ्गुकम् । तैलमेतैविषकं स्याच्छ्लैष्मिके नस्यमुत्तमम् ।। त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला), लोध, खस, और फूलप्रियङ्गुके कल्क तथा इन्हींके काथके साथ पका लीजिए । इसकी नस्य लेने से कफज तिमिररोग नष्ट होता है । (२४७९) त्रिफलाद्यं तैलम् वृ. नि. र.; भा. प्र.; भै. र.; वृं. मा. धन्वं; यो. र. । मेदोरो.; आ. वे. वि. । अ. ८१; च. द. | क्षुद्र.) त्रिफलायोरजयष्टि मार्कवोत्पलशारिवैः । ससैन्धवैः पचेत्तैलमभ्यङ्गादरूंषिकां जयेत् || द्वितीयो भागः । हर्र, बहेड़ा, आमला, लोहचूर्ण, मुलैठी, भंगरा, नीलोत्पल, सारिवा और सेंधानमक । इनके कल्क तथा इन्होंके क्वाथसे तैल पका लीजिए । इसकी मालिशसे अपिका रोग (शिरोरोग विशेष) नष्ट होता है। 11 : (२४८०) त्रिशतीप्रसारिणीतैलम् ( च. द.; वं. से.; भै. र. धन्वं । वातव्याध्य.) प्रसारण्यास्तुलामश्वगन्धाया दशमूलतः । तुलां तुलां पृथग्वारिद्रोणे पादांशशेषिते ।। तैलाढकं चतुःक्षीरं दधितुल्यं द्विकाञ्जिकम् । द्विपलैर्ग्रन्थिकक्षारप्रसारण्यक्ष सैन्धवैः Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३७९ ] समञ्जिष्ठाग्नियष्ट्याद्दैःपलिकैर्जीवनीयकैः । शुण्ठ्याः पञ्चपलं दत्त्वा त्रिशद्भल्लातकानि च ॥ पचेद्वस्त्यादिना वातं हन्ति सन्धिशिरास्थितम् । पुंस्तवोत्साह स्मृतिप्रज्ञाबलवर्णाभिवृद्धये ॥ ( प्रसारणीयं त्रिशती ' अक्षं ' सौवर्चलं त्विह ) प्रसारिणी (गन्धेल घास), असगन्ध, और दशमूल १--१ तुला ( प्रत्येक ६ । सेर) लेकर पृथक् पृथक् १६–१६ सेर जल में पकाएं; और ४ -४ सेर जल शेष रहने पर छान लें। तत्पश्चात् यह तीनों काथ, ४ सेर तैल, १६ सेर दूध, ४ सेर दही और ८ सेर काञ्जी तथा निम्न लिखित ओषधियों का कल्क एकत्र मिलाकर पकाइये | कल्क द्रव्य - पीपलामूल, जवाखार, प्रसारिणी, सौवर्चल (कालानमक), सेंधानमक, मजीठ, चीता, और मुलैठी, प्रत्येक १० - १० तोले । जीवनीय प्रत्येक औषध १ - १ पल (५ - ५ तोले), सोंठ २५ तोले, और भिलावे ३००। इसे बस्ति, मर्दनादि द्वारा प्रयुक्त करनेसे सन्धिगत, शिरागत और अस्थिगतवायु इत्यादि समस्त वातज रोग नष्ट होते और पुंस्त्व, बल, वर्ण, अग्नि, स्मृति और बुद्धि इत्यादिकी वृद्धि होती है । (२४८१) त्वगादितैलम् (च. सं. । चि. अ. २६ शिरो. रो. ) त्वग्दन्तीव्याघ्रकरजविडङ्गनवमालिकाः । अपामार्गफलं वीजं नक्तमालशिरीषयोः || १ त्रिफलायोरजमांसीति पाठान्तरम् । २. ' जीवनीयगण ' जकारादि कषायप्रकरण में देखिये । For Private And Personal Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः [ ३८० ] क्षवोऽश्मन्तको बिल्वं हरिद्रा हिङ्गुयूथिका । फणिज्झकश्च तैस्तैलमत्रिमूत्रे चतुर्गुणे ॥ सिद्धं स्यान्नावनं चूर्ण चैषां प्रधमनं हितम् ।। भारत दालचीनी, दन्तीमूल, व्याघ्रनखी ( नख नामक गन्ध द्रव्य), बायबिड़ङ्ग, मोगरा, अपामार्ग (चिरचिटा ), करञ्जके फल, सिरसके बीज, नक छिकनी, अश्मन्तक (पाषाणभेद - पत्थरचटा ) बेलकी छाल, हल्दी, हींग, जूही और बनतुलसी इनके कल्क और ४ गुने भेड़के मूत्रके साथ तैल पका लीजिए । इस तैलकी बूंदें नाक में डालने से अथवा उपरोक्त ओषधियोंके चूर्ण को नाक में चढ़ानेसे शिरो रोग नष्ट होता हैं । [ तकारादि (२४८२) त्वगादितैलम् (बृ. नि. र. । बाल.) त्वक्पत्ररास्नागुरुशिग्रुकुष्ठै रम्लपिg: सबलासिता है: । अजीर्णकनं च विषूचिकानं तैलं विपक्कं च तदर्थकारि ॥ (२४८३) तक्रारिष्टः (ग. नि. । आस.; च. सं. चि. अ. ९ ) हपुषा सुषवी धान्यमजाजी कारवी शठी । पिप्पलीपिप्पलीमूलं चित्रको गजपिप्पली ॥ यवानीचाजमोदा च तच्चर्ण तक्रसंयुतम् । मन्दाम्लकटुकं विद्वान् स्थापयेद्धृतभाजने ॥ व्यक्ताम्लकटुकं जातं तक्रारिप्रं मुखप्रियम् पाययेन्मात्रा कालेष्वन्नस्य तृषितं त्रिषु || दीपनो रोचनो बल्यः कफवातानुलोमनः । गुदश्वयथुकण्ड्वार्त्तिनाशनो बलवर्धनः ।। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दालचीनी, तेजपात, रास्ना, अगर, सहिजना, कूठ, बला, और सफेद आकको का लीजिए। इस कल्क और चार गुने पानीके साथ तैल पका लीजिए | अथ तकाराद्यरिष्टप्रकरणम् यह तैल अजीर्ण और विसूचिकाका नाश करता है । इति तकारादितैलप्रकरणम् । चूर्णको ८ गुने तक में मिलाकर वृतके चिकने बरतन में भरकर मुख बन्द करके रख दीजिए । ६-७ दिन या न्यूनाधिक समयमें वह तक अम्ल और कटु (चरपरा ) हो जायगा उस समय उसे छानकर बोतलों में भरकर रख दीजिए । यह अत्यन्त स्वादु, अग्निदीपन, रोचक, बलकारक, कफवातानुलोमक, तथा गुदाकी सृजन खुजली और पीड़ाशामक है । इसे दिन में ३ बार भोजनके समय प्यास लगने पर पिलाना चाहिए । ( मात्रा - ३ - ४ तोले 1) हाऊबेर, कालाज़ीरा, धनिया, सफेद जीरा, कलौंजी, कचूर, पीपल, पीपलामूल, चीता, गज ( २४८४) तकारिष्टः (भै. र. च. दु.। संप्र.;) यमान्यामलकं पथ्या मरिचं त्रिपलांशिकम् । पीपल, अजवायन और अजमोद के समान भाग | लवणानि पलांशानि पञ्च चैकत्र चूर्णयेत् ॥ For Private And Personal Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अरिष्टप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३८१ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv... ArvinvvvvAVvvvvvvvvvvvvvwwwww तक्रकं संयुतं जातं तक्रारिट पिबेत्ररः। पीणयति हन्ति गुदजान् सर्वश्च । दीपनं शोथगुल्मार्श कृमिमेहोदरापहम् ॥ कफोद्भवांस्तथा रोगान् । __ अजवायन, आमला, हर्र और मरिचका चूर्ण बलवर्णशुक्रजननो झुपयोगादश्मरी हन्यात् ।। १५-१५ तोले तथा सेंबालवण, सञ्चल (काला संवत्सरमुपयुक्तः स्थिरवयसं मानवं कुरुते ॥ नमक ), विड (खारी ) नमक, सामुद्रनमक और __ प्रथम मिट्टीके नवीन मटकेको जामनके नवीन उद्भिज लवण ५-५ तोले लेकर चूर्ण करके सब | पत्तों के क्वाथसे अच्छी तरह धोकर उसके भीतर को ८॥ सेर तक्रमें मिलाकर घृतसे चिकने किए | लाखका रंग पोत दीजिए, फिर उसे खांड और हुवे मिट्टीके पात्र में भरकर, उसका मुख बन्द करके अगरकी धूनी देकर जमीनमें गाढ़ दीजिए। आधा रख दीजिय। ५-६ दिन पश्चात् निकाल कर | मटका जमीन के भीतर और आधा ऊपर रहना छान लीजिए। चाहिए। ___इसे पीनेसे शोथ, गुल्म, अर्श, कृमि, प्रमेह __अब इस मटकेमें सात पल धायके फूल, और उदररोग नष्ट होते तथा अग्नि प्रदीप्त होती दस, दस पल सुपारी और खैरसार, १५०० पान है। (मात्रा-३-४ तोले ।) (पिसे हुवे), १०० पल शहद, १५० पल पानी (२४८५) ताम्बूलासवः (ग. नि.। आसवा.) तथा २-२ पल कंकोल और पीपलका चूर्ण एवं जतुसृतमादौ कृत्वा भाण्डकमर्धप्रवेशितं भूमौ। १-१ पल (५-५ तोले) त्रिफला, जायफल, तत्तरुणहरितजम्बूपत्रकाथेन संशुद्धम् ॥ इलायची, और लौंगका चूर्ण मिलाकर सबको तीन शुद्धे च शर्फराभिरगुरुं दद्यात्सुगन्धतरम् ।। दिन तक हाथसे विलोडन करते रहिए। जब सब वासाथै, घातक्या पलानि खलु सप्त देयानि॥ वस्तुएं एकरस हो जायं और उसमें शब्द होने पूगीफलानि खादिरं दशपलिकानि दापयेत्तत्र। लगे तो ३०० पल गुड़को १६ सेर पानीमें अग्नि ताम्बूलीपत्रशतैर्दशभिःक्षुण्णैश्च पञ्चभिश्चान्यैः।। पर गर्म करके अच्छी तरह घोलकर उस मटकेमें पलशतमेकं मधुन शतं च साधं तु वारिणो देयम् । ५५ डाल लीजिए और मुख बन्द करके रख दीजिए । कङ्कालककृष्णानां प्रत्येकं द्वे पले च स्युः॥ एक मास पश्चात् निकालकर छानकर बोतत्रिफलाजातिफलैलालवङ्गकुसुमानि चैकपलिकानि । लोंमें भर दीजिए। दत्वावलोड्यमेतत्त्रीणि दिनानि पाणिनापात्रे॥ इसका रंग, सुगन्ध और स्वाद अत्यन्त उत्तम सभवेघदा सशब्दस्ततो गुडशतपलानि त्रीणि। | होगा। देयानि प्रविलीनमग्नियोगात्तंतु जलद्रोणसंयुक्तम् इसके सेवनसे अर्श, समस्त कफरोग, और पक्षद्वयेन पेपो रसनालिमनोहरःसुरभिगन्धः। पथरी नष्ट होती तथा बलवर्ण और शुक्रकी वृद्धि ताम्बुलासव एष रसायनानां भवेदय्यः ॥ होती है। यह अत्युत्तम रसायन है। एक वर्ष For Private And Personal Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३८२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि पर्यन्त सेवन करते रहने से आयु स्थिर हो। इसके सेवनसे श्वास, खांसी, पाण्डु, हृद्रोग, जाती है। गुल्म, अर्श और सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। (मात्रा १ तोला । पानीमें डालकर पिएं।) (मात्रा-१ से २ तोलेतक। समान भाग (२४८६) त्रायमाणासवः (ग. नि. । आसव.) | पानीमें मिलाकर) त्रायन्ती कट्फलं दन्ती पौष्करं कण्टकारिका। (२४८७) त्रिफलारिष्टः दुरालभाञ्जनं सिंही पिप्पलीमूलमेव च ॥ (ग. नि. । आसवा.; च. सं.। चि. अ. १७) धात्री कृमिहरं भाी माचिका चैलवालुकम् । फलत्रयं चित्रकपिप्पली च पथ्याशठी विशाला च भागानष्टपलोन्मितान्॥ सदीप्यकं लोहरजो विडङ्गम् । चतुर्दोणेऽम्भसःपक्ता शृतं द्रोणावशेपितम् । चूर्णीकृतं कौडविकं द्विरंशं धातक्या विंशतिपलं माक्षिकस्य शतत्रयम् ।। क्षौद्रं पुराणस्य तुलां गुडस्य ।। श्यामा पलानि चत्वारि एलात्वपत्रकेसरम्। मासं निदध्याघृतभाजनस्थं भागानद्विपलिकानेषां चूर्ण कृत्वा विनिक्षिपेत् ।। यवेषु तानेव निहन्ति रोगान् ।। त्रायमाणासवो ह्येष कासश्वासामयप्रणुत् । त्रिफला, चीता, पीपल, अजवायन, लोह पाण्डुहृद्रोगगुल्मार्शःसन्निपातज्वरापहः॥ __ और बायबिडंगका चूर्ण २०-२० तोले, शहद त्रायमाणा, कायफल, दन्तीमूल, पोखरमूल, । ४० तोले, और पुराना गुड़ ६। सेर। सबको कटेली, धमासा, सुरमा, बड़ी कटैली, पीपलामूल, आमला. बायबिडङ. भारंगी. पाठा. एलवा. हर घृतसे चिकने मिट्टीके धड़ेमें भरकर मुख बन्द करके कचूर और इन्द्रायन ८-८ पल (४०-४० तोले) जौके ढेरमें दबा दें। और एक मास पश्चात् लेकर सबको ६४ सेर पानीमें पकाएं । जब १६ सेर निकालकर छान लें। पानी शेष रहे तो छानकर उसमें २० पल धायके इसके सेवनसे हृद्रोग, पाण्डु, सूजन, तिल्ली फूलोंका चूर्ण, ३०० पल शहद, ४ पल निसोत। भ्रम अरुचि, खांसी श्वास और कुष्टादि नष्ट होते हैं। का चूर्ण, तथा इलायची, दालचीनी, तेजपात और (नोट-इसमें १६ सेर पानी भी डालना नागकेसरका चूर्ण २-२ पल मिलाकर उसके मुखको बन्द करके रख दीजिए। एकमास पश्चात् चाहिए।) छानकर बोतलोंमें भर दीजिए। इति तकाराधरिष्टप्रकरणम् । अथ तकारादिलेपप्रकरणम् (२४८८) तण्डुलादिलेपः वृ. मा. । कुष्टा.) चावलोंको अधकुटा करके कन्चे नारियलके भीतर भर दीजिए और उसके मुंहको मोमादिसे नारिकेलोदरे न्यस्तस्तण्डुलःपूतितां गतः बन्द करके रख दीजिए । जब चावल सड़ जायं लेपाद्विपादिकां हन्ति चिरकालानुवन्धिनीम् ! तो उनको निकालकर पीस लीजिए। For Private And Personal Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३८३ ] इसे पैरोंके तलवोंमें लगानेसे विपादिका सूखे हुवे नागरबेलके पान, कूठ और हर्रका (विवाई) नष्ट होती हैं। चूर्ण समान भाग लेकर पानी में पीसकर लेप करने (२४८९) तमालपत्रादियोगः | से शरीरकी दुर्गन्धि नष्ट होती है। (च. सं. । चि. अ. ७ कु.) (२३९२) तालकादिप्रयोगः तमालपत्रं मरिचं समनःशिलां सकाशीशम। (शा, ध. सं. । ख. ३ अ. ११) तैलेन युक्तमुचितं सप्ताहं भाजने ताने ॥ ___ तालकं शाणयुग्मं स्थात् षट्शाणं शंखचूर्णकम् । तेनालिप्तं सिध्मं सप्ताहाद्वयेति तिष्ठतो घर्मे । द्विशाणिकं पलाशस्य क्षारं दत्वा प्रमर्दयेत् ॥ मासान्नरं किलासं स्नानं मुक्त्वा विशुद्धतनोः॥ कदलीदण्डतोयेन रविपत्रिरसेन वा । अस्थापि सप्तभिलेपैलॊन्नां शातनमुत्तमम् ॥ तेजपात, काली मिर्च, मनसिल और कसीस ___हरताल २ शाण, शंखका चूर्ण ६ शाण समान भाग लेकर तैलमें घोटकर ताम्रपात्रमें भर और ढाकका क्षार २ शाण लेकर सबको केलेके कर रख दीजिए । सात दिन पश्चात् इसका लेप खम्भेके रसमें या हुलहुलके रसमें घोटकर सात करके थोड़ी देर तक नित्य प्रति धूपमें बैठनेसे बार लेप करनेसे बाल गिर जाते हैं। सात दिनमें सिध्म और १ मासमें किलास कुष्ट (२४९३) तालकादिलेपः (वृ. नि. र. त्वग्दो.) नष्ट हो जाता है। इस प्रयोगके दिनों में स्नान | तालकाद्विगुणं गन्धं बाकुचीगोजलमर्दितम् । नहीं करना चाहिये। सिध्मंप्रलेपनादाशु हन्ति मासप्रयोगतः ॥ (२४९०) तर्कारिकादिलेपः (ग. नि. ।वृद्धच.) १ भाग हरताल और २ भाग गन्धक तथा तर्कारिकासैन्धवदेवदारु २ भाग बाबचीके चूर्णको एकत्र मिलाकर गोमूत्र कुष्टानि शुण्ठी सह चित्रकेण । में पीसकर नित्य प्रति १ मास तक लेप करनेसे रास्नाऽऽटरूषोऽथ तथा शताहा सिध्म (सीप-जिसमें शरीरसे भूसीसी उतरकर प्रलेपनं स्यादृषणप्रवृद्धौ ॥ सफेद रंग निकल आता है और जो प्रायः छाती अरनी, सेंधालवण, देवद्वार, कूठ, सोंठ, पर होता है. वह ) कुष्ठ नष्ट हो जाता है । चीता, रास्ना, बासा और सोया समान भाग लेकर (२४९४) तालकादिलेपः पानीमें पीसकर लेप करनेसे अण्डवृद्धि नष्ट होती (बृ. नि. र. । त्वग्दोष. शा. ध. । खं. ३ अ. ११) है । (लेप तनिक गर्म करके करना चाहिये।) तालकःशाणमात्र स्थाच्चतुःशाणा च बाकुची। (२४९१) ताम्बूलचूर्णादिलेपः गोमूत्रयुक्तं तनूर्ण लेपनाच्छित्रनाशनम् ॥ ( शा. ध. सं. । खं. ३. अ. ११) हरताल ( पीली वर्की हरताल ) १ शाण, ताम्बूलपत्रचूर्ण तु चूर्ण कुष्ठशिवाभवम् । बाब ची ४ शाण । दोनों के चूर्णको गोमूत्रमें पीसवारिणा लेपनं कुर्याद्गात्रदोर्गन्ध्यनाशनम् ॥ कर लेप करनेसे श्वित्र (सफेद कोढ़) नष्ट होता है। For Private And Personal Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [३८४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि (२४९५) तालमूलादियोगः (वै.म.र.पट ११) (नीला थोथा ) समान भाग लेकर प्रथम पार तुषाम्भसा तालशिकां सशुण्ठी गन्धककी कजली बना लीजिए और फिर उसमें नाभौ कवोष्णं प्रदिहेत् कृमिनाम् । मोमके अतिरिक्त अन्य समस्त ओषधियों का महीन ___ ताल वृक्षकी जड़ और सोंठके समान भाग चूर्ण मिला लीजिए, फिर सबसे दो गुना घी चूर्ण को काजीमें पीसकर ज़रा गर्म करके नाभिपर लेकर पहिले उसमें मोमको पिघलाकर मिलाइये लेप करनेसे पेटके कृमि नष्ट होते हैं। और फिर उपरोक्त सब चीजें मिलाकर तांबेके (२४९६) तालमूलादिलेपः (वै. म. । पट.६) पात्रमें तबिकी मूसलीसे १ पहर तक अच्छी तरह तण्डुलोदकपिष्टेन तालमूलेन लेपनम् । धोटिये। नाभौ प्रकल्पितं सद्यो जयत्येव विचिकाम् ॥ इसका लेप करनेसे पीप और कृमियुक्त धाव, ताल वृक्षकी जड़को चावलोंके पानीके साथ पिडिका (फुसियां), सर्व प्रकारके आतशकके धाव, पोसकर नाभिपर लेप करनेसे विचिका (हैज़ा) नासूर, कुष्टके धाव, भगन्दर और अन्य समस्त अवश्य ही नष्ट हो जाती है। प्रकारके धाव नष्ट हो जाते हैं। (२४९७) तालादिलेपनम् (वृ.यो.त.।त.१२०) (२४९८) तिक्तापटोलीपत्रप्रयोगः तालं मूतवली शिला च तुवरी सिक्थं वचा वृ. नि. र.; वं. से. । क्षुद.; शा. सं.। खं. ३ धूम्रकम् । अ. ११; भा. प्र. । खं. २ इ द्रलु०) मुडदारं सुरशङ्खजीररसकं गैरीकसिन्दरकम् ॥ तिक्तापटोलीपत्रस्वरसं घष्ट्वा शमं याति । पूर्गमाहिषशृङ्गक द्विरजनी निम्ब वरा माक्षिकम्। चिरकालजापि रुह्या नियतं दिनत्रयादेव ।। भष्टं तुत्थमिदं समांशमखिलं चूर्णाद्विभागं कडवे पटोलपत्रके स्वरसको शिर पर मलने वृतम् ।। । से पराना इन्द्रलप्त (गंज) रोग भी ३ दिनमें ही पात्रे ताम्रमये निधाय सकलं ताम्रण संघर्षयेत्। अवश्य नष्ट हो जाता है। यामैकं हरिताललेपनमिदं सर्वान्त्रणान् नाशयेत्।।। (२४९९) तिलपर्णीवीजलेपः (यो.समु.अ.८) पूयं स्रावयुतं कृमींश्च पिटकां सर्वोपदंशत्रणा वीजानि पिष्ट्वा तिलपणिहाया माडीकुष्ठभगन्दरान्मुनिदिनात्सर्वान्गदा नाशयेत् ।। ___ जलेन लेपो विहितो ललाटे । हरताल, पारा, गन्धक, मनसिल, फटकी, शीर्षव्यथां संशमयत्यवश्य मोम, बच, घरका धुंवा, सुरदा सिंध (मुर्दारशंख) ! र्शतं यथा वहिरतिपदम् ।। जीरा, खपरिया, गेरु, सिन्दूर, पुरानी सुपारी, ___ बन तुलसी के बीजों (तुमरीहां) को पानीमें भैसका सींग, हल्दी, दारुहन्दी, नीमकी छाल, पीसकर मस्तक पर लेप करनेसे शिरपोड़ा अवश्य त्रिफला, स्वर्णमाक्षिक भस्म, और भुना हुवा तुत्थ | शान्त हो जाती है । For Private And Personal Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लेपप्रकरणम् ] [ ३८५ ] (२५००) तिलपुष्पादिलेप: ( वृं. मा. (क्षुद्ररोग.) आदाय तिलपुष्पाणि सर्पिरश्वखुरं तथा । मधुना सह संयुक्तं शिरो लेपं तु कारयेत् ॥ तैलेनानेन जायन्ते केशाः हस्ततलेष्वपि ॥ नोट- यदि लेप गाढ़ा हो तो दूध मिलाकर लगाने योग्य पतला कर लेना चाहिये । यदि अधिक पतला हो तो मुलैठी और चन्दनका चूर्ण मिलाकर गाढ़ा कर लेना चाहिये या दूध और तैल पहिले से ही थोड़ा मिलाना चाहिये । (२५०३) तिलादिलेपः | तिलपुष्प, घोड़ेके खुरका कोयला, घी और शहद समान भाग लेकर घोटकर शिरपर लेप करने से गंज नष्ट होता है । इस प्रयोगसे हथेली में भी बाल उग आते हैं । ( वृ. नि. र.; यो. र. | भगन्दर . ) तिलतृभागदन्तीमञ्जिष्ठायैः ससैन्धवैः । । सक्षौद्रैश्च प्रलेपोयं भगन्दरकुलान्तकृत् ॥ तिल, निसोत, नागदन्ती, मञ्जिष्ठादि गण और सेंधा नमक के समान भाग चूर्णको शहद में मिलाकर लेप करनेसे भगन्दर नष्ट होता है । (२१०४) तिलादिलेप: ( वृं. मा .; वं. से. व्रणरो.) सदाहा वेदनावन्तो ये व्रणाः मारुतोत्तराः । तेषां तिलानुमांश्चैव भृष्टान् पयसि निर्वृतान् ॥ तेनैव पयसा पिष्ट्वा दद्यादालेपनं मिषक् ॥ निशे वचा रोधमगारधूमः । भगन्दरे नाड्युपदेशयोश्च द्वितीयो भागः । (२५०१) तिलादिकल्क: ( यो. र.; . नि. र.; ग. नि. | भगन्द०: वृं. मा. । उपदेश ) तिलाभयाकुष्ठमरिष्टपत्र दुष्टवणे शोधनरोपणोऽयम् ॥ तिल, हर्र, कूठ, नीमके पत्ते, हल्दी, दारु हल्दो, बच, लोध और घरका धुंवां | सबका समान भाग महीन चूर्ण लेकर ( घीमें मिलाकर ) लेप करनेसे भगन्दर, नासूर और उपदंश (आतशक) के दुष्ट व्रण शुद्ध होकर भर जाते हैं । (२५०२) तिलादिलेप: ( वृं. मा. । व्रणशोथा.) तिलाः पयःसिता क्षौद्रं तैलं मधुकचन्दनम् । लेपेन शोथरुग्दाहरक्तं निर्वापयेद् व्रणान् ॥ महीन पिसे हुवे तिल, दूध, मिश्री, शहद तिलका तेल तथा मुलैठी और लालचन्दनका चूर्ण | समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर लेप करनेसे व्रण (घाव ) की सूजन, पीड़ा, दाह और रक्तस्राव का नाश होता है । १ पयः पिष्टैस्तिलैराज्यमधुकैश्चेति पाठान्तरम् ॥ भा० ४९ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दाह और वेदनायुक्त वातज व्रणों (घावों) में तिल और अलसीको भूनकर ( तुरन्त गर्म गर्म ही) दूधमें बुझाकर उसी दूधके साथ पीसकर लेप करना चाहिये । (२५०५) तिलादिलेपः ( वं. से.; ग. नि. । भगन्दर . ) पयः पिष्टैस्तिलैरण्डमधुकैश्च सुशीतलैः । भगन्दरे प्रलेपोऽयं सरक्ते वेदनावति ।। रक्त और वेदनायुक्त भगन्दर पर अरण्डकी जड़, तिल और मुलैठीको कच्चे दूध में पीसकर ठण्डा ठण्डा लेप करना चाहिये । For Private And Personal Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३८६ ] (२५०६) तिलाष्टकम् (वृ. मा.; यो. र.; च. द.; भै. र; र. र.; भा प्र. । खं. २ । ब्रण.; शा. ध । खं. ३ अ. व्रणशोथा . ) + तिलकल्कः सलवणो द्वे हरिद्रे त्रिवृद्धतम् । मधुकं निम्बपत्राणि लेपःस्याद् व्रणशोधनः ॥ पिसे हुवे तिल, सेंधानमक, हल्दी, दारु हल्दी, निसोत, मुलैठी और नीमके पत्तों का समान भाग चूर्ण लेकर धीमें मिलाकर लेप करनेसे धाव शुद्ध हो जाते हैं। भारत - भैषज्य रत्नाकरः । (२५०७) तुगाक्षीर्यादिलेपः ( शा. सं. । खं. ३ अ. ११ ) अदिग्वे तुगाक्षीरी लक्षचन्दनगैरिकैः । सामृतैः सर्पिषा स्निग्धैरालेपं कारयेद्भिषक् ।। असे जले हुवे स्थानपर बंसलोचन, पीपल की छाल, लालचन्दन और गेरुके महीन चूर्णको दूध में पीसकर घी में मिलाकर लेप करना चाहिये । (२५०८) तुत्थादिमलहरम् (नपुं । त. ८) तुत्थं सिक्थं च काम्पिल्लं सिन्दूरं मृतमश्मकम् । पूगीफलं च खर्जूरं भर्जितं शाणमात्रकम् ॥ कर्पूरं च वेदगुञ्जा सर्व सम्मेलयेद् बुधः । एकोत्तरशतं धौते नवनीते विवेलयेत् ॥ उपदंश फिरङ्गन्नं लेपनं परमोत्तमम् । अनुभूतश्च योगोऽयं योगेषु प्रवरो मतः ॥ नीला थोथा (तुत्थ), मोम, कमीला, सिन्दूर, मुरदा सिंग, सुपारी और छुहारेका कोयला ४-४ माशे तथा रस कपूर ४ रत्ती लेकर मोमके अति तकारादि रिक्त समस्त ओषधियोंका महीन चूर्ण कर लीजिए; फिर मोमको पिघलाकर १०१ वार धुले हुवे नवनीत (नौनी) धीमें मिलाकर उसमें अन्य समस्त ओषधियों का चूर्ण मिलाकर घोट लीजिए । इस मल्हम से उपदंश और फिरङ्ग रोगके घाव नष्ट होते हैं । यह प्रयोग अत्युत्तम और अनुभूत है । (नोट-धी सब ओषधियोंके बराबर लेना चाहिये ।) (२५०९) तुत्थादिलेप: ( वा. भ. । उत्त. अ. ३४.; र. र. । उप. ) तुत्थगैरिकलोधैलामनोद्दालरसाञ्जनैः । हरेणुपुष्पकासीसस राष्ट्रीलवणोत्तमैः ॥ लेपः क्षौद्रयुतैः सूक्ष्मैरुपदंशत्रणापहः ॥ * Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तु (नीला थोथा ), गेरु, लोध, इलायची, मनसिल, हरताल, रसौत, रेणुका, पुष्प कासीस ( फूलकसीस ), सौराष्ट्री और सेंधानमक समान भाग लेकर अत्यन्त महीन पीसकर शहद में मिलाकर लेप करनेसे उपदंश (आतशक ) के घाव नष्ट हो जाते हैं । (२५१०) तुम्बर्वाद्युद्धर्त्तनम् (ग.नि. | कु.) तुम्बरु सर्पपाः कुष्टमश्वगन्धाऽथ चित्रकः । पटोलपि मन्दौ च देवदारुः कुठेरकः ॥ सुरसा सैन्धवं रास्ना चोरकः सारिवा वचा । हरितालं शिला चैव हरिद्रे द्वे निदिग्धिका ॥ एतानि क्रपिटानि कुष्ठेषूद्वर्तनं परम् । पामाकिटिमसिध्मानि स्थूलारुष्यं विचर्चिका ।। + भा. प्र यो. र. शा. व में इलोक भिन्न है, प्रयोग यही है ॥ * रस रत्नाकरमें पाठ भिन्न हैं और गेरू तथा लोधके स्थान में सुहागा और सिन्दूर लिखा है शेष प्रयोग समान है ॥ For Private And Personal Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [३८७] कपालकुष्ठं दद्वं च तथा स्थाद्विषमं च यत् । इसे लगानेसे मसूढोंके घाव नष्ट होते है । योगेनानेन शाम्यन्ति कुष्ठानि विविधानि च। (२५१३) पुसीबीजादिलेपः (वृ.नि.र.।मूत्रा.) कुस्तुम्बरु ( नैपाली धनिया ), सरसों, कूठ, त्रपुसीवीजलेपो वा धारा वा किंशुकाम्भसः। असगन्ध, चीता, पटोल, नीमकी छाल, देवदारु, ज्वलच्छिद्रे चेन्दुदान लेपो वा चटकाविशः॥ कुठेरक (छोटे पत्तेकी सफेद तुलसी या काली मेघनादशिलालेपःस्वेदो वा कर्कटाऽम्भसा । तुलसी), तुलसी, सेंधा, रास्ना, चोरक, सारिवा, पातो वा कोष्णतैलस्य धारा वा कोष्णवारिणा।। बच, हरताल, मनसिल, हल्दी, दारु हल्दी और नवैते पादिकायोगा मूत्रकृच्छ्रहरा मताः कटैली। सब चीजें समान भाग लेकर तक्रमें | निन्नलिखित ९ प्रयोग मूत्र कृच्छ्रका नाश पीसकर लेप करनेसे कुष्ट, पामा (खुजली), किटिभ, करते हैंसिध्म (सीप), भिलावेकी सूजन, विचर्चिका, कपाल (१) खीरके बीजोंको पीसकर पेडू पर लेप कुष्ठ, और दाद इत्यादि नष्ट होते हैं। करना। (२५११) तुम्बीपत्रादियोगः । (२) किंशुक (केसु-ढाकके फूल) के काढ़े ( यो.र. ।स्त्री.; यो.स. । ल. ५७; वं. से. । स्त्री.) की नाभिसे नीचे पेडूपर धार छोड़ना । नीता (३) दाह होती हो तो मूत्रेन्द्रोके छिद्रमें दद्यालपो भगस्यायं प्रसूताप्यक्षता भवेत् ॥ म तनिकसा कपुरका चूर्ण पहुंचाना । तंबीके पत्तों और लोधको पीसकर लेप करने । (४) चिड़ियाकी बीटको पानीमें पीसकर से प्रसूता स्त्रीकी योनि भी अक्षता स्त्रीके समान पेडूपर लेप करना । हो जाती है। (५) चौलाईकी जड़को पानीमं पीसकर (२५१२) तैलादिलेपः (वृ. नि. र । मुख.) लेप करना। (६) मनसिलको पानीमें पीसकर पेडूपर लेप तैलं घृतं सर्जरसं ससिक्थं करना। रास्ना गुडं सैन्धवगैरिकं च । (७) काकड़ा सिंगीके काढ़ेकी भाप देना। पक्त्वा समांशं दशनच्छदानां (८-९) मन्दोष्ण तैल या मन्दोष्ण (कुछ त्वग्मेदहन्त व्रणरोपणश्च ।।। - गरम) पानीकी पेड़ पर धार डालना। तेल, घी, रालका 'चूर्ण, मोम, रास्ना, सेंधा : और गेरुका चूर्ण तथा गुड़ समान भाग लेकर । (२५१४) त्रिफलादिप्रयोगः एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाएं जब सब चीजें । (वै. म. र. । पट. ११) मिलकर एकजीव हो जाय तो डब्बे या कांचादिकी त्रिफलां किश्चिदृष्ट्वा तैलेनालेपयेबहुशः। प्यालीमें भरकर सुरक्षित राखें । | पादे विपादिकाया पादं पद्मोपमं कुरुते ॥ For Private And Personal Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि त्रिफलेको ज़रा तैलमें भूनकर पीसकर (तैलमें । अयस्कान्त (चुम्बक )के पात्रमें रातको मिलाकर) विपादिका (पैरोंकी बिवाई) में बारबार भांगरेके रसमें पिसे हुए त्रिफलेका लेप कर लेप करनेसे बिवाई नष्ट होकर पैर कमलके समान दीजिए । प्रातःकाल उसे छुड़ाकर भंगरेके रसमें कोमल हो जाते हैं। मिलाकर लेप करनेसे २१ दिनमें बाल काले हो (२५१५) त्रिफलादियोगः (र. र. र.।उप. ५) जाते हैं और ५ मास तक सफेद नहीं होते । त्रिफलालोहचूर्ण तु कृष्णमृद्भङ्गजद्रवम । (२५१७) त्रिफलादिलेपः इक्षुदण्डद्रवं चैव मासं भाण्डे निरोधयेत् ॥ (वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र.; ग. नि.; वं. तल्लेपाञ्जयेत्केशान् स्याद्यावन्मासपञ्चकम् ॥ मा. । विसर्प; शा. ध. । खं. ३ अ. ११) त्रिफला, लोहेका चूर्ण, काली मिट्टी, भांगरे । त्रिफलापनकोशीरसमड़ाकरवीरकम् । का रस और ईखका रस मिट्टीके बरतनमें भरकर | नलमूलमनन्ता च लेपः श्लेष्मविसर्पहा ॥ उसके मुखपर शराव ढककर तथा उस पर कपरौटी त्रिफला, पनाख, खस, मजीठ, करवीर करके उसे भूमिमें गाढ़ दीजिए । इसे एक मास (कनेर ), नलकी जड़ और अनन्तमूलका समान पश्चात् निकालकर बालोंपर लेप करनेसे बाल काले भाग चूर्ण लेकर पानीमें पीसकर लेप करनेसे कफज हो जाते हैं और फिर ५ मास तक सफेद नहीं विसर्प नष्ट होता है । होते। (२५१८) त्रिफलादिलेपः (वृ.नि.र.।त्वग्दोष.) ___ नोट-भूमिसे औषधको निकालकर अच्छी : त्रिफला नीलिकापत्रं लोहचूर्ण रसाञ्जनम् । तरह घोटकर छान लेना चाहिये । रातको बालों श्वेतगुञ्जां दन्तिदन्तभस्म तुल्यं च मार्कवम् ।। पर लगाकर अरण्डके पत्ते बांध देने चाहिये, मेषीदग्धेन सम्पिष्य स्थापयेल्लोहभाजने। . और प्रातःकाल त्रिफलेके काढ़ेसे धोकर तेल लगा दिनमेकं ततो लिम्पेन्मुहाचित्रेष्वनक्रमात ॥ देना चाहिये । जब तक बाल अच्छी तरह काले श्चित्राण्यनेन लेपेन निजवर्ण त्यजन्ति वै॥ न हो जायं तब तक रोज़ इसी प्रकार लेप : त्रिफला, नीलके पत्ते, लोहका चूर्ण, रसौत, करते रहें। सफेद चौंटली, हाथीदांतकी भस्म और भंगरा भांगरेका रस और ईखका रस समस्त ओष समान भाग लेकर सबको भेड़के दूधमें अच्छी धियोंसे २-२ गुना लेना चाहिये। तरह घोटकर १ दिन लोहपात्रमें रक्खा रहने (२५१६) त्रिफलादियोगः (र.र.र.।उप.५) दीजिए, फिर चौड़े मुंहकी शीशी या बरनी आदिमें अयस्कान्तमये पात्रे रात्रौ लेप्यं फलत्रयम्। भरकर रख दीजिए। भृङ्गराजद्रवैःसार्ध प्रातः केशान् प्रलेपयेत् ॥ श्वेत कुष्ठ पर बारबार इसका लेप करनेसे एवं कुर्यात्रिसप्ताहं जायते पूर्ववस्फलम् ॥ वह नष्ट हो जाता है। For Private And Personal Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३८९ ] (२५१९) त्रिफलादिलेपः (वं. सेन. ।क्षुद्र.) | संपेषितं सुखोष्णं प्रलेपनं वृषणदौ स्यात् ।। धात्रीफलं द्वयं पथ्ये द्वे तथैकं विभीतकम् । त्रिफला, सोया, जौ, तिल और पुनर्नवाकी लोहचूर्णस्य कर्षन्तु दशार्द्ध चूतमज्जतः॥ जड़को काञ्जीमें पीसकर मन्दोष्ण ( कुछ गरम ) पिष्टा लोहमये पात्र स्थापयेदुषितं निशि। करके लेप करनेसे अण्डवृद्धि नष्ट होती है। लेपोऽयं हन्ति न चिरादकालपलितं महत् ॥ (२५२२) त्रिफलामषीलेपः (वृ.नि.र.।अग्निद.) ___ दो आमले, २ हर्र, १ बहेड़ा, १ कर्ष (१। अन्तमविदग्धं त्रिफलाचर्ण विमिश्रितं तैलैः। तोला) लोहेका चूर्ण और ५ आमकी गुठलीके । क्षौमैः शीघ्रं शमयत्यमित्रणमाशु लेपेन ॥ भीतरकी गिरी। सबको महीन पीसकर रातको लोहपात्रमें डालकर रख दीजिए । दूसरे दिन इसका _ त्रिफला और रेशमी कपड़ेको हाण्डीके भीतर लेप लगानेसे सफेद बाल ( जो वृद्धावस्थासे पहिले ! बन्द करके भस्म करें । इसे तिलके तेल में मिलाकर सफेद हो गये हों वह ) काले हो जाते हैं। लेप करनेसे अग्निदग्धव्रण (आगसे जलनेसे होने वाला घाव ) अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । (प्रयोगविधि नं. २५१५ के समान है।) ( नोट-तैल इतना मिलाना चाहिये कि (२५२०) त्रिफलादिलेपः (बृ.मा.वृ.नि.र.; क्षुद्र जिससे मल्हम सा बन जाय ।) त्रिफलानीलिनीपत्रं लोहभृङ्गरजःसमम् । । अविमूत्रेण संयुक्तं कृष्णीकरणमुत्तमम् ॥ (२५२३) त्रिफलामषीलेपः ___ त्रिफला, नीलके पत्ते, लोहेका चूर्ण और भोर (वृ.नि. र.; वृं. मा. । उपदंश.; शा. ध.खं. ३ अ. ११) .... पण.. भंगरेका चूर्ण समान भाग लेकर भेड़के मूत्रमें दहेत् कटाहे त्रिफलां तां मषीं मधुसंयुताम् । पीसकर लेप लगानेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं। कृत्वोपदंशे लेपोऽयं सद्यो रोपयति व्रणम् ॥ (प्रयोगविधि नं. २५१५ के समान है। त्रिफलाको कढ़ाहीमें जलाकर पीसकर शहद में (२५२१) त्रिफलादिलेपः (ग.नि.|वृद्ध्य.) । मिलाकर लेप करनेसे उपदंश (आतशक )के घाव त्रिफलाशतपुष्परजं काञ्जिक नष्ट होते हैं। यवतिलपुनर्नवामूलम् । इति तकारादिलेपमकरणम् ॥ For Private And Personal Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ३९० ] www.kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः अथ तकारादिधूपप्रकरणम् (२५२४) तण्डुलकण्डन धूपः ( वै. म. र. । पट. १८ ) तण्डुलकण्डनलुलितैर्लशुनव॒रासर्षपैः कृतो धूपः । कन्दर्पराजधान्यास्तोदं द्रागेव जयति रमणीनाम् ।। चावल, ल्हसन, त्रिफला और सरसों को एकत्र मिलाकर धूप देनेसे योनिका तोद ( सुइ चुभनेके समान दर्द ) नष्ट होता है । इसे पानीके साथ पत्थर पर घिसकर आंख में लगाने से तन्द्रा नष्ट होती है । (२५२७) तमालपत्रादिवत्ती ( वा. भ. । उत्त. अ. १९; ग. नि. । नेत्र. ) तमालपत्रं गोदन्तं शङ्ख फेनोऽस्थिगार्दभम् । ताम्रञ्च वस्तमूत्रेण वर्त्तिः शुक्रविनाशिनी ॥ तेजपात, गायका दांत, शङ्ख, समुद्रफेन, गधेकी हड्डी और ताम्र । सब चीजें समान भाग Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ तकारादि (२५२५) तालनिम्बादियोगः (वं. से. । विष.) तालनिम्बदलं केशा जीर्णाश्च लवणं घृतम् । धूपो दृश्चिकविद्धस्य शिखिपत्रं घृतेन वा ।। हरताल, नीमके पत्ते, बाल और सेंधा नमकको अथवा केवल चिरचिटेके पत्तोंको घीमें मिलाकर धूप देनेसे विच्छूका विष उतर जाता है ! इति तकारादिधूपप्रकरणम् ॥ अथ तकाराद्यञ्जनप्रकरणम् (२५२६) तन्द्राहरीवर्तिः (हा.सं./स्था. ३ अ. २) | लेकर बकरे के मूत्रमें पीसकर बत्तियां बना लीजिए । त्रिकटु च करञ्जवीजं त्रिफला सुरदारु सैन्धवं सुरसा । वर्त्तिनयनाञ्जनकं तन्द्रा इसे पानी के साथ पत्थर पर घिसकर आंखमें आज से समस्त प्रकारके फूले नष्ट होते हैं । (२५२८) ताप्याद्यञ्जनचतुष्टयम् ( वृं. मा. नेत्र) ताप्यं मधुकसारो वा वीजं चाक्षस्य सैन्धवम् । मधुनाऽञ्जनयोगाःस्युश्चत्वारः शुक्रशान्तये । नाशं करोति नयनानाम् ॥ त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), करञ्जबीज, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, सेंधा नमक और तुलसी । समान भाग लेकर पानीके साथ अत्यन्त महीन पीसकर बत्तियां बना लीजिए । सोनामक्खी, महुवेका सार, बहेड़े की मांगी ( बीज ) और सैन्धवमेंसे किसी एकको शहद में घिसकर आंखमें आंजनेसे फूला नष्ट होता है । (२५२९) ताम्बूलादियोगः (ग.नि. | नेत्र. ) ताम्बूलशिग्रुकरवीरशिरीपदन्ती श्यामादधित्थसुरसा सुमनार्जकानाम् । प्रत्येकशो मधुयुतः स्वरसोऽञ्जनेन कोपं नवं नयनयोः सहसैव हन्ति ॥ For Private And Personal पान, सहजना, कनेर, सिरस, दन्ती, श्यामालता, कैथ, तुलसी, चमेली और छोटी तुलसीमेंसे किसी एक के रस में शहद मिलाकर आंख में आंजनेसे Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ३९१ ) नवीन नेत्राभिष्यन्द ( आंख दुखना ) नष्ट घोटकर गोला बनाइये, तत्पश्चात् उसे सम्पुटमें होता है। बन्द करके गजपुटमें फूंक दीजिए । जब पुट ( रस ४ भाग, शहद १ भाग) : स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषध निकाल (२५३०) ताम्रातिः ( अञ्जनम् ) कर उसमें ५ माशे गन्धक मिलाकर घोटिए और (र. र. स. । उ. ख. अ. २३ ) फिर उसे तांबेकी कढाइमें डालकर आगपर चढ़ा शुल्वं गन्धकमभ्रकं च दीजिए; जब गन्धक जल जाय (धुंवां निकलना रसकं दिक्संख्यनिष्कं पृथक् । बन्द हो जाय ) तो फिर ६ माशे गन्धक डाल सर्व रुद्रजटारसेन बहुशो दीजिए और साफ करछी आदिसे चलाते रहिए । भृगस्य सारेण वा ॥ इसी प्रकार १०० बार ५-५ माशे गन्धक डाल मायःश्लक्ष्णतरं सुमर्दित कर जलाइये और अन्तिम बार जब वह ठण्डा हो मिदं सम्यक् पुटं कारयेत् । जाय तब उसमें १ सेर पानी डालकर अच्छी तरह स्थाल्यां तत्पुनरेव शीतल विलोडन कीजिए और फिर पानीको नितरने मिदं विन्यस्य तस्यान्तरे ॥ दीजिए । जब पानी नितर जाय तो उसे धीरे निष्कं निष्कमनन्तरं परि धीरे उतार लीजिये और उस पानीमें १। तोला पचेज्जीर्ण तथा गन्धकम् । | नीला थोथा और १। तोला सुरमा मिलाकर कांसीके । पात्रमें धूपमें सुखाकर सुरक्षित रखिए । स्यादेवं शतनिष्कमात्र । इसे आंखमें आंजनेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट मसकृतद्भस्म शीतं ततः ॥ होते हैं। प्रस्थेनोन्मितवारिणा (२५३१) ताम्रद्रुतिः ( अञ्जनम् ) विलुलितं कल्कं विना गालितम् । (र. र. स. । उ. । ख. अ. २३ ) संगृयाम्बुतदन्तरे शिखि आलकुचभृङ्गाणां रसपिष्टेन कस्यचित् । निभं तुत्थं सुचूर्णीकृतम् ॥ गन्धकेन समांशेन प्राग्वत्तानं च मारितम् ॥ कर्षांशांशितमञ्जनं विनि ताम्राभ्रकं च तुत्थं च दशनिष्कं पृथक् पृथक् । हितं कांस्ये परं शोपयेत् । | कन्दुकस्थमिदं त्रिंशत्कर्ष चूर्णितं गन्धकम् ।। तां ताम्रगुतिमामनन्ति दत्त्वाल्पशोऽमिनाल्पेन रुध्वाधूमं विसर्जयेत्। निखिलान्नेत्रामयान्नाशयेत् ॥ प्रस्थाम्बुमर्दितस्पास्य प्रासादं निःसृतं युतम् ।। ताम्रभस्म, गन्धक, अभ्रकभस्म और खपरिया तुत्थनोरशिलाजाभ्यां कर्मशाभ्यां विशोषयेत् । १०-१० निष्क ( प्रत्येक ४ तो. २ माशे ) ताम्रतिरिय साज्यमानुषीक्षीरमाक्षिकात् ॥ लेकर सबको रुद्रजटा अथवा भंगरेके रसकी २१ काचार्मपिल्लाभिष्यन्दव्रणशुक्रपणाशिनी । अथवा ततोऽधिक भावनाएं देकर और खूब । तत्किटं दद्रुकिटिभं लेपात्पामादिकं जयेत् ।। For Private And Personal Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि __गन्धकको अद्रक, लकुच ( कटहल ) और (२५३२) तालकादिप्रयोगः (वा.भ.।उ.अ.१३) भंगरे से किसी एकके रसमें घोटकर समान भाग आलश्च सौवीरकमञ्जनश्च तांबेके बारीक पत्रों पर लेप कर दीजिए और ताभ्यां समं ताम्ररजश्च सूक्ष्मम् । फिर उन्हें सम्पुट में बन्द करके गजपुटकी अग्नि पिल्लेषु रोमाणि निषेवितोऽसौ दीजिए । इसी प्रकार बारबार पुट देकर ताम्र भस्म चूर्ण करोत्येकशलाकयाभिः॥ तैयार कर लीजिए। हरताल और सौवीराजन १-१ भाग तथा ताम्र चूर्ण २ भाग लेकर सबको एकत्र खरल यह ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म और तुत्थ (नीला करके अत्यन्त महीन सुरमा बना लीजिए। थोथा) १०-१० निष्क ( ४ तो० २ माशे) इसे आंखमें लगानेसे पिल्ल रोग नष्ट होता लेकर सबको अच्छी तरह घोटकर मिट्टी या ताम्र और पलकोंके गिरे हुवे बाल पुनः निकल आते हैं। अथवा लोहेके पात्रमें डालकर मन्दाग्निपर रखिए और उसके ऊपर दूसरा ऐसा पात्र ढक दीजिए (२५३३) तालकाद्यञ्जनम् (वं.से. नेत्ररोगा.) कि जिसमें धूम्र निकलनेके लिए कुछ छिद्र हो । आलदारुवचापिष्टवा सुरसापत्रवारिणा । छायाशुष्ककृता वर्तिःक्लिन्नवर्त्मनिवारिणी॥ अब नीचे वाले पात्रमें थोड़ा थोड़ा गन्धक डालकर जलाना आरम्भ कीजिए । जब एक बारके डाले ____ हरताल, देवदारु और बच । सबको तुलसीके हुवे गन्धकका धूम्र निकल जाय तो पुनः डालना पत्तोंके रसमें घोटकर गोलियां बनाकर छाया चाहिये । इसी प्रकार जब ३० कर्ष (३७॥ तोले) सुखा लीजिए। गन्धक जल जाय तो पात्रके स्वांग शीतल होने एक गोलीको पानीमें घिसकर आंखमें आंजनेपर उसे नीचे उतार कर उसमें १ सेर पानी डाल- से क्लिन्नवर्त्म रोग नष्ट होता है। कर अच्छी तरह विलोडन कीजिए और फिर (२५३४) तिमिरनाशिनीवर्तिः(धन्वं.। चक्षु.) निथरनेके लिए रख दीजिए। जब पानी निथर कतकस्य फलं शङ्ख सैन्धवं व्युषणं वचा । जाय तो उसे धीरे धीरे नितारकर उसमें नीला फेनो रसाञ्जनं क्षौद्रं विडङ्गानि मनःशिला ॥ थोथा और सफेद सुरमेका चूर्ण १। १। तोला एषां वतिर्हन्ति काचं तिमिरं पटलन्तथा ॥ मिलाकर घोटिए और धूपमें सुखा लीजिए। ___निर्मलीके फल, शंख भस्म, सेंधा नमक, इसे घी, स्त्रीके दूध अथवा शहदमें मिलाकर त्रिकुटा, बच, समुद्रफेन, रसौत, बायबिडंग और आंखमें आंजनेसे काच ( मोतिया ), अर्म, पिल्ल, मनसिलके महीन चूर्णको शहदमें घोटकर बत्तियां अभिष्यन्द, अण और फूला नष्ट होता है । पात्रके बना लीजिए । नीचे जो गाद रह जाती है उसका लेप करनेसे यह वर्ति काच, तिमिर और पटल नामक दाद, किटिभ और पामादि नष्ट होते हैं। नेत्ररोगोंको नष्ट करती हैं। For Private And Personal Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अञ्जनप्रकरणम् ] (२५३५) तुल्य काय अनन् (ग.नि.; । वं. से. नेत्र. ) | तुत्थकस्यपलं श्वेतमरिचानि च विंशतिः । त्रिंशता का रूपले पिट्वा ताम्रे निधापयेत् ॥ पिल्लानपान कुरुते बहुवर्षोत्थितानपि । उत्से केनोपदे हाथ शश्च नाशयेत् ॥ तुल्य ५ तोले, स्वेत मरिच (सहं ने बीज) २०; काञ्जी ३० पल (१५० तोले) । सबको ताम्र पात्र में धोटं । द्वितीयो भागः । वदपत्रञ्च सम्पुटे दग्धम् | उत्कुपितमात्रलोचन इसे अखमें डालने से अथवा इससे आंख धोने या आंखपर इसकी पट्टी बांधनेसे पुराना पिल्ल रोग, अश्रुखाव, खुजली और शोधादि नष्ट होता है। (२५३६) तुल्यप्रयोगः (ग.नि. । नेत्ररोग.) तुत्थकं वारिणा व शुकं क्षिपूरणात् ॥ तुत्को पानी में घिसकर आंख में डालने से नेत्रशु (फूल) नष्ट होता है । ( वा. भ. । उत्त. अ. १३ ) गोमूत्रे छगणरसेऽलकाञ्जिके च स्तन्ये विपि विषे च माक्षिके च । यत्तुत्थं ज्वलितमनेकशो ऽभिषिक्तं तत्कुर्याद्वरुडसमं नरस्य चक्षुः ॥ तूतियाको बारबार अग्निमें तपा तपाकर गोमूत्र गोबर के रस, खड्डीकांजी, स्त्रीके दूध, घी, पानी और शहद में बुझाकर पीस लीजिए। इसे आंख में डालने से दृष्टि गरुड़ के समान तीव्र हो जाती है । (२५४०) तुत्यादिवर्तिः (वै.म.र. पट. १६) तुत्थाभयाफेनशिरःकपालै (१० तोले पानी में ५ रतीसे अधिक नीलाथोथा न मिलाना चाहिये । अनुभव बिना इस प्रयोगकी आजमाया न करनी चाहिये ।) (२५३७) तुत्यप्रयोगः (वै. म. र. । पटल १६) तुल्यं तुषाम्भसा पिष्टं वर्त्मरोगविनाशनम् ॥ Garret मसृणं प्रपिष्टैः । वर्तिकृतास्तन्यविवर्षिता स्यात्, पिल्लार्मपूयालसपोथकिना || तूतिया, हर्र, अफीम और कपालकी हड्डी समान भाग लेकर सबको जम्बीरी नीबूके रसमें महीन पीसकर बत्तियां बना लीजिए । तुको कान में पीसकर लेप करनेसे पलकों के रोग नष्ट होते हैं । इन्हें स्त्री दूधमें घिसकर आंख में आंजने से पिल्ल, अर्म, प्यालस और पोथकी रोग नष्ट होता है। (२५३८) तुत्यादि चूर्गाञ्जनम् (ग. नि. । नेत्र. ) (२५४१) तुत्थाव्यञ्जनम् (ग.नि. | नेत्ररोग. ) तुत्थकमधुकामल तुत्थं च काचं च समुद्रफेनं रोगप्रतिघाति तचूर्णम् ॥ तुत्थ, मुलैटी, आमला और बेरी के पत्ते समान भाग लेकर सम्पुट में बन्द करके भस्म कर लीजिए । भा० ५० Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९३ ] इसे आंख में आंजने नवीन नेत्राभिष्यन्द (आंख आना) रोग नष्ट होता है । (२५३९) तुषादिप्रयोगः मनःशिलामाक्षिकलोहचूर्णम् ॥ नारं कपालं सहकुकुटाण्ड For Private And Personal जन्मजातं विनिहन्ति पुष्पम् ॥ तूतिया, काच, समुद्रफेन, मनसिल, सोनामक्खी, लोहचूर्ण, मनुष्यके कपालकी हड्डी और Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३९४ ] मुरगीके अण्डेके छिलके । सब चीज़ोंका अत्यन्त महीन चूर्ण लेकर एकत्र खरल करके रक्खें । भारत - भैषज्य इसे आंख में लगानेसे जन्मका फूला भी नष्ट हो जाता है । (२५४२) तुत्थाद्यञ्जनम् (वं. से. । नेत्ररोगा . ) ताम्रे च मस्तुनोद्धृष्टं तुत्थकं श्यामतां गतम् । सर्वाभिष्यन्दशुक्रार्म शिराशूल जिदञ्जनात् ॥ पात्रमें मस्तु के साथ इतना - रत्नाकरः । [ तकारादि तुलसी और बेल पत्तों का रस १ - १ भाग और स्त्रीका दूध २ भाग लेकर तीनों को कांसीके पात्र में डालकर नागरबेल के पानसे अच्छी तरह रगड़ें और फिर तांबेकी मूसलीसे घोटकर कजलके समान बना लें | Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसे आंख में आंजने से नेत्रपाक सम्बन्धी पीड़ा अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है। (२५४५) त्रिकवा बञ्जनम् ( वृं. मा. र. र. ग. नि. । नेत्र. ) त्रीणि कनि करञ्जफलानि तूतियाको घोटें कि वह काला हो जाय । इसे आंख में आंजने से सर्व प्रकार के नेत्राभिष्यन्द शुक्र, अर्म, शिराएं और शूल नष्ट होते हैं । (२७४३) तुरङ्गलालाद्यञ्जनम् ( वृ. नि. र. । सन्निपात ) तुरङ्गलाला लवणोत्तमेन्दु मनःशिलामागधिकामधूनि । नियोजितान्यक्षिणि निश्चितं द्राक् तन्द्रासनिद्रां विनिवारयन्ति || सेंधा नमक, कपूर, मनसिल और पीपलके महीन चूर्णको घोड़ेकी लार ( थूक ) और शहदमं घोटकर आंख में आंजनेसे सन्निपात चरकी तन्द्रा और निद्रा नष्ट होती है । (२५४४) तुलस्याद्यञ्जनम् (यो. र. । नेत्र. ) तुलस्या बिल्वपत्रस्य रसो ग्राह्यः समांशकः । ताभ्यां तुल्यं पयो नार्यास्त्रितयं कांस्यपात्र के || गजवल्या दृढं मात्रेण प्रहरं पुनः । कज्जलत्वं समुत्पाद्य तेनाजितविलोचनः || सद्यो नेत्ररुजं हन्ति सशूलां पाकसम्भवाम् || १ - दही में दो गुना पानी मिलाकर बनाए हुवे तकको ' मस्तु' कहते हैं । d. रजनी सह सैन्धवकेन । विल्वतरोर्वरुणस्य च मूलं वारिधरं दशमं च वदन्ति ॥ हन्ति तमस्तिमिरं च पटलं च पिचिशुक्रमथार्जुनकञ्च । अञ्जनकं जनरञ्जनकञ्च दृक् च न नश्यति वर्षशतञ्च ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, करञ्जफल, हल्दी, दारुहल्दी, सेंधानमक, बेलकी जड़की छाल, बरनेकी जड़की छाल और नागरमोथा । यह दशों चीजें समान भाग लेकर अच्छी तरह खरल करके अञ्जन बना लीजिए | इसे आंखमें आंजनेसे अन्धता, तिमिर, पटल, पिचिट, शुक्र और अर्जुनका नाश होता है तथा सौ वर्ष तक भी दृष्टि नष्ट नहीं होती । (२५४६) त्रिफलादिरसक्रिया ( यो० र । नेत्ररो० ) । त्रिफलामृतकासीससैन्धवैः सरसाञ्जनैः । रसक्रियां कृमिग्रन्थौ भि ने स्वात्मतिसारणम् ॥ For Private And Personal Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अञ्जनप्रकरणम् ] हर्र, बहेड़ा, आमला, बछनाग विष, कसीस, संधानमक, और रसौत समान भाग लेकर ४ गुने पानीमें पकाएं जब चौथाई भाग पानी शेष रहे तो छानकर उस काथको पुनः पकाकर गाढ़ा करलें और सूखने पर महीन खरल कर लें । www.kobatirth.org कृमिग्रन्थि फूट जाने पर उस स्थान पर यह चूर्ण घिसना चाहिए । (२५४७) यूषणादिवर्त्तिः द्वितीयो भागः । ( वृं. मा.; वं. से.; धन्वं.; भै. र. | नेत्ररो० ) त्र्यूषणत्रिफलाव तू सैन्धवालमनःशिला । दोपदेहकण्डूत्री वर्त्तिः शस्ता कफापहा ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, तगर, सेंवा, हरताल और मनसिल । सब चीज़ोंका समान भाग महोन चूर्ण लेकर पानीमें घोटकर बत्तियां बना लीजिए । (२५४९) ताम्बूलादिनस्यम् ( हा. सं. । अ० ३ अ. ४४ ) ताम्बूलपत्रस्य रसं विडङ्ग सिन्धुद्भवं हिङ्गु गुडेन युक्तम् । जलेन पिटं विहितं च नस्य अथ तकारादिनस्यप्रकरणम् शङ्खदोषांश्च कृमीन्निहन्ति ॥ बायबिडङ्ग, सेंधानमक, हींग, और गुड़ समान भाग लेकर सबको महीन पीसकर नागर | [ ३९५ ] इन्हें आंख में लगानेसे क्लेद ( चिपचिपाहट ), खुजली, और कफका नाश होता है । (२१४८) ज्यूषणाद्यञ्जनवतिः Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ग. नि.; वृं. मा.; भा. प्र. खं. २ | उन्माद ) त्र्यूषणं हिङ्ग लशुनं वचा कटुकरोहिणी । शिरीषनक्तमालानां वीजं श्वेताश्च सर्षपाः ॥ गोमूत्रपिष्टान्येतानि वर्त्तिनेत्राञ्जने हिता । चातुर्थकमपस्मारमुन्मादं चापकर्षति ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, लहसन (रसोन ), बच, कुटकी, सिरस और करञ्जके बीज तथा सफेद सरसोंका समान भाग चूर्ण लेकर सबको गोमूत्रमें घोटकर बत्तियां बना लीजिए । इसे पानी में घिसकर आंख में आंजनेसे, चातुर्थिक ज्वर, अपस्मार ( " मिरगी ) और उन्माद का नाश होता है । इति तकाराद्यञ्जनप्रकरणम् वेल पानके रस में अच्छी तरह घोटकर सुखा लीजिए । इसे पानी में घोलकर नाक में टपकाने से भौं, और कनपटीकी पीड़ा तथा नाक और शिरके कृमि नष्ट होते हैं । (२५५०) तालकादिनस्यम् (र. रा. सुं । क्षया.) तालकं गन्धकं तुत्थं वाकुची च मनःशिला । अर्कदुग्धेन सम्पिष्ट्वा वदर्यानौ च जारयेत् ॥ नस्यं सप्तदिनं चैव कफक्षयविनाशनम् ॥ १ लवणमिति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि --"CAvvvvvvvvvvvvvvvvvv.1. Marianpvinvvvvvvvvv हरताल, गन्धक, नीलाथोथा, बाबची, और | (२५५१) त्वकपत्रादिनस्यम् (वं.से.। शिरो.) मनसिलको आकके दूधमें घोटकर टिकिया बनाकर | त्वरूपशहरापिष्टा नावनं तण्डुलाम्बुना। सुखा लीजिए और फिर उसे सम्पुटमें बन्द करके दालचीनी, तेजपात और खांडको चावलोंके बेरीकी अग्निमें फूंक दीजिए। पानीके साथ पीसकर नाकमें टपकानेसे पित्तज सात दिन तक इसकी नस्य लेनेसे कफ- | शिरोरोग नष्ट होते हैं। दोषप्रधान क्षय नष्ट हो जाता है। इति तकारादिनस्यप्रकरणम् । अथ तकारादिकल्पप्रकरणम् (२५५२) तुवरककल्पः (ग.नि.। ओष. क. प.) भित्रस्वरं रक्त नेत्रं शोर्णाङ्गं कृमिभक्षितम् । वृक्षास्तुवरका नाम पश्चिमार्णवतीरजाः। । अनेनाशु प्रयोगेण साधयेत् कुष्ठिनं नरम् ॥ वीचीतरङ्गविक्षोभमारुतोद्धृतपल्लवाः ॥ एकान्तां तोवरकं च तैलं तेभ्य फलान्याददीत सुपकान्यम्बुदात्यये । पिवेशिताशी नियमेन मासम् । मज्जं फलेभ्यश्चादाय शोषयित्वा विचूर्ण्य च॥ प्रभिन्नकुष्ठी गलिताङ्गदेशम् तिलवत्पीडयेद्रोण्यां काथयेद्वा कुसुम्भवत् । त्वचं त्यजेत् सर्प इवाशु जीर्णाम् ॥ तत्तैलं सम्भृतं भूयः पचेदासलिलक्षयात् ॥ उपयुज्ययोगमखिलं पतिअवतार्य करीषे च पक्षमेकं निधापयेत् । दिन मेवं द्विकालमभियुक्तः । स्निग्धस्विन्नो हृतमलः पक्षादुद्धृत्य यत्नतः ॥ कुष्ठी कुष्टमपोहति विशीर्णकण्ठोष्ठमासमपि ।। चतुर्थभक्तान्तरितःप्रातः पाणितलं पिबेत् ।। तुवरक के वृक्ष पश्चिमी समुद्र के तट पर मन्त्रेणानेन पूतस्य तैलस्य दिवसे शुभे ॥ लम्य दिवसे श उत्पन्न होते हैं; जहां समुद्रसे आने वाली वायु मज्जासार महावीर्य सर्वान् घातून विशोधय। उनके पल्लवों को प्रकम्पित करती रहती है । शङ्खचक्रगदापाणिस्त्वामाज्ञापयतेऽच्युतः॥ शरद ऋतुमें इनके सुपक फल लेकर उनके तेनास्यो मधस्ताच दोषा यान्त्यसकृत्ततः। भीतरसे मजा निकालकर उसे सुखाकर चूर्ण कर सायमस्नेहलवणां यवागं शीतलां पिबेत् ॥ लेना चाहिए । तःपश्चात् उस मजाको कोहूमें पश्चाहानि पिवेत्तैलमित्थं वान्विवर्जयेत्। पिलवाकर तिलकी भांति तैल निकलवा लेना तदेव खदिरकाथे त्रिगुणे साधुसाधितम् ॥ चाहिए, अथवा उसे पानी के साथ पकाकर छान निहन्ति पूर्ववत्पकं पिबेन्मासं सुयन्त्रितः। लेना चाहिए और फिर उस छने हुवे काथको तेनाभ्यक्तशरीरश्च कुर्वीताहारमीरितम् ॥ ! पूनः मन्दाग्नि पर पकाकर पानी जला देना चाहिए। For Private And Personal Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir به امیه یه یه بري فيه تجربه ای به همه کره ای یه عمره کمی به ابی و بره مه ربة مرورية برية ا نبوه و تره با می . कल्पप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग । [३९७ ] इन दोनों विधियों से किसी एक विधिके | गये हों तो भी इस प्रयोगसे शीघ्र आराम हो द्वारा तैल निकालकर कांच या चीनी आदिके जाता है। पात्रमें भरकर और उसका मुख अच्छी तरहसे बन्द यह तैल तीसरे दिन पीना चाहिए और इस करके उसे गोबरमें दबा देना चाहिए; एवं १५ प्रकार एक मास तक प्रयोग जारी रखना चाहिए। दिन पश्चात् निकालकर सेवन करना चाहिए। | अथवा रोगीके बलाबल का विचार करके नित्य तुवरक तैल सेवन करनेसे पहिले स्नेहन, । प्रति प्रातः सायं सेवन कराना चाहिए । इसके स्वेदन, वमन और विरेचन द्वारा शरीर शुद्धि | सेवनसे कुष्टीके शरीरसे पुरानी चमड़ी इस प्रकार अवश्य कर लेनी चाहिए और फिर शुभ दिनमें दूर हो जाती है कि जिस प्रकार सर्पके शरीरसे प्रातःकाल थोड़ा भात खाकर १ कर्ष (१। तोला) | काचली । तुवरक तैल पीना चाहिए अथवा तैलको भातमें मिलाकर खाना चाहिए। (२५५३) त्रिफलाकल्पः (ग. नि.। कल्पा .) तैल सेवन करते समय मनमें इस प्रकारके | हरीतकी चामलकं विभीतकमिति त्रयम् । विचार करने चाहिएं कि "हे महावीर्य, मजसार! त्रिफलेति समाख्याता तच ज्ञेयं फलत्रयम् ॥ तुवरक तैल ! तू समस्त धातुओंको शुद्ध कर । इयं रसायनकरा त्रिफलाऽक्ष्यामयापहा । तुझे ऐसा करनेके लिए शंखचक्रगदाधारी विष्णु रोपणी त्वग्गदले दमेदोमेहकफास्रजित् ॥ भगवान आज्ञा देते हैं, तू उनकी आज्ञाका पालन वरोत्तमा च त्रिफला स्मृता श्रेष्ठा फलत्रयम् । कर !” इस प्रकार तैल पीनेसे शरीरके समस्त दोष त्रिफला कफपित्तन्त्री मेहकुष्ठविनाशिनी ॥ निकल जाते हैं। प्रातःकाल तैल पीकर सायंकालको चक्षुष्या दीपनी चैव विषमज्वरनाशिनी । घृत और लवण रहित शीतल यवागू खानी नाशयेद्राजयक्ष्माणमझेगुल्मेषु पूजिता ॥ चाहिए । इसी प्रकार यह तैल पांच दिन पीना वमिकण्डूप्रशमनी नाडीव्रणविशोधिनी । चाहिए और पथ्य पालन करना चाहिए। दृष्टिप्रसादजननी मेधास्मृतिविवर्धिनी ॥ इसी तैलको ३ गुने खैरसारके काथमें घृतान्विता वा मधुनान्विता वा मिलाकर तैलमात्र शेष रहने तक पकाकर छान __गुडान्विता तैलसमन्विता वा। लेना चाहिए । इसे भी पूर्वोक्त विधिसे ही एक | एका हि नित्यं मनुजैःप्रयोज्या मास पर्यन्त सेवन करना चाहिए । तथा शरीरपर सर्वामयानां शमनी महार्थी ।। भी इसीकी मालिश करनी चाहिए। कुष्ठरोगीका स्वर बिगड गया हो, नेत्र लाल वातरोगेषु तैलेन, पित्तरोगेषु सर्पिषा । रहते हों, अङ्ग गल गए हों या उनमें कोडे पड़ | कफरोगेषुमधुना, प्रयोज्या त्रिफला नरैः॥ For Private And Personal Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि VVVVVVVvvvvvvvNrvNrvNAA.ULLXXXVVVVVVVVVVV VvvvvvWA योज्यास्तिस्रो हरीतक्यस्तथा षट् च विभीतकाः। लिह्यान्मधुघृताभ्याश्च पलार्द्ध प्रत्यहं पुमान् । द्वादशामलकानीति त्रिफलेयं प्रकीर्तिता ॥ जीणे दुग्धौदनाहारो गुणानेतानवाप्नुयात् ॥ प्रसन्नदृष्टिरव्याधि वेद्वर्षशतानि षट् । पातहरीतकी खादेन्मध्याह्ने द्वौ विभीतकौ । नीलालिकुलसंकाशकेशराशिर्महाबलः ।। रात्रौ शयनकाले तु चत्वार्यामलकानि च ॥ मेधावी स्मृतिमान्धीरः स्निग्धश्यामवपुर्युवा । रूपेण कामःप्रभया शशाङ्को सुभगश्च सुरूपश्च स्त्रीशतानन्दवर्धनः ।। दृष्ट्या गरुत्मानिनदेन सिंहः । बलेन नागःपवनो जवेन त्रिफलां निष्कुलां कृत्वा वारिणा तां स्थितां निशि। गिरि गुरुत्वेन भवेन्नरोऽसौ ॥ प्रातः प्रातः पिबेद्धीमान्विषमज्वरशान्तये ॥ ___ हर्र, बहेड़ा और आमला । इन तीनोंके योग वर्ष खादेत्पाणदा प्रातरेका को त्रिफला कहते हैं । वरा, उत्तमा, श्रेष्ठा, और मश्ननन्नात्पूर्वमक्षद्वयश्च ।। फलत्रय भी इसके ही नाम हैं। साज्यक्षौद्रं भोजनान्ते चतुष्कं त्रिफला रसायन, नेत्ररोगनाशक, रोपण, तथा शृङ्गीकानां तद्वयः स्थापनेऽलम् ॥ चर्मरोग क्लेद मेद प्रमेह कफ और रक्तविकार नाशक है। यह पित्त, कुष्ठ, विषमज्वर, राजयक्ष्मा, निकाथ्य त्रिफला पीता नाशयेनितरां मलम् । अर्श, गुल्म, वमन और कण्डू नाशक तथा नाड़ी नेत्रश्वयथुदावाग्निरागकण्डूपरिस्रवान् ॥ | ब्रण (नासूर) शोधक है। दृष्टिको स्वच्छ करता नवान्पथ्याक्षधात्रीणां कृत्वाऽर्धपलिकानपि । और मेधा तथा स्मरणशक्तिको बढ़ाता है। पिबेत्कोष्ठविशुद्धयर्थ पलिकांश्च यथा बलम् ।। केवल एक त्रिफला ही समस्त रोगोंको नष्ट त्रिफला सर्वरोगनी त्रिभागघृतमिश्रिता। कर सकता है । उसे घृत, शहद, गुड़ अथवा तैलमें मिलाकर सेवन करना चाहिए । विसर्प सर्वज शुक्र हन्ति चार्धावभेदकम् ॥ त्रिफलाको वातज रोगोंमें तेलके साथ, पित्तज मधुना त्रिफला चूर्ण प्रयुक्तं नाशयेद्धृवम् । रोगोंमें घीके साथ और कफज रोगोंमें शहदके प्रमेहान्मुखरोगांश्च गलगण्डापची तथा ।। साथ सेवन करना चाहिए। भक्षयंस्त्रिफलाकल्कं मासं निर्यन्त्रणं पुमान् ।। त्रिफला बनानेके लिए ३ हर, ६ बहेड़े वैनतेयोपमा दृष्टिं मासमात्रादवामुयात् ॥ और १२ आमले लेने चाहिये । त्रिफलादलचूर्णस्य कृत्वा पलशतं नवम् । प्रतिदिन प्रातःकाल ? हर्र, दोपहरको २ भृङ्गराजरसेनैव कुर्थात्सप्ताहभावितम् ।। बहेड़े और रातको सोनेके समय चार आमले For Private And Personal Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । कल्पप्रकरणम् ] खाने से कामदेव के समान रूप, चन्द्रमाके समान कान्ति, गरुड़ समान दृष्टि, सिंहके समान शब्द हाथी के समान बल, पवनके समान तीव्र गति, और पर्वत समान शारीरिक भार प्राप्त होता है । आयुकी स्थिरता के लिए १ वर्ष तक प्रतिदिन प्रातःकाल १ हर्र, भोजनके पहिले घी और शहद में मिलाकर दो बहेड़े तथा भोजनके पश्चात् ४ आमले खाने चाहिएं । त्रिफलेका काथ पीनेसे मल निकलकर शरीर शुद्ध हो जाता है तथा नेत्रोंकी सूजन, जलन, सुर्खी, कण्डू (खुजली) और स्रावका नाश होता है। कोठेकी शुद्धिके लिए २|| तोले या ५ तोले त्रिफलाका काथ पिलाना चाहिए । त्रिफलाको ३ भाग घीमें मिलाकर सेवन करनेसे विसर्प, प्रमेह, और आधासीसी आदि समस्त रोगों का नाश होता है । त्रिफला चूर्णको शहद के साथ सेवन करनेसे प्रमेह, गलगण्ड और अपची (गण्डमाला भेद) इत्यादि रोग नष्ट होते हैं । १०० पल (६।सेर) त्रिफला चूर्णको भांगरे के रस में सात दिन तक घोटकर रख लीजिए । इसमें से प्रतिदिन २ ॥ तोले चूर्ण शहद और घृतके साथ मिलाकर खाना चाहिए और उसके पचने पर दूधभातका आहार करना चाहिए। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९९ ] इस प्रयोगसे दृष्टि स्वच्छ हो जाती है, बाल भर के समान काले हो जाते हैं; शरीर स्निग्ध और सुन्दर हो जाता है, सैकड़ों स्त्रियों से रमण करने की शक्ति प्राप्त होती है, तथा मनुष्य महाबलशाली, मेधावान् स्मृतिमान् और धीर होकर छः सौ वर्ष पर्यन्त रोग रहित जीवन धारण करता है 1 त्रिफलकी गुठली दूरकरके, कूटकर रातको पानी में भिगो दीजिए। इसे प्रातः काल सेवन करने से विषमज्वर नष्ट होता है । (२५५४) त्रिफलाकल्पः एक मास तक त्रिफला सेवन करने से दृष्टि वक्ष्यामि योगयुक्तिश्च रोगे रोगे पृथक्पृथक् ॥ गरुड़ के समान हो जाती है । वातेोपेतापित्ते समधुशर्करा । श्लेष्मे त्रिकटुकोपेता मेहे समधुवारिणा ।। कुष्ठे च घृतसंयुक्ता सैन्धवेनाग्निमान्यहा । चक्षुर्भावनके काथो नेत्ररोगनिवारणः । घृतेन हरते कण्डूं मातुलुङ्गरसैर्वमिम् । क्षीरेण राजयक्ष्माणं पाण्डुरोगं गुडेन च ॥ ( हा. सं. । स्था. ५ अ. २ ) हरीतक्याश्चामलक्या विभीतस्य च यत्फलम् । त्रिफलेत्युच्यते वैद्यैर्वक्ष्यामि भागनिर्णयम् ॥ एकं भागं हरीतक्या द्वौ भागौ च विभीतकम् । आमलक्यास्त्रिभागञ्च सहैकत्र प्रयोजयेत् ॥ त्रिफलाकफपित्तघ्नी महाकुष्ठविनाशिनी । आयुष्या दीपनी चैव चक्षुष्या व्रणशोधिनी ॥ वर्णप्रदायिनी या विषमज्वरविनाशिनी । दृष्टिप्रदा कण्डहरा वमिगुल्मार्शनाशिनी ॥ सर्वरोगप्रशमनी मेधास्मृतिकरी वरा । For Private And Personal Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि भङ्गराजरसेनापि घृतेन सह योजितः।। त्रिफला-कफपित्त और महाकुष्ठ नागक, वलीपलितहन्ता च तथा मेधाकरः स्मृतः ॥ आयुवर्द्धक, अग्निदीपक, नेत्रोंके लिए हितकर, ब्रणसक्षीरः सगुडः काथो विषमज्वरनाशनः । शोधक, वर्ण संस्कारक, वृष्य, विषमज्वरनाशक, सशकेरा घृतः काथः सर्वजीर्णज्वरापहः ॥ | खुजली, वमन, गुल्म, अर्श, इत्यादि समस्त रोगों एषा नराणां हितकारिणी च | को नष्ट करनेवाला और स्मृति तथा मेधावर्द्धक है।' सर्वप्रयोगे त्रिफला स्मृता च । त्रिफलाको वातज रोगोंमें घृत और गुड़के सर्वामयानां शमनी च सय साथ, पित्तज रोगोंमें शहद और खांडके साथ, स्तेजश्चकान्तिप्रतिभां करोति ॥ कफजरोगोंमें त्रिकुटाके साथ मिलाकर सेवन कराना शोफे तथा कामलपाण्डुरोगे चाहिए। प्रमेह रोगमें शहदके साथ चाटकर तथोदरे मूत्रयुता हिता च । ठण्डा पानी पीना चाहिए। यदि त्रिफलाको घीके हिध्मातिसारे ग्रहणीविकारे साथ सेवन किया जाय तो कुष्ट नष्ट होता है हिता च तक्रेण फलत्रिका च ॥ | और सेंधा नमकके साथ सेवन करनेसे अग्नि प्रदीप्त क्षीणेन्द्रिये जीर्णज्वरे च यक्ष्मे होती है। क्षीरेण युक्ता त्रिफला हिता च । स्यान्नेत्ररोगे च शिरोगदे च । त्रिफलाके काथसे आंखें धोनेसे नेत्ररोग नष्ट कुष्ठे च कण्डूत्रणपीनसे च ॥ | होते हैं। मूत्रग्रहे कामलके ऽग्निमान्ये त्रिफलाके काथमें घी डालकर पीनेसे खुजली; हिता जलेन त्रिफला हि कल्किता। नीबूका रस मिलाकर पीनेसे वमन, दूधके साथ सशीतकाले गुडनागरेण पीनेसे राजयक्ष्मा, और गुड़ डालकर पीनेसे सशर्कराक्षीरयुता तथोष्णे ॥ । पाण्डुरोग नष्ट होता है। वर्षासु शुण्ठीसहिता फलत्रिका यदि त्रिफलाके क्वाथमें भांगरेका रस और फलत्रिका संवरुजाहरा स्यात् ॥ घी डालकर सेवन किया जाय तो वलि पलित नष्ट हर्र, वहेड़े और आमलेके फलोंके योगको होकर मेधा और स्मरण शक्तिकी वृद्धि होती है। त्रिफला कहते हैं । त्रिफला बनाने के लिए १ भाग त्रिफलेके काथमें दूध और गुड़ मिलाकर हर्र, २ भाग बहेड़ा और ३ भाग आमला लेना पीनेसे विषमज्वर और खांड तथा घृत मिलाकर चाहिए। पीनेसे जीर्ण ज्वर नष्ट होता है। १ संस्कृतमें त्रिफला स्त्रीलिंग है परन्तु हिन्दी में प्रायः उसे पुल्लि लिखते हैं । For Private And Personal Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - *. 15ay ' s W . .. ... . . . . .... ... . . . .. रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४.१] त्रिफला मनुष्यों के लिए अत्यन्त हितकारी है । त्रिफलाको दूधके साथ सेवन करनेसे लाभ होता और समस्त रोगोंमें प्रयुक्त किया जा सकता है। है; तथा नेत्ररोग, शिरोरोग, कुष्ठ, कण्डू, व्रण, यह शीघ्र ही समस्त रोगोंका नाश करके तेज, पीनस, मूत्रावरोध, कामला और अग्नि मांद्यमें कान्ति और प्रतिभाकी वृद्धि कर देता है। पानीके साथ पीसकर खाने से रोग नष्ट हो __ शोथ, कामला, पाण्डु और उदर रोगों में जाता है । त्रिफलाको गोमूत्र के साथ, तथा हिचकी, अतिसार त्रिफलाको शीतकाल में सौंउके चूर्ण और और ग्रहणी रोगमें तक के साथ सेवन करना गुड़के साथ, ग्रीष्मकालमें खांड और दूधके साथ, चाहिए। __ और वर्षाकालमें सोंउके साथ सेवन करनेसे समस्त ___ यदि इन्द्रियां क्षीण हो गई हो या जीर्ण- रोग नष्ट हो जाते हैं। वर अथवा यस्मा रोगने दबा रखा हो तो इति तकारादिकल्पप्रकरणम् । अथ तकारादिरसप्रकरणम् । (२५५५) तक्रमण्डूरम् (भै. र. । शोथे) (२५५६) तक्रवटी (भै. र. । ग्रहणी) गोमूत्रशुद्धं मण्डूरचूर्ण पलचतुष्टयम् । रसस्य माषकं ग्राह्यं गन्धकस्य च माषकम् । बिल्वपत्रं भङ्गराजद्वयञ्च गणिकारिका॥ द्विमाषकं विषस्थापि तानं माषचतुष्टयम् ॥ शोथनो कोकिलाक्षश्च रसैरेषां पृथक पृथक । तोलकं पिप्पलीचूर्ण मण्डूरस्य च तोलकम् । गोमूत्राष्टपलैश्चैव भावयेधनतस्त्रिधा ॥ काथेन कृष्णजीरस्थ भावयेत्सप्तवासरम् ॥ दशगुञ्जामितां खादेत्तक्रेण वर्जयेज्जलम् । वल्लप्रमाणां वटिकां तक्रेण सह पाययेत् । तक्रेण भीजयेदन पाने तक्रश्च दापयेत् ॥ तक्रेण भोजनं पानं लवणाम्भोविवर्जितम् ।। पाण्डुशोथं हरेत्तर्ण भास्करस्तिमिरं यथा ॥ निहन्ति शोथं ग्रहणीं मन्दाग्निं पाण्डुतामपि ।। गोमूत्रमें शुद्ध किया हुवा ४ पल (२० तोले) शुद्ध पारा और गन्धक १-१ माषा, शुद्ध मण्डर लेकर उसे बेलपत्र, काला और सफेद / मीठा तेलिया २ मा, तात्र भस्म ४ माथे और भंगरा, अरनी पुनर्नवा और तालमखानेके रसमें । पीपल तथा मण्डूर भस्म १-१ तोला लेकर प्रथम १-१ दिन घोटकर उसमें ८ पल ( ४० तोले) पारे गन्धककी कजली बना लीजिए और फिर गोमूत्र थोड़ा थोड़ा डालकर घोटें । अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको सात दिन इसे १० रत्तीकी मात्रानुसार तक्रके साथ तक काले जीरेके रसमें घोटकर ३-३ रत्तीकी सेवन करने तथा जल बन्द कराके तक्रके साथ ही गोलियां बना लीजिए। आहार देने और प्यास में भी तक ही पिलानेसे इनमेंसे १-१ गोली प्रतिदिन प्रातः सायं पाण्डु और शोथ अत्यन्त शीघ्र नष्ट होते हैं। तक्रके साथ सेवन कराने और लवग तथा पानी भा० ५१ For Private And Personal Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४०२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि बन्द करके रोगीको केवल तक्र (छाछ) पर रखने- इसमेंसे १ माषा औषध १ शाण (४ माशे) से शोथ, संग्रहणी, मन्दाग्नि और पाण्डुका नाश काली मिर्च के चूर्ण और १॥ निष्क ( ६ माशे) होता है। गुडके साथ मिलाकर नागरबेलके २ पानोंके साथ (२५५७) तरुणज्वरारिरसः (१) खानेसे शीतपूर्व, और दाहपूर्व, द्वयाहिक (तिजारी) (र. प्र. सु. । अ० ८.) आदि ज्वर नष्ट होते हैं। तालताम्ररसगन्धतुत्थका (व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती । ज्वर आनेके श्छाणमात्रतु लेतान्समानपि । समयसे ३ घन्टे पूर्व खिलाएं । औषध खिलानेके निष्कमात्रं रुचिरां मनःशिला पश्चात् २ पान खिलाएं।) मदये त्रिलकाम्बुभिदृढम् ॥ नोट-यह रस रेचक है, गर्भिणी और बहुत गोलमस्य च विधाय सम्पुटे छोटे बच्चोंको न देना चाहिए । पाचयेच्च पुटयोगतःसदा । (२५५८) तरुणज्वरारिरसः (२) अर्कवत्रिपयसा सुभावयेत् (भै. र; धन्वं.; र. चं; रसें. सा.; र. रा. मुं.। ज्वरा.) सप्तवारमथ दन्तिकातैः॥ जैपालगन्धं विषपारदश्च माषमात्ररसमेव भक्षितं शाणमानमरिचैयुतं सदा। तुल्यं कुमारीस्वरसेन मद्यम् । सार्धनिष्कगुडमत्र योजितं अस्य द्विगुञ्जा हि सितोदकेन - तच्च सौरसदलद्वयान्वितम् ।। ख्यातो रसोयं तरुणज्वरारिः॥ शीतपूर्वमथ दाहपूर्वक दातव्य एषोऽति पञ्चमे वा ___घाहिकं च सकलान् ज्वरानपि । षष्ठेऽथवा सप्तम एव वापि । नाशयेद्धि तरुणज्वरारिकः जाते विरेके विगतज्वरःस्थात् . सर्वदोषशमन सुखावहः ।। पटोलमुद्गाननिषेवणेन ।। शुद्ध हरताल, तात्रभस्म, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद् जमाल गोटा, शुद्र गन्धक, शुद्ध वछ. शुद्ध नीला थोथा और शुद्ध मनसिल समान भाग लेकर नाग ( मिठा तेलिया ), और शुद्र पारद समान सबको त्रिफलाके रसमें अच्छी तरह घोटकर गोला। भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना बना लीजिए और उसे सुखाकर सम्पुटमे बन्द लीजिए. और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण करके गजपुट में फूंक दीजिए । पुटके स्वांग मिलाकर घीकुमारके रसमें धोटकर २-२ रत्तीकी शीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर उसे गोलियां बना लिजिये । इनमेंसे प्रातःकाल मिश्रीके आक ( अर्क) और सेहुंड (सेंड-थोहर ) के दूध पानीके साथ १ गोली खिलानेसे विरेचन होकर तथा दन्तीमूलके काथकी सात सात भावनाएं दीजिए। ज्वर नष्ट हो जाता है। For Private And Personal Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसंपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४०३] .vvvvvvvvvvvvvvvvvv यह रस ज्वर आनेके पांचवे, छठे या सातवें । नारिकेलजलेनैव भक्ष्योऽयश्च रसायनः । दिन देना चाहिये। इस पर पटोलका शाक, क्षीरानुपानादृष्योऽयं न कचित्पतिहन्यते ॥ मूंगका यूष और भात खिलाना पथ्य है। २-२ कर्ष (२॥-२॥ तोले) शुद्ध पारा (नोट-यह रस गर्भिणीको न देना चाहिए।) और शुद्ध गन्धक लेकर पत्थरके खरलमें घोटकर (२५५९) तरुणानन्दरसः चिक्कण कजली बना लीजिए और फिर उसमें (र. सा. सं.; धन्वं.; र. रा. सुं. । कास; र. चिं.।। बेलपत्र, अरणी, अरलु, गंभारी, पाढल, बला स्तव. ११) (खरैटी) मोथा, पुनर्नवा, आमला, बड़ी कटेली, कर्षद्वयं रसेन्द्रस्य शुद्धस्य गन्धकस्य च । बासेके पत्ते, विदारीकन्द और शबावरका १-१ कज्जलीकृत्य यत्नेन शिलातलशुभे दृढे ॥ कर्ष (११-१। तोला) स्वरस डालकर घोटिये और बिल्वानिमन्थश्योनाककाश्मरीपाटलाबला । फिर बासेका १२॥ तोले स्वरस मिलाकर घोट मुस्तं पुनर्नवा धात्री वृहती वृषपत्रकम् ॥ कर उसमें ५ तोले अभ्रकभस्म, १। तोला कपूर विदारी शतमूली च करेषां पृथग्रसैः। और ११-१।माषा जावित्री, जायफल, जटामांसी, मर्दयित्वा पुनर्वासास्वरसैर्दशतोलकैः ॥ तालीसपत्र, इलायची और लौंगका चूर्ण मिलाकर मईयेत्तत्र शुद्धाभ्रं रसस्य द्विगुणं क्षिपेत् । विदारीकन्दके रसमें घोटकर (४-४ रत्तीकी) रसस्यार्धश्च कर्पूरं तत्रैव दापयेद्भिपक ॥ गोलियां बना लीजिए। जातीकोषफले मांसी तालशिला लवङ्गकम्। इनके सेवनसे राजयक्ष्मा, भयङ्कर क्षय, उरः चूर्ण कृत्वा प्रयत्नेन मापमानं क्षिपेत्पृथक् ॥ क्षत, पांच प्रकारकी खांसी, श्वास, स्वरभंग, विदारीस्वरसेनैव वटिकां कारयेद्भिषक् । अरुचि, कामला, पाण्डु, हलीमक, तिल्ली, जीर्णराजयक्ष्माणमत्युग्रं क्षयश्चोग्रमुरक्षितम् ॥ ज्वर, तृषा, गुल्म, आमग्रहणी, अतिसार, शोथ, कासं पञ्चविधं श्वासं स्वरघातमरोचकम् । कुष्ठ और भगन्दरका नाश होता है। कामलां पाण्डुरोगश्च प्लीहानं सहलीमकम् ॥ यह रस-रसायन, वीर्यवर्धक, नेत्रोंके लिए जीर्णज्वरं तृषां गुल्मं ग्रहणीमामसम्भवाम् ।। | हितकारी और पौष्टिक है। इसको सेवन करने अतीसारश्च शोथश्च कुष्ठानि च भगन्दरम् ।। वाला मनुष्य सैकड़ों स्त्रियों के साथ रमण करे तो नाशयेदेष विख्यातस्तरुणानन्दसंज्ञितः।। भी उसका शुक्रक्षय नहीं होता और न ही बुद्धिरसायनवरो वृष्यश्चक्षुष्यःपुष्टिवर्द्धनः॥ बलका ह्रास होता है। सहस्रं याति नारीणां भक्षणादस्य मानवः। इसे दो मास तक सेवन करनेसे कामला रोग क्षीणता न च शुक्रस्य न च बुद्धिबलक्षयम् ॥ नष्ट हो जाता है । यह रस ज्वरको अवश्य नष्ट द्विमासमुपयोगेन निहन्ति कामलान्गदान्। ! कर देता और वीर्यको पुष्ट करता है। शुक्रसन्दीपनं कृत्वा ज्वरं हन्ति न संशयः॥ इसे नारयलके पानीके साथ सेवन करनेसे For Private And Personal Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४०४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि vvvvvvvvvvvvvvvvvvvv. रसायनके गुण प्राप्त होते हैं और दूधके साथ कुपीलुजकषायेण पार्थस्य स्वरसेन च । सेवन करनेसे वीर्यकी वृद्धि होती है।। पक्तिकांवटीं कृत्वा युध्यात्ताण्डवशान्तये।। (२५६०) ताण्डवरसः (र. का. धे. । कु.) । देवदारु १ भाग, हींग ४ भाग, कपूर १६ तालगन्धकमाक्षीककुष्ठामृतरसं समम् ।। | भाग, जसत भस्म ६४ भाग और लोहभस्म श्वेतापराजिताद्रावैमर्दयेदिवसत्रयम् ॥ २५६ भाग लेकर सबको १-१ दिन भांगके रस द्विगुझं तद्भवां मूत्रैर्गलत्कुष्ठहरं लिहेत् ।। और कुचलके काथ तथा अर्जुनकी छालके स्ववाकुचीवीजकक्षौ ट्रैरनु स्यात्ताण्डवो रसः॥ रसमें घोट कर छः छः रत्तीकी गोलियां बना असम्भवे तु वाकुच्या वटी चानन्दभैरवी। लीजिये। लेहयेत्कर्षमात्रेण गलत्कुष्ठापनुत्तये ॥ इनके सेवनसे ताण्डवरोग नष्ट होता है। हरताल भस्म, शुद्धगन्धक, सोनामक्खी भस्म, (२५६२) ताप्यादिचूर्णम् कूठ, शुद्ध बछनाग (मीठातेलिया) और शुद्ध पारा (र. चं. । पाण्ड; च. सं. । चि. स्था. पाण्डु.) . समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी ताप्याद्रिजतुरूप्यायोमला पञ्चपलाःपृथक् ।। कजली बना लीजिए और फिर अन्य ओषधियों चित्रकत्रिफलाव्योपविडङ्गैःपालिकैःसह ॥ का महीन चूर्ण मिलाकर ३ दिन तक सफैद शर्फराष्टपलोन्मिश्रा चूर्णिता मधुना प्लुताः। अपराजिता (कोयल) के रसमें घोटकर २-२ अभ्यस्यास्त्वक्षमात्रा हि जीर्णे नियमिताशिना ।। रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। कुलत्थकाकमाच्यादिकपोतपरिहारिणा ।।। .... इनमेंसे प्रतिदिन (प्रातःसायं) १-१ गोली स्वर्णमाक्षिक, शिलाजीत, रौ-यमाक्षिक और गोमूत्रके साथ खा कर ऊपरसे १। तो. बाबचीका मण्डूर ५-५ पल (२५-२५ तोले), चीतामूल, चूर्ण शहदमें मिलाकर चाटना चाहिए। यदि हर, बहेडा, आमला, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) बाबची न मिल सके तो आनन्द भैरवी वटी और बायबिडङ्गका चूर्ण १-१ पल तथा मिश्री (र. का. धे.) खानी चाहिए। ८ पल लेकर सबको एकत्र मिलाकर रक्खें । इसके सेवनसे गलत्कुष्ठ नष्ट हो जाता है। इसे १। तोलंकी मात्रानुसार शहद में मिला(२५६१) ताण्डवारिलौहम् ___ कर खाना चाहिए । औषधके पच जानेपर निय ( आयु. वे. वि. । उत्त. अ. ५९) मित भोजन करना चाहिए और कुलत्थ, काक्रमाची दारुरामठकपरयशदायो यथोत्तरम् । तथा कपोतादिके मांससे परहेज करना चाहिए। प्रगृह्य चतुरावृत्या विभाव्य विजयाम्बुना। (यह चूर्ण कामला रोगको नष्ट करता है।) १ ताण्डव रोग-यह रोग अत्यधिक हर्ष शोकादिके कारण मनके अतिशय क्षोभ पानेके कारण होता है। इसमें मनुष्य नाचताहुवा सा चलता है, हाथ पैरोंको नचाता है. और मुट्ठीसे किसी भी वस्तुके पकड़ने या मुंहमें देनेमें असमर्थ होता है। For Private And Personal Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४०५] - (२५६३) ताप्यादिरसायनम् पिण्डी बनाकर उसके ऊपर त्रिफलेका महीन चूर्ण (र. र. स. । उ. खं. अ. २६) लपेटकर उसे मन्दाग्निपर घृतमें पकाइये; जब त्रिफलेका रंग लाल हो जाय तो निकाल लीजिए ताप्याभ्रकत्रिकटुतुत्यशिलाजकान्त और ठण्डा होनेपर पीसकर रखिये । मङ्कोल्ललोहमलटऋणसैन्धवश्च।। भृङ्गीरसेन वटिकांश्च मसूरमात्रान् इसे शहद और धीमें मिलाकर चाटकर ऊपर खादेद्रसायनवरं सकलामयनम् ॥ से नारियलका पानी पीना चाहिये । सोनामक्खीभस्म, अभ्रकभस्म, त्रिकुटा इसके सेवनसे पाण्ड, खांसी, विषमज्वर, (सोंठ, मिर्च, पीपल), शुद्ध नीलाथोथा (तुत्थ), गुल्म और प्लीहारोग नष्ट होते हैं। शिलाजीत, कान्तलोहभस्म, अकोलमूल, मण्डर- (मात्रा-२-३ रत्ती। शहद २ तोले । भस्म, सुहागेकी खील और सेंधानमक समान भाग घी ६ माशे ।) लेकर भांगके रसमें घोटकर मसूरके दानेके बराबर (२५६५) ताम्रका गोलियां बना लीजिये। (वं. से. । रसायना.; र. का. धे। ग्रह.) इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करने गन्धकस्य पलं प्रोक्तं रसस्य द्विपलं तथा। से समस्त रोग नष्ट होते हैं। नैपालस्य विशुद्धस्य ताम्रस्य च पलं भवेत् ।। (२५६४) ताम्रका | ततो गन्धाद्धेचूर्णेन तानं संयुज्य चूणेयेत् । (वं. से. । रसायन.; र. र. । रसा.; धन्वं.) शेषाई गन्धकं कृत्वा पारदं खल्लयेद्भिषक् ।। जीर्णतानं रसं चैव गन्धकञ्च मुचूर्णितम् ।। रसेन हस्तिशुण्ड्याश्च लोहपात्रे पचेच्छनैः । स्वर्णमाक्षिकमादाय धत्तुरकरसे पचेत् ॥ कृत्वा पङ्कसमं पाकं ताम्रेण सह योजयेत् ॥ यावत्पाकं यथा कृत्वा शास्त्रविन्मन्दवह्निना। तच्च गन्धकचूर्णेन सम्वेष्टय हविषा सह । त्रिफलापिण्डिकावेष्टय विधिवत्सर्पिषा पचेत् ॥ पाचयति भिषक्माज्ञः पाकविन्मृदुवहिना ।। ज्ञात्वा पाकं समुत्तार्य शीते निष्कास्य भक्षयेत्। आलोड्य मधुसपिभ्या भुक्त्वा तक्रं पिबेदनु । विमद्य मधुसर्पिभ्यां नारिकेलं पिबेदनु ॥ अग्निमान्धमजीर्णश्च ग्रहणीपाण्डुकामलाम् ।। पाण्डुरोगश्च कासं च ज्वरांश्च विषमांस्तथा। परिणामरुजं चाशु नाशेयेत्तु प्रयोजितम् ॥ गुल्मं प्लीहामयश्चैव विनाशयति भक्षणात् ॥ - शुद्ध गन्धक ५ तोले, शुद्ध पारा १० तोले ताम्रभस्म, पारद, गन्धक और सोनामक्खी और शुद्ध नेपाली ताम्र ५ तोले लेकर प्रथम २॥ भस्म बराबर बराबर लेकर कज्जली करके धतूरके तोले गन्धक और ताम्रको एकत्र खरल कीजिये रसमें मन्दाग्नि पर इतना पकाइये कि पकते पकते और फिर शेष गन्धकको पारेके साथ मिलाकर गोली बनने योग्य हो जाय । तत्पश्चात् उसकी | कजली बना लीजिये। इस फजलीको लोहेके For Private And Personal Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४०६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि पात्रमें डालकर मन्दाग्निपर हाथी सुण्डीके रसमें कमठश्च तथा शोथमुदरं च सुदारुणम् । पकाइये । जब कीचड़के समान हो जाय तो उस धातुद्धिकरं वृष्यं बलवर्णकरं शुभम् ॥ में उपरोक्त ताम्रचूर्ण मिलाकर गोला बना लीजिये सद्यो वहिकरं चैव सर्वरोगहरं परम् । और उसपर गन्धकका महीन चूर्ण लपेटकर मन्दाग्नि मुखशुद्धिर्विधातव्या पर्णैश्चूर्णसमन्वितैः ॥ पर घीके साथ लोहेकी कढ़ाहीमें पकाइये । ( जब | ताम्रकल्पमिदं नाम्ना सर्वरोगप्रशान्तये ॥ गन्धक जल जाय) तो गोलेको निकालकर पीस- बहेड़ा, पारद और गन्धक २॥-२॥ तोले कर रखिये। तथा ताम्रभस्म सबके बराबर लेकर कजली करके ___ इसे शहद और घीके साथ मिलाकर तक्रके उसे जम्भीरी नीबूके रस, हुलहुलके रस तथा साथ सेवन करनेसे अग्निमांद्य, अजीर्ण, ग्रहणी, . पीपल और मोचरसके काथकी तेज़ धूपमें एक पाण्डु, कामला और परिणामशूलका अत्यन्त शीघ्र । एक भावना दीजिये अर्थात् एक चीज़का रस नाश हो जाता है। डालकर धूपमें रख दीजिये और उसके सूखने पर (मात्रा-२-३ रत्ती। शहद २ तो., घी अन्य औषधका रस डाल दीजिये। इसी प्रकार ६ माशे ।) उपरोक्त सब रसों की भावना देकर उसे जम्बीरी (नोट-ताम्रचूर्ण के स्थानमें ताम्रभस्म लेना नीबके रसमें पत्थर के खरलमें घोटकर २-२ (उचित प्रतीत होता है।) रत्तीको गोलियां बना लीजिये । (२५६६) ताम्रकल्पः इसे एक गोलीसे आरम्भ करके प्रतिदिन (रसें.चि.अ. ९; रसें.सा. सं.; र. रा. सु. । तीहा.)। एक एक गोली बढ़ाते हुवे खाना चाहिये और अक्षपारदगन्धकश्च कर्षद्वयमितं पृथक । १० गोली पर पहुंचने पर फिर एक एक गोली सर्वैःसमं भवेत्तानं जम्बीराम्लेन मईयेत् ॥ घटाना चाहिये, और एक गोलीपर पहुंचकर फिर मूर्यावर्तरसैःपश्चात् कणामोचरसेन च । १-१ गोली बढ़ाना चाहिये । योजयेत्तीवधर्मे तु यावत् सर्वन्तु जीर्यति ॥ | इसी प्रकार रोग नष्ट होनेतक क्रमशः मात्रा जम्बीरस्य रसैर्भूयो रसं दण्डेन चालयेत् । ___ बढ़ाते घटाते हुवे सेवन करना चाहिये। हढे शिलामये पात्रे चूर्णयेदति शोभनम् ॥ औषध खानेके पश्चात् मुखशुद्धि के लिए रक्तिद्वयक्रमेणैव योज्यं माषद्वयावधि । चूना लगा हुवा पान खाना चाहिये और औषध ह्रासयेच्च क्रमेणैव तथा चैव विवद्धयेत् ॥ पचने पर घृत युक्त दूध भात खाना चाहिये। जीर्णे भुञ्जीत शाल्यन्नं क्षीरं घृतसमन्वितम् । इसके सेवनसे अम्लपित्त, अनेक प्रकारको हन्त्यम्लपित्तं विविधं ग्रहणीं विषमज्वरम् ॥ ग्रहणी, विषमज्वर, पुराना ज्वर, तिल्ली, दुस्साध्य चिरज्वरं प्लीहगदं यकृद्रोगं सुदुस्तरम् । यकृत्विकार, अग्रमांस, शोथ, कांस्यक्रोड, कमठ, अग्रमांसं तथा शोथं कांस्यकोडं सुदुर्जयम् ।। । भयङ्कर उदरशोथ और अन्य अनेकों रोग नष्ट For Private And Personal Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४०७] - - - होते तथा बल वर्ण वीर्य धातु और अग्निकी वृद्धि | पत्थरके खरलमें रखकर तेज़ धूपमें रख दीजिये । होती है। १ पहर पश्चात् द्रव तैयार हो जायगा, उसे शीशीमें (२५६७) ताम्रद्रुतिरस: भरकर रख लीजिये। (र. र. स. । उ. ख. अ. १८) इसमें से नित्य प्रति १ रत्तीसे १ माषे तक पलं नेपालशुल्वस्य पत्राणि मुतनूनि च।। यथोचित मात्रानुसार घी और शहदके साथ सेवन कृत्वा कण्टकवेध्यानि कारयेत्तदनन्तरम् ॥ करनेसे भयङ्कर अग्लपित्त, खांसी, क्षय, शोष, अर्श, ककं द्विगुणं ग्राह्यं क्रमात्सूतकगन्धयोः। | संग्रहणी, कामला, पाण्डु, ग्यारह प्रकारके कुष्ठ, मदितव्यं शिलाखल्वे रसैर्दन्तशठस्य वै॥ रक्तपित्त, खालित्य, शूल, उदररोग, वातव्याधि, . तत्कल्कं पङ्कवत्कृत्वा तेन पर्णानिसर्वशः। प्रतिस्याय, विद्रधि और विषमज्वरका नाश होता है। लेपयित्वा शिलाखल्वे स्थापयेदातपे खरे ॥ इसे निरन्तर कुछ समय तक सेवन करनेसे यामैकेन समुदत्य द्रवी भवति नान्यथा । । शरीर वलिपलित और रोग रहित, ताम्रके सदृश वान्ति विरेचनं कृत्वा शुद्धकायो यथाविधिः॥ हो जाता है । पूजयित्वा सुरान्वैद्यान्विमान्हेमांवरादिभिः। औषध खानेके पश्चात् तक्र अथवा काजी तां द्रति मधुसर्पिा रक्तिकामाषकादिभिः॥ पोनी चाहिये और औषध पच जानेके पश्चात् लीढ़वा तत्र पिबेत्तकं धान्याम्लकमथापि वा। सायङ्कालको पुराने शाली चावलोंका भात खाना जीणे सायं समश्नीयाच्छाल्यन्नं तु पुरातनम् ॥ चाहिये । सेव्यमानं निहन्त्येतदम्लपित्तं सुदारुणम् । औषध प्रारम्भ करनेसे पूर्व वमन विरेचन द्वारा कासं क्षयं तथा शोषमीसि ग्रहणीं तथा ॥ यथाविधि शरीर शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिये; कामलां पाण्डुरोगश्च कुष्ठान्ये कादशैव च । और गुरु, वैद्य तथा ब्राह्मणादि पूज्य महानुभावोंको रक्तपित्तं सखालित्यं शूलञ्चैवोदराणि च ॥ वातरोगं प्रतिश्यायं विद्रधिं विषमज्वरम् ।। | स्वर्ण और वस्त्रादि द्वारा सम्मानित करनेके पश्चात् __ औषध सेवन करनी चाहिये। सतताभ्यासयोगेन वलीपलितनाशनम् ॥ (नोट-यदि १ पहरमें ताम्रपत्र न गल ताम्रवत्कुरुते देहं सर्वव्याधिविवर्जितम् ।। जीवेद्वर्षशतं साग्रं द्वितीय इव भास्करः॥ | जायं तो अधिक समय तक धूपमें रखना चाहिये, १ कर्ष ( सवा तोला ) पारद और २ कर्ष और यदि आवश्यकता प्रतीत हो तो उसमें नीबूका गन्धककी कजली करके उसे जम्बीरी नीबके रसमें रस भी डाल देना चाहिये ।) घोट कर कीचडके समान बना लीजिये और फिर (२५६८) ताम्र-पर्पटी (र. चिं.। स्तव. ८) ५ तोले अत्यन्त बारीक कण्टकवेधी ताम्रपत्रों पर प्रत्येकं दशगयाणाः शुद्धगन्धकम्तयोः । इस कजलीको अच्छी तरहसे लपेट दीजिये और मृतताम्रस्य पश्चैव खल्बके पञ्चविंशतिः ॥ For Private And Personal Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य-र - रत्नाकरः । [ ४०८ ] सिवा संमर्दयेत्तावद्वस्त्रान्निर्याति सत्वरम् । निर्धूमाङ्गारके वह लोहपात्रे घृताक्तके || तावच्च स्थाप्यते यावत्तैलाभो जायते रसः । प्रथमं कदली श्रेष्ठा ह्यलाभे पद्मिनी दलम् || तदलाभे नागवल्ली ह्येकस्य च दलद्वयम् । गोमयोपरि निक्षिप्ते पत्रे तं ढालयेद्रसम् ॥ पुनर्दत्वापरं पत्रं पत्रस्योपरि गोमयम् । रसं तं शीतलीभूतं खल्वे सूक्ष्मं हि पेपयेत् ॥ भृङ्गराजरसेनादौ दातव्याः सप्तभावना । आटरूषकपत्राणां स्वरसैः सप्तभावना || त्रिकटोर्वारिणा सप्त सप्तैवं त्रिफलाम्भसा । सप्तार्द्रक रसेनैवं सप्तपत्रकजैद्रवैः ॥ व्याघ्रीरसेन सप्तैव शिग्रुमूलरसेन च । वत्सनागविषेणैव श्रीखण्डेनैव सप्त च ॥ सशुष्कं च ततश्चूर्ण सूक्ष्मं सम्मर्दयेदृढम् । प्रक्षिपेत्कूप्यके चूर्ण सम्भिन्नाञ्जनसन्निभम् ॥ ताम्रपर्पटि संज्ञोयं रसश्च परिकीर्त्तितः । रोगिणे प्रत्यहं देयो वलयुग्मो जलान्वितः । त्रिभिर्दिनैर्ज्वरो याति श्लेष्मवातादिसम्भवः । वातरक्ते जीर्णेषु ग्रहण्यां कुष्ठरोगिषु || मासैकेन निहन्त्याशु रोगानेतान्सुदारुणान् ॥ शुद्ध पारा और गन्धक २॥ -२ ॥ तोले तथा ताम्र भस्म १। तोला लेकर सबको खरल में घोटकर इतनी महीन कज्जली तैयार कीजिये कि जो कपड़ेमेंसे आसानी के साथ छन सके फिर एक लोहे के पात्रको घी चुपड़कर धूम्ररहित आगपर रखकर उसमें यह कजली डाल दीजिये । जब वह पिघल कर तेलके समान हो जाय तो भूमिपर गायका ताजा गोबर बिछाकर उसपर केलेका पत्ता रख Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तकारादि दीजिये और उसके ऊपर उपरोक्त पिघली हुई कजलीको हाल कर उसके ऊपर दूसरा पत्ता रखकर उसपर पुन: गोबर डाल दीजिये । यदि केला न मिल सके तो कमलिनीका पत्ता और यदि वह भी न मिले तो नागरवेल्के पानोंसे काम चला लेना चाहिये । जब औषध स्वांगशीतल हो जाय तो उसे सावधानी पूर्वक निकालकर अत्यन्त महीन पीसकर भंगरे के रस, बासे (असे) के पत्तोंके रम त्रिकुटा और त्रिफले के काथ, अद्रक के रस, तेजपातके काथ, कटेली और संहजनेकी जड़की छालके रस तथा बछनाग विष और सफेद चन्दनके काथकी सात सात भावना देकर सुखाकर अत्यन्त महीन पीसकर रखिये । इसे ६ रत्तीकी मात्रानुसार पानीके साथ सेवन करने से कफज और वातज ज्वर तीन ही दिनमें नष्ट हो जाता है । तथा वातरक्त, अजीर्ण, ग्रहणी और कुछ रोग १ मास तक सेवन करने से नष्ट हो जाते हैं। (नोट-भूमी पर गोबर इतना बिछाना चाहिये कि जिससे : ४ - ५ अंगुल मोटी शिला सी बन जाय; और उसे चौरस करके उसके धरातलको समान करदेना चाहिये । इस पर पिघली हुई कज्जली बहुत फुरतीसे डालनी चाहिये क्यों कि देर लगासे कजली जम जाती है और फिर पर्पटी अच्छी नहीं बनती। यह भी ध्यान रखना चाहिये कि सम्पूर्ण कज्जली एकही स्थानमें न डाल कर समस्त पत्र पर फैला कर डाली जाय; और उस पर तुरन्त ही दूसरा पत्ता ढककर गोबर फैला दिया जाय ।) For Private And Personal Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसप्रकरणम् ] www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । (२५६९) ताम्रपर्पटी (बृ. नि. र. यो. र. र. चं. | कास. ) मृतं ताम्र त्रिभागं च रसं गन्धं च तत्समम् । भागमेकं वत्सनाभं कज्जलीं खल्वमध्यगाम् || गोघृतेन कृतं कल्क लोहपात्रे विपाचयेत् । ढाल दर्कपत्रस्थां पर्पटी रससिद्धये ॥ गुञ्जाद्वयं त्रयं चैव पिप्पलीमधुसंयुतम् । त्रिसप्तरात्र योगेन रोगराजं च नाशयेत् ॥ आर्द्रस्य रसेनैव सन्निपातं नियच्छति । त्रिफलारससंयुक्ता सर्व पाण्डुं विनाशयेत् ॥ वातारितैलसंयुक्ता सर्वशूलनिवारिणीम् । कुमारीरसयोगेन वातपित्तोपशान्तिकृत् ॥ वाकुचीरससंयुक्ता सर्वदविनाशिनी । त्रिफलामधुसंयुक्ता सर्वमेह निवारिणी ॥ खदिरकाथपानेन कुष्ठाष्टादशनाशिनी । मन्थानभैरवेणोक्ता लोकानां हितकाम्यया ।। ताम्र भस्म, शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक ३- ३ भाग तथा शुद्ध वछनाग विष (मीठा तेलिया) १ भाग लेकर सबको घोटकर महीन कजली बना लीजिये फिर उसमें थोड़ासा गोघृत मिलाकर लुगदी बना लीजिये और उसे लोहपात्रमें निर्धूम अग्नि पर पिघला कर भूमि पर गोबर बिछाकर उस पर आक के पत्ते फैलाकर उनपर ढाल दीजिये और तुरन्त ही उसके ऊपर पुनः आकके पत्ते बिछाकर उनपर ताजा गोबर फैला दीजिये । स्वांग शीतल होने पर औषधको निकालकर अत्यन्त महीन पीसकर रक्खें । इसे २ - ३ रत्तीकी मात्रानुसार पीपल के चूर्ण भा० ५२ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०९ ] और शहद के साथ ३ सप्ताह तक सेवन कराने से राजयक्ष्मा रोग नष्ट हो जाता है । इसे अद्रकके रसके साथ देनेसे सन्निपात ज्वर, त्रिफला काथ साथ देनेसे हर प्रकारका पाण्डु: अरण्डके तैलके साथ देनेसे सर्व प्रकार के शूल, घृतकुमारी ( कुंवार पाठा) के रसके साथ देने से वातज तथा पित्तज रोग, बाबचीके रससे दाद, त्रिफला चूर्ण और शहद से प्रमेह तथा खैरके काथ के साथ देने १८ प्रकारके कुछ नष्ट होते हैं । (२५७०) ताम्रपर्पटी ( र. र.; धन्वं । वाजी.; र. का. धे । कास. ) रसगन्धकताम्राणां चूर्ण कृत्वा समांशिकम् । पुटपाकविध पक्वा मधुनालोड्य संलिहेत् ॥ सर्वरोगहरं चैतत्पर्पटाख्यं रसायनम् ॥ पारा, गन्धक और ताम्र भस्म समान भागलेकर कजली करके उसे लोहे के पात्र में जरासे घीके साथ निर्धूम अग्नि पर पिघलाकर पर्पटी बनाइये और फिर उसे सम्पुट में बन्द करके लघु पुट लगा दीजिए। ( पुट में अग्नि बहुत ही हल्की होनी चाहिये) इसे शहद के साथ सेवन करने से समस्त रोग नष्ट होते हैं । ( मात्रा - २ - ३ रत्ती | ) (२५७१) ताम्र भस्मनिरुत्थीकरणम् ( रसायनसार ) art frerrari ब्रवीमि ताम्रस्य यत्स्यादखिलो गुणोऽस्य । मित्रैः पुरःपञ्चमिरुत्थितं तद्भस्म प्रकुर्यात्परिमट्टनेन ॥ १ ॥ For Private And Personal Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि स्नुगर्कयोनूतनशुद्धदुग्धे उत्थास्नुधातोश्च निरुत्थधातोचक्रीं च तामातपसंविशुष्काम् । निषेवणे चापि निदर्शनं तत् ।। पुटे गजाख्ये विनिधाय वह्नि अर्थ-अब मैं ताम्रभस्मकी निरुत्थीकरणदद्याच्च शीतां तु समुद्धरेत्ताम् ॥२॥ क्रिया बतलाता हूं, जिससे ताम्रभस्म सम्पूर्ण गुणस्नुह्यास्तथास्य च दुग्धयोस्तां युक्त हो । जब मित्र-पञ्चकके साथ ताम्रभस्मको विघय सम्यक प्रपचेत् पुरोवत् । घोटकर अग्निमें देने पर ताम्रको कान्ति कुछ मालूम एकद्वियोगोऽयमुदीरितो वः । पड़ने लगे तब फिर मन्दार वा थूहरके दृधमें कुर्यादितीत्थं खलु पञ्चकृत्वः ।।३।। धोटकर तानभस्मकी टिकिया बनाले जब टिकिया एवं कृते सत्यपि यत्कथञ्चि धूपमें खूब मूख जाय तब फिर सम्पुटमें रख कर द्भवेत्प्रकाशो लघुताम्रकान्तेः। गजपुटमें देकर भस्म करले । जब स्वाङ्ग शीतल तदा द्विवारं पुनरित्थमेव हो जाय तब निकालले, इसी प्रकार मित्रपञ्चकसे कृर्यानिरुत्थीकरणं ह्यवश्यम् ।। ४ ।। जिला जिला कर पांच बार मारण करे । ऐसा करने पर भी मित्र--पञ्चकमें घोट कर सम्पुट में अर्कस्नुहीदुग्धयुगस्य यत्र लाभो न सम्यग्यदि तत्र वैद्यः । रखकर गजपुट देनेसे कुछ कुछ यदि ताम्रकी झलक मालम हो तो फिरभी दो बार उक्त प्रकारसे मित्रोत्थितं तच सुगन्धकेन कन्याद्रवैःपूर्ववदेव कुर्यात् ।। जरूर भस्म करले । यदि मन्दार वा थूहरका दूध नहीं मिले तो शुद्र गन्धक व घृतकुमारीके रसके यथा विदग्धं नहि पच्यतेन-- साथ तात्रभस्मको धोटकर पूर्ववत् निरुत्थीकरण मौदर्यवह्रौ न च तत्समस्तम् । करले ।। ५ ॥ निरुत्थीकरण करनेका तात्पर्य यह स्वीयं गुणं भुक्तवतः प्रदद्यादु है कि जैसे अधपका अन्न जठराग्निमें नहीं पचकर स्थास्नवो धातव एवमेव ॥ खानेवालेको पूरा फायदा नहीं करता है इसी प्रकार यूनानवैद्यश्च तथाऽऽयवैयः जिनका निरुत्थी-करण संस्कार नहीं हुआहै, वे परस्परं सङ्गिरतेस्म कामम् । धातु भी अपना पूर्ण गुण नहीं करते हैं ॥६॥ सुवर्णपत्राणि निषेवितानि इस विषयको पुष्ट करनेवाला दृष्टान्त यह है-किसी स्वर्णस्य पत्राणि तु मासमात्रम् ।। हकीम का मत था कि स्वर्णगर्भपोटली इत्यादि तदा वैयेन तदीयविष्ठा रसों में अथवा काल सुवर्णसेवन में सोने के तबक संग्राहिता चाथ सुदाहिता च । देने चाहिएं; और वैयका मत था कि केवल पदाहितायामथतत्र तेन सुवर्ण जठरा.में नहीं पचेगा अतः उसको भस्म स्वर्ण परिक्षालनतोऽवकृष्टम् ।' देनी चाहिए । दोनोंका विवाद बने पर वैद्यने For Private And Personal Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भाग। [४११] एक आदमीको हकीमजीके कहने के मुताबिक एक फिर इस ताम्रसे २ गुनी कृष्णाभ्रक भस्म और महीने तक सुवर्ण के तबक खिलाये. और उस आधा आधा भाग पारद (रससिन्दूर), पीपल, मरिच आदमीकी विष्टा प्रतिदिन एकट्ठी कराई, जब विष्टा | और विडङ्गका महीन चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह सूख गई तब उसको जलाकर पानीमें धोकर सुवर्ण खरल करें । निकाल लिया और हकीमजीको अपना पक्ष छोड़ना इसे २ मापेकी मात्रानसार सेवन करनेसे पड़ा । इस कारण वैद्योंसे हमारी प्रार्थना है कि शूल, अम्लपित्त, शोथ, ग्रहणी और यक्ष्मादि रोग यदि पूर्ण फल चाहते हो तो जहां पर शास्त्र में नष्ट होते हैं। इसपर किसी विशेष परहेज़की किसी रस प्रयोगमें सुवर्ण देना लिखा हो वहां आवश्यकता नहीं है। उसकी भस्म ही डाला करें। यद्यपि शास्त्रोक्त रीति से शुद्र किए हुए धातुके देनेपर भी अपकार नहीं __(नोट--ताम्रपत्रोंको घृतकुमारीके रसमें २० बार बुझानेके पश्चात् उसीके रसमें घोटकर पुटद्वारा होगा। किन्तु अल्प गुण होगा। (रसा० सा० ) भस्म कर लेना उचित प्रतीत होता है। व्यवहा(२५७२) तात्रभस्मप्रयोगः (१) रिक मात्रा ४-५ रत्ती ।) (र. र. स. । उत्तरखं. । अ. १३) पक्कताने रसः पिष्टो बलिना हिध्मिनां हितः॥ (२५७४) ताम्रभस्मप्रयोगः (३) पारा, गन्धक और ताम्रभस्मको एकत्र धोट (र. चिं. म. । स्तव. ४ ) कर सेवन करानेसे हिचकी (हिका) रोग नष्ट विशद्भागमित तानं सूक्ष्म भागत्रयं शिला । होता है। ताम्रतुल्यानि गृह्णीयाद्भव्यभल्लातकानि च ॥ - (मात्रा-२-३ रत्ती । अनुपान अद्रकका रस।) तानि संकुट्टयित्वाथ शिलातानं विमिश्रयेत् । (२५७३) ताम्रभस्मप्रयोगः (२) द्विगुणं गन्धकं दत्त्वा सम्पुटे तत्परिक्षिपेत् ।। (रसे. चिं. म. । अ. ८) हण्डिकायन्त्रमध्यस्थं पञ्चयामावधिर्हि तत् । कन्यातोये ताम्रपत्रं सुतप्तं कृत्वा वारान् विंशति तावचुल्ल्युपरि क्षिप्त्वा वह्नि चाधः प्रदापयेत् ।। प्रक्षिपेत्तत् । । अवतार्य स्वयं शीतं तत्तानं मृतमुत्तमम् ।। रसतस्तानं द्विगुणं ताम्रात् कृष्णाभ्रकं द्विगुणम्।। पिप्लीनां रसेनादौ चिश्चिकास्वरसेन च ॥ एतत् सिद्धं त्रितयं चूर्णितताम्राधिकैः पृथग्युक्तम्। वदर्याः स्वरसेनापि कन्यकाया रसेन तत् । पिप्पलीविडङ्गमरिचैः श्लक्ष्णं द्वैमाषिकं योज्यम्। भावनाश्च पुटं दत्त्वा प्रत्येकेन च पञ्च च ॥ शूलाम्लपित्तशोथग्रहणीयक्ष्मादिकुक्षिरोगेषु। ततः सूक्ष्म विचूाथ तत्तानं योग्यमात्रया। रसायनं महदेतत् परिहारो नियमितो नात्र ॥ पिप्पल्या सह तदद्यान्माषमात्र भिषग्वरः॥ तांबेके बारीक पत्रोंको अहि.में तपा तपा कर तदेतद्रेचयेत्सम्यग् यावदामावधिर्भवेत् ।। बीस बार घीकुमार (ग्वारपाठा) के रसमें बुझावें नैव मूर्छा न च क्लेदोवान्तिभ्रान्तिन विद्यते॥ For Private And Personal Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि - - शुद्ध ताम्र २० भाग, शुद्ध मंसिल ३ भाग, पल गन्धककी कजलीको पौन पल (३॥ तोले) और कुटेहुवे भिलावे २० भाग तथा गन्धक ४० नीबूके रसमें घोट कर लेप करदें और अन्धमूषामें भाग लेकर सबको एकत्र कूटले; और उसे सम्पुट बन्द करके लघुपुटमें फूंक दें, इसी प्रकार ५ पुट दें। में बन्द करके हण्डिकायन्त्र (बालुका यन्त्र) में इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार घी और शहदमें ५ पहरकी अग्नि दें । तत्पश्चात् हण्डीके स्वांग- मिलाकर चाटनेसे सर्व प्रकारके भगन्दर और व्रण शीतल होने पर उसमेंसे भस्मीभृत ताम्रको निकाल । (घाव) नष्ट होते हैं। लें और पीपलके काथ, इमलीके पत्तोंके स्वरस, : (२५७६) ताम्रभस्मप्रयोगः ( २ ) बेरीके पत्तोंके स्वरस और घृतकुमारीके रसमेंसे (भा. प्र. । ख. २ मूर्छा.) प्रत्येकमें घोट घोटकर ५-५ पुट (कुल मिलाकर तानं दुरालभाकाथैः पीतन्तु घृतसंयुतम् । २० पुट) दें और फिर पीसकर रख लें। - निवारयेदभ्रमं शीघ्रं तं यथा शम्भुभाषितम् ।। इसमेंसे १ माषा या न्यूनाधिक मात्रानुसार ताम्र भस्मको घीमें मिलाकर चाटकर ऊपरसे पीपलके चूर्णके साथ खिलानेसे समस्त आम निकल | धमासेका काथ पीनेसे भ्रमका अत्यन्त शीघ्र नाश जाने तक विरेचन होता रहता है और मूर्छा, हो जाता है। वमन, भ्रान्ति आदि नहीं होती। (२५७७) ताम्रभस्मयोगः ( ६ ) (अनुपान-उष्ण जल या त्रिफला काथ।) (र. का. थे. । कुष्ठ.) (२५७५) ताम्रभस्मप्रयोगः (४) तानं मृतमपामार्गक्षारञ्च क्षारकद्वयम् । (भै. र. । भगन्दरा.) समं गुञ्जाद्वयं प्रातः प्रातर्नित्यं निषेवयेत् ।। ताम्रपत्रं रवेः क्षीरे निर्गुण्डीस्वरसे तथा । मध्याह्नभोजनात्पूर्व सायमेव द्वयं भवेत् । त्रिकण्टजे स्नुहीरसे तानं दग्ध्वा क्षिपेत्ततः॥ औदुम्बरे महाकुष्ठे साध्यासाध्येपि निश्चितम् ।। रसस्या पलं शुद्धं गन्धकस्य पलं तथा। सप्तसप्तकमध्ये तदवश्यं नाशयेदपि । कज्जल्यर्द्धन जम्बीरप्लुतेन ताम्रतः पलम् ॥ मांसं न भक्षयेन्नूनं न मत्स्य क्षीरमेव च ॥ परिक्षिप्यान्धमूपायां दद्यात्पञ्चपुटालंघून् । अन्यद्वस्तु न चाश्नीयाद्विदाही न गुरूदकम् ॥ सम्मयं मधुसर्पिभ्यो ततो रक्तिमितं लिहेत् ॥ ताम्रभस्म, अपामार्ग ( चिरचिटे )का क्षार, भगन्दरे सर्वभवे कार्य सर्वत्रणेषु च ॥ जवाखार और सज्जीखार ( सोडा ) समान भाग तांबेके बारीक पत्रोंको अग्निमें तपा तपा कर लेकर एकत्र खरल करा लीजिए । सात सात बार आकके दूध, संभालुके रस, गोखरु- इसमेंसे प्रतिदिन प्रातःकाल तथा दोपहरको के रस या काथ, तथा सेंड (थूहर) के रसमें । और शामको भोजनसे पहिले २ रत्ती की मात्रानुसार बझाइये: फिर १ पल (५ तोले) यह शुद्ध ताम्र सेवन करनेसे ४९ दिनमें साध्य अथवा असाध्य पत्र लें और उनपर आधा पल पारद और एक | औदुम्बर महाकुष्टको अवश्य आराम हो जाता है। For Private And Personal Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः । (४१३ ] इसपर दुग्धाहार करना चाहिये और मांस, (२५८१) ताम्र भस्मविधिः (१) मछली तथा विदाही पदार्थ और भारी पानीसे (वैद्यामृत. । विषय १० श्लो. १७-१८) परहेज़ करना चाहिये। तानं कशानौ सलिलं विधाय (२५७८) ताम्रभस्मयोगः (७)(र.रा.मुं.। ज्वरा) निर्वापयेल्लोणिरसे त्रिवारम् । मृतं तानं च मरिचं लवङ्गं कुङ्कुमं कणा। उपर्यधस्तस्य पटु प्रदत्वा भार्गी समांशचूणे स्यानागवल्लीदलान्वितम् ॥ पुटं प्रदद्याच्च भवेत् सुभस्म ॥१७॥ माषैकं सार्द्धमाष वा कफव्याधिविनाशनम् ।। कासातुराय श्वसनातुराय ____ ताम्रभस्म, कृष्ण मरिच, लौंग, केसर, हितं तदेतन्मगधामधुभ्याम् । पीपल और भार्गीका चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र यथा तृषार्ताय सुगन्धशीतं खरल कर लीजिये। चकोरनेत्राकरदत्तमम्भः ॥१८॥ इसमेंसे १ या १॥ माषा चूर्ण पानमें रख- तांबेको अग्निमें गला गलाकर तीन बार कर खानेसे कफज वर नष्ट होते हैं । | लोणीके रसमें बुझाइये । अब इसे सेंधा नमकके (२५७९) ताम्रभस्मयोगः (८) चूर्णके बीचमें रखकर सम्पुट करके गजपुटमें ( र. चं. । मूर्छा; भा. प्र. । ख. २ मूर्छा.) फूंकनेसे उत्तम भस्म बन जायगी। ताम्रचूर्ण समोशी केसरं शीतवारिणा।। इसे पीपलके चूर्ण और शहद के साथ चाटनेसे पीतं मूच्छी द्रुतं हन्याद् वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा॥ खांसी और स्वासका नाश होता है। ताम्रभस्म, खस और केसरका समान भाग । (नोट-यदि एक पुटमें भस्म न हो तो चूर्ण एकत्र खरल कराके रखिये। पुनः इसी प्रकार पुट लगानी चाहिये ) इसे ३-४ रत्तीकी मात्रानुसार शीतल जलके । (२५८२) ताम्रभस्मविधिः (२-४ ) साथ पीनेसे मूर्छा अत्यन्त शीघ्र जाती रहती है। (र. र. स. । पू. ख. अ. ५; र. मञ्जरी. अ. ५) (२५८०) ताम्रभस्मयोगः (९) जम्बीररससंपिष्टरसगन्धकलेपितम् । ( र. चिं. म. । अ, ९: र.का.धे.। अधि. २२) शुल्वपत्रं शरावस्थं त्रिपुटैाति पश्चताम् । केवलं जारितं तानं शृङ्गवेररसैः सह । द्विगुजं भक्षयेत्पातः सर्वगुल्मोदरापहम् ॥ । अथवा मारितं तानं ह्यम्लेनैकेन मर्दितम् । केवल ताम्रभस्मको २ रत्तीकी मात्रानुसार । तद्गोलं मरणस्यान्तं रुध्या सर्वत्र लेपयेत् ।। अदरकके रसके साथ प्रातःकाल सेवन करनेसे शुष्कं गजपुटे पच्यात्सर्वदोषहरं भवेत् । समस्त प्रकारके उदररो7 और गुल्म नष्ट होते हैं। वान्ति भ्रान्ति विरेकश्च न करोति कदाचन ॥ For Private And Personal Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४१४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि - - - vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv...nvvvvvv.- - ..-- - - - - ..'.vvvvvvvvvvvvvvvvvvv, ताम्रपत्राणि सूक्ष्माणि गोमूत्रे पश्चयामकम् । करके उस पर १ अंगुल मोटा मिट्टीका लेप कर शिवा रसेन भाण्डे तद्विगुणं देहि गन्धकम् ।। दीजिये और सुखाकर गजपुटमें फूंक दीजिये। अम्लपर्णी प्रपिष्ट्वाथ ह्याभेतो देहि ताम्रके। जब गोला स्वांग शीतल हो जाय तो उसके सम्यङ् निरुध्य भाण्डे तममिं ज्वालय यामकम् ॥ भीतरसे तात्रभस्मको सावधानी पूर्वक निकालकर भस्मी भवति तानं तद्यथेष्ट विनियोजयेत् । पीसकर रखिये । यह भस्म वमन, भ्रान्ति और सूताद्विगुणितं ताम्रपत्रं कन्यारसैप्लतम् ॥ विरेकादि ताम्रदोषोंसे मुक्त होती है । पिष्ट्वा तुल्येन बलिना भाण्डमध्ये विनिक्षिपेत् । प्रथम तात्रके बारीक पत्रोंको ५ पहर तक छन्नं शरावकेणैतत्तदूर्घ लवणं त्यजेत् ॥ दोलायन्त्र विविसे गोमूत्र में पकाइये फिर १ भाग मुखे शरावकं दत्वा वह्नि यामचतुष्टयम् । पारद और २ भाग गन्धककी कज ठीको अम्लपर्णी अवचूर्येव तच्छुल्वं वल्लमात्र प्रयोजयेत् ॥ के रसमें घोट कर कजलीके बराबर उपरोक्त ताम्रपिप्पलीमधुना साधे सर्वरोगेषु योजयेत् ।। पत्रों पर लेप कर दीजिये और इ हें एक हाण्डीमें श्वासं कासं क्षयं पाण्डं अग्निमान्धमरोचकम् ॥ रखकर शराबसे ढक दीजिए तथा सन्धिको गुड़ गुल्मप्लीहयकृन्मूर्छाशूलं च पक्तिसंज्ञकम् ।। चूनेसे बन्द करके हाण्डीमें रेत भर दीजिये और दोषत्रयसमुद्भतानामयाञ्जयति ध्रुवम् ॥ फिर उसे भट्टीपर चढ़ाकर एक पहरकी अग्नि रोगानुपानसहितं जयेद्धातुगतं ज्वरम् ।। दीजिये । जब हाण्डी स्वांग शीतल हो जाय तो रसे रसायने ताम्र योजयेयुक्तमात्रया ॥ उसके भीतरसे ताम्रको निकालकर पिसवाकर रख ५ तोले पारद और ५ तोले गन्धककी लीजिये । इस प्रकार उत्तम भस्म बन जाती है। कजली करके नीबूके रस में धोटकर उसे १० तोले शुद्ध ताम्रके बारीक पत्रोंपर लेप कर दीजिये और १ भाग पारद और १ भाग गन्धककी उन्हें दो शरावोंमें सम्पुट करके गजपुटकी अग्नि | कजलीको घृतकुमारी ( ग्वारपाठा )के रसमें घोटदीजिये । इसी प्रकार ३ पुट देनेसे तानकी भस्म कर २ भाग शुद्ध ताम्रपत्रोंपर लेप करके इन्हें हो जाती है । अब इस भस्मको नीबूके रस हा में रखिये और शरावसे ढककर जोड़को अथवा अन्य किसी अम्ल रसमें घोटकर गोला गुड़ चूनेसे बन्द करके हाण्डी में मुंह तक सेंधा बनाइये और उसे सुखाकर उसके ऊपर सूरण नमकका चूर्ण भर दीजिये और हाण्डीके मुखपर ( जमीकंद )को पीसकर ३-४ अंगुल मोटा लेप शराव ढककर उस पर ३-४ कपड़मिट्टी कर कर दीजिये अथवा जिमी कन्दको भीतरसे खाली दीजिये तथा सुखाकर भट्टीपर चढ़ाकर ४ पहरकी करके उसके भीतर ताम्रभस्मके गोलेको रखकर अग्नि दीजिये । जब हाण्डी म्वांगशीतल हो उसके मुखको जिमीकन्दके ही टुक से बन्द कर | जाय तो उसके भीतरसे तात्र भम्मको निकालकर दीजिये और उसके ऊपर ३-४ कपरमिट्टी । पीस कर रखिये । For Private And Personal Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ४१५] इस भस्मको ३ रत्तीको मात्रानुसार सेवन हिङ्गुलोत्थ पारद मिलाकर ताम्बेके आधे नीम्बूके करानेसे श्वास, खांसी, क्षय, पाण्डु, अग्निमांद्य, रसमें धोटें । जब तीन पहर घोटले, तब सायङ्काल अरुचि, गुल्म, मूर्छा, तिल्ली, जिगर पक्तिशूल को बहुत होशियारीके साथ (जिसमें पारद पानीके और धातुगत ज्वर नष्ट होते हैं । साथ खरलसे बाहर न गिर जाय) जलसे धो डाले। (२५८३) ताम्रभस्मविधिः ( ५ ) ऐसा धोना चाहिए कि जिसमें नीम्बूकी खटाई ( रसायनसार.) बिल्कुल निकल जाय । बाद दूसरा नीम्बूका रस इत्युक्तरीत्या सुविशुद्धताम्र डालकर रात्रिभर रखदे, प्रातःकाल फिर तीन पहर पत्राणि खण्डानि विधाय कामम् । धोटे । इस प्रकार कमसे कम तीन दिन धोटे । तेषां समानं खलु हिङ्गलोत्थं फिर ताम्बे वो पारदके तुल्य शुद्ध की हुई आमला रसं समादाय च मर्दयेत ।। सार गन्धक डालकर कजली बनावे । उस कजली ताम्रार्द्धमानेन च निम्बुनीरं को कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरकर विनिक्षिपेन्मर्दनकाल एव । रससिन्दूरको विधिसे पकावे । यह स्मरण रहे यामत्रयं प्रत्यहमाविमर्थ कि जिस शीशीमें ४ सेर कजली आ सके नैम्बूकनीरच नवम्पदेयम् ॥ उसमें एक सेर कजली भरनी चाहिए; प्रयत्नतैश्चैव जलेन सायं अर्थात् पावभर ताम्र, पावभर पारद, आधा सेर प्रक्षालनीयं खलु ताम्रपत्रम् । | गन्धक इन तीनों चीजोंकी बनी हुई कजली (एक यथा न सूतस्तु परिसूतः स्यान्न सेर ) शीशीमें भरकर चार अहोरात्रकी अग्नि दे। चाम्लयोगः परिशेषितः स्यात् ।। ऐसा करनेसे स्वाङ्गशीतल होनेपर शीशीके तल ताभ्यां समश्च विशुद्धगन्ध भागमें पावभर ताम्रभस्म मिलेगी और गले में कुछ मावाप्य कार्या खलु कज्जली सा। कम पावभर रस सिन्दूर मिलेगा। बस, अब क्या ता काचकुप्यां शनकैनिधाय | चाहते हो ? रस सिन्दूर बनानेके लिए शीशी सिन्दूरयुक्त्या प्रपचेत् वैद्यः ॥ चढ़ानी ही पड़ती सो इस प्रकार करनेसे रस तले च तिष्ठेदिह ताम्रभस्म सिन्दूर भी बन गया और ताम्रभस्म मुफ्तमें मिल गले च सिन्दरसो विलयः। गई तो “ एक पन्थ दो काज" यह कहावत चरितार्थ हो गई । वैद्य लोग ताम्बेमें पारदको इस मत्यक्षिता ऽनेन हि किम्बदन्ति कारण नहीं दिया करते हैं कि गजपुटमें देनेसे एका क्रिया द्वयर्थफरी प्रसिद्धा ॥ पारा उड़ जायगा तो नुक्सान होगा, वह भय ताम्रभस्मविधिः अब नहीं करना चाहिये । क्यों कि पारदके अर्थ--पूर्वोक्त रीतिसे शुद्ध किये हुए तान- | योगसे ताम्रभस्म भी अच्छी बन जाती है, और पत्रों के छोटे छोटे टुकड़े बनाकर उनके समान | सिन्दूर रस भी तैयार हो जाता है ।५।। (र०सा०) For Private And Personal Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४१६ ] भारत-भपज्य-रत्नाकरः [तकारादि (२५८४) ताम्रभस्मविधिः ( ६ ) की राख, सैन्धवनोन इन तीनोंको खूब पीसकर ( रसायनसार; र. प्र. सु. । अ. ४) पानांमें सानकर मुद्रा करदे । पश्चात् उसपर ताम्रस्य तुल्यं तु विशुद्धगन्धं उस कीचड़ में सने हुए कपड़ेसे सात कपडोटी चूर्णीकृतं मृत्स्नितहण्डिकायाम् । करदे, खूब सूख जाने पर रोटी बनाने वाले चूल्हे तले प्रपूर्योपरि शुद्धतानं पर रखकर क्रमसे मन्द मध्यम वो तीन आँच निधाय तस्योपरि तावदेव ।। चार पहर दे । शरावके छिद्रद्वाग धुंआ बराबर गन्धस्य चूर्ण पुनरावपेच्च निकलता रहेगा, यदि तीन पहरमें धुंवा निकलना शरावमस्याश्च मुखे पिदध्यात् । बन्द हो जाय तो भी एक पहर और आँच दे। शरावमध्ये विदधीत रन्ध्र यदि चार पहरमें भी घंआ निकलना बन्द न हो प्रवेशयोग्यं बदरीफलस्थ ॥ तो एक पहर और खूब तेज़ आँच दे । जब स्वांग शीतल ( अपने आप ठण्डा ) हो जाय मृद्भस्मसिन्धूद्भवमुद्रया तत् तब मुद्राको खोलकर हाँडीके तल भागमें जमी पिधानमावेष्टय च सप्तकृत्त्वः । हुई ताम्रभस्मको निकाल ले । इस भस्ममें भी चुल्यां चतुर्याममिदं पचेत वान्ति भ्रान्ति आदि दोष कुछ नहीं है । जिस क्रमेण तापैर्मुदुमध्यतीत्रैः ।। । योगमें ताम्रभस्म डालना लिखा हो उसमें इस स्वाङ्ग शीते च सञ्जाते ताम्रभस्मको निशङ्क डाल सकते हैं। प्रथम जो ___ ताम्रभस्म प्रशस्यते। ताम्रभस्म प्रकार लिखा है उस प्रकारसे नैपाली सर्वयोगेषु धीमद्भि तांमा या तूतियासे निकाला हुआ तामामेसे कोईकी ान्तिभ्रान्तिवियुक्तियुत् ॥ भस्म कर सक्ते हैं और जो ग्रन्थों में ताम्रप्रयोग अर्थ--शुद्ध तूतियाका तामा अथवा नैपाली लिग्वे हैं उन योगोंमें नैपाली तामेकी भस्म अथवा तामा आध सेर और शुद्ध आमला सार गन्धक : तूतिया के तामेकी भस्म दोनोमें से कोईभी ले सकते आधसेर ले । गन्धकको खूब पीसकर तीन कपर हैं ।। ( रसायनसारसे उदृत् ) मिट्टी की हुई चिकनी हांडीमें पावभर गन्धकका । ( नोट---रस प्रकाश सुधाकरमें केवल वर्ण रखकर ऊपर आधसेर ताम्रपत्र रखकर पश्चात ३ पहरकी अग्नि देने के लिये लिखा है और बचे हुवे पावभर गन्धकके चूर्णको रखकर ताम्र- हाण्डीके ढकनमें छिद्र करनेके लिये नहीं लिखा। पत्रको ढाँक दे । उस हांडीके मुखको एक शराव शेष प्रयोग समान है।) ( सिकोरा-ढकना )से ढॉक दे । उस शरावके (२५८५) ताम्रभस्मविधिः (७) (रसायनसार) बीचमें धुंवां निकलनेके लिए इतना बड़ा छिद्र त्रिसेटकोन्मानमितं विशुद्धं कर देना चाहिए कि जिसमें जङ्गली छोटा बेर | तुत्थोत्थतानं दततामुतापि । ( लाल बेर ) समा जाय । हांडीका मुख वो नैपालिकं शास्त्रविधानयोगैः गरावके मध्यमें चिकनी मिट्टी, उपला ( गोयठा) ! ___संशोधितं तैलमुखेषु मस्याम् ॥ For Private And Personal Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - - V/VVVVVVVVVVAVSHNUNN.." रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४१७] निष्पादितायां रसगन्धयोस्तत् __स्वाङ्गे शीतेऽथ सञ्जाते सार्दाधिकायामवधानचेताः। नन्दिकोड़तलं गतः। यन्त्रे द्वयोर्नान्दिकयोः कृते त रससिन्दूर नामा स्यात् स्योर्द्धस्थनान्यां विदधीत रन्ध्रम् ।। ताम्रभस्माप्यधस्तले ॥ छिद्रे वितस्त्यामितलम्बमानां श्यामसुन्दरवैश्येन सम्यगेतत्परीक्षितम् । ददीत नाली रसरोधनाय । विधातव्या न शङ्काऽत्र कर्मसिद्धौ भिषग्वरैः ।। निर्यासतूले ननु लोहभस्म अर्थ- तूतियाका तामां ( उक्तविधिसे शुद्ध __ . मृत्सामिति द्रव्यचतुष्टयश्च । किया हुआ ) अथवा तैलादि वर्गमें शुद्ध किया पानीय योगेन दिनद्वयं ज्ञः हुआ नैपालिक तामां तीन सेर ले । और डेढ कुट्टेत्तथा क्ष्लाक्ष्ण्यमियाद्यथा तत् । सेर शुद्ध पारा वो तीन सेर शुद्ध गन्धककी कजली अस्यैव कल्कस्य ददीत मुद्रां बनाले । फिर दो नाँदोंके ऊपर सात सात कपरनान्दीमुखे नालिमुखे च धीमान् ।। | मिट्टी करले । दोनों नाँदोंका मुख मिलाकर देखले सर्वार्थकाः खलु कोष्ठिकाया कि कहीं छिद्र न रह जाय; फिर ऊपरवाली नाँदके पेंदेमें इतना बड़ा छिद्र करदे कि जिसमें विशालचुल्ल्यां निदधीत यन्त्रम् । अंगुली जा सके उस छिद्रमें एक बिलांद लम्बी ताम्रस्य पत्रश्च मसीक्रमेण एक लोहेकी नली लगादे जो नाँदके अन्दर लट___ संस्थापिते यत्र ददीत वह्निम् ॥ कती रहे। इस नलीके लगानेका यह अभिप्राय है होरात्रयं मन्दमथ क्रमेण कि नाँदके पेंदेमें किए हुए छिद्रके द्वारा पारा मध्योत्तमौ चापि तथा विदध्यात् । बाहर न निकल जाय, किन्तु सिन्दूर रस बनकर यथोग्रवः परिताप एनद् नलीकी चारों तरफ नांदके पेंदेमें लगे । निचली न स्फोटयेनेत्रदिने ततोऽथ ॥ नांदमें पारद गन्धककी थोड़ीसी कजली रख कर पुनः पुनर्लोहशलाकयापि थोडासा ताम्रपत्र रखे फिर कज्जली रखकर थोडासा पश्यन् यदाऽवैति च जीर्णगन्धम् । ताम्रपत्र और रखे, फिर कजली दे पुनः ताम्रपत्र उत्तार्य चुल्ल्यां निदधीत यन्त्र रखे इस प्रकार क्रमसे साढ़े चार सेरऽ ४॥ कज्जली या प्रस्तरेङ्गालवती च कोष्ठी ॥ वो ३ सेर ताम्रपत्रोंको रखे और कज्जलीको हाथसे तस्याश्च गन्धस्य विपाचनाय खूब दबा दे । बाद उस नांदके ऊपर नली ताम्रस्य सम्यक् परिपाकहेतोः। .. लगाई हुई, दूसरी नांदको रख कर इन चीजोंके नालीं विहायोन्दपटेन नान्दी कल्ककी मुद्रा लगावे, पीपलका गोंद, रुई, लोहभस्म सम्यक् पिदध्यात्पुनरुन्दयेत । । (मुद्रा देनेको कान्तिसार या तीक्ष्ण लोहकी भस्मकी भा० ५३ For Private And Personal Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४१८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि जरुरत नहीं है किन्तु सर्वार्थकरी भ्राष्ट्रीमें जो ! चीजोंको पानीके योगसे दो दिन तक कूट कर लोह जालो रखी जाती है वही दो चार मासमें खूब चिकना कल्क बनावे, । इसी कल्क आँच खानेसे भस्मीभूत हो जाती है उसी को कूट की मुद्रा कर दे, और इसी कल्कसे नाँदके पेंदेंमें कर कपड़ेमें छानकर रख छोड़े अथवा लुहारोंके लगी हुई नलीके मुख परभी मुद्रा करदे । मुद्राके यहाँ जो लोह जलकर भस्मीभूत निकम्मे पड़े रहते | ऊपर सात कपरौटी करके खूब सुखादे; पश्चात् हैं उसीको ले ) और चिकनी मिट्टी, इन चारों | इस “नलिकाडमरुयन्त्र" को सर्वार्थकरीभ्राष्ट्री' १ सर्वार्थकरी भ्राष्ट्री-प्रथम पृथ्वीमें एक वृत्त (घेरा-कुण्डल) इतना बड़ा बनावें कि जिसमें डेढ़ हाथका डण्डा आ जाय । अब इसके बीच में एक बालिश्त (बिलांद) गढ़ा खोदे और उसमें पानी डालकर मट्टीको खूब कूटकर पक्का करदें। इसके पश्चात् इस गढ़ेके किनारेसे भट्टीकी दिवार कच्ची ईटोंसे बनाना शुरु करें, जब अठारह अंगुल ऊंची भीत बन जाय तो उसपर चारों ओर लोहेके एक एक हाथ लम्बे चार डण्डे रखदे और उनके ऊपर १० अंगुल भीत और बनादे । लोहेके उण्डे इस प्रकार लगाने चाहिये कि आवश्यकतानुसार बाहर निकाले या भीतर घुसाए जा सकें । भीतको इस प्रकार बनाना चाहिये कि जिससे अन्तमें उसके ऊपर २२ अंगुल चौड़ी लोहजाली आ सके भीतके नीचेके भागमें १-१ बिलांद लम्बे चौड़े दो दरवाजे बनाने चाहिये । भट्टीके अन्दर एक हाथ लम्बी लोहेकी नली भी लगानी चाहिये इस नलीका एक सिरा भट्टीके ऊपर जाकर निकलेगा और दूसरा भट्टीके भीतर । भट्टीके भीतरवाला सिरा (मुख) इतना बड़ा होना चाहिये किं जिसमें मुट्ठी घुस सके और ऊपरवाला सिरा ३ अंगुल चौड़ा होना चाहिये । यह नली नीचेसे ऊपरको सीधी नहीं बल्कि कुछ आड़ी करके लगानी चाहिये । इसके नीचेवाले मुवमें अमिकी लपटें घुसेगी और ऊपरवाले मुखसे बाहर निकलेंगी । यह भट्टी इतनी उपयोगी है कि इस पर आयुर्वेदको सभी औषधे सुगमतापूर्वक बन सकती हैं । उपयोग-१-यदि किसी औषधके सम्पुटको तीवामि देनी हो तो भट्टीके बीचमें लगे हुवे लोहेके डण्डोंको छः छः अंगुल भीतके बाहर (भट्टीके अन्दर ) निकालकर उन पर लोहजाली रख दीजिये ( जैसा लोहेकी अंगीठियों या दम चूल्हेमें होती है ।) इस जालीपर सम्पुट रखकर उसके चारों ओर पत्थरके या लकड़ीके पक्के कोयले भरकर भट्टीके नीचे के भागमें आग लगाइये । २-- हरितालादिकी भस्म बनानेके लिये भट्टीके ऊपर एक बड़ासा लोहेका चूल्हा रखकर उसपर यन्त्रको रखना चाहिये । बीचवाली जालीपर सम्पुट भी पकता रहे तो कोई हर्ज नहीं है । ३--धात्वादि शोधनके लिए भट्टीके दरवाजाके बीच में एक तीसरा दरवाजा भी रख लेना चाहिये कि जिसके भीतर लोहेका करछा घुसाया जा सके कि जिसमें धात्वादि डालार तपाई जा सके । ४--गजपुट देना हो तो--लोह जालीको निकाल कर और लोहेके डण्डोंको भीतर घुसाकर महीके मध्यमें सम्पुट रखदं और ऊपर नीचे उपले भरकर आंच दें तथा दरबाजे बन्द करदें । ( शेष भाग पृ. ४१९ के नीचे दोखए) For Private And Personal Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४१९] के मुख पर बड़ा लोहेका चूल्हा रख कर रखदे कि नलीसे धुंआ नहीं निकलता है, तब नली और लोहजालीके ऊपर दश सेर पत्थर के कोयले द्वारा शलाका डाल कर देख ले; जब शलाकामें भर कर भट्टीके नीचे लकड़ीकी आँचदे ॥ १॥ कजली नहीं लगे तब समझे कि गन्धक जीर्ण प्रायः २॥३॥ ४ ॥ ५॥ प्रथम तीन घण्टे तो मन्दाग्नि हो गया है। तब यन्त्रको ठण्डा हो जाने पर लगानी चाहिए बाद चार घण्टे तक मध्यमानि लगानी बहुत होशियारीके साथ (उत्थापक संदंश द्वारा) चाहिए और पश्चात् तीव्राग्नि दे। यहाँ यह शङ्का हो | उतार ले और सर्वार्थ करी भ्राष्ट्रीके मुखसे चूल्हेको सकती है कि जब पत्थर के कोयलेकी आँच है हटा कर लोहजालीके ऊपर तीन चार सेर पत्थर तब अग्निक्रमका पालन किस प्रकार हो सकता के कोयले रखकर यन्त्रको कोयलों पर रख दे और है ? उसका उत्तर यह है कि जब मन्दाग्नि लगाने- नीचेसे लकड़ीकी आँच दे, परन्तु इस तीव्र आँचमें की आवश्यक्ता होगी तब भभकते हुए कोयलोंके नलीके द्वारा पारा उड़ जानेकी शङ्का है इसलिए ऊपर दो तीन नम्बरी ईट रख देंगे और मध्यमाग्नि | नलीके छिद्रको बचाकर ऊपरकी नाँदको चार तह देनी होगी तब इंटोंको हटाकर लोहेका तवा भीगे कपड़े से ढॉक दे। जव कपड़ा सूख जाय तब रख देंगे और जब तीब्राग्नि देनी होगी तब फिर दूसरा भीगा कपड़ा बदल दे । यदि किसी नवेको भी हटा देंगे, अथवा मन्दाग्नि व मध्या- | वैद्यको सर्वार्थकरी भ्राष्ट्रीके बनानेका सौकर्य नहीं ग्निके समय लोहजालीके ऊपर कोयला हो तो हलवाइयों की सी भट्टी पर ही यन्त्रको रख नहीं रखेंगे किन्तु केवल लकड़ीकी ही आँच दी। कर बबूरकी सूखी लकड़ियोंकी आँच दे। परन्तु जायगी। तीवाग्निके समय पत्थरके कोयलेभी भर | इस प्रकार करनेसे चार अहोरात्र अग्नि देनी पड़ेगी दंगे । इस प्रकार दो दिन तक आँच दे। ऐसा तब माल तैयार होगा। यन्त्रके स्वाङ्गशीतल करनेसे अग्निका प्रचण्ड ताप यन्त्रको फोड़ नहीं | हो जाने पर बहुत होशियारीसे खोले। ऊपरवाली सकेगा, क्योंकि यन्त्र सर्वदा पत्थरके कोयलोंसे | नाँदके पेंदेमें लगा हुआ सिन्दूररस मिलेगा और एक विलाँद ऊंचा रहता है । पश्चात् जब देखे । नीचेकी नाँदके तल भागमें वान्ति भ्रान्ति रहित ५-.-बराइ पुट देना हो तो लोहजालीपर उपले डालकर और भीपर लोहेका चूल्हा रखकर उसके भीतर सम्पुट रक्खें और चूल्हेमें भी उपले भरकर उसके दरवाजेको लोहेकी चादर और इंटों आदिसे बन्द करदें । ६.-कुक्कुट पुट देना हो तो पुटको लोहजाली पर रखकर शेष भागमें उपले भरदं । इसमें भट्टीके ऊपर चूल्हा रखनेकी आवश्यकता नहीं है । ७---भोजन बनाना हो तो लोहेकी नलीके ऊपरवाले छिद्र पर कढ़ाई रखकर बना सकत है । इत्यादि । (रसायनसार) For Private And Personal Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि ताम्रभस्म मिलेगी। यह विधि किसी शास्त्रमें लिखी | २५८७) ताम्रभस्मविधिः (सोमनाथी) (९) हुई तथा वैद्यकी बतलाई हुई नहीं है। किन्तु (र. र. स. । पूर्व. अ. ५.; आ. वे. प्र.;) मैने स्वयं अनुभवसे निकालकर आजमा ली है। र. प्र. सु. । अ. ४) हर एक वैद्य बना सकते हैं । इसमें शङ्का करने शुल्वतुल्येन मूतेन बलिना तत्समेन च । कीकोइ आवश्यकता नहीं है । यह सिन्दूर | तदर्धाशेन तालेन शिलया च तदर्धया ॥ रस उतना लाल नहीं होगा जितना कि शीशी | विधायकज्जलीं श्लक्ष्णां भिन्नकज्जलसनिभाम्। वाला होता है । (र० सा०) यन्त्राध्यायविनिर्दिष्टगर्भयन्त्रोदरान्तरे ॥ (२५८६) ताम्रभस्मविधिः (८) (रसायनसार) | कज्जली ताम्रपत्राणि पर्यायेण विनिक्षिपेत् । शोधितं भावितं चापि मन्दारपयसा त्रिधा। | प्रपचेद्यामपर्यन्तं स्वागशीतं प्रचूर्णयेत् ॥ उधिस्तालकं दत्त्वा ताम्रपत्राणि सम्पुटे ॥ । तत्तद्रोगहरानुपानसहितं तानं द्विवल्लोन्मितम् । शरावयोः कृते धृत्वा चुल्ल्यांमन्दागिना पचेत् । संलीढं परिणामशूलमुदरंशुलश्च पाण्डुज्वरम्। प्रहरत्रितयेऽतीते पुटेद् वाराहसंज्ञके ॥ गुल्मप्लीहयकृत्क्षयानिसदनं मेहं च मूलामयम् । मन्दारके दूधमें तीन भावना दी हुई शुद्ध दुष्टांच ग्रहणी हरे ध्रुवमिदं श्रीसोमनाथाभिधम्। हरितालको शुद्ध ताम्रपत्रोंके नीचे ऊपर दो शरावों पारद, और गन्धक २-२ भाग, हरताल १ (सिकोरों) के बनाए हुए सम्पुट में रखकर, बालु- भाग और मनसिल आधा भाग लेकर सबकी रेता चिकनी मिट्टी वो नोन इन तीनोंकी बनी हुई | अत्यन्त महीन कजली बना लीजिये, और २ भाग कीच ले शरावोंके मुख पर मुद्रा करके सम्पूर्ण शुद्ध ताम्रके अत्यन्त महीन पत्र करा लीजिए, सम्पुटपर सात कपरौटी कर दे । खूब सूख जाने । तत्पश्चात् गर्भयन्त्रमें' पहिले थोड़ी कजली बिछा पर तीन पहर मन्दाग्निसे चूल्हे पर पका ले । बाद कर उसपर ताम्रपत्र रखिये और उसके ऊपर फिर वराहपुट में फूंक दे । स्वाङ्ग शीतल होने पर निकाले। कज्जली बिछा दीजिये, इसी प्रकार ताम्रपत्रों और ताम्रभस्मके बहुत प्रकार हैं । वैद्योंको दिग्दर्शनके | कजलीकी तह जमाकर यन्त्रके मुखको बन्द करके लिये कुछ लिख दिये गये हैं। । एक पहर तक अग्नि पर पकाइये और स्वाङ्ग१ गर्भयन्त्र--एक चार अंगुल लम्बी और ३ अंङ्गल घेरेवाली मिट्टीकी मूषा बनवाइये, इसका मुख गोल होना चाहिये । जब वह सूख जाय तो २० भाग अधजला लोह ( लोहेकी कच्ची भस्म) और १ भाग गुगलको एकत्र मिलाकर खूब कूटकर उपरोक्त मूषापर इसके ७-८ लेप कर दीजिए, हर लेपके बाद मूषाको सुखा लेना चाहिये । अन्तमें १ भाग चिकनी मिट्टी और २ भाग सेंधा नमकके महीन चूर्णको पानी में घोटकर उसका लेप कर दीजिए । बस यन्त्र तैयार है इसके ढकने पर भी इसी प्रकार लेप करके उसे मजबूत बना लेना चाहिए । आवश्यकतानुसार भूरा इमर्स बड़ी भी बनाई जा सकती है। For Private And Personal Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भांगः | [ ४२१ ] शीतल होने पर ताम्र भस्मको निकालकर पीसकर | हुआ और चक्कर आने लगे, तबियत बहुत खराब रख लीजिये । रही । तब हमने उस भस्मको घृतकुमारीके रस में टिकिया बनाकर २१ बार गोमूत्र में बुझाई तब शुद्ध हुई । टिकिया बनानेका अभिप्राय यह है कि ताम्र भस्म बुझानेसे बरबाद न होगी । (२५८९) ताम्र भस्मामृतीकरणम् ( रसायनसार ) पञ्चामृतैरत्र कृते कषाय के विम कुर्यात् खलु भस्मचक्रिकाम् । पचेत्पुटे नाम गजे त्रिवारक मिमां वदन्ति मृतकृतिं पराम् ॥ ताम्र भस्मका अमृतीकरणअर्थ --- अमृतपञ्चक ( सोंठ, गिलोय, सफ़ेद मूसली, शतावर, गोखरू ) के बनाये हुए काथ में ताम्र भस्मको घोटकर टिकिया बनालें। खूब सूख जाने पर सम्पुटमें रखकर गजपुटमें फूंकदे । इसी प्रकार ३ बार संस्कार करनेको अमृतीकरण कहते हैं । इसे यथोचित अनुपान के साथ सेवन करनेसे परिणाम शूल, उदररोग, पाण्डु, ज्वर, गुल्म, लोह, यकृत्, क्षय, अग्निमांद्य, प्रमेह और अर्श (बवासीर) रोग नष्ट होता है । इससे दुष्ट संग्रहणीभी अवश्य मिट जाती है । इसे 'सोमनाथी ताम्र भस्म' कहते हैं । मात्रा - ६ रत्ती तक । नोट - ताम्र भस्मकी कुछ विधियां 'ताम्रमारणम्' नामसे दी गई हैं । (२५८८) ताम्र भस्मशुद्धि: ( रसायनसार ) यदि पर्याप्तविशुद्धं कथमपि न कृतं कृतं तु भस्मापि तवा तोमूत्रे निर्वाप्यं त्वेकविंशतिं वारान् ॥ अर्थ – यदि किसी वैद्य ने ताम्रकी पूर्ण शुद्धि नहीं करके ताम्र भस्म बना डाली हो तो, उस ताम्र भस्मको घृतकुमारीके रसमें घोटकर टिकिया बनाले | जब टिकिया खूब सूख जाय तब कलछामें रखकर शोधनार्थ भ्राष्ट्री में तपाकर इक्कीस बार गोमूत्र में बुझा दे । ऐसा करनेसे ताम्र भस्म शुद्ध हो जायगी । वान्ति, भ्रान्ति इत्यादि दोष निवृत हो जायेंगे । एक बार हमने “ सप्तैव वारांश्च पृथक् पृथक् वै” इस पाठका खयाल नहीं करके "त्रिधा त्रिधा विशुद्धि: स्यात्स्वर्णादिनां समासतः इस साधारण नियम के अनुसार ताम्रपत्रोंको उक्त तैल आदि वस्तुओंमें तीन तीन बार ही बुझाकर सात सेर ताम्र भस्म बना डाली; उस भस्मको हमने खाकर देखा तो खाते ही वमन 99 } Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२५९०) ताम्रभैरवो रसः (र.रा.सु. | कास.) विषं खदिरसारव करहाटं टङ्कणं तथा । व्योषं ताम्र शुद्धफेनं चणमात्रा वटी कृता ॥ नाशयेन्नात्र सन्देहस्तिमिरश्च यथा रविः ।। दीयते कासश्वासेषु पीनसे ग्रहणीकफे । ताम्रभैरव इत्येष ज्वराणाञ्च निकृन्तनः ॥ शुद्ध मीठा तेलिया, खैरसार, अकरकरा, सुहागेकी खोल, त्रिकुटा, ताम्रभस्म और अफीम समान भाग लेकर सबको महीन घोटकर चनेके बराबर गोलियां बना लीजिये । इनके सेवन से खांसी, श्वास, पोनस, ग्रहणी, कफ और वर नष्ट होते हैं । For Private And Personal Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि (२५९१) ताम्रमारणम् (१) | सन्धिको बन्द करके हाण्डीको मुंहतक बालरेतसे ( शा. सं. । म. ख. अ. ११; यो. चि. म.। भरकर ऊपर एक शराव ढककर उसकी सन्धिको ____ अ. ८; भा. प्र. । पूर्व खं.) राख, और सेंधा नमकको पानीमें मिलाकर उससे सूक्ष्माणि ताम्रपत्राणि कृत्वा संस्वेदयेद्बुधः। बन्द कर दीजिये । और मुखाकर ४ पहर वासरत्रयमम्लेन ततः खल्वे विनिक्षिपेत् ॥ तक क्रमश: मृदु मध्यम और तीवाग्नि पादांशं सूतकं दत्वा याममम्लेन मर्दयेत् ।। दीजिए तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल ततः उद्धत्य पत्राणि लेपयेद द्विगुणेन च ॥ होने पर उसमेंसे ताम्रको निकालकर १ गन्धकेनाम्लघृष्टेन तस्य कुर्याच गोलकम् । दिन जिमिकन्द ( सूरण )के रसमें घोटकर और ततःपिष्ट्वा च मीनाक्षीं चाङ्गेरी वा पुनर्नवाम् ॥ गोला बनाकर उसके ऊपर घीमें पिसे हुवे ताम्रसे तत्कल्केन बहिर्गोलं लेपयेदङ्गलोन्मितम् । आधे गन्धकका लेप करके सम्पुट में बन्द करके धृत्वा तद्गोलकं भाण्डे शरावेण च रोधयेत् ॥ गजपुटमें फूंक दीजिये । स्वांग शीतल होने पर बालुकाभिः प्रपूर्याथ विभूतिलवणाम्बुभिः। ताम्र भस्मको निकालकर पीसकर रख लीजिये । दत्त्वा भाण्डमुखे मुद्रां ततश्चुल्ल्यां विपाचयेत्॥ इस प्रकार ताम्रकी अत्युत्तम भस्म बन जाती क्रमवृद्धयग्निना सम्यग्यावद्यामचतुष्टयम् । है जिससे वमन, भ्रान्ति, क्लम और मूर्छादि विकार स्वाङ्गशीतलमुद्धृत्य मर्दयेत्मरणद्रवैः ।। कभी नहीं होते। दिनैकं गोलकं कुर्यादर्धगन्धेन लेपयेत् । (२५९२) ताम्रमारणम् (२) (र.प्र.सु.।अ.४) सघृतेन ततो मूषां पुटे गजपुटे पचेत् ॥ कृत्वा ताम्रस्य पत्राणि कन्यापत्रे निवेशयेत् । स्वागशीतं समुद्धत्य मृतं पानं शुभं भवेत् । कुकुटाख्ये पुदे सम्यग्पुटयेत्तदनन्तरम् ।। वान्तिं भ्रान्ति क्लमं मूछी न करोति कदाच न॥ मूतगन्धकयोः पिष्टिं कार्या चातिमनोरमा । ताम्बेके बारीक पत्रोंको तीन दिन तक विमद्य निम्बुतोयेन तानि पत्राणि लेपयेत् ॥ दोलायन्त्र विधिसे नीबूके रस या काञ्जीमें पकाइये स्थालीमध्ये निरुन्ध्याथ पवेद्यामचतुष्टयम् । फिर उन्हें खरलमें डालकर तथा उनसे चौथाई पञ्चदोपविनिर्मुक्तं शुल्वं तेनैव जायते ॥ पारा डालकर १ पहर तक नीबूका रस डाल ताम्रके शुद्ध पत्रोंको घृतकुमारी (ग्वार पाठा) डालकर घोटिये । तत्पश्चात् पत्रोंसे दो गुने आमला- के भीतर घुसाकर सम्पुटमें बन्द करके कुक्कुटपुट सार गन्धकको नीबूके रसमें पीसकर उनपर लेप की अग्नि दीजिये। तत्पश्चात् ताम्रके बराबर पारे कर दीजिये और उनका गोला बनाकर उसपर गन्धककी कजलीको नीबूके रसमें घोटकर उन मीनाक्षी, चांगेरी (चूका-चौपतिया) या पुनर्नवाको । पत्रों पर लेप कर दीजिये और उन्हें एक हाण्डीमें पीसकर उसका १ अंगुल मोटा लेप करके सुखा- रखकर ऊपरसे शराव ढककर सन्धिको गुड़चूनेसे कर हाण्डीमें रखकर शराबसे ढक दीजिये और बन्द कर दीजिये और उस पर कपरमिट्टी करके For Private And Personal Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४२३] ४ पहर की अग्नि दीजिये एवं हण्डीके स्वांगशीतल । (२५९४) ताम्रयोगः (च. द. । प्र.) होनेपर उसमें से ताम्र भस्म को निकाल लिजिये। स्थाल्यां सम्मध दातव्यौ माषिकौ रसगन्धको। इस प्रकार ताम्रकी वान्ति, भ्रान्ति आदि नखक्षुण्णं तदुपरि तण्डुलीयकं द्विमाषिकम् ॥ पञ्चदोषोंसे रहित उत्तम भस्म बन जाती है। ततो नैपालताम्रस्य पिधाय सुकपालकम् । (२५९३) ताम्रमारणम् (३) (रसेन्द्र. चिं.अ.६) पांशुना पूरयेदृर्व सौं स्थालों ततोऽनलः ॥ गन्धेन ताम्रतुल्येन घम्लपिष्टेन लेपयेत् । स्थाल्यधो नालिकां यावद्देयस्तेन मृतस्य च । कण्टवेध्यं ताम्रपत्रं मूषामध्ये पुटे पचेत् ॥ ताम्री ताम्रस्य रक्त्यैका त्रिफलाचूर्णरक्तिकाम् ।। उद्धत्य चूर्णयेत्तस्मिन् पादांशं गन्धकं क्षिपेत् । त्र्यूषणस्य च रक्त्येका विडङ्गस्य च तन्मधु पाच्यं जम्भाम्भसा पिष्टं समो गन्धश्चतुःपुटे।। घृतेनालोड्य लेढव्यं प्रथमे दिवसे ततः ॥ मातुलुङ्गरसैः पिष्ट्वा पुटमेकं प्रदापयेत् । रक्तिद्धिं प्रतिदिनं कुर्यात्ताम्रादिषु त्रिषु । सितशर्करयाप्येवं पुटदाने मृतिर्भवेत् ॥ स्थिरा विडङ्गरक्तिस्तु यदा भेदो विवक्षितः ।। कण्टकवेधी शुद्ध ताम्रपत्रों पर उनके बराबर तदा विडङ्गं त्वधिकं दद्याद्रक्तिद्वयं पुनः। गन्धकको नीबूके रसमें पीसकर लेप कर दीजिये। द्वादशाहं योगवृद्धिस्ततो हासक्रमोप्यऽयम् ॥ और उन्हें मूषामें बन्द करके पुट दीजिये । इसके । ग्रहणीमम्लपित्तश्च क्षयं शूलश्च सर्वदा । पश्चात् उन्हें पीसकर और चतुर्थांश गन्धक मिला ताम्रयोगो जयत्येष बलवर्णाग्निवर्धनः ॥ कर जम्बीरी नीबूके रसमें घोटिये और टिकिया एक हाण्डीपर कपरौटी करके उसमें १-१ बनाकर सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी मापे पारद और गन्धककी कजली रखकर उसपर अग्नि दीजिये, इसी प्रकार चार पुट देनेके पश्चात् । २ माघे चौलाई नाखूनसे छीलकर डालदें और सफेद खांडके साथ १ पुट देनेसे ताम्र भस्म बन उसके ऊपर ( ४ माषे वजनी ) शुद्ध नैपाली जाती है। ताम्रकी कटोरी ढककर जोड़को गुड़ चूनेसे बन्द ताम्रयोगः ( र. र.; र. चं. । ग्रहणी.) करदें और हाण्डीको रेतसे मुंह तक भरदें। अब उसे लगभग “ ताम्रद्रुति " सं. २५६७ के समान भट्टीपर चढ़ाकर ( ४ पहरकी ) अग्नि दीजिये है, केवल इतना अन्तर है कि इसमें पारा १ कर्ष। और फिर हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसके और ताम्रपत्र ४ कर्ष लिखे हैं और उसमें तीनों भीतरसे ताम्बेकी कटोरीको निकालकर पीस लीजिये। चीजें बराबर हैं । दूसरे इसमें नीबूका रस डालकर प्रथम दिन १ रत्ती यह ताम्र और १-१ धूपमें रखनेको लिखा है पर उसमें रस का विधान रत्ती त्रिफला, त्रिकुटा और बायबिडंगका चूर्ण नहीं है । इसमें अनुपानमें जीर धनियेका योग है एकत्र मिलाकर घी और शहदके साथ खिलाइये और उसमें मधुघृतादिका। शेष प्रयोग लगभग | और फिर प्रतिदिन बायबिडंगके अतिरिक्त अन्य समान है। तीनों ओषधियोंकी मात्रा १-१ रत्ती बढ़ाते हुवे For Private And Personal Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४२४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि १२ दिन तक सेवन कराइये और इसके पश्चात् कृत्वा स्वल्पपिधानश्च स्थालीमध्ये निधाय च । इसी प्रकार १-१ रत्ती औषध घटाकर खिलाइये। शर्कराभक्तलेपेन तस्य सन्धीनिरोधयेत् ॥ यदि विरेचन कराना हो तो बायबिडंगका चूर्ण बालुकापूरितास्थाली विहितायां पुनस्तथा । भी प्रतिदिन २-२ रत्ती बढ़ाना चाहिये। सुलिप्तायाञ्च यामैकमधो ज्वाला पदापयेत् ।। इसके सेवनसे ग्रहणी, अम्लपित्त, क्षय और तत आकृष्टताम्रस्य मृतस्य त्विह योजना। शूलका नाश होकर बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि अथ कर्ष गन्धकस्य वह्निस्थलोहपात्रगम् ॥ होती है। शिलापुत्रेण सम्मर्य द्रुतं घृष्टं पुनः पुनः । नोट-इस प्रयोगमें पारदादिकी मात्रा केवल । रसोऽम्लमथितः शुद्धस्तावन्मानः प्रदीयते ॥ औषधोंका भागक्रम प्रकट करनेके लिये लिखी हैं, ततस्तथैव सम्मध पुनराज्यं प्रदापयेत् । अत एव १-१ माषा पारद गन्धककी जगह अष्टबिन्दुकमानञ्च मर्दयेन्मूच्छितं तथा ।। १-१ पल लेना चाहिये । सर्व स्यात्तत आकृष्य शिलापुत्रादिकं दृढम् । संहृत्यालम्बुपरसप्रसृतेन विलोडितम् ॥ २-यदि ताम्रकी कटोरीका कुछ भाग भस्म पुनस्तथैव वहिस्थे लोहपात्रे विमर्दयेत् । होनेसे रह गया हो तो उसे अलग कर देना चाहिये। याववक्षयं पश्चादाकृष्य संप्रपेषितम् ॥ (२५९५) ताम्रयोगः (वृ.यो.त.।त.१२ १) अलम्बुषारसेनैव गोलकं सम्प्रकल्पयेत् । शुद्ध पारदगन्धकाभिकलितं युक्त्या हतं य पुमा- तत्पिण्डं वस्त्रविस्तीर्ण पिण्डे त्रिकटुजे पुनः॥ नद्यात्ताम्रमनूतनं शशिकलाक्षौद्रान्वितं पथ्यभुक्। वसनान्तरितं कृत्वा पोट्टलीं कारयेत्सुधीः। कोठोदर्दकशीतपित्तजरुजो नश्यन्त्यवश्यं दिन- ततस्तां पोट्टलीमाज्ये मग्नां कृत्वा विधारिताम् ।। रल्पैरस्य नरस्य यान्ति विलयं कुष्ठानि चाष्टादश।। मूत्रेण दण्डसंलग्नां पाचयेत्कुशलो भिषक् । शुद्ध पारद और गन्धककी कज्जलीद्वारा बनी यदा निष्फेनता चाज्ये गुटिका च दृढा भवेत्।। हुई पुरानी ताम्रभस्मको बावचीके चूर्ण और तदा पकां समाकृष्य पञ्चगुञ्जातुला घृतम् । शहदके साथ पथ्य पालनपूर्वक सेवन करनेसे कोठ, त्रिकटुत्रिफलाचूर्ण तुल्यं प्रातः प्रयोजयेत् ॥ उदर्द, शीतपित्त और अठारह प्रकारके कुष्ठ शीघ्र तकं स्यादनुपाने तु ह्यम्लपित्तोच्छ्ये पुनः। ही अवश्य नष्ट हो जाते हैं। त्रिफलैव समा देया कोष्णं वारि पिबेदनु । ( मात्रा–ताम्र २ रत्ती, बाबचीका चूर्ण ३ सप्तमे दिवसे रक्तीद्धिस्ताम्रात्तु माषकम् । माशे, शहद ३ तोले ।) यावत्मयोगस्तथैव ह्यपकर्षः पुनर्भवेत् ॥ योगोऽयं ग्रहणीयक्ष्मपक्तिशुलाम्लपित्तहा । (२५९६) ताम्ररसायनम् (वं.से.;च.द.।रसायन) रसायनं समुद्दिष्टं गुदकीलादिनाशनम् ॥ तनुपत्रीकृतं तानं नैपालं गन्धकं समम् । न चात्र परिहारःस्याद्विहाराहारकर्मसु। दत्त्वाचोर्ध्वमधोमध्ये स्थालिकामध्यसंस्थितम्॥ ताम्ररसायनमिदं सर्वव्याधिहरं परम् ॥ For Private And Personal Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग। [४२५ ] शुद्ध नैपाली ताम्रके बारीक पत्र और शुद्ध । ऊपर त्रिकुटेका कल्क लपेट दें तथा उसके ऊपर गन्धकका चूर्ण समान भाग लेकर एक शरावमें ! दूसरा कपड़ा लपेटकर पोटली बनाएं । अब एक थोडासा गन्धकचूर्ण बिछाकर उसपर ताम्रपत्र हाण्डीमें घी भरकर उसके मुखपर एक डण्डा रख रखें और उसपर गन्धकचूर्ण बिछाकर उसके ऊपर कर उसमें पोटलीको डोरेसे इस प्रकार बांध दीजिए दूसरा ताम्रपत्र रखकर उसे भी गन्धकके चूर्णसे कि वह धीमें डूब जाय परन्तु हाण्डीकी तलीसे कुछ ढक दें; इसी प्रकर तह जमाकर सब पत्रोंको ऊपर रहे | इस हाण्डीको मन्दाग्निपर चढ़ाकर पकागन्धकके बीच में रखकर दूसरे शरावसे ढककर इथे। जब पकते पकते औषधका गोला खूब कठिन दोनोंके जोड़को भात और खांडकी पिट्टीसे बन्द करके ! हो जाय और धीमें झाग आने बन्द हो जाये तो उसके ऊपर ३-४ कपरमिट्टी करदें और उसे अग्नि लगानी बन्द करदें और हाण्डीके स्वाङ्ग मुखाकर ४-५ कपडमिट्टी की हुई एक हाण्डीमें शीतल होनेपर पोटलीको निकालकर ऊपरसे कपड़ा रखकर उसमें मुंह तक बालू रेत भरदें और उसके और त्रिकुटेका कल्क अलग करके शेष औषधको मुंह पर शराव ढककर तथा जोड़को बन्द महीन पीस लें और उसमेंसे ५ रत्ती औषध समान करके १ प्रहर तक तेज अग्निपर पकाएं। जब भाग त्रिफला और त्रिकुटाके चूर्णमें मिलाकर प्रातःहाण्डी स्वांगशीतल हो जाय तो उसके भीतरसे काल घीके साथ सेवन करायें तथा ऊपरसे तक ताम्रको निकालकर पीसलें । इसके पश्चात् १ कर्ष पिलाएं । यदि अम्लपित्तमें सेवन कराना हो तो (१ । तो०) यह ताम्रभस्म और १ कर्ष शुद्ध केवल त्रिफलाके चूर्णके साथ मिलाकर उष्ण जलसे गन्धक एकत्र मिलाकर लोहेके पात्रमें डालकर सेवन कराएं । हर सातवें दिन १ रत्ती ताम्र मन्दाग्निपर चढाकर पत्थरकी मूसलीसे जल्दी बढ़ा दिया करें और १ माषा तक पहुंचने पर जल्दी घोटें; जब गन्धक पिघल जाय तो उसमें इसी प्रकार १-१ रत्ती औषध घटाकर सेवन जम्बीरी नीबूके रसमें शुद्ध किया हुवा पारद करायें । एक कर्ष डालकर पुनः घोर्ट और कजली हो इसके सेवनसे ग्रहणी, राजयक्ष्मा, पक्तिशल. जाने पर उसमें ८ बूंद धृत डालकर अम्लपित्त, बवासीरके मस्से ओर अन्य अनेक रोग घोंटें; जब धी अच्छी तरह मिल जाय तो नष्ट होते हैं। पात्रको अग्निसे नीचे उतारकर उसमें १० तोले । इसके सेवनकालमें किसी विशेष परहेज़की मुण्डीका रस डालकर मिलावें, जब रस अच्छी तरह मिल जाय तो पात्रको पुनः अग्निपर चढ़ा आवश्यक्ता नहीं है। कर औषधको पत्थरकी मूसलीसे घोटें। जब सब रस (२५९७ ताम्ररसायनम् (वं. से.। रसायान.) सूख जाय तो औषधको मुण्डीके रसमें घोटकर कण्टकवेधनयोग्य ताम्रस्य पत्रं पलं समादाय। गोला बनाएं और उसे कपड़े में लपेटकर उसके ! कर्षाधिकपलमात्रेऽम्लेऽग्नौ निर्दहेद्भिषक्कुशलः ।। भा० ५४ For Private And Personal Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४२६ ] [ तकारादि एवं पुनरपि वारद्वतयं विमर्द्यमतिगाढम् । पुनरैलाकङ्कोललवङ्गजातिफलजा तिकोषाणाम् । प्रत्येकं मिलितेष्वपि तथैव वारत्रयं दद्यात् ॥ चूर्ण गुडत्वचोपि माषाष्टपरिमितं दद्यात् ॥ इन्द्रस्वरसभावितगन्धक लिप्सन्तु ताम्रकं कृत्वा । ततः सुशीते ताम्रे माषाष्टकमतिविकीर्य खरपरसंपुटमध्ये विनिधाय मृदा तमुपलिम्पेत् । हस्तप्रमाणवदने गर्ते चतुर्हस्तपरीणाहे । दत्वेन्धनं करीषन्तुषमध्ये दहनमाधाय ॥ तदुपरि दत्वा ताम्रसम्पुटं निहितं पुनश्च करीषाभिः संछाद्य तत्र वहिं प्रज्वालयेद्भिषग्विशङ्कः ॥ तावत् पुढं प्रदेयं यावत्ताम्रश्च मृत्युमायाति । मृतमधिगम्य च भाण्डे क्वचिदपि तत् स्थापयेत् पुटितम् । तदनु तावत्प्रमाणं पारदमादाय खल्वये निपुणः । खल्वशिलाया मध्ये गृहधूमनिशेष्टकाचूर्णैः ॥ पश्चाद्वारिविधानं पुनश्च त्रिकटुना खलयेन्निपुण खल्लितनूतस्यैवं पातयन्त्रेण चोद्धारः ॥ समकृतगन्धकसहितं पुनरपि कृत्वा भारत रत-भैषज्य- - रत्नाकरः । खल्लत्रदिनम् । एवं च शुद्धमृतं मृतताम्रकमिश्रितं कुर्यात् ॥ दुग्धपलाष्टकमाज्यं तत्समश्च नारिकेलजलम् । द्विपलं कलितत्रिफलाकाथञ्च चतुर्गुणं दद्यात् ॥ सुदृढे ताम्रकटाहे मार्ते वा स्थापयेद्विविधविधिज्ञः। दर्ष्या च ताम्रमय्याऽऽयस्या चाल्यं पुनः पचेद्वैद्यः ज्ञात्वा पाकं भूयो झटिति कटाहमवतारयेन्निपुणः। तदनु च तस्मिन्नष्टलक्षणांश्च विश्राम्य क्रियतेऽपि ॥ त्रिकटुत्रिफला लोहितचित्रकविडङ्गक भद्रमुस्तानाम् । जीरकयोः प्रत्येकं कर्षकलितचूर्णनिक्षेपः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घनसारम् । ताम्रमयादिकभाण्डे स्निग्धे मात्रै वा स्थाप्यम् ॥ मनसि च विधाय सूर्यपूजां कृत्वा शुभे दिने च । आदाय माषमेकं दधिमधुना सह भक्षयेत् सुचिरम् ॥ तदनु च कण्ठप्रायः क्षीरं कार्यमनुपानमधिकाल्पम् नक्तमनल्पं पुनरपि ताम्बूलं भक्षयेत्सरुजः ॥ रक्तीद्वयमथ त्रितयं पञ्चकं वृद्धेर्माषकं यावत् । स्थितमतश्चोपरिष्टात्प्रतिलोमं ह्रासयेत्तदनु || खादितमेतन्नियतं यस्य न ताम्रं प्रवर्त्तते प्रायः । तत्रापि स यवक्षारत्रिफलाकाथोऽत्र पानीयः ॥ प्रारब्धेऽस्मिंस्ता कतिचिदिवसान् न भक्षयेन्मत्स्यान् । क्रोधञ्च दिवानिद्रां वेगनिरोधास्त्यजेद्वैरम् ॥ शाकं चाम्लं व दधिबहिरम्लं भक्षयेदेव | जह्यातिक्तकषायं जद्यात्तात्कालिकीं पुष्टिम् || वृष्यं मधुरं शीतलमथ शाल्यन्नं मधुघृतमश्नीयात् । जयति च कफमतिगाढं कासं श्वासं च निवारयति विरचितमेतत्ताम्र धर्माध्यक्षेण धर्मपालेन । विन्ध्याटवीये पिण्डितमिडानिबन्धचर्याभिः || ताम्र १ पल ( ५ तोले ) कण्टकवेधीपत्र लेकर उनमें १ । पल बिजौरे नीबू का रस या अन्य अम्लरस डालकर मन्दाग्नि पर पकायें जब सब रस जल जाय तो इतना ही और डाल दें; इसी प्रकार ३ बार रस डालकर पकायें। तत्पश्चात् इन पत्रोंके बराबर आमलासार गन्धकको कुड़ेकी For Private And Personal Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् द्वितीयो भागः। [४२७]. - - - - छालके स्वरसकी कई भावनाएं देकर और कुडेकी । पल नारयलका पानी और सबसे चार गुना त्रिफलेछालके रसमें ही पीसकर इन पत्रोंपर लेप करदें और का काथ मिलाकर तांबे या लोहेकी करछलीसे सुखाकर दो शरावोंके बीचमें रखकर ऊपरसे ३-४ चलाते हुवे पकावें । जब समस्त पानी जल जाय कपरमिट्टी करके सुखालें । तत्पश्चात् एक ऐसा तो तुरन्त अग्निसे नीचे उतारकर करछलीसे अच्छी गढ़ा खुदवाएं कि जो तलीमें तो ४ हाथ लम्बा | तरह घोटकर चूर्णके समान करदें । अब इसमें चौड़ा हो पर जिसका मुख केवल एक हाथ लम्बा त्रिकुटा, त्रिफला, लाल चीता, बायबिडंग, नागरमोथा, चौड़ा रहे । इस गढ़ में आधी दूरतक अरने उपले | काला जोरा और सफेद जीरेका चूर्ण ११-१॥ ( कण्डे ) भरकर उनपर अग्नि डाल दीजिए; जब तोला तथा इलायची, कंकोल, लौंग, जायफल, अग्नि अच्छी तरह सुलग जाय तो उस पर सम्पुटको जावित्री, दालचीनी और कपूरका अत्यन्त महीन रखकर गढेको मुंहतक उपलोंसे भर दीजिए और चूर्ण १०-१० माघे मिलाकर ताम्रपात्रमें अथवा उसके ऊपर मिट्टीकी नांद या अन्य कोई घृतसे चिकने किए हुवे मिट्टीके पात्र में भरकर रखदें। ऐसी चीज़ ढक दीजिये कि जिससे उसके भीतर । प्रथम दिन सूर्य का ध्यान करके इसमेंसे १। हवा जानेको मार्ग रह जाय और अग्नि न बुझने माषा औषध दही और शहदमें मिलाकर रोगीको पावे । अब अग्निके शान्त होने और गढेके खिलायें और ऊपरसे वह अधिकसे अधिक जितना बिकुल शीतल हो जानेपर उसमेंसे सम्पुटको | दूध पी सके उतना पिलादें । रात्रिको भी भरपेट निकालकर ताम्रपत्रोंको निकाल लीजिए । यदि दूध पिलाकर पान खिलाएं । कच्चे हों तो फिर इसी तरह गन्धकके साथ पुट दूसरे दिनसे रोजाना २ रत्ती, ३ रत्ती या ५ दीजिए । भस्म तैयार होनेपर शीशीमें भरकर रख रत्ती औषध बढ़ाकर खिलायें । जब दो माघे दीजिए। मात्रा पर पहुंच जाय तो इसी प्रकार प्रतिदिन ____ अब इस ताम्रभस्मके बराबर पारद लेकर औषध घटाकर सेवन कराएं । यदि कुछ लाभ उसे 2 दिन धरके धुंवेके साथ घोटिए और प्रतीत न हो तो पुनः इसी प्रकार सेवन कराना पानीसे धोकर डमरुयन्त्रसे उड़ा लीजिए। इसी चाहिए. परन्तु इस बार औषध खानेके बाद प्रकार एक एक दिन हल्दी, इंटका चूर्ण और । त्रिफलाके क्वाथमें ( १ माशा ) यवक्षार मिलाकर त्रिकुटेके चूणके साथ भी घोटकर उडालें और फिर पीना चाहिए। उसमें समान भाग शुद्ध गन्धक मिलाकर तीन दिन औषधका सेवन प्रारम्भ करनेपर कुछ दिनों तक घोटें । तत्पश्चात् उसमें उपरोक्त ताम्रभस्म तक मछली नहीं खानी चाहिए। मिलाकर खरल करलें और उसे तांबे या मिट्टीकी पथ्यापथ्य-----क्रोध करना, दिनमें सोना, कढाईमें डालकर मन्दाग्निपर चढ़ाकर उसमें ८-८ । मलमूत्रादिके वेगोंको रोकना, वैरभाव, शोक, अम्लपल (४०-४० तोले ) दूध और घी तथा २ पदार्थ और कड़वे तथा कषैले पदार्थोसे परहेज़ For Private And Personal Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि करना और शहदका सेवन करना चाहिए । दही (२५९९) ताम्रशुद्धिः ( रसायनसार ) खट्टा न होने पर सेवन करना चाहिए । तात्कालिक नैपालताम्रमिति यत्सुप्रसिद्धतानं पुष्टिकी चिन्ता न करनी चाहिए । पत्राणि तस्य सुलघूनि हि कारयित्वा । विन्ध्याचलवासी धर्मपालनिर्मित इस ताम्रके दोषाष्टकं किल तदीयमपानुनुत्सुसेवनसे अत्यन्त बढ़ा हुवा कफ, खांसी और श्वास आताग्निसाद्भवनभाञ्जि कृतानि तानि ॥१॥ नष्ट होता है। निर्वापयेच्च शनकैः परिसप्तकृत्वः (२५९८) ताम्रविकारशान्तिः (रसायनसार) प्रत्येकशोधनकवस्तुनि वक्ष्यमाणे । तैलञ्च तक्रमथ गव्यमपीह मूत्रं श्यामकाऽनं सितायुक्तं सितायुक्तं च धान्यकम् । काजी कुलत्थभवमम्बु तथाम्लिकायाः ॥२॥ • पीतं दिनत्रयं दोषान् दुष्टताम्रभवाञ्जयेत् ॥१॥ नैम्बूकमम्बु च रसश्च कुमारिकायाः । अर्थ-जिस मनुष्यने---- स्यात्सूरणस्य च पयोऽपि गवां ततोन्ते । " न विषं विषमित्याहुस्ताम्रन्तु विषमुच्यते। स्यानारिकेलजलमप्यथ माक्षिकश्चा. एको दोषो विषे सम्यक् ताने त्वष्टौ प्रकीर्तिताः" प्येतेषु शुद्धिकरणेषु रवेमितेषु ॥३॥ मूरणस्वरस आप्यते न इस वचन पर ध्यान नहीं देकर अपनी चेद्यत्र कुत्रच न तत्र तत्पुटे । बेशहूरीसे ताम्रका पूर्ण शोधन नहीं करके भस्म ताम्रपत्रगणमानिधाय वै बना डाली हो तो उसके सेवन करनेसे कुष्ठ, जड़ता, त्रिः पुटम्परिपचेत्तु शुद्धये ॥ फोड़े आदि अनेक व्याधियाँ शरीरमें उत्पन्न हो जाती हैं; उनको नष्ट करनेके लिए तीन दिनतक नारिकेलजलमाप्यते न चे मिश्रीके साथ सांवा अन्नका पतला भात बनाकर द्यत्र कुत्रच न तत्र तद्भवे । पिया करे और जब प्यास लगे तब धनियेके । तैल एव विनिमज्जयेत् त्रिधा पानीमें मिश्री डालकर पिया करे । इसके अतिरिक्त ध्मातमग्निमयपत्रसञ्चयम् ॥ दूसरा खानपान कुछ सेवन नहीं करे । ऐसा । सर्वेषांधातूनां संशुद्धिः शास्त्रतो विनिर्दिष्टा। करनेसे सर्व विकार शान्त हो जायगे और चन्द्रो- गुणभूमार्थं भिषजा सम्पाद्यैदयको सेवन करनेसे भी दो तीन दिनमें सर्व। . वेति हि प्रसिद्धमिदम् ॥ विकार शान्त हो जाते हैं । यह मैंने अपनेही किन्त्वल्पशुद्धियोगेऽप्यन्ये . शरीर पर आजमा लिया है; और दृषित तात्र न तथा वहन्त्यनर्थास्तु । · भस्मकी शुद्धि बीस बार गोमूत्रमें बुझानेसे जो एकन्तानं शुद्धावल्पोहोती है उसको मैं अन्यत्र लिख चुका हूँ । (र. सा.) नम्भ्रान्तिवान्तिकृत्तु यथा ॥ For Private And Personal Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] तस्मात्ताम्रविशुद्धावायतिपश्येन वैद्यवर्येण । | अणुमात्रमपि च नैव प्रमादयोगो विधातव्यः | ८ | अर्थ --- ताम्र भस्म बनानेके लिए लाल वर्णका नैपाली ताम्र लेना चाहिए, आजकल सबही शहरों में नैपाली ताम्रके बने हुए पुराने बरतन मिलते हैं, उन बरतनोंका ताम्बा भस्मके लिए अच्छा होता है; उसके पतले पतले पत्र बनवाकर गत आठ ( वान्ति, भ्रान्ति, ग्लानि, दाह, शूल, कण्डू, रेचन, वीर्यनाश ), दोषोंको दूर करने के लिए पत्रों को अग्निमें निष्टप्त करके ( खूब तपाकर ) इन बारह चीजों में सात सात बार बुझावे । बारह चीजों के नाम ये हैं- तिलका अथवा सरसों का तेल, गौका या भैंसका मट्ठा, गोमूत्र, कांजी, कुलथीके बीजका काथ, इमलीकी छालका अथवा पत्तोंका काथ, नीबू का रस, घृतकुमारी ( ग्वारका पाठा ) का स्वरस, सूरण ( जिमिकन्द ) का स्वरस, गौका 'दूध ( गौका दूध नहीं मिले तो बकरी या भैंस के दूधसे भी काम चल सकता है ), नारियलका पानी ( जो गोले के भीतर रहता है ), और सहत ॥ १ || २ || ३ || यदि सूरणका स्वरस नहीं मिले तो सूरणके कन्दमें ही ताम्रपत्रोंको रखकर तीन बार गजपुट देने से शुद्धि हो सकती है ॥ ४ ॥ यदि नारियलका पानी नहीं मिले तो नारियलके तेल में भी तीन बार पन्नोंको बुझानेसे काम चल सक्ता है ||५|| सबही धातुओंकी शुद्धि शास्त्रमें बतलाई गई है उसको गुणवृद्धि करनेके लिए वैद्य लोगोंको करना चाहिए, यह तो प्रसिद्ध ही है; परन्तु और । १ रसेन्द्र सारसंग्रहमें अर्कदुग्ध लिखा है लिखा । केवल गोमूत्र में स्वेदन करना लिखा है । [ ४२९] धातुओंकी शुद्धि में कुछ कमी रहनेपर भी उतना नुकसान नहीं होता जितना कि ताम्रशुद्धि में कुछ न्यूनता रह जानेसे वान्ति, भ्रान्ति आदि दोष उपस्थित होते हैं; इस लिए वैद्योंसे हमारी सानुरोध प्रार्थना है कि अपनी भलाई चाहनेवाले वैद्यवर ताम्रशुद्विमें किञ्चिन्मात्र भी आलस्य तथा प्रमाद न करें क्यों कि शास्त्रोंमें लिखा है कि Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 66 न विषं विषमित्याहुस्ताम्रन्तु विषमुच्यते । एको दोषो विषे सम्यक् ताम्रत्वष्टौ प्रकीर्तिताः।। (२६००) ताम्रशुद्धिः ( वृ. यो. त. । त. ४१; यो. र. । भा. १; आ. वे. प्र. । अ. ११; सें. सा. सं. ) वज्री दुग्धैः सलवणैस्ताम्रपत्रं विलेपयेत् । arat सन्ताप्य निर्गुण्डीरसैः संसेचये त्रिशः ॥ स्नुह्यर्क क्षीरसेचैर्वा शुल्वशुद्धिः प्रजायते ॥ अन्यच्च गोमूत्रेण पचेद्यामं ताम्रपत्रं दृढाशिना । साम्लक्षारेण संशुद्धिं ताम्रं प्रामोति सर्वथा || तांबे के पत्रोंपर थोहर ( सेंड - सेहुंड ) के दूधमें सेंधा नमक पीसकर लेप करके उन्हे अग्नि में तपा तपाकर संभालुके रसमें, अथवा थोहर या आक के दूधमें ३ बार बुझानेसे वह शुद्ध हो जाते हैं । अथवा गोमूत्रमें थोड़ा नीबू का रस और जवाखार मिलाकर उसमें तांबेके पत्रोंको दोलायन्त्र विधिसे १ पहर तक खूब तेज़ आगपर पकाने से भी वह शुद्ध हो जाता हैं । रसेन्द सा. सं. में अम्ल और क्षार नहीं २ For Private And Personal Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य - [ ४३० ] [ तकारादि (२६०१) ताम्रशुद्धि: ( भा. प्र. ख. १धातुशो.) | सेवन करने से सब प्रकार के स्थावर विष ( कन्द मूल खनिजादि विष ) नष्ट होते हैं । (२६०४) ताम्रादिप्रयोगः ( र. र. । शूला. ) मृतताम्रं पलैकन्तु चिञ्चाक्षारपलाष्टकम् । हिङ्गुहरीतकीव्योषं करञ्जवीजचोरकम् ॥ प्रत्येकं पलमात्रन्तु चूर्ण कोष्णोदके पिबेत् । कर्षैकं शूलशान्त्यर्थ सर्वोपद्रवसंयुतम् ॥ ताम्र भस्म ५ तोले, इमलीका क्षार ४० तोल तथा हींग, हर्र, त्रिकुटा, करञ्जबीज और चोरकका चूर्ण ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र खरल कर लीजिए | पत्तलीकृतपत्राणि ताम्रस्याग्नौ प्रतापयेत् । निषिश्चेत्तप्ततप्तानि तैले तक्रे च काञ्जिके ॥ गोमूत्रे च कुलत्थानां कषाये च त्रिधा त्रिधा । एवं ताम्रस्य पत्राणां विशुद्धिः सम्प्रजायते ॥ तांबे पत्रोंको अग्निमें खूब तपा तपाकर तैल, तक्र, काञ्जी गोमूत्र ओर कुलथीके काथमें ३- ३ बार बुझानेसे वह शुद्ध हो जाते हैं । (२६०२) ताम्रशोधनम् (र.र.स. पूर्व. अ. ५) ताम्रनिर्मलपत्राणि लिवा निम्त्रम्बुसिन्धुना । मावा सौवीरकक्षेपाद्विशुध्यत्यष्टवारतः ॥ ॥ निम्बम्पटुलिप्तानि तापितान्यष्टवारकम् । विशुद्धयन्त्यर्कपत्राणि निर्गुण्ड्या रसमज्जनात् तांबेके उत्तम पत्रपर नीबूके रसमें पिसे हुवे सेंधा नमकका लेप करके उन्हें अग्निमें तपाइए जब खूब लाल हो जायं तो उनपर काञ्जी छिड़क कर उन्हें ठण्डा कर दीजिए । इसी प्रकार ८ बार करनेसे ताम्रपत्र शुद्ध हो जाते हैं । उपरोक्त विधि से सेंधा नमकका लेप करके, अग्नि में तपाकर ८ बार संभालके रसमें बुझाने से भी ताम्रपत्र शुद्ध हो जाते हैं । (२६०३) ताम्रसुवर्णयोगः ( वै. म. र. । पटल. १९ लीड : क्षौद्रसितायुक्तश्चूर्णस्ताम्रसुवर्णयोः । स्यात्स्थावरविषध्वान्त सन्तानैक दिवाकरः ॥ ताम्र भस्म और स्वर्ण भस्म समान भाग लेकर एकत्र खरल करके मिश्री और मधुमें मिलाकर - रत्नाकरः । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसमें से 21 तोल औषध मन्दोष्ण जलके साथ पीने से उपद्रवयुक्त शूल भी शान्त हो जाता है। ( नोट- हींग सूनकर डालनी चाहिए । व्यवहारिक मात्रा - ६ माशे । ) (२६०५) ताम्रामृताख्यं रसायनम् ( वं. से. । रसायन ० ) गन्धकं जीर्णताम्रञ्च सूतकञ्च समांशकम् । तण्डुलीयकमूलस्य रसे हि लवणस्य च ॥ वस्त्रे तत्पोटलीं वद्ध्वा वेष्टयेत्तां सुपिष्टया ॥ लोहपात्रे पचेत्तावद्यावत्तद्गुलिकायते । आमलक्या ततः पक्का सर्पिषा मृदुवह्निना । शर्करामधुसर्पिभ्यामालोड्य विधिवल्लिहेत् ॥ नारिकेलपयः पेयं तक्रं चानु यथाविधिः । आचरेद् ब्रह्मचर्यन्तु हितार्थ वैद्यवत्सलः ॥ दुर्नामप्लीह पाण्डुत्वज्वरकासादिकान्गदान् । अग्निमान्य कृतान्सर्वान्निहन्यात्क्षिप्रमेव तु ॥ शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म और शुद्ध पारद समान भाग लेकर सबकी कजली करके चौलाईकी For Private And Personal Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४३१] जड़के रस और सेंधानमकके पानीमें लोहपात्रमें इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे तीव्र मन्दाग्नि पर पकाएं, जब गोला बनने योग्य हो पीडायुक्त उदरशूल अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है। जाय तो उसका गोला बनाकर कपड़े में लपेटकर (मात्रा-१ माशा।) उसपर आमलेकी पिढीका लेप कर दीजिये और (२६०७) तामेन्द्ररसः मन्दाग्नि पर धीमें पकाइये। तत्पश्चात् गोलेके __ (र. सा.। पट. २४; र. का. ध. । अधि. १२) स्वांगशीतल होने पर उसके भीतरसे औषध को मृतं शुल्वं समं मूतं गन्धकं च क्रमपाचितम् । निकाल कर पीस लीजिये। सम्भाव्य खदिरकाथे मञ्जिष्ठादिगणेऽपि च ॥ इसे मिश्री, धी और शहद के साथ मिलाकर भृङ्गार्केण वटीं कृत्वा कुष्ठाद्यदरनाशिनी । नारियलके पानी या तक के साथ सेवन करने । तानेन्द्रो नाम विख्यातः कफवातहरः परः ॥ और ब्रह्मचर्यपालन करनेसे बवासीर, प्लीहा (तिल्ली), ताम्रभस्म, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक पाण्ड, ज्वर, खांसी और अग्निमांद्यादि रोग नष्ट समान भाग लेकर कजली करके उसे (लोहेके होते हैं। पात्रमें जरासा घी डालकर मन्दाग्नि पर ) पिघलाएं (नोट-कजली १० तोले हो तो चौलाईका और फिर उसे खैरके काथ, मञ्जिष्टादिगणके हाथ रस और सेंधेका पानी २०-२० तोले लें । सेंधे । तथा भांगरेके रसकी (३-३ या ७-७) भावना का पानी बनानेके लिये ५ तोले सेंधेको ८० तोले देकर गोलियां बना लीजिये । पानीमें मिलायें। इनके सेवनसे कुष्ट, उदररोग और कफज ___ गोलेको इतना पकाना चाहिये कि उसके तथा वातज रोग नष्ट होते हैं। ऊपरवाली आमले की पिट्ठीका रंग लाल हो जाय।) ( मात्रा-३ रत्ती।) (२६०६) ताम्राष्टकम् (२६०८) ताम्रेश्वरगुटिका ( र. र. स. । उ. ख. अ. १८) ( रसें. सा. सं.; र. चं.; धन्वं.; र. रा. सुं. । हिङ्गव्योषं मधुकरुचकं तिन्तिडीक्षारतानं, टी.; रसें. चिं. । अ. ९) सर्व चैतन्ममृणमृदितं पीतमुष्णोदकेन । हिङ्ग त्रिकटुकञ्चैव अपामार्गस्य पत्रकम् । क्षिप्रं शूलं क्षपयति नृणां तीव्रपीडासमेतं, अर्कपत्रन्तथा स्नुहीपत्रञ्च समभागिकम् ॥ ध्वान्तं भानोरिव समुदयः साधु ताम्राष्टकं हि॥ | सैन्धवन्तत्समं ग्राह्यं लौह ताम्रश्च तत्समम् । ___घीमें भुना हुवा हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, प्लीहानं यकृतं गुल्ममामवातं सुदारुणम् ॥ मुलैठी, सञ्चल ( काला नमक ) इमलीका क्षार और / अर्शासि घोरमुदरं मूछी पाण्डं हलीमकम् । ताम्रभरम। सबका समानभाग चूर्ण लेकर एकत्र ग्रहणीमतिसारश्च यक्ष्माणं शोथमेव च ।। खरल करके रखिये। एतानन्यांश्च जयति रोगानेष रसो वरः ।। For Private And Personal Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४३२ ] भारत - भैषज्य रत्नाकरः । | हींग, त्रिकुटा, अपामार्ग ( चिरचिटा ) के पत्ते, आक और थोहर ( सेहुंड - सेंड ) के पत्ते समान भाग तथा इन सबके बराबर सैंधा नमक, लोहभस्म और ताम्र भस्म लेकर सबका चूर्ण करके एकत्र घोटकर गोलियां बना लीजिए । इनके सेवन से तिल्ली, यकृत्, गुल्म, आमवात, अर्श (बवासीर), भयङ्कर उदर रोग, मूर्च्छा, पाण्डु, हलीमक, ग्रहणी, अतिसार, यक्ष्मा और शोथ रोग नष्ट होता है। (मात्रा - ४ - ५ रत्ती । ) (२६०९) ताम्रेश्वरो रसः (१) ( वृ. नि. र. र. रा. सुं. । कास. ) रसपादं मृतं तारं शिलाताप्यं चतुर्गुणम् । वासाचेक्षुरसाभ्याञ्च मर्दयेत्महरद्वयम् ॥ द्वियामं बालुकायन्त्रे स्वेद्यमादाय चूर्णयेत् । गुञ्जाद्वयं निहन्त्याशु कासं क्षतभवं ध्रुवम् ॥ रसस्ताम्रेश्वरो नाम नुपानं च कथ्यते । दाडिमं त्रिफला व्योषं त्रयाणाञ्च समं गुडम् । चूर्णितं भक्षयेत्कर्षं क्षतकासापनुत्तये ॥ रससिन्दूर १ भाग, चांदी भस्म चौथाई भाग, मैनसिल और सोनामक्खी भस्म ४-४ भाग लेकर सबको २ - २ पहर बासा और ईखके रसमें घोटकर सुखाकर आतशी शीशी या काली बोतल में भरकर २ पहर तक बालुका यन्त्रमें पकाएं और फिर शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसके भीतरसे औषधको निकालकर पीसकर रक्खें । अनारके फलकी छाल, त्रिफला और त्रिकुटा समान भाग तथा इन सबके बराबर गुड़ लेकर चूर्ण बनावें, उपरोक्त औषधमें से २ रत्ती औषध खाकर ऊपरसे १। तोला यह चूर्ण (गर्म पानी से ) | [ तकारादि खाएं । इसके सेवन से क्षतजकास अवश्य नष्ट हो जाती है 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२६१०) ताम्रेश्वरो रसः (२) ( र. रा. सुं. । श्वासा. ) पलानि पञ्च शुद्धानि ताम्रपत्राणि बुद्धिमान् । गृहीत्वा योजयेत् तत्र तद शुद्धमृतकम् ॥ मर्दयेन्निम्बुकद्रावैस्त्रिदिनान्युभयं भिषक् । ताम्रपत्रैः समं शुद्धं गन्धकं तत्र निक्षिपेत् ॥ मर्दयित्वा घटीयुग्मं काचकूप्यां च निःक्षिपेत् । यामानष्टौ पचेदग्नौ बालुकायन्त्रसंस्थितम् || एष ताम्रेश्वरो हन्यात् श्वासादीनखिलान्गदान । धातुपुष्टिकरञ्चैव सूतिकारोगनाशनः ॥ शुद्ध ताम्रपत्र ५ पल (२५ तोले) और शुद्ध पारद २ || पल लेकर दोनोंको तीन दिन तक नीबू के रस में घोटिये और फिर उसमें ५ पल शुद्ध गन्धक मिलाकर २ घड़ी तक घोटकर कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशी में भरकर आठपहर तक बालुकायन्त्रमें पकाइये । शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर पीसकर रखिये। इसके सेवन से श्वास और सूतिका रोगादि नष्ट होते तथा धातुपुष्ट होती हैं । (२६११) तारकेश्वरी गुटिका (२.२.२. उप. ३) काकमाच्यमृताद्रावैः पारदं तालकं समम् । मर्दयेद्दिनमेकन्तु कृत्वा गोलं विशोषयेत् ॥ निक्षिपेद्वज्रभूषायामाच्छाद्य लौहपर्पटैः । रुध्वा सन्धि धमेद्गाढं खोटबद्धो भवेद्रसः || लोहपपेटकं दत्वा तद्वद्धाम्यं त्रिधा पुनः । वर्षेकं धारयेद्वक्त्रे गुटिकां तारकेश्वरी ॥ बाकुचीवीजकर्षैकं गवां क्षीरैः पिबेदनु । सर्वकुष्ठानि नश्यन्ति दिव्यकायो भवेन्नरः ॥ For Private And Personal Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४३३ ] पारा और हरताल समान भाग लेकर दोनों इसमेंसे १ माषा दवा शहदमें मिलाकर चाटको १-१ दिन काकमाची (मको) और गिलोयके | कर ऊपरसे १ कर्ष (१। तोला ) कठूमरके पक्के रसमें घोटिये और उसका गोला बनाकर सुखाकर फलोंका चूर्ण शहद में मिलाकर चाटनेसे प्रमेह नष्ट उसे लोहेके बारीक पत्रमें लपेटकर वज्रमूषामें बन्द होता है। करके और उसके जोडको अच्छी तरह बन्द करके खूब तेज़ आगमें धमाइये । इस प्रकार धमानेसे (२६१३) तारकेश्वरो रसः (२) (भै.र.।मूत्रकृ.) उसका खोटबद्ध बन जायगा, उसे फिर कूटकर | शुद्धसूतं समं गन्धं लौहं वङ्गं मृताभ्रकम् । मकोय और गिलोयके रसमें घोटकर, लोहपत्रमें दुरालभां यवक्षारं बीजं गोक्षुरजं शिवाम् ।। लपेटकर उपरोक्त विधिसे मूषामें बन्द करके धमा- समांशं भावयेत्सर्वं कूष्माण्डफलवारिणा। इये । इसी प्रकार तीनबार करनेसे गुटिका तैयार पञ्चतृणभवकाथे रसे गोक्षुरजे तथा ॥ हो जायगी। सम्पिष्य वटिका कार्या द्विगुञ्जाफलमानतः। नित्य प्रति इसे मुंहमें रखकर १ कर्ष | मधुना मद्य विलिहेन्मूत्रकृच्छ्रविनाशनम् ॥ (१। तोला) बाबचीका चूर्ण गोदुग्धके साथ सेवन उदुम्बरफलं पकं चूर्णितं कर्षमात्रकम् । करनेसे १ वर्षमें समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होकर लेहयेन्मधुना सार्धमनुपानं सुखावहम् ॥ देह सुन्दर हो जाती है। अजाक्षीरं भवेत्पथ्यं शर्करेक्षुरसो हितः॥ . (२६१२) तारकेश्वरो रसः (१) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, बङ्गभस्म, (र. का. धे. । प्रमेह.) अभ्रकभस्म, धमासा, यवक्षार, गोखरु और हरै । मृतमूताभ्रवङ्गानि मर्दयेन्मधुना दिनम् । सब चीजें समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी सर्वतुल्यं महानिम्बवीजं तत्र विनिक्षिपेत् ॥ कजली बना लीजिये और फिर उसमें अन्य ओषमाक्षिकेण चतुर्यामं मापैकं तेन भक्षयेत् । धियोंका चूर्ण मिलाकर सबको (एक एक दिन) अस्यानुपानं मलयूफलं पकं विचूर्णयेत् ॥ कुहड़े (पेठे) के फलके रस और तृणपञ्चमूल तथा कदुम्बरफलं पकं चूर्णितं कर्षमात्रकम् ।। गोखरुके काथमें घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां संलिहेन्मधुना सार्धमनुपानं सुखावहम् ॥ बना लीजिये। ___ पारदभस्म ( अभावमें रससिन्दूर ), अभ्रक इनमेंसे १-१ गोली शहदमें मिलाकर चाटभस्म और वङ्गभस्म १-१ भाग लेकर सबको कर ऊपरसे गूलरके पक्के फलोंका १ कर्ष (१। तोला) एकदिन शहदके साथ घोटें फिर उसमें बकायन | चूर्ण शहदमें मिलाकर चाटनेसे मूत्रकृच्छू रोग नष्ट के बीजोंकी गिरी सबके बराबर मिलाकर चार पहर होता है । इसपर बकरीका दूध, मिश्री और ईखका तक शहदमें घोटें। रस पथ्य है। भा० ५५ For Private And Personal Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४३४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। (तकारादि (२६१४) तारकेश्वरो रसः (३) | (२६१६) तारक्रियाप्रकारः (१) (रसें. सा. सं; र. चं.; र. रा. सुं.; धन्वं. । मूत्राघात; (र. प्र. सु. । अ. ११) रसें. चिं. । अ. ९) सूतकं पलमेकन्तु शङ्खाभं सुर्मिलं पलम् । मृतसूताभगन्धश्च मईयेन्मधुना दिनम् । एरण्डतैले घृष्टं तद्धारितं खपरे वरे ॥ तारकेश्वरनामायं गहनानन्दभाषितः ।। अन्धितं ताम्रपत्रेण मुद्रितं सुदृढं कृतम् । माषमात्रं भजेत्क्षौर्बहुमूत्रप्रशान्तये । पश्चाञ्चल्यां समारोप्य वहिं कुर्याच्छनैः शनैः ।। उदुम्बरफलं पकं चूर्णितं कर्षमात्रकम् ॥ - साधेयामं ततः पाच्यं स्वागशीतं समुद्धरेत् । संलिह्यान्मधुना सार्द्धमनुपानं सुखावहम् ॥ ताम्रपात्रे तु यल्लग्नं सर्व सत्वं समाहरेत् ॥ घृताक्तं टङ्कणोपेतं गालितं मूषिकामुखे । पारदभरम ( अभावमें रससिन्दूर ), अभ्रक | भस्म और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर सबको देयं तद्वल्लमात्रं हि नात्र कार्या विचारणा ॥ पारा १ पल और शंखसदृश सुर्मिल १ पल १ दिन शहदमें घोटकर गोलियां बना लीजिए । (५ तोले) लेकर दोनोंको अरण्डके तैलमें घोटकर इसमेंसे नित्य प्रति १। माषा दवा शहदमें मिला ५-६ कपरमिट्टी की हुई मिट्टीकी हाण्डीमें खरेख कर चाटकर ऊपरसे गूलरके पक्के फलोंका ११ तोला और उसपर ताबकी कटोरी ढककर उसके जोड़को चूर्ण शहदमें मिलाकर चाटनेसे बहुमूत्र रोग नष्ट गुड़चूने इत्यादिसे बन्द करदें एवं हाण्डीके मुंहपर होता है। शराव ढककर उसके जोड़को भी गुड़चूने इत्यादि (व्यवहारिक मात्रा-३-४ रत्ती ।) । से बन्द करके उसपर कपर मिट्टी करदें और सुखा(२६१५) तारकेश्वरो रसः (४) कर चल्हेपर चढा कर ||पहर तक मन्दाग्नि (भै. र.; यो. र.; र. चं.; धन्व.; र. र.। प्रमेहा.) पर पकाएं। मृतं सूतं मृतं लौहं मृतं वङ्गाभ्रकं समम् । । इसके पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर मर्दयेन्मधुना चाहो रसोऽयं तारकेश्वरः ।। उसके भीतरसे ताम्बेकी कटोरीमें लगे हुवे सत्वको हेलोवहुमूत्रापनुत्तये । निकालकर सुरक्षित रक्खें ।। औदुम्बरं पकफलं चूर्णितं मधुना लिहेत् ॥ (१ पल-५ तोले ) ताम्रको सुहागे और पारदभस्म (अभावमें रस सिन्दूर) लोहभस्म, जरासे घीके साथ मूषामें गलाकर उसमें १ वल्ल बङ्गभस्म और अभ्रकभस्म समान भाग लेकर सब (३ रत्ती) यह सत्व मिलानेसे चांदी बन जाती है। को १ दिन शहदमें घोटकर गोलियां बना लीजिये। (२६१७) ताराक्रयायाः प्रकारः (२) इसे १ माषेकी मात्रानुसार शहदमें मिलाकर (र. प्र. सु. । अ. ११) चाटकर ऊपरसे गूलरके पक्के फलोंका चूर्ण शहदमें शुद्धस्फटिकसंकाशं सुर्मिलं दृश्यते कचित् । मिलाकर चाटनेसे बहुमूत्र रोग नष्ट होता है। मृत्वर्परे पाचितं हि निम्बूकद्रवसंयुतम् ।। For Private And Personal Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४३५] घटिकाद्वयमानेन शुद्धकल्कं प्रजायते । पश्चात्तं मर्दयेद्धीमान् तैलेनैरण्डजेन वै । चतुःषष्टयंशमानेन वेधयेच्छुल्वकं शुभम् ॥ बालुकायन्त्रमध्यस्थं पचेद्यामास्तु षोडशः। जायते प्रवरं तारं सर्वदोषविवर्जितम् ।। पश्चात्सत्वं समुद्धत्य मर्दयेदेकवासरम् । ___ स्वच्छ स्फटिकमणिके समान सुर्मिलको नीबूके अतसीतिलतैलेन काचकूप्यां निधापयेत् ।। रसके साथ मिट्टीके खर्पर (प्याले) में २ धड़ी तक पूर्ववत्पाचयेद्वह्नौ स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । पकानेसे उसका कल्क (पिट्ठी) बन जाता है। अनेनैव प्रकारेण पुनरेवं तु कारयेत् ।। __ इसमेंसे १ भाग कक ६४ भाग (पिघले कूपीतलस्थितं सत्वं ग्राह्यं चेत्मवरं सदा । हुवे) ताम्र में डालनेसे सर्वदोषरहित उत्तम चांदी | पोडशांशेन शुल्वस्थ बेधं कुर्यान्न संशयः ॥ बन जाती है। ___वर्की हरताल ८ पल (४० तोले) और शुद्ध (२६१८) तारक्रियायाः प्रकार: (३) पारा २ कर्ष (२॥ तोले) लेकर दोनोंको १ दिन (र. प्र. सु. । अ. ११) नीबूके रसमें घोटें, तत्पश्चात् १ दिन अरण्डीके तालं तानं रीतिघोषं समांशं तेलमें घोटकर कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें कुर्यादेवं गालितं ढालितं हि । भरकर १६ पहर बालुकायन्त्रमें पकावें तत्पश्चात् अम्ले वर्गे सप्तवारं प्रढाल्य. शीशीकी तली में लगे हुवे सत्वको निकालकर १-१ पश्चायोज्यं तुल्यभागे च रूप्ये ।। दिन अलसी और तिलके तैलमें घोटकर उक्त विधि शुद्धं रूप्यं षोडशाख्यं हि सम्यग् से बालुकायन्त्रमें पकाएं और स्वांगशीतल होनेपर जातं दृष्टं नानृतम् सत्यमेतत् ॥ शीशीमें से औषधको निकालकर पुनः अलसी और उत्तम वर्की हरताल, शुद्ध ताम्र, पीतल और तिलके तेलमें घोटकर बालुकायन्त्रमें पकाएं और कांसी समान भाग लेकर सबको एकत्र गलाकर ढाल लें और फिर उसे गला गलाकर सात बार शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसकी तलीमें से अग्लवर्गमें' बुझावें । इसके पश्चात् उसमें समान सत्वको निकालकर सुरक्षित रक्खें ।। भाग चांदी मिला दें तो शुद्ध पोडश (सर्वोत्तम) यह सत्व १६ गुने तांबेको पिघलाकर उस चांदी बन जायगी। यह प्रयोग हमारा (श्लोक में मिलानेसे सबकी चांदी बना देता है। कारका) देखा हुवा और सत्य है। (२६२०) तारमारणम् (१) (अनु.त.को.१) (२६१९) तारक्रियायाः प्रकारः (४) शुकप्रियापीतकपत्रकल्के ___ (र. प्र. सु. । अ. ११) चतुगुणे तारकमेव रुध्वा । पलाष्टमात्रं तालन्तु द्विकर्षप्रमितं रसम् ।। शरावके सम्पुटके पुटेच्च निम्बूरसेन सम्म वासकै प्रयत्नतः ॥ त्रिभिः पुटैरेव वराहसंज्ञैः॥ १ अम्लवर्ग–अम्लवेत, जम्बीरी नीबू, बिजौरा नीबू, नारंगी, तिन्तडी, इमलीका फल, चांगेरी, अनारदाना, करौंदा और अम्लबेत । (र. सा. सं.) For Private And Personal Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [तकारादि शुद्ध चांदीको दाडिम और कीकरके पत्तोंकी एतेन तारपत्राणि लेपयेच्छोषयेत्ततः । लुगदीमें रखकर शरावसम्पुट में बन्द करके बराह शरावसम्पुटे तेषामूर्खाधो गन्धकं क्षिपेत् ॥ पुटमें फंकनेसे ३ पुटमें चांदी भस्म हो जाती है। तारतुल्यं ततस्तानि रुवा गजपुटे पचेत् । (२६२१) तारमारणम् (२) (अनु.त.को.१) त्रिंशद्वनोत्पलैरेव स्वागशीतं समुद्धरेत् ॥ तारपत्राणि सूक्ष्माणि कृत्वा संशोध्य पूर्ववत् । चार भाग शुद्ध चांदीके सूक्ष्म पत्र, १ भाग तत्समौ सूतगन्धौ च काञ्जिकेन विलेपयेत् ॥ शुद्ध हरताल और ८ भाग गन्धक लेकर हरतालको स्थाल्यां पचेदिनं रुध्वा भस्म स्यात्तीक्ष्णवह्निना। जम्बोरी नीबूके रसमें पीसकर चांदीके पत्रोंपर लेप बालकैणाक्षि बिम्बोष्ठि स्वर्णकुम्भकुचे प्रिये ॥ करके सुखा लीजिये और फिर ऊपर नीचे आधा चांदीके सूक्ष्म पत्रों को शुद्ध करके उनके आधा गन्धक रखकर उन्हें शराव सम्पुट में बन्द ऊपर उनके बराबर पारे गन्धककी कजलीको करके ३० अरने उपलों ( अरण्योत्पल )में गजपुटके काञ्जीमें पीसकर लेप कर दीजिये और फिर उन्हें गढ़ेमें फूंक दीजिये और स्वांगशीतल होने पर ४-५ कपरौटी की हुई हाण्डीमें बन्द करके १ चांदी भस्मको निकालकर सुरक्षित रखिये । दिन तीक्ष्णाग्नि पर पकाइये और स्वांग शीतल (नोट-यदि एक बारमें भस्म न हो जाय होनेपर भस्मको निकालकर सुरक्षित रखिये। तो फिर इसी प्रकार पुट देनी चाहिये । ) (२६२२) तारमारणम् (३) (वृ.यो.त.त.४१) (२६२४) तारमारणम् (५) (र.प्र.सु.अ.४) तारपत्राणि सूक्ष्माणि कृत्वा तत्तुल्ययोः पृथक् । भागमेकं तु रजतं सूतभागचतुष्टयम् । सतगन्धकयोस्तुल्यं तालयोः खल्वसंस्थयोः॥ मईयेदिनमेकं तु सततं निम्बुवारिणा ॥ कल्कं कृत्वा कुमार्याद्भिस्तेन तानि मलेपयेत्। पेषणाजायते पिष्टिदिनैकेन तु निश्चितम् । शरावसंपुटे रुद्भवा त्रिंशद्वन्योत्पलैः पुटेत् ॥ मूषामध्ये तु तां मुक्का ह्यधोवे गन्धकं न्यसेत् ॥ एवं रजतमाप्नोति मृतिं वारद्वयेन वै॥ बालुकायन्त्रमध्यस्थां दिनैकं तु दृढाग्निना। पारा और गन्धक १-१ भाग तथा वर्की पाचितां तु प्रयत्नेन स्वाङ्गशीतलतां गताम् । हरताल २ भाग लेकर तीनोंको घृतकुमारीके रसमें तालेनाम्लेन सहितां मर्दितां हि शिलातले। घोटकर १ भाग चांदीके शुद्ध सूक्ष्मपत्रोंपर लेप कर ततो द्वादशवाराणि पुटान्यत्र प्रदापयेत् ॥ दीजिये और उन्हें शराव सम्पुटमें बन्द करके ३० अनेन विधिना सम्यग्रजतं म्रियते ध्रुवम् ॥ बन उपलों ( अरने उपलों )में फूंक दीजिये। इसी १ भाग शुद्ध चांदीके पत्र या चूर्ण और प्रकार २ पुट देनेसे चांदी भस्म हो जाती है। चार भाग पारेको एकत्र मिलाकर निरन्तर एक (२६२३) तारमारणम् (४) (वृ.यो.त.।त.४१) दिन नीबूके रसमें घोटें । इस प्रकार घोटनेसे एक तारपत्रं चतुर्भागं भागैकं शुद्धतालकम् । ही दिनमें दोनोंकी पिट्ठी हो जायगी । इस पिट्टीके एतज्जम्बीरजद्रावैः कल्कीकृत्यालकं भिषक | बराबर आमलासार गन्धकका चूर्ण लेकर उसमेंसे For Private And Personal Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रेसप्रकरणम् ] ऊपर नीचे आधा आधा गन्धक देकर उक्त पिट्ठीको शराब सम्पुट में बन्द कर दीजिए और सुखाकर एक दिन तीत्राग्नि पर बालुकायन्त्र में पकाइये | स्वांगशीतल होने पर सम्पुटके भीतर से चांदीको निकालकर उसमें उसके बराबर व हरताल मिलाकर नीबू के रसके साथ घोटिये और टिकिया बनाकर सुखाकर उन्हें शराव सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दीजिये । इसी प्रकार हरतालके साथ १२ पुट देनेसे अवश्य ही चांदीकी उत्तम भस्म बन जाती है । (२६२५) तारमारणम् ( ६ ) (र. प्र. सु. । अ. ४; र. र. स. पू. अ. ५ ) तारमाक्षिकयोश्चूर्णमम्लेन सह मर्दयेत् । त्रिंशत्पुटेन तत्तारं भूती भवति निश्चितम् ॥ शुद्ध चांदी और शुद्ध सोनामक्खीका चूर्ण समान भाग लेकर नीबू के रसमें घोटें और टिकिया बनाकर सुखाकर शराब सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें । इसी प्रकार नीबूके रसमें घोटकर ३० पुट देनेसे चांदी अवश्य मर जाती है । ( नोट - स्वर्णमाक्षिक बार बार डालने की आवश्यकता नहीं है, केवल पहिली बार ही मिलानी चाहिये | ) (२५२६) तारमारणम् (७) (र. मं. अ. ५) स्वर्णमाक्षिकगन्धस्य समं भागं तु कारयेत् । अर्क क्षीरेण सम्पिष्टं तारपत्रं प्रलिप्य च ॥ पुटेन जारयेत्तारं मृतं भवति निश्चितम् ॥ सोनामक्खी और गन्धक समान भाग लेकर दोनोंको आकके दूधमें घोटकर समान भाग चांदीके शुद्ध पत्रोंपर लेप कर दीजिये और उन्हें सुखाकर Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३७ ] सम्पुटमें बन्द करके फूंक दीजिये । इसी प्रकार जब तक चांदी भस्म न हो जाय पुट देते रहिये । (२६२७) तारमारणम् ( ८ ) (शा. सं. । म. ख. ११; भा. प्र. । ख. १ ) स्नुही क्षीरेण सम्पिष्टं माक्षिकं तेन लेपयेत् । तालकस्य प्रकारेण तारपत्राणि बुद्धिमान || पुटेच्चतुर्दशपुटैस्तारं भस्म प्रजायते ॥ १ भाग स्वर्ण माक्षिकको १ पहर श्रोहर ( सेहुंड - सेंड ) के दूध में घोटकर ३ भाग शुद्ध चांदी के पत्रोंपर लेप करके मूषामें बन्द करके ३० अरण्योपल ( अरने उपलों ) में फूंक दीजिये | स्वांग शीतल होने पर निकालकर पुनः इसी प्रकार पुट दीजिये | इसी प्रकार १४ पुट देनेसे चांदी भस्म हो जाती है । (२६२८) तारमारणम् (९) ( अनु. त.; शा. सं. । म. अ. ११; भा. प्र. । खं. १; र. र. स. पू. अ. ५ ) भागैकं तालकं मयाममम्लेन केनचित् । तेन भागत्रयं तारपत्राणि परिलेपयेत् ॥ धृत्वा मृषापुढे रुद्ध्वा पुटे त्रिंशद्वनोपलैः । समुद्धृत्य पुनस्तालं दत्त्वा रुध्वा पुढे पचेत् ॥ एवं चतुर्दशपुटैस्तारं भस्म प्रजायते ॥ १ भाग हरतालको नीबू के रसादि किसी अम्ल पदार्थ में घोटकर ३ भाग शुद्ध चांदीके सूक्ष्म पत्रोंपर लेप कर दीजिये और उन्हें मूषामें बन्द करके ३० बनोपल ( अरने उपलों ) में फूंक दीजिये | इसी प्रकार बार बार हरताल देकर १४ पुट देनेसे चांदी की भस्म वन जाती है । For Private And Personal Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३८ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि ( नोट-जब पुट लगानेसे चांदीके पत्रोंकी | ( नोट—किसी किसी ग्रन्थमें प्रत्येक वस्तुमें अधपकी भस्म बन जाय और वह पत्रोंके रूपमें सात सात बार बुझानेको लिखा है।) न रहें तो हरतालको उस चूर्णके ऊपर नीचे (२६३१) तारस्य विशेषशोधनम् रखकर पुट देनी चाहिये अथवा चांदीके साथ ही ( आ. वे. प्र. । अ. ११ ) किसी अम्ल पदार्थमें धोटकर टिकिया बनाकर तैलतक्रादिशुद्धस्य रजतस्य विशेषतः । सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके पुट देनी चाहियें।) शोधनं मुनिभिः प्रोक्तं तद्यथावनिगद्यते ॥ (२६२९) तारशोधनम् (र.र.स.पूर्व.अ.५) पत्रीकृतं तु रजतं प्रतप्तं जातवेदसि । नागेन टङ्कणेनैव वापितं शुद्धिमृच्छति । निर्वापितमगस्त्यस्य रसे वारत्रयं शुचि ॥ तारं त्रिवारं निक्षिप्तं तैले ज्योतिष्मतीभवे ॥ चांदीके पत्रोंको तैल तक्रादिमें शुद्ध करनेके पश्चात् उन्हें अग्निमें खूब तपा तपाकर तीन बार समान भाग चांदी और सीसेको पिघलाकर अगस्तिके रसमें बुझानेसे वह शुद्ध हो जाते हैं। एकत्र मिलावें फिर उसमें सुहागा डालकर अग्निमें तपाकर मालकंगनीके तैलमें बुझावें । इसी प्रकार (२६३२) तारसुन्दरीवटी (रससार । प.२४) तारं कान्तं व्योम वङ्गं तावद्भागं च मूतकम् । तपा तपाकर ३ बार बुझानेसे चांदी शुद्ध हो गन्धकेन समायुक्तं चक्रयन्त्रे स्थिरीकृतम् ॥ जाती है। क्षुरको गोक्षुरः कच्छुः शतमूली बलात्रयम् । (नोट-सीसा केवल पहिली बार ही मिलाना एभिर्वद्धा वटी श्रेष्ठा सुन्दरी तारसंज्ञका ॥ चाहिये बाद को नहीं; और सुहागा हर बार रमेद्रामाशतं रात्रौ दुर्दण्डविहितेन्द्रियः । डालना चाहिये । ) वलीपलितनिर्मुक्तो दीर्घायुर्जायते नरः ॥ (२६३०) तारशोधनम् ___चांदीभस्म, कान्तलोह-भस्म, अभ्रकभस्म, (शा. सं. । म. ख. अ. ११; भा. प्र. । ख. १; वङ्गभस्म और शुद्ध पारा तथा शुद्ध गन्धक समान यो. त. । त. १७; र. र. स.। पू.खं. अ. ५) । भाग लेकर सबको घोटकर महीन कज्जली बना स्वर्णतारारताम्रायःपत्राण्यग्नौ प्रतापयेत् । लीजिये फिर उसे सम्पुटमें बन्द करके चत्र यन्त्रमें निषिश्वेत्तप्तततानि तैले तके च कानिके॥ पकाइये और फिर स्वांग शीतल होने पर निकाल " गोमूत्रे च कुलत्थानां कषाये च त्रिधा त्रिधा। कर १-१ दिन तालमखाना, गोखरू, कौंचके बीज और तीनों प्रकारकी बला (खरैटी, गंगेरन, एवं स्वर्णादिलोहानां विशुद्धिः संप्रजायते ।। कंघी )के काथ तथा शतावरीके रसमें घोटकर स्वर्ण, चांदी, पीतल, ताम्र और लोहके गोलियां बना लीजिए । पत्रोंको अग्निमें तपा तपाकर ३-३ बार तिलके इसके सेवनसे सैंकड़ों स्त्रियोंके माथ रमण तैल, तक्र, काञ्जी, गोमूत्र और कुलथीके क्वाथमें . करनेकी शक्ति और बलीपलित-रहित दीर्घायु प्राप्त बुझानेसे वह शुद्ध हो जाते हैं। | होती है। For Private And Personal Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४३९] ( मात्रा--२-३ रत्ती । पानमें रखकर अग्निमांद्य, अर्श, ग्रहणी, कृमिरोग, गुल्म, उदररोग, खाना चाहिये ।) अम्लपित्त और स्थूलताका नाश होता है । (२६३३) तारामण्डूरम् इसके सेवनकालमें शुष्क शाक, विदाही अम्ल ( र. का. धे.; वं. से.; यो. र.; र. चं.; र. र.; और कटु (चरपरे) पदार्थ सेवन न करने चाहिये। ग. नि.; च. द.; वै. रह.; भै. र.; वृ. मा.। यह पक्तिशूल और साधारण शूनमें विशेष शूला.; यो. त.।त. ४४ ; वृ. यो. त.।त. ९५) उपयोगी है। विडङ्गं चित्रकं चव्यं त्रिफला त्र्यूषणानि च। (२६३४) तालकराजरसः (र.प्र.सु.।अ.८) नव भागानि सर्वानि लोह किट्टसमानि च ॥ वङ्गं चाभ्रं शोधितं तालकञ्च गोमूत्रं द्विगुणं दत्त्वा मूत्राद्विगुणितम् गुडम् । सूतं शुद्धं वत्सनाभं तथैव । शनैर्मेद्वग्निना पक्त्वा सुसिद्धं पिण्डतां गतम् ॥ सौवीराख्यं टङ्कणं व्योषसझं स्निग्धभाण्डे सुनिक्षिप्य भक्षयेत्कोलमात्रया। वङ्गं युग्मं भागमत्रैव कुर्यात् ।। पाङ्मध्यान्तक्रमेणैव भोजनस्य च योजितः॥ अभ्रं कुर्यान्नेत्रभागञ्च सम्यक् योगोऽयं शमयत्याशु पक्तिशूलं सुदारुणम् । मृताच्चैकं तालकाद्वै त्रिभागान् । कामलापाण्डुरोगश्च शोथं मन्दामितामपि । नाभाच्चैक टङ्कणाद्वेदभागान् अर्शासि ग्रहणीरोगं कृमिगुल्मोदराणि च । सौवीराद्वौ कल्पनीयौ हि भागौ ॥ नाशयेदम्लपित्तश्च स्थौल्यं चाप्यपकर्षति ॥ खल्वे मद्य सर्वमेकत्र वज्रीवर्जयेच्छुष्कशाकानि विदाह्यम्लकटूनि च । क्षीरे चार्के वासरकं प्रयत्नात् । पक्तिशूलान्तको ह्येष गुडो मण्डूरसंज्ञकः॥ पश्चात् क्षेप्यं काचकूप्यां हि सर्व शूलार्तानां कृपाहेतोस्तारया परिकीर्तितः॥ कूपीवक्त्रं ताम्रपत्रेण रुन्ध्यात् ।। _ बायबिडंग, चीता, चव्य, हर, बहेड़ा, आमला, मुद्रां कृत्वा पाचयित्वाष्टयामान् सोंठ, मिर्च, पीपल । प्रत्येक १-१ भाग । मण्डूरका शीतं ज्ञात्वा पूर्ववन्मर्दनीयम् । शुद्ध चूर्ण ९ भाग । गोमूत्र ३६ भाग और गुड़ एवं कुर्यात् त्रींश्च वारान् विशुद्धं ७२ भाग लेकर, चूर्ण योग्य औषधोंका चूर्ण कल्कं जातं षोडशांसेन ताम्रम् ॥ करके सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाएं। शुभ्रं दत्वा सर्वरोगप्रणाशम् जब गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे उतारकर आधा | ___ कुर्याच्चैतद् भाषितं भैरवेण । आधा कर्ष ( ७॥ माशे )के मोदक बना लीजिए। सेव्यं वल्लं वर्षमेतत्प्रयत्नाइन्हें भोजनके पहिले, मध्य और अन्तमें वृद्धत्वं नो जायते सर्वकालम् ॥ सेवन करनेसे पक्तिशूल, कामला, पाण्डु, शोष, वङ्गभस्म २ भाग, अभ्रकभस्म २ भाग, १ मूत्रार्द्धकगुडान्वितमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४४० ] शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध हरताल ३ भाग, शुद्ध वनाग ( मीठा तेलिया) १ भाग, सुहागा ४ भाग, सौवीरान्ञ्जन २ भाग और त्रिकुटा ४ भाग लेकर प्रथम पारे और हरतालको एकत्र घोटें फिर उसमें अन्य औषधियां मिलाकर १-१ दिन थोहर ( सेंड ) के दूध और आकके दूधमें घोटकर सुखाकर कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशी में भरकर उसके मुखपर शुद्ध तांबेका पत्र ढककर सन्धिको गुड़ चूने से बन्द करके उसपर भी ३-४ कपरमिट्टी कर दीजिये, और सुखाकर बालुकायन्त्र में ८ पहर तक पकाइये फिर शीशीके स्वांग शीतल होने पर उसके भीतरसे औषधको निकालकर पुनः थोहर और आकके दूधमें घोट कर उक्त विधिसे ८ पहर तक बालुकायन्त्र में पकाइये | इसी प्रकार ३ बार पाक कीजिये । ताम्रका पत्र हर बार बदलना नहीं चाहिये बल्कि एक ही पत्र तीनों बार शीशी मुंहपर ढकना चाहिये । अन्तमें शीशीमेंसे औषध निकालकर सुरक्षित रक्खें और ताम्रपत्रका जितना भाग भस्म होकर श्वेत हो गया हो उसे अलग निकालले उपरोक्त शीशीवाली औषध में उसका १६ वां भाग यह ताम्र भस्म मिलाकर घोटकर खखें । इसमेंसे नित्यप्रति ३ रत्ती औषध सेवन करने से समस्त रोग नष्ट होते हैं । यदि इसे १ वर्ष तक निरन्तर सेवन किया जाय तो कभी बुढ़ापा नहीं आता । भारत-भैषज्य रत्नाकरः । तकारादि अस्य गुञ्जाद्वयं हन्ति वातिकं पैत्तिकं ज्वरम् ॥ शीतज्वरं विशेषेण तृतीयकचतुर्थकौ ॥ । (२६३५) तालकाङ्को रसः (र.रा. सुं, भै.र. ।ज्वरा.) तालकस्य च भागौ द्वौ भागन्तुत्थस्य शुक्तिका चूर्णकानां चतुर्भागं मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः || यामैकेन ततः पश्चात् रुध्वा गजपुटे पचेत् || Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शुद्ध व हरताल २ भाग, तुत्थ ( नीलाथोथा) और सीप १-१ भाग तथा ( बे बुझा ) चूना ४ भाग लेकर सबको १ पहर घृतकुमारीके रसमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखा लीजिए और सम्पुट में बन्द करके उसे सुखाकर गजपुटमें फूंक दीजिए । सम्पुटके स्वांग शीतल होनेपर उसमें से औषध निकालकर पीसकर रखिये । इसमेंसे २ रत्ती दवा खाने से वातज, पित्तज और विशेषकर तृतीयक ( तिजारी ) और चौथिया इत्यादि शीतज्वर नष्ट होते हैं। (से. वि. - औषध ज्वर आनेसे ३-४ घन्टे पहिले खांडमें मिलाकर खानी चाहिये। इससे किसी किसीको उल्टी होना सम्भव है । ज्वरका समय बीत जानेके २ - ३ घन्टे बाद दहीभातका पथ्य देना चाहिये ।) (नोट - इस 'तालका रस' तथा आगे लिखे हुवे २ प्रकार के 'तालकादि ज्वराङ्कुश' रसों के उपादान लगभग समान ही हैं, परन्तु थोड़ा थोड़ा अन्तर होनेसे भी गुणों में विशेष अन्तर होना सम्भव है इस लिये तीनों पाठ पृथक् पृथक् दिये गये हैं ।) ( २६३६) तालकादिगुटिका | ( र. रा. सुं. । वा. व्या. ) तालकं गन्धसूतञ्च शुद्धं दरदटङ्कणम् । त्र्यूषणं समभागानि सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ भावनैका प्रदातव्या आर्द्रकस्य रसेन च । मुद्गप्रमाणां वटिकामेकां प्रातः प्रभक्षयेत् ॥ प्रसूतिवातरोगघ्नं मन्दाग्निं ग्रहणीं तथा । इलेष्मनं विषमञ्चैव शीतज्वरं विनाशनम् ॥ For Private And Personal Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [४४१] Vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvwwwwwwwwwwwwww. शुद्ध हरताल, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, शुद्ध | हो जाय तो चने बराबर गोलियां बनाकर रक्खें। हिंगुल (शंगरफ), सुहागेकी खील और त्रिकुटाका इनमेंसे १-१ गोली खांडके साथ देनेसे चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारेगन्धककी शीतज्वर अवश्य नष्ट होता है । कजली बना लीजिये तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर १ दिन आदाके रसमें घोटकर मूंग (२६३८) तालकादिष्वराङ्कुशः (र.रा.सु.।ज्व.) के बराबर गोलियां बना लीजिये। तालकं शुक्तिकाचूर्ण तुल्यं तत्रोभयोरपि । ___इनमेंसे एक एक गोली प्रातःकाल सेवन नवमांशं च तुत्यं स्यान्मर्दयेत्कन्यकाद्वैः॥ करनेसे प्रसूति रोग, वातव्याधि, अग्निमांद्य संग्रहणी, तत्तु संशुष्कमुपलैर्वन्यैर्गजपुटे पचेत् । .. कफ, विषमज्वर और शीतज्वर नष्ट होता है। शीतं तचूर्णये पूर्ण गुञ्जामा सितायुतम् ।। (२६३७) तालकादिज्वराङ्कशः प्रभाते भक्षयेत् तेन याति शीतज्वरः क्षयम् । (र. रा. सुं. । ज्व. ) | वान्तिर्भवति कस्यापि कस्यापि न भवत्यपि॥ एक कर्ष भवेत्तालं द्विकर्ष तुत्थकं भवेत् । एकेन दिवसेनैव शीतज्वरहरं परम् ।। षट् कर्षा भृष्टशुक्तीनां चूर्णमेकत्र कारयेत् ॥ मध्याह्नसमये पथ्यं भक्तं शिखरिणीयुतम् ॥ धत्तरपत्रस्वरसैर्मर्दयेद्याममात्रकम् । शुद्ध वर्की हरताल ९ भाग, सीपका चूर्ण निधाय भाजने लौहे सम्मद्य क्रमशो बुधैः॥ ९ भाग और नीलाथोथा (तुत्थ) २ भाग लेकर उपर्यग्नेः स्थापयित्वा तद्रसं शोषयेद्भिषक् ॥ सबको (१ पहर) घीकुमार (ग्वारपाठा) के रसमें पुनः पर्युषितं मातगृहीत्वा किश्चिदमितः। घोटकर टिकिया बनाकर सुखा लें और उसे सम्पुट कोष्णं कृत्वा कल्कमेतत्ततो वठ्यः प्रसाधिताः।। में बन्द करके वन्य उपलों (अरने उपलों) की चणकममितास्तासामेका शर्करया सह। आगमें गजपुटमें फूंक दें । सम्पुटके स्वांगशीतल शीतज्वरं निहन्त्येष सर्व नास्त्यत्र संशयः॥ होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर पीसकर रक्खें। शुद्ध वर्की हरताल १ कर्ष (१। तोला ), इसमेंसे १ रत्ती चूर्ण मिश्रीके साथ प्रातःकाल शुद्ध नीलाथोथा (तुत्थ) २ कर्ष और सीपकी भस्म खिलानेसे शीतज्वर एकही दिनमें नष्ट हो जाता ६ कर्ष लेकर सबको १ पहर धतूरेके पत्तोंके | है। इससे किसी किसीको उल्टी हो जाती है। रसमें घोटकर लोहेके पात्र में डालकर अग्निपर रक्खें और जब तक सब रस न सूख जाय तब पथ्य-मध्याह्नमें शिखरन और भात खिलाएं। तक बराबर घोटते रहें । रस सूख जाने पर घोटना (नोट-रसकामधेनुका ज्वराधिकारका 'चिन्ताबन्द कर दें और औषधको कड़ाहीमें ही रहने दें। मणिरस' भी लगभग इसी के समान है उसमें __ दूसरे दिन उसमें थोड़ासा धतूरेका रस और हरताल १ भाग, तुत्थ २ भाग और चूना ३ भाग मिलाकर पुनः गर्म करें और गोलियां बनाने योग्य पड़ता है। शेष निर्माणविधि इसीके समान है।) भा० ५६ For Private And Personal Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ४४२ ] (२६३९) तालकादिवटी ( र. चं; वृ. नि. र. । शीतपित्ता. ) तालं रसेनाष्टगुणं जयां च विमर्थ यत्नागुटिका गुडेन । निवध्य तां सेवय मासयुग्मं त- भैषज्य - www.kobatirth.org भारत - रत्नाकरः दिनोदये स्पर्शविकारनुत्यै ॥ शुद्ध व हरताल ८ भाग, रससिन्दूर और भांगका चूर्ण १ - १ भाग लेकर सबको अच्छी तरह खरल करके ( समान भाग) गुड़ में मिलाकर गोलियां बनालें । इन्हें दो मास तक प्रात: काल सेवन करने से कुष्टरोग नष्ट होता है 1 ( मात्रा ४ रत्ती । अनुपान उष्णजल | ) (२६४०) तालकेश्वररसः (१) (वै. रह. । कुष्ट) पलाशजटावल्कलं संशोष्य भस्म कारयेत् तद्भस्म पञ्चविंशतिपलपरिमितं तन्मध्ये प्रकृष्टतालकम् पञ्चविंशतिमाषकपरिमितं खण्डशः कारयित्वा भस्मना सह मिश्रयेत् । नूतनहण्डिकायां दृढं यथास्यादेवं रक्षयेत्; हण्डिको परि शरावं दत्वा विना मुद्रां चुल्ल्यां स्थापयेत्, यामदशकपर्यन्तं हठाग्निना दाहयेत्; सम्यग्दग्धं ज्ञात्वा वस्त्रपूतं कारयेत् । तद्भस्म रक्तिकाद्वयपरिमितमदग्धजीरकचूर्णमाषं परिमितमेकीकृत्य पर्णखण्डेन सह भक्षयेत् । शीतलजलमनुपाययेत् पथ्यं चणकचूर्ण चणकरोटिकां भर्जितचणकं वा दापयेत् । एवं मण्डलपर्यन्तं बहुवातातपो वर्जयेत्: तदाष्टादश कुष्ठविविधवातशोणितविविधत्रणप्रमेह पिडिकामवातव्याध्यादीन्नाशयेत् । अनुभूतोऽयं प्रयोगः || [ तकारादि पलाश (ढाक) की सूखी हुई छाकी भस्म २५ पल (१२५ तोले) लेकर कपर मिट्टी की हुई हाडी में इसमें से आधी भस्म भरकर उसपर २५ माशे (३१ । माशे - २॥ तोले लगभग ) शुद्ध वर्की हरतालके टुकड़े रखकर ऊपर से शेष भस्म भरकर उसपर शराव ढक दें और उसकी सन्धिको बन्द किये बिना ही चूल्हेपर चढ़ाकर दश पहर तीव्राग्नि पर पकाएं, तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसके भीतर से हरतालको निकालकर पीसकर कपर छन करके रक्खें । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इस भस्ममेंसे २ रत्ती लेकर १ माशे बिना भुने जीरके चूर्ण में मिलाकर पान में रखकर खिलाएं और ऊपरसे ठण्डा पानी पिलाएं । पथ्यमें केवल भुने चनेका आटा, चनेकी रोटी और भूने हुवे चने दें, और अधिक वायु तथा धूपादिसे परहेज़ कराएं । इस प्रकार इसे ४८ दिन तक सेवन करने से १८ प्रकारके कुष्ठ, वातरक्त, अनेक प्रकारके ब्रण, प्रमेह पिडिका और वातव्याधि आदि रोग नष्ट होते हैं । यह प्रयोग अनुभूत है । ( २६४१) तालकेश्वररसः (२) ( र. र. स. । उ. खं. अ. २० ) मूत्रं गवां षोडशभागमानं निधाय भाण्डेऽथ पिधाय तस्मिन् । दीपानिना तत्परिशोष्य सर्व मूत्रं ततस्तालकशुद्धता स्यात् ॥ वीर्य पुरा रेरिह नागतुल्यं भागद्वयं चाप्यथ तालकस्य । शुद्धेन नागेन रसो विशुद्धो विमर्दनीय हरितालकञ्च ॥ For Private And Personal Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भाग। [४४३] लतस्तु जम्बीररसेन सर्व विमर्दनीयं त्रिदिनं त्रिवारम् । भाव्यं कुमार्याः सलिलेन भृङ्ग वज्राहकन्देन च वारयुग्मम् ।। कुष्ठे ददीतास्य रसस्य बल्ल___त्रयं रसैराईकजैविजेतुम् । शाखासु पकत्वमथो सुषुप्ति ___स्तम्भं च मन्यास्वथ मण्डलानि ॥ गवां पयःशर्करया समेत स्तम्भातिरेके सति सन्नियोज्यम् । औदुम्बरं हन्ति सितामधुभ्यां __कृष्णं च कुष्ठं त्रिफलारसेन ।। गुडाईकाभ्यां गजचर्मसिध्म विचचिकास्फोटविसर्पददन् । निहन्ति पाण्डं विविधां विपादीं सरक्तपित्तं कटुकीसिताभ्याम् ॥ रोगेषु सर्वेष्वपि वासराणि त्रिसप्तसंख्यानि रस प्रदेयः। रसप्रयोगावसितो सुषुप्त्यां काथं पिबेच्छिन्नरुहासनोत्थम् ॥ मासद्वयं मुद्घृतान्वितान्नं पथ्यं ततोदुम्बरभेषजान्ते । अङ्गानि पश्चानि पलोन्मितानि दद्यादरिष्टस्य तथाऽढकीनाम् ।। काथेन युक्तं सघृतौदनं च। पथ्याय कृष्णेष्यथ कृष्णवर्णे । रसावसाने सितयासमेतां __पलोन्मितामामलकी प्रदद्यात् ॥ अन्नं समुद्नं सघृतं नियोज्यं मासद्वयं स्यादथ वा विचिह्नम् । रसप्रयोगावसितौ प्रयुज्या दङ्गानि पञ्चस्रवनिःसृतानि ॥ पादोन्मितानीह च मासयुग्म पथ्याय दुग्धौदनमाददीत। स्यात्तालकेशाख्यरसप्रयोगे तकं हि मासं च विवर्जनीयम् ॥ वर्की हरतालको १६ गुने गोमूत्रमें, बरतनका मुख बन्दकरके मूत्र जल जाने तक पकावें । तत्पश्चात् २ भाग यह हरताल और १-१ भाग रस सिन्दूर तथा सीसाभस्म लेकर सबको एकत्र घोटकर कजली बनाइये और फिर उसे ३-३ दिन जम्बीरी नीबू तथा घृतकुमारी (ग्वारपाठा) के रसमें और २-२ दिन भंगरे तथा बनसूरण के रसमें घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये। इनमेंसे प्रतिदिन ३-३ गोली अद्रकके रस के साथ देनेसे शाखागत पका हुवा कुष्ठ, सुषुप्ति (सुन्नबहरी), मन्यास्तम्भ और मण्डलकुष्ठ नष्ट होते हैं । यदि स्तम्भ अधिक हो तो मिश्री मिलाकर गायका दूध पिलाना चाहिये । ___ इसे मिश्री और शहद के साथ देनेसे औदुम्बर । कुष्ठ; अद्रकके रस और गुड़के साथ देनेसे गज चर्म, सिध्म, विचर्चिका, विस्फोट, विसर्प और दाद नष्ट होते हैं, तथा मिश्री और कुटकीके रसें. चि. म. और र. का. धे. में सीसाभस्म १ शाण, गन्धक १ तो लिखी है शेष प्रयोग लगभग समान है । और हरताल २ निष्क For Private And Personal Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तकारादि AAAAAAAAAAAAAAAAARAMMAA AMANA [४४४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। काथके साथ देनेल पाण्डु, विपादिका (बिवाई) | वल्लमात्रं समरिचं गुडेन सह भक्षयेत् । और रक्त पित्त नष्ट होता है। तत्र तैलं तैलपक्कमन्नं पर्युषितं दधि । कृष्णकुष्ठ और सुषुप्तिमें यह रस सेवन कराया वर्जयेदिति केषाश्चिन्मते शीतज्वरं जयेत् ।। जाप तो उसके साथ गिलोय और असनाकी छाल शुद्ध हरताल और शुद्ध भिलावे समान भाग का काथ पिलाना चाहिये। लेकर सबको एकत्र कूटकर ३ दिन तक आकके ___ यह रस सभी रोगोंमें २१ दिन तक सेवन दूधमें अच्छी तरह घोटकर टिकिया बनावें और कराना चाहिये। उसे सुखाकर मिट्टीके शरावोंमें बन्द करके ऊपर यदि इसे उदम्बरकुष्ठमें प्रयोग किया गया। अच्छी तरह कपरौटी करदें और सुखाकर लघुपुटमें हो तो औषध बन्द करनेके बाद भी दो मास तक फूंक दें। जब सम्पुट स्वांग शीतल हो जाय तो मूंगकी दाल भात और घृत ही खिलाना चाहिये । उसमें से औषधको निकालकर पीसकर रखें । __ कृष्णवर्णके कुष्ठमें नीमके पञ्चाङ्ग और अर- इसमेंसे ३ रत्ती औषध कालोमिर्चके, चूर्ण हरके पञ्चाङ्गका काढ़ा बनाकर उसके साथ रस और गुड़के साथ मिलाकर खिलानेसे शीतज्वर सेवन कराना और पथ्य में घृतयुत् भात देना नष्ट होता है। चाहिये। ___किन्हीं किन्हींका मत है कि इसपर तैल यह रस चाहे जिस रोगमें क्यों न सेवन | और तैलमें बना हुवा पक्कान्न तथा बासी दहीसे कराया जाय इसके खिलानेके पश्चात् ५ तोले । परहेज़ करना चाहिये। आमलेको पीसकर मिश्री मिलाकर खिलाना चाहिये तालकेश्वररसः और साधारणतः पथ्यमें मूंगकी दाल, भात और । (र.चं.;धन्वं. र.रा.सु.,र.का.धे.;र.सा.सं.।वातव्या.) घी देना चाहिये । यदि शरीर काला हो जाय तो तालकादिवटि सं. २६३९ देखिये । उसमें २ मास सक विकङ्कतके पञ्चाङ्गका काथ पिलाना | हरताल ८ भाग पड़ती है परन्तु इसमें १ भाग और पथ्यमें दूध भात देना चाहिये । | पड़ती है। शेष प्रयोग समान है। इस रसको सेवन करनेके पश्चात् १ मास (२६४३) तालकेश्वररसः ( ४ ) तक तक न पीना चाहिये। ( भै. र.; धन्वं, । कुष्ठा.) (२६४२) तालकेश्वररसः (३) दद्रुघ्नवाणाङ्किरसं दत्वा तालं सुचूर्णितम् । (र. का. धे. । ज्वर.) पुनःपुनश्च सम्मघे शुष्कं कृत्वा पुटे दहेत् ॥ मुशुद्धतालकसमं वीजं भल्लातकस्य च।। दृढस्थाल्यां धृतं क्षारं पलाशश्चाप्युपधिः। मर्दयेदर्कदुग्धेन वासरत्रितयं दृढम् ॥ | ततो ज्वाला प्रदातव्या दिनरात्रं मृतं भवेत् ॥ मृन्मूपासम्पुटे सम्पुटं कृत्वा वेष्टयेन्मृतिकापटैः । शुक्लवर्ण यदा च स्यादग्नौ दत्ते न धूम्रकम् । लघुपुटं ददीतास्य स्वाङ्गशीतं विचूर्णयेत् ॥ तदा ज्ञातं मृतं तालं सर्वकुष्ठविनाशनम् ॥ For Private And Personal Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। - [४४५] ... . vvvvvvvv..... .varovarvvvvvvviruvanwww.vvvvvve गलत्कुष्ठं वातरक्तं ताम्रवर्णश्च मण्डलम् । विपद्धण्डिकामध्ये पलाशक्षारमध्यगम् । शीतपित्तमहादद्रुच्छुछुन्दरविनाशनम् ॥ यामान्द्वादश शीतेऽस्मिन् प्रयोज्यं रक्तिकाद्वयम्।। पथ्यं मसूरं चणकं मुद्गसूपं यथेच्छया ॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानि रोमविध्वंसनं तथा । (टि. अतिदृष्टफलोयं फिरिङ्गे मतः॥ द्विविधं वातरक्तश्च नाडीदुष्टव्रणानि च ॥ शुद्ध वर्की हरतालको पीसकर (७-७ बार) कुष्माण्ड ( पेठे )के रस, त्रिफलाके काथ, पंवाड़ और शरफोंकेके रसमें अच्छी तरह खरल तैल, घृतकुमारी ( ग्वारपाठा )के रस और काजीमें करके टिकिया बनाएं और उसे सुखाकर कपड़ १-१ रोज़ घोटी हुई हरताल १ भाग, शुद्ध मिट्टी की हुई मज़बूत हाण्डीमें ढाककी राखके | गन्धक १ भाग और शुद्ध पारद : भाग लेकर बीचमें रखकर उसके मुंहको शरावसे ढककर और | तीनोंकी कजली बना लीजिये और फिर उसे उसपर कपरमिट्टी करके सुखाकर चूल्हेपर चढ़ाकर ३-३ दिन बकरीके दूध, नीबूके रस और घृतउसके नीचे २४ घन्टे अग्नि जलावें और फिर कुमारीके रसमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखा हाण्डीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे हरताल- लीजिये तथा उसे कपरौटी की हुई हाण्डीमें ढाक भस्मको निकालकर पीसलें । हरतालको मृत उस (पलाश )की राखके बीचमें रखकर उसे मुख समय समझना चाहिये कि जब उसका रंग सफेद बन्द किये बिना ही चूल्हेपर चढ़ाकर १२ हो जाय और उसे अग्निपर डालनेसे धुंवा न निकले। पहरकी अग्नि दीजिये और हाण्डीके स्वांग शीतल इस प्रकारकी हरतालभस्म समस्त कुष्टोंका नाश होनेपर उसमेंसे हरताल भस्मको निकालकर पीसकरती है। कर रखिये। इसके सेवनसे गलत्कुष्ट, वातरक्त, ताम्रवर्णका इसमेंसे २ रत्ती औषध नित्यप्रति (वृतादिके कुष्ठ, मण्डल कुष्ठ, शीतपित्त, दद्रु और छुछुन्दरका साथ ) सेवन करनेसे अठारह प्रकारके कुष्ठ, नाश होता है, आतशकमें इसका विशेष फल | इन्द्रलुप्त, दो प्रकारका वातरक्त और दुष्ट नाड़ीब्रण देखा गया है। ( नासूर ) नष्ट होता है। पथ्य--इच्छानुसार मसूर, मूंगकी दाल और तालकेश्वररसः (र.चिं. स्त.४;र.का.धे.कु.) चनेकी रोटी खानी चाहिये। कुष्टहरितालेश्वररस सं. १०३१ देखिये । (२६४४) तालकेश्वररसः (५) (२६४५) तालकेश्वररसः (६) (भै. र.; धन्वं. । कुष्ट.) ( वृ. नि. र. । वातरक्त.; र. र. । कुष्ठ.) कूष्माण्डत्रिफलातैलकन्याकाञ्जिकभावितम् । तालकस्य तु यस्येह पत्राणि स्युः पृथक् पृथक् । तालकं तुल्यगन्धं स्थादर्द्धपारदमर्दितम् ॥ अभ्रकस्येव तद्ग्राह्य हरितालं विचक्षणैः ।। अजाक्षीरेण निम्बूककन्यातौयैर्दिनत्रयम् । पुनर्नवायाः स्वरसे तालकं तद्विमर्दयेत् । प्रत्येकं भावयेच्छुप्कं चक्रिकाकारताङ्गतम् ॥ दिनमेकं ततस्तस्मिन् घनत्वं गमिते सति ॥ For Private And Personal Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४४६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि कुर्वीत चक्रिकां तान्तु शोषयेत्सम्यगातपे।। होनेपर उसमेंसे हरताल भस्मको निकालकर पुनर्नवासमस्ताङ्गक्षारैः स्थालीं गलावधिम् ॥ पीसकर रखिये । पूरयेत्तु ततः क्षारं दृढयेत्पीडनेन हि । इसका नाम ' तालकेश्वर रस ' है। इसमेंसे क्षारस्योपरि तां सम्यक् दत्वातत्तालचक्रिकाम्।। प्रतिदिन १-१ रत्ती औषध गुडूच्यादि गणके तत आच्छादनं दत्वा मुद्रां कृत्वा विशोषयेत्। वाथके साथ सेवन करनेसे उपद्रव सहित वातरक्त, स्थाली चुल्यां निधायाग्निममन्दं ज्वालयेद्भिषक्।। अठारह प्रकारके कुष्ट, भयङ्कर फिरंग रोग (आत-- निरन्तरमहोरात्रं पञ्चकं तेन सिध्यति । शक ), विसर्प, मण्डल, खुजली, पामा, विस्फोटक, . स्वागशीतं समुत्तार्य गृह्णीयात् रसमुत्तमम् ॥ वातरक्त तथा अन्य कितनेही रोग नष्ट होते हैं। तालकेश्वरनामायं रसो गुञ्जामितोऽशितः । इस रसके सेवन कालमें खटाई और नमक गुडूच्यादिकषायेण गदानेतान्विनाशयेत् ॥ तथा कटुरसवाले ( चरपरे ) पदार्थों (मिर्चादि)से सोपद्रवं वातरक्तं कुष्ठान्यष्टादशापि च । परहेज़ करना और धूपमें तथा अग्निके पास न फिरङ्गदेशजं जन्तोर्हन्ति रोगं सुदुस्तरम् ॥ जाना चाहिये । यदि नमक छोड़ना असम्भव हो विसर्प मण्डलं कण्डूं पामां विस्फोटकं तथा। तो सेंधा नमक खाना चाहिये । वातरक्तकृतान्रोगानन्यान्यपि विनाशयेत् ॥ (२६४६)तालकेश्वररसः (७) एतद्भेषजसेवी तु लवणाम्लौ विवर्जयेत् ।। (र. चिं. । स्तव. २; र. का. धे. । कुष्ठ) तथा कटुरसं वह्निमातपं दूरतस्त्यजेत् ॥ गृहीत्वा कन्यकामूलं निव्रणं स्थूलरूपिणम् । लवणं यः परित्यक्तुं न शक्नोति कथश्चन ।। निर्दोष तालकं तस्य मध्ये दत्वा विमुद्रयेत् ।। स तु सैन्धवमश्नीयान्मधुरोपरसो हितः॥ हण्डिकायन्त्रमध्यस्थं क्रियते सन्धिरोधनम् । __ जिसके अभ्रकके समान पत्र उतरते हों ऐसी दिनमेकं भवेदग्निः शीतलं तत उद्धरेत् ।। हरतालको १ दिन पुनर्नवाके रसमें घोटकर टिकिया भस्ममूतं तदर्धाशं कृत्वा तत्पूर्ववद्धतम् । बनाकर धूपमें सुखा लीजिये । फिर एक मजबूत विपाच्य हण्डिकायन्त्रे स्वांङ्गशीतं तदानयेत् ।। और कपरमिट्टी की हुई हाण्डीमें गलेतक पुनर्नवाके एकाच गुञ्जिकांकुष्ठे गुडान्तर्विनिवेश्य ताम् । पश्चाङ्गकी राख भरकर उसे हाथसे अच्छी तरह दीयते प्रत्यहं पथ्यं सेवनाद्वजति स्फुटम् ॥ दबा दीजिये और उसपर उक्त टिकियाको रखकर कुष्ठश्च देहसंव्याप्तं शिरादृश्यं विभीषणम् । हाण्डीके मुखपर शराव ढककर उसकी सन्धिको घाटलं विषमं प्रायो ब्रह्महत्यादिसम्भवम् ॥ गुड़ चूनेसे बन्द कर दीजिये । अब इस | नाशयेदचिरेणैतच्छतजन्मसमुद्भवम् । हाण्डीको भट्टीपर चढ़ाकर निरन्तर ५ दिन तक मतिमद्भिः प्रयोगोऽयं चिन्तनीयः पुनः पुनः॥ तीब्राग्नि दीजिये । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल । अतः परं न चेहास्ति कुष्ठनाशनमौषधम् । १ गुडूच्यादिगण- प्रयोग सं. १२०६ देखिये । . . For Private And Personal Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ) की मोटी और कृमि इत्यादिसे रहित जड़ लेकर एक तरफसे जरासी काटकर उसके भीतर गढ़ा करें और उसमें शुद्ध वर्कीहरतालकी डली रखकर उसके मुखपर धीकुमारकी जड़का वही कटा हुवा टुकड़ा लगाकर उसपर ३-४ कपरौटी कर दीजिये । तत्पश्चात् एक कपर मिट्टी की हुई हाण्डीमें इसे ( ढाक की राख के बीच में ) रखकर हाण्डीके मुखको शरावसे ढककर सन्धिको गुड़ चूने आदिसे बन्द कर दीजिये और उसे चूल्हे पर चढ़ाकर उसके नीचे ९ दिन अग्नि लगाइये । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे हरतालको निकालकर उसमें उससे आधी पारद भस्म ( अभाव में रससिन्दूर ) मिलाकर ( घीकुमारके रस में घोटकर, टिकिया बनाकर, सुखाकर ) उसे पूर्ववत् घीकुमारकी जड़के भीतर रखकर और हाण्डीमें बन्द करके १ दिन पकाइये | जब हाण्डी स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें से airat निकालकर पीसकर रखिये । इसमें से नित्यप्रति १ रत्ती दवा गुड़ में मिलाकर खिलाने और पथ्य पालन करनेसे भयङ्कर कुठ कि जो समरत शरीरमें व्याप्त हो और जिसमें शिराएं दीखती हों, जो ब्रह्महत्यादि पापोंसे उत्पन्न हुवा हो वह भी नष्ट हो जाता है । कुटके लिये संसार में इससे अच्छी औषध नहीं है । (२६४७) तालकेश्वररसः ( ८ ) (र. का. . । कु. ) तालकं निष्कमेकन्तु त्रिगुणं लवणं तथा । भृङ्गराजरसेनैव भावनाः सप्त दापयेत् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४७ ] दिनसप्तप्रमाणेन छायायां शोषयेत्तथा । तस्य गुञ्जाप्रमाणेन गुटिकां कारयेत्ततः ॥ तालकेश्वरनामाऽयं वातरक्ते प्रदापयेत् । सर्वकुष्ठेषु दातव्यः सप्तसप्तदिनावधि || विदाहेषु च सर्वेषु छागीक्षीरेण संयुतम् । शून्यं च मण्डलं कुष्ठं श्वेतकुष्ठं तथैव च ॥ अष्टादशविधं कुष्ठं नाशयेन्नात्र संशयः ॥ वर्फी हरताल भस्म १ भाग और सेंधा नमक का चूर्ण ३ भाग लेकर सबको १ दिन भंगरे के रस में घोटकर छाया मे सुखावें । इसी प्रकार भंगरेके रसकी सात भावना देकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । इसे सात दिन तक सेवन करने से वातरक्त तथा शून्यता, मण्डलकुष्ट, और श्वेतकुष्ठादि समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं। 1 इसे विदाह में बकरी के दूध के साथ देना चाहिये। ( साधारण अनुपान -घी ) (२६४८) तालकेश्वररसः (९ ) ( र. का. . । कुष्ठ. ) सूताद्वाववलगुजा स्त्रीणि कणा विश्वात्रिकं त्रिकम् सार्धको ब्रह्मपुत्रस्य मरिचस्य चतुष्टयम् ॥ एकैको निम्बध तूरवीजयोर्गन्धकात्त्रयः । जातीटङ्कणतालानां भागाः दश दश स्मृताः ॥ युक्त्या सर्व मर्दयित्वा शिवास्वरसभावितम् । सान्द्रं विभावयेद् धूर्त्तरसादर्द्धपुटितं भवेद् ॥ रसकुष्ठहरः सेव्यः सर्वदा भोजनप्रियैः । देवदेवमुनिप्रोक्तः सर्वकुष्ठविनाशकः ।। शुद्ध पारा २ भाग, बाबची ३ भाग, पीपल और सोंठ ३-३ भाग, ब्रह्मपुत्र विष ( अभाव में For Private And Personal Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir vvvvvvvvvvvvinAAAAwPwwvin/MAN [४४८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि शुद्ध बछनाग ) १॥ भाग, मरिच ४ भाग, नीम | (२६५०) तालकेश्वरो रसः (११) और धतूरेके बीज १-१ भाग, शुद्ध गन्धक ३ | (र. रा. सुं. । कु.) भाग और जायफल, सुहागेकी खील तथा शुद्ध | शुद्धं सूतं समं गन्धं सतात्तालं चतुर्गुणम् । हरताल १०-१० भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कुकुटीपर्णसारेण वाकुच्या वा कषायकैः ॥ कजली बना लीजिये फिर उसमें अन्य औषधोंका दिनैकं मर्दयेत्खल्ले त्रिभिस्तुल्यं मृतायसम् । महीन चूर्ण मिलाकर आमले और धतूरेके रसमें अयस्तुल्यं मृतं तानं मर्दयेदिनपञ्चकम् ॥ एक एक दिन घोटकर गोला बना लीजिये और पूर्वकाथद्रवैर्वाथ सर्व तद्गोलकं कृतम् । उसे सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें फूंक वर्षाभूचित्रपत्रैश्च मूषागर्भ प्रलेपयेत् ॥ दीजिये । सम्पुटके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे | तन्मध्ये निक्षिपेद्गोलं लेपः कल्पस्ततोपरि। रसको निकालकर पीसकर रखिये। रुचाहिं भूधरे पकं समुद्धत्य विभावयेत् ॥ ___ इसके सेवनसे समस्त प्रकारके कुष्ट नष्ट होते सप्तधामलजैस्तोयैर्मधुमिश्रं निरुध्य च । और भूख खुलती है। पुटैके भूधरे पको रसः स्यात्तालकेश्वरः ॥ (मात्रा-२-३ रत्ती । साधारण अनुपान चतुर्गनं पर्णखण्डे भक्षयेच पिबेदनु । धी और मिश्री।) अजाजीद्वितयं त्र्यूषं गिरिकर्णी गवां पयः ।। (२६४९) तालकेश्वरो रसः (१०) मुण्डीचूर्ण तथा क्षौद्रैः सर्व कुष्ठं नियच्छति ।। (रसें. चि. । अ. ९; र. सा.सं.; र. रा. सुं. । कुष्ट) शुद्ध पारा और गन्धक १-१ भाग और धात्रीटङ्कणतालानां दशभागं समुद्वरेत् ।। शुद्ध वर्कीहरताल ४ भाग लेकर सबको एकत्र धाच्या रसैमर्दयित्वा शिखरीमूलवारिणा ॥ | घोटकर महीन कजली बनावें और फिर उसे सर्वकुष्ठहरः सेव्यः सर्वदा भोजनपियैः ।। एक एक दिन सेंभलके पत्तोंके रस और ___आमलेका चूर्ण, सुहागेकी खील और हरताल बाबचीके काथमें धोटकर उसमें ६-६ भाग भस्म समान भाग लेकर सबको १-१ दिन आम लोहभस्म और ताम्रभस्म मिलाकर ५-५ दिन लेके रस और चिरचिटेकी जड़के काथमें घोटकर उपरोक्त दोनों चीजोंके रसोंमें घोटें और गोला सुखा कर रखिये। बनाकर सुखालें । तत्पश्चात् दो शरावोंके भीतर ___इसके सेवनसे सर्व प्रकारके कुष्ट नष्ट होते और भूख खुलती है। पुनर्नवा और चीतेके पत्तोंके रसका लेप करके सुखाकर उनमें उपरोक्त गोलेको बन्द करके ऊपर तालकेश्वरो रसः कपरौटी कर दीजिये । तत्पश्चात् इसे १ दिन (रसे. चिं.अ. ९; र. सा.सं.; धन्वं.; र. रा. सुं.। सोम) भूधरपुटमें पकाइये और फिर उसके स्वांग शीतल चतुर्थ तारकेश्वर रस सं. २६१५ देखिये ।। होनेपर उसमेंस औषधको निकालकर उसे आमलेके इसमें उसकी अपेक्षा १-१ भाग हरताल और रसकी सात भावना देकर और शहदमें घोटकर गन्धक अधिक है । शेष प्रयोग समान है। । पुनः १ दिन भूधरपुटमें पकाइये। For Private And Personal Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४४९] इसमेंसे ४ रत्ती रस पानमें खाकर ऊपरसे दोनों इसमेंसे प्रतिदिन ३ टङ्कः ( १५ माशे) जीरे, त्रिकुटा, विष्णुक्रान्ता और मुण्डीके चूर्णको दवा बकरीके मूत्रके साथ सेवन करनेसे खुजली, गायके दूध मिलाकर शहदसे मीठा करके पीनेसे | स्राव और पिडिकाओंसे व्याप्त कुष्ठ तथा जिसमेंसे समस्त प्रकारके कुष्ट नष्ट होते हैं । अत्यन्त पीप निकलता हो, कृमि पड़ गये हों, (२६५१) तालकेश्वरो रसः (१२) दुर्गन्धित और चिकना मवाद जाता हो, जिसके (र. का. धे.; र. चिं. म. । कुष्ट. ) कारण नासा और अन्य अङ्ग गल गये हों वह हरितालं पलाकं तथा सौवर्चलस्य च ।। कुष्ठ भी शीघ्र ही अवश्य नष्ट होकर देह सुन्दर हो जाती है। इसके अतिरिक्त इसके सेवनसे शतटङ्कमितं ग्राह्य विंशत्यधिकमुत्तमम् ॥ गुल्म, प्लीहा ( तिल्ली) और पलित भी १ मासमें आरुष्करफलं पक्कं कुट्टितव्यश्च किञ्चन । नष्ट हो जाता है एवं इसे सेवन करनेवाले मनुष्य सेहुण्डपयसाऽऽप्लाव्य कृत्क्षारश्च तत्त्रयम् ॥ पर विषका प्रभाव नहीं होता। त्रिटङ्कमात्रं तदद्याच्छागमूत्रेण रोगिणे । ( व्यवहारिक मात्रा-३-४ माशे ।) कुष्ठं कण्डूयुतं स्रावि पिडिकाभिः समन्वितम् ॥ (२६५२) तालकेश्वरो रसः ( महान् ) (१३) अत्रणं सत्रणं पूयवहलं कृमिलं मलम् । ( यो. चिं. । अ. ७; र. प्र. सं. । अ. ८ गतनासां गताङ्गश्च दुर्गन्थ्यतीवपिच्छिलम् ॥ भा. प्र. । कुष्ट.) नाशयेद्वेगतः सर्वमपूर्व कुरुते वपुः । | तालं वाप्यं शिलामृतं शुद्धसैन्धवटङ्कणम् । कुरुध्वं निश्चितं मासाद्गुल्मप्लीह विनाशनम् ॥ समांशं चूर्णयेत्वल्वे सूताद्विगुणगन्धकम् ।। पलितश्च जरां हन्यान्न विषैःपरिभूयते ॥ गन्धतुल्यं मृतं ताम्र जम्बीरैर्दिनपञ्चकम् । हरताल भस्म २॥ तोले, काला नमक मद्य षड्भिः पुटैः पाच्यं भूधरोदरसम्पुटे ।। ( सौवर्चल ) २॥ तोले और उत्तम पके हुवे पुटे पुटे द्रवैर्मध सर्वमेकत्र षट्पलम् । भिलावे ३७॥ तोले लेकर सबको अधकुटा करके द्विपलं मारितं तानं लोहभस्म चतुः पलम् ॥ सेहुंड ( सेंड-थोहर )के दूधमें भिगो दीजिये और जम्बीराम्लेन तत्सर्व दिनं मधे पुटेल्लघु । दूसरे दिन कपरमिट्टी की हुई हाण्डीमें बन्द करके , त्रिंशदंशं विषं चास्मिन् क्षिप्वा विचूर्णयेत् ॥ चूल्हेपर चढ़ाकर उसके नीचे (१ पहर तक ) माहिष्याज्येन संमिश्रं कर्षाः भक्षयेत्सदा । अग्नि जलाइये और फिर हाण्डीके स्वांगशीतल होने | मध्वाज्यैर्वाकुचीचूर्ण कर्षमात्रं लिहेदनु । पर उसमेंसे औषधको निकालकर पीसकर रखिये। सर्वकुष्ठानिहन्त्याशु महातालेश्वरो रसः॥ १-र. प्र. सु. में सैन्धव नहीं है तथा पुट लगानेसे पूर्व भी ४ पल लोहभस्म डालना लिखा है । भूधरकी जगह कुक्कुट पुट लिखी है। भावप्रकाशमें-ताम्रभस्म और लोहभस्म नहीं लिखी । तथा जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर ३० वां भाग शुद्ध बछनाग मिलाकर घोटकर सेवन करनेके लिये लिखा है पुटपाकका अभाव है। भा० ५७ For Private And Personal Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४५० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि AAMANAwwwnnnrvAAAAAAANI शुद्ध हरताल, शुद्ध सोनामक्खी, शुद्ध मैनसिल | दिनसप्तकपर्यन्तं सुदृढे काचकूपके। शुद्ध पारा, सेंधा नमक और सुहागा १-१ भाग तथा बालुकायन्त्रमध्यस्थं मुखमुद्धाव्य दीयते ॥ शुद्ध गन्धक २ भाग और ताम्रभस्म २ भाग लेकर याति धूमोऽस्य नीलाभः पीतवर्णश्च सर्वथा। प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनाइये तत्पश्चात् उद्घाटितं मुखं कुर्यात् पश्चाल्लोहशलाकया॥ उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर ५ दिन क्षिप्यते तस्य तालस्य मध्ये साभ्रामतेक्षणम् । तक जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर टिकिया बनाकर आकृष्य नीयते सार्दा सा शलाका विलोक्यते॥ सुखाकर उसे मूषामें बन्द करके भूधरपुट में पकाइये तालं पीतं यदा किश्चित्स्वे दरूपं जलं भवेत् । और फिर पुटके स्वांगशीतल होनेपर औषधको दिनैकमपरं स्वेदं तत्र दद्यादिनद्वयम् ॥ निकालकर नीबूके रसमें घोटकर इसी भांति पुट जलरूपो यदा स्वेदो दृश्यते च शलाकया । दीजिये । इसी प्रकार हरबार नीबूके रसमें घोटकर शीतलं क्रियते तच्च यथास्थानं भवत्यदः॥ ६ पुट दीजिये । तत्पश्चात् यदि यह समस्त रूपेण खोटकाकारं तालसत्वं महोज्ज्वलम् । औषध ६ पल हो तो उसमें २ पल (१० तोले) गुरुरूपं दृढं प्रायः करस्पर्श ससौष्ठवम् ॥ ताम्रभस्म और चार पल लोहभस्म मिलाकर १ टङ्कमात्र विचाथ नद्दद्यात्कुष्ठिनेऽन्वहम् । दिन नीबूके रसमें घोटिये और उसकी टिकिया रोहीतकजटाकाथमनुपानं प्रदीयताम् ॥ बनाकर, सुखाकर, सम्पुटमें बन्द करके उसे लघु- चतुर्दशदिनस्यान्ते कुष्ठं शुष्यत्यसंशयम् । पुटमें फूंक दीजिये और सम्पुटके स्वांगशीतल शुद्धोधो जायतेऽत्यर्थ सुभगं च भवेद्वपुः॥ होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर उसमें उसका । अत्यर्थ पच्यते भुक्तमत्यर्थ सुखमामुयात् । ३० वां भाग शुद्ध बछनागका चूर्ण मिलाकर अरुणोदुम्बरं कुष्ठमक्षजिलं कपालिकम् ।। महीन खरल करके रखिये । काकणं पुण्डरीकञ्च दद्रुकुष्ठं सुदुस्तरम् । इसमेंसे प्रतिदिन ७॥ माशे औषध भैसके स्थूलाण्डश्च महाकुष्ठमेककुष्ठं सुदारुणम् ।। घीके साथ खाकर ऊपरसे १। तोला बाबचीका तथा च मण्डलं हन्याद् विसर्प परिसर्पकम् । चूर्ण, घी और शहदमें मिलाकर चाटनेसे समस्त सिध्मां विचर्चिकां गाढां किटिभं च विशेषतः॥ प्रकारके कुष्ट नष्ट होते हैं। णमां च रकसां वापि किलासमपि नाशयेत् । चित्रञ्च द्वित्रिमासेन नाशयेत्पसभं नृणाम् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती ।) | काकोदुम्बरिकामूलं वारि चानु पिबेद् यदि । (२६५३) तालकेश्वरो रसः (राजादिः)(१४) सघृतश्च भवेत्सर्व सद्व्यञ्जनमुदाहृतम् ।। (र. का. धे. । कुष्टा.) वार्ताकं राजिकाशाकमम्लं दधिसुरासवम् । सुजात्यं तालमादाय निर्मलं खल्वमध्यगम् । वर्जयेत्सततं कुष्ठी मत्स्यमांसं द्विभोजनम् ॥ कन्याद्रवेण सम्पिष्टं मर्दयेत्पतिवासरम् ॥ उत्तम प्रकारकी शुद्ध वर्की हरतालको सात For Private And Personal Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४५१] vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvwwwwwwwwwvvvvviowNARAvvvvvvvvvvvvvAAAAAAAAAAAMRA दिन घृतकुमारी ( ग्वारपाठा )के रसमें घोटकर | इसके सेवन कालमें पीनेके लिये कठूमरकी कपड़मिट्टी की हुई आतसी शीशीमें भरकर जड़की छालका काथ देना चाहिये और भोजनमें उसे बालुकायन्त्रमें रखकर भट्टीपर चढ़ा दीजिये। पथ्य आहार, घीके साथ देना चाहिये, तथा जब शीशीमेंसे नीला धुंवा निकल चुके और | भोजन केवल १ समय ही करना चाहिये और बिल्कुल पीले रंगका धुंवा निकलने लगे तो उसमें । बैंगन, राई, सब प्रकारके शाक, अम्ल पदार्थ, लोहेकी एक लम्बी शलाका डालकर और उसे दही, सुरा, आसव, मछली और मांससे परहेज लगभग शीशीकी तली तक पहुंचाकर शीशीके | भीतर ही ज़रा देर घुमाइये और फिर बाहर निकालकर ( व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती। पथ्यदेखिये; यदि शलाका गीली हो जाय और हर- चनेकी रोटी, गेहूं इत्यादि । ) तालका रंग पीला मालूम हो तो १-२ दिन । (२६५४) तालकेश्वरो रसः (महान् ) (१५) अग्नि और लगाइये और फिर शलाका डालकर (र. चि. म.; र. का. धे. । कुष्ट. ) देखिये; जब हरताल बिल्कुल पानीके समान हो तालं सप्तपलं ग्राह्य स्वेदयेत्तण्डुलाम्भसा । जाय तो अग्नि लगानी बन्द कर दीजिये और दिनद्वयञ्च दुग्धेन रसाइयं पलद्वयम् ।। यन्त्रके स्वांगशीतल होनेपर शीशीको तोड़कर एकतः क्रियते घृष्ट्वा पश्चादत्र परिक्षिपेत् । उसमेंसे हरतालसत्वको निकाल लीजिये । यह वर्षाभूः पीतिका व्याघ्री गुडूची निम्बचित्रकौ।। सत्व अत्यन्त उज्ज्वल, भारी और कठिन होगा। रोहितकद्वये घष्टा शोषयित्वा भिषग्वरः। इसे अत्यन्त महीन पीसकर सुरक्षित रखिये । । निम्बरोहीतककाथे तमाप्लुत्य निरोधयेत् ।। इसमेंसे प्रतिदिन ५ माशे सत्व रोहितक | हण्डिकायन्त्रमध्यस्थं दिनमेकं शनैरिह। ( रहेड़े )की जड़की छालके काथके साथ सेवन कर्तव्यश्च शनैरेव वह्निः शीतं तदुद्धरेत् ॥ करानेसे १४ दिनमें कुष्ठ अवश्य सूखने लगता है; अर्चयित्वा शिवं देवं शिवांदवीं तथा श्रियम् । भूख बढ़ जाती है, भोजन खूब पचता है और भैरवं पूजयेद्यत्नात्पुष्पधूपादितर्पणैः ॥ शरीर सुन्दर हो जाता है। | पश्चान्माषादिनैवेद्यैर्योगिनां प्रीतिकारिभिः। शुल्वामृतं पुनर्दधात्ताप्यालं शुद्धमुत्तमम् ॥ इसके सेवनसे अरुणकुष्ठ, औदुम्बरकुष्ठ, | गन्धकं पलमात्राणि श्वेताश्च कटुकां तथा। ऋक्षजिह्वकुष्ठ, कपालिककुष्ठ, पुण्डरीककुष्ट, भयङ्कर द्वयं तत्सुन्दरं दद्यादेकमेकममुं रसम् ॥ दाद, अण्डवृद्धि, विसर्प, सिध्म, विचर्चिका, विशे- | मधुना विल्वपत्रेण प्रातरुत्थाय रोगिणे। षतः किटिभकुष्ट और पामा, किलासकुष्ट, रकसा चाश्च तण्डुलाः पश्चाद्भोज्ये दुग्धश्च भक्तकम्। और चित्रादि समस्त प्रकारके कुष्ट २ मासमें कुष्ठश्च स्फुटितं हन्ति निःशेष भग्ननासिकम् । अवश्य नष्ट हो जाते हैं। | गताङ्गुलिं गलत्पावे साध्यासाध्यं न संशयः।। For Private And Personal Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४५२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। |तकारादि AnnanANNEARN यान्यन्यान्यपि कुष्ठानि तानि सर्वाणि नाशयेत्।। (२६५५) तालकेश्वरो रसः (वृद्धाद्य) (१६) पुनर्नव्यौऽसौ देहं कुर्यात् कल्पस्थितं नृणाम् ॥ (र. चि. म. । स्त. २; र. का. धे. । कुष्ट.) सात पल ( ३५ तोले ) शुद्ध वर्की हरताल काकजङ्घारसैः स्वेद्यं तालं पलचतुष्टयम् । लेकर उसे २-२ दिन तण्डुलजल (चावलोंके नैर्मल्यं यात्यनेनाऽथ कुलत्थपलषोडश-॥ धोवन ) और दूधमें स्वेदित करें फिर उसे महीन जलेनाष्टावशेषेण तत्संस्वेद्यश्च तालकम् । पीसकर उसमें २ पल शुद्ध पारा मिलाकर कजली लघुक्षुद्राजलेनाथ स्वेद्यं दुग्धेन तावता ॥ बनावें और उसे १-१ दिन पुनर्नवा, हल्दी, निविषं जायते तेन कूष्माण्डरसमर्दितम् । कटैली, गिलोय, नीम, चीता और दो प्रकारके वेदवासरमानेन पश्चात्सूक्ष्म विधीयते ॥ रोहितककी छालके काथ या स्वरसमें घोटकर | तत्पोलिकासमं कुर्यात् पश्चात्तन्दुलपोलिके। टिकिया बनाकर सुखालें, फिर उसे कपरमिट्टी की तदन्तस्थं ततः कुर्यादोलायन्त्रे विलम्बितम् ।। हुई मज़बूत हाण्डीमें भरकर उसमें नीम और दिनमेकमिदं पच्यान्महानिम्बस्य वारिणा। रोहीतक ( रुहेड़े )की छालका काथ भर दीजिये वटारोहाम्भसा पश्चात्ततःपच्याच काञ्जिके॥ और उसका मुख बन्द करके १ दिन मन्दाग्निपर सौभाञ्जनस्य काथेन त्रिफलावारिणा तथा। पकाइये' । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर | पुनस्तद्धृङ्गराजेन छागीदुग्धेन तद्यथा ॥ शिव, पार्वती, भैरवादिकी पूजा करके हाण्डीसे भावयेत्मेषिकादुग्धाऽशोकजाभ्यां भृशं च तत्। औषधको निकालकर उसमें १-१ पल (५-५ | माषमात्र दिने देयं मधुना सह भक्षणे॥ तोले ) ताम्रभस्म, शुद्ध बछनाग, सोनामक्खीभस्म, श्वित्रं कुष्ठं तथा दद्रच्छदन सत्रणं महत् । हरतालभस्म, शुद्ध गन्धक, श्वेतापराजिता और | गजचर्म विचर्चीश्च नाशयेदुग्रकुष्ठकम् ।। कुटकीका महीन चूर्ण मिलाकर खरल करके रखिये। शुष्काङ्गं शुष्कनेत्रं च रक्ताङ्गं रक्तनासिकम् । इसमेंसे यथोचित मात्रानुसार रस, प्रातःकाल अपि वर्षसहस्रस्य कष्टं कुष्ठं विनाशयेत् ॥ शहद और बेलपत्रके रसके साथ खाकर ऊपरसे वैद्यन्दैः परित्यक्तमसाध्यं यच्च विद्यते। थोडेसे चावल चबाने चाहिये और भोजनमें दूध- तन्नूनं नाशयत्येवासाध्यमेवापि यद्भवेत् ॥ भात खाना चाहिये। ४ पल (२० तोले ) वर्की हरतालके बारीक इसी प्रकार इसे प्रतिदिन सेवन करनेसे सब बारीक टुकड़े करके उन्हें ४ तह किये हुवे कपड़ेकी प्रकारके कुष्ठ कि जिनमें नासा और अंगुलि इत्यादि भी पोटलीमें बांधकर उसे दोलायन्त्र विधिसे (१-१ गल गई हों नष्ट होकर पुनः नवीन शरीर प्राप्त । पहर ) काकजंघाके क्वाथ; १६ पल कुलथीको हो जाता है। ८ गुने पानीमें पकाकर आठवां भाग शेष रहे हुवे ( मात्रा–३ रत्ती।) क्वाथ, छोटी कटेलीके काथ और दूधमें खेदित १-यदि १ दिनकी अशिमें सब रस न सूखे तो पनः अग्नि देकर सुखा देना चाहिये। For Private And Personal Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४५३ ] - - vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvm कीजिये । इससे वह निर्विष हो जायगी । अब शुद्ध पारद और शुद्ध हरताल १-१ भाग इसे ४ दिन कुम्हेड़े ( पेठे )के रसमें घोटकर तथा शुद्ध गन्धक २ भाग लेकर सबकी कजली टिकिया बनाकर सुखालें और फिर चावलोंको करके उसे १ दिन घृतकुमारी (ग्वारपाठा )के पानीके साथ पीसकर उनकी २ टिकिया बनाकर | रसमें घोटकर उसमें उसके बराबर बाबचीका चूर्ण उनके बीचमं उपरोक्त हरतालकी टिकियाको रख- मिलाएं और फिर कठूमर, चीता, त्रिफला, अमलकर १-१ दिन दोलायन्त्र विधिसे महानिम्ब तासकी छाल, बाबची, और बायबिडंग समान ( बकायन ), और बड़के अङ्कुरोंके क्वाथ तथा | | भाग लेकर एकत्र मिलाकर आठ गुने पानीमें काञ्जीमें स्वेदित करके संहजनेकी जड़के काथ, पकाकर अष्टावशेष काथ बनाएं, फिर यह क्वाथ, त्रिफलाक्काथ, भंगरेके स्वरस, बकरी और भेड़के खैरका काथ और केलेकी जड़का रस बराबर बराबर दूध तथा अशोककी छालके क्वाथमें कईबार घोटकर मिलाकर उसमें २४ घण्टे उपरोक्त कजलीको उर्दके बराबर गोलियां बना लीजिये। मन्दाग्नि पर पकाएं और अन्तमें गाढ़ा करके . इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे श्वेतकुष्ठ, ११-१। तोलेकी गोलियां बना लें। दाद, छाजन, घाववाला कुष्ठ, गजचर्म, विचर्चिका और जिसमें शरीर और नेत्र सूख गये हों, नासिका | इन गोलियोंको सेवन करनेसे तीसरे दिन श्वेत कुष्ठके स्थान पर छाला पड़ कर वह नष्ट और शरीर लाल हो गया हो तथा जिसे असाध्य हो जाता है। समझकर वैद्योंने छोड़ दिया हो वह भी अवश्य नष्ट हो जाता है। इस औषधके सेवन कालमें प्यास में त्रिफलाका (२६५६) सालकेश्वरो रसः (वृद्धाद्यः) १७ काथ देना चाहिये । (र. चि. म. । स्त. २. कुष्ट.) नोट-जब छाला पड़ जाय तो उसे फोड़ गृहकन्यारसैः शुद्धं मूतं तालं विमर्दयेत् । कर पानी निकाल दें और उस स्थानपर घावके द्विगुणं गन्धकं दत्त्वा कदलीकन्दवारिणा ॥ आराम होने तक धी या कोई सादा मल्हम काकोदुम्बरिका वह्नित्रिफलाराजवृक्षकः। - लगाते रहें। सोमराजी विडङ्गानि काथमेषां प्रसाधयेत् ॥ (व्यवहारिक मात्रा ३ माषे ) खदिरकाथतुल्यांशं वाकुचीचूर्णमेव च।। पचेदेकमहोरात्रं गुटिका कर्षमात्रिका ॥ (२६५७) तालचन्द्रोदयः ( रसा. सा.) श्वेतकुष्ठविनाशाय तृषिते त्रिफला जलम् । कुष्माण्डसंस्वेदनजातशुद्धि पाययेद्रोगिणे वैद्यः श्वित्रिणे च विचक्षणः॥ तालं सुपत्रं परिकुट्टय वस्त्रे । त्रिरात्रादूर्ध्वतस्तस्य श्वेते स्फोटश्च जायते। चागाल्य मत्समपारदेन सन्देहो नात्र कर्तव्यो मिपग्भिः श्वित्रनाशने ॥ बुभुक्षुणा जीर्णसुवर्णकेन । For Private And Personal Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४५४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि AAAAAAAAAAAAAnnnnnnnnnnrvaannmaAnww.AvanvanwPwXnnnAJAYRAVIN. द्विवृत्तगन्धेन पलङ्कषायां । (२६५८) तालभस्मप्रकारः ( रसायनसार।) - शुद्धेन सर्पिः पयसोरुतापि । अश्वत्थचिश्चाऽरुणपुष्पकाणां दिनत्रयं काचमयीं भरेत ___जीर्णास्त्वचोऽग्नौ परिदह्य कुर्यात् । शीशी चतुर्थाशतले मसीं ताम् ॥ भस्मानु कन्याद्रवभावितं तत् प्रारम्भतीनं कुरु हव्यवाहं । पुटेत् त्रिरस्यार्थमनल्पवह्नौ । तालादिभस्मार्थविधातृकोष्ठयां। __अर्थ—पीपल, इमली, पलाश इन तीनोंमेंसे चन्द्रोदयित्र्यां विनिधाय यन्त्र किसीकी गली सड़ी मुरदार छाल (बक्कल) वृक्षसे सर्वार्थकर्यामुत बालुकाख्यम् । उतार उतार कर संग्रह करले फिर उसको खूब दिनैकमात्रेण भवेद्विशुद्ध सुखाकर अग्निमें जलाकर भस्म करले । इस भस्म में - श्चन्द्रोदयो नाम च तालपूर्वः। घृतकुमारी (ग्वारपाठा)के रसकी भावना देकर कुष्ठादिरोगेष्वतुलप्रभावः तीनबार गजपुटमें फूंक कर इस भस्मके बीच में स्वास्थ्यप्रचारक्रमसत्स्वभावः॥ हरितालकी टिकियाको रखकर पाँच दिन अग्नि हरताल शुद्धिके क्रमानुसार तबकिया हर- देनेसे उसकी भस्म हो जाती है। तालको तीन बार पेठेमें शुद्ध करके सुखाकर कूटकर (२६५९) तालभस्मप्रयोगः (र. चं. । रसा.) कपरछन करलें; और उसमें स्वर्णजीर्ण बुभुक्षित हिङ्गुलं हरितालं कपिलापयसि पेषयेत् । पारद १ भाग ( हरतालके बराबर ) और घी, अष्टयामेन पर्यन्तं गुटिकां कारयेद बुधः ॥ दूधादिमें शुद्ध किया हुआ गन्धक २ भाग मिला- छायाशुष्कं तथा कृत्वा मृत्तिकासम्पुटे पचेत् । कर कज्जली बनाएं। इसे कपरमिट्टी की हुई आतशी | अग्निगजपुटं दद्याद् श्वेतभस्म प्रजायते ॥ शीशीमें भरदें। जिस शीशीमें २ सेर कज्जली | ताम्रपात्रे विन्दुमात्रं सुवर्ण च प्रजायते । आती हो उसमें केवल आधा 'सेर ही भरनी ताम्बूले विन्दुमात्रं स्याद्भक्षितं शृणु तत्फलम् ॥ चाहिये । अब शीशीके मुखपर खिड़िया मिट्टीका क्षुधागजसमो भूत्वा नारीशतरति तथा।। डाट लगाकर, उसे बालुकायन्त्रमें रखकर ताल- नाशनं सर्वरोगाणां कथ्यते धन्वन्तरिः॥ भस्मकरी या 'सर्वार्थकरी' भट्टी पर रखकर १ दिन शुद्ध हिङ्गुल, और शुद्ध हरिताल समान भाग प्रारम्भसे ही तीवाग्नि दें और यन्त्रके स्वांगशीतल लेकर दोनोंको कपिला गाय के दूध ८ पहर होने पर शीशीको तोड़कर उसके गले में लगे हुवे | घोटकर उसकी गोली बना लीजिये और छायामें 'ताल चन्द्रोदय 'को निकाल लें। सुखाकर मिट्टीके सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें इसे १-२ रत्ती मात्रानुसार उचितानुपानके फूंक दीजिये तो श्वेत भस्म बन जायगी। साथ सेवन करनेसे कुष्ठादि रोगोंमें यह अपना इस भस्मसे ताम्रका सोना बन जाता है अद्भुत प्रभाव दिखलाता है। और इसे १ रत्ती मात्रानुसार पानमें रखकर खानेसे For Private And Personal Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४५५] - - Aavornwwwwvvvvvvvv vvvvvvwwwnnnnnviwwwAAAA समस्त रोग नष्ट होकर भूख और कामशक्तिकी | एवं यामचतुष्टयेन विशदं स्याद्भस्म सर्वगदे। वृद्धि होती है। योग्यं कुष्ठखुडोपदंशपवने नाडीव्रणे शस्यते ॥ (२६६०) तालभस्मविधिः (वृ.नि.र.। त्वद्गो.) वर्की हरतालको १-१ दिन दोलायन्त्र अपामार्गस्य भस्मन्तु घटे निक्षिप्य यत्नतः। | विधिसे काजी, लौंगके काथ और त्रिफला काथमें तन्मध्ये तालकं क्षिप्त्वा पचेद्वादशयामकम् ॥ स्वेदित करके उसे धूपमें २० बार पीपल वृक्षकी धवलं जायते भस्म सर्वकुष्ठनिवारणम् ।। छालके काथकी भावना देकर घोटकर गोला बनासर्ववातप्रशमनं सर्वरोगनिवारणम् ॥ इये और उसे अच्छी तरह सुखाकर कपरमिट्टी की हुई हण्डीमें आधे तक पीपलकी छालकी कपरछन ___ एक मज़बूत और कपरमिट्टी किये हुवे राख दबा दबाकर भरकर उसपर रखदें और उसके घड़ेमें शुद्ध हरतालकी टिकियाको अपामार्ग ऊपर पुनः वही राख खूब दबा दबाकर हाण्डीके (चिरचिटे)की सफेद राखके बीचमें रखकर घड़ेको गले तक भरदें, तत्पश्चात् उसके मुखको शरावसे अग्निपर चढ़ाकर १२ पहर अग्नि देनेसे श्वेत ढककर उसपर कपरौटी करके सुखाकर गजपुटके रंगकी हरतालभस्म बन जाती है। गढेमे १ हजार बन उपलों ( अरने उपलों )में इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ, समस्त वातरोग फूंक दें। यह अग्नि लगभग ४ पहरमें शान्त हो और अन्य अनेक रोग नष्ट होते हैं । जायगी, तब हण्डीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे (मात्रा-२ रत्ती । अनुपान-मधु.।) सावधानी पूर्वक राखको निकालकर हरतालकी नोट--राख छनी हुई होनी चाहिये । टिकियाको निकाल लें। यह सफेद रंगकी हरतालऔर दबा दबाकर भरनी चाहिये। हरतालकी भस्म होगी। इसके सेवनसे कुष्ठ, उपदंश, वातव्याधि तथा टिकिया घृतकुमारी (ग्वारपाठा )के रसमें घोटकर नाडीव्रण (नासूर) नष्ट होता है । बनानी चाहिये। (मात्रा-२ रत्ती । अनुपान-मधु । ) (२६६१) तालभस्मविधिः (२६६२) तालभस्मविधिः (र. रा. सुं.। हरि.प्र.; वृ. यो. त. । त. १२०) ( वैद्यामृत । वा. र.; वृ. नि. र. । वातव्या.) सम्यकाञ्जिकदेवपुष्पकवराकाथे तु दोलाभिधे। तालं रसं तुवरिकां नयनेन्दुबाणयन्त्रेतालकशोधनं निगदितं तत्तालकं भावयेत्॥ भागैर्विशुद्धवसुजातरसे विमर्थ । वारान्विशति पिप्पळोत्थसलिलैः खल्वे दत्त्वा शरावयुगले प्रविधाय मुद्रां निधायाऽतपे। __ दद्याद्गजाहपुटमस्य भवेत्सुभस्म । बद्ध्वा गोलमथास्य पिप्पलजयाभूत्यर्धपूर्ण । दृष्टवाकृति प्रकृतिमप्यखिलामवस्थां न्यसेत् ॥ दृश्वा पुनश्च बहुधा बहुधा विचायें। भाण्डे तत्र पुनर्विभूतिभरणं कृत्वा शरावं मुखे। दद्याच्च तन्दुलमितां हरितालमात्र दत्त्वाग्नौ विपचेद्गजाहयपुटे वन्यैः सहस्रोपलैः॥ विद्या मया यतिवरादियमापि यत्नात् ।। For Private And Personal Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि vvvvvv __शुद्ध हरताल २ भाग, शुद्ध पारद १ भाग, नोट-यदि हरताल भस्म बिल्कुल सफेद और फिटकरी ५ भाग लेकर तीनोंको एकत्र खरल | न हुई हो तो पुनः इसी प्रकार अग्नि देकर सफेद करें और फिर सफेद पुनर्नवाके रसमें घोटकर होने तक पकाना चाहिये। टिकिया बनावें । इस टिकियाको अच्छी तरह | (२६६४) तालभस्मविधिः सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक (र. रा. सुं.; रसें. सा. सं.; धन्वं. । वातरक्त.) दीजिये तो उत्तम भस्म बन जायगी। इसमेंसे १ चावल भर भस्म रोगीकी प्रकृति | हरितालं पलं तथा कर्ष विषस्य च । और अवस्था इत्यादिका विचार करके यथोचित | श्वेताकोठरसेनैव द्वयमेकत्र खल्लयेत् ॥ अनुपानके साथ देनेसे वातज रोग नष्ट होते हैं। पलाशभस्मद्विपलं निधाय स्थालिकोपरि । (२६६३) तालभस्मविधिः तद्भस्मोपरितालस्य गोलकं स्थापयेत्सुधीः॥ (र. रा. सुं. । हरताल. प्र.) तस्योपरि ह्यपामार्गभस्म दद्यात्पलत्रयम् । तालं विचूर्णयेत्सूक्ष्मं मद्य नागार्जुनीद्रवैः। स्थालीमुखे शरावश्च दद्याद्यत्नेन लेपयेत् ॥ सहदेव्या वलायाथ मर्दयेदिवसद्वयम् ॥ लेपयित्वा ततश्चुल्ल्यामहोरात्रं पचेद्भिषक् । तत्तालरोटकं कृत्वा ततच्छायायां विशोषयेत् । ततस्तु जायते भस्म शुद्ध कर्पूरसन्निभम् । हण्डिकायन्त्रमध्यस्थं पलाशभस्मकोपरि ॥ गुञ्जात्रयं ततो भक्ष्यमनुपानं विशेषतः। पाच्यं च वालुकायन्त्रे विहितं चण्डवह्निना। | वातरक्तश्च कुष्ठश्च द विस्फोटकापचीम् ॥ स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य सर्वयोगेषु योजयेत् ॥ | विचचिकां चर्मदलं वातरक्तं च शोणितम् । शुद्ध हरतालको बारीक पीसकर २-२ रोज | रक्तपित्तं तथा शोथं गलित्कुष्ठं विनाशयेत्॥ तक दूधी, सहदेवी और खरैटीके रसमें घोटकर | हलीमकं तथा शूलमनिमान्यमरोचकम् ॥ उसकी रोटीके समान टिकिया बनाकर छायामें १ पल ( ५ तोले ) शुद्ध हरताल और १ सुखा लीजिये । तत्पश्चात् कपरमिट्टी की हुई एक कर्ष ( । तोला ) शद्ध वछनागको एकत्र मिलाकर हण्डीमें थोड़ी दूर तक बाळूरेत भरकर उसपर ४-५ | सफेद अङ्कोलके रसमें अच्छी तरह घोटकर टिकिया अंगुल पलाश (ढाक)की सफेद राख दबा दबाकर बनाकर सुखा लें, फिर कपरमिट्टी की हुई एक भर दीजिये और उसपर उपरोक्त टिकिया रखकर उसके ऊपर भी ४-५ अंगुल ढाककी राख दाब हण्डीमें नीचे १० तोले ढाककी कपरछन राख दाबकर भर दीजिए तथा हाण्डीके शेष भागमें। या ५० | दबा दबाकर भरदें और उसपर वह टिकिया रखबालूरेत भरकर उसे भट्टिपर चढ़ाकर (८ पहर कर उसके ऊपर इसी प्रकार १५ तोले अपामार्ग तक ) खूब तेज़ अग्निपर पकाइये । पश्चात् / (चिरचिटे )की राख भरदें। तत्पश्चात् हाण्डीके हाण्डीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे सावधानी मुखपर शराव ढककर उसकी सन्धिको गुड़ चूनेसे पूर्वक हरताल भस्मको निकाल लीजिये । | अच्छी तरह बन्द करके उसपर ३-४ कपरौटी For Private And Personal Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४५७ ] करके सुखा कर और उसे चूल्हेपर चढ़ाकर २४ घण्टे (२६६६) तालमन्त्रेश्वरो रसः पकाइये । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर ( र. का. धे. । कुष्टा.) उसमेंसे हरतालभस्मको निकाल लीजिये । इसका | रंग शुद्ध कर्पूरके समान सफेद होगा । सितामध्वाज्यगोक्षीरैस्तालकं मर्दयेदिनम् । तद्गोलं काजिकैः पश्चादोलायन्त्रेण पाचयेत्।। इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार यथोचित अनु 3 मद्य सेहुण्डदुग्धेन चन्द्रिकाक्षपणाऽवधिम् । पानके साथ सेवन करानेसे वातरक्त, कुष्ठ, दाह, तच्छुष्कं मर्दयेत्तावद्यावत्स्यात्कृष्णवर्णकम् ॥ विस्फोटक, अपची (गण्डमालाभेद), विचर्चिका, व्योषं हयारिमूलञ्च प्रत्येकं दशमांशतः। चर्मदल, रक्तपित्त, शोथ, गलित्कुष्ट, हलीमक, शूल, सर्व तद्वाकुचीतैले दिनं खल्वे विमर्दयेत् ॥ अग्निमांद्य और अरुचिका नाश होता है । तालमन्त्रेश्वरो नाम द्विगुञ्जो मण्डलान्तकृत् । (२६६५) तालभस्मविधिः | वाकुची देवकाष्ठश्च पातालाऽगरुटङ्कणम् ॥ (र. र. स. । पू. खं. अ. ३) | लेह्यमेरण्डतैलेन त्रिनिष्कमनुपानकम् ॥ मधुतुल्ये घनीभूते कषाये ब्रह्ममूलजे। शुद्ध हरतालको १-१ दिन मिश्रीके पानी, त्रिवारं तालकं भाव्यं पिष्ट्वा मूत्रेऽथ माहिषे ॥ शहद, घी और गायके दूधमें घोटकर गोला बनाइये उपलैर्दशभिर्देयं पुटं रुध्वाऽथ पेषयेत् । और उसे सुखाकर चार तह किये हुवे कपड़ेमें एवं द्वादशधा पाच्यं शुद्धं योगेषु योजयेत् ॥* बांधकर १ दिन दोलायन्त्रविधिसे काजीमें पकाइये । ढाककी जड़की छालके काथको शहदके तत्पश्चात् उसे सेहुण्ड ( सेंड-थोहर )के दूधमें समान गाढ़ा करके उससे ३ बार हरतालको भावना इतना घोटिये कि उसकी चमक जाती रहे, इसके दीजिए, तत्पश्चात् ३ बार भैसके मूत्रमें घोटकर पश्चात् उसे सुखाकर इतनी देर और घोटिये टिकिया बनाकर सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द कि वह काला हो जाय । अब उसमें त्रिकुटा करके दश बन उपलों (अरने उपलों )की अग्निमें और कनेरकी जड़का महीन चूर्ण प्रत्येक उसका फूंक दीजिये । इसी प्रकार १२ पुट देनेसे उत्तम दसवां भाग मिलाकर १ दिन बावचीके तैलमें हरतालभस्म बन जाती है। घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना कर रखिये। * तालभस्म परीक्षा तालं मृतं तदा ज्ञेयं वह्रिस्थं धूम्रवर्जितम् । सधूमं न मृतं प्राहुर्वृद्धवैद्या इति स्थिति ॥ (आ. वे. प्र. । अ. ५) हरताल भस्मको अग्निपर डालनेसे धूम्र निकले तो कच्ची और धूम्र न निकले तो मृत समझनी चाहिये । भा० ५८ For Private And Personal Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४५८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि इनमेंसे प्रतिदिन १-१ गोली खाकर ऊपरसे पथ्यं च चणकस्योक्तं षष्टिकाकोद्रवौदनम् । बाबची, देवद्वार, पातालगरुडी अगर और सुहागेकी एकविंशदिनं यावल्लवणाम्लो विवर्जयेत् ॥ खीलका समान भाग मिश्रित १ तोला चूर्ण अरण्डीके अष्टादशानि कुष्ठानि वातरक्तं तथोद्धतम् । तैलमें मिलाकर चाटनेसे मण्डलकुष्ठ नष्ट होता है। फिरङ्गदेशजं रोगं दुस्तरं च व्यपोहति ॥ तालमारणम् ___ हरतालके बारीक बारीक टुकड़े करके उन्हें (यो. र. । प्र. भा.; वृ. यो. त.। त. ४१; भा. प्र.। चार तह किये हुवे कपड़ेमें बांधकर दोलायन्त्र पूर्व. खे.; आ.वे. प्र.। अ. ५;र. रा. सु. । हरिता.प्र.) विधिसे १ पहर जम्बीरी नीबूके रसमें पकाएं । तालकेश्वर रस सं. २६४५ देखिये । | तत्पश्चात् उसमें उसका दसवां भाग सुहागेके बारीक टुकड़े मिलाकर उक्त विधिसे २-२ पहर (२६६७) तालमारणम् चूनेके पानी, काजी, पेठे ( कुहड़े ) के रस, तैल ( वै. रह. । कुष्ठ.; यो. त. । त. ६२ ) और त्रिफलाके काथमें दीपकी शिखाके समान जम्बीरद्रवमध्ये तु प्रक्षाल्य नटमण्डनम्। अग्निपर स्वेदित करें । दशांशं टङ्कणं दत्त्वा खण्डशः परिमेलयेत् ॥ ___अब उसे काञ्जीगे पोर डाककी छालके चतुर्गुणे गाढपटे निबध्य प्रहरद्वयम् । स्वरस या काथमें घोटकर गोला बनाकर धूपमें दोलायन्त्रेण संस्वेद्य प्रदीपप्रमितेऽनले ॥ सुखाएं और उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके गजचूर्णतोये काञ्जिके च कूष्माडाम्बुनि तैलके। पुटमें फूंक दें । पुटके स्वाङ्गशीतल होनेपर त्रिफलाम्बुनि तत्पश्चात् क्षालयित्वाम्लवारिभिः। उसमेंसे हरतालको निकालकर उसे बकरीके दूधमें ततः पलाशत्वग्वारिपिष्टं घर्मे प्रशोषयेत् । घोटकर गोला बनाकर सुखा लें और कपरमिट्टी की तं गोलकं शरावाभ्यां सम्पुटीकृत्य यत्नतः ॥ हुई एक मजबूत हाण्डीमें ढाक (पलाश )की खाते गजाख्ये पक्त्वा तु स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत्। ४ सेर राख खूब दाब दाबकर भरकर उसपर अजादुग्धैः पुनः पिष्ट्वा शोषयेद्गोलकीकृतम् ॥ पावसेर पत्थरका चूना दबा दबाकर बिछाकर उसके आढकं भस्म पालाशं हण्डिकायां दृढं क्षिपेत् ।। ऊपर उपरोक्त गोला रखकर उसपर पुनः पावसेर सम्यक चूर्णस्य कुडवं दत्त्वा सम्यग्विचक्षणः ॥ चूना और उसके ऊपर ४ सेर ढाककी राख दाब स्थापयेद्गोलकं तत्र पुनश्चूण च भस्म च । दाबकर भर दीजिये । अब हाण्डीके मुखपर शराव यथा धूमो बहिर्याति न तथा मुद्रयेच्च ताम् ॥ । ढककर उसके जोड़को गुड़चूने आदिसे इस प्रकार द्वात्रिंशत्पहरान्वहिं भक्तवद्दापयेत्तथा। बन्द कर दीजिये कि जिससे धुवां न निकल सके स्वागशीतं समुद्धत्य सञ्चर्य नटमण्डनम् ॥ ' और ऊपरसे ३-४ कपरौटी करके मुखाकर ३२ हिमं कुन्दप्रभाकाशं निधूमं कृष्णवर्त्मनि। पहर तक भात पकानेके समान अग्नि दीजिये । रक्तिकास्य प्रदातव्या पुराणगुड्योगतः॥ ! इसके पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे For Private And Personal Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भाग। [४५९] VhnAAAAAAAonr vvvv हरतालके गोलेको निकालकर पीसकर रखिये । वज्रीदुग्धेन दिनानि २१, अर्कदुग्धेन दिनानि यह बरफ़के समान सफेद रंगकी भस्म होगी, २१ । एवं दिनसंख्या ४४१; एतैवर्ष एको १ और अग्निपर डालनेसे धूम नही देगी। मासौ द्वौ २, दिनानि २१ भवन्ति । - इसमेंसे १ रत्ती भस्म पुराने गुड़में मिलाकर एतत्कष्टं कर्तुमशक्तश्चेत्तेन दिन शब्दो भावखिलानेसे अठारह प्रकारके कुष्ट, भयङ्कर वातरक्त नापरतया बोध्यः। और दुस्साध्य आतशक ( फिरङ्ग रोग ) नष्ट ततश्चक्रिकां कृत्वा तां धर्मशुष्का कारयेत्, होता है। ततोऽतिदृढां हण्डी मृत्कर्पटैरेकविंशतिवारं पथ्य-चना, कोदों और साठी चावलोंका भात। लेपयेत्, ततस्तस्यां हण्डिकायां पिप्पलस्य अपथ्य-२१ दिन तक लवण और अम्ल विभूतिं पूरयेदङ्गष्ठपरिमितं यावत्, तदुपरि तां पदार्थ नहीं खाने चाहिये। चक्रिकां दृढां संस्थाप्य तदुपरि पुनस्तद्विभूत्या(२६६८) तालमारणम् (सिद्धमते) तिदृढं पूरयेदाकण्ठं, ततो मुद्रां कृत्वा क्रम (आ. वे. प्र. । अ. ५) विवर्धितमग्निं दद्यात्पहराणां चतुःषष्टिं; अष्टौतबकाख्यं हरितालं महिषीमूत्रे, घृत- दिनानीति यावत् । सिद्धं भस्म भवति। तद्यनतः कुमारीरसे, चूर्णतोये,शरपुङ्खारसे कूष्माण्डरसे, संरक्षयेत् । शिवस्य महतीं पूजां कृत्वा, देवनिम्बूरसे च पृथक् पृथक् षट्प्रहरं संशोध्य- गोब्राह्मणवैद्यान् पूजयित्वा,तस्य मात्रांतण्डुलमिति शुद्धिः। परिमितां, गुञ्जापरिमितां वा भक्षयेत्, यथा ___ अथ मर्दनं-कूष्माण्डरसेन दिनानि २१, रोगमनुपानानि पथ्यं लवणाम्लतीक्ष्णतैलवयं कागदीनिम्बूरसेन दिनानि २१, धत्तूररसेन प्रोक्तवत् ज्ञेयम् । अस्य फलश्रुतिः त्रिसप्ताहा दिनानि २१, सहदेवीरसेन दिनानि २१, न्मण्डलैकेन वा श्वेतप्रभृत्यष्टादश कुष्ठानि, पलाशरसेन दिनानि २१, बदरीमूलरसेन यावन्तो रक्तविकारा, त्रयोदश सन्निपाता अपदिनानि २१, आईकरसेन दिनानि २१, स्मारादयो यावन्तः पापरोगाः, भगन्दरगोभीरसेन दिनानि २१, छिकिणीरसेन | नाडीव्रण प्रभृतयो महाव्रणाः, प्रशीर्ण,वातरक्तं, दिनानि २१, हुलहुलरसेन दिनानि २१, उपदंशफिरङ्गाद्या लिङ्गरोगाः, श्लीपदग्रन्थिमनागार्जुनीरसेन दिनानि २१, भृङ्गराजरसेन भृतयः सर्वाङ्गशोफाः, मृतिकावातरोगप्रभृतयः, दिनानि २१, एरण्डमूलरसेन दिनानि २१, सर्वशीतवातविकाराः, श्वासकासाद्या वातविब्रह्मदण्डीरसेन दिनानि २१, श्वेतलशुनरसेन काराः, दुष्टपीनसप्रभृतयः प्रतिश्यायाः, अर्शादिनानि २१, पलाण्डुरसेन दिनानि २१, दयोऽष्टौ महारोगाः, वह्निमान्यजा ग्रहणीप्रमस्वर्णवल्लीरसेन दिनानि २१ काकमाचीरसेन तयः, मधुमेहाद्याः सर्वे प्रमेहाः, मेदोटद्धयर्बुद दिनानि २१, बलारसेन दिनानि २१, गण्डमालाद्याः कठिनविकाराः, आमवात For Private And Personal Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ ४६० ] गृधस्याद्या मूढविकाराः, राजयक्ष्माद्याः शोषाः, किञ्चाशीतिसंख्यावातरोगाः, अनुपानभेदेन चत्वारिंशत्पित्तरोगाः, विंशतिसंख्याका कफजा रोगाः, दशरक्तजा रोगाः शीघ्रं प्रणश्यन्ति; जराव्याधिविनाशश्च भवति; दिव्यदेहः कान्तिधृतिमान् सत्वसंयुतः कामिनीकामदर्पनस्तार्क्ष्यदृष्टिः शूरो वदान्यश्च भवतीति सिद्धमते हरितालमारणम् | सिद्धाद्यैस्तु हरितालश्चतुविधः प्रोक्तः- बुगदादी १, गोदन्ती २, तबकी ३, पिण्डतालश्च ४ । एते पिण्डाख्यात् क्रमेण श्रेष्ठतरा ज्ञेयाः । शुद्धि-तबकी हरतालको भैंसके मूत्र, घृतकुमारी (ग्वारपाठा) के रस, चूने के पानी, सरफोंकाके रस, पेठे (कुम्हेड़े)के रस और नीबूके रसमें पृथक् पृथक् दोलायन्त्र विधिसे ६ - ६ पहर स्वेदित करनेसे वह शुद्ध हो जाती है । प्याज, मर्दनम्-पेठा, कागजी नीबू, धतूरा, सहदेवी, पलाश (ढाक ) की छाल, बेरीकी जड़की छाल, अद्रक, गोभी, नकछिकनी, हुलहुल, नागार्जुनी (दूधी), भंगरा, अरण्डमूल, ब्रह्मदण्डी, सफेद ल्हसन, स्वर्णवल्ली, काकमाची (मकोय), और बला (खरैटी); इनमें से प्रत्येकके रस या काथ और आक तथा सेहुण्ड (सेंड - थोहर ) के दूध में २१ - २१ दिन घोटें । इस प्रकार कुल औषधोंमें घोटनेमें ४४१ दिन अर्थात् १ वर्ष २ मास और २१ दिन लगते हैं। यदि इतना कष्ट सहन करना असम्भव हो तो हरेक चीजकी २१ - २१ भावना दे लेनी चाहियें । (धूपमें भावना देनेसे एक एक दिनमें २-३ भावना तक दी जा सकती हैं । ) तकारादि इस प्रकार मर्दन करनेके पश्चात् हरताल की टिकिया बनाकर धूप में सुखाना चाहिये और फिर एक मज़बूत हाडीपर २१ कपरौटी करके सुखाकर उसमें पीपल वृक्षकी राख एक अङ्गुल ऊंचाई तक भर दें और उसपर वह टिकिया रखकर हाण्डीके गले तक वही राख खूब दबा कर भरदें | तत्पश्चात् हाण्डीके मुखपर शराब ढककर उसके जोड़को गुड़ चूने बन्द करके ८ दिन तक क्रमशः मृदु, मध्यम और तीव्राग्निपर पकाएं। पश्चात् हाडीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे भस्मको निकालकर सुरक्षित रक्खें । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शिव, देव, गो, ब्राह्मण और वैद्यकी पूजा करके इसे १ चावल से १ रत्ती मात्रा तक यथोचित अनुपानोंके साथ सेवन करना चाहिये । इसके सेवनकालमें लवण, अम्ल और तीखे पदार्थ तथा तैलसे परहेज़ करना चाहिये । इसके सेवन से १ मण्डल या ३ सप्ताह में श्वित्रादि अठारह प्रकारके कुष्ट, समस्त रक्तविकार, १३ प्रकारके सन्निपात, अपस्मार, भगन्दर और नासूरादि सब प्रकार के महाव्रण ( घाव ), वातरक्त, उपदंश इत्यादि लिङ्गरोग, समस्त शीत और वायु विकार, श्वास, खांसी, वातव्याधि, दुष्ट पीनस, प्रतिश्याय, अर्श (बवासीर) इत्यादि आठ महारोग, अग्निमांद्य, संग्रहणी, मधुमेहादि समस्त प्रकारके प्रमेह, मेदोवृद्धि, गण्डमाला, अर्बुद, आमवात, गृध्रसी, राजयक्ष्मा, हर प्रकारका शोष, अस्सी प्रकारके वातरोग, ४० प्रकारके पित्त रोग, २० प्रकारके कफ रोग और १० प्रकारके रक्तज रोग तथा जरा ( वृद्धावस्था ) नष्ट होकर For Private And Personal Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४६१] शरीर कान्तिमान हो जाता है; एवं बल, बुद्धि, श्वेत कूष्माण्ड ( पेठा-भतुआ )के मध्यमें दृष्टि और कामशक्ति इत्यादिकी वृद्धि होती है। छटाँक से पावभर तक तबकिया हरतालको रखकर ___ हरताल ४ प्रकारकी मानी गई है-१ बुगदादी और उसी पेठेके टुकड़ेसे छिद्रको बन्द करके उस २ गोदन्ती, ३ तबकी और ४ पिण्डहरताल । | पेठेको लोहे की कड़ाहीमें रखकर भट्टीपर कड़ाहीको इनमें बुगदादी हरताल सबसे अच्छी होती है, चढादे और मध्याग्नि (न मन्दी न तेज माफिक गोदन्ती में उससे कम गुण होते हैं, तबकी की अग्नि ) दे । जब पेठा जलते जलते हरितालके गोदन्तीसे भी कम गुणवाली और पिण्ड हरताल | समीप तक कड़ाहीका पेंदा आ लगे तब उस सबसे निकृष्ट होती है। कड़ाहीको जमोनपर उतार दे। इस प्रकार तीन (२६६९) तालवटिका (र. चं.। रसायन.) बार पेठेमें स्वेदन करनेसे तबकिया हरिताल शुद्ध हो अश्वगन्धाहरीतालं हिङ्गुलं विजयायुतम् । जाती है । परन्तु यह स्मरण रहे कि पेठेके जिस गोदुग्धेन समं पेष्यं वटिकां बल्लमात्रकाम् ।। छिद्रद्वारा हरितालको घुसाकर रखा है उस छिद्रको ताम्बूले भक्षयेत्पातश्चत्वारिंशदिने तथा।। कढाहीके पेंदेकी तरफ न रखे,किन्तु ऊपर आकाशकी मत्तमातङ्गवीर्यस्तु वायुतुल्यपराक्रमः ॥ तरफ रखे, नहीं तो उसी छिद्रद्वारा सम्पूर्ण पेठेका गृध्रदृष्टिर्भवेत्तस्य वराहश्रवणोपमः । पानी कडाहीमें गिर जायगा तो हरितालका ठीक जायते भास्करीकान्तिर्मकरध्वजवल्लभा॥ स्वेदन नहीं होगा । यह संक्षेपसे हरितालकी ___असगन्ध, हरतालभस्म, शुद्ध हिङ्गल (शंग- पहिली शुद्धि हुई । अथवा एक सेर पत्थरके बिना रफ) और भांग समान भाग लेकर गोदग्धमें । बुझे हुए चूनेमें चार सेर पानी डालकर दोलायन्त्र घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये। विधिसे हरतालकी पोटरीको लटकाकर एक एक इन्हें पानमें रखकर निरन्तर ४० दिन तक नित्य | पहर तक मन्दाग्निसे तीनबार स्वेदन करनेसे भी प्रति सेवन करनेसे हाथीके समान वीर्य, वायुके । तबकिया हरतालकी शुद्धि हो जाती है । अथवा समान पराक्रम, गृध्रके समान दृष्टि, शूकरके समान तेल, मट्ठा, गोमूत्र, कांजी, और कुलथीका काढा इन श्रवणशक्ति और सूर्य के समान कान्ति प्राप्त होती है। पाँचों चीजोंमें दोलायन्त्र विधिसे एक एक पहर (२६७०) तालशुद्धिः ( रसायनसार।) पकानेसे तबकिया हरितालकी उत्तम शुद्धि होती है। कटायां स्थापिते श्वेते कूष्माण्डत्रितये धृतम् । ( रसायनसारसे उद्धृत) तालं मध्यग्निना स्विनं शुद्धिं याति समासतः॥ (२६७१) तालशोधनम् सुधापानीयमध्ये वा दोलायन्त्रेऽवलम्बितम्। (र. र. स. । पू. ख.; र. प्र. सु. । अ. ६) प्रहरद्वितयं पाच्यं तालं तेन विशुद्धयति ॥ स्विन्नं कूष्माण्डतोये वा तिलक्षारजलेऽपि वा। तैले तक्रे गवां मूत्रे काजिके च कुलत्थजे। तोये वा चूर्णसंयुक्ते दोलायन्त्रेण शुध्यति ॥ यामे यामे पचेत्तेन शुद्धिं याति विशेषतः॥ । हरितालको दोलायन्त्रविधिसे पेठेके रस, तिल For Private And Personal Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि - क्षारके पानी, वा चूनेके पानीमें पकानेसे वह शुद्ध शुद्ध वर्की हरतालमें सुहागा, भैंसका घी और हो जाती है। | शहद मिलाकर उसे १ दिन कुलथीके काथमें (२६७२) तालशोधनम् घोटें । फिर ८ पल यह हरताल और १ पल ( शा. ध. सं. । म. अ. ११; यो. र. । प्र. भा.; (५ तोले ) छिलके-रहित अरण्डीके बीजोंकी वृ. यो. त. । त. ४१; भा. प्र. । पू. खं; पिदीको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह घोटकर जौके __ आ. वे. प्र.। अ. ५; र. चिं. म. ।) समान बत्तियां बनालें; और उन्हें सुखाकर कपरतालकं कणशः कृत्वा तच्चूर्ण काञ्जिके क्षिपेत्। मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरदें। अब इसे दोलायन्त्रेण यामैकं ततः कूष्माण्डजद्रवैः ॥ बालुकायन्त्रमें रखकर बारह पहरकी अग्नि दें तिलतैलै पचेद्यामं यामं च त्रिफलाजले। ' और शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसके ऊपरवाले चूर्णोदके च यामैकं पक्कं शुध्यति तालकम् ॥ भागमें ( गलेके आसपास ) लगे हुवे हरताल वर्की हरतालके चावलोंके समान बारीक सत्वको निकालकर सुरक्षित रक्खें । टुकड़े करके दोलायन्त्रविधिसे १-१ पहर काजी, धातु और पाषाण (संखिया आदि )के सत्व पेटेके रस, तिलके तैल, त्रिफलाके काथ और निकालनेकी सैकड़ों विधियां हैं परन्तु हमने केवल चूनेके पानीमें स्वेदन करनेसे वह शुद्ध हो जाती है। कार्योपयोगी विधियोंका ही वर्णन किया है। (२६७३) तालसत्वपातनम् (१) । (र. प्र. सु. । अ. ६) (२६७४) तालसत्वम् (२) (र. चिं.म.।स्त.५) कुलत्थकाथसौभाग्यमाहिषाज्यमधुप्लुतम्। गोमूत्रे भावयेत्तालं दिनैकं शेरमात्रकम् । खल्वे सिस्वा च तत्तालं मर्दयेदेकवासरम् ।। चूर्णयित्वा प्रमाणेन तन्दुलानां न चाधिकम् ॥ निस्तुषीकृत्य चैरण्डबीजान्येव तु मर्दयेत् । हण्डिकायां निवेश्याथ काञ्जिकं तत्र दीयते । पलाष्टमानं तालस्य चाष्टमांशन्तु कारयेत् ॥ वस्त्रेणाच्छादयेदेत यथा चूर्ण न लिप्यते ॥ वीजान्येरण्डजान्येव क्षिप्त्वा चैकत्र मर्दयेत् ॥ तस्याई दीयते तालं चूर्ण तालोपरि क्षिपेत् । यवाभा गुटिका कार्याशुष्का कूप्यां निधाय च ॥ उपरिष्टात्पुनर्दिग्धं तेन चूर्णेन तालकम् ॥ वालुकायन्त्रमध्ये तु वह्नि द्वादशयामकम् । पालिकामुपरि प्राज्ञः पुनर्दत्वा मृदापि तम् । स्वाङ्गशीतं समुत्तार्य ऊर्ध्वगं सत्वमाहरेत् ॥ यावद्यामं ततो वह्नि कुर्याच्चुल्ल्याः समन्ततः ।। पाषाणधातुसत्वानां प्रकाराः सन्ति कोटिशः। पुनस्तेन प्रकारेण द्विवेलं तालकं तथा। यानि कार्यकराण्येव सत्वानि कथितानि वै॥ कदलीकन्दतोयेन पुनस्तालं च पेषयेत् ।। १ रसप्रकाश सुधाकरके मतानुसार यवक्षार अथवा चाहे जो क्षार ले सकते है । २ सुहागा हरतालके बराबर और घृत तथा शहद इतना मिलाना चाहिये कि जिससे हरताल गोली बनने योग्य हो जाय ।। ३ छायामें सुखाना चाहिये । धूप में सूखना कठिन है । For Private And Personal Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४६३] याममेकं पुनस्तालं शोधयित्वा च तत्तथा । स्वांगशीतल होनेपर उसमें से हरतालको निकालपुनर्यामं पुनर्याममेवं वेलात्रयं बुधः । कर १ दिन गोमूत्रमें भिगोकर पुनः उपरोक्त कुरुते मर्दनं शोषं तण्डुलीयजलेन च । विधिसे पकाइये; इसी प्रकार कुल तीन बार पकातथा कृत्वा त्रियामं तद्गण्डदूर्वारसैस्तथा । कर हरतालको निकाल लीजिए और १ पहर तक कूष्माण्डकजलैरेवं त्रिफलाया जलैस्तथा। केलेकी जड़के रसमें घोटिये । इसी प्रकार केलेकी तथैवं मर्यते काकमाचीजातद्रवैः पुनः । जड़के रस, चौलाईके रस, बड़ी दूबके रस, पेठेके सेहुण्डपयसा दद्याद्डसौभाग्यपीतिकाः। रस, त्रिफलाकाथ और मकोयके रस में ३-३ बार ततो हि चौषधं ह्येतन्निरुध्यात्काचकूपके ॥ घोटिये, हर बार १--१ पहर घोटकर सुखा लेना यामद्वादशपर्यन्तमग्निं कुर्यादहर्निशम् ।। चहिये । स्वाङ्गशीतं समुत्तार्य पूर्वोक्तं कर्मकारयेत् ।। ____ अब इस हरतालमें ( उसका आठवां भाग) रम्भाकन्दादिकं कर्म कृतं यत्मथमं किल । थोहर ( सेंड )का दूध, गुड़, सुहागा और हल्दी तथैव च पुन कुर्यात्पड्यामं वहिदीपनम् ॥ मिलाकर आतशी शीशीमें भरकर ( बालकायन्त्र एवं तालकसत्वं स्यादधस्तिष्ठति निश्चितम् । । में) निरन्तर १२ पहर तक पकाइये। जब हाण्डी खोटकाभं गुरुतरं सोज्ज्वलं तारसन्निभम ॥ स्वांगशीतल हो जाय तो उसमेंसे हरतालको निकालवहिसंयोगतश्चापि न समुड्डीयते किल। कर केलेकी जड़ आदि समस्त औषधोंके रसमें विकल्पो नात्र कर्तव्यो व्यासवाक्यमिदं यथा| पूर्वोक्त विधिसे घोटकर तथा सेंडका दूध इत्यादि १ शेर हरतालके चावल जैसे बारीक टकडे मिलाकर ६ पहर बालकायन्त्रमें पकाइये, और करके उन्हें १ दिन गोमूत्रमें भिगोइये, फिर कपड़ स्वांगशीतल होनेपर उसकी तलीमें पड़े हुवे हरमिट्टी की हुई हाण्डीमें पहिले थोडासा बे बुझा तालसत्वको निकालकर सुरक्षित रखिये । यह पत्थरका चूना डालकर उसपर काञ्जी छिड़क सत्व भारी, उज्ज्वल और चांदीके समान होगा तथा दीजिए, और फिर चूनेपर एक कपड़ा ढककर अग्निपर रखनेसे भी स्थिर रहेगा । इस कथनको उसपर हरताल फैला दीजिये। काजी इतनी अधिक व्यासवाक्यके समान सत्य समझना चाहिये । न डालनी चाहिये कि चूना अधिक गीला होकर (२६७५) तालसत्वविधिः(३)(र.चिं.स्तब.५) कपड़ेको लग जाय । इसके पश्चात् उक्त हरतालपर अतसीतैलसंभृष्टं तालकं हण्डिकान्वरे । पुनः कपड़ा ढककर उसपर चूना डालकर उसके । धृत्त्वा काचघटे पश्चान्मुद्रयेत्तन्मुखं भृशम् ॥ ऊपर थोड़ी काञ्जी छिड़क दीजिए और फिर वहियोगोऽथ कर्तव्यो द्वियामे सत्त्वनिर्गमः। हाण्डीके मुखपर शराव ढककर कपरमिट्टी कर अनया क्रियते रीत्या चोत्तमं सत्वपातनम् ॥ दीजिये और मुखाकर चूल्हेपर चढ़ाकर उसके दृढं च सैन्धवं दत्वा युज्यते वझिसङ्गमे । नीचे १ पहर अग्नि जलाइये। तत्पश्चात् हाण्डीके सर्वकार्यकरं सम्यक् सत्वं निर्दोषमुत्तमम् ।। For Private And Personal Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४६४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि vornnanowwwnnnnnnnnvv vvinanNAVI/AANVvvvvvvvvvvxvxvov/ शुद्ध हरतालको अलसीके तैलमें भूनकर मृदु मो यदा याति श्वेतधमो यदाऽऽगतः । आतशी शीशीमें भरकर उसका मुख बन्द मुद्रयित्वा मुखे चाथ वनियामाष्टकं ददेत् ॥ करदें, फिर उस शीशीको कपरमिट्टी की हुई मज़बूत एवं निष्पद्यते सत्वं तालकस्य विशुद्धिमत् । हाण्डीमें रखकर उसके चारों ओर हाण्डीके गले कमण्डलुप्रमाणेऽथ गोमूत्रस्यान्तरे क्षिपेत् ॥ तक, दबा दबाकर पिसा हुवा सेंधा नमक भर पुनस्तद्विपचेन्मूत्रं यावन्मूत्रक्षयो भवेत् । दीजिए, तत्पश्चात् हाण्डीके मुखको शरावसे बन्द तत उत्तार्यते सत्वं शीतं नीत्वा पुनश्च तत् ॥ करके उसपर कपरमिट्टी करके दो पहर तक अग्नि अथ गन्धस्य खण्डानि त्रिंशदंशमितानि च । लगाइये । इस क्रियासे उत्तम सत्व निकल आता है। समं सत्त्वेन कार्याणि मिश्रितानि सटङ्कणम् ॥ (२६७६) तालसत्वविधिः (४) कृत्वाऽथ ध्मापयेद्गाढं ततः सत्वं हि जायते । खोटरूपमिदं सत्वमक्षयं दोषवर्जितम् ।। ( रसें. चिं.। अ. ७; आ. वे. प्र. । अ. ५) शुक्लद्युतिनिभं पश्चाच्छ्रेष्ठपित्तलमानयेत् । जैपालसत्ववातारिवीजमिश्रं च तालकम् ।। एकादशविभागं हि भागैकोस्य च खोटतः॥ कुप्पीस्थं बालुकायन्त्रे सत्वं मुञ्चति यामतः ॥ ध्मातव्यं सकलं मूषे रूप्यं किञ्चित्पुनः क्षिपेत् । • जमालगोटेका सत, अरण्डीके बीज और | एवमुत्पद्यते रूप्यं चन्द्रकान्तिसमद्युति ॥ हरताल समान भाग लेकर एकत्र खरल करके, उत्तम भूमिमें उत्पन्न रेह मिट्टी २ सेर तथा आतशी शीशीमें भरकर १ पहर तक बालुकायन्त्रमें शुद्ध तबकी हरताल १ सेर लेकर दोनोंको तीन पकानेसे हरतालका सत्व निकल आता है। दिन तक गोमूत्रमें धोटिये । तत्पश्चात् उसमें १५ सेर सुहागा, ३० सेर तिलका तेल और १५ सेर (२६७७) तालसत्वविधिः (५) । हस्तिकर्णपलाशका तैल मिलाकर धूपमें घुटवाइये। __(र. चिं. । स्तबक ५) जब घोटते धोटते सूख जाय तो उसे आतशी योग्यभूमिसमुद्भूतं क्षारिकालवणं नयेत् ।। शीशीमें भरकर (बालुकायन्त्रमें) ४ पहरकी अग्नि शेरद्वयप्रमाणेन शेरमेकं च तालकम् ॥ दीजिये। जब चार पहर पश्चात् शीशीमेंसे हल्का एवं गोमूत्रमध्यस्थमनेनापि द्वयं ततः । हल्का धुंवां निकलकर सफेद धुवां निकलने लगे खल्वस्थं मर्दयेद्गादं दिनानि त्रीणि तालकम्॥ तब शीशीके मुखको खिड़ियामिट्टीके डाटसे बन्द कर दश पञ्च च भागाः स्युष्टङ्कणस्त्रिंशतिः पुनः। दीजिए और आठ पहरकी अग्नि और दीजिये एवं तिलतैलस्य दातव्या तदधै हस्तिकर्णजम् ॥ हाण्डीके स्वांग शीतल होनेपर शीशीमेंसे सत्वको एकतो मद्यते तापे पश्चाच्छुष्कं तदिष्यते। निकाल लीजिये ।। काचकूपिगतं कार्यो वहिर्यामचतुष्टयम् ॥ इस सत्वको १ कमण्डलं गोमूत्रमें डालकर १ गोमूत्र सत्वसे ४ गुना लेना चाहिये । For Private And Personal Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४६५] समस्त मूत्र जल जाने तक पकाइये और फिर उसे ठण्डा | तत्पश्चात् यन्त्रके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे करके उसमें ३० सेर गन्धकके टुकड़े और सत्वकी औषधको निकालकर पीसकर रक्खें । बराबर सुहागा मिलाकर बड़े मूषामें भरकर तीव्राग्नि बच, कूठ, हल्दी, सेंधानमक, सुहागेकी खील, पर धमाइये तो विशुद्ध सत्व निकल आयेगा। शुद्ध मीठा तेलिया, पाठा, कलिहारीकी जड़, और १ भाग यह सत्व और ३० भाग उत्तम त्रिकुटेका चूर्ण १-१ कर्ष लेकर एकत्र घोटकर पीतलको एकत्र मिलाकर मूषामें रखकर तीब्राग्निपर सबको १ दिन भंगरेके रसमें घोटें । १ माषा धमाइये और जब पीतल पिघल जाय तो उसमें यह अनुपान और २ रत्ती उपरोक्त रस एकत्र थोडीसी चांदी डाल दीजिए । इस क्रियासे समस्त मिलाकर सेवन करनेसे क्षतज खांसी, श्वास, पीतलकी उत्तम, चन्द्रमाके समान उज्वल चांदी हिचकी, स्वरभङ्ग ( गला बैठना) और खांसीका बन जायगी। नाश होता है। (२६७८) तालेश्वररसः (१) (र. र. । कास.) । (२६७९) तालेश्वररसः (२) रसपादं मृतं तारं शिलाताले चतुर्गुणे।। (र. र. स. । उ. खं. अ. २०) वासागोक्षुरसत्वाभ्यां मर्दयेत्प्रहरद्वयम् ॥ हरितालपले द्वे द्वे द्रंक्षणे रसगन्धयोः । द्वियामं वालुकायन्त्रे स्वेद्यमादाय चूर्णयेत् । ककटीपत्रसारेण पिष्टं ताम्रमयोरजः ॥ गुञ्जाद्वयं निहन्त्याशु कासं श्वासं क्षतोद्भवम्॥ पञ्चशो मर्दितं धात्रीकुक्कुटीरसमाक्षिकैः । रसस्तालेश्वरो नाम्ना अनुपानं च कथ्यते । वर्षाभूचित्रपत्राढ्यं मूषागर्भे निवेशितम् ॥ वचा कुष्ठहरिद्राभिः सैन्धवं टङ्कणं विषम् ॥ ण्टेन असोते। सपाठालाङ्गलीव्योषं चाक्षं प्रत्येकभागकम् । हिजम्बीरवातारितैलैः पवनपीडिते ॥ भावितं भृङ्गराजेन दिनैकं तं च भक्षयेत् ॥ माधूकसारसिन्धूत्थवचाव्योहतौजसि । माषं तालेश्वरो नाम्ना हिकावैस्वर्यकासजित् ॥ शोफे भक्ताम्बुना कुष्ठे घृतेन पयसाऽथ वा ।। __ शुद्ध पारा १ भाग, चांदी भस्म चौथाई भाग धारोष्णेनाकस्यापि कामलायां रसेन च । और शुद्र हरिताल तथा शुद्ध मैनसिल ४-४ रसस्तालेश्वराख्योयं सर्वकुष्ठहरः परः॥ भाग लेकर मैनसिल और हरतालका महीन चूर्ण शुद्र वर्की हरताल १० तोले तथा पारा, करें और फिर सब चीजों को एकत्र मिलाकर गन्धक, संभलके पत्तोंके रसमें घुटी हुई ताम्रभस्म घोटं । तत्पश्चात् उसे २-२ पहर बासा और और लोह भस्म ११-१। तोला लेकर सबको गोखरुके रसमें घोटकर गोला बनाएं और उसे एकत्र खरल करके आमला और सेंभलके पत्तों के सम्पुट में बन्द करके उस सम्पुटको बालुकायन्त्रके रस तथा शहदकी ५-५ भावना देकर गोला बोचमें रखकर २ पहर तक स्वेदित करें। । बना लीजिये और फिर उसे एक मूषाके अन्दर भा० ५९ For Private And Personal Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४६६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि पुनर्नवा और चीतेके पत्तोंके बीचमें रखकर भूधर शोधयित्वा तदम्लेन दनालोडथ विमर्दयेत् । पुटमें पकाइये। | खल्वे लौहमये वापि गाढं यामद्वयं पुनः ।। इसे पानमें रखकर खाना चाहिये। पुननेवाया क्षारेण संयोज्य घनतां नयेत । अनपान—बातव्याधिमें हींग, जम्बीरी दधि किञ्चित् पुनर्दत्त्वा घनीभूतं निवेशयेत् ॥ नीबूका रस और अरण्डीका तैल। स्थाल्यां दृढतरायां च क्षारे पौनर्णवे पुनः । ओजके क्षय होने में-महुवेका स्वरस, सेंधा, । | रोटिकासदृशं कृत्वा शरावेण पिधापयेत् ।। पचेत्तावत् भवेत्क्षारं शङ्खकुन्देन्दु सन्निभम् । बच और त्रिकुटाका चूर्ण । स्वाङ्गशीतं समुद्धत्य पुनरग्नौ परीक्षयेत् ॥ सूजनमें-चावलोंका पानी । क्षिप्तमग्नौ च निधूमं दृश्यते न विलीयते । कुष्टमें-घृत अथवा धारोष्ण दूध ।। तदा सिद्धि विजानीयात् योजयेत् सर्वकर्मसु ॥ कामलामें—अद्रकका रस । एवं सिद्धेन तालेन गन्धतुल्येन मेलयेत् । यह रस समस्त प्रकारके कुष्ठोंको नष्ट करता है। द्वयोस्तुल्यं जीर्णतानं बालुकायन्त्रपाचितम् ।। ( मात्रा—१-२ रत्ती ।) अयं तालेश्वरो नाम रसः परमदुर्लभः । (२६८०) तालेश्वररसः (३) (र.रा. सु.।ज्वरा.) हन्यात कुष्ठान्यशेषाणि वातशोणितनाशनः॥ सम्मघ रम्भासलिलेन तालं वातमण्डलमत्युग्रं स्फुटितं गलितं तथा । चूर्णेन तुल्यं दिवसत्रयेण । कुष्ठरोगं सर्वजातं नाशयेदविकल्पतः ॥ शुद्धं सखण्डं विनिहन्ति मुद्गमानं दुष्टत्रणं च वीसर्प त्वदोषानाशु नाशयेत् । पयोनाशि नयेत तापम् ।। । वातमण्डलकुष्ठानामौषधं नास्त्यतः परम् ॥ शुद्ध हरताल और पत्थरका चूना समान दृष्टयोगशतासाध्यरोगवारणकेसरी ।। भाग लेकर दोनोंको १ दिन केलेके रसमें धोटकर | वर्की हरतालके पत्र अलग अलग करके उन्हें मूंगके दानेके समान गोलियां बना लीजिये। कपड़ेमें बांधकर दोलायन्त्र विधिसे १-१ दिन इनमेंसे १-१ गोली खाण्डके साथ खिलाने । कुम्हेड़े (पेठे) के रस, चूनेके पानी, और तैलमें और दधभात पर रखनेसे ३ दिनमें घर नष्ट हो स्वेदित करें फिर उन्हें काञ्चीसे धोकर लोहेके जाता है । खरलमें डालकर दो पहर तक दहीके साथ घोटं, . .... ( यह गोलियां शीतज्वर-म्लरियाक लिए। फिर उसमें थोडासा (आठवां भाग) पुनर्नवाका उत्तम प्रतीत होती हैं ।) क्षार मिलाकर थोड़ा दही डालकर धोटें । जब (२६८१) तालेश्वरो रसः(४) (रसे.चिं.।अ.९) गाढा हो जाय तो उसकी टिकिया बनाकर सुखामम्यकपत्रीकृतं तालं कूष्माण्डसलिले शनैः। कर उसे कपड़मिट्टी की हुई हाण्डीमें रखकर उसके चूर्णोदके पृथक तैले दोलायन्त्रे दिन दिनम्॥ ऊपर पुनर्नवाकी राख हाण्डीके गले तक भर दें For Private And Personal Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। ४६७] vvvvvvvvvvv Arvivvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv और उसके मुंहको शरावसे ढककर भट्टीपर चढा- विष) १॥ भाग; काली मिर्च ४ भाग; नीमके कर अग्नि दें । जब राख शंखके समान सफेद हो | बीज (निबौली) और धतूरेके बीज १-१ भाग; जाय तो अग्नि देनी बन्द करदें और स्वांगशीतल | शुद्ध गन्धक ३ भाग; जायफल, सुहागा और होने पर हाण्डीमेंसे हरतालको निकाल लें । इसे शुद्ध हरताल १०-१० भाग लेकर, प्रथम पारे अग्निपर डालनेसे यदि धुवां निकले तो पुनः उक्त गन्धककी कजली बना लीजिये और फिर उसमें विधिसे अग्नि देनी चाहिये । अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर गिलोय और यह हरताल भस्म १ भाग, शुद्ध गन्धक १ | धतूरेके स्वरसकी ७-७ भावना दीजिए । हर भाग और ताम्रभस्म २ भाग लेकर एकत्र घोटकर, | बार रसमें घोटकर सुखा लेना चाहिये । अन्तमें आतशी शीशीमें भरकर बालुकायन्त्रमें (४ पहर) गोला बनाकर सुखाकर उसपर धतूरेके पत्ते लपेटपकाइये, और यन्त्रके स्वांगशीतल होनेपर औषध- कर उसके ऊपर (२-३ अङ्गुल मोटा) गोबरका को निकालकर सुरक्षित रखिये । लेप कर दीजिए और सुखाकर कुक्कुट पुटमें फूंक ___ यह 'तालेश्वर रस' समस्त प्रकारके कुष्ट, कर स्वांगशीतल होनेपर निकालकर सुरक्षित रखिये। वातरक्त, भयङ्कर, गलित और स्फुटित कुष्ट, मण्डल, ___ इसके सेवनसे समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते दुष्टव्रण, विसर्प और त्वग्दोषोंका नाश करता है। वातज मण्डल कुष्ठके लिये इससे अच्छी हैं । (मात्रा--२-३ रत्ती । अनुपान बाबची, खैर या नीमकी छालका काथ) अन्य एक भी औषध नहीं है। (२६८३)तालेश्वरो रसः (६) (र. मं. । कु.) (२६८२) तालेश्वरो रसः (५) (र. मं. । कु.) द्वादशं कर्षतालं च कूष्माण्डस्वरसे क्षिपेत् । मूतो द्वौ वल्गुजा त्रीणि कणाविश्वा त्रिकं त्रिकम्। स्वेदयेदोलकायन्त्रे यावत्तीयं न विद्यते ।। साईकं ब्रह्मपुत्रस्य मरिचस्य चतुष्टयम् ॥ | पश्चात्तं मेलयेत्खल्वे मूतं कर्षद्वयं क्षिपेत् । एकैकं निम्बधत्तूरवीजतो गन्धकात् त्रयम् । तन्मी बहुवाराणि नीलामा कज्जली भवेत्॥ जातीटङ्कणतालानां भागा दश दश स्मृताः॥ स्नुहीक्षीरं रविक्षीरं छागीक्षीरं च बाकुची। युक्त्या सर्व विमाथामृतास्वरसभाविता। पातालगरुडाङ्कोलचक्रमर्दकहिज्जलम् ॥ सप्तधा शोषयित्वाथ धत्तुरस्यैव दापयेत् ॥ कुमारीपत्रभल्लातत्रिफला तु पुनर्नवा । सम्मर्य गोलकं सान्द्रं धत्तरैर्वेष्टयेद्दलैः। निम्बत्वचं महौषध्या पुटं देयं त्रयं त्रयम ।। गोमये वेष्टयेत्तच्च कुक्कराख्यपुटे पचेत् ॥ षट्कर्ष चूर्णकलिकां हण्डिकायान्तु धारयेत् । रसः कुष्ठहरः सेव्यः सर्वदा भोजनप्रियैः॥ चतुर्थाशमधः स्थाप्यं मध्ये स्थाप्यं तु तालकम्॥ __शुद्ध पारा २ भाग; बाबची, पीपल और पश्चादुपरि चूर्ण तत्सर्व स्थाप्यं प्रयत्नतः। सोंठ ३-३ भाग; ब्रह्मपुत्र विष (अभावमें बछनाग ! हण्डिकाखण्डपर्यन्तं मज्जानं कन्यकोद्भवम् । For Private And Personal Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि ततो मुद्रां दृढं कुर्यादस्यिं रोधितं किल । (मात्रा-१-२ रती। अनुपान त्रिफला चतुर्यामं तु दीपाग्निं विद्याद्यामं हठानिना॥ काथ ।) स्वाङ्गशीतलमुद्धत्य भवेत्तालेश्वरो रसः।। (२६८४) तालेश्वरो रसः (७) पथ्यं मुद्गं तु शाल्यन्नं कुष्ठानष्टादशाञ्जयेत् ।। (वृ. यो. त. । त. ११८ ) १५ तोले वर्की हरतालको दोलायन्त्रविधिसे तालकं मर्दयेत्सम्यक ताम्बूलीपर्णवारिणा । पेठेके स्वरसमें मन्दाग्नि पर पकाइये; जब समस्त | त्रिदिनं मस्तुना मद्य दिनैकं पयसा रवेः ।। रस सूख जाय तो हरतालको निकालकर उसमें | तद्गोलं भाण्डमध्यस्थं किंशुकक्षारसंयुतम् । २॥ तोले शुद्ध पारा मिलाकर इतना घोटिये कि त्रिदिनं पाचयेत्सम्यक् मन्दमध्यहठामिना ।। नीलवर्ण कजली हो जाय । तत्पश्चात् उसे सेहुण्ड | तालभस्म समाकृष्य तण्डुलद्वयमात्रकम् । (सेंड-थोहर) के दूध, आकके दूध, बकरीके दूध; आकलं जातिपत्रश्च लवङ्ग जातिकाफलम् ।। बाबची, पातलगरुड़ी, अङ्कोल, पंवाड़, समुद्रफल, संयोज्य सपिषा जग्ध्वा सर्ववातकुलान्तकः। घृतकुमारी (ग्वारपाठा), भिलावा, त्रिफला, पुनर्नवा, वातरक्तं तथा कुष्ठं ग्रहणीश्च भगन्दरम् ॥ नीमकी छाल और सोंठमें से जिनका स्वरस मिल सर्वत्रणानिहन्त्याशु नाम्ना तालेश्वरो रसः॥ सके उनके स्वरस और बाकी औषधोंके काथकी शुद्ध वो हरतालको ३ दिन ताम्बूल (पान) पृथक् पृथक् ३-३ भावना देकर गोला बनाकर के रसमें और १-१ दिन दहीका तोह और सुखा लिजिये। तत्पश्चात् ७॥तोले कलीचूना लेकर आकके दूधमें घोटकर गोला बनाइये और उसे उसमेंसे चौथाई, कपर मिट्टी की हुई हाण्डीमें रखकर सुखाकर कपरमिट्टी की हुई हाण्डीमें ढाककी उसपर हरतालका गोला रख दिजिये और उसके राखके बीचमें रखकर, हाण्डीके मुखको शरावसे ऊपर बाकी चूना रखकर हाण्डीके गलेतक ग्वारपाठा | बन्द करके ३ दिन तक क्रमश: मृदु, मध्यम का गूदा भर दीजिये और उसके मुखपर शराव ढक और तीव्राग्नि पर पकाइये । तत्पश्चात् हाण्डीके कर जोड़को गुड़ चूनेसे बन्द करके उसपर कपड़ स्वांग शीतल होनेपर उसमें से हरताल भस्मको मिट्टी कर दीजिए और उसे सुखाकर चार पहर | निकाल लीजिये । इसीका नाम 'तालेश्वर रस' है। तक दीपकी लोके समान मन्दाग्नि पर तथा एक अकरकरा, जावित्री, लौंग और जायफलका पहर तीवाग्नि पर पकाइये और हाण्डीके स्वांग- समान भाग चूर्ण एकत्र मिलाकर खरल, करें । शीतल होनेपर उसमें से गोलेको निकालकर पीस (१॥ माषा) यह चूर्ण और २ चावल उपरोक्त कर रखिये। भस्म एकत्र मिलाकर धीमें मिलाकर चाटनेसे ' यह 'तालेश्वर रस' १८ प्रकारके कुष्टोंका समस्त वातव्याधि, वातरक्त, कुष्ठ, संग्रहणी, नाश करता है। पथ्य-मूंगकी दाल भात । भगन्दर और सब प्रकारके व्रण नष्ट होते हैं। १ त्रिदिनमिति पाठान्तरम For Private And Personal Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४६९] __ नोट---- ढाककी भस्म हाण्डीमें दबा दबाकर | जब मूत्र और दूध सूख जाय तो उसमें क्रमश: भरनी चाहिये और आधी हाण्डी भस्मसे भर जाने । ११-१। तो० सत्यानाशीकी जड़ ( चोक )के पर उसपर हरतालका गोला रखकर उसके ऊपर चूर्ण, यवक्षार, सजीखार ( सोडा), धतूरेके क्षार, हाण्डीके गले तक भस्म भरदेनी चाहिये । पत्थरका चूना और पेठेके क्षारकी तह जमाकर (२६८५) तालेश्वरो रसः (लघुः) (८) रक्खें और अग्नि तेज़ करदें । जब हाण्डीमेंसे (र. चि. म. । स्त. २; र. का.धे.। कुष्ठा.), ज्वाला निकल कर शान्त हो जाय, तथा धूम्र पलान्यादाय चत्वारि हरितालस्य चित्रकम् । निकलना भी बन्द हो जाय और हाण्डी अंगारके अभ्रक गन्धकं शुद्धं गिरिजञ्च पलद्वयम् ॥ समान लाल हो जाय तो अग्नि देना बन्द करदें हण्डिकान्तरगतं पूर्व चित्रकं धारयेत्सुधीः।। और हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से औषधपश्चाच्च तालकं दद्याद्गन्धकं तस्य चोपरि ॥ को निकालकर पीसकर रक्खे । अभ्रकञ्च पुनर्दद्यात्पश्चाद्याच्छिलाजत । । इसमें से ५ रत्ती मात्रानुसार यथोचित अनुपानगव्यं मूत्रं पुनर्दद्याद गव्यं क्षीरं पुनः क्षिपेत ॥ के साथ सेवन करनेसे जिसमें वमन होती हो, प्रवेश्य मूत्रं दुग्धश्च शनैर्वह्नौ च तद्रसे। पीप बहता हो अङ्गुली और कान इत्यादि अङ्ग कर्षमात्राश्च हेमाहां यवक्षारश्च तत्समम् ॥ । गल गये हों, कीड़े पड़ गये हों और बदबू आती स्वर्जीक्षारं तथा दद्यात्क्षारं धत्तरजन्तथा।। हो वह कुष्ट भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । पुनश्चूर्ण सितं दद्यात्कूष्माण्डक्षारमेव च ॥ (२६८६) तिक्तत्रयरस (र. रा. सु. । कास.) सर्वमेकत्र सम्पाच्य गतज्वालमधूमकम् । भस्मताम्राभ्रतीक्ष्णानां कासमर्दवरारसैः। तप्ताङ्गार निभं यावत्तावज्ज्वालाश्च दापयेत् ॥ मुनिजैर्वेतसाम्लेन दिनं मर्यश्च पीलितम् ॥ स्वागशीतं समाकृष्य दद्यात्तत्पश्चरक्तिकम् । मापार्द्ध पित्तकासातॊ भक्षेत्तिक्तत्रयो रसः ॥ कुष्ठं वमियुतं स्रावि पतिताङ्गश्च दुस्तरम् ॥ ताम्र भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म ओर अभ्रक गतश्रोत्राङ्गलिपायं विधुरं विवलस्वरम् । भस्म समान भाग लेकर सबको १-१ दिन यथा तथा विधं भूयः कृमिलं कुथितं धनम् ।। कसौंदी, त्रिफला, अगस्ति ( अगथिया ) और नाशयत्यचिरेणायं लघुतालेश्वरो रसः॥ अम्लवेतके रसमें घोटकर आधा आधा माषेकी ___ कपरमिट्टी की हुई मज़बूत हाण्डीमें २ पल गोलियां बना लीजिये । इनके सेवनसे पित्तज (१० तोले ) चीतेका चूर्ण बिछाकर उसपर खांसी नष्ट होती है। ४ पल शुद्ध तबकी हरताल रक्खें, उसपर २ पल गन्धक, गन्धकके ऊपर २ पल अभ्रक और सबके (२६८७) तीक्ष्णमुखरसः (१) (रसे.मङ्ग.अ.१) ऊपर २ पल शिलाजीत रखकर हाण्डीमें १२-१२ तीक्ष्णं शुल्वसुरायसंच गगनं तापीरुहं तालकम। पल गोमूत्र और गोदुग्ध डालकर मन्दाग्निपर पकाएं, गोदन्तं रसराजमिश्रितसमं धृत्वा च खल्वे भिषा For Private And Personal Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४७० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि द्राक्षागारमृदापयोजविसिनीकन्दान्विता चामृता। भस्म, शुद्ध गन्धक और स्वर्णमाक्षिक भस्म समान घृष्ट्वा यष्टिरसैः सिता मधुयुता गद्याणमात्रा वटी॥ भाग लेकर सबको घृतकुमारीके रसमें घोटकर पित्तं हन्ति च पित्तसम्भवगदान सर्वाश्च गोला बनाकर, सुखाकर, सम्पुटमें बन्द करके पित्तज्वराः। गजपुट में फेंक दीजिये। कासवासगलामयान्क्षयतृषादाहश्च शाष शम्।। इसके सेवनसे अर्श (बवासीर) नष्ट होती है । प्रज्ञापारमितैनिशीथसमये स्वप्ने प्रसादीकृतो।। ( मात्रा-२-३ रत्ती । ) नाम्ना तीक्ष्णमुखोरसेन्द्रप्रवरः श्रीनागवोधोदितः ... तीक्ष्ण लोहभस्म, ताम्रभस्म, स्वर्णभस्म, । (२६८९) तीक्ष्णमुखरमः ( ३.) । स्वर्णमाक्षिक भस्म, हरताल भस्म, गोदन्ती भस्म (र. र. स. । उं. खं. । अ. १५ ) और पारद (रससिन्दूर) समान भाग लेकर सबको नागं पारदगन्धकं त्रिलवणं वार्यर्कजं मेलयेएकत्र खरल करके मुनक्का, तालाबकी मिट्टी, कमल, देकैकं च पलं पलं त्रयमतः पश्चक्रमान्मर्दयेत् । मृणाल ( कमलनाल ), कमलकन्द, गिलोय, मुलैठी, सर्व तदिवसत्रयं तदनु तहत्त्वा पुटं भावनाः मिश्री और शहदमेंसे जिनका स्वरस मिल सके । कुर्यात्सत्रिफलाग्निवेतसरसैः पश्चाधिकविंशतिः।। उनके स्वरसके साथ, जो क्वाथ करने योग्य हों पश्चैतत् क्रमशस्ततो गुडभवैर्दत्तोस्थ वल्लो जलैउनके काथके साथ और मिट्टी तथा मिश्रीको । हन्त्य स्यखिलानि सूरणवृतैस्तस्यान८ गुने पानीमें घोलकर उसके साथ १-१ दिन । मस्मिन्हितम् । घोटकर ६-६ माषेकी गोलियां बना लीजिए। अर्केशः परिवर्यतामितिमुनिःश्रीवासुदेवोऽवद इनके सेवनसे पित, पित्तज समस्त रोग, स्कूष्माण्डीफलमाषपायसमतिव्यायाममर्कातपम्।। पित्तज्वर, खांसी, श्वास, गलरोग, क्षय, तृष्णा, दाह । सीसा भस्म, शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक और शोषका नाश होता है। १-१ पल (५--५ तोले) और तीनों लवण (सेंधा, ( व्यवहारिक मात्रा-३ रत्ती ।) सञ्चल और समुद्र लवण) ५ पल लेकर प्रथम (२६८८) तीक्ष्णमुखरसः (२) पारे गन्धककी कजली बना लीजिये और फिर ( र. र. स. । उ. खं. अ. १५) अन्य ओषधियोंका बारीक चूर्ण मिलाकर ३ दिन रसेन्द्रहेमार्कविडाऽऽलगोल तक आकके पत्तोंके रसमें घोटकर, गोला बनाकर सुरायसं लोहमलाभ्रगन्धाः । मुखाकर उसे सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें फूंक ताप्यं च कन्यारसमर्दितीयं दीजिये । तपश्चात् उसे हर्र, बहेड़ा, आमला, पकापुटे तीक्ष्णमुखोऽशंसां स्यात् ।। चीता और अम्लवेतके काथ तथा गुड़के पानीकी पारद, स्वर्णभस्म, ताम्रभस्म, विडलवण, पृथक् पृथक् ५-५ भावना देकर ३-३ रत्तीकी हरताल, रोहिपतृण, लोहभस्म, मण्डूर भस्म, अभ्रक | गोलियां बना लीजिये । For Private And Personal Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४७१ ] इनके सेवनसे समस्त प्रकारके अर्श (बवासीर) तांबेका बारीक अर्थात् रेतीसे रिता हुवा चूर्ण नष्ट होते हैं। और नौसादर बराबर बराबर लेकर एकत्र मिलाकर पथ्य-सूरणका शाक और घृतयुक्त आहार ।। कूटें और फिर उसमें दोनोंके बराबर नीबूका रस अपथ्य-पेठा, उर्द, खीर, अत्यधिक परिश्रम, मिलाकर मिट्टीके पात्रमें भरकर रखदें। एक मास और धूप । पश्चात् तूतिया तैयार हो जायगा । (२६९०) तीक्ष्णमुखरसः (४) नोट-यदि नीबूका रस १ मास पश्चात् भी शेष रह जाय तो उसे धूपमें सुखा लेना चाहिये । (र. रा. मुं.; र. र.; धन्वं.; र. सा. सं.; __वृ. नि. र. । अर्श.) (२६९२) तुत्थभस्मविधिः (र. र. स. पू. ख. अ.२; आ. वे. प्र.। अ. १२) मृतमूताभ्रलोहातीक्ष्णं मुण्डं च गन्धकम् । लकुचद्रावगन्धाश्मटङ्कणेन समन्वितम् । मण्डूरञ्च समं ताप्यं मर्य कन्याद्रवैर्दिनम् ॥ निरुध्य मूषिकामध्ये म्रियते कौकटैः पुटैः ॥ अन्धमूषागतं पाच्यं त्रिदिनं तुपवह्निना। शुद्ध तूतियाको समान भाग गन्धक और चूर्णितं सितया मासं खादेत्पित्तार्शसाञ्जयेत् ॥ सुहागेके साथ मिलाकर लकुच ( बढ़ल )के रसमें रसस्तीक्ष्णमुखो नाम ह्यनुयोज्यं मधुत्रयम् ॥ | घोटकर कुक्कट पुटमें फंकनेसे उसकी भस्म बन पारद भस्म (अभावमें रससिन्दूर ), अभ्रक जाती है। भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, तीक्ष्णलोह भस्म, ! (२६९३) तमाम ( रसायनसार. ) मुण्डलोह भस्म, शुद्ध गन्धक, मण्डूर भस्म और मूतगन्धककज्जल्यां समं तुत्थं विमर्दयेत् । स्वर्णमाक्षिक भस्म समान भाग लेकर सबको एक मूतादै टङ्कणं दत्त्वा भावयेल्लकुचद्रवैः ।। दिन घृतकुमारीके रसमें घोटें और अन्धमूषामें बन्द भृत्वा कृप्यां पचेद् वह्नौ तीने मूतं समुद्धरेत् । करके तीन दिन तक तुषाग्निमें पकाएं, तत्पश्चात् गले सिन्दुरनामा स्यात् तुत्थभस्माऽप्यधस्तले।। उसके स्वांग शीतल होनेपर औषधको निकालकर अर्थ-पावभर शुद्ध पारद, पावभर शुद्ध पीसकर रक्खें। गन्धक, दोनोंकी कजली करके उसमें आधासेर - इसे घी, शहद और मिश्रीके साथ मिलाकर तूतिया डालकर घोटे । बाद आध पाव शुद्ध सुहागा सेवन करनेसे पित्तज अर्श (बवासीर) नष्ट होती है । डालकर बड़हरके काथकी भावना देकर सुखाले । (२६९१) तुत्थनिर्माणविधिः (रसायनसार) इस कजलीको शीशीमें भरकर प्रथमसे ही ताम्रस्य चूर्ण कुरु घर्षणीत तिब्राग्नि दे । दो दिनके बाद अग्नि लगाना बन्द स्तत्तुल्यमस्मिन्नवसादरश्च । । करे । स्वाङ्गशीतल होने पर शीशीके गलेपर सम्मेल्यनिम्बूकजलश्च तुल्यं | सिन्दूर रस मिलेगा और तल भागमें तूतियाकी मासेन तुत्थं स्वयमेव सिद्धयेत् ॥ भस्म मिलेगी। इसके गुण ताम्रभस्मके तुल्य हैं । For Private And Personal Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४७२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि (२६९४) तुत्थमुद्रिका (र.र.स.। पू.खं.अ.२)। तूतियाके विकारोंको शान्त करनेके लिये सत्वमेतत्समादाय खरभूनागसत्वयुक। जम्बीरी नीबूका स्वरस, धानकी खीलोंको पानीमें तन्मुद्रिका कृतस्पर्शा शूलनी तत्क्षणाद्भवेत् ॥ घोटकर, वह पानी अथवा लामज्जक (खसभेद)का चराचरं विषं भूतडाकिनीदृग्गतं जयेत् ।। पानी पीना चाहिये । मुद्रिकेयं विधातव्या दृष्टप्रत्ययकारिका ॥ (२६९६) तुत्थशोधनम् (१) रामवत्सुरसेनानी मुद्रितेपि तथाक्षरम् । (शा. सं. । म. ख. अ. ११; आ. वे. प्र. । अ. १२; हिमालयोत्तरे पार्चे अश्वकर्णोमहाद्रुमः ।। भा. प्र.; र. सा. सं. । धातु प्र.; रसें. तत्रशूलं समुत्पन्नं तत्रैव विलयं गतम्। चिं. म. । अ. ७) मन्त्रेणानेन मुद्राम्भो निपीतं सप्तमन्त्रितम् ॥ विष्ठया मर्दयेत्तुत्थं मार्जारककपोतयोः । सब शूलहरं प्रोक्तमिति भालुकिभाषितम् । दशांशं टङ्कणं दत्वा पचेन्मृदुपुटे ततः ॥ अनया मुद्रया तप्ततैलमग्नौ सुनिश्चितम् ॥ लेपितं हन्ति वेगेन शुलं यत्र कचिद्भवेत् । पुटं दन्नः पुटं क्षौद्रये तुत्थविशुद्धये ॥ सद्यः मूतिकरं नार्याः सद्यो नेत्ररुजापहम् ॥ तूतियामें उसका दसवांभाग सुहागा मिलाकर तूतियाका सत्व और खर भूनागसत्व' समान उसे एक एक दिन बिल्ली और कबूतरकी विष्टाके भाग लेकर दोनोंको एकत्र करके अंगूठी बनवा साथ खरल करके लघुपुटमें फूंक दीजिए, फिर लीजिये। उसे दही और शहदमें पृथक् पृथक् घोटकर एक इस अंगूठीको छूनेसे ही सब प्रकारके शूल, एक पुट दीजिये । इस क्रियासे तृतिया शुद्ध हो विष और भूतविकार नष्ट हो जाते हैं। जाता है। इस अंगूठीको सात बार पानीमें धोकर पीनेसे भी शूल नष्ट होता है । इसे थोड़ी देर | (२६९७) तुत्यशोधनम् (२) तैलमें पकाकर इस तैलकी मालिशसे हर प्रकारका (आयु. वे. प्र. । अ. १२; अनु. त. । को. २; शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है। र. मं. । अ. ३; यो. त. । त. १७) (इसका पानी पीनेसे) बच्चेका जन्म आसानी ओतोर्विशा समं तुत्थं सक्षौद्रं टङ्कणाझियुक् । से हो जाता है और ( इसके पानीसे आंखें त्रिधैव पुटितं शुद्धं वान्तिभ्रान्तिविवर्जितम् ।। धोनेसे ) नेत्ररोग नष्ट होते हैं। (२६९५) तुत्थविकारशान्तिः ४ भाग तूतियामें एक एक भाग सुहागा ( अनुपा. त.। को. २) और बिलावकी विष्टा मिलाकर उसे शहदमें घोटकर जम्बीरस्वरसं वापि लाजा वारिसमन्विताः। । तीन लघुपुट देनेसे वह शुद्ध-वान्ति भ्रान्ति रहित लामज्जकजलं वापि पिवेत्तत्थकशान्तये ॥ हो जाता है । १ रसरत्नसमुच्चय पूर्वखण्ड अध्याय ५ देखिये । For Private And Personal Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग:। [४७३ ) AAAAAAAAAAVVVIRAVAANANAarvvvvnirnvvvvAANANIMAn y levanvandnav (२६९८) तुत्थशोधनम् (३) (रसायनसार) । तस्मिन् कटाहे खलु पश्चसेटी कृत्रिमं तु जले पात्यं क्षारं तस्याऽपनोदयेत् । द्वयोन्मितां सुत्रिफलां प्रपूर्य । धर्मशुष्कं विशुद्धं तत् योगयोजनकर्मकृत् ॥ मणप्रमाणं जलमत्र दद्यात् अर्थ-बनावटी तूतियाको मिट्टीके पात्रमें संस्थापयेदातपयोग्यदेशे ॥ पानीमें घोलकर रख दे जब पानी स्थिर हो जाय यथाऽऽतपश्चन्द्रमरीचयश्च और तूतिया तल भागमें बैठ जाय तब ऊपरसे वायुश्च तस्मिन्नभिसश्चरेयुः । नीबू और नौसादर' के खारी पानीको धीरे २ त्रिंशदिनं तत्समुपेक्ष्यमाणं निकालदे । बाद धूपमें सुखाकर काममें ले ॥१॥ तानं विशुद्धं खलु सेरकार्धम् ॥ (२६९९) तुत्यशोधनम् (४) ( रसायनसार ) तले विलग्नं समुपाददीत गोमूत्रे महिषीमूत्रेऽप्यजामूत्रे च तुत्थकम् ।। जलं विपकन्तु मसीमयं स्यात् । यामे यामे कथेत्तेन खनिजं शुद्धिमृच्छति ॥ तथा च नेत्रेषु हितं परं स्यात् ___अर्थ-गौके मूत्र, भैंसके मूत्र, और बकरीके प्रातः परिक्षालनतो नराणाम् ॥ मूत्रमें एक एक पहर पकानेसे खानका तूतिया शुद्ध हो जाता है । अर्थ-बहुत वैद्य नैपाली तामेकी तलाशमें (२७००) तुत्थसत्वपातनम् । इधर उधर भटकते फिरते हैं और नहीं मिलने पर ( र. र. स. । पू. खं. अ. २; आ. वे. प्र.। अ. १२) ताम्रभस्म बनानेमें हताश होकर बैठ जाते हैं। निम्बूद्रवाल्पटङ्काभ्यां मूषामध्ये निरुध्य च। उन्हीं महाशयोंके उपकारार्थ मैं तूतिया से तामा ताम्ररूपं परिध्मातं सत्वं मुश्चति सस्यकम् ॥ निकालनेकी विधि लिखता हूँ। यह तामां नैपाली तूतियामें थोडासा (आठवां भाग ) सुहागा तांमेसे किसी अंश में कम नहीं है। अढ़ाई सेर मिलाकर उसे नीबूके रसमें घोटकर मूषामें बन्द | तूतियाको खूब पीसकर साफ छोटी लोहे की करके तेज़ अग्निपर धमानेसे उसमेंसे तांबेके समान कड़ाही (जैसी हलवाई लोग मावा (खोआ) बनाने सत्व निकल आता है। के लिए साफ रखते हैं ) में विछाकर उस कड़ाही (२७०१) तुत्थात्ताम्रनिस्सारणविधिः को एक बड़े लोहे के कड़ाहमें (यदि बड़ा लोहे ( रसायनसार ) अध्यर्द्धसेटद्वयमात्रतुत्थं का कड़ाह न मिले तो बड़ी मट्टीको नाद से सम्पिष्य सुश्लक्ष्णं कटाहिकायाम् । | | भी काम चल सकता है) रखकर तूतिएके चूर्ण विस्तीर्यतामन्यकटाहमध्ये | को कपड़ेसे ढंक दे । जिसमें तूतिया त्रिफलामें संस्थाप्य चाच्छाद्य पटेन तुत्थम् ॥ । न मिलजाय बाद कड़ाहमें दशसेर पक्का बिना १ तूतिया बनानेमें नौसादर और नीबूका पानी पड़ता है और वह उसीमें रह जाता है । देखो "तुत्थनिर्माण विधिः"। भा० ६० For Private And Personal Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४७४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि कुटा हुआ त्रिफला (बड़ी हरड़े, बहेड़ा, आमला) | (२७०२) तुत्यादिकज्वराङ्कशः भर दे । उस त्रिफलासे छोटी कड़ाही इतनी ढक (र. रा. मुं. । ज्वर.) जायगी कि दीख नहीं पड़ेगी। फिर उस कड़ाहमें एक मन पक्का मीठा पानी भर दे और वह कड़ाह | तुत्थशम्बूकतालानां द्विगुणानां यथोत्तरम् । ऐसी जगहमें रखा जाय जहाँ हवा भी लगे और चूर्ण कुमारिकाद्रावैदृष्ट्वा गोलं प्रकल्पयेत् ॥ दिन भर सूर्यका ताप भी पड़े, और रात्रिमें द्वाभ्यामेरण्डपत्राभ्यां तद्गोलं वध्यते बुधैः। चन्द्रमाकी चांदनी भी पड़ती रहे । इस प्रकार एक सरावसम्पुटे धृत्वा पुटेद्गजपुटेन तु ।।। | स्वाङ्गशीतं समुद्धत्य चूर्णयित्वा निधापयेत् । मास बीतने पर कड़ाह के पानीको कपड़े में छान गुञ्जात्रयं सितायोज्या खादेत्सर्वज्वरापहम् ।। कर रख ले, यह पानी स्याहीका काम देगा । | पथ्यं क्षीरोदनं देयं निहन्ति विषमज्वरान् । और प्रातःकाल इस पानीका नेत्रोंमें छीटा देनेसे नेत्रका परमहित होता है । यदि स्याहीको और शुद्र तूतिया १ भाग, शंख २ भाग और भी पक्की करनी हो तो एकसेर पीपलकी लाखका शुद्ध वर्की हरताल ४ भाग लेकर सबको १ दिन काढा वो एकसेर कसीस कूटकर डालदे । और घृतकुमारी (ग्वारपाठे) के रसमें घोटकर गोला जो त्रिफला कपड़ेमें छाननेसे बच गई हो उसको बनाइये और उसे अरण्डके दो पत्तोंमें लपेटकर भी धूपमें सुखाकर रख ले । इसको जलाकर क्षार उसके ऊपर डोरा लपेट दीजिये और सम्पुटमें बनाया जायगा, जो पाचकके काम आयेगा। बन्द करके गजपुटमें फूंक दीजिए। जब स्वाङ्ग वैद्योंके यहां कोई चीज, फेंकने काबिल नहीं है। शीतल हो जाय तो निकालकर पीसकर रख और छोटी कड़ाहीके पेंदेमें आधसेर पक्का विशुद्ध लीजिए । ताम्र जमा हुआ मिलेगा जो चाकूसे खुरच खुरच इसके सेवनसे सर्व प्रकारके विषमज्वर नष्ट के उठानेसे एक पत्र रूपमें प्राप्त होवेगा । इस होते हैं । ताम्र में उतना दोष नहीं है जितना कि नैपाली मात्रा-३ रत्ती। मिश्रीके साथ मिलाकर ताम्रमें होता है । संयोगकी महिमा अचिन्तनीय (पानीसे) खाएं। है। देखिये तूतिया, लोह, त्रिफला, पानी, एक मास पथ्य-दूध भात । काल, वायु, धूप, चाँदनी इन आठ पदार्थोके संयोग से विशुद्धताम्र, स्याही, नेत्रकी दवा और पाचन | (२७०३) तुत्थोत्थताम्रशुद्धिः (रसायनसार) योग्य क्षार कैसे उत्तम पदार्थ बन जाते हैं। अर्कस्य पत्रस्वरेषु तानं तूतिया से ताम्र निकालने के और भी प्रकार हैं निष्टप्य वह्नावथ सप्तकृत्वः । पर यह सुगम होनेके कारण लिखा गया है ।- | निर्वाप्य सेटार्धकसैन्धवाढये (रसायनसार ) चिश्चादलकाथजले पचेत ॥ For Private And Personal Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] [ ४७५] यामेष्वतीतेषु चतुर्षु शुद्धं तत्ताम्रमाद्दुःखलु भस्मयोग्यम् । नेपाल ताम्रेण समोऽत्र दोषो नैवास्त्यतः शुद्धिरियम्मपूर्णा ॥ ४ भाग लेकर सबको एक दिन सरसोंके तेलमें घोटकर दो शरावोंमें बन्द करके ऊपरसे ४-५ कपरमिट्टी करके सुखाकर १ पहर तक बालुकायन्त्र में पकाइये और उसके स्वाङ्गशीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर १ पहर तक कनेरके रसमें घोटकर उपरोक्त विधि से १ पहर बालुकायन्त्र में पकाइये और उसके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर उसमें यवक्षार, सज्जीखार, सुहागा, पांचोंलवण, चव्य, चीता, स्याहजीरा, सफेद जीरा और बायबिडंगका समान भ चूर्ण उसके बराबर मिलाइये । | अर्थ - तूतिया से निकाले हुए तांको अग्निमें खूब निष्टप्त करके ( तपाकर ) मन्दार के पत्तों के स्वरसमें सातबार बुझाले, पश्चात् दो सेर इमली के पत्तोंको दशसेर पानी में डालकर कड़ाही में काढ़ा बनावे जब आधा पानी जल जाय तब उसमें आधसेर सेन्धानोन डालकर साथही साथ तूतिया से निकले हुए आधसेर ताम्बेको भी डाल दे। बाद चार पहर तक अग्नि दे । यदि पानी जल जाय तो गोमूत्र डालता जाय, गोमूत्र नहीं हो तो पानी से भी काम चल सकता है। बस इतनी ही शुद्धि इस ताम्रकी पर्याप्त है; क्योंकि तूतियाके तामेमें नैपाली तांबाके बराबर दोष नहीं होता है । | (२७०४) तृप्तिसागररसः (र. रा. सुं । अति.) रसभस्म तु भागैकं रसाद् द्विगुणगन्धकम् । गन्धकाद् द्विगुणं चाभ्रं निश्चन्द्रं मर्दयेत्ततः ॥ दिनैकं कटुतैलेन रुध्वा चुल्यां विपाचयेत् । यामैकं बालुकायन्त्रे समुद्धृत्य विमर्दयेत् ॥ हयमारकमूलोत्थरसैर्यामं निरुध्य च । पूर्ववत्पाचयेच्छुल्यां समादाय विमिश्रयेत् ॥ त्रिक्षारं पञ्चलवणं चन्यानिद्वयजीरकैः । विडङ्गेन च तत्तुल्यं युक्तोयं तृप्तिसागरः ॥ भक्षयेन्माषमात्रं च सन्निपातातिसारजित् । सज्वरां ग्रहणीं हन्ति धनुपानं विना रसः ॥ इसे एक माषेकी मात्रानुसार किसी अनुपान के बिना ही सेवन करनेसे सन्निपातज अतिसार, ज्वर और संग्रहणी नष्ट होती है । (२७०५) तृषाहारीरसः (यो. त. । त. ३४ ) रसगन्धककर्पूरैः शैलोशीरमरीचकैः । ससितैः क्रमदृद्धैश्च सूक्ष्मं चूर्णमहर्मुखे ।। त्रिगुञ्जामितं खादेत्पिवेत्पर्युषिताम्बु च । भृशं तृष्णां निहन्त्येवमश्विभ्यान्तु प्रकाशितम् ।। 1 पारद भस्म (अभाव में रस सिन्दूर) १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग और निश्चन्द्र अभ्रक भस्म शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, कपूर ३ भाग, भूरिछरीला ४ भाग, खस ५ भाग, तुलसी के बीज (तुख्मरीहां-तकमरियां. गु. ) ६ भाग और मिश्री ७ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिये, फिर उसमें अन्य समस्त ओषधियों का महीन चूर्ण मिलाकर खरल करके रखिये । इसमें से प्रतिदिन प्रातः काल ३ रत्ती चूर्ण बासी पानी के साथ खानेसे प्रबल तृष्णा भी अवश्य शान्त हो जाती है । For Private And Personal Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पूणम् । [४७६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि (२७०६) तृष्णार्दिहरो रसः (२७०९) त्रिकट्वादिलौहम् (र. र. स. । उ. खं. अ. १४) (वृ. नि. र.। क्षय.; वै. क. दु. । स्क. २) युक्तं गन्धकपिष्टयाऽयस्तालकं स्वर्णमाक्षिकम्। त्रिकटुत्रिफलैलाभिर्जातीफललवङ्गकैः । युक्त्या तद् भस्मतांनी तृष्णाच्छर्दिनिवारणम्।। नवभागोन्मितैरेतैः समं तीक्ष्णं मृतं भवेत् ॥ पारद और गन्धककी कज्जलीसे की हुई लोह, संचूालोडयेत्क्षौद्रे नित्यं यः सेवते नरः । हरताल और सोनामक्खीकी भस्म समान भाग कासं श्वासं क्षयं मेहं पाण्डुरोगं भगन्दरम् ॥ लेकर सबको एकत्र खरल करें। ज्वरं मन्दानलं शोथं संमोहं ग्रहणीं जयेत् ।। . इसे (२-३ रत्तीकी मात्रानुसार, चन्दनके त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, बहेड़ा, पानी या अन्य उचित अनुपानके साथ ) सेवन आमला, इलायची, जायफल और लौंग १-१ करनेसे तृष्णा और वमन नष्ट होती है। भाग और तीक्ष्ण लोहभस्म ९ भाग लेकर । यथा(२७०७) त्रिकटुकादिलोहम् (यो.स.।समु.६)| विधि चूर्ण बना लीजिए। त्रिकटुकाब्दविडङ्गचित्रकाः इसे शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे खांसी, कासमर्दवरलोहजचूर्णम् । श्वास, क्षय, प्रमेह, पाण्डु, भगन्दर, ज्वर, अग्निमधुयुतं च लिहेल्पयसा मांद्य, शोथ मूर्छा और ग्रहणी रोगका नाश होता है। ना सपदि कामलया परिमुच्यते ॥ ( मात्रा ४-६ रत्ती । ) त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल), मोथा, बाय- (२७१०) त्रिकट्वायं लौहम् बिडङ्ग, चीता, कसौंदी, और उत्तम शुद्ध लोह । । (वं. से.; भै. र. । शो०) सबका समान भाग चूर्ण लेकर एकत्र खरल करें। कालानी निकलना इसे (३ माशेकी मात्रानुसार ) शहदमें मिला चित्रको देवदारुश्च त्रिच्च गजपिप्पली ॥ कर चाटकर ऊपरसे दूध पीनेसे कामला (कौलबाय) चूर्णान्येतानि तुल्यानि द्विगुणं स्यादयोरजः। अत्यन्त शीघ्र नष्ट होती है। क्षीरेण पीतमेतत्तु श्रेष्ठं श्वयथुनाशनम् ॥ (२७०८) त्रिकटुकादिलौहम् (ग.नि.श्वय.) त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, बहेड़ा, त्रिकटुलोहचूर्णश्च द्वयेमेतत्समांशकम् । आमला, दन्तीमूल, बायबिडङ्ग, कुटकी, चीता, पीतमुष्णाम्भसा हन्ति शोफरोगमसंशयः॥ देवदारु, निसोत और गजपीपलका चूर्ण १-१ . त्रिकुटा, ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) और शुद्ध | भाग तथा शुद्ध लोहचूर्ण सबसे २ गुना लेकर लौहचूर्ण समान भाग लेकर एकत्र खरल करके | सबको एकत्र खरल करें। (१॥ माशेकी मात्रानुसारः) उष्ण पानीके साथ इसे दूधके साथ सेवन करनेसे शोथ नष्ट सेवन करनेसे शोथ रोग ( सूजन )का अवश्य होता है । नाश होता है। ( मात्रा-४-६ रती।) था। For Private And Personal Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] (२७११) त्रिकट्वाद्यं लौहम् ( रखें. चि. । अ. ९; र. सा. सं.; र. र.; धन्वं.; र. रा. सुं । शोथ. ) त्रिकटुत्रिफलादन्तीमार्गत्रिमदशुण्डिभिः । पुनर्नवासमायुक्तैर्युक्तो हन्ति सुदुर्जयम् ॥ लौहः शोथोदरं स्थौल्यं मेदोगदमसंशयः ॥ त्रिकुटा, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, अपामार्ग ( चिरचिटे ) का पञ्चाङ्ग, नागरमोथा, चित्रक, बायबिडङ्ग, सोंठ और पुनर्नवा ( साठी) की जड़का चूर्ण समान भाग तथा शुद्ध लोहचूर्ण (या भस्म ) इन सबके बराबर लेकर एकत्र खरल करें । इसके सेवन से शोथोदर, स्थूलता और मेद रोग अवश्य नष्ट होता है । (मात्रा - ४-६ रत्ती । अनुपान दूध या छाछ ।) (२७१२) त्रिकत्रयाद्यं लौहम् (र. सा. सं.; धन्वं.; र. चं.; भै, र. र. रा. सुं । पाण्डु.) पलं लौहस्य कस्य पलं गव्यस्य सर्पिषः । सितायाश्च पलञ्चैकं क्षौद्रस्यापि पलन्तथा ॥ तोकं कान्तलौहस्य त्रिकत्रयसुभावितम् । ततः पात्रे विधातव्यं लौहे च मृन्मये तथा ॥ हविषा भावितञ्चापि रौद्रे च शिशिरे तथा । भोजनादौ तथा मध्ये चान्ते चापि प्रदापयेत् अनुपानं प्रदातव्यं बुद्धा दोषबलाबलम् । कामलां पाण्डुरोगञ्च हलीमकं सुदारुणम् || अम्लपित्तं तथा शुलं शूलञ्च परिणामजम् । कासं पञ्चविधं श्वासं ज्वरं प्लीहानमेव च ॥ अपस्मारं तथोन्मादमुदरं गुल्ममेव च । ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४७७ ] अग्निमांद्यमजीर्णञ्च श्वयथुञ्च सुदारुणम् ॥ निहन्तिनात्र सन्देहो भास्करस्तिमिरं यथा ॥ ५ तोले मण्डूर भस्म तथा १| तोला कान्त लोहभस्म लेकर दोनोंको त्रिकत्रय ( त्रिकुटा, त्रिफला, बायबिडङ्ग, मोथा और चीता ) के काथमें घोटकर उसमें ५ - ५ तोले गायका घी, शहद और मिश्री मिलाकर लोह या मिट्टीके पात्रमें भरकर दिनको धूपमें सुखावें और रातको चन्द्रमाकी चांदनीमें रक्खें । ( इसी प्रकार २१ दिन या कमसे कम सात दिन तक भावना देनेके पश्चात् ) तसे चिकने किये हुवे पात्र में भरकर रख दें । इसे यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ भोजन आदि, मध्य और अन्तमें सेवन करनेसे कामला, पाण्डु, भयङ्कर हलीमक, अम्लपित्त, उदरशूल, परिणाम शूल, पांच प्रकारकी खांसी, श्वास, ज्वर, प्लीहा, अपस्मार ( मिरगी ), उन्माद, उदररोग, गुल्म, अग्निमांद्य, अजीर्ण और शोधका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है । (२७१३) त्रिकत्रयाद्यं लौहम् ( र. सा. सं.; धन्वं. र. चं; २. । र उन्माद; रसे. चि. अ. ९ ) त्रिकत्रयसमायुक्तं जीवनीययुतन्तथा । हन्त्यपस्मारमुन्मादं वातव्याधिं सुदुस्तरम् ।। त्रिकुटा, त्रिफला, त्रिमद (नागरमोथा, बायबिडङ्ग, चीता) और जीवनीयगणे की ओषधियों का चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध लोहचूर्ण या लोह - भस्म सब बराबर लेकर एकत्र खरल कर लीजिए । १ जीवनीयगण - जकारादि क्वाथ प्रकरणमें देखिये | For Private And Personal Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir rovnonvvnarvvvvvvvvvvornhRNA [४७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि इसे यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ घी और शहदमें मिलाकर चाटनेसे औदुम्बर कुष्ठ सेवन करनेसे अपस्मार, उन्माद और दुर्जय वात नष्ट होता है। व्याधि नष्ट होती है। (व्यवहारिक मात्रा २ रत्ती । मूर्वा और वाबची (साधारण मात्रा-४-६ रत्ती । अनुपान- १॥-१॥ माषा) शहद ।) (२७१४) त्रिकत्रयाद्यं लौहम् (२८१६) त्रिगुणाख्यं ताम्रम् (र.र.गण्डमाला) (र. र.; धन्वं. । शूल.; रसें. चिं. । अ. ९; र. का.धे.) । द्विभागगन्धेन रसेन भागं त्रिकत्रयसमायुक्तं तालमूली शतावरी। दिनं च कुर्याः स्वरसेन घृष्टम् । योगानिहन्ति शूलानि दारुणान्ययसोरजः॥ निक्षिप्य ताम्रस्य पुटे रसेन ___ त्रिकुटा, त्रिफला, त्रिमद (मोथा, बायबिड़ङ्ग, तुल्यं मृदा तत्र पुटं ददीत ॥ और चीता ) तालमूली (ताल वृक्षकी जड़) और पुटे घृताक्तं मधुना समेतं शतावर एक एक भाग तथा लोहभस्म इन सबके फलत्रयेण मधुना घृतेन । बराबर लेकर एकत्र खरल करें । भगन्दरनो हि रसोऽयमुक्तो __इसके सेवनसे भयङ्कर शूल नष्ट होता है। ददीत पथ्यं मधुरं हितश्च ॥ ( मात्रा-४-६ रत्ती । अनुपान-उष्ण जल (स्त्रियं दिवास्वापश्च वर्जयेत् ॥) या काजी) १ भाग पारद और २ भाग गन्धककी कज्जली (२७१५) त्रिगन्धरसः (र. रा. मुं. । कुष्ट.) करके उसे १ दिन कुरी नामक धान्यके स्वरसमें स्वरसै राजवृक्षस्य तालगन्धमनःशिला। घोटकर पारेके बराबर वज़नी शुद्ध ताम्रकी कटोरियों गुञ्जावाकुचिकाद्रावैर्भाव्यं कङ्गुणितैलके ।।। | में बन्द करके ऊपर तीन चार कपरमिट्टी करके सुखाकर गजपुटमें फूंक दें, और स्वांगशीतल होनेप्रतिद्रावैर्दिनकन्तु भक्षयेदर्द्धनिष्ककम् ।। कुष्ठमौदुम्बरं हन्ति त्रिगन्धोऽयं महारसः ।। | पर कटोरियों समेत पीसलें । ( यदि कटोरियोंकी मध्वाज्यवाकुचीमूर्वाकर्षैकमनु लेहयेत् ॥ भस्म न हुई हो तो पुनः इसी प्रकार पुट दें।) ___हरतालभस्म, शुद्ध गन्धक और शुद्ध मनसिल इसे घी और शहद अथवा त्रिफलाका चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र खरल करें और फिर । और धी तथा शहदके साथ सेवन करनेसे भगन्दर उसे १-१ दिन अमलतासके पत्तों के रस, । नष्ट होता है। चौंटलीके रस और बाबचीके रसमें धोटें और पथ्य-मधुररसवाले पदार्थ । अन्तमें १ दिन मालकानीके रसमें घोटकर रक्खें। स्त्रीप्रसंगसे बचना और दिनको न सोना इसमेंसे प्रतिदिन २ माघे औषध खाकर चाहिए। ऊपरसे बाबची और मूर्वाके ६-६ माषे चूर्णको ( मात्रा--१-२ रत्ती ) For Private And Personal Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४७९] (२७१७) त्रिगुणाख्यो रसः (र.रा.सु. सन्नि.) । क्षीराज्यशर्करामिश्रं शाल्यन्नं पथ्यमाचरेत् । शुद्धं मूतं समं गन्धं मूतांशं मृतताम्रकम् ।। कम्पवातप्रशान्त्यर्थ निर्वाते निवसेत्सदा ।। त्रिभिस्तुल्यं गवां क्षीरैर्मर्दयेदातपे दृढम् ॥ त्रिगुणाख्यो रसो नाम्ना त्रिपक्षात्कम्पवातनुत्।। निर्गुण्ड्याथ द्रवैर्मध दिनैकन्तं च गोलकम् । १ भाग शुद्ध गन्धक (पक्षान्तरमें १६ भाग) त्रियामं बालुकायन्त्रे ह्यन्धमृषागतं पचेत् ॥ और २ भाग शुद्ध पारद लेकर दोनोंकी कजली आदायचूर्णयेत्खल्वे ह्यष्टमांशं विषं क्षिपेत् । । करके, लोहेके पात्रमें जरासा घी लगाकर उसमें त्रिगुणाख्यो रसो नाम देयो गुञ्जाद्वयं द्वयम्॥ इस कजलीको डालकर मन्दाग्निपर पकाइये । जब पञ्चकोलं पिबेच्चानु पथ्यं छागपयेन च ॥ कजली पिघल जाय तो उसे ठण्डा करके पीस शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और ताम्रभस्म । लीजिये और फिर उसमें उसके बराबर हर्रक) १-१ भाग लेकर तीनोंकी कजली करके उसे महीन चूर्ण मिलाइये। सबके बराबर गोदुग्धमें धूपमें धोटें और फिर १ इसमेंसे पहिले दिन सात रत्ती औषध दिन संभालुके रसमें घोटकर गोला बनावें और । खाकर दूसरे दिनसे १-१ रत्ती बढ़ाकर खानी उसे सुखाकर अन्धमूषा में बन्द करके ३ पहर | चाहिये; जब २१ रत्ती मात्रापर पहुंच जायं तो तक बालुकायन्त्रमें पकाएं और फिर यन्त्रके स्वांग बढ़ाना बन्द करदें । ( यदि अधिक समय औषध शीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर उसमें खानेकी आवश्यकता प्रतीत हो तो २१ रत्ती उसका आठवां भाग शुद्ध बछनाग (मीठा मात्रापर पहुंचनेके पश्चात् प्रतिदिन १-१ रत्ती तेलिया )का चूर्ण मिलाकर एकत्र खरल करें। घटाकर खाएं ।) इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार पञ्चकोल (पीपल इसके सेवनसे ६ सप्ताहमें कम्पवात रोग पोपलामूल, चव, चीता और सोंठ )के क्वाथके साथ नष्ट हो जाता है ।। सेवन कराने और बकरीके दूधके साथ पथ्य देनेसे ... कम्पवातवाले रोगीको घी, दूध और मिश्रीसन्निपात नष्ट होता है। युक्त शाली चावलोंका भात खाना और सदैव (२७१८) त्रिगुणाख्यो रसः निर्वात स्थानमें रहना चाहिये । (र. म.।अ. ७; रसें.चिं.।अ. ९; र. का.धे.।वात.) । (२७१९) त्रिदशेश्वररसः (र.का.धे.।अ.२२) गन्धकादद्विगुणं सूतं शुद्धं मृद्वनिना क्षणम्। मूतो बलिस्तीक्ष्णकं च ह्यमृतं व्यालपत्रकम् । पक्त्वावतार्य संचूर्ण्य चूर्णतुल्याभयायुतम् ॥ हरेणुः कृमिहा मेघो ग्रन्थिकं त्रुटिकेशरम् ॥ सप्तगुञ्जामितं खादेद्वर्द्धयेच्च दिने दिने। यूपणं च वरा चैव म्लेच्छभस्म तथैव च । गुजैकं च क्रमेणैव यावत्स्यादेकविंशतिः॥ एतानि समभागानि यैक्षवं द्विगुणं भवेत् ॥ १ गन्धकोऽष्टगुणः सूतादिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४८०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि -काम शुल्वभस्म समं वीजं दन्तीजातं विनिक्षिपेत् ।। स्वर्णभस्म, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक, त्रिदशेश्वरनामाऽयं रसः स्यात्सर्वरोगजित् ॥ समान भाग लेकर कजली बनाकर उसे १ दिन श्वासं कासं तथा हिक्कामीसि च भगन्दरम्। घृतकुमारी ( घीकुमार-ग्वारपाठा )के रसमें घोटहृच्छूलं पार्श्वशूलश्च कर्णशूलं कपालिकाम् ॥ कर गोला बनाइये, और उसे सुखाकर सम्पुटमें हरेत्संग्रहणीरोगमष्टौ च जठराणि च । बन्द करके लघुपुटमें फूंक दीजिये । पुटके स्वाङ्गप्रमेहान्विशतिं चैवमश्मरीं च चतुर्विधाम् ॥ शीतल होनेपर उसमेंसे रसको निकालकर पीसकर अनुपानविशेषेण सर्वान्रोगानियच्छति ॥ रखिये। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, तीक्ष्ण लोहभस्म, इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार खिलानेसे सन्निशुद्ध बछनाग ( मोठा तेलिया), चीता, तेजपात, पात ज्वर नष्ट होता है । रेणुका, बायबिडङ्ग, नागरमोथा, पीपलामूल, छोटी ( अनुपान-शहद या अदरकका रस । ) इलायची, केसर, त्रिकुटा, हर्र, बहेड़ा, आमला, (२७२१) त्रिदोषशूलहरचूर्णम् (वै.र.शूला.) नैपालीताम्रकी भस्म और शुद्ध जमालगोटा १-१ त्रिफला लोहजं चूर्ण यष्टीमधुकमेव च । भाग तथा मिश्री सबसे दो गुनी लेकर प्रथम पारे मधुसपियुतं लीड्वा शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ॥ गन्धककी कजली बनाइये और फिर उसमें अन्य हर, बहेड़ा, आमला, शुद्ध लोहचूर्ण (अथवा औषधोंका महीन चूर्ण मिलाकर खरल कीजिये । | लोहभस्म) और मुलैठी। इन सबका समान भाग इसे यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ ! चूर्ण लेकर एकत्र खरल करें । सेवन करनेसे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। इसे शहद और धीमें मिलाकर सेवन करनेसे विशेषतः यह-श्वास, खांसी, हिचकी, अर्श, भग- त्रिदोषज शूल नष्ट होता है । न्दर, हृदयका शूल, पसलीका दर्द, कर्णशूल, (मात्रा ३ माषे । घी ६ माषे । शहद २ तोले ।) मस्तकशूल, संग्रहणी, आठ प्रकारके उदररोग, २० (२७२२) त्रिनेत्ररसः (१) प्रकारके प्रमेह और ४ प्रकारकी अश्मरी (पथरी)का (र. चं.; रं. र. । वातरक्त० ) नाश करता है। गरुत्मान् दरदस्तीक्ष्णं स्वर्ण वङ्गशुक्तिके। ( मात्रा-३ माशे।) | शुल्वं च गगनं फेनं रुधिरं च त्रिनेत्रकम् ॥ (२७२०) त्रिदोषशमनरसः । पातालनृपतिश्चैव वह्निमूलं च रामठम् । । (र. चं. । त्रिदोष. चि.; र. प्र. सु. । अ. ८)। त्रिकटुत्रिफलाशिग्रुश्चाजमोदा यवानिका ॥ स्वर्ण सूतं तथा गन्धं मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः।। पिप्पलीमूलं भार्गी च लशुनं जीरकद्वयम् । पश्चाद्गोलं विधायाथ शरावसम्पुटे पचेत् ॥ आर्द्रकस्य रसेनैव गुटिकां कारयेद्भिषक् ॥ स्वागशीतं समुद्धृत्य चूर्ण कृत्वा प्रयत्नतः। मन्दानलामवातनं श्लेष्माणं च जलोदरम् । भक्षयेद्वल्लमात्रन्तु त्रिदोषजरुजं जयेत् ॥ ! अशीतिर्वातजान रोगान प्रमेहांश्चैव विंशतिम्॥ For Private And Personal Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४८१] AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA घ्राणाक्षिकर्णजिह्वानां गदं चैव त्रिदोषजम् ।। और फिर उसे सम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें फूंक गलिताङ्गं वातरक्तं सर्वमेतद्वन्यपोहति ॥ दीजिये । पुटके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे रसको स्वर्णमाक्षिकभस्म, शुद्ध हिंगुल ( शंगरफ) | निकालकर पीसकर रखिये । तीक्ष्णलोहभस्म, स्वर्णभस्म, बङ्गभस्म, सीपकी। इसमेंसे एक एक रत्ती औषध अद्रकके रस भस्म, ताम्रभस्म, अभ्रकभस्म, शुद्ध अफीम, केसर, और सेंधानमकके चूर्णके साथ अथवा अरण्डीके रुद्राक्ष, सीसाभस्म, चीतामूल, भुना हुवा हींग, तैल और शहदके साथ या सेंधानमक, हींग और त्रिकुटा, हर, बहेडा, आमला, सहजनेके बीज, जीरेके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे सर्व प्रकारके शूल अजमोद, अजवायन, पोपलामूल, भारङ्गी, ल्हसन, नष्ट होते हैं। स्याहजीरा और सफेद जीरा । सबका समान भाग यदि इसे कफ और वातज रोगोंको नष्ट महीन चूर्ण लेकर अद्रको रसमें घोटकर (४-४ | करनेवाली औषधोंके रस या क्वाथकी अनेक भावनाएं रत्तीकी) गोलियां बना लीजिये । देकर उन्हीं औषधोंके चूर्णके साथ सेवन किया इनके सेवनसे अग्निमांद्य, आमवात, कफ, जाय तो कफज और वातज रोग नष्ट होते हैं । जलोदर, अस्सी प्रकारके वातरोग, २० प्रकारके ( जिस रोगमें सेवन करना हो उसको नष्ट करनेप्रमेह, नाक, आंख और कानके त्रिदोषज रोग और | वाली औषधोंके रसमें घोटना चाहिए।) जिसमें अङ्ग गल गए हों वह वातरक्त रोग ___ यदि यह रस, हरिनके सींगकी भस्म, स्वर्णनष्ट होता है। | भस्म और सुहागेको खील समान भाग एकत्र (२७२३)त्रिनेत्ररसः(२)(र.र.स.।उ.खं.अ.१८) | मिलाकर घी और शहदके साथ सेवन किया जाय तो पक्तिशूल नष्ट होता है। रसताम्रगन्धकानां त्रिगुणो वर्धितांशानाम् । अम्लेन मर्दितानां पुटपकानां निषेवितं भस्म ॥ (२७२४) त्रिनेत्ररसः (३) गुञ्जाप्रमाणमाकसिन्धुत्थचूर्णसंयुक्तम् । (वृ. नि. र.; र. रा. सुं. । ज्वर.; भा. प्र. । ख. २. ज्वर.) एरण्डतैलमाक्षिकमथ वा पटुहिङ्गजोरकोपेतम् ॥ शुद्धमूतं समं गन्धं मूतांशं मृतताम्रकम् । शमयति शूलमशेषं तत्तद्रसभावितं बहुशः। त्रिभिस्तुल्यैर्गवां क्षीरैर्मर्दयेदातपे खरे ॥ उपचूर्णैरनुपानैस्तैस्तैः सहितं कफानिलार्तिहरम्।। मईयेदिनमेकन्तु निर्गुण्डीशिगुजद्रवैः। एतच्च हरिणशृङ्गं मृतकाञ्चनटङ्कणोपेतम् । विधाय गोलं तं गोलमन्धमूषागतं पचेत् ॥ सघृतमधुपक्तिशूलं शमयति शूलं त्रिनेत्ररसः॥ त्रियामान बालुकायन्त्रे ततः खल्वे विचूर्णयेत। शुद्ध पारा १ भाग, ताभ्रभस्म ३ भाग और अष्टमांशं विषं तत्र क्षिपेत्तेनापि मर्दयेत् ॥ शुद्ध गन्धक ९ भाग लेकर सबकी कजली करके त्रिनेत्राख्यो रसो होष देयो गुञ्जाद्वयोन्मितः। उसे नीबूके रसमें घोटकर गोला बनाकर सुखाइये | पञ्चकोलकषायेण छागीदुग्धेन वा सह ॥ भा०६१ For Private And Personal Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४८२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि रसेनानेन भुक्तेन सन्निपातज्वरो महान् । माषमात्रमिदं चूर्ण मधुना सह लेहयेत् संक्षयं व्रजति क्षिप्रं कर्त्तव्यो नात्र संशयः ॥ वात पित्तजं श्लेष्मसम्भूतं वा त्रिदोषजम् ।। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और ताप्रभस्म बराबर कृमिजं चापि हृद्रोग निहन्त्येव न संशयः॥ बराबर लेकर खरल करके कजली बनाइये और शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और अभ्रकभस्म फिर उसके बराबर गायका दूध मिलाकर तेज़धूपमें समान भाग लेकर तीनों की कजली करके उसे खरल कराइये; तत्पश्चात् एक एक दिन संभालु अर्जुनकी छालके रस या काथको धूपमें २१ और संहजनेके रसमें घोटकर गोला बनाकर, सुखा- | भावनाएं देकर सुखाकर चूर्ण करके रखिये। . कर उसे अन्धमूषामें बन्द करके ३ पहर तक इसे १ माषकी मात्रानुसार शहद में मिलाकर बालुका यन्त्र में पकाइये और फिर उसमें उसका चाटनेसे वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज और आठवां भाग शुद्ध बलनाग ( मोठा तेलिया )का कृमिजन्य हृद्रोग नष्ट होता है। चूर्ण मिलाकर घोटिए। (व्यवहारिक मात्रा २-३ रत्ती ।) . इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार पञ्चकोल (पीपल, पीपलामूल, चव, चीता और सों3 )के काथ या (२७२७) त्रिनेत्ररस (६) (.रा. मुं. कास.) बकरीके दूधके साथ देनेसे सन्निपात वर निस्सन्देह ताम्रभस्मारतीक्ष्णानां काञ्चनारत्वचोरसैः । शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। मुनिजैर्वेतसाम्लेन दिनं मर्य सुपिण्डितम् ॥ (२७२५) त्रिनेत्ररसः (४) (र. र. । कास.) द्विगुञ्ज पित्तकासातॊ भक्षयेच त्रिनेत्रकम् ।। भस्मताम्राभ्रतीक्ष्णानां कासमर्दत्वचोरसैः। ताम्रभस्म, पीतलभस्न और तीक्ष्ण लोहसालजैर्वेतसाम्लेन दिनं मद्ये सुपिण्डितम् ॥ भस्म समान भाग लेकर सबको कंचनारकी छालके दिगुझं पित्तकासार्हो भक्षयेच्च त्रिनेत्रकम् ॥ रस, अगस्ति (अगथिया) के रस और अम्लवेतके ताम्रभस्म, अभ्रकभस्म और तीक्ष्णलोहभस्म रस या काथमें १-१ दिन घोटकर २-२ रत्ती की गोलियां बना लीजिये। समान भाग लेकर तीनोंको १-१ दिन कसौंदी, दालचीनी, साल और अम्लवेतके रसमें घोटकर ___ इनके सेवनसे पित्तज खांसी नष्ट होती है। २-२ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये। (२७२८) त्रिनेत्ररसः (७) इसके सेवनसे पित्तज खांसी नष्ट होती है। (र. र. स.। उ. ख. अ. १८; वृ. नि. र.; र. र.; (२७२६) त्रिनेत्ररसः (५) (यो. र. । हृद्रोग.) र. चं.; र. मं.। शूल.; वृ. यो. त.। त. ९५) रसगन्धाभ्रभस्मानि पार्थवृक्षत्वगम्बुना खण्डित हारिणं शृङ्गं स्वर्ण शुल्वं मृत रसम् । एकविंशतिधा धर्मे भावितानि विधानतः। दिनैकं चाकद्रावैर्मर्थ रुध्वा पचेत्पुटे ।। १ ठऋणमिति पाठान्तरम् । २ शुद्धमिति पाठान्तरम् For Private And Personal Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - - - AARAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAARANA. रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४८३] त्रिनेत्राख्यो रसः सोयं माषं मध्वाज्यकैलिहेत्। (२७३०) त्रिनेत्राख्यो रसः (९) सैन्धवं जीरकं हिङ्ग मध्वाज्याभ्यां लिहेदनु॥ (रसें. चिं. । अ. ९; र. रा. सुं.; रसें. सा. सं.; पक्तिशूलहरं ख्यातं मासमात्रान संशयः॥ धन्वं. । मूत्र.) हरिणके सींगका चूर्ण, स्वर्णभस्म, ताम्रभस्म वङ्गं मूतं गन्धकं भावयित्वा और पारदभस्म (अभावमें रससिन्दूर) समान भाग लौहे पात्रे मर्द्रयेदेकघस्रम् । लेकर सबको एकदिन अदरकके रसमें घोटकर दर्वायष्टिगोक्षुरैः शाल्मलीभिगोला बनाकर सुखाकर उसे सम्पुट में बन्द करके Lषामध्ये भूधरे पाचयित्वा ॥ गजपुटमें फूंक दीजिये और स्वांग शीतल होनेपर तत्तद्रावैर्भावयित्वाऽस्य वल्लं निकालकर पीसकर रखिये। .. दद्यात् शीतं पायसं वक्ष्यमाणम् । इसे एक माषेकी मात्रानुसार शहद और घीमें । दुर्वायष्टीशाल्मलीतोयदुग्धैमिलाकर चाटने और ऊपरसे से गा, जीरा और स्तुल्यैः कुर्यात् पायसं तबदीत ॥ हींगके समान भाग मिश्रित चूर्णको घी और प्रातःकाले शीतणनीयपाना- . शहद में मिलाकर चाटनेसे १ मासमें पक्तिशूल न्मत्रे जाते स्यात्सुखित्वं क्रमेण ॥ अवश्य नष्ट हो जाता है। बङ्गभस्म, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक समान (२७२९) त्रिनेत्ररसः (८) भाग लेकर तीनोंकी कजली बनाफर उसे लोहेके ( रसें. चिं. । अ. ८; आ. वे. प्र.। अ. १) खरलमें १-१ दिन दूर्वा, मुलैठी, गोखरु और रसगन्धकताम्राणि सिन्धुवाररसैदिनम् ।। सेंभलके फूलों के रस अथवा काथमें घोटकर गोला मर्दयेदातपे पश्चात् बालुकायन्त्रमध्यगम् ॥ बनाकर उसे मूषामें बन्द करके भूधरपुटमें पकाइये। अन्धमूषागतं यामत्र तीब्रामिना पचेत् । तत्पश्चात् पुनः उपरोक्त औषधोंके रसमें घोटकर तद्गुञ्जा सर्वरोगेषु पर्णखण्डिकया सह ॥ ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये। दातव्या देहसिध्यर्थ पुष्टिवीर्यबलाय च ॥ ___ इनमेंसे १-१ गोली प्रातःकाल ठण्डे पानीके शुद्र पारा, शुद् गन्धक और ताम्रभस्म साथ खिलाने और भोजनमें दूर्वाका रस, मुलैठीका समान भाग लेकर कजली बनाकर उसे १ दिन काथ और दूध समान भाग लेकर उसमें चावलों संभालके रसमें धूपमें घुटवाइये और फिर अन्ध | की खीर बनाकर खिलानेसे मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता मूषामें बन्द करके उसे बालुकायन्त्रमें रखकर ३ और मूत्र खुलकर आता है । पहर तीब्राग्नि पर पकाइये। । (२७३१) त्रिनेत्राख्यो रसः (१०) ' इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार पानके साथ देने । (भै. र. । शो.) से समस्तरोग नष्ट होकर बलवीर्य की वृद्धि होती | टङ्गनं शोधितं गन्धं मृतशुल्वायसं रसम् । और शरीर पुष्ट होता है। दिनैकमाईकद्रावैर्मथै लघुपुटें पचेत् ।। For Private And Personal Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः [ ४८४ ] त्रिनेत्राख्यो रसो नाम चासाध्यं श्वयथुं जयेत् । विल्वमात्रं पिबेच्चानु एरण्ड शिखरीसमम् ॥ सुहागा, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, लोहभस्म और शुद्ध पारद समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिये, पश्चात् उसमें अन्य चीजें मिलाकर सबको एक दिन अदरक के रसमें घोटकर गोला बनाकर सुखाकर उसे सम्पुट में बन्द करके लघुपुटमें फूंक दीजिये और स्वांग शीतल होनेपर निकालकर पीसकर रखिये । इसे ( १ से ३ रत्ती की मात्रानुसार ) अरण्डमूल और अपामार्ग (चिरचिटे) के ५ तोले काथके साथ सेवन करनेसे असाध्य शोथ भी नष्ट हो जाता है । .. (२७३२) त्रिनेत्राख्यो रसः (११) ( र. र. । पाण्डु. ) जारितं स्वर्ण शुल्वं शङ्खं मृतं रसः । दिनैकं चार्द्रकद्रावैर्मरुद्धा पुढे पचेत् ॥ त्रिनेत्राख्यो रसो नाम चासाध्यं श्वयथुं जयेत् । शूलगुल्ममथाशसि नाशयत्याशु देहिनाम् || सुहागा, स्वर्णभस्म, ताम्र भस्म, शंख और पारद भस्म (अभाव में रस सिन्दूर ) समान भाग लेकर सबको १ दिन अद्रक के रस में घोटकर गोला बनाकर सुखाकर उसे सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दीजिए ।. इसे (१ से ३ रत्तीकी मात्रानुसार ) सेवन करनेसे असाध्य शोथ, शूल, गुल्म और अर्शका नाश होता है । (अनुपान - पुनर्नवाका रस 1) Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ तकारादि (२७३३) त्रिपुरभैरवो रसः (१) (र. का. धे.; भै. र. र. चं.; धन्वं.; र. रा. सुं। ज्वर.; रसें. चि. । अ. ९; वृ. यो त । त. ६०) विषटङ्कवलिम्लेच्छदन्तीवीजं क्रमैधितम् । दन्त्यम्बुमर्दितं यामं रसस्त्रिपुरभैरवः || वल्लो व्योषेण चार्द्रस्य रसेन सितयाथवा । दत्तो नवज्वरं हन्ति मान्यमनिलशोथहा ॥ हन्ति शूलं सविष्टम्भमर्शासि कृमिजान्गदान् । पथ्यं तक्रेण भुञ्जीत रसेऽस्मिन् रोगहारिणि ।। शुद्ध बछनाग ( मीठा तेलिया ) १ भाग, सुहागा २ भाग, शुद्ध गन्धक ३ भाग, ताम्र भस्म ४ भाग और शुद्ध जमालगोटा ५ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके १ पहर दन्तीमूलके रसमें घोटकर ३ - ३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । इनमें से १-१ गोली त्रिकुटा के चूर्ण या अद्रक के रस अथवा मिश्री के साथ देनेसे नवीनज्वर, अग्निमांद्य, वातजशोथ, शूल, कब्ज, अर्श और कृमिजन्य रोग, नष्ट होते हैं । पथ्य छाछ भात । नोट- यह रस रेचक है अत एव छोटे बच्चों और गर्भिणी स्त्रीको न देना चाहिये । (२७३४) त्रिपुरभैरवो रसः ( २ ) ( र. प्र. सु. । अ. ८ ) सूतकं मरिचं शुण्ठी टङ्कणं चामृतं तथा । गन्धकं चैकचवारिवेदवह्निधराधराः ॥ चूर्णितो मधुना लीढो वाते त्रिपुरभैरवः ॥ शुद्ध पारद १ भाग, काली मिर्च ४ भाग, सोंठ ४ भाग सुहागेकी खील ३ भाग, शुद्ध बछनाग (मीठा तेलिया) १ भाग और शुद्ध गन्धक, १ भाग: For Private And Personal Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागे । [४८५ ] लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बना शूलों में त्रिकुटेके चूर्ण और अरण्डीके तेल (काष्ट्रायल)के लीजिये, तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका महीन साथ देना चाहिए । चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करके रखिये। (व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती । ) इसे (१॥-२ माषेकी मात्रानुसार ) शहदके (२७३६) त्रिपुरभैरवो रसः (४) साथ सेवन करनेसे वातव्याधि नष्ट होती है। ( भा. प्र. ! ज्वर.) विषमहौषधमागधिकोषण(२७३५) त्रिपुरभैरवो रसः (३) घुमणिरक्तकमाईकमर्दितम् । ( यो. र.; वृ. नि. र.; र. सा. सं.; र. चं.; क्रमविवर्धितमुद्दलति ज्वरं र. रा. सुं. । शूल.; यो. त. । त. ४३) त्रिपुरभैरव एष रसो वरः ।। भागो रसस्य भागश्च हेम्नःपिष्टिं विधाय च । शुद्ध वछनाग (मीठा तेलिया) १ भाग, सोंठ तथा द्वादश भागानि ताम्रपत्राणि लेपयेत् ॥ २ भाग, पीपल ३ भाग, काली मिर्च ४ भाग, ऊर्ध्वाधो गन्धकं दत्त्वा पलमात्रं समन्ततः। ताम्रभस्म ५ भाग और शुद्ध हिङ्गुल (शिंगरफ) सिश्चेन्मत्स्याक्षिनीरेण रुद्धवा यामचतुष्टयम्। ६ भाग लेकर सबको अद्रकके रसमें घोटकर पचेच्छलहरः मृतो भवेतत्रिपुरभैरवः। (४-४ रत्ती) की गोलियां बना लीजिये । माषो मध्वाज्यसंयुक्तो देयोऽस्य परिणामजे॥ इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन कराने अन्येष्वेरण्डतैलेन कटुत्रययुतो हितः ॥ से समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । १ भाग पारद और १ भाग सोनेके वर्क (साधारण अनुपान-मधु ।) लेकर दोनोंको एकत्र घोटकर पिटी बनावें और (२७३७) त्रिपुरभैरवो रसः (५) उसे १२ भाग शुद्ध ताम्रपत्रोंपर लेप करके उन्हें (र. प्र. सु. । अ. ८) ऊपर नीचे ५-५ तोले गन्धकका चूर्ण बिछाकर वेदवेदरसः पृथ्व्यः शुण्ठीमरिचटङ्कणाः । एक शराबमें रक्खें और फिर उन्हें मत्स्याक्षि | चतुर्थो वत्सनाभश्च वाते त्रिपुरभैरवः ॥ ( मछेछी )के रसमें भिगोकर दूसरा शराव ऊपर भावना नागवल्ल्या च तथाकस्य भावना। ढककर सम्पुट बनावें और कपरमिट्टी करके सुखाले। निम्बुकस्यापि दातव्या वारत्रयमनुक्रमात् ॥ इसे ४ पहर तक बालुकायन्त्रमें पकाएं और । सनिपाते तथा वाते श्लेष्मरोगे महाज्वरे। स्वांगशीतल होनेपर निकालकर पीसलें । ( यदि व्याधेश्च मस्तकस्यापि पीडायामुदरस्य च ॥ ताम्रपत्र अभी कच्चे हों तो घीकुमारके रसमें घोटकर सोंठका चूर्ण ४ भाग, काली मिर्चका चूर्ण पुट लगाकर अच्छी तरह भस्म करलें । ) ४ भाग, मुहागेकी खील ६ भाग और शुद्ध बछ - इसे १ माषेकी मात्रानुसार शहद और घीके नाग ( मीठा तेलिया ) का चूर्ण १ भाग लेकर साथ देनेसे परिणामशूल नष्ट होता है । अन्य सबको एकत्र खरल करके यथाकम नागरबेलके For Private And Personal Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४८६ ] पान, अद्रक और नीबूके रसकी ३ - ३ भावना देकर (१ - १ माषेकी) गोलियां बना लीजिये । तकारादि (२७३९) त्रिपुरारिरसः (भै.र.; र.रा. सुं.ज्वर) दरदोत्थन्तु संशुद्धं रसं ताम्रञ्च गन्धकम् । लौहमभ्रं विषं चैव सर्व कुर्यात्समांशकम् ॥ रसार्द्धं मृतरूप्पञ्च शृङ्गवेराम्बु मर्दितम् । द्विगु मधुना देयं सितयाईरसेन वा ।। (साधारण अनुपान-अद्रकका रस और मधु ।) ज्वरमष्टविधं हन्ति वारिदोषभवं तथा । लहानमुदरं शोथमतीसारं विनाशयेत् ॥ रोगानेतान्निहन्त्याशु शङ्करस्त्रिपुरं यथा ॥ भारत-भैषज्य रत्नाकरः । इसके सेवन से सन्निपातज्वर, वातज ज्वर, भयङ्कर कफज्वर, शिरशूल और उदरशूल नष्ट होता है । (२७३८) त्रिपुरसुन्दरो रसः ( भै. र. । आमाशय . ) सिन्दूरमभ्रन्त्वथ हेममाक्षिकं मुक्ताफलं हेम च तुल्यभागिकम् । कन्याम्बुना मर्दय सप्तवासरान् गुञ्जाप्रमाणां वटिकां विधेहि च ॥ रसोत्तमस्यास्य निषेवणान्नरा--माशयोत्थामयरोगसङ्घतः । गत्वा विमुक्तिं बलवीर्य सयुतो मेधान्वितः सौम्यवपुश्च जायते ॥ अन्नपानादिकं सर्वे सुजरं यच्च पोषण मामाशयगदे सेव्यं दुर्जरञ्च विवर्जयेत् ॥ रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, मोतीकी भस्म और स्वर्णभस्म समान भाग लेकर सबको सात दिन तक घृतकुमारी ( ग्वारपाठा) के रसके साथ घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir आमाशयरोगमें शीघ्र पचने और पोषण करने वाला आहार सेवन करना तथा दुर्जर आहार से परहेज करना चाहिये । हिङ्गुलोत्थ शुद्ध पारद, ताम्र भस्म, शुद्ध गन्धक, लौहभस्म, अभ्रक भस्म और शुद्ध बछनाग ( मीठा तेलिया) १-१ भाग तथा चांदीभस्म आधाभाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना लीजिये फिर उसमें अन्य औषधें मिलाकर सबको १ दिन अदरक के रस में घोटकर २ - २ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । (२७४०) त्रिफलादि गुटिका (बृ. नि. र. । त्वग्दोष यो. र. कुष्ट ) त्रिफलारुष्करलौ हैः सावल्गुजभृङ्गलाङ्गली व्योषैः। सगुडैर्वराहकन्दैः पलिकैरेकत्र संमिश्रः ॥ इनके सेवनसे समस्त आमाशय रोग नष्ट हो गुटिकां प्रकल्प्य खादेदेकै कामक्षसम्मितां प्रातः । कर बलवीर्य और मेधाकी वृद्धि होती है । कुठे द किलासजित्वा वर्षेण सर्वथा पलितम् ॥ जीवति वर्षशतं वै दीप्त हुताशो युवेव सोत्साह : ।। हरे, बहेड़ा, आमला, भिलावा. लोहभस्म, बावची, भंगरा, कलिहारी, त्रिकुटा, गुड़ और इन्हें शहद अथवा अद्रकका रस और मिश्री साथ सेवन करने से आठ प्रकारके ज्वर विशेषतः पानीकी खराबी से होनेवाला ज्वर, तिल्ली, उदर विकार, शोथ और अतिसारका नाश होता है । For Private And Personal Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४८७] हाता है । बाराही कन्दका समान भाग चूर्ण लेकर कूटकर स्मृतिविक्रमबुद्धिशक्तियुक्तः एकएक कर्ष (१। तोले)की गोलियां बना लीजिए। शारदां जीवति वै शतं समग्रम् । इनमेंसे प्रति दिन प्रातःकाल १ गोली खाने । मुखेन नीलोत्पलचारुगन्धिना से कुष्ठ, दाद और किलासकुष्ठ नष्ट होता है। शिरोरुहैरञ्जनमेचकप्रभैः ।। इन्हें एक वर्ष तक सेवन करनेसे पलित रोग भवेत्तु गृध्रस्य समानलोचननष्ट हो जाता है और मनुष्य १०० वर्ष तक श्चिरं नरो वर्षशतं तु जीवति ।। युवाके समान रहता है। ( व्यवहारिक मात्रा १-२।। माषा) त्रिफला, लोहचूर्ण और मुलैठी समान भाग (२७४१) त्रिफलादिचूणम् लेकर चूर्ण बना लीजिए। (यो. र.; वं. से.। नेत्र.; वृ. यो. त.।त.९५) इसे २१ दिन तक प्रतिदिन सायङ्कालके त्रिफलात्वचमायसं च चूर्ण | समय घी और शहद में मिलाकर चाटनेसे तिमिर, समयष्टीमधुकं त्रिसप्तरात्रम् । नेत्रार्बुद, आंखकी पुतली पर लाल धारियां होना, मधुना सह सर्पिषा दिनान्ते खुजलो, क्षणिक अन्धता, दाह, शूल, तोद, पटल, . पुरुषो निष्परिहारमाददीत ॥ शुक्ल, काच (मोतिया बिन्द) और पिल्ल रोग नष्ट तिमिरार्बुदरक्तराजिकण्डूक्षणदा होता है। न्ध्यामयदाहशूलतोदान् । यह चूर्ण केवल नेत्ररोगों को ही नष्ट नहीं पटलं च सशुक्रकाचपिलं | करता अपितु दन्तरोग, कर्णरोगादि ऊर्ध्वजत्रुगत शमयत्येव निषेवितः प्रयोगः ॥ रोगोंको भी नष्ट करता है। इनके सिवाय अर्श न च केवलमेव लोचनानां (बवासीर), भगन्दर, प्रमेह, आनाह किलासकुष्ट, विहितो रोगनिबर्हणाय योगः। हलोमक और पलितादि रोग भी इसके सेवनसे दशनश्रवणोधजत्रुजानां नष्ट हो जाते हैं। प्रशमे हेतुरयं महामयानाम् ॥ गुदजानि भगन्दरप्रमेहा-- - इसके सेवनसे पुराना अग्निमांद्य नष्ट होकर नाहकुष्ठानि हलीमकं किलासम् । अग्नि अत्यन्त तीक्ष्ण हो जाती है; अधिक स्त्री पलितानि विनाशयेत्तथा प्रसंगके कारण निर्बल हुवे पुरुषोंमें पुनः शक्तिका निं चिरनटं कुरुते रविप्रचण्डम् ।। सञ्चार होता है. स्मृति, बुद्धि, और बलयुक्त होकर प्रमदाभिरयं जराधिरूढः मनुष्य १०० वर्ष तक जीवित रहता है; उसका स्फुटचन्द्राभरणासु यामिनीषु । | मुख कमलपुष्पके समान सुन्दर और सुगन्धित, सुरतानि पदे पदे निषेवेत्पुरुषो तथा बाल सुरमेकी भांति काले और दृष्टि गिद्धके योगमिमं निषेवमाणः ॥ समान तीब्र हो जाती है। For Private And Personal Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि (नोट-यदि लोहचूर्णके स्थानमें लोहभस्म । (२७४३) त्रिफलादिमोदकः डाली जाय तो अच्छा है। मात्रा १॥ माषा से (शा. सं. । खं. २ अ. ६: यो. चिं.। अ. ३) ३ माशे तक। घी १ तोला, शहद २ तोले ।) त्रिफला त्रिपला कार्या भल्लातानां चतुःपलम् । (२७४२) त्रिफलादिमण्डूरम् | वाकुची पञ्चपलिका विडङ्गानां चतुःपलम् ॥ (र. का. धे.। अधि. ११) । हतं लौहं त्रिच्चैव गुग्गुलुश्च शिलाजतु । त्रिफला कुण्डली भृङ्गकेशराजाटरूषकम् । एकै पलमात्रं स्यात्पला, पौष्करं भवेत ॥ शतावरी श्रावणी च बलाकूलकपर्पटाः ॥ चित्रकस्य पलार्द्ध स्यात् त्रिशाणं मरिचं भवेत् । भाी किरातत्तिक्तं च निम्बं मण्डूकपर्णिका। नागरं पिप्पली मुस्ता त्वगेला पत्रकुङ्कमम् ॥ कषाय वयेदासां मण्डूरं बहुवार्षिकम् ॥ शाणोन्मितो स्यादेकैकश्चूर्णयेत्सर्वमेकतः । . त्रिफलायाः रसे पूते पचेदष्टगुणे ततः ।। ततस्तत्प्रक्षिपेञ्चर्ण पकखण्डे च तत्समे ॥ मण्डूरेण समं दद्यात् सिता सर्पिः सुमाक्षिकम् ॥ मोदकान्पलिकान् कृत्वा प्रयुञ्जीत यथोचितम्। त्रिकटु त्रिफला मुस्तं विडङ्गाजाजि चित्रकम् । हन्युः सर्वाणि कुष्ठानि त्रिदोषप्रभवामयान् ।। यवानी मधुकं धान्यं चातुर्जातकपादिकम् ।। शिरोक्षिभूगतान्रोगान्मन्यापृष्ठगतानपि । भक्षयेत्तद्यथा कालमम्लपित्तेन पीडितः ॥ प्राग्भोजनस्य देयं स्यादधःकायस्थिते गदे॥ त्रिफला, गिलोय, भंगरा, काला भंगरा, भेषजं भक्तमध्ये च रोगे जठरसंस्थिते । अडूसा (बासा), शतावर, मुण्डी, बला (खरैटी), भोजनस्योपरि ग्राह्यमूर्ध्वजत्रुगदेषु च ॥ पटोल, पित्तपापड़ा, भारङ्गी, चिरायता, नीमकी हर, बहेड़ा, आमला १-१ पल, शुद्ध भिलावा छाल और ब्राह्मी । इनमेंसे प्रत्येकके स्वरस या ४ पल, बाबची ५ पल, बायबिडंग ४ पल, तथा काथकी पुराने मण्डूरकी भस्मको १-१ भावना लोहभस्म, निसोत, गूगल और शिलाजीत १-१ देकर उसे आठगुने त्रिफलाकाथमें पकाइये। जब । पल (५-५ तोले), पोखरमूल और चीता आधा काथ सूख जाय तो मण्डूरका चूर्ण करके उसमें आधा पल, मिर्च ११। माशे और सोंठ, पीपल, उसके बराबर मिश्री, घी और शहद तथा हर, मोथा, दालचीनी, इलायची, पत्रज और केसर बहेड़ा, आमला, त्रिकुटा, मोथा, बायोबडङ्ग, जीरा, । प्रत्येक ३॥ माशे। सबका महीन चूर्ण करके चीता, अजवायन, मुलैठी धनिया, दालचीनी, उसे सबके बराबर खाण्डकी चाशनीमें मिलाकर तेजपात, इलायची और नागकेसरका समान भाग ५-५ तोलेके मोदक बना लीजिए। मिला हुवा चूर्ण मण्डूरसे चौथाई मिलाकर चिकने इन्हे यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ पात्रमें भरकर रख दीजिये। सेवन करनेसे सर्व प्रकारके कुष्ठ, शिर आंख और इसके सेवनसे अम्लपित्त नष्ट होता है। | भ्रके रोग, तथा मन्या (गलेकी नस) और पीठके . (मात्रा-१॥ माषा) रोग नष्ट होते हैं। १ षट्पलेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४८९] औषध-नाभिसे नीचेके रोगोंमें भोजनसे | कुष्ठानि जठरं मेहं श्वासं शोफमरोचकम् । पहिले, उदर विकारोंमें भोजनके मध्यमें और विशेषाच्च ह्यपस्मारं कामलां गुदजानि च ॥ गलेसे ऊपरके रोगोंमें भोजनके अन्तमें सेवन त्रिफला (हर, बहेड़ा, आमला) ३ भाग, करानी चाहिए। त्रिकटु (सोंठ, मिर्च, पीपल) ३ भाग, चीतेकी (२७४४) त्रिफलादियोगः (ग. नि. । नेत्र.) जड़ तथा बायबिडंग १-१ भाग, शिलाजीत त्रिफला लोहचूर्णश्च पटोली मधुयष्टिका।। और रूपामक्खी भस्म ५--५ भाग, शुद्र लोहचूर्ण (भम्म) और मिश्री ८-८ भाग । सब चीजोंके सर्वमेकांशतः पथ्या विभीतामलकं क्रमात् ॥ महीन चूर्ण को शहदमें मिलाकर अवलेह (चटनी) द्विव्यक्षिभागिकं रुद्रभागाः स्युस्तवराजकात् । सर्पिषा भक्षिते यान्ति विचूर्णेऽक्षिरुजोऽखिलः ॥ बनाकर लोहे के पात्रमें भरकर रख दीजिए। इसमें से प्रतिदिन गूलरके फलके बराबर अथवा अग्नि त्रिफला, लोहचूर्ण, पटोल और मुलैठी एक बलानुसार न्यूनाधिक मात्रामें खानेसे पाण्डु रोग, एक भाग, हर्र २ भाग, बहेड़ा ३ भाग, आमला विषविकार, खांसी, क्षय, विषमञ्चर, कुष्ठ, उदर२ भाग और यवासशर्करा (शीर खिस्त-जवासेकी विकार, प्रमेह, श्वास, सूजन, अरुचि, और विशेष खांड) ८ भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए। कर अपस्मार कामला तथा बवासीर का नाश __इसे घीमें मिलाकर सेवन करनेसे समस्त होता है। नेत्ररोग नष्ट होते हैं। (२७४६) त्रिफलादिलोहम् (भै. र. । आ.वा.) (२७४५) त्रिफलादिलेहः त्रिफला मुस्तकं व्योषं विडङ्गं पुष्कर वचा । (वृ. यो. त. । त. ७४; वृ, नि. र. । पाण्डु.) चित्रकं मधुकश्चैव पलांशं श्लक्ष्णचूर्णितम् ।। त्रिफलायास्त्रयोभागास्त्रयस्त्रिकटुकस्य च ।। अयश्चूर्णपलान्यष्टौ गुग्गुलोस्तावदेव हि । भागश्चित्रकमूलस्य विडङ्गात्तथैव च ॥ आलोड्य मधुनोपेतं पलद्वादशकेन च ॥ पश्चाश्मजतुनो भागास्तथा रूप्यमलस्य च। प्रातर्विलिह्य भुञ्जानो जीर्णे तस्मिञ्जयेद्रुजः । शुद्धलोहस्य रजसो भागाश्चाष्टौ प्रकल्पयेत्॥ दुःसाध्यमामवातश्च पाण्डुरोगं हलीमकम् ॥ अष्टौ भागाः सितायास्तु तत्सर्व मधुसंयुतम् । जीर्णान्नसम्भवं शूलं श्वय) विषमज्वरम् ॥ श्लक्ष्णचूर्ण सुसंस्थाप्यमायसे भाजने शुभे ॥ त्रिफला, मोथा, त्रिकुटा, बायबिडङ्ग, पोखरउदुम्बरसमां मात्रां ततः खादेद्यथानि ना। मूल, बच, चीता और मुलैठीका महीन चूर्ण १-१ दिने दिने प्रयोक्तव्यं जीर्णे भोज्यं यथोचितम्।। पल (५-५ तोले) तथा शुद्ध लोहचूर्ण (अथवा वर्जयित्वा कुलित्थांस्तु काकमाचीकपोतकान्। भस्म) और शुद्ध गूगल ८-८ पल लेकर सबको पाण्डुरोगं विषं कासं यक्ष्माणं विषमज्वरम् ॥ एकत्र कूटकर १२ पल शहदमें मिलाकर रक्खें । १ माक्षिकस्य च शुद्धस्य लोहस्य रजसस्तथेति पठान्तरम् । भा० ६२ For Private And Personal Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४९० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । तकारादि VAMUMYRUVVVVVWU Vvvvvvvvvvvvvvvar AnurnaAAVvvvvvvvvvvvi इसे प्रातःकाल सेवन करनेसे दुस्साध्य आम- १०० पल त्रिफलाचूर्णको भंगरेके रसकी वात, पाण्डु, हलीमक, परिणामशूल, शोथ और सात भावना देकर छायामें सुखाकर उसमें २५ ज्वर नष्ट होता है । (मात्रा-१।। माषा) पल शुद्र गन्धक और १२॥ पल शुद्ध पारदकी (२७४७) त्रिफलाद्यो लेहः कजली मिलाकर खरल करके रखें । (ग. नि. । पाण्डु.; वै. क. द्रु. । पाण्डु.) इसे नित्य प्रति यथोचित मात्रानुसार प्रातः त्रिफला द्वे हरिद्रे च कटुरोहिण्ययोरजः। काल, भोजनके पहिले और भोजन पचनेपर घी चूर्णितं मधुसर्पियो लेहयेत् कामलापहम्॥ तथा शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे मनुष्य सर्व त्रिफला, हल्दी, दारुहल्दी, कुटकी और व्याधि रहित ३०० वर्षकी आयु प्राप्त कर सकता लोहभस्म समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर यथो- है तथा दृष्टि निर्मल हो जाती है । चित मात्रानुसार घी और शहदके साथ सेवन (मात्रा १-१॥ माषा ।) करनेसे कामला रोग नष्ट होता है। | (२७५०) त्रिफलालौहः (र. र. । ज्वर.) ( मात्रा १||-२ मापे ।) त्रिफलामृतलौहश्च भृङ्गराजं च चूर्णितम् । (२७४८) त्रिफलामण्डूरम् चूर्णमर्जुनपत्रस्य त्रिजातकशिलाजतु ॥ ( भै. र.; धन्वं. । अम्लपि. ) व्यूषणं तुल्यतुल्यांशं सर्वेषाश्च समांशतः। गोमूत्रशुद्धमण्डूरं त्रिफलाचूर्णसंयुतम् ।। क्षौद्रेण वटिका कार्या कर्षमात्रन्तु भक्षयेत् ।। विलिहन मधुसर्पियो शूलं हन्त्यम्लपित्तजम् ।। सर्वज्वरहरः श्रेष्ठो ह्यनुपानं प्रकल्पयेत् ॥ गोमूत्रमें शुद्ध किया हुवा मण्डूर और त्रिफ त्रिफला, लोहभस्म, भंगरा, अर्जुनके पत्ते, लाका चूर्ण समान भाग लेकर दोनों को एकत्र | दालचीनी, इलायची, तेजपात, शिलाजीत और मिलाकर शहद और घी के साथ सेवन करनेसे अम्लपित्तजनित शूल नष्ट होता है। त्रिकुटेका समान भाग चूर्ण लेकर सबको शहदमें (मात्रा-२-३ माषे । अनुपान-शीतलजल।) | मिलाकर गोलियां बनाएं। (२७४९) त्रिफलारसायनम् इन्हें यथोचित अनुपानके साथ १। तोलेकी ( धन्वं.; र. र. । रसा.) मात्रानुसार सेवन करनेसे समस्त प्रकारके ज्वर त्रिफलायाः पलशतं चूर्ण भृङ्गरसाम्बुना। . नष्ट होते हैं । ( व्यवहारिक मात्रा २ माषे ) भावयेत्सप्तवारांस्तु छायाशुष्कन्तु कारयेत ॥ (२७५१) त्रिफलालोहः (र. सा. सं.। अजी.) पादं गन्धकचूर्णस्य तदर्द्ध पारदं क्षिपेत् । त्रिफलामुस्तवेल्लैश्च सितया कणया समम् । लिद्यान्मधुघृताभ्यां च मात्रया प्रत्यहं पुमान् ॥ खरमञ्जरीवीजैश्च लौह भस्मकनाशनम् ॥ जीर्णे भोज्ये ह्यनाहारे गुणानेतानवामुयात् । त्रिफला, मोथा, बायबिडङ्ग, मिश्री, पीपल प्रसन्नदृष्टिरव्याधि वेद्वर्षशतत्रयम् ॥ और अपामार्ग (चिरचिटे) के बीजोंका चूर्ण १-१ For Private And Personal Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( मात्रा - ४ - ६ रत्ती ।) रसप्रकरणम् ] भाग तथा लोहभस्म इन सबके बराबर लेकर एकत्र खरल कराइये | इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करने से भस्मक रोग नष्ट होता है । द्वितीयो भागः । (२७५२) त्रिफलालौहः ( रसे. सा. सं.; र. रा. सुं.; धन्वं । शूल. रसें. चिं. । अ. ९ ) तीक्ष्णायश्चूर्णसंयुक्तं त्रिफला चूर्णमुत्तमम् । क्षीरेण पाययेद्धीमान्तयः शूलनिवारणम् ॥ तीक्ष्ण लोहभस्म और त्रिफलाचूर्ण बराबर बराबर लेकर, एकत्र मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है । ( मात्रा - १ माषा । ) (२७५३) त्रिफलालौहम् (च. सं. 1 ग्रहणी. ) त्रिफलां कटीं चव्यं विल्वमध्यमयोरजः । रोहिणीं कटुकां मुस्तं कुष्ठं पाठाञ्च हिङ्गु च ।। मधुकं मुष्ककयवक्षारौ त्रिकटुकं वचाम् । विडङ्गं पिप्पलीमूलं स्वर्जिकां चित्रनिम्बकौ ॥ मूर्वाऽमोन्द्रयवान् गुडूचीं देवदारु च । कार्षिकं लवणानाञ्च पञ्चानां पलिकान् पृथक् भागान् दध्नि त्रिकुडवे घृततैलेन मूच्छितान् । अन्तर्धूमं शनैर्दग्ध्वा तस्मात्पाणितलं पिबेत् ।। सर्पिषा कफवातार्शो ग्रहणीपाण्डुरोगवान् । yesग्रहश्वासहिकाकासकृमिज्वरान् ॥ शोषातिसारौ श्वयथुं प्रमेहानाहहद्रहान् । हन्यात्सर्वविषञ्चैव क्षारोऽग्निजननो वरः ॥ ॥ त्रिफला, मालकंगनी, चव्य, बेलगिरी, लोह - चूर्ण, मांसरोहिणी, कुटकी, मोथा, कूठ, पाठा, हींग, Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४९१ ] जवाखार, मुष्कक ( मोखावृक्ष ) का क्षार, मुलैठी, त्रिकुटा, बच, बायबिडंग, पीपलामूल, सज्जी, नीमकी छाल, चीता, मूर्वा, अजमोद, इन्द्रजौ, गिलोय और देवदारु । प्रत्येक १ - १ कर्ष ( ११ - १ | तोला); सेंधा नमक, काला नमक, खारी नमक, काचलवण और सामुद्र नमक १ - १ पल ( ५-५ तोले ) । इन समस्त ओषधियोंके चूर्ण में थोड़ा थोड़ा घी और तैल मिलाकर उसे ३ कुड़व ( ६० तोले ) दहीमें मिलाकर हाण्डीमें भरकर उसके मुखको अच्छी तरह बन्द करके और उसपर कपड़मिट्टी करके सुखाकर चूल्हे पर रखकर नीचे मन्दाग्नि जलाइये | जब समझें कि अब चूर्णकी भस्म हो गई होगी तब अग्नि बन्द करदें और हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकाल लें । इसे ४ माशेकी मात्रानुसार घीके साथ सेवन करनेसे कफ वातज अर्श, ग्रहणी, पाण्डु, तिल्ली, मूत्रावरोध, श्वास, हिचकी, खांसी कृमि, ज्वर, शोथ, यक्ष्मा, अतिसार, प्रमेह, अफारा, हृद्रोग और समस्त प्रकार के विषोंका नाश होता है । (२७५४) त्रिभुवनकीर्त्तिरसः (र. प्र. सु. । अ. ६; र. चं. । उदर. ) शुद्धस्य ताम्रस्य दलानि कुर्यात् पलानि त्रीण्येव च गन्धकस्य । पद्वयं वै रुचकस्य चैकं पलं रसस्यापि विमर्द्य खल्वे ॥ चूर्ण विधायाप्यथ सिन्दुवार रसेन पत्राणि विलेपयेच्च । तत्सम्पुट स्यान्तरतो निधाय विमुद्र तत्सम्पुटमेव । ॥ For Private And Personal Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir // hi/vvwsnArvin/ N AMAMINS [ ४९२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ तकारादि यामं तथैकं पुटयेच्च गोमयै (२७५६) त्रिमूर्तिरसः (वृ.नि.र.;यो.र.।मेदो.) जर्जातं सुशीतं हि विचूर्णयेत्तत् ।। सूतं गन्धमयोभस्म समं सम्मेल्य भावयेत् । तनागवल्लीदलमध्यतोऽपि निर्गुण्डीपत्रतोयेन मुसलिकन्दवारिणा ॥ बल्लैकमात्रं सकलोदरघ्नम् ॥ ततः सिद्धममुं माषमात्र रसमनुत्तमम् । शुद्ध ताम्रपत्र और शुद्ध गन्धक ३-३ पल, लोध्रक्षौद्रेण चाश्नीयाचर्ण माषोन्मितं हितम् ॥ सञ्चल नमक ( काला नमक ) २ पल और शुद्ध षटकटु त्रिफला पश्चलवणाऽवल्गुजस्य तत् । पारा १ पल ( ५ तोले ) लेकर प्रथम पारे और मेदशोथाग्निमान्द्यामवातश्लेष्मगदप्रणुत् ॥ गन्धककी महीन कजली बनाइये और फिर उसमें ! शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और लोहभस्म समान सञ्चल लवणका चूर्ण मिलाकर उसे संभालुके रसमें भाग लेकर तीनोंकी कजली बनाकर उसे १-१ घोटकर पिट्टीसी बना लीजिये और ताम्रपत्रोंपर दिन संभालुके पत्तोंके रस और मूसलीके काथमें उसका लेप करके उन्हें सम्पुट में बन्द करके १ घोटकर १-१ माषेकी गोलियां बना लीजिये, पहर तक उपलोंकी आँचमें पकाइये । तत्पश्चात् । और पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, स्याहपुटके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकाल- मिर्च, हर, बहेड़ा, आमला, सेंधा लवण, समुद्र कर पीसकर रखिये। लवण, विडलवण, काचलवण, सञ्चल नमक और ____इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार पानमें रखकर बाबची, समान भाग लेकर चूर्ण कर लीजिए । खिलानेसे समस्त उदररोग नष्ट होते हैं। प्रतिदिन उपरोक्त रसमेंसे एक एक गोली (२७५५) त्रिभुवनकीतिरसः । लोधके चूर्ण और शहदके साथ खाकर इस चूर्णमेंसे ( वृ. नि. र.; र. चं.; यो. र.। ज्वर.) ।१ माषा ( पानीसे ) खानेसे मेद, शोथ, अग्निमांद्य, हिङ्गलश्च विषं व्योष टङ्कणं मागधीशिफा । आमवात और कफविकार नष्ट होते हैं । सञ्चूर्ण्य भावयेत्त्रेधा सुरसाईकहेमभिः ॥ (व्यवहारिक मात्रा-आधी गोली) रसस्त्रिभुवनकीर्तिः सगुञ्जकाद्रवेण वै। (२७५७) त्रियोनिरसः सर्वज्वरविनाशं च सन्निपातास्त्रयोदश ॥ (र. र. स. । उ. ख. अ. १९; र. रा. सुं. । पाण्डु) शुद्ध हिङ्गुल (शंगरफ), शुद्ध बछनाग ( मीठा तेलिया ), त्रिकुटा, सुहागेकी खील और ताम्रस्य तुर्यभागेन रसेनोप्लत्य लेपयेत् ।। निम्बुद्रावेण संयोज्य मूर्यतापे विनिक्षिपेत् ।। पीपलामूल । इन सबके समान भाग महीन चूर्णको ऊर्ध्वाधो गन्धकं दत्त्वा पाचयेदति यत्नतः । तुलसी, अद्रक और धतूरेके रसकी तीन तीन भावना देकर एक एक रत्तीकी गोलियां बना लीजिये। मत्स्याक्षीमभितो दत्वा मृत्स्नया सनिरुध्य च ॥ इन्हें अद्रकके रसके साथ सेवन करनेसे १३ यामद्वय सुपक च स्वागशति समुद्धरेत् । प्रकारके सन्निपात और अन्य समस्त प्रकारके ज्वर गुञ्जामात्रं ददीतास्य साभयगुडसंयुतम् ॥ नष्ट होते हैं। त्रियोन्याख्यो रसो ह्येष शोफपाण्डपनोदनः॥ For Private And Personal Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । ( ताम्रमारणम् सं. २५९१ देखिये । ) उसमें बालुकायन्त्र में पकानेके पश्चात् भी १ पुट लिखी है परन्तु इसमें नहीं है । शेष प्रयोग लगभग समान है । यदि पुट दी जाय तो कुछ हानि नहीं, अपितु लाभ ही हो सकता है। (२७५८) त्रिवङ्गभस्म ( रसायनसार । ) जसदं वङ्गनागौ च समसूतेन मेलयेत् खाली त्रिवङ्गभस्म सेवन करें । इसका अनुपान अडूसा काथको ठंडा करके ६ मा० सहद डालकर सेवन करते हैं; यदि काथ करनेमें परिश्रम मालूम हो तो तीन माशे चूर्ण ही ले । इस रसकी मात्रा एक रत्तीसे ४ रत्ती तक देते हैं । अरसा साथ प्रयोग करनेसे बहुत शीघ्र फल होता है, क्योंकि " वासायां विद्यमानायाघृष्ट्वा निम्ब्वम्बुना ताले गन्धं दत्त्वा विमर्दयेत् ॥ १॥ माशायां जीवितस्य च । रक्तपित्ती क्षयी रोगी खाङ्गलिकायन्त्रे मन्दादिक्रमवह्निना । धूमनिर्गमनस्याऽन्ते पक्ता शीतं समुद्धरेत् ॥ aarti तालसिन्दूरं वङ्गं तलसंस्थितम् । सगृहीतं पृथग् वाऽपि वासाक्षौद्रेण सेव्यताम् ॥ कासः श्वासः क्षयो रक्तपित्तं कुष्ठं प्रमेहकः । अबल्यं वह्निमान्धं च मुक्ता गच्छन्ति रोगिणम् ॥ तारस्य जसदस्याने योजनेनाऽपि सिध्यति । fasser रसस्तस्य बलीयासो 'गुणास्ततः॥॥ अर्थ ---- पाँच तोले जस्ता, पाँच तोले राँगा, पाँच तोले शीशा, इन तीनोंको गलाकर पन्द्रह तोले, हिङ्गुलोत्थ पारदमें मिलादें । इन चारों चीजों की पीठीको नींबूके रसके साथ घोटकर पानी से धो डालें । इस पिट्टी में कपड़छन की हुई पन्द्रह तोले तब किया हरताल और १ तोला गन्धक डालकर कजली करलें । इस कज्जलीको नलिकाडमरूयन्त्रमें रखकर मन्द मध्यादि क्रमसे दो दिन तक आँच दें । जब नलीसे धूम निकलना बन्द हो जाय तब यन्त्रके ठण्डे होनेपर नलीके चारों तरफ तालसिन्दूर मिलेगा और नीचेकी हाण्डीमें बङ्गभस्म मिलेगी। तालसिन्दूर और त्रिवङ्गभस्म इन दोनोंको मिलाकर घोटकर सेवन करें। अथवा [ ४९३ ] wwwwww किमर्थमवसीदति ? ” यह सिद्धान्त प्रसिद्ध है । त्रिवङ्गके सेवन करनेसे खांसी, श्वास (दमा) क्षयरोग, रक्तपित्त, कुष्ट, प्रमेह, दुर्बलता, मन्दाग्नि नष्ट हो जाते हैं । इस त्रिवङ्गके बनाने के लिए जस्तेकी जगह ५ तोले शुद्ध की हुई चाँदीको डालने से भी पूर्वोक्तविधिसे त्रिवङ्गभस्म तैयार हो जाती है । परन्तु पूर्व त्रिवङ्गकी अपेक्षा चांदी की त्रिवङ्गमें प्रबल गुण होते हैं । For Private And Personal ( रसायनसारसे ) (२७५९) त्रिविक्रमो रसः (र. रा. सुं.; यो. र. र. चं.; रसें. सा. सं.; धन्वं. र. र. । अश्मरी. र. चिं. । स्तव. ११; शां. सं. । म. अ. १२; रसें. चिं. । अ. ९; वृ. यो. त. । त. १०२; यो त । त. ५०; र. प्र. सु. । अ. ८; र. स. क. । उल्ला. ५ ) मृतताम्रमजाक्षीरैः पाच्यं तुल्यं गते द्रवे । ताम्र शुद्धसूतञ्च गन्धकं च समं समम् ॥ निर्गुण्डीस्वरसैर्मद्यं दिनं तद्गोलकीकृतम् । यामैकं बालुकायन्त्रे पक्त्वा योज्यं द्विगुञ्जकम् ।। बीजपूरस्य मूलश्च सजलं चानुपाययेत् । रसस्त्रिविक्रमो नाम शर्करामत्रमरीं जयेत् ॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४९४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि ताम्रभस्मको समान भाग बकरीके दूधमें | जम्बीरी नीबूके रसमें घोटिये और फिर उसमें मन्दाग्निपर पकाइये, जब समस्त दूध सूख जाय (सबका चार गुना) त्रिफलाका काथ मिलाकर तो वह ताम्र, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक समान मिट्टीके बरतनमें पकाइये, तत्पश्चात् क्रमशः ४-४ भाग लेकर तीनोंकी कजली करके उसे १ दिन गुने दशमूलकाथ और शतावरके रस या काथमें संभालुके पत्तोंके रसमें घोटकर गोला बनाकर पकाकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । सुखाकर सम्पुटमें बन्द कर दीजिए और उसे इनके सेवनसे हृद्रोग और शूल नष्ट होता है। बालुकायन्त्रमें रखकर १ पहर ( तीब्राग्नि ) पर (२७६१) त्रिसङ्घन्टो रसः । पकाइये । तत्पश्चात् यन्त्रके स्वांगशीतल होनेपर (र. रा. सुं.; र. का. धे. । पाण्डु.) उसमेंसे औषधको निकालकर पीसकर रखिये। मूतार्कहेमताराणां समं पिष्टिं प्रकल्पयेत् । ___ इसमेंसे २ रत्ती रस बिजौरे नीबूकी जड़को जम्बीरनीरसंयुक्तमातपे शोषयेद्दिनम् ॥ पानीमें पीसकर उसके साथ सेवन करानेसे शर्करा ऊधिो द्विगुणं देयंगन्धमस्यां क्षिपेक्षितिम् । और अश्मरी (पथरी ) नष्ट होती है। भाण्डगर्भ निरुध्याथ द्वियामं पाचयेल्लघु ॥ (२७६०) त्रिविष्टपररसः ( रसें.मं.।अ.३ ) दैत्येन्द्रतारताम्राणां कृत्वा चैकत्र पिष्टिकाम् ।। आदाय चूर्णयेत् श्लक्ष्णं त्रिसट्टो महारसः। तत्समं चाभ्रकं श्लक्ष्णं गन्धकं पञ्चमांशतः ॥ हरीतक्या समं देयं द्विगुञ्ज पाण्डुरोगजित् ॥ विषं च षोडशांशेन द्वौ भागौ सूतकस्य च।। विष च पाडशाशन वा मागा सूतकर पा । भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके रससिन्दूर, ताम्रभस्म, स्वर्णभस्म और चांदी एकीकृत्य प्रयत्नेन जम्बीररसमर्दितान् ।। १ दिन जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर धूपमें भाजने मृण्मये स्थाप्य पाचयेत् त्रिफलारसे। सुखावें तत्पश्चात् नीचे ऊपर उसके बराबर शुद्ध दशमूलशतावर्योः काथे पाच्य क्रमेण हि ॥ गन्धकका चूर्ण रखकर उसे दो शराोंमें सम्पुट करें, ततोत्तार्य प्रयत्नेन वटिकाः कारयेद्भुधः। और बालुकायन्त्रमें रखकर २ पहर तक मन्दाग्नि गुञ्जात्रयप्रमाणेन खादेद्धद्रोगशूलनुत् ॥ पर स्वेदित करें, पश्चात् यन्त्रके स्वांगशीतल होने शुद्ध हिङ्गल (शंगरफ), चांदोभस्म और पर उसमेंसे औषधको निकालकर पीसकर रक्खें। ताम्रभस्म बराबर बराबर लेकर सबको एकत्र खरल इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार हर्रके चूर्ण (और करें । फिर उसके बराबर अभ्रकभस्म, उसका शहद) के साथ सेवन करनेसे पाण्डुरोग नष्ट पांचवां भाग शुद्ध गन्धकका बारीक चूर्ण, सोलहवां होता है। भाग शुद्ध बछनाग ( मीठा तेलिया ) और दो गुना । (२७६२) त्रिसुन्दरो रसः (रसें. चिं.। अ.९) शुद्ध पारा लेकर पारे गन्धककी पृथक कजली शुद्धसूतं मृतं चाभ्रं गन्धकं मद्देयेत्समम् । बनाकर सब चीजोंको एकत्र मिलाकर १ दिन लोहपात्रे घृताभ्यक्त क्षणं मृद्वग्निना पचेत् ॥ १ योगरत्नाकरोक्त 'त्रिनेत्र रस' और इसमें केवल भावनाका ही अन्तर है; प्रधान उपादान दोनोंके समान ही हैं। . For Private And Personal Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४९५] ANN/Avvavvvvh/mVvvvm/AI चालयेल्लोहदण्डेन अवतार्य विभावयेत् । लेकर सबको घीकुमारके रसमें घोटकर ( ३-३ त्रिदिनं जीरककाथैौर्षकं भक्षयेत्सदा॥ रत्तोकी ) गोलियां बनाकर छायामें सुखा लीजिये। ग्रहणी शान्तिमायाति सर्वोपद्रवसंयुता ॥ इन्हें बकरीके दूधके साथ सेवन करनेसे शुद्ध पारा, अभ्रकभस्म और शुद् गन्धक क्षय, खांसी, गुल्म, प्रमेह, जीर्णज्वर, उन्माद और समान भाग लेकर तीनोंकी कजली बनाकर जलदोषादि अनेकों रोग नष्ट होते हैं। एक लोहपात्रमें जरासा घृत लगाकर उसमें इस (२७६४) त्रैलोक्यचिन्तामणिरसः (२) कजलीको डालकर मन्दाग्निपर पकाइये। और । (र. चं.; र. सा. स.; र. रा. सु.; धन्व.; आ. लोहे की मूसली आदिसे चलाते रहिए । जब कजली वे. वि. । वातव्या. ) पिघल जाय तो पात्रको अग्निसे नीचे उतार हीरं सुवर्ण सुमृतं च तारलीजिये और औषधको खरलमें डालकर तीन दिन - मेषां समं तीक्ष्णरजश्चतुर्णाम् । तक जीरेके काथमें घोटिये । समं मृताभ्रं रससिन्दूरश्च इसे एक माषेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे निष्पिष्टतीक्ष्णस्य तथाऽश्मनो वा॥ उपद्रवयुक्त ग्रहणी भी शान्त हो जाती है। खल्ले द्रवेणैव कुमारिकायाः (व्यवहारिक मात्रा-४-५ रत्ती। अनुपान | गुञ्जापमाणां वटिकां प्रकुर्यात् । त्रैलोक्यचिन्तामणिरेष नाम्ना जीरेका काथ ।) (२७६३) त्रैलोक्यचिन्तामणिरसः (१) सम्पूज्य सम्यग्गिरिजां दिनेशम् ॥ (र. सा. सं.; र. चं. । ज्व. ) हन्त्यामयान् योगशतैर्विवा नथ प्रणाशाय मुनिप्रणीतः । भागत्रय स्वर्णभस्म द्विभागं तारमभ्रकम् । अस्य प्रसादेन गदानशेषान् लौहात्पञ्च प्रवालं च मौक्तिकं त्रयसम्मितम् ॥ जरां विनिर्जित्य सुखं विभाति ॥ भस्मसूतं सप्तकं च सर्व मद्ये तु कन्यया । हीराभस्म, स्वर्णभस्म और चांदी भस्म १--१ छायाशुष्का वटी कार्या छागीदुग्धानुपानतः॥ भाग, तीक्ष्ण लोहभस्म ३ भाग तथा अभ्रकभस्म क्षयं हन्ति तथा कासं गुल्मं चापि प्रमेहनुत् । और रससिन्दूर ६-६ भाग लेकर सबको पत्थर जीर्णज्वरहरश्चायं उन्मादस्य निकृन्तनः॥ या लोहेके चिकने खरल में धीकुमार (ग्वारपाठा)के सर्वरोगहरश्चापि वारिदोषनिवारणः॥ रसमें मर्दन करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना स्वर्णभस्म ३ भाग, चांदीभस्म और अभ्रक- लीजिये। भस्म २-२ भाग, लोहभस्म ५ भाग, प्रवाल । ___ इनके सेवनसे समस्त रोग नष्ट होते हैं । जो ( मंगा ) और मोती भस्म ३-३ भाग तथा । रोग अन्य सैकड़ों औषधोंसे नष्ट नहीं होते वह भी पारदभस्म ( अभावमें रससिन्दूर ) सात भाग इससे नष्ट हो जाते हैं। १ भागद्वयमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-२ - भैषज्य रत्नाकरः । [ ४९६ ] (२७६५) त्रैलोक्यचिन्तामणिरसः (३) ( र. रा. सुं.; मै. र. र. चं; यो. र. । राजय .; वृ. यो. त. । त. ६७ ) रसं वज्रं हेमतारं ताम्रतीक्ष्णाभ्रकं मृतम् । गन्धकं मौक्तिकं शङ्खं प्रवालं तालकं शिला ॥ शोधितञ्च समं सर्व सप्ताहं भावयेद्दृढम् । चित्रमूलकषायेण भानुदुग्धैर्दिनत्रयम् ॥ निर्गुण्डीसूरणद्राचैर्व चीदुग्धैर्दिनत्रयम् । अनेन पूरयेत्सम्यक् पीतवर्णान् वराटकान् ॥ ङ्कणं रविदुग्धेन पिवा तेषां मुखं लिपेत् । रुध्वा भाण्डे पुटेत्पश्चात् स्वाङ्गसीतं विचूर्णयेत्।। चूर्णतुल्यं मृतं सूतं वैक्रान्तं सूतपादकम् । शिग्रुमूलद्रवैः सर्व सप्तवारं विभावयेत् ॥ चित्रमूलकषायेण भावनाचैकविंशति: । * आर्द्रकस्य रसेनैव भावना सप्त एव च ॥ सूक्ष्मचूर्ण ततः कृत्वा चूर्णपादांशटङ्कणम् । टङ्कणांशवत्सनाभं तत्समं मरिचं क्षिपेत् ॥ लव नागरं पथ्या कणा जातीफलं पृथक् । प्रत्येकं वत्सनाभस्य पादांशं चूर्णितं क्षिपेत् ॥ मातुलुङ्ग आर्द्रकस्य रसेन तद्विलोडयेत् । चतुर्गुञ्जामितं खादेत् कणाक्षौद्रं लिहेदनु ॥ * अनुपानैः समायोज्यं सर्वरोगोपशान्तये । दीपयते बलं च कुरुते तेजो महद्वर्धते ॥ वीर्यं वर्द्धयते विषं च हरते दाढर्ये च धत्ते तनौ । अभ्यासेन विनिहन्ति मृत्यु पलितं पुष्टिं प्रदत्ते नृणाम् ||| Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ तकारादि कासं तुन्दयते क्षयं क्षपयते श्वासं च निर्णाशयेत् । वातं विद्रधिं पाण्डुशूलग्रहणीरक्तातिसारं जये - ।। मेहलीहजलोदरामरितृषाशोफोहलीमोदरम्। भूतोत्थं च भगन्दरं ज्वरगणं चार्शी सि कुष्ठाञ्जयेत् ॥ साध्यासाध्यरुजां निहन्ति स रसस्त्रैलोक्यचिन्तामणिः ॥ शुद्ध पारद, हीराभस्म, चांदीभस्म, ताम्रभस्म, तीक्ष्ण लोहभस्म, अभ्रक भस्म, शुद्र गन्धक, मोतीभस्म, शंखभस्म, प्रवाल भस्म, हरतालभस्म और शुद्ध मनसिल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिये और फिर अन्य औषधे मिलाकर सबको सात दिन चीते की जड़के काथमें और ३-३ दिन आकके दूध, संभालके रस, सूरण (जिमीकन्द ) के रस और सेहुंड (सेंड - थोहर ) के दूध में घोटकर लुगदी बनाकर उसे पीले रङ्गकी कौड़ियों में भर दीजिये और सुहागेको आक के दूध में पीसकर उससे उनका मुख बन्द कर दीजिये; तत्पश्चात् उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटमें फूंक दीजिये और स्वांगशीतल होनेपर निकालकर पीसकर उसमें उसके बराबर पारदभस्म ( अभाव में रससिन्दूर ) और उससे चौथाई ( चतुर्थांश) वैकान्तभस्म मिलाइये । तत्पश्चात् उसे सहेजने की जड़की छालके काथको सात भावना, चित्रकमूलके काथकी २१ भावना और अद्रक के रसकी सात भावनां देकर महीन चूर्ण * इन चिन्होंके अन्तर्गत श्लोक कई ग्रन्थों में नहीं हैं। १ योगरत्नाकर और वृहद्योगतरङ्गिणीमें इन चीजोंके अतिरिक्त भांग और जम्बीरी तथा विजौरे नबूके रसकी भी सात सात भावना देनेके लिए लिखा है । इसके अतिरिक्त इन ग्रन्थोंमें बछनाग सुहागे चौथाई और सबके अन्तमें कस्तूरीकी एक भावना लिखी है। For Private And Personal Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४९७ ] - - बनाइये और उसमें उसका चतुर्थांश सुहागा, शुद्ध | शुद्धगन्धकगद्याणास्त्रिचत्वारिंशतिस्ततः । बछनाग ( मीठ! तेलिया ) और काली मिर्च में से सप्तभिः स्वर्णमाक्षीकैरेकसप्ततिसंमितैः॥ प्रत्येकका चूर्ण तथा लौंग, सोंठ, हरं, पीपल और | सर्व सार्द्ध च सम्पिष्य चैकरूपं ततो नयेत् । जायफलमेंसे प्रत्येकका महीन चूर्ण बछनागका व्यहं सेहुण्डदुग्धेन रविदुग्धेन च व्यहम् ॥ चतुर्थांश मिलाकर सबको एक दिन नीबू और काश्चनारस्य मूलेन सश्रीखण्डेन च व्यहम् । अद्रकके रस में धोटकर चार चार रत्तीकी गोलियां : चित्रकस्य रसेनाथ दिनमेकञ्च भावयेत् ॥ बना लीजिये। दशाहभावितं चूर्ण कुर्याद्रभ्यश्च गोलकम् । ___इनमेंसे प्रतिदिन १-१ गोली खाकर ऊपरसे शरावसम्पुटे सिल्वा तत्सन्धि वस्त्रमृत्स्नया ॥ पीपलके ( १॥ माषा ) चूर्ण को शहदमें मिलाकर वेयित्वा पटो देयश्चतभिइच्छाणकैर्धवम । चाटनेसे समस्त रोग नष्ट होकर जठराग्नि, बल, वारं वारं तोलयित्वा पृटो देयो मुहर्महः ॥ तेज और वीर्यकी वृद्धि होती है । इनके सेवनसे दह्यते गन्धको यावद्वेदैर्वेदैश्च च्छाणकैः। विष, खांसी, क्षय, श्वास, वातविद्रधि, पाण्डु, शूल, शरावसम्पुटे मृत्स्नां वस्त्रयुक्तां ददेत्पुटेत् ।। संग्रहणी, रक्तातिसार, प्रमेह, तिल्ली, जलोदर, अष्टाविंशतिगद्याणाः शेषास्तावत्पुटेच्च तम् । अश्मरी, तृषा, हलीमक, शोथ, उदररोग, भगन्दर, दर, पेषिताश्च निर्गुण्ड्या गुडूच्याश्च रसेन वै ॥ ज्वर, अर्श और कुष्ठादि भयङ्कर रोग भी नष्ट हो । त्रिकटोः पयसा वापि त्रिफलावारिणा तथा। जाते हैं । इसे नियमपूर्वक बहुत दिनोतक सेवन प्रत्येकेन पृथग्देया भावनाश्चैकविंशतिः॥ करते रहनेसे पलित (बाल सफेद हो जाना) सर्वाश्चतुरशीतिश्च मिलित्वा भावनाः खलु। और मृत्यु ( अकालमृत्यु )का नाश और शरीर दृढ़ हो जाता है। करवीरस्य पुष्पाणि पुष्पाणि कनकस्य च ॥ (२७६६) त्रैलोक्यडम्बररसः (र.चि.स्तब.८) तुल्यतुल्यानि सम्मल तुल्यतुल्यानि सम्मेल्य रविदुग्धेन मर्दयेत् । शुद्धगन्धस्य गवाणा ग्रहीतव्यास्त्रयोदश।। दातव्या तद्रसेनका वत्सनाभयुतेन च। शुद्धरूप्यस्य वा ग्राह्याः गयाणाश्च त्रयःखलु ।। श्रीखण्डकरसेनैका सप्ताऽशीतिसमाश्च ताः। ताम्रपत्रस्य गयाणा ग्राह्याः पश्च भिषग्वरैः। भावनाः स्युस्ततः खल्वे सम्मथ विचूर्णयेत् ।। एकविंशतिगद्याणान्खल्वे कृत्वा दिनाष्टकम् ॥ तचूर्ण क्रूप्यके धार्यम् रसस्त्रैलोक्यडम्बरः । नैम्बुकेन रसेनैव पेषयेच्च निरन्तरम् । वल्लैकं प्रत्यहं प्रातयिोऽयं चपलान्वितः ॥ पिष्टवा पिष्टवा प्रकर्तव्या पिष्टी सूक्ष्मातिसुन्दरा। सन्निपातेषु सर्वेषु शूलेषु विविधेषु च । वस्त्रे बद्धाथ तां पिष्टी स्वेदनीयन्त्रके ततः। प्रमेहेषु च सर्वेषु सर्वेषूदररोगिषु ॥ निम्बूरसारनालेन सक्षारेण प्रपूरिते ॥ समस्तेष्वपि वातेषु गुल्मयोर्वातरक्तयोः । स्वेद्या दिनाष्टकं यावच्छुष्के देयो पुना रसः। तैलक्षाराम्लवज्यं च भोजने मधुरं स्मृतम् ॥ ततो बहिर्विनिष्कास्प कुर्या चूर्ण हि खल्वके॥ मासैकेन समस्ताश्च रोगा नाशं व्रजन्ति हि॥ भा० ६३ For Private And Personal Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४९८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि - - शुद्ध गन्धक ६॥ तोले, शुद्ध चांदी १॥ | या क्वाथ तथा त्रिकुटा और त्रिफलाके काथकी तोला और शुद्ध ताम्रपत्र २॥ तोले लेकर सबको २१-२१ भावना ( कुल मिलाकर ८४ भावना ) निरन्तर आठ दिन तक नीबूके रसमें घोटकर देकर उसमें १५-१४ तोले कनेर और धतूरेके अत्यन्त महीन पिट्टी बनाकर उसका गोला बना फूलोंका चूर्ण मिलाकर एक एक दिन आकके दूध लीजिए और उसे ( सुखाकर ) एक कपड़े में तथा बछनाग (मीठा तेलिया) और सफेद चन्दनके बांधकर दोलायन्त्रविधिसे काञ्जी, नीबूका रस काथमें घोटकर महीन चूर्ण करके काचकी शीशी) और जवाखार में आठ दिन तक स्वेदित कीजिये। भरकर सुरक्षित रखिये । ( नीबूका रस और काजी बराबर बराबर तथा इसमें से प्रतिदिन ३ रत्ती रस पीपलके चूर्णके यवक्षार काञ्जीका ३२ वां भाग लेना चाहिये ) । साथ देनेसे एक मासमें समस्त प्रकारके सन्निपात, ज्यों व्यों काञ्जी और रस सूखता जाय त्यों त्यों शूल, प्रमेह, उदररोग, समस्त वातव्याधि गुल्म नवीन डालते जाना चाहिये । ( जवाखार बार बार और वातरक्तका नाश हो जाता है । डालनेकी आवश्यकता नहीं है । ) ___ इसके सेवनकालमें तैल, क्षार और खटाईसे आठ दिन पश्चात् स्वांगशीतल होनेपर परहेज़ करना तथा मधुर रसवाला आहार सेवन गोलेको निकालकर खरल करके उसमें २१॥ करना चाहिये। तोले शुद्ध गन्धक और ३॥ तोले शुद्ध स्वर्ण (२७६७) त्रैलोक्यडम्बररसः माक्षिकका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल कीजिए कि जिससे वह सब परस्पर मिलकर एक (र. का. धे.; र, चं.; रसें. सा. सं.; र. रा. मुं. । जीव हो जाय । तत्पश्चात् उसे सेहुण्ड ( थोहर उदर.; रसें. चिं. । अ. ९) सेंड ) और आकके दूध तथा चन्दन मिले हवे द्वौ भागो शिववीजस्य गन्धकस्य चतुष्टयम् । कचनारकी जड़के क्वाथमें ३-३ दिन और चीतेके । अभ्रवह्निविडङ्गानां गुडूचीसत्वनागयोः ॥ काथमें १ दिन (सब मिलाकर १० दिन) घोटकर कृष्णाजीरकटूनाश्च लवणं क्षारसंयुतम् । गोला बनाइये । और उसे शराव सम्पुट में बन्द गुञ्जात्रयं क्रमेणाथ ददीतघृतसंयुतम् ।। करके, उसपर कपरमिट्टी करके सुखाकर चार भोजयेत्स्निग्धमुष्णं च पायसं च विवर्जयेत् ॥ उपलोंकी आगमें फूंक दीजिये । इसी प्रकार उप- शुद्ध पारा २ भाग, शुद्ध गन्धक ४ भाग, रोक्त चीजोंके रसमें घोट घोटकर चार चार उप- । अभ्रकभस्म, चीता, बायबिड़ङ्ग, गिलोयका सत्व, लोकी अग्निमें बार बार फंकिये और औषधको सीसाभस्म, पीपल, जीरा, त्रिकुटा, सेंधा और तोलकर देखते रहिये; जब १४ तोले वज़न शेष यवक्षार १-१ भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धक रह जाय तब पुट देना बन्द कर दीजिए। की कजली बना लीजिये तत्पश्चात् उसमें अन्य अब उसे संभालुके पत्ते और गिलोय के स्वरस । औपधोंका महीन चूर्ण मिलाकर खरल करके रखिये। For Private And Personal Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । रसप्रकरणम् ] इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार घीके साथ सेवन करने और स्निग्धोष्ण भोजन करनेसे वातोदरका नाश होता है । इसपर दूधपाक न खाना चाहिये । (२७६८) त्रैलोक्यडम्बररसः ( यो. रै.; र. सा. सं.; र. रा. सुं.; र. का. घे. ज्वर. र. चिं. । अ. ९; र. र. स. । अ. १२) सूतार्कगन्धचपलाजयपालतिक्ता । पथ्या त्रिच विषतिन्दुकजं समांशम् । सम्म पियसा मधुना द्विगुञ्जत्रैलोक्यडम्बररसोऽभिनवज्वरघ्नः ॥ शुद्ध पारा, ताम्रभस्म, शुद्ध गन्धक, पीपल, शुद्ध जमालगोटा, कुटकी, हर्र, निसोत और शुद्ध कुचला समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धक की कज्जली बनाइये, पश्चात् उसमें अन्य औषधों का महीन चूर्ण मिलाकर एक दिन थोहर (सेहुंड - सेंड) के दूधमें घोटकर २ - २ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । इनमेंसे एक एक गोली शहद के साथ देनेसे नवीन ज्वर नष्ट होता है । (नोट- यह रस विरेचक है अतः गर्भिणीको न देना चाहिये ।) त्रैलोक्यतापहरणरसः (यो.र. ज्वर. ) (त्रैलोक्यडम्बर सं. २७६८ देखिये । ) (२७६९) त्रैलोक्यतिलकरसः (र. र. स. । उ. अ. १५; र. रा. सुं. । अर्श.) कृष्णाभ्रकस्य सत्वं च शोधितं काचटङ्कणम् । रेतयित्वा रजः कृत्वा भर्जयित्वा घृतेन तत् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४९९ ] अष्टांशसस्यकोपेतं पुटेद्वारत्रयं ततः । त्रिवारं नृपवर्त्तेन लुङ्गस्वरसयोगिना || चतुर्वारं च वर्षाभूवासामत्स्याक्षिकारसैः । गुग्गुलुत्रिफलाकाथैस्त्रिंशद्वाराणि यत्नतः ॥ तुल्यांशरसगन्धोत्थकज्जल्याऽष्टांशभागया । पुटेत्पञ्चाशतं वारान्मर्दयेच्च पुटे पुटे ॥ शोधितं तितं कान्तं तीक्ष्णं च घृतमर्दितम् । पुटेदष्टांशदरदैः संयुक्तं लकुचाम्बुना ॥ दशवारं तथा सम्यक् तालं शुद्धं मनोइया । तथा विंशतिवाराणि बलिना मीनहग्रसैः ॥ दशवाराणि ताप्येन कृष्णगोघृतयोगिना । उभयं समभागं तत्पुटेन्निर्गुण्डिकारसैः ॥ रसगन्धककज्जल्या दशवारं पुटेत्पुनः । तस्मिन्नष्टांशभागेन क्षिपेद्वैक्रान्तभस्मकम् ॥ राजावत कलांशेन समभागेन पर्पटी । तत्सर्वे परिमथ भावयित्वाऽऽकाम्बुना || गुडूच्याः स्वरसेनापि भूकदम्बरसेन च । भृङ्गराजरसेनापि चित्रमूलरसेन च ॥ | व्योषगञ्जाकिनीकन्दैर्भूयोध्यार्द्रद्रवेण च । पटचूर्णमतः कृत्वा क्षिपेच्छुद्धकरण्डके || त्रैलोक्यतिलकः सोयं ख्यातः सर्वरसोत्तमः । सर्वव्याधिहरः श्रीमाञ्छम्भुना परिकीर्त्तितः ॥ उदावर्त्त च विद्वन्धं व्यथाञ्च जठरोद्भवाम् । लोहलं मन्दबुद्धित्वं शूलित्वमपि वन्ध्यताम् सूतिरोगानशेषांश्च शूलं नानाविधं तथा । परिणामाख्यशुलश्च तथा भिन्द्यात्समुत्कटम् ॥ रक्तगुल्मं च नारीणां रजःशूलं च दुःसहम् । अनुपानं च पथ्यं च तत्तद्रोगानुरूपतः ॥ १ योगरत्नाकर में " त्रैलोक्यतापहरण ” नामसे लिखा है । उसमें थोहरके दूधके स्थान में धतूरेके रसकी भावना लिखी है । For Private And Personal Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५००] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [तकारादि १-कृष्णाभ्रक सत्व, काचका चूर्ण और शुद्ध हर बार मिलाकर वढ़लके रसमें घोटना चाहिए। सुहागा समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल इसी प्रकार हरबार आठवां भाग शुद्ध गन्धक करके जरासे घीमें सेक लीजिए, फिर उसमें उस मिलाकर मछेछीके रसमें घोटकर २० पुट और समस्त चूर्णका आठवां भाग तूतिया मिलाकर | हरबार आठवां भाग शुद्ध स्वर्णमाक्षिकका चूर्ण सम्पुटमें बन्द करके पुटमें फूकिये, इसी प्रकार | मिलाकर काली गायके घृतमें धोटकर १० पुट तूतियाके साथ तीन पुट देकर अमलतासकी जड़के दीजिये। रसमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखाकर सम्पुटमें ३-अब उपरोक्त दोनों ( कृष्णाभ्रक सत्व बन्द करके पुट दीजिए । इसी प्रकार अमलतास और लोह) भस्म समान भाग लेकर एकत्र खरल की जड़के रसमें ३, बिजौरे नीबूके रसमें ४ और करके उसमें उसका आठवां भाग कजली मिलाकर पुनर्नवा, वासा, मछेछी, गूगल और त्रिफलाके रस संभालुके रसमें घोटकर गजपुट दीजिये। इसी या काथमें से प्रत्येकमें घोट घोटकर ६-६ पुट प्रकार हरबार कजली मिलाकर और संभालुके दीजिये । तत्पश्चात् समानभाग पारे और गन्धककी रसमें घोटकर १० पुट दीजिए । बनी हुई कजली उपरोक्त चूर्णसे आठवां भाग अब इसमें आठवां भाग वैक्रान्तभस्म, लेकर उसमें मिलाकर ( नीबूके रसमें घोटकर सोलहवां भाग राजावर्तभस्म और समान भाग टिकिया बनाकर) सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें 'रसपर्पटी' मिलाकर सबको १-१ दिन अद्रकके फूंक दीजिए। इसी प्रकार हरवार आठवां भाग रस, गिलोयके रस, गोरखमुण्डीके रस, भंगरेके कजली मिलाकर घोटकर ५० पुट दीजिये।। रस, चीतेकी जड़के काथ, त्रिकुटाके काथ, भांगके २-शुद्ध तीक्ष्णलोह तथा कान्तलोहका चूर्ण स्वरस या काथ और सूरण (जिमिकन्द) के काथ समान भाग लेकर उसे १ दिन धीमें घोटकर में घोटकर अन्तमें अद्रकके रसकी एक भावना उसमें उसका आठवां भाग शंगरफ (हिङ्गुल) देकर महीन चूर्ण करके सुरक्षित रखिये । मिलाकर बढलके रसमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखाकर, सम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी अग्नि इसके सेवनसे उदावर्त, मलावरोध, उदरशूल, दीजिये । इसी प्रकार दश पुट दीजिए, हर बार बुद्धिकी मन्दता, वन्ध्यत्व, सूतिका रोग, अनेक आठवां भाग शंगरफ मिलाकर वढलके रसमें घोट लेना प्रकारके शूल, विशेषतः भयङ्कर परिणामशूल, चाहिए । फिर समान भाग मिला हुवा शुद्ध रक्तगुल्म और असहय रजः शूल (रजोदर्शनके हरताल और मनसिलका चूर्ण उक्त लोह चूर्णका | समय होनेवाली पीड़ा) इत्यादि अनेक रोग नष्ट आठवां भाग लेकर उसमें मिलाकर वढलके रसमें होते हैं । घोटकर गजपुटकी अग्नि दीजिए। इसी प्रकार पथ्य और अनुपान रोगानुकूल देना चाहिए। १० पुट दीजिये । हरताल और मनसिलका चूर्ण | ( मात्रा-३ रत्ती ।। For Private And Personal Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [५०१] (२७७०) त्रैलोक्यनाथरसः । ६४ दिन त्रिफलाके काथमें, ३२ दिन भंगरेके ( यो. र.; र. चं.; र. का. धे. । पाण्डु.; वृ. यो. रसमें, १६ दिन सहजनेकी छालके रसमें और त. । त. ७४; यो. त. । त. २५) ८-८ दिन चीतेके काथ, घृतकुमारी (ग्वारपाठे) पलानि चत्वारि रसस्य पश्च के रस और अद्रकके रस में घोटकर गोलियां गन्धस्य सत्त्वस्य गुडूचिकायाः । बना लीजिये। व्योषस्य चूर्णस्य च तालमूल्याः __इनके सेवनसे पाण्डु, क्षय और श्वासादि सशाल्मलस्येह पलत्रयं स्यात् ।। रोग नष्ट होते हैं। पृथक पृथक्षड् गगनस्य चाष्टौ मात्रा ७॥ माषे (१० आनेभर)। अनुपान लोहस्य सर्व त्रिफलाजलेन । मधु अथवा धी और मिश्री। घृष्टं चतुःषष्टिदिनं तदर्धा शोथ रोगमें स्वर्णक्षीरी (सत्यानासी) की स्युर्भावना मार्कवजद्रवस्य ॥ जड़के स्वरस या काथ अथवा थोहर (सेंड-सेहुण्ड) शिगूत्थनीरेण च षोडशाष्टौ के दूधके साथ पके हुवे घृतके साथ अथवा यथोतथाऽनलोत्थाद् गृहकन्यकायाः। चित मात्रानुसार (१ रत्ती तक) शुद्र जमालगोटेके आर्द्रद्रवस्येति रसोऽयमुक्तः साथ खिलाना चाहिये। शेष पध्यादि मृगाङ्ग पाण्डुक्षयश्वासगदादिहर्ता । रसके समान पालन करना चाहिए। क्षौद्रेण वा शर्करया घृतेन (व्यवहारिक मात्रा १ माषा 1) ___कर्षार्धमेतस्य भजेत्पयत्नात् ॥ । (२७७१) त्रैलोक्यमोहनो रसः रसेन सार्द्ध यवचिश्चिकायाः (र. रा. सुं. । प्रमेह ) शोथाधिके वा जयपालमिश्रः॥ शुद्धसूतस्तथा गन्धो वङ्गभस्म शिलाजतुः। वजीकृतेनापि समस्तमद्या मौक्तिकं च समं सर्व शुष्कमादौ विमर्दयेत् ।। न्मृगाङ्गसूतप्रतिपादितं यत् । पाषाणभेदकाथेन कुमारीस्वरसेन च । त्रैलोक्यनाथप्रकटीकृतोऽयं मूर्वागुडूचित्रिफलाकषायेण पृथक् पृथक् ॥ नरेन्द्रयोगीन्द्रमतादनर्यः॥ दिनानि पश्च सम्मी घर्मे संशोषयेत्ततः। शुद्ध पारद ४ पल, शुद्ध गन्धक ५ पल, काचकुप्यां विनिक्षिप्य मुखं तस्य विमुद्रयेत् ॥ गिलोयका सत, त्रिकुटेका चूर्ण, तालमूली (मूसली) माषानविषचूर्णानां कल्केन भिषगुत्तमः । और मोचरसका चूर्ण ३-३ पल (१५-१५ संस्थाप्य वालुकायन्त्रे चतुर्यामं विपाचयेत् ॥ तोले ), तथा अभ्रकभस्म ६ पल और लोहभस्म | चोपचीनीयचूर्णेन माषमानेन योजितः । ८ पल लेकर, प्रथम पारे गन्धककी कजली बना- त्रैलोक्यमोहनो नाम्ना गुञ्जामात्रो रसोत्तमः॥ इये और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर । पर्णखण्डेन दातव्यः प्रमेहमथनः परः॥ For Private And Personal Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५०२] भारत भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि . शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, वङ्गभस्म, शिलाजीत इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं । और मोती समान भाग लेकर सबको एकत्र ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती । अनुपानखरल करके चूर्ण बनाएं फिर उसे पखानभेदके । बाबची या त्रिफलेका काथ । ) काथ, घृतकुमारी, (ग्वारपाठा )के स्वरस और (२७७३) त्रैलोक्यविजयरसः मूर्वा, गिलोय तथा त्रिफलाके काथमें पृथक् पृथक् । (र. र. स. । उ. ख. अ. २०) ५-५ दिन घोटकर धूपमें सुखाकर, कपड़मिट्टी रसं गन्धं विषं तालं स्वर्णक्षीरी रुदन्तिका। की हुई आतशी शीशीमें भरकर उसके मुखपर वरुणाम्लेन सचूर्ण्यप्रतिनिष्कद्वयं द्वयम् ।। खिडियामिट्टी आदिकी डाट लगाकर उसपर उर्दका त्रैलोक्यविजयः सर्वकुष्ठनो निष्कमात्रया ॥ आटा, बछनागकाचूर्ण और चूना पानीमें मिलाकर । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्र बछनाग अच्छी तरह लगा दीजिये कि जिससे धुंवां न ( मीठा तेलिया ) शुद्ध हरताल, स्वर्णक्षीरी निकल सके । इस शीशीको बालुकायन्त्रमें रखकर ( सत्यानाशी )को जड़ और रुद्रवन्तीका पञ्चाङ्ग ४ पहरकी अग्नि दीजिये, और यन्त्रके स्वांगशीतल समान भाग लेकर प्रथम पार गन्धककी कजली होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर पीस लीजिये। बनाइये और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण ____ इसमें से १ रत्ती रस १ माषा चोपचीनी मिलाकर सबको, बरनेकी छालको काखीमें पकाकर चूर्णके साथ मिलाकर पानमें रखकर खानेसे प्रमेह उसके साथ घोटकर चूर्ण करके रखिये। रोग नष्ट होता है। ___इसके सेवनसे समस्त कुष्ट नष्ट होते हैं। (२७७२) त्रैलोक्यविजयरसः | (२७७४) त्रैलोक्यसुन्दररसः (१) (र. र. स. । उ. ख. अ. २०) (र. र. स. । उ. खं. अ. १९; रसें. चि. म.। अ. मूतभस्म समं गन्धं मृतायस्ताम्रगुग्गुलुः।। ९; र. का. धे.; र. चं.; र. र.; र. रा. सुं. । उदर) त्रिफलाविषमुष्टी च चित्रकश्च शिलाजतु ॥ शुद्धमूतं तथा गन्धं मृता, सैन्धवं विषम् । वरुणाम्लेन सञ्चूर्ण्य प्रतिनिष्कद्वयं द्वयम्। कृष्णजीरं विडङ्गं च गुडूचीसत्त्वचित्रकम् ॥ क्षिपेत्तस्मिन्विशोष्याथ क्रमानिष्कं सदा लिहेत॥ एला चैव यवक्षारं प्रत्येकं स्याद्रसार्धकम् । त्रैलोक्यविजयश्चासौ सर्वकुष्ठहरो रसः ॥ दिनं निर्गुण्डिकाद्रावैर्वीजपूररसैदिनम् ॥ पारदभस्म ( अभावमें रससिन्दूर ), शुद्ध मर्दयेच्छोषयेत्सम्यक् रसत्रैलोक्यसुन्दरः। गन्धक, लोहभस्म, ताम्रभस्म, गूगल, त्रिफलाका | गुञ्जाद्वयं घृतैर्लेह्यो वातोदरकुलान्तकः॥ चूर्ण, शुद्ध कुचलाका चूर्ण, चीतेका चूर्ण और पलमेकं चित्रमूलं द्विगोमूत्रैश्चतुर्जलैः । शिलाजीत समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल पाच्यं यावद्भवेत्कल्कंघृतं कल्कं च योजयेत् ॥ करके बरनेकी छालको काञ्जीमें पकाकर उसके साथ पलैकश्च यवक्षारं क्षिप्त्वा पक्त्वाऽवतारयेत् । घोटकर सुखाकर सुरक्षित रक्खें । | तत्कर्षेकं पिवेच्चानु स्निग्धमुष्णं च भोजयेत् ॥ For Private And Personal Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितोयो भाग । [ ५०३:] शुद्ध पारा १ भाग और शुद्ध गन्धक, अभ्रक- भाग लेकर पारे गन्धककी कजली बनाकर भस्म, सेंधानमक, शुद्ध बछनागविष, कालाजीरा, । उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर १ दिन बायबिडङ्ग, गिलोयका सत, चीता, इलायची और भंगरेके रसमें घोटकर (१-१ माषेकी) गोलियां यवक्षार आधा आधा भाग लेकर प्रथम पारे और बनाकर रक्खें । गन्धककी कजली बना लीजिये, तत्पश्चात् उसमें इसे घी, शहद और मिश्रीके साथ सेवन अन्य ओषधियोंका सूक्ष्म चूर्ण मिलाकर १-१ दिन करनेसे पाण्डु और शोषरोग नष्ट होता है ।। संभालू और विजौ रेके रसमें घोटकर सुखाकर इसपर पथ्यादि मृगाङ्क रसके समान पालन सुरक्षित रखिये। करना चाहिये। इसे २ रत्तोकी मात्रानुसार सेवन करनेसे | (२७७६) त्रैलोक्यसुन्दररसः ( ३ ) वातोदर रोग नष्ट होता है। (र. का. घे.; र. सा. सं. । पाण्डु.) ___अनुपान-१ प्रस्थ (१ सेर ) घी, २ मानश्चैकं ततः सूतं' षडभ्रं बसुलौहकम् । सेर गोमूत्र, ४ सेर पानी और ५-५ तोले जवा- गन्धकं त्रिफला व्योषं चूर्ण मोचरसस्य च ।। खार तथा पानीमें पिसा हुवा चित्रकमूल एकत्र मुसली चामृतासत्वं प्रत्येकं पञ्च भागिकम् । मिलाकर पकावें । जब पानी और गोमूत्र जल | भावयेत्सर्वमेकत्र त्रिफलानां कषायके ।। जाय तो घृतको छानकर रक्खें ।। भावनाविंशतिईया दशरात्रं सुभावनाः । उपरोक्त रस खानेके पश्चात् इसमेंसे १।। शिचित्रकमूलाभ्यामष्टधा च पृथक पृथक् ॥ तोला घृत पीना चाहिये । त्रैलोक्यसुन्दरो नाम रसो निष्कमितो हितः। ___ इस रसके सेवन कालमें चिकना और गर्म सितया च समं क्षौद्रैः शोथपाण्डुक्षयापहः॥ भोजन करना चाहिये । ज्वरातिसारसंयुक्तं सर्वोपद्रवनाशनः ॥ (२७७५) त्रैलोक्यसुन्दररसः (२) शुद्ध पारद १ भाग, अभ्रकभस्म ६ भाग, (र. र. स. । उ. खं. अ. १९; रं. चं. । पाण्डु) लोहभस्म ८ भाग, शुद्ध गन्धक, त्रिफला, त्रिकुटा, रसगन्धकलोहाभ्रगुडूचीसत्वसूकराः। मोचरस और मूसलीका चूर्ण तथा गुडूचीसत्व त्रिफलाशिमूलानि भृङ्गसारेण भावयेत् ।। । ५-५ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली त्रैलोक्यसुन्दरः सोऽयं सघृतक्षौद्रशर्करः। बनाइये तत्पश्चात् उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मृगावत्पथ्यभुजः पाण्डुशोषं नियच्छति ॥ मिलाकर त्रिफलाके काथकी १० दिनमें २० शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, अभ्रक- भावना दीजिये फिर सहजनेको छालके रस या काथ भस्म, गिलोयका सत, बाराहीकन्दका चूर्ण, त्रिफला- और चीतेकी जड़के काथकी पृथक् पृथक् ८-८ चूर्ण और सहजनेकी जड़की छालका चूर्ण समान भावना देकर ४-४ माषेकी गोलियां बना लीजिये। १ यह रस लगभग " त्रैलोक्यनाथ"के समान ही है। २ जारितञ्च चतुः सूतमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५०४ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। तकारादि ___ इसे शहद और मिश्रीके साथ सेवन करनेसे सार्ध मुहूर्त विनिरुन्थ्य धीमाशोथ, पाण्डु, क्षय और उपद्रव सहित ज्वरातिसारका नुद्दीपयेद्दीप्तकृशानुनाऽस्य । नाश होता है। अधस्ततः सिद्धयति पर्पटीयं ( व्यवहारिक मात्रा-१ माषा ।) नवज्वरारण्यकशानुमेघः ॥ (२७७७) त्रैलोक्यसुन्दररसः ( ४ ) विलिप्य पूर्व रसनाश्च तालु( रसें. सा. सं. । सं. ज्वर ) । देशं च सिन्धृद्भवजीरकाः । रसगन्धकयोर्माषौ प्रत्येकं कज्जलीकृतौ। वल्लोन्मितां चाकतोयमिश्राशक्रश्च मुसली चैव धुस्तूरं केशराजकम् ।। मेनां नियोज्य स्थगयेत्पटेन । देवदाली जयन्ती च तथा मण्डूकपर्णिका। घर्मोद्गमो यावदतः परं च एषां पत्ररसैः शाणैः शिलायां खल्लयेत्पुनः ॥ तक्रौदनं पथ्यमिह प्रयोज्यम् । शोषयित्वा वटी कार्या त्वनेका राजिकोपमा। कुर्यादिनानां त्रितयं यदीत्थं त्रिदोषजं ज्वरं हन्ति तथा प्रबलकोष्ठकम् ॥ ज्वरस्य शङ्काऽपि तदा भवेत्किम् ॥ तप्ते तु नारिकेलस्थ जलं देयं प्रयत्नतः । । समान भाग शुद्ध पारे और गन्धककी कज्जलीको यदा वटी न कार्या तु तदा खाद्या तु रक्तिका।। पानीमें घोटकर उसका एक गोला बनाइये और त्रैलोक्यमुन्दरो नाम सनिपातहरो रसः॥ उसे कपडमिट्टी की हुई हाण्डीमें रखकर उसके ऊपर २-२ माघे शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धककी शुद्ध ताम्रकी कटोरी ढककर जोड़को गुड़ चूनेसे कन्जलीको कुड़े ( कुरैया ) मूसली, धतूरा, काला बन्द कर दीजिये । अब इसे चूल्हेपर चढ़ाकर ३ भंगरा, देवदाली ( बिण्डाल ), जयन्ती और घड़ी तक तीवाग्निपर पकाइये और फिर हाण्डीके मण्डूकपर्णीमेंसे प्रत्येकके पत्तोंके ४-४ माथे । स्वांगशीतल होनेपर कटोरीके भीतर लगे हवे रसको स्वरसमें घोटकर सरसोंसे बड़ी गोलियां बनाएं। गोलियां बनाएं। । सावधानीपूर्वक निकालकर सुरक्षित रखिये। ___यदि एक गोलीको मात्रा कम प्रतीत हो तो प्रथम सेंधानमक और जीरेके चूर्णको अद्रकके १ रत्ती मात्रानुसार खिलाना चाहिये, और यदि रसमें पीसकर रोगीकी जीभ और तालुपर उसका इससे दाह हो तो नारयलका पानी पिलाना चाहिये । लेप करा दीजिये, फिर उपरोक्त रसमेंसे ३ रत्ती (२७७८) त्रैलोक्यसुन्दरसः (५) लेकर अद्रकके रसमें मिलाकर खिलाइये, और गर्म । ) ( र. र. स. । उ. खं. अ. १२) कपड़ा उढ़ाकर लिटा दीजिये । विमर्दिताभ्यां रसगन्धकाभ्यां इसके खानेके बाद पसीना आता है, और नीरेण कुर्यादिह गोलकं तम् । इसे तीन दिन तक सेवन करनेसे नवीन ज्वरका भाण्डे नवीने विनिवेश्य पश्चा भय नहीं रहता। त्तद्गोलकस्योपरि ताम्रपात्रम् ॥ पथ्य- छाछ भात । For Private And Personal Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः। [ ५०५] (२७७९) त्र्यम्बकाभ्रम् (भै. र. । स्वरभेद.) नामवल्लीदलैः पिष्टं ताम्रपिष्टिं प्रकल्पयेत् । अभ्रं मेचकमारित पल मितं व्याघ्रीबलागोक्षुरम्। रुध्वा लघुपुटैः पच्याभूधरे यामपञ्चकम् ॥ कन्यापिप्पलिमूलभृङ्गषकाः पत्रं तथा वादरम् ॥ आदाय चूर्णयेत्तुल्यैस्त्र्यूषणैः सममिश्रितैः । धात्रीरात्रिगुडूचिकाः पृथगतः सत्वैः पलांशैर्युतम्। अर्धाङ्गकम्पवाता” भक्षयेच्च द्विगुञ्जकम् ॥ सम्मोति मनोरमं सुवलितं कृत्वा यदासेवितम्॥ शुद्ध पारा और गन्धक ५-५ पल तथा वातोत्थं कफपित्तजं स्वरगतं यच्च त्रिदोषात्मक- शुद्ध ताम्रचूर्ण १ पल ( ५ तोले ) लेकर प्रथम मत्युच्चैर्वदतो हतं बहुविधं पानीयदोषोद्भवम् ॥ ताम्र और पारेको एकत्र खरल करें जब ताम्र कासंश्वासमुरोग्रहं सयकृतं हिक्कां तृषां कामला- पारेमें मिल जाय तो गन्धक मिलाकर कजली मीसि ग्रहणी ज्वरं बहुविधं शोथं क्षयञ्चाबुंदम् ॥ बनावें और फिर उसे १-१ दिन जम्बीरी नीबू हन्ति त्र्यम्बकमभ्रमद्भुततरं वृष्यातिवृष्यं परम् । तथा पानके रसमें घोटकर गोला बनाकर उसे वर्वृद्धिकरं रसायनवरं सर्वामयध्वंसि तत् ॥ शरावसम्पुट में बन्द करके लघुपुटमें फूकिये और १ पल ( ५ तोले ) निश्चन्द्र अभ्रकभस्ममें फिर नीबूके रस और पानके रसमें घोटकर ५ कटेली, बला, गोखरु, घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ), . पहर तक भूधरयन्त्रमें पकाइये । तत्पश्चात् यन्त्रके पीपलामूल, भांगरा, बासा, बेरीके पत्ते, आमला, स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर हल्दी और गिलोयमेंसे प्रत्येकका ५-५ तोले पीसकर उसमें उसके बराबर त्रिकुटाका चूर्ण स्वरस मिलाकर अच्छी तरह धोटकर ( ३-४ मिला लीजिये। रत्तीकी ) गोलियां बना लीजिये । ___इसे २ रत्ती मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्द्धाङ्ग ___इनके सेवनसे वातज, पित्तज, कफज, सन्नि- और कम्पवात नष्ट होता है। पातज और अधिक बोलने या खराब पानीके। (२७८१)त्र्याहिकारिरसः (भै. र. ज्वर.) उपयोगसे उत्पन्न स्वरभङ्ग तथा खांसी, श्वास, रसगन्धशिलातालं सर्वैरतिविषा समा। उरोग्रह, यकृत् , हिक्का ( हिचकी ), तृषा, कामला, रसस्य द्विगुणं लौहं रौप्यं लौहाघ्रि सम्मितम्॥ अर्श, संग्रहणी, ज्वर अनेक प्रकारका शोथ, क्षय, पिचुमदरसेनापि विष्णुक्रान्तारसेन च । अर्बुद और अन्य कितने ही रोग नष्ट होते हैं। सर्व सम्मघु वटिकाः कुर्याद् गुञ्जात्रयोन्मिताः॥ ___यह अद्भुत गुणकारी गोलियां अत्यन्त वृष्य हन्यादतिविषाकाथसंयुतोऽयं रसोत्तमः। ( वीर्यवर्द्धक ), अग्निवर्द्धक और रसायन हैं। व्याहिकादीज्वरान् सर्वान् रक्षांसीव रघूद्वहः॥ (२७८०) त्र्यम्बकेश्वररसः ___ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मनसिल और ( र. र. स. । उ. ख. अ. २१) | शुद्ध हरताल १-१ भाग, अतीसका चूर्ण इन मूतकस्य पलं पञ्च पलैकं ताम्रचूर्णकम् । . । सबके बराबर, लौहभस्म २ भाग और चांदीभस्म जम्बीराणां द्रवैः पिष्टं मूततुल्यं च गन्धकम् ॥ आधा भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली भा० ६४ For Private And Personal Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ५०६ ] बनाईये, फिर उसमें अन्य औषधें मिलाकर सबको १ - १ दिन नीम और विष्णुक्रान्ता ( कोयल )के रसमें घोटकर ३ - ३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । इन्हें अतीसके काथके साथ सेवन करनेसे व्याहिक ( तिजारी ) इत्यादि समस्त ज्वर नष्ट होते हैं । भारत - भैषज्य रत्नाकरः । (२७८२) व्याहिकारिरसः (र. चं.; रसें. सा. सं. । ज्वर.; र. रा. सुं. । ज्वर.) रंसकेन समं शङ्ख शिखिग्रीवञ्च पादिकम् । गोजिया जयन्त्या च तण्डुलीयैश्च भावयेत् ॥ प्रत्येकं सप्तसप्ताथ शुष्कं गुञ्जाचतुष्टयम् । जरणेन घृतेनाद्यात्म्याहिकज्वरशान्तये ॥ खपरिया और शङ्खभस्म १ - १ भाग तथा तूतियाभस्म चौथाई भाग लेकर, एकत्र पीसकर; बनगोभी, जयन्ती और चौलाईके रसकी पृथक् पृथक् सात सात भावना देकर ४-४ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये । इन्हें जीरे चूर्ण और घीमें मिलाकर सेवन करनेसे तिजारी आदि ज्वर नष्ट होते हैं । (२७८३) त्र्यूषणादिगुटिका ( वं. से. पाण्डु . ) त्र्यूषणं त्रिफला दारु हरिद्रे नीलिनीफलम् । द्राक्षा चेन्द्रय मुस्ता मञ्जिष्ठा कटुरोहिणी ॥ शतावरी शिग्रुवीजं चित्रकं गजपिप्पली । शालिपर्णी पृष्णिपर्णी बृहती कण्टकारिका || पाठा भल्लातकं दन्ती विशाला सदुरालभा । शठी मधुरसा रास्ना विडङ्गञ्च समाक्षिकम् ।। १ रसेन गन्धं शङ्खचेति पाठान्तरम् । तकारादि एतैश्चूर्णैः समैर्वापि लोहं द्विगुणमावपेत् । यावशुकञ्च संभृत्य गवां मूत्रेण पाचयेत् ॥ ततोऽक्षमात्र गुटिकां पाययेत्तण्डुलाम्बुना | पाण्डुरोगं जयत्याशु ब्रह्मदण्ड इवासुरान् ॥ कृमिकुष्ठप्रमेहार्शो ग्रहणीदोषशोथहा । भगन्दरश्वासकासप्लीहगुल्मोदरापहा ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, हल्दी, दारूहल्दी, नीलका फल, मुनक्का, इन्द्रजौ, मोथा, मजीठ, कुटकी, शतावरी, संहजनेके बीज, चीता, गजपीपल, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कटेली, पाठा, भिलावा, दन्तीमूल, इन्द्रायणकी जड़, धमासा, कचूर, मुलैठी ( अथवा मूर्वा ) रासना, बायबिडंग, और सोनामक्खीभस्म १ - १ भाग लोह चूर्ण इन सबके बराबर और सबसे दो गुना जवाखार लेकर सबका चूर्ण करके गोमूत्र में पकाएं और गाढ़ा होनेपर १ -१ कर्ष (१। तोले) की गोलियां बनालें । I इन्हें तण्डुलाम्बु (चावलों के पानी ) के साथ सेवन करनेसे पाण्डुरोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । इसके अतिरिक्त यह गोलियां कृमि, कुष्ट, प्रमेह, अर्श, ग्रहणी, सूजन, भगन्दर, श्वास, खांसी, प्लीहा ( तिल्ली ), गुल्म और उदर रोगोंका नाश करती हैं । (२७८४) त्र्यूषणादिगुटिका ( र. र. | शिर.) त्रीणि कटूनि तथातिविषाणि क्षारयुतौ त्रिफला त्रिवृतानि । दन्ती निवासकलोधनतानि चन्दनवारिभकणामृतकानि || For Private And Personal Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसप्रकरणम् ] ग्रन्थिकपुष्करमूलघनस्य तिक्तककट्फलकेन्द्रयवस्य । त्वग्दलमेघनीलोत्पलकस्य बालमूलालसजातिफलस्य ॥ द्रव्यमिदं पिचुमात्रक्रमेण चाष्टपलानि तथा यसकस्य । अष्टपलन्तु शिलाजतुकस्य शुभया कृतं द्वयक्षसमम् ॥ शुभवासरखादन् कालशुभम् मुखदारुणरोगशिरोव्यथनम् । हन्ति भ्रमं पटलं तिमिरच पिष्टकशुक्रमथार्बुदकञ्च || पलितहरं सुखकामकामकरं www.kobatirth.org द्वितीयो भागः । युवतीरमणे पित्र दुग्धसमम् ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, अतीस, जवाखार, सज्जीखार, हर्र, बहेड़ा, आमला, निसोत, दन्तीमूल, बासा, लोध, तगर, चन्दन, गजपील, सुगन्धवाला, गिलोय, पीपलामूल, पोखरमूल, मोथा, कुटकी, कायफल, इन्द्रजौ, दालचीनी, तेजपात, नागरमोथा, नीलकमल, कच्ची मूली, शुद्ध हरताल और जायफल । इनमें से प्रत्येकका चूर्ण १-१ कर्ष ( ११ - १ | तोला ); तथा आठ आठ पल शिलाजीत और लोहभस्म, एवं २ कर्ष सलोचनका चूर्ण लेकर सबको एकत्र पानी के साथ मर्दन करके गोलियां बना लीजिए | इनके सेवन से मुखरोग, शिरोरोग भ्रम तथा आंखों के पटल, तिमिर, पिष्टक, शुक्ररोग और अर्बुद तथा पलितरोग नष्ट होकर कामशक्ति चढ़ती है। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५०७ ] यदि इन गोलियोंको कामशक्तिकी वृद्धिके लिए सेवन करना हो तो दूधके साथ खाना चाहिए । (२७८५) त्र्यूषणादिमण्डूरम् ( र. का. . । अम्लपित्त ) पृथक् त्र्यूषणमक्षांशं वन्ध्या लोहोद्भवं पलम् । प्रत्येकं त्रिफलायाश्च कर्षद्वयमपि क्षिपेत् ॥ प्रसारण्याः पलायाश्च वीजपूरच्छदस्य च । सवीज पीतवल्लयाश्च लतायाश्चोरकस्य च ॥ निपीडितं रसं तेषां पृथगष्टपलं पलम् । मण्डूरस्य पलान्यत्र चत्वारिंशच्च दापयेत् ॥ सर्वाण्येकत्र विधिवत्क्वाथ्यमानं विशोषयेत् । ततो मण्डूरमादाय श्लक्ष्णं चूर्णीकृतं तथा ॥ हिंस्वष्टमाशकं व्योषं प्रत्येकं वेदभाषकम् । धात्र्याः पञ्चपलान्यत्र चूर्ण दद्याच्च तानि वै ।। पृथक् पलानि पञ्चैव शर्करामधुनोरपि । पाषाणभेदचूर्ण तु पलानां पञ्चकं हरेत् ॥ धान्यजीरक सिद्धेन सर्पिषा प्राविमर्दयेत् । एतन्मण्डूरमादौ तु मध्येऽन्ते भोजनस्य च ॥ कुर्वन्पयोऽनुपानेन शूली शूलं त्रिदोषजम् । परिणामकृतं सर्वे हन्यादेतन्न संशयः ॥ अम्लपित्तविकारेषु परिणामभवेषु च । ज्यूषणाद्यमिदं ख्यातं भैषज्यममृतोपमम् || सोंठ, मिर्च और पीपल १ । १ । तोला ; बांझककोडेकी जड़ और लोह भस्म ५ - ५ तोले; तथा हर्र, बहेड़ा और आमला २० - २ || तोले । प्रसारिणी ( गन्धेलघास ) बिजौरे के पत्ते मालकंगनीके बीज और चोरपुष्पीका स्वरस ८-८ पल (४०-४० तोले ) तथा शुद्ध मण्डूरका चूर्ण ४० पल लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर For Private And Personal Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । भारत [ ५०८ ] पकाइये और जब समस्त रस शुष्क हो जाय तो औषधको पीसकर महीन चूर्ण बना लीजिए और फिर उसमें १० माशे हींग, ५ - ५मापे हर, बहेड़ा और आमला, तथा आमलेका चूर्ण २५ तोले, मिश्री ५ पल (२५ तोले) और शहद ५ पल तथा पाषाणभेद (पखानभेद)का चूर्ण ५ पल मिलाकर सबको एकत्र खरल कराइये और फिर उसे जीरे तथा धनियेके काथ और इन्हीं के कल्कसे पके हुवे घी में घोटकर सुरक्षित रखिये । इसे भोजन आदि मध्य और अन्त में सेवन करनेसे सन्निपातजशूल, परिणामशूल और अम्लपित्त अवश्य नष्ट हो जाता है । (२७८६) ज्यूषणादिमण्डूरम् (र. रा. सुं.; र. सा. सं . । पाण्डु . ) स्विन्नमष्टगुणे सूत्रे लोहकिटं सुशोधितम् । पाकान्ते त्र्यूषणं वहिवरादावसुरद्रुमान् ॥ विडङ्गबीजचूर्ण च मुस्तं किट्टं समं क्षिपेत् । प्रातः कर्षे भजेदस्य जीर्णे तक्रौदनं भजेत् ॥ हलीमकं पाण्डुरोगमर्शासि श्वयथुन्तथा । ऊरुस्तम्भं जयेदेतत्कामलां कुम्भकामलाम् || शुद्ध मण्डूरके चूर्णको आठ गुने गोमूत्र में पकाइये और जब वह गाढ़ा हो जाय तो त्रिकुटा, चीता, त्रिफला, दारूहल्दी, देवदारु, मोथा और बायबिड़ङ्गका समान भाग एकत्र मिला हुवा चूर्ण उसके बराबर लेकर उसमें मिला दीजिये । इसे प्रतिदिन प्रातःकाल १ | तोला मात्रानुसार सेवन करने और औषध पच जाने पर भातका आहार करनेसे हलीमक, पाण्डु, अर्श, [ तकारादि शोथ, ऊरुस्तम्भ, कामला और कुम्भकामलाका नाश होता है । ( व्यवहारिक मात्र - ३ भाषा ) (२७८७) त्र्यूषणादिमण्डूरवटिका: ( भै. र.; धन्वं. भा. प्र. । ख. २. पाण्डु. ) त्र्यूषणं त्रिफला मुस्तं विडङ्गं चव्यचित्रकम् । दार्वीत्वङ्माक्षिको धातुर्ग्रन्थिको देवदारु च ॥ एषां द्विपलिकान्भागान्कृत्वा चूर्ण पृथक् पृथक् । गण्डूरचूर्ण द्विगुणं शुद्धमञ्जनसन्निभम् ॥ मूत्रे चाष्टगुणे पक्त्वा तस्मिंस्तत्प्रक्षिपेन्नरः । उदुम्बरसमाकारान् बटकांस्तान्यथानि च ।। उपयुञ्जीत तक्रेण जीर्णे सात्म्यञ्च भोजनम् । मण्डूरवटिका ह्येताः प्राणदाः पाण्डुरोगिणाम् || कुष्ठानि जठरं शोथमूरुस्तम्भं कफामयान् । शशि कामलां मेहं प्लीहानं शमयन्ति च ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir त्रिकुटा, (सोंठ, मिर्च, पीपल), हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, बायबिडंग, चव, चीता, दारूहल्दीकी छाल, सोनामक्खीभस्म, पीपलामूल और देवद्वारका चूर्ण २ - २ पल ( १०-१० तोले ) तथा सबसे २ गुना शुद्ध सुरमेके समान काला मण्डूरचूर्ण लेकर प्रथम मण्डूरको आठ गुने गोमूत्र में पका लीजिए और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर गूलरके फलके समान मोदक बना लीजिए | इन्हें अग्नि बलोचित मात्रानुसार, के साथ सेवन करना और औषध पचने पर पथ्य भोजन करना चाहिए | यह मण्डूरवटिका ' पाण्डुरोगियोंके लिए जीवनदाता हैं तथा कुट, शोथ, उदररोग, ऊरुस्तम्भ, For Private And Personal " Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] द्वितीयो भागः । [ ५०९ ] RWuvvvvvvvvvvvvvvvvvv. vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvIAnyon कफ, अर्थ, कामला, प्रमेह और प्लीहाका नाश त्रिकुटा, भांग, चव, चीता, विड्लवण (वारी करती हैं। नमक), उद्भिजलवण, बाबची, सेंधानमक और (२७८८) त्र्यूषणाचं लौहम् । | सञ्चल ( काला नमक )। इन सबका चूर्ण १-१ (र. सा. सं.; र. रा. सु.। शोथ.; रसे. चि.। अ. ९) भाग और लोहभस्म सबके बराबर लेकर सबको अयोरजस्यूषणयावशूकं एकत्र खरल करके रखिये ।। चूर्णश्च पीतं त्रिफलारसेन । इसे घी और शहदके साथ मिलाकर सेवन शोथं निहन्यात्सहसा नरस्य करनेसे स्थूलता, प्रमेह और कुष्ठ नष्ट होता तथा ___ यथाशनिक्षमुदीर्णवेगः॥ बलवर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है । लोहभस्म तथा त्रिकुटेका चूर्ण और यवक्षार इसपर किसी विशेष परहेजकी आवश्यकता समान भाग मिलाकर त्रिफलाक्काथके साथ सेवन नहीं है। करनेसे शोथ अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है। ( मात्रा २-३ माथे । ) (मात्रा-१ माषा) (२७८९) यूषणाद्यं लोहम् (२७९०) त्वगाद्या गुटिका ( ग.नि.|गुटि.) ( र. का. धे.; यो. र.; र. र.; र. सा. सं., धन्वं. त्वगेलागन्धकश्चैव गुग्गुलुः समभागतः । र. चं.; र. रा. सु. । मेदो.; रसे. चिं. । अ. ९) कुर्याद्वातारितैलेन गुटिका वातरोगिणाम् ॥ अषणं विजयो चव्यं चित्र विडमौद्भिदम् ।। दालचीनी, इलायची और शुद्ध गन्धकका वागुजीसैन्धवश्चैव सौवर्चलसमन्वितम् ॥ चूर्ण तथा शुद्र गूगल समान भाग लेकर सबको अयश्चूर्णेन संयुक्तं भक्षयेन्मधुसर्पिषा। । अरण्डीके तैलमें घोटकर गोलियां बना लीजिए। स्थौल्यापकर्षणं श्रेनं बलवर्णाग्निवर्द्धनम ॥ इनके सेवनसे वातरोग नष्ट होते हैं। मेहघ्नं कुष्ठशमनं सर्वव्याधिहरं परम् । ( मात्रा १ से ३ माशे तक । अनुपान गर्म नाहारे यन्त्रणा कार्या न विहारे तथैव च ॥ जल । ) त्र्यूषणायमिदं लौहं रसायनवरोत्तमम् ॥ ॥ इति तकारादिरसमकरणम् ॥ अथ तकारादिमिश्रप्रकरणम् ॥ (२७९१) तक्रपानम् ( यो. चि. । मिश्रा.), शशिकुन्दहिमोज्वलसन्निभं यथा सुराणाममृतं प्रधान परिपककपित्थसुगन्धरसम् । तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः। न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः युवतीकरनिर्मलनिर्मथितं न तक्रसेवी व्यथते कदाचित ॥ पिब मानव सर्वरुजापहरम् ॥ १ त्रिफळेति पाठान्तरम् । २ विडङ्गमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ ५१० ] | शीतकालेऽग्निमन्ये च कफोच्छेदे तथामये वृद्धकोष्ठे च दुष्टेऽग्नौ अशगुल्मेऽथवामये ॥ शस्तं भुक्तं च तक्रं स्पादमीषां सर्वदा हितम् । सर्वकाले प्रशस्तं तु अजाजीलवणान्वितम् ॥ इति तक्रगुणान् ज्ञात्वा न दद्याद्यस्य तं शृणु । क्षये शोषे तथा क्षीणे नोष्णकाले शरत्सु च ॥ न मूर्च्छाभ्रमतृष्णासु तथा पैत्तिरसोद्धके । न शस्तं तक्रपानञ्च करोति विषमान्गदान् ॥ जिस प्रकार देवताओंको अमृत सबसे अधिक सुखकर होता है उसी प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए तक हितकारी है I अग्निमांद्य, कफजरोग, उदरवृद्धि, अग्निविकार, अर्श और गुल्ममें तथा शीतकाल में तक पीना अत्यन्त हितकारी है । । (२७९२) तक्रपानम् ( यो. र. ग. नि.; च द । उदर. ) वातोदरी पिवेत्तकं पिप्पलीलवणान्वितम् । शर्करामरिचोपेतं स्वादु पित्तोदरी पिबेत् ॥ यवानी सैन्धवाजाजीव्योषयुक्तं कफोदरी । सन्निपातोदरी तक्रं त्रिकटुक्षारसैन्धवैः ॥ पिवेद् छिद्रोदरी तक्रं पिप्पलीक्षौद्रसंयुतम् ।। बोरी तु पुषादीप्यकाजाजीसैन्धवैः । धूषणक्षारलवणैर्युक्तन्तु सलिलोदरी । मधुतैलवचाशुण्ठीशताडाकुष्ठसैन्धवैः || युक्तं प्लीहोदरी जातं सव्योषमुदकोदरी । तक्र सेवन करनेवाले व्यक्ति कभी दुखी नहीं | गौरवारोचकानाहमन्दवन्ह्यतिसारिणाम् ।। होते, और तकसे नष्ट हुवे रोग पुनः नहीं उभरते । 1 जिस तक्रका रङ्ग बरफुके समान सफेद हो और जिसमें पके हुवे कैथके समान गन्ध और स्वाद हो उसके पीनेसे समस्त रोग नष्ट हो जाते 1 तक्रमें सेंधानमक और जीरका चूर्ण मिलाकर पीना सदैव लाभदायक होता है । यद्यपि तक इतना गुणकारी है तथापि क्षय, शोष, क्षीणता, मूर्च्छा, भ्रम, तृष्णा और पित्तज रोगों में तथा शरद ऋतु (आश्विन कार्तिक) और ग्रीष्मकालमें तक्र पीनेसे अनेकों भयङ्कर रोग उत्पन्न हो जाते हैं अत एव इन अवस्थाओं में तक कभी न पीना चाहिये । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ तकारादि नातिसान्द्रं हितं पाने स्वादुतक्रमपेलवम् || तकं वातकफार्त्तानाममृतत्वाय कल्प्यते । तक्रमें वातोदर में सेंधानमक और पीपलका चूर्ण मिलाकर; पित्तोदर में - मधुरत में मिश्री और स्याह मिर्चका चूर्ण मिलाकर; कफोदर में - अजवायन, संधा, जीरा, और त्रिकुटेका चूर्ण मिलाकर सन्निपातोदरमें- त्रिकुटेका चूर्ण, यवक्षार और सेंधानमक मिलाकर ; बद्धोदर में- हाऊबेर, अजवायन, जीरा और सेंवेका For Private And Personal चूर्ण मिलाकर; छिद्रोदर में - पीपलका चूर्ण और मधु मिलाकर; जलोदर में - त्रिकुटा, जवाखार और सेंधेका चूर्ण अथवा केवल त्रिकुटेका चूर्ण मिलाकर; Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मिश्रप्रकरणम् ] प्लीहोदरमें - शहद, तैल, बच, सोंठ, सौंफ, कूठ और सेंधेका चूर्ण मिलाकर; पीना चाहिये । तक्र - शरीरका भारीपन, अरुचि, अफारा, अग्निमांद्य, अतिसार और वातकफज रोगों में अमृतके समान गुणाकारी है । जो तक न अधिक गाढ़ा हो न अधिक पतला, और स्वाद में मीठा हो वह पीना चाहिये । (२७९३) तक्रप्रयोगः (च.सं.।चि. स्था.अ. ९अर्श) त्वचं चित्रकमूलस्य पिश्र्वा कुम्भं प्रलेपयेत् । तक्रं वा दधि वा तत्र जातमर्शोहरं पिवेत् || वातश्लेष्मार्शसां तात्परं नास्तीह भेषजम् । तत्प्रयोज्यं यथा दोषं सस्नेहं रूक्षमेव वा ॥ सप्ताहं वा दशाहं वा पक्षं मासमथापि वा । बलकालविशेषज्ञो भिषक् तक्रं प्रयोजयेत् ॥ चीतेकी जड़को छाछ (तक्र) में पीसकर मिट्टी के घड़े के भीतर उसका लेप कर दीजिए और फिर उसमें दूध भरकर दही जमाये । यह दुही या इसका तक बनाकर पीनेसे अर्श नष्ट होती है । तकसे वातज और कफज अर्श (बवासीर) के लिए अधिक उत्तम अन्य एक भी औषध नहीं है । बलकालादिके अनुसार कफज अर्शमें घृत रहित और वातज अर्शमें घृत सहित तक सात दिन, दश दिन, १५ दिन या एक मास तक सेवन करना चाहिए । द्वितीयो भागः । (२७९४) तक्रयोगः (भा. प्र. । खं. २ अरो.) राजिकाजीरको भ्रष्टौ भ्रं हिङ्गु सनागरम् । सैन्धवं दधि गोः सर्व वस्त्रपूतं प्रकल्पयेत् ॥ तावन्मात्रं क्षिपेत्तत्र यथा स्यादुचिरुत्तमा । तक्रमेतद्भवेत्सद्यो रोचनं वह्निवर्द्धनम् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५११ ] राई, भुना हुवा जीरा, भुना हुवा हींग, सौंठ और सेंधानमकका महीन चूर्ण करके रुचिके अनुसार गायके दही में मिलाकर उसे अच्छी तरह मथकर कपड़े से छान लीजिये । इस तकको पीनेसे रुचि और अनिकी वृद्धि होती है । (२७९५) तकसेवनविधिः ( धन्व । संप्र. ) सेवनीयं सदा गव्यं त्रिदोषशमनं हितम् ।। ग्रहणीरोगिणां तक संग्राही लघु दीपनम् । दुःसाध्य ग्रहणदोषो भेषजैर्नैव शाम्यति । सहस्रशोऽपि विहितैर्विना तक्रस्य सेवनात् ॥ यथा तृणचयं वह्निस्तमांसि सविता तथा । निहन्ति ग्रहणी रोगं तथा तक्रस्य सेवनम् ॥ संग्राह्या धेनवः श्रेष्ठास्तक्रपानाय रोगिणाम् । तासां पयस्तत्र गुणा जायन्ते वर्णभेदतः ॥ पीतायाः मारुतं हन्ति श्वेतायाः पित्तजान् गदान् । अरण्ये चारयेद्धेनुं नातितृणलतान्विते । रक्ताया गोः कफं हन्ति कृष्णा या गोस्त्रिदोष जित् ।। पीतोदकाभाविस्रम्भात् मन्दं मन्दं प्रचारयेत् ।। तासां दुग्धं परिग्राह्यं तक्रार्थी भिषजां वरैः । दुग्धमकथितं वातें पित्ते त्वत्कृतं हितम् || कफे त्रिदोषजे रोगे पादोनकथितं नृतम् । तदीषदम्लसंयोगात्कठिनं दधि शस्यते ॥ तदल्पजलसंयुक्तं मथनं मथितं भवेत् । तक्रमुद्धृतसारन्तु शुण्ठीचूर्णयुतं पिबेत् ॥ शनैशनैर्हरेदन्नं तक्रं तु परिवर्धयेत् । तक्रमेव यथाहारो भवेदन्नविवर्जितः || तक्रं सात्म्धं यथा कुर्यान्नैवान्नं तत्र भक्षयेत् । बुभुक्षायां पिपासायां पिबेत्तक्रं सनागरम् || For Private And Personal Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [तकारादि श्रमं न कुर्याद्वहुशो न कुर्याद्वहुभाषणम् । पीली गायका तक वायुनाशक, सफेद गायका न कुर्यान्मैथुनं तक्रपाने क्रोधं विवर्जयेत् ॥ पित्तनाशक और लाल गायका कफनाशक होता है एवं यः सेवते तक्रं ग्रहणी तस्य नश्यति । तथा काले रंगकी गायका तक्र त्रिदोष को नाश शीघ्रमेव न संदेह श्रीर्यथा द्यूतकारिणः ॥ करता है। प्रशान्ते ग्रहणीरोगे ह्यन्नं गृह्णाति योगतः। गायोंको ऐसे बनमें चराना चाहिए कि जहां अन्नत्यागविधानेन गृह्णीयाच शनैः शनैः ॥ - अधिक बेलें (लता) और तृण न हों । एवं उन्हें ग्रहणीरोगिणां तक्रं हितं दोषत्रयापहम् । निर्मल जल पिलाना और धीरे धीरे टहलाना कालकूटविषं साक्षात् अन्यथा परिसेवितम् ॥ चाहिए । तक्रके लिए ऐसी गायोंका ही दूध ग्रहण तस्माद्यत्नेन संसेव्यं तक्रं संग्रहणीगदे। करना चाहिए। शस्तं नातः परं किश्चित् ग्रहणीरोगशान्तये ॥ वायुदोषमें कच्चा, पित्तमें थोड़ा पकाकर और न तक्रसेवी व्यथते कदाचिन कफ तथा त्रिदोषमें पकते पकते पौना दूध शेष ___तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः। रहने पर उसमें जरासी दही डालकर जमाना यथा सुराणाममृतं सुखाय चाहिए । दही अधिक खट्टी न होनी चाहिए और ... तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः ॥ | कठिन होनी चाहिए। संग्रहणीवाले रोगीके लिए तक्र, संग्राहि, लघु इस दहीमें थोड़ासा पानी डालकर खूब और दीपन है। सदैव गायका हो तक सेवन मथना और उसमें से घी निकालकर तक्रमें सोंठका करना चाहिए क्यों कि वह त्रिदोष नाशक होता चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिए। है। चाहे कितनी ही औषधे क्यों न सेवन कराई धीरे धीरे अन्न कम करके तक बढ़ाते जाना जाय; दुस्साध्य ग्रहणी रोग तक्रके बिना शान्त चाहिए यहां तक कि अन्तमें तक्रके अतिरिक्त नहीं होता। अन्य सब प्रकारका खान पान बन्द कर देना __ जिस प्रकार तृणके ढेरको अग्नि क्षणभरमें चाहिए और भूख प्यासमें केवल शुण्ठिचूर्णयुक्त भस्म कर देता है, और जिस प्रकार सूर्य के सम्मुख तक ही पिलाना चाहिए। अन्धकार नहीं ठहर सकता उसी प्रकार तक तक्रसेवन कालमें अधिक परिश्रम, अधिक सेवनसे संग्रहणी रोग भी अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो भाषण और मैथुन तथा क्रोध न करना चाहिए । जाता है। जिस प्रकार चूतक्रीडासे लक्ष्मी नष्ट हो जाती __ संग्रहणीके रोगीको तक सेवन करानेके लिए है उसी प्रकार विधिपूर्वक तक्र सेवन करनेसे यथोचित वर्णवाली गायें पालनी चाहियें क्यों कि संग्रहणी अवश्य ही अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है। तक्रमें गायके रंगके अनुसार पृथक् पृथक् गुण रोग शान्त होनेके पश्चात् भी एकदम होते हैं। यथा | अन्नाहार न करना चाहिए बल्कि जिस प्रकार For Private And Personal Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मिश्रप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः । धीरे धीरे अन्न त्याग किया था उसी प्रकार धीरे | (२७९७) तण्डुलादिक्रुशरा धीरे तक कम करना और अन्नाहार बढ़ाना चाहिए । विधिवत् सेवन करनेसे तक तीनों दोषोंकी संग्रहणीका नाश करता है | परन्तु नियम विरुद्ध सेवन किया जाय तो वही कालकूट बिपके समान प्राणघातक भी है। इस लिए संग्रहणी रोग में तक अत्यन्त सावधानीपूर्वक सेवन करना चाहिए । संग्रहणी के लिए तकसे अच्छी अन्य कोई भी वस्तु नहीं है । तक सेवी मनुष्य कभी दुखी नहीं होता और न ही तक्रकेद्वारा नष्ट हुवे रोग पुनः उभरते हैं । जिस प्रकार देवताओंके लिए अमृत सुखकारी है उसी प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए तक हितकारी है । (२७९६) तहरीतकी ( यो. र.; यो त । त. २२; वृ. यो त । त. ६७ ) त्रिकंसे deer fasaपटोः षष्टिरभयाः । पवेद्वयस्थ्यः सार्धं घृततिलजविश्वामिकुडवैः ॥ समावाप्याजाजीमरिचचपलादीप्यकपलैलिहां वद्रित विकारांश्च जयति ॥ उत्तम जातिकी ६० हर्र लेकर उनकी गुटली निकाल डालिये, फिर उन्हें १२ सेर तक में पकाइये और पऋते समय उनमें ४० तोले सेंधा नमक डाल दीजिए । जब हरीतकी गल जायं और अवलेहके समान पाक हो जाय तो उसे अनसे नीचे उतारकर उसमें २०-२० तोळे धी, तिलका क्षार तथा सोंठ और चीतेका चूर्ण, और ५-५ तोले जीरा, स्याहमिर्च, पीपल और अजवायनका चूर्ण मिला दीजिये | 1 इसके सेवन से अग्नि दीप्त होती है (मात्रा - १ तोला । अनुपान जल | ) भा० ६५ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५१३ ] ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ६ ) तण्डुलारक्तशालीनां भागद्वयेन धीमता । भृष्ट्वा तिलांश्च सङ्कव्य तदर्धेन विमिश्रितान् ।। भृवा तत्समं मुद्राश्चं चैकीकृत्वा तु साधयेत् । सिद्धां च कृशरां सम्यक् घृतेन सह भोजयेत् ॥ एकान्तरतं यस्तु तीव्रानिस्तस्य नश्यति || लाल शाली चावल २ भाग, तथा तिल और मूंग १-१ भाग लेकर तीनोंको पृथक् पृथक् मन्दाग्नि पर भून लीजिए, फिर तिर्लोको थोड़ा कूटकर तीनों चीजोंको एकत्र मिलाकर रखिये । हर तीसरे दिन इसकी खिचड़ी बनाकर उसमें घी डालकर खानेसे भरमक रोग शान्त होता है । (२७९८) तण्डुलाम्बुसेकः (ग.नि. | मसू.) पाददाह प्रकुरुते पिटिका पादसम्भवा । तत्र सेकं प्रशंसन्ति बहुशस्तन्दुलाम्बुना || यदि मसूरिका में पैरोंमें फुंसियां निकलें और उनमें दाह हो तो उनपर बार बार चावलों का पानी ( धोवन ) डालना चाहिये । (२७९९) तर्कार्यादिनिषेचनम् ( ग. नि. । ऊरुस्त. २१ ) तर्कारीविल्व सुरसाशिश्रवत्सक निम्बजैः । पत्रमूलफलैस्तोयं शृतमुष्णं निषेचनम् || ऊरुस्तम्भ रोग में रोगस्थानपर अरणी, बेल, तुलसी, सहजना, कुड़ा और नीमके पत्र, मूल और फलोंसे पके हुवे पानीके तरैड़े देने चाहिएं । (२८००) ताक्ष्योऽगदः (सु. सं. । क. अ. ५. वं. से. । विष; आ. वे. वि. । अ. ८२ ) For Private And Personal प्रपौण्डरीकं सुरदारु मुस्ता कालानुसार्या कटुरोहिणी च । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ५१४ ] स्थौणेयकं ध्यामकपद्मकानि ' पुन्नागतालीससुवर्चिकाच ॥ कुटन्नटैलासितसिन्धुवाराः शैलेयकुष्ठे तगरं भयङ्गु | रोधं जलं काञ्चनगैरिकञ्च www.kobatirth.org भारत - भैषज्य - र [ तकारादि पुटमें फूंक लें; और सम्पुटके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से भरमको निकालकर महीन पीस लें । समं गन्धं चन्दनसैन्धवञ्च ॥ सूक्ष्माणि चूर्णानि समानि कृत्वा शनिदध्यान्मधुसंयुतानि । evisiदस्ता इति प्रदिष्ठो विषं निहन्यादपि तक्षकस्य ॥ पुण्डरिया, देवदारु, मोथा, कृष्णसारिवा, कुटकी, थुनेर, गन्धतृण ( मिर्वियागन्ध ), कमलपुष्प, नागकेसर, तालोसपत्र, सज्जी, केवटी मोथा, इलायची, सफेद संभालु, शैलेय ( भूरि छरीला ), कूठ, तगर, फूल प्रियंगु, लोध, नेत्रबाल, सोनागेरु, गन्धक चन्दन और सेंधानमक समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनाकर शहद में मिलाकर गाय के सींग में भरकर रख दीजिए । यह ताद सर्पविषको नष्ट करता है । (२८०१) तालकाचा मधी ( ग. नि. । नाडीत्र.; रा. मा. | नाडी. ) दहेत्पुटे तालकन्दुल तुल्यांक तत्र भवेन्मषी या । तत्पूरिता रोहति दुष्टनाडी दुष्टव्रणो वा चिरकालजातः || हरताल और चौलाईका पञ्चाङ्ग बराबर बराबर लेकर दोनों को एकत्र पीसकर सम्पुट में बन्द करके २ १ ध्यामकगुग्गुलुनीति पाठान्तरम् । थोड़ी देरतक मुख चलाते रहे फिर कुला ४ सक्षौद्रविति पाठान्तरम् । - रत्नाकरः । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इसे भाव या नासूर के भीतर भरने से दुस्साध्य धाव भी भर जाता है । (२८०२) तिलकाथधारा (वृ.यो. त. त. ९४ ) अहमतिलधारा निष्पतन्ती विदुरादपनयति हि शूलं शूलिनः शूलदेशे । शूल के स्थानपर तिलोंके उष्ण काथकी धार देने से शूल नष्ट हो जाता है । (२८०३) तिलस्नानम् (यो. र.; वं. से. (नेत्र. ) स्नानं कृष्णतिलैश्चापि चाक्षुष्यमनिलापहम् । तिलोंको पीसकर शरीरपर मलकर स्नान करना वायुनाशक और नेत्रोंके लिए हितकारी है। (२८०४) तिलादिकवलः (वं. से. । मु. रो. ) तिलभवबीजपावकसित तर सिद्धार्थकल्पितःकवलः । उष्णाम्बुसम्प्रयुक्तो द्विजतलसञ्जातशोथहरः ।। तिल, चीता, और सफेद सरसों समान भाग लेकर चूर्ण करके गर्म पानी में मिलाकर उसके कदले धारण करनेसे मसूढों की सूजन नष्ट होती है । (२८०५) तिलादिगण्डूषः ( यो. र. ग. नि. । मुख.; भा. प्र. म. ख. मुख. ) तिला नीलोत्पलं सर्पिः शर्करा क्षीरमेव च । सोधी दग्धवक्त्रस्य गण्डूषो दाहनाशनः ॥ तिल, नीलोफर (नील कमल ), घी, खाण्ड, और लोध ४-४ तोले लेकर, ८ गुने दूध में मिलालें लोध्राञ्जनमिति पाठान्तरम् । ३ करदें । मुखमे पानी भरकर इसीका नाम कवल धारण करना हैं । For Private And Personal Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [५१५] और फिर उसमें दूधसे ४ गुना पानी मिलाकर शहद डालकर खानेसे पुरानी वमन और तृष्णा पकावें । जब पानी जल जाय तो छानले। शान्त होती है। इसके कुल्ले करनेसे मुंह जल जानेसे उत्पन्न (२८०९) त्रिकवादिवत्तिः हुई दाह नष्ट होती है। । (भै. र.।आना.; वृं. मा.। आ.; व. से. । गुल्म.) (२८०६) तिलादिस्वेदः (यो. र. । गुल्म.) वत्तिस्त्रिकटुकसैन्धवसर्षपगृहधमकुष्ठमदनफलैः। तिलैरण्डातसीवीजसष्पैः परिलिप्य च । मधुनि गुडे वा पक्ता पाय्वीरितांगुष्ठपरिमाणा॥ श्लेष्मगुल्ममयस्पात्रैः सुखोष्णैः स्वेदयेद्भिपा। वर्तिरियं दृष्टफला शनैः शनैःप्रणिहिता घृताभ्यक्ता। तिल, अण्डीके बीज, अलसीके बीज और आनाहोदावर्त प्रशमनी जठरगुल्मनिवारिणी च ।। सरसों समान भाग लेकर सबको पानोके साथ त्रिकुटा, सेंधा, सरसों, घरका धुवां, कूठ और पीसकर लोहपात्रमें लेप कर दीजिये । इसे थोडा मैनफलका चूर्ण समान भाग लेकर सबको मधु या गरम करके इससे कफज गुल्मको सेकना चाहिये। गुड़में पकाकर अंगूठेके बराबर मोटी बत्ती बनावें। (२८०७) तिवृताधगदः (च. द.) , इसे घृतसे चिकना करके धीरे धीरे गुदामें त्रिवृद्विशाला मधुकं हरिद्रे चढ़ानेसे अफारा, उदावर्त और गुल्म नष्ट होता मञ्जिष्ठवर्गो लवण च सर्वम् । है । अनुभूत है। कटुत्रिकं चैव विचूर्णितानि (२८१०) त्रिफलादिसेकः श्रृङ्गे निदध्यान्मधुना युतानि ।। ( यो. र.; वृ. नि. र. । नेत्र.) एषोऽगद हन्त्युपयुज्यमानः त्रिफलालोध्रयष्टीभिः शर्करामद्रमुस्तकैः । पानाञ्जनाभ्यञ्जननस्थयोगः । पिष्टै सिताम्बुना सेको रक्ताभिष्यन्दनाशनः।। अवार्यवीर्यो विषवेगहन्ता त्रिफला, लोध, सुलैठी, खाण्ड और नागर मोथेको पानीके साथ पीसकर खांडके पानीमें महागदानाम महाप्रभावः ॥ घोलकर, बारीक कपड़े से छानकर आंखोंपर उसके निसोत, इन्द्रायण, मुलैी, हल्दी, दारुहल्दी, - झपके देनेसे रक्ताभिष्यन्द नष्ट होता है। मञ्जिष्टादिगण, त्रिकुटा और सेंधानमकका महीन (२८११) त्रिवृतादिवतिः (बृ. मा. । व्रण ) चूर्ण समान भाग लेकर सबको शहदमें मिलाकर गायके सींगमें भरकर रख दीजिये । व्रणान्विशोधयेद्वत्या सूक्ष्मास्यान्सन्धिमर्मगान् । कृतया त्रिवृतादन्तीलागलीमधुसैन्धवैः॥ इसे पीनेसे अथवा मलने या इसकी नस्य निसोत, दन्तीमूल, लाङ्गली ( कलिहारी )की लेने या अञ्जन लगानेसे विष नष्ट होता है। जड़ और सेंबेके समान भाग महीन चूर्णको शहदमें (२८४८) तृषानाशकान्नम् (बूं.मा ।तृष्णा.) । मिलाकर उसमें स्वच्छ और महीन कपड़ेकी बत्ती ओदनं रक्तशालीनां शीतं माक्षिकसंयुतम्। भिगोकर उसे धावके भीतर रखनेसे सन्धि और भोजयेत्तेन शाम्येते छर्दितृष्णे चिरोत्थिते । मर्म स्थानों के छोटे मुंहवाले घाव शुद्ध हो जाते हैं। लाल चावल ( साठी )के भातको ठंडा करके । इति तकारादिमिश्रप्रकरणम् । इत्यो३म् For Private And Personal Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ភីអន,សន្លឹIH HIឱ្យស្នើច្រើ ប រពស្នើរអរអរជួបអរបររមអដ្ឋរសេររថ្មីរពេរពេលរសេរអមេផ្ទ समाप्तोऽयं द्वितीयो भागः TG • {{ • Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी अर्थात् भारत-भैषज्य-रत्नाकर (द्वितीय भागकी) रोगानुसारिणी सूची For Private And Personal Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भूमिका एकही रोगके, पृथक् पृथक् रोगियों में प्रायः भिन्न भिन्न लक्षण और उपद्रव पाए जाते हैं, अत एव किसी एक रोगके भी, सभी रोगियोंको एकही औषध नहीं दी जा सकती। रोग एक होने पर भी लक्षणोंकी विभिन्नताके अनुसार प्रत्येक रोगीके लिए विभिन्न औषध-योजना करनी आवश्यक होती है। अतएव रोगनिदानके पश्चात् प्रत्येक चिकित्सकके सम्मुख एक आवश्यक प्रश्न उपस्थित होता है, और वह यह कि-"इस रोगके लिए शास्त्रों में जो बहुसंख्यक प्रयोग विद्यमान् हैं उनमेंसे, इस रोगीको वर्तमान अवस्थाके लिए कौनसा प्रयोग अधिकसे अधिक लाभदायक सिद्ध होगा।” नवीन चिकिस्सकोंकी कौन कहे, यह प्रश्न, अनुभवी वैद्योंके हृदयोंमें भी न्यूनाधिक चिन्ता उत्पन्न किये. बिना नहीं रहता। आयुर्वेदिक ग्रन्थों में प्रयोगांकी गुणावली इतने विस्तारसे लिखी गई है, और उनके छन्दोबद्ध होनेके कारण हो या किसी अन्य कारणसे, वह इतनी अधिक विडिल है कि उसके आधार पर उक्त प्रश्नको हल करना बड़ा ही कठिन प्रतीत होता है । यह रोगानुसारिणी सूची लिखकर मैंने इसी कठिनाईके निराकरण करनेका प्रयत्न किया है। यद्यपि यह सूची अत्यन्त दोषपूर्ण और अपूर्ण है, तथापि मुझे आशा है कि इसके अवलोकनसे दो बातोंके ज्ञात करनेमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है-एक तो यह कि किसी रोगमें किन लक्षणों और उपद्रवोंके उपस्थित होने पर कौन औषध प्रयुक्त करनी चाहिए और दूसरी यह कि किसी प्रयोगके गुणोंमें उसी अधिकारके अन्य प्रयोगोंसे क्या विशेषता है । मुझे विश्वास है कि जो वैद्यविद्यार्थी इसे मननपूर्वक अवलोकन करेंगे उन्हें चिकित्साक्षेत्रमें अवतीर्ण होनेपर यह एक योग्य मार्गदर्शकका काम देगी, और अन्य वैद्य एक उपयोगी हैण्डबुक या याददाश्तकी भांति, इसका उपयोग कर सकेंगे। साथ ही यह “भारत-भैषज्य-रत्नाकर" भी इस सूचीके योगके कारण 'प्रयोग संग्रह' की श्रेणीसे निकलकर चिकित्साग्रन्थ कहलानेका अधिकार प्राप्त कर सकेगा। इस सूचीमें रोगानुक्रमके विषयमें प्राचीन पद्धतिका अनुसरण न करके अकारादि क्रमका अवलम्बन लिया गया है, और इस स्थलके लिए वही अधिक सुविधाजनक प्रतीत होता है। अहमदाबाद वैशाख शु. १३ गोपीनाथ For Private And Personal Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अनुक्रमणिका. ५५४ ५५७ ६२४ ५२६ ع م م पृष्ठ, विषय पृष्ठ. ५२१ । ३२ मसूरिका ५२२ ३३ मस्तिष्करोग ५२३ । ३४ मुखरोग ५५५ ५२४ ३५ मूत्रकृच्छ्रमूत्राघात ५५६ ५२४ ३६ मूर्छा ३७ मेद ५५८ ३८ यकृत्प्लीहा ५५८ ३९ रक्तपित्त ५६९ ५२७ ४० रसायनवाजीकरण तथा नपुंस्कता ५५९ ४१ राजयक्ष्मा, क्षीणता ५६१ ५२८ ४२ वातरक्त ४३ वातव्याधि ५६३ ४४ विष ५६४ ४५ विसर्प ५३३ ४६ वृद्धि ५६६ ५३३ ४७ व्रण ४८ शिरोरोग ५६८ ४९ शीतपित्तोदर्द ५३८ ५० शूल ५६९ ५३८ ५१ शोथ ५७१ ५२ श्लीपद ५७२ ५३९ ५३ श्वास ५७२ ५४६ ५४ स्त्रीरोग ५४७ ५५ स्नायुक ५७४ ५४७ ५६ स्वरभेद ५७५ ५४८ ५७ हिक्कारोग ५७५ ५५० ५८ हृदयरोग ५७५ ५३० । ४५ विषय १ अग्निमांद्य विसूचिकाजीर्णः २ अतिसारः ३ अपस्मारः ४ अम्लपित्तः ५ अरोचक तथा स्वरभेद ६ अर्श ७ अश्मरि ८ उदररोग. ९ उदावर्त १० उन्माद ११ उपदंश १२ कर्णरोग १३ कास १४ कुष्ठ तथा त्वग्दोष १५ कृमिरोग १६ गलगण्डगण्डमाला १७ गुल्म १८ ग्रहणी १९ छर्दि २० जलोदर २१ ज्वरातिसार २२ ज्वर २३ तृष्णा २४ दाह २५ नासारोग २६ नेत्ररोग २७ पाण्डुरोग २८ प्रमेह, मधुमेह, मूत्रातिसार २९ बालरोग ३० भगन्दर ३१ भग्नरोग ५६५ w ५३५ w ५३८ ५७२ ५५३ धातुशोधनमारण ओषधिकल्प मिश्राधिकार ५७६ ५७८ For Private And Personal Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम १९८६ जठराग्निवर्द्धनचू. १९९३ जरणादिचूर्णम् २००९ ज्वालामुखी चूर्णम् २३८६ स्वगाद्यमुद्वर्तनम् १३०१ गन्धकवटी १३०२ 72 चूर्णप्रकरणम् १७२६ चित्रकादिचूर्णम् अग्निमांद्य, पसली - शूल, गुल्म, अर्श जठराग्निवर्द्धक " 22 १३०३ १३०४ १३०५ गन्धकादिवटी २०२१ जीरकाद्या गुटिका " गुटिकाप्रकरणम् " १ अनिमांद्यविसूचिकाजीर्णाधिकारः संख्या प्रयोगनाम ܕܕ भा० ६६ चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी मुख्य गुण २४३० त्रिफलावलेह : www.kobatirth.org पाचक, दीपन, रोचक अग्निदीपक है हैज़े में होने वाली हाथ पैरों की ऐंठन रोचक, पाचक स्वादिष्ट हैं, हैजा, अतिसार, अजीर्ण | २४१० त्रिवृतादि मोदक: अग्निमांध कोटबद्धता, अजीर्ण अग्निदीपक हैं । अवलेहप्रकरणम् विसूचिका अजीर्ण, अलसक, विसूचिका, अफारा भस्मक घृतप्रकरणम् २०३६ जीरकघृतम् अग्निवर्धक, अर्शनाशक २४६३ त्र्यूषणाद्यं घृतम् मन्दाग्नि १३७९ गन्धकतै लम् १८०७ चित्रकाद्यं तैलम् १८०९ चुकादि १८१० ور तैलप्रकरणम् "" "" For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८१५ चुक्रसन्धानम् २४८३ तक्रारिष्टः मुख्य गुण आसवारिष्टप्रकरणम् अग्निदीपक प्रवृद्धशूल विषूचिका में होने वाली पै विसूचिका १८७७ चण्डाग्नि रसः लेपप्रकरणम् २४९६ तालमूलादि लेपः विसूचिका अञ्जनप्रकरणम् अग्निदीपक है अग्निदीपक, रोचक १४५९ गरुडाञ्जनम् अजीर्ण १४६७ गुटिकाञ्जनम् विसूचिका रसप्रकरणम् अग्निदीपक Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५२२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी wwwvvvwwwinwwnonMAAAAAAAAAAAAAAA/0/ronvinnonA संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २१८० ज्वालानल रसः अजीर्ण, हल्लास, वम मिश्रप्रकरणम् न, आलस्य, अरुचि। २१८३ जम्बीरद्राव अजीर्ण, अग्निमांद्यादि २२०१ टकणादिवटी अग्निवर्धक है। २७९६ तक्रहरीतकी अग्निवर्धक, मलशोधक २७५१ त्रिफलालौहः भस्मक २७९७ तण्डुलादिकृशरा भस्मक __२ अतिसाराधिकारः कषायप्रकरणम् १२३४ गङ्गाधरचूर्णम् प्रवाहिका, संग्रहणी, ११०८ गङ्गाधरकाथः वेगवान अतिसार अतिसार । ११५९ गिरिमल्लिकायंक्षीरम् रक्तातिसार १२३५ , , संग्रहणी, शूल, प्र१२११ गोकण्टकादि आम, कफातिसार वाहिका, अतिसार १६७२ चविकापल्लवयोगः अतिसार प्रसूतिरोग । १६७४ चव्यादिक्काथः कफातिसार, वमन १२५५ गुडबिल्वम् रक्तातिसार,आम, शूल। १६८५ चित्रकादिकाथः वातकफातिसार १६९४ चन्दनयोगः रक्तातिसार, रक्तपित्त, १६८६ , , आम और वेदनायुक्त प्यास, दाह अतिसार १७१५ चिश्चावीजयोगः अतिसारको तुरन्त १९६८ जम्ब्वादि स्वरसः कफातिसार, रक्तातिसार रोकता है। १९६९ , , रक्तातिसार १७२१ चित्रकादिचूर्णम् वेदनायुक्त कफपित्तज १९७२ जलत्रिक योगः दाह और शूलयुक्त अतिसार पित्तातिसार १९८९ जम्ब्वादिचूर्णम् रक्तपित्त, अतिसार २२११ तण्डुलीय मूलप्रयोगः रक्तातिसार १९९१ जयाखण्डचूर्णम् आमातिसार तथा २२२८ तिलादिकल्कः , रक्तातिसारमें अकसीर १९९७ जातिफलादि अतिसाररोधक,दीपन, चूर्णप्रकरणम् पुटपाक पाचन १२३० गङ्गाधरचूर्णम् सर्व प्रकारके अतिसार १९९८ जातीफलादियोगः वेगवान पुराना अति१२३१ ,, , वेगवान् अतिसार सार, शूल और १२३२ ,, , रक्तयुक्त अतिसार । १२३३ , , पुराना भयङ्कर अति- २३५२ त्रिफलादिचूर्णम् भयङ्कर रक्तातिसार, सार, संग्रहणी, शोथ, रक्तप्रवाह (बालकोंके खांसी, ज्वर, तृष्णा। लिये विशेष उपयोगी है।) For Private And Personal Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम २३७८ त्रुटयादि चूर्णम् २३८० त्र्यूषणादि,, गुटिकाप्रकरणम् १७३४ चतुः समागुटिका आमातिसार, अफारा, विसूचिका २०१५ जातीफलादिवटी प्रबल अतिसार २४६२ त्र्यूषणादिघृतम् अवलेहप्रकरणम् २०२७ जम्बूत्वचाद्योऽवलेहः आमयुक्त, दुर्गन्धित, जलके समान तथा पीपवाले भयङ्कर अतिसारमें अत्युत्तम घृतप्रकरणम् २०५९ जीवनीयो यमकः २४७९ त्रिफलातैलम् १४७३ मुख्य गुण आम निकाल देता है। प्रबल आमातिसार तैलप्रकरणम् १४७२ ग्रहोपशमनार्थ मञ्जनम् www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी ," अञ्जनप्रकरणम् प्रवाहिका (पेचिश) अपस्मार अपस्मार (नस्य ) "" "" संख्या प्रयोगनाम 19 "" १५०० १९३९ चिन्तामणिरस: ३ अपस्माराधिकारः रसमकरणम् १४९६ गगनायसरसायनम् पित्तातिसार १४९८ गङ्गाधरचूर्णम् १४९९ गङ्गाधर रसः २११५ जातीफलरसः २७०४ तृप्तिसागररसः 35 २१८४ जलतैलप्रयोगः २२०५ दिण्डुकादि पुटपाकः Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal [ ५२३ ] मुख्य गुण दुस्साध्य अतिसार अतिसार, प्रवाहिका, ग्रहणी मिश्रप्रकरणम् सर्वातिसार, ग्रहणी सन्निपातज अतिसार, संग्रहणी आमातिसार, रक्तग्रहणी सन्निपातातिसार मिश्रप्रकरणम् अपस्मार, ग्रह, राक्षस १६१६ गिरिकणमूलयोगः गले में बांधने से अपची होती है । रक्त और आमयुक्त पुराने अतिसारको शीघ्र नष्ट करता है । समस्त प्रकारके अतिसार रसमकरणम् १८७२ चण्डभैरवः अपस्मार २७१३ त्रिकत्र्याचं लौहम् अपस्मार, उन्माद, वायु Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ५२४ ] संख्या प्रयोगनाम कषायप्रकरणम् | ११९३ गुडूच्यादिकाथ: १६८४ चित्रकादिकाथः अम्लपित्तज छर्दि अम्लपित्त, कोदाह १९४९ छिन्नादिकषायः अम्लपित्त १९५६ छिन्नोद्भवादिकाथ: पित्त, अम्लपित्त २२७९ त्रिफलादिकाथः अम्लपित्त, छर्दि, ज्वर १९८३ जीवनीयक्षीरम् मुख्य गुण चूर्ण प्रकरणम् २३३९ त्रिकट्वादिचूर्णम् प्रवृद्ध अम्लपित्त (शीघ्र कषायप्रकरणम् १९५८ छत्रादिचूर्णम् २२२५ तिन्तडीपानम् २३८२ त्र्यूषणादिचूर्णम् २३८७ त्वगेलाद्यं २३८८ त्वङ्मुस्तादि,, - 27 चूर्णप्रकरणम् - ११६१ गुडाईकयोगः १२१८ गोजिह्वादिकाथः चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी www.kobatirth.org ४ अम्लपित्ताधिकारः पैत्तिक स्वरभङ्ग कषायप्रकरणम् सर्व प्रकार की अरुचि अरुचि । (स्वादिष्ट ) अरुचि संख्या प्रयोगनाम अत्यन्त रुचिवर्द्धक रोचक, मुखशोधक करता है ।) ५ अरोचक तथा स्वरभेदाधिकारः १३११ गुडादिमोदकः गुटिकामकरणम् घृतप्रकरणम् १३५८ गुडादिश्रुतम् वातज अम्लपित्त Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मुख्य गुण २५६७ ताम्रद्रुतिः दुस्साध्य अम्लपित्त, शूल । २७४२ त्रिफलादिमण्डूरम् अम्लपित्त २७४८ त्रिफलामण्डूरम् २७८५ त्र्यूषणादि,, २४१८ व्यूषणादिवटी ६ अर्शोधिकारः रसप्रकरणम् पित्तकफ, अग्निमांद्य २७९४ तक्रयोगः For Private And Personal गुटिकाकरणम् अम्लपित्तज शूल अम्लपित्त, परिणामशूल घृतप्रकरणम् २०३८ जीरकाद्यं वृतम् कफपित्तज अरुचि, वमन मिश्रकरणम् अत्यन्त रोचक, अग्निवर्द्धक १६६६ चन्दनादि बवासीर, कब्ज । दार्यादिश्चकाथः रक्तार्श ६ प्रकारकी अर्श, | १६८१ चित्रकमूलादियोगः अर्श १६८७ चित्रकादिप्रयोगः अर्श गुदाकी पीड़ा, खुजली, रक्तस्राव रोचक, अग्निदीपक Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५२५] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण चूर्णप्रकरणम् अवलेहमकरणम् १२५६ गुडशुण्ठ्यादियोगः आम, अजीर्ण, अर्श, १३३९ गुडभल्लातकः अर्श, पाण्डु, प्रमेह, कोष्टबद्ध संग्रहणी १२५७ गुडहरीतकीयोगः अर्श, पित्त, कफ. १७५२ चव्यादिलोहम् अर्श, गुदशूल पाण्ड, खुजली, पीड़ा सूजन, प्लीहा १२६३ गुडाद्यं चूर्णम् अर्श, मलावरोध, १७५६ चित्रकादि भल्ला- अर्श, संग्रहणी, पाण्डु १६३४ घृतभर्जितहरीतकी वायुका अनुलोमन तकावलेहः । अरुचि, शूल । करती है। घृतप्रकरणम् १६९१ चतुस्समप्रयोगः अर्श, ज्वर, पाण्डु १७६५ चव्यादिधृतम् अर्श, वातरोग, अश्मरी १७२९ चिरविल्वाचंचूर्णम रक्ताशके मस्से २३१८ तिलसप्तक , अर्श, मन्दाग्नि, ज्वर, , तैलप्रकरणम् १८०८ चित्रकाधं तैलम् अर्शके मस्से काट पाण्डु २३२३ तिलादिप्रयोगः पुरानी पित्तज अर्श __ (शीघ्रगुण करता है। आसवारिष्टप्रकरणम् २३२४ लिलादिप्रयोगः अर्श, श्वास, खांसी, २४८५ ताम्बुलासवः अर्श, कफज रोग पाण्डु, ज्वर २३३३ वपुषादियोगः लेपपकरणम् पित्तज अर्श १४३३ गुञ्जासूरणलेपः अर्शाङ्कुर ( मस्से ) १४५३ गौरीपाषाणलेपः गुटिकाप्रकरणम् , . , २०८० ज्योतिष्कवीजलेपः रक्तार्श १७३५ चतुस्समो मोदकः अर्शनाशक, बलवर्धक १७३८ चन्द्रप्रभा गुटिका अर्घा, ज्वर, मन्दाग्नि, रसप्रकरणम् अतिसार शुक्रदोषादि १५६७ गुदजहररसः अर्श, गुदशूल अनेक रोग १८६६ चक्राख्यरसः इन्द्वज और सन्नि२३९६ त्रिकटुकादिमोदकः गुदरोग, अग्निमांद्य पातज अर्श १८६९ चक्रेश्वरो रसः वातार्श(बादीबवासीर) गुग्गुलुपकरणम् १८७१ चण्डभास्करोरसः अर्श, शोथ, पाण्डु, ज्वर १३३५ गुग्गुल्वादिवटी अर्श (शीघ्रगण करती है। २११७ जातीफलादिवटी अर्श, अग्निमांद्य । । २६८८ तीक्षणामुखरसः सर्व प्रकारका अर्श For Private And Personal Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ५२६ ] संख्या प्रयोगनाम २६८९ तीक्ष्णमुखरसः २६९० तीक्ष्णमुखरसः २७९३ तक्रप्रयोगः मिश्रप्रकरणम् २२२९ तिलादि काथः " कषायप्रकरणम् १२२२ गोपालकर्कटीयोगः ३ दिनमें अश्मरीका नाश कर देता है । शर्करा, अमर १२८३ गोक्षुरादिचूर्णम् २३२० तिलादि क्षारयोगः अमरी २३२१ * चूर्णप्रकरणम् "3 ११५४ गवाक्षीकल्कः १२२४ गोमूत्रयोगः १६७३ चव्यादिकाथः मुख्य गुण सर्व प्रकारकी अर्श पित्तज अर्श "" कषायप्रकरणम् १२४८ गवाक्ष्यादिचूर्णम् १७१९ चित्रकादिक्षारः २३२८ तुम्बर्वादिकं चू. चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी अश्मरिपातक www.kobatirth.org शर्करा, अश्मरी चूर्णप्रकरणम् ७ अश्मर्यधिकारः सर्व उदररोग शोथोदर उदररोग संख्या प्रयोगनाम १६१८ गुञ्जादिवर्तिः १६२३ गोमय पिण्डादिस्वेद : मस्सोंके लिए सेक २१९२ जालिनीफलवर्तिः मस्से नष्ट होते हैं । ८ उदररोगाधिकारः * मिश्रमकरणम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३३५ पुषीवीजादि योग शर्करा (शीघ्र गुणकारी है ) त्रिकण्टकादिचूर्णम् अश्मरी ( ७ दिनका प्रयोग ) २३४३ घृतप्रकरणम् २४३९ तृणपञ्चमूलाद्यं घृतम् शर्करा, अश्मरी उदररोग लोहा, शूल, गुल्म, अर्श उदररोग, शूल, गुल्म, अफारा जलोदर तथा यकुल्लीडाधिकार पृथक् लिखा गया है । रसप्रकरणम् १५४३ गन्धकादियोगः अश्मरी, शर्करामूत्रकृ. २७५९ त्रिविक्रमोरस: शर्करा, अश्मरी मुख्य गुण गुदामें रखने से अर्श नष्ट होती है । १७५४ चित्रकलेहः १७५९ चित्रकावलेह : २३२९ तुम्बर्वादिकं चू. उदररोग, शूल, गुल्म, अफारा For Private And Personal १७७९ चित्रकादिघृतम् अवलेहप्रकरणम् घृतप्रकरणम् उदररोग, प्लीहा, गुल्म उदररोग, गुल्म, तिल्ली | कफोदर Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम १४०७ गुग्गुल्वासवः १८१३ चविकासवः तैलप्रकरणम् २०६३ ज्योतिष्मतीतैल. विरेचक आसवारिष्टप्रकरणम् १९४१ चूलिकावटी २६०७ ताम्रेन्द्ररसः रसप्रकरणम् १२६७ गुडाष्टकम् २४०८ त्रिवृतादि गुटिका १६७६ चाङ्गेरीप्रयोगः "" गुटिकाप्रकरणम् १७५१ चन्द्रावलेह : मुख्य गुण कषायप्रकरणम् १७८३ चैतसघृतम् १७८४ समस्त उदररोग, प्लीहा उदररोग, गुल्म, " चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी शोधोदर, गुल्म, प्लीहा उदररोग, कफवायु । अवलेहप्रकरणम् www.kobatirth.org घृतप्रकरणम् उदावर्त, शूल, शोध मलावरोध उन्मादको ३ दिनमें करता है। ९ उदावर्ताधिकारः पित्तज उन्माद, शरीरकी दाह । संख्या प्रयोगनाम २७३८ त्रिपुरसुन्दरो रसः २७५४ त्रिभुवनकीर्तिः २७६७ त्रैलोक्यम्बर २७७४ त्रैलोक्यसुन्दर चित्तविकार उन्माद, मद, मूर्च्छा, अपस्मार २१८३ जम्बीरद्रावः १० उन्मादाधिकारः २४१५ " मिश्रप्रकरणम् २५४८ त्र्यूषणाद्यञ्जनम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४११ त्रिवृतादि मोदक उदावर्त, शूल, कोष्ट विकार टिका अफारा For Private And Personal मुख्य गुण आमाशय रोग समस्त उदररोग १८७३ चण्डभैरवो रसः " वातोदर अञ्जनप्रकरणम् १८७९ चतुर्भुजरसः १८८१ चतुर्मुखो रसः १९४३ चैतन्योदयरसः २९६१ ताण्डवारिलौहम् [ ५२७ ] यकृत, प्लीहा, गुल्म, शूल, अफारा, अष्टीला पार्श्वशूलादि । " नस्यप्रकरणम् १४७८ गिरिकर्णीमूलयोगः भूतबाधा, ग्रह । १४८३ ग्रहोपशमनार्थंनस्यम् भूत, ब्रह्मराक्षस रसमकरणम् अपस्मार, उन्माद भूतोन्माद, ग्रह उन्माद, अपस्मार अपस्मार, उन्माद तत्वोन्माद ताण्डवरोग Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ५२८ ] संख्या प्रयोगनाम कषायप्रकरणम् १२१० गैरिकादिकाथ: १९७० जयादिकाथ: १९७९ जाती प्रवालरसादि २२६७ त्रिफलाकाथ: १२३७ गन्धक योग: १७३२ चोपचीनी योगः १७३३ चोपचिन्यादि. चूर्ण प्रकरणम् मुख्य गुण १७६० चोपचीनीपाकः अवलेह प्रकरणम् १३९९ गृहधूमादितैलम् पित्तज उपदंश लिङ्गको धोने लिए उपदंश उपदंशके घाव धोने योग्य पानी । तैलप्रकरणम् www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी उपदंश फिरङ्गरोग उपदंश, ऋण, कुष्ट ११ उपदंशाधिकारः उपदंश, ऋण, कुष्ठ, गुटिकाप्रकरणम् २३९५ त्रिकटुकादिगुदी बधिरता उपदंशकी खुजली और सूजन चूर्ण प्रकरणम् १२९८ गोश्रृंगवचादि चू. कर्णवर्द्धक संख्या प्रयोगनाम १४०० गोजिह्वातैलम २०४८ जम्ब्वाद्यं तैलम २०१४ जात्यादितैलम् २०५५ जात्यादितैलम् १४४४ गैरिकादिलेप: १४४८ गोपीचन्दनलेपः २०७१ जातीफलादि,, २५०८ तुत्थादिमलहरम् २५०९ तुत्थादिलेप: २५२३ त्रिफलामषीलेपः १२ कर्णरोगाधिकारः १९४५ चोपचीनीवाप्पः Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal मुख्य गुण लेपप्रकरणम् सर्व प्रकार के उपदं शों में घाव भरनेके लिए । उपदंशवण उपदंशवण उपदेश, भगन्दर पित्तज उपदंशवण उपदेशत्रण उपदंशके व्रणोंको शुद्ध करता और भरता है । उपदेश, फिरङ्गरोग उपदेश उपदेश व्रणको शीघ्र भरता है मिश्रप्रकरणम् लिङ्गत्रण तैलप्रकरणम् १३७८ गन्धक तैलम् कर्णनाडी (कानका नासूर ) १३८० गन्धक तैलम् कर्णनाडी (कानका नासूर ) १३९२ गुञ्जाफलतैलम् कर्णपालीको बढ़ाता और कोमल करता है प्रतिकर्ण १७८७ चतुष्पर्णतैलम् Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम १७८८ चतुष्पल्लवतैलम् २०४५ जम्ब्वादितैलम् २०४६ २०४७ जम्ब्वाद्यंतैलम २०५० जातीपत्रादितैलम् पूतिकर्ण 75 " २३४० त्रिकटुवादि २३५७ त्रिफलादि भा० ६७ कषायप्रकरणम् १९९० गुडूच्यादिकाथः खांसी, श्वास १२०८ गुरुपञ्चमूलीकाथः कास, स्वास २२३६ तृणपञ्चमूलादिपयः पित्तज खांसी . चूर्ण प्रकरणम् १२९९ ग्रन्थिकादिचूर्णम खांसी १७२३ चित्रकादि कफज खांसी १७२८ चिन्तामणि २००७ जीवन्त्याद्यं " " " मुख्य गुण 22 चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी पूतिकर्ण कर्णपालीकी सूजन पूतिकर्ण कर्णस्राव www.kobatirth.org ܪܕ गुटिकामकरणम् १६३५ घनादिगुटिका २०२३ जीवकाद्यो मोदकः २४०० त्रिजातादिगुटिका उवास, कास ५ प्रकारकी स्वांसी ग्वांसी १३ कासाधिकारः ३ दिनमें खांसी श्वास को नष्ट करती है। कास, क्षत, क्षीणता, खांसी, रक्तवाली खां सी, ज्वर, क्षत, पार्श्वशूल, हिका, भ्रम । इत्यादि संख्या प्रयोगनाम लेपप्रकरणम् १४४२ गैरिकादिलेपः कर्णमूल मिश्रप्रकरणम् १६२२ गोमक्षिकाहरयोगः कानसे मच्छर निकालने की विधिः । १७५८ चित्रकाद्यवलेहः १३६४ गुडूच्यादिघृतम् १३६५ अवलेह प्रकरणम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ". ܕܕ For Private And Personal १८४४ चिञ्चादिवर्तिः तैलप्रकरणम् || १७९९ चन्द्रनाद्यं तैलम् खांसी, राजयक्ष्मा २०८४ जात्यादिधूम्र २०८५ धूपप्रकरणम् मुख्य गुण खांसी, श्वास, उदररोग " [ ५२९ ] वातजकास, अग्निमांद्य कास, श्वास, क्षय, गुल्म धूम्रप्रकरणम् कास कास " रसप्रकरणम् १५६६ गुणमहोदधिरसः खांसी, श्वासादि सैंकड़ों रोग Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५३०] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी करणम् संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १९०१ चन्द्रामृतवटी पांच प्रकारकी खासी, २५९० ताम्रभैरवो रसः खांसी, श्वास, पीनस रक्तथूकना, चर, । २५९७ ताम्ररसायनम् खांसी, श्वास, कफ श्वास, तृष्णा, भ्रम २६०९ तानेश्वरो रसः शतज खांसी १९०२ चन्द्रामृतलोहम् गरदोपज खांसी, ज्वर २६७८ तालेश्वररसः कास, स्वरभङ्ग तृष्णा, भ्रम और दाह २६८६ तिक्तत्रयरम: पित्तज खांसी, ज्वर, युक्त खांसी, तथा अन्य गलरोग, तृष्णा. दाह हर प्रकारको ग्वांसी २७२५ त्रिनेत्रग्मः पित्तज काम २५७० तानपर्पटी कास, समस्तरोग २७२७ ., ., १४ कुष्ट तथा विग्दोषाधिकारः कपायप्रकरणम् मण्डल, खुजली ११९६ गुडूच्यादिकाथः त्वग्दोप, बग, शोथ १७४२ चित्रकटिका १९७५ जलशैवालयोगः खुजली २०११ जयन्तीवटी कुष्ट २२८७ त्रिफलादिकाथः पित्तकफकुष्ट २०१२ जयागुटी , क्षय , २२९६ , २३९९ त्रिजातगुटिका दोषपाचक कण्डूनाशक (रेचक) घृतप्रकरणम् चूर्णप्रकरणम् १३५३ गुग्गुलुतिक्तकं वृत त्वग्दोप, कुष्ट, गण्ड. १२३६ गन्धकचूर्णम् पामा, खुजली माला, शून्यता १२४० गन्धकप्रयोगः कुष्ट १३५४ गुग्गुलुपञ्चतिक्त सड़े हुवे कुष्ट, विसर्प, १९८८ जम्बूदलाद्वर्तनम् पसीना, दुर्गन्ध (उबटन: १२५५ : " कुष्ट, वातरक्त, गण्ड २३१६ तिलबाकुचीयो. कुष्ट (१ वर्षका प्रयोग गाला, भगन्दर, नासूर २४३२ तितकं घृतम २३२५ तिलादिप्रयोगः कुष्ट, ( बल और पित्तकुष्ट, दाह, वि. सर्प, खुजली, विमेधावर्द्धक) स्फोटक, चित्र २३४८ त्रिफलादिचूर्णम दाह, खुजली, पामा, २४५५ त्रिफलायं घृतम् । जिस में नम्ब, केश रक्तष्टि विम्फोटक, और स्नायुगल गए मण्डलादि हां वह कुष्ट । * वातरक्त पृथकः लिखा है। For Private And Personal Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५३१] १८२० , संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण तैलप्रकरणम् १४५१ गोशकृदादिलेप: पामा, कच्छ १३७७ गण्डीगदितैलम मण्डल, किटिभकुष्ट, . १८१७ चक्रमर्दादि ., सर्वकुष्ट १३८२ गन्धपिष्टितेलम खुजली दनु १३८५ गुग्गुल्वादिसूर्यपाक तैलम् कुष्ट किटिभ १८०२ चित्रकतैलम् पुराना श्वेतकुट,मण्डल १८२२ चतुरङ्गुलपर्णादि । सिध्म कण्डु, विसर्प १८३५ चन्द्रशूरादिलेपः दादको अवश्य नष्ट २०५७ जीरक तैलम् तरखुजली करता है। २०६० जीवन्यायो- किटिभ, सिध्म, वि- १८३६ चिञ्चापत्ररसयोगः दादके कृमि नष्ट यमकः पादिका करता है। २०६१ ज्योतिष्मतीतैलम् श्वेतकुष्ट (अत्यन्त सरल योग) २४७२ तृणकतैलम् कुष्ट १८३८ चित्रकादिलेपः मण्डल कुष्ठ लेपप्रकरणम् २०६८ जलादिलेपः पित्त कफज कुष्ट १४११ गन्धकादिलेपः सिम २४८९ तमालपत्रादियोगः सिध्म, किलास २४९१ ताम्बूलचूर्णादिलेपः शरीरकी दुर्गन्धि श्वेतकुष्ट २४९३ तालकादिलेपः सिध्म १४१७ गन्धपापाण,, पामा, कछु २४९४ ,, , वित्र १४२२ गिरिकांयोगः इवेतकुष्ट २५१० तुम्बर्वाद्युद्वर्तनम् किटिभ, सिध्म, भि. १४२४ गुग्गुल्बादिलेपः लावेकी सूजन, दाद, १४२५ गुञ्जादिलेपः स्वित्रकुट कपाल कुष्ट २५१४ त्रिफलादिप्रयोगः विपादिका १४२७ , , गजचर्म, दद्रु, कण्डू, २५१८ त्रिफलादिलेपः स्वित्र रकस १४३१ गुजाफलादिलेपः स्वेतकुष्ट रसप्रकरणम् १४३५ गुडादिलेपः पैरफटना १५०२ गजचर्मारिरसः गजचर्म १४३८ गृहधूमादिलेपः दिवत्र, मण्डल, सुप्ति । १५१४ गन्धककल्पः पामा, खाज १४४९ गोमूत्रादिलेपः रकस १५२६ गन्धकप्रयोगः For Private And Personal Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५३२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी Pvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम १५२७ गन्धकयोगः कण्डू, पामा, विचर्चिका ! २६४० तालकेश्वर रसः १५३० गन्धकयोगः कण्डू, पामा, पुरानी विचर्चिका १५३१ , , पामा(३दिनकाप्रयोग) २६४१ ,, , १५३३ गन्धकरसायनम् १८ प्रकारके कुष्ठ १५६० गलत्कुष्ठनाशकरसः गलत्कुष्ट १५६१ गलत्कुष्टारिरसः गलत्कुष्ठ, वातरक्त, किलास २६४३ , १६४१ घनसङ्कोचनामरसः पित्तजकुष्ट १८७४ चण्डभैरवो रसः सर्वकुष्ठ २६४४ १८७५ चण्डरुद्ररसः विचर्चिका २६४५ , , १८८७ चन्द्रकान्तरसः कुष्ठ १८९० चन्द्रप्रभावटी श्वेतकुष्ठ २६४६ , , १८९१ , , पामा १८९५ चन्द्रशेखरो रसः कुष्ठ,शतारुक,गलत्कुष्ठ १८९९ चन्द्राननो रसः . कुष्ठ २६४७ १९११ चर्मकुठाररसः चर्मकुष्ट २६४८ १९१२ चर्मभेदीरसः २६४९ १९१३ चर्मान्तको रसः २६५० २१०२ जन्तुघ्नीगुटिका २-३ बारके प्रयो- २६५१ गसे कुष्टके कृमि निकल जाते हैं। २१२९ ज्योतिष्पुञ्जोरसः चर्मकुष्ट २५६० ताण्डवरसः गलत्कुष्ट २६५२ " " २५७७ ताम्रभस्मयोगः दुस्साध्य औदुम्बर कुष्ठ २६५३ . ., २५९५ ताम्रयोगः कोठ,, उदर्द, शीतपित्त २६ ११ तारकेश्वरीगुटिका सर्व प्रकारके कुष्ठ | २६५४ , " २६३९ तालकादिवटी शीतपित्त । २६५५ , , मुख्य गुण १८ प्रकारके कुष्ट, वातरक्त, प्रमेह पिडिका गलत्कुष्ट, सुषुप्ति, मण्डल, कृष्णकुष्ट, विचर्चिकादि सर्व कुष्ट । गलत्कुष्ठ, वातरक्त, शीतपित्त, मण्डल,दाद वातरक्त, रोमविध्वंस उपद्रवसहित वातरक्त उपदंश, विसर्प, कण्डू समस्त देहमें व्याप्त कुष्ठ जिसमें शिराएं दीखती हों। वातरक्त, श्वेतकुष्ठ समस्त कुष्ट खुजली, पीप, पिडिका और कृमियुक्त कुष्ठ; नासिका आदि गल जाना। सर्व प्रकारके कुष्ठ सर्वकुष्ठ ( अत्यन्त अग्नि दीपक) गलत्कुष्ठ सर्वकुष्ट For Private And Personal Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५३३] - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २६५६ तालकेश्वर रसः ___ श्वेतकुष्ठ (३ दिन २७१५ त्रिगन्धरसः औदुम्बर कुष्ट बाद छाला पड़ता है) २७४० त्रिफलादि गुटिका द्रु, किलासकुष्ठ २६५८ तालचन्द्रोदयः कुष्टरोगमें अकसीर २७४३ , मोदकः समस्त त्रिदोषज २६६६ तालमन्त्रेश्वर मण्डलकुष्ठ २६८१ तालेश्वरो रसः वातमण्डल. वातरक्त । २७७२ त्रैलोक्यविजय सर्वकुष्ट २६८२ , , सर्वकुष्ट २७७३ , २६८३ , , २६८४ , , वायु, वातरक्त, कुष्ठ, मिश्रप्रकरणम् भगन्दर २६८५ , , वमन और स्राव तथा | १९४५ चोपचीनीवाष्पः कुष्ठ, वातरक्त, व्रण कृमियुक्त गलत्कुष्ठ १५ कृमिरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् | २४५६ त्रिफलाद्यं घृतम् कृमि २२५४ त्रिकट्वादिकाथः पेटकेकृमि लेपप्रकरणम् २२८० त्रिफलादिकाथः ॥ " २४९५ तालमूलादिलेपः कृमिनाशक चूर्णप्रकरणम् रसपकरणम् १९५९ छोहाराचं चूर्णम् कृमिरोग २१०२ जन्तुम्नीगुटिका २-३ बारके प्रयोगसे उदरके कृमि निकल घृतपकरणम् जाते हैं। २४५२ त्रिफलाघृतम् कृमि १६ गलगण्डगण्डमालाधिकारः कषायप्रकरणम् | १९७१ जलकुम्भी क्षारयोगः गलगण्ड ११११ गण्डमालाहर. पुरानी गण्डमाला | २२२४ तिक्तालाबुयोगः , १११२ , गण्डमाला २२९९ त्रिफलायोगः गण्डमाला गलगण्ड १११३ , गण्डमाला, अपची, गुग्गुलुप्रकरणम् कामला | २४२४ त्रिफलादिगुग्गुलुः गण्डमाला, ऊरुस्तम्भ ११५८ गिरीकर्णिका मूल गण्डमाला For Private And Personal Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५३४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी गलगण्ड संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण घृतप्रकरणम् लेपप्रकरणम् २०३५ जीमूतकादिघृतम् प्रवृद्ध अपची १४१३ गन्धकादिलेपः गण्डमाला १४२० गिरिकर्णिकालेपः उपद्रवयुक्त गण्डमाला तैलप्रकरणम् २०६७ जलकुम्भीभस्मलेपः पुराना गलगण्ड १३७५ गण्डमालापहं तैलम् गण्डमाला २०७७ जयपालपत्रलेपः गण्डमाला १३९० गुञ्जा , दुस्साध्य गण्डमाला १३९१ गुञ्जाचं , अपचीकी सब अव नस्यप्रकरणम् . . स्थाओमें उपयोगी है १४७४ गण्डमालाहरनस्य गण्डमाला १७८५ चक्रमर्दादिसिन्दूर. दुस्साध्य गण्डमाला १४७५ , गण्डमाला, अपची १८०० चन्दनायं तैलम् अपचीको समूल नष्ट करता है। रसप्रकरणम् २४७१ तुम्बीतैलम् । १५०३ गण्डमालाकण्डनरसः दुस्साध्य गण्डमाला १७ गुल्मरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् | २४४१ नायमाणाचं घृतम् पित्तज तथा रक्तज २२२७ तिलकाथः रक्तगुल्म, गुल्म २२४७ त्रायमाणाकाथः पित्तगुल्म २४५९ त्रिवृतादिमिश्रकस्नेहः कफज गुल्म २४६० त्रिवृताद्यं घृतम् गुल्म चूर्णप्रकरणम् | २४६५ पूषणायं ,, वातज गुल्म १२७६ गुल्मनाशकचूर्णम् गुल्म, अश्मरी । १२७७ गुल्महरचूर्णम् सर्वगुल्म, उदररोग रसप्रकरणम् गुटिकाप्रकरणम् १५६८ गुल्मकालानलो सर्व प्रकारके गुल्म १३०६ गुडचतुष्टयःवटिका गुल्म, अर्श, अग्निमांद्य १५६९ , , सर्वगुल्म, विशेषतः १७४१ चिञ्चाक्षारवटी सर्वगुल्म, शूल, अजीर्ण वातगुल्म १५७० गुमकुठारग्स: सर्वगुल्म, हृदय घृतप्रकरणम् पसली और उदरशूल, १७८१ चित्रकाद्यं घृतम् वातगुल्म, शूल, अ अजीर्ण फारा, अग्निमांद्य १५७१ , , , सर्व गुल्म For Private And Personal Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५३५] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाय मुख्य गुण १५७२ गुल्मगजाराती गुल्म १९३३ चिन्तामणिरसः गुल्म, शूल, अफारा, १५७३ गुल्मनाशनरसः ५ प्रकारके गुल्म, विबन्ध अग्निमांद्य | २५८० ताम्रभस्मयोगः सर्व प्रकारके गुल्म १५७४ गुल्ममदेभसिंहोरस: पित्तगुल्म, रक्तगुल्म, मिश्रप्रकरणम् अग्निमांद्य, पित्त ___ गुदामें रखनेसे गुल्म १५७५ गुल्मवजिगीवटी गुल्म, आनाह. अजीज १६१५. गुल्महरावातः नष्ट होता है। शूल २८०६ तिलादिस्वेदः कफजगुल्मपर सेक १५७६ गुल्मशार्दूलरसः सर्वगुल्म, उदरशोथ, | | २८०९ त्रिकटादिवर्तिः गुल्म, उदावर्त, अफारा १५८१ गोपीजल: ___ गुल्म,शूल,पित्तरोग, १८ ग्रहणीरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् | २००८ ज्वालामुखचूर्णम् सामग्रहणी, अन्त्र और, ११९९ गुडूच्यादिकाथः अग्निमांद्य, आम जठरके समस्त विकार संग्रहणी २३५१ त्रिफलादिक्षारः संग्रहणी, पाण्डु, अफा. १९५५ छिन्नोद्भवादिकषायः संग्रहणी रा, अर्श, अग्निमांद्यादि १९६६ जम्ब्बादिकाथः दुस्साध्य संग्रहणी, २३८४ त्र्यूषणाद्यं चूर्णम् संग्रहणी, शूल, अफार सर्वातिसार २२२३ तिक्तानवको गुदगूल, पित्तग्रहणी गुटिकाप्रकरणम् चूर्णप्रकरणम् १३१६ ग्रहणीकपाटवटिका ग्रहणी, रक्तातिसार १३०० ग्रन्थिकादिचूर्णम् संग्रहणी, मन्दाग्नि, 'न, १३१७ ग्रहणीशाईलवटिका अनेक वर्णका अतिअर्श सार भयङ्कर प्रवा१७०० चन्दनादिचूर्णम पित्तजग्रणी हिका १७१० चव्यादिचूर्णम् संग्रहणी । १७४३ चित्रकादिगुटिका आम, अग्निमांद्य १७२४ चित्रकादिचूर्णम् , २०२० जीरकादिमोदकः सर्वप्रकारकी ग्रहणी १९९६ जातिफलादिचूर्णम् पेटकी गुड़गुड़ाट, १९९९ जातीफलायंचूर्णम् वातकफज ग्रहणी, म आम, अतिसार, ज्वर न्दाग्नि, अरुचि, क्षय अर्श For Private And Personal Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५३६] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण अवलेहप्रकरणम् रसप्रकरणम् १३४६ ग्रहणीविजयावलेहः सामातिसार, पक्काति- १४९१ गगनसुन्दरो रसः ग्रहणी,ज्वर,क्षय,अर्श सार,वेदनायुक्त प्रवा- १४९२ , , , ग्रहणी हिका, पुरानी संग्र- १४९८ गङ्गाधरचूर्ण, हणी, अर्श १५५१ गन्धाश्मपर्पटी ग्रहणी, आमशूल, अर्श १५८८ ग्रहणीकामदघृतप्रकरणम् वारणसिंहः भयङ्करसंग्रहणी, ज्वर १७६४ चन्दनायं घृतम् पित्तजग्रहणी विसूचिका,अग्निमांद्य, १७६७ चव्या , प्रवाहिका, गुदभ्रंश, शूल, सामग्रहणी, रक्तगुदशूल, बंक्षणशूल ग्रहणी १७६८ चाङ्गेरी .. संग्रहणी, अफारा, ज्वर १७६९ १५८९ ग्रहणीकपर्दपोटली वातप्रधान ग्रहणी ., संग्रहणी, गुदभ्रंश, , १५९० ग्रहणीकपाटरसः सामग्रहणी, रक्तग्रहअफारा, गुदशूल. णी, शूल प्रवाहिका त्रिदोषज ग्रहणी १७७२ , , ग्रहणी, शूल, गुद १५९४ , " , ग्रहणी भ्रंश, ज्वर १७७३ , सामग्रहणी,आमातिसार ग्रहणी, पार्वशूल,गुल्म , १५९५ , ,, , ग्रहणी, गुल्म, क्षय १७७४ चित्रक ग्रहणी, शोथ, शूल, १५९७ ,, वज्रकपाट सर्वग्रहणी, आमातिसार । १५९८ संग्रहग्रहणीकपाट तैलप्रकरणम् रसः ( वृहद ) सर्व प्रकारकोग्रहणी, १४०३ ग्रहणीमिहिरतैलम् अतिसार, ग्रहणी, चर, अरुचि १५९९ ग्रहणीकपाटोरसः प्रबलग्रहणी १६०० " " ग्रहणी,अतिसार,शूल, आसवारिष्टप्रकरणम् अरुचि, ज्वर (२-३ १८१४ चित्रकाद्योरिष्टः संग्रहणी, शोथ, अर्श, बारमें ही लाभ हो पाण्ड जाता है) २४८४ तक्रारिष्टः संग्रहणी, शोथ, । १६०१ , , , सर्व प्रकारकी ग्रहणी अग्निमांद्य । १६०२ ,, , , रक्तग्रहणी, रक्तातिसार उदरपीड़ा For Private And Personal Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५३७] ज्वर, संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १६०३ ग्रहणीकपाटोरसः ग्रहणी, शोथ, ज्वर १८७६ चण्डसं तहगदैक- संग्रहणी, अतिसार, १६०४ , , , सैकड़ों योगोंसे आराम कपाटरसः न होनेवाली भयङ्कर १८८२ चतुर्मूर्तिरसः । ग्रहणी, अतिसार, संग्रहणी, आम,शूल, विषमञ्चर ज्वर, शोथ । १९२१ चित्राम्बररसः रक्तग्रहणी आम, शूल ग्रहणी | २११६ जातीफलादिग्रहणी१६०६ ग्रहणीगजकेसरी रक्तग्रहणी, पुराना कपाटरसः आमरक्त और शूलयुक्त रक्तातिसार, शूल, संग्रहणी। आम । २११८ जातिफलाद्यावटिका पुरानी संग्रहणी, आम, १६०७ , , , ग्रहणी (मलशीघ्र बांध असाध्य संग्रहणी। देता है, अफारा नहीं | २११९ जीरकादिचूर्णम् ग्रहणी, अतिसार आम लाता) (शीघ्र गुणकारी है) १६०८ ग्रहणीगजपश्चानन ग्रहणी २५५६ तक्रवटी संग्रहणी, शोथ, पाण्डु १६०९ ग्रहणीगजेन्द्रवटिका अनेक प्रकारकी ग्र २५९४ ताम्रयोगः ग्रहणी, शूल, क्षय, हणी, ज्वरातिसार, अम्लपित्त गुदभ्रंश । | २५९६ ताम्ररसायनम् ग्रहणी, अर्श, अम्लपित्त १६१० ग्रहणीवज्रकपाटरसः ग्रहणी २७५३ त्रिफलालौहः ग्रहणी, अर्श, शोथ | २७६२ त्रिसुन्दरो रसः उपद्रवयुक्त ग्रहणी १६१२ ग्रहणीशार्दूलचूर्णम् ग्रहणी, अतिसार, ज्वर, तृष्णा, विशेषतः शोथ और जीर्णज्वर । मिश्रप्रकरणम् १६१३ ग्रहणीशार्दूलरसः प्रसूताकी ग्रहणी, १६२४ ग्रहणीरोगे पथ्यादि कास, आम, शूल । | १६२५ ग्रहण्यामाहारकल्पना अनेक प्रकारके पथ्य १६१४ ग्रहणीहररसः ग्रहणी २७९१ तक्रपानम् १६१५ ग्रहण्यारिरसः ग्रहणी, पुराना रक्ता- २७९२ , " तिसार, शूल, ज्वरादि | २७९५ तकसेवनविधि: भा० ६८ For Private And Personal Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५३८ ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी -~-Vvvvvvvvvvvv संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १९ छधिकारः कषायप्रकरणम् २३४७ त्रिजातकादि चू. घृणित पदार्थों के ११७० गुडूचीहिमः बमन देखने, सूंघने आदिसे ११७३ गुडूच्यादिकाथः पित्तजछर्दि उत्पन्न वमन १६४९ चन्दनादिकल्क: वमन १६६८ चन्दनादिपानम् . अवलेहप्रकरणम् १९४६ छर्दिनिग्रहणो । २०२९ जातीरसावलेहः वमन कषायदशकः १९६४ जम्बूपल्लवादिक्काथः बमन, अतिसार रसप्रकरणम् १९६५ , वमन १९६१ छद्यन्तको रसः हल्लास, छर्दि, अरुचि, १९६७ जग्व्यादि शीतकषायः ,,. अम्लपित्त, हृदय१९७६ जातिपत्ररसादि पुरानीछर्दि पीड़ा। २१२० जीरकादिरसः वमनको शीघ्र नष्ट चूर्णप्रकरणम् करता है। १६९३ चन्दनचूर्णयोगः वमन २७०६ तृष्णार्दिहरोरसः छर्दि, तृष्णा १९९० जम्व्वादियोगाः कफजछर्दि २० जलोदराधिकारः चूर्णप्रकरणम् । १५७२ गुल्मगजाराती स्त्रियों का जलोदर २३७६ त्रिवृतादिचूर्णम् सर्व प्रकारका जलोदर १९३४ चिन्तामणिरसः जलोदर, शूल, शोथ | २११३ जलोदरारिरसः जलोदर (विरेचक) रसप्रकरणम् । २११४ , , , ( , ) १५६१ गलत्कुष्टारिरसः पुराना जलोदर २१ ज्वरातिसाराधिकारः कषायप्रकरणम् | १२१३ गोकर्णादि ज्वरातिसारको ४-५ ११७४ गुडूच्यादि- ज्वरातिसार, छर्दि, दिनमें नष्ट करता है। दाह, तृषा १६२७ घनसप्तक चरातिसार, रक्ता११८९ , ज्वगतिसार, कुक्षि शूल तिसार ., सूजन For Private And Personal Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५३९] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण रसप्रकरणम् । १९२९ चिन्तामणिरसः ज्वरातिसार, शूल, अफारा १४९० गगनसुन्दरो रसः रक्तातिसार, ज्वर र १९३१ , , , , | २७०४ तृप्तिसागररसः ज्वर, सन्निपातातिसार १८९२ चन्द्रप्रभावटी त्रिदोषज ज्वरातिसार २२ ज्वराधिकारः कषायप्रकरणम् १२०० गुडूचीस्वरसः- उपद्रवयुक्त पित्तज्वर ११५७ गायत्र्यादिकषायः- रक्तदोषज ज्वर १२०१ १२०१ , ज्वरपाचक ११६५ गुडूचिकादि सर्व ज्वर, छर्दि, तृषा, १२०२ वातज्वर प्रतिश्याय, दाह, १२०३ अरुचि १२०४ १९६७ गुडूचीस्वरसः- कफज जीर्णज्वर, ! १२०५ प्लीहा, कास १२०६ गुडूच्यादिगणः सर्व ज्वरनाशक, दीपन ११७६ , रात्रिको आनेवाला १२०७ गुडूच्यादिपुटपाकः पुराना कष्टसाध्यपुराना ज्वर, वातपित्तज्वर पित्तज्वर, तृष्णा, छर्दि, १२२६ प्रन्थिकादिकाथः- सन्निपात, पसीना, शूल । प्रलाप, शूल, शीत, पित्तञ्चर सूतिकारोग ११८१ तृतीयक ज्वर १२२७ ग्रन्थिकादिकाथः सन्निपात सम्बन्धी ११८२ वातज्वर वातविकार १९८३ पित्तज्वर, शोष, भ्रम १२२८ , तीत्रवातज्वर सन्निपात, खांसी, १६२६ घनचन्दनादि पित्तज्वर, छर्दि, तृषा, प्यास, दाह मलमूत्रादिका अवरोध, तन्द्रा १६२८ घनादि शीतज्वर ११८७ वातज्वर १६४६ चतुःषष्टिककाथः वातज्वर, वातपीड़ा ११८८ , पित्तकफज्वर : १६५७ चन्दनादिक्वाथः । पित्तजज्वर ११९२. , सर्वधर ज्वर वातज्वर पित्तकफज्वर, दाह, १२९७ विषमज्वर तृषा, वमन । ११७७ ११७८ ११८४ दाह For Private And Personal Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५४०] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwvvvvvvvvvv - - - - wwvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvviwwwwww संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १६६१ चन्दनादिपाचन गर्भिणीका ज्वर २२१८ तिलादि काथः पित्तज्वरपाचक दाहज्वर, अरुचि २२१९ , , कफज्वर, खांसी १६६५ , , मोतीझारा २२२० , रक्तपित्त, ज्वर ज्वरनाशक,पाचक है २२२१ ,, , लौटलौट आनेवाला १६७७ चातुर्भद्रम् कफपित्तज्वर, आम, ग्रहणी २२२२ , १६७८ चातुर्भरकपञ्चमूलादि ज्वरमें विरेचन करा, नेके लिए उत्तम। काथः सन्निपात १६७९ चातुर्भद्रम् वातकफञ्चर २१९५ ज्वरनाशकबस्तिः ज्वर १९४८ छिन्नादिकषायः पित्तज्वर २१९६ ज्वरनाशनोविरेकः , १९५२ , , जीर्णज्वर २१९७ ज्वरहरिबस्ति , १९५३ , पाचनम् पित्तज्वरपाचक है। २२३३ तुलसीपत्ररसः विषमज्वर १९५४ छिन्नोद्भवादिकषायः वातज, पित्तजकफज २२४० त्रायन्त्र्यादिकषायः कफपित्तज्वर ज्वर २२४१ " , हारिद्रकसन्निपात १९५७ , काथः कर्णकसन्निपात, अ- २२४२ , काथः सन्ततादिज्वर ग्निमांद्य २२४३ अभिन्यासज्वर, कफ१९७३ जलधरादि , प्रलाप ज्वर १९८० जात्यादि , ज्वरान्तर्गत मलबन्ध २२४४ ". कषायः पित्तज्वर १९८५ ज्वरहरो कषायदशकः ज्वर २२४६ ,, पित्तकफज्वर २२०८ तगरादि काथः प्रलाप, सन्निपात । २२५५ त्रिकटादिकाथः कण्ठकुब्ज सन्निपात २२१४ तिक्तादि , सन्निपात, दाह,मला वरोध, प्रलाप, श्वास, २२५७ त्रिकण्टकादिक्षीरः कफज्वर, मलमूत्रावरोध खांसी, तृषा २२५९ त्रिकार्षिकादिकषायाः सन्निपात, द्वन्द्वजज्वर २२१५ " " सतत ज्वर २२६६ त्रिफलाकाथः विषमज्वर २२१६ , " भयङ्कर ज्वर २२६९ त्रिफलादिकषायः पित्तकफज्वर २२१७ , " सन्निपात, रात्रिजाग- २२७० वातकफज्वर रण, दिवानिद्रा, मुख. २२७१ वातपित्तज्वर शोष, दाह, तृषा, २२७३ कफजज्वर कास। । २२७४ For Private And Personal Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५४१] संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २२८१ त्रिफलादि काथ कफवर, खांसी, गल- २३१५ तिक्ता चूर्णम् कफपित्तज्वर(रेचकहै) रोग २३४१ त्रिकटादि , सन्निपात, वायु २२८४ ,, ,, ज्वर, खांसी २३५३ त्रिफलादि , ज्वर, खांसी, श्वास २२९१ ,, पित्तकफज्वर २३६० , , विरेचन २३०२ त्रिवृतादि , सर्वज्वर (भेदक है) २३६३ त्रिफलाप्रयोगः चातुर्थिकञ्चर २३०४ त्र्यूषणादि , प्रबल सन्निपात । | २६६९ तृवृच्चूर्णम् ज्वर, दाह, भारीपन, चूर्णप्रकरणम् शूल ( भेदी है) १२५३ गुडजीरकयोगः विषमज्वर, अग्निमांद्य १२८७ गोजिह्वादि चूर्णम् शीतज्वर गुटिकाप्रकरणम् १२९६ गोरोचन , सर्वज्वर | १३१३ गुडूचीमोदकः विषमज्वर(रसायन है) १६८९ चणकायुद्धृलनम् अधिक पसीनेको । १३१४ गृहधूमगुटिका जीर्णज्वर रोकता है २०१० जयन्तीवटी योगवाही १७०२ चन्दनादिलौहम् विषमज्वर । २०१४ जयावटी १७०४ चन्द्रकला चूर्णम् ञ्चर, पाण्डु, अति- २०२४ २०२४ जयपालवटी जीर्णज्वर(विरेचक है) २०२६ ज्वरनाशिनीगुटिका ( रेचक ) सार, अरुचि १७२७ चित्राङ्गयादि , विषमज्वर, अग्निमांद २४०४ । २४०४ त्रिफलादि मोदकः वातज्वर, कास, पा२००० जीरकयोगः विषमज्वर, अग्नि शूल, अरुचि। मांद्य, शीत २४१४ त्रिवृतादि , सन्निपात २००३ जीरकादि चूर्णम् शीतज्वररोधक अवलेहप्रकरणम् २३१० तालीसादि , ज्वर, खांसी, श्वास, १७४८ चतुरङ्गावलेहः ज्वर सम्बन्धी खांसी, अतिसार, वमन, प्लीहा, शोथ, अफारा अरुचि, श्वास,मूर्छा आदि १७५३ चतुर्भदावलेहः ज्वर, खांसी, श्वास २३११ , ज्वर, ज्वरके समस्त उपद्रव, अर्श, (बाल घृतप्रकरणम् कोंके लिए विशेष १३६३ गुडूच्यादिघृतम् ज्वर, खांसी, श्वास, हितकारी-पौष्टिक, अजीर्ण स्वरवर्द्धक) । १३६६ , , ज्वर For Private And Personal Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५४२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १३६७ गुडूच्यादिधृतम् पुरानाञ्चर, प्लीहा, धूपप्रकरणम् अग्निमांद्य, खांसी, | १४५५ गुग्गुल्वादिधूपः सर्वज्वर शूल, ग्रहणी १८४३ चातुर्थिकञ्चरेधूपः चातुर्थिकञ्चर १३७० गोपीड्यादिघृतम् विषमज्वर, शिरपीड़ा, पार्श्वपीड़ा, अरुचि, अञ्जनप्रकरणम् छर्दि, १४५९ गरुडाञ्जनम् शीतज्वर १७६३ चन्दनादि , चातुर्थिक, विषमज्वर २०९४ ज्वरनाशकाञ्जनम् जिस नेत्रमें आंजा तिजारी,स्वास,कास। जाय उसके दूसरी २४३७ तिल्वकाद्यं , जीर्णज्वर, शोथ,पाण्डु ओर के आधे अङ्गका ज्वर उतर जाता है। तैलमकरणम् २०९५ " १७८९ चन्दनबलालाक्षादि० सर्वज्वर, दाह, शि- २०९६ द्वयाहिकज्वर रपीड़ा,खाज,खांसी, २१०४ जयमङ्गलोरसः ज्वर (नस्य ) ( शरीरको पुष्ट क २५४३ तुरङ्गलालाद्यञ्जनम् तन्द्रा रता है) नस्यप्रकरणम् १७९३ चन्दनादितैलम् समस्तज्वर (बस्तिके | २१०० ज्योतिष्मतीतैलनस्यम् तन्द्रा योग्य ) । २१०१ ज्वरनाशकनस्य जिस नासापुटमें १८०१ चन्दनायं तैलम् ज्वर और दाहको नस्य दी जाय उस तुरन्त शान्त करता है। ओरका ज्वर उतर २०५१ जात्यादितैलम् सन्निपातज्वर जाता है। २४६६ तप्तराज , घोरसन्निपात, शिर | २१०४ जयमङ्गलोरसः ज्वर ( नस्य ) शूल भयङ्करदाह, स्वेद । रसप्रकरणम् १४९५ गगनायो रसः सन्निपातज्वर आसवारिष्टप्रकरणम् '१५०५ गदमुरारिरसः सन्निपात, ज्वर (तीव्र २४८६ त्रायमाणासवः ज्वर, सन्निपात, खा. रचक) सी, पाण्डु १५०६ , , आमज्वर For Private And Personal Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५४३] VIAAAAAAAAARAVIRAJ.ARANORA,RAAAVARANAADynonwir.vunnpvvvvvvyanAmAvww w moraa १९२५ संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण सख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १५०७ ,, , १९२४ चिन्तामणिरसः सन्निपात,जीर्णज्वर, आमञ्चर विषमज्वर, प्लीहा, १५०९ गन्धककज्जली ज्वर, छर्दि, क्षय, अफारा, खांसी, रक्तातिसार मन्दाग्नि. १५४८ गन्धामृतो रमः । ज्वर सर्वज्वर, तिजारी, १५५३ गरुडरमः समस्तज्वर, प्रबल चौथियाआदि,छर्दि, सन्निपात,कफ, वायु, अतिसार, अजीर्ण १८६५ चक्ररसः तन्द्रा, दाह और ( ज्वरोंमें विशेष तृषा सहित घोर उत्तम है) सन्निपात १९२८ आठ प्रकारके ज्वर १८६८ चक्रिकारसः १३ प्रकारके दुस्सा- १९२९ , नवीन ज्वर, जीर्णध्य सन्निपात ज्वर, सन्निपात, १८७८ चण्डेश्वरो रसः सर्व ज्वरोंमें उत्तम है। विषमज्वर,अतिसार, १८९६ चन्द्रसुधारसः पित्तञ्चर, दाह, शूल, शोथ, अफारा भयङ्करतृष्णा,मूर्छा, १९३० , सर्यज्वर हिक्का, वमन १९३४ अजीर्ण ज्वर (रे१९०४ चन्द्रोदयो रसः जीर्णज्वर, खांसी, चक है ) श्वास, १९३५ चिन्तामणिरसः ज्वर, शूल १९१४ चातुर्थिकगजाङ्कुशः तिजारी, चौथिया १९३६ चिन्तामणिवटिका जीर्णज्वर आदि ज्वर । १९३८ चूडामणिरसः धातुगत विषमज्वर, १९१५ चातुर्थिकनिवारण चातुर्थिक (चौथिया) कामज और शोक१९१६ चातुर्थिकारिरसः , (,) जनितज्वर, कास १९१७ शिरशूल, ग्रहणी। ९९१८ १९४० चूडामणिरसः सर्ववर १९१९ चातुर्थिकादि समस्त १९४२ चैतन्यभैरवोरसः सन्निपात ज्वरकी विषमज्वर मूर्छा । १९२२ चिन्तामणिरसगुटिः आमज्वर, सन्निपात २१०३ जयमङ्गलोरसः । पुराना दुस्साध्यज्वर, १९२३ , ज्वर मज्जागत ज्वर। ,, ,,) For Private And Personal Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५४४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी womvvvvvvvvnwwnavinavinAnnapurnnnvrAnnnnnvvvwwwIRAMyvvvy Annarriannnnny"MARvuyurv, संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २१०१ जयमङ्गलोरसः अञ्जन या नस्यसे स- २१३८ ज्वरध्वान्तदिवाकरः नवीनञ्चर (विरेचक) निपातकोनष्टकरताहै | २१३९ ज्वरनागमयूरचूर्णम् साध्यासाध्य सन्त२१०५ , , भयङ्कर सन्निपात, तादि ज्वर, कामशो अचेतनता । कोद्भवज्वर, दाह, २१०६ जयरसः शीतज्वरको १ ही शीतज्वर, चातुर्थिक दिनमें खोता है। विपर्ययः, प्लीहा, २१०७ जयवटिका ज्वर, श्वास, खांसी, शोथ, तृष्णा,खांसी, पाण्डु (विरेचकहै।) शरीरकी पीड़ा। २१०९ जयागुटिका विषमज्वर, खांसी, २१४० ज्वरपञ्चाननोरसः ।। सन्निपात श्वास, क्षय, अरुचि, २१४१ ज्वरपञ्चाननो ,, नव ज्वर, अत्यन्त अतिसार, हृदयशूल ताप, (४ घडीमें २१२१ जीर्णज्वराङ्कुशः जीर्णज्वर, भय, खांसी ज्वर उतार देता है) अरुचि २१५२ ज्वरभैरवचूर्णम् समस्त ज्वर, अनेक २१२२ जीर्णज्वरारिरसः जीर्णज्वर, अजीर्ण । देशोंके जलवायुसे २१२३ , , उत्पन्न ज्वर, विरु२१२५ जीवनान्दाभ्रम् विषमज्वर, प्लीहा, दौषधसे उत्पन्नज्वर, यकृत, वमन, खांसी, प्लीहा,यकृत, अरुचि, अरुचि । शोथ, शिरशूल । २१३० ज्वरकालकेतुरसः आठ प्रकारके ज्वर । २१४३ ज्वरभैरव रसः । जीर्णज्वर, खांसी,शूल २१३१ ज्वरकुञ्जरपारोन्द्र दैनिक, तिजारी, २१४४ , , जीर्णज्वर, शूल चातुर्थिकादिविषमज्वर २१४५ , समस्तज्वर (रेचकहै) शोथ, खांसी। २१४६ ,, ,, नवीनज्वर, जीर्ण२१३२ ज्वरकृन्तनो रसः सर्वज्वर ज्वर, विषमज्वरादि २१३३ ज्वरकेसरीरसः पित्तज्वर, दाह,सन्निपात को १ ही दिनमें २१३४ वरगजसिंहरसः ज्वर नष्ट करता है। २१३५ ज्वरघ्नी गुटिका सर्व प्रकारके ज्वर २१४७ , , कफपित्तज नवीन २१३६ ज्वरनीवटी विषमज्वर, सन्निपात तथा विषमज्वर, २१३७ ज्वरधूमकेतु नवीन ज्वर श्वास। For Private And Personal Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम २१४८ ज्वरमातङ्गकेसरी २१४९ ज्वरमुरारि रसः २१५० २१५१ ज्वरराज रसः २१५२ ज्वरशतघ्नी २१५३ ज्वरशूलहरोरस: २१५४ ज्वरसिंहरस: २१५५ ज्वरहरोरस: २१५६ ज्वरहारीरसः २१५७ ज्वराङ्कशः २१५८ २१५९ २१६० २१६१ २१६२ 22 २१६३ २१६४ २१६५ २१६६ 11 " "" "" 27 "" "" " "" भा० ६९ रस: "" 77 " "" 22 "" " www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम आमज्वर, अग्निमांद्य २१६७ ज्वराङ्कुश रसः आमज्वर २१६८ 22 32 अत्यन्त अजीर्ण और २१६९ ज्वरान्तको रसः कब्ज़ वाला ज्वर, २१७० ज्वरारि रसः शरीरका जकड़ना, खांसी, शोथ, यकृत्, पीहा । समस्तज्वर, चातुर्थिक २१७१ सन्निपातमें अद्भुत् २१७२ पसीना आकर समस्त ज्वर उतर जाते हैं । चातुर्थकादि समस्त ज्वर नवीन ज्वर, अजीर्ण वातपित्तज्वर शीतज्वर में अत्युपयोगी विषमज्वर २१७३ विषमज्वर, मन्दाग्नि सन्निपातज जीर्णज्वर समस्त ज्वर 27 "" २५५८ 21 For Private And Personal " २१७४ २१७५ ज्वरार्यगदः २१७६ ज्वरार्यभ्रम "" तरुणज्वर, जीर्णज्वर, २१७७ ज्वराशनिरसः विषमज्वर । समस्त ज्वर ( रेचक है ) २१७८ ज्वरेभसिंहोरस: १ पहर में ज्वर रोकता है। ( संखियेका योग है ) रोजाना तिजारी आदि शीतज्वर २५६४ ताम्रकः " " २१७९ २५५७ तरुणज्वरारिः "" "" Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५४५ ] मुख्य गुण ज्वर, विसूचिका ८ प्रकार के ज्वर चातुर्थिक, तृतीयक, सन्तत, आमज्वर । दैनिक, तृतीयादि ज्वरों को ३ दिन में नष्ट करता है। कफपित्तज्वर, शूल । घोर नवीन ज्वर, सन्निपात ज्वरको २-३ दिन में ही खो देता है । ज्वर ( रेचक है ) ( "" " समस्त ज्वर, प्लीहा, यकृत्, शोथ, हिचकी, खांसी, अरुचि । विषमज्वर, दाह, खांसी, वमन तीव्र कफवातज्वर, शीतज्वर, हृद्रोग । ज्वर शतपूर्व तथा दाहपूर्व ज्वर । विरेचन होकर ज्वर नष्ट हो जाता है । ज्वर, खांसी, प्लीहा, पाण्डु Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५४६] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी VAAVvvwwwvvvvvvAnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn nnnnnnnrore/nAnywarninAnnropppronpronprnorari , संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम । मुख्य गुण २५६८ ताम्रपर्पटी कफवातज्वर ३ दिनमें २७३९ त्रिपुरारिरसः जलदोषज ज्वर, शोथ, नष्ट हो जाता है। अतिसार. तिल्ली। २५७८ ताम्रभस्मयोगः । कफजज्वर २७५० त्रिफलालौहः सर्वज्वर २६०५ ताम्रामृताख्यं वर, प्लीह, कास, . २७५५ त्रिभुवनकीर्ति सन्निपात, सर्वञ्चर रसायनम् पाण्डु, अर्श २६३५ तालकाकोरसः तृतीयक,चातुर्थिक वर २७६३ त्रैलोक्य चिं. म. जीर्णचर, जलदोष, २६३७ तालकादिज्वराङ्कु. शीतवर खांसी। २६३८ , शीतज्वर १ दिनमें २७६८ त्रैलोक्यडम्बर । नवज्वर खोता है। । २७७७ त्रैलोक्य सुन्दर सन्निपात २६४२ तालकेश्वररसः शीतञ्चर २६८० तालकेश्वररसः बारीके ज्वर (म्लेरिया) २७७८ " पसीना लाकर ज्वर । उतारता है। २७०२ तुत्थादिकञ्चराङ्गशः विषमज्वर २७१७ त्रिगुणाख्योरसः सन्निपातज्वर २७८१ न्याहिकारिग्सः तृतीयकादि वर २७२४ त्रिनेत्ररसः २७३३ त्रिपुरभैरवरसः नवज्वर, विष्टम्भ, कृमि २७३६ ,, , सर्वज्वर मिश्रप्रकरणम् २७३७ , , सन्निपात, कफ, वायु, २१८५ जलधाराप्रयोगः ज्वरका तीन सन्ताप शिरशूल, उदरपीड़ा २३ तृष्णाधिकारः कषायप्रकरणम् लेपप्रकरणम् २२३५ तृष्णानिग्रहणो | १८२७ चन्दनादिलेपः तृष्णा कषायदशकः तृष्णा चूर्णप्रकरणम् रसप्रकरणम् २००१ जीरकादिचूर्णम् तृष्णा २७०५ तृष्णाहारीरसः भयङ्कर तृष्णा २००२ , " _ २७०६ तृष्णाछर्दिहरोरसः तृष्णा, छर्दि गुटिकाप्रकरणम् २३९३ तृष्णानीगुटी प्रबल तृष्णाको तुरन्त मिश्रकरणम् शान्त करती है। २८४८ तृष्णानाशकानम् पुरानी तृष्णा, वमन । For Private And Personal Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५४७] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम - मुख्य गुण २४ दाहाधिकारः चूर्णप्रकरणम् प्रबल दाह, चक्कर १७०१ चन्दनादिचूर्णम् अङ्गदाह, शिरोदाह, आना, मूर्छा शिरघूमना, रक्त लेपप्रकरणम् पित्तादि १८३० चन्दनादिलेपः दाह अवलेहप्रकरणम् रसप्रकरणम् १८८५ चन्द्रकलारसः १७५० चन्दनाद्यवलेहः भयङ्कर दाह, मूर्छा, __ अन्तर्दाह, वाह्यदाह, (ग्रीष्मकालमें विशेष भ्रम, उपयोगी है) १७५१ चन्द्रावलेहः हाथ पैर और शरीरकी २५ नासारोगाधिकारः चूर्णप्रकरणम् अवलेहप्रकरणम् १२६२ गुडादियोगः पीनस | १७५५ चित्रकहरीतकी पीनस, कृमि, अग्निमांद्य १९९२ जयापत्रयोगः प्रतिश्याय तैलप्रकरणम् २३८३ त्र्यूषणादिचूर्णम् प्रतिश्याय, (विशे- १३९८ गृहधूमादि तैलम् नासार्श षतः कफ) | १८०४ चित्रकादि तैलम् ,, । २४७३ त्रिकटुकाचं तैलम् पूतिनस्य गुटिकाप्रकरणम् धूम्रपकरणम् १७४४ चित्रकादिगुटी पीनसको पकाती है । १६३९ घृतादि धूमः क्षवथु (छींक आना) २३८९ तालीसादिगुटिका पीनस, स्वरभंग, १८४५ चातुर्जात धूम्रम् प्रतिश्याय अरुचि २०८३ जात्यादिधूम्रः पीनस For Private And Personal Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५४८] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी vvwwwwwwwwwwwwwwwwwAAAAAAmwwnwor AAAA/AnnnnnnAAAAAA संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २६ नेत्ररोगाधिकारः कषायप्रकरणम् २४४६ त्रिफला घृतम् त्रिदोषज तिमिर ११८० गुडूच्यादिकाथः समस्त नेत्ररोग २४४८ ,, , नेत्रबलवर्द्धक १६८३ चित्रकादि , तिमिर २४५१ , , तिमिर.नक्तान्थ्य (र२२६२ त्रिफलाकषायः नेत्ररोग,मुखरोग,कामला तौंधा) स्राव, खाज, २२६३ , काथः पित्ताभिष्यन्द, दाह नेत्रकी कलुषता, २२६४ , सूजन कषायता, सूर्य, और २२६५ , , तिमिर अग्नि इत्यादिसे हत २२९० त्रिफलादि ,, अन्धता दृष्टि । २२९८ , विरेच वातज तिमिर २४५३ त्रिफलाद्य , तिमिर २४५४ ,, , रक्तविकार रक्तस्रावके चूर्णप्रकरणम् कारण उत्पन्न नेत्ररोग, १२९७ गोरोचनादिचूर्णम् लगण(पलककीफुसी) नक्तान्ध्य, तिमिर, २३६६ त्रिफलायोगः समस्त नेत्ररोग मन्ददृष्टि,धूपमेंआंख -- अवलेहप्रकरणम् न खुलना ( चौंद लगना) आदि। २०३० जीरकखण्डः नेत्रोंको बलदेता है। | २४५७ त्रिफलादिघृतं (महा) आसन्नदृष्टि,दूरदृष्टि, २४२९ त्रिफलापाकः समस्तनेत्र रोग, शिरोरोग, मन्ददृष्टि,और अन्य समस्त नेत्ररोग । घृतप्रकरणम् १३६८ गोघृततर्पणम् तिमिर, अभिष्यन्द, १४०१ गोमयाद्यतैलम् तिमिर (नस्य) अश्रुस्राव २४७८ त्रिफलाद्यं , कफज तिमिर २०४३ जीवनाद्यवृतम् तिमिर २४४४ त्रिफला , रतौंधा, नेत्रत्राव, लेपप्रकरणम् तिमिर । १४२१ गिरिकर्णिपुष्पलेपः कुकूणक २४४५ , , तिमिर, स्राव, काच, १८२८ चन्दनादिलेपः अभिष्यन्द, दाह, सूजन । तैलप्रकरणम् तोद For Private And Personal Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाय मुख्य गुण १८३७ चिञ्चास्वरसलेपः नेत्रोंको लाली, सूजन । १८५२ चन्दनाद्या वतिः । सर्व नेत्ररोग खड़क, स्राव । । १८५३ चन्द्रकला वर्ति शुक्र, जलस्राव, पिल्ल तिमिर, खाज, काच, अञ्जनप्रकरणम् १४५७ गन्धकद्रुतिः पिल्ल,काच,कुकूणक, १८५४ चन्द्रप्रभागुटी फूला, तिमिर, पटल, १४५८ गरुडवर्तिः दृष्टिवर्द्धक निशान्ध्यं (रतौंधा) १८५५ चन्द्रप्रभावर्तिः लालधारियां, पटल, १४५९ गरुडाञ्जनम् राज्यन्धता (रतौंधा) रात्र्यन्वता (रतौंधा), दृष्टिवर्द्धक तिमिर, मल। १४६१ गिरिकाद्यक्षिपूरणम् नेत्रफूला | १८५६ , तिमिर,पिष्टक,पटल, १४६२ गुञ्जामूलाञ्जनम् तिमिर, अन्धता पुष्प (फूला), १४६३ गुटिकाञ्जनम् कुकूणक ५८५७ चन्द्रोदयायर्तिः खुजली, आंखकी १४६४ तिमिर, कांच, कण्डू, रसौली, ३ वर्षका फूला, अर्जुन, अर्म । फूला, रतौंधा। दिवान्ध्यम् , रतौंधा | १८५८ चन्द्रोदयावर्तिः । पिल्ल, खुजली, तिमिर नेत्राभिष्यन्द, (आंख १८५९ चिञ्चाद्यञ्जनम् स्राव, पिचिट, अदुखना) र्जुन, काच १४६८ गुडूच्यादिवर्तिः समस्त नेत्ररोग १८६० चूर्णाञ्जनम् फूला, तिमिर, पिचिट १४६९ गुडूच्याद्यञ्जनम् पिल्ल, अर्म, तिमिर, अर्बुद काच,खाज, लिङ्गनाश १८६१ , खुजली, रक्तस्राव, १४७० गुहामूलाञ्जनम् पिल्ल. पलकोंके रोग १४७१ गोपयःसर्पिषोर्योगः नेत्रोंको स्वच्छ करता है| १८६२ , मल,कण्डू,कफ,काच १८४६ चतुर्दशाङ्गीवर्तिः तिमिरमें विशेष उप २०८६ जङ्घास्थिवर्तिः अन्धता योगी (शिलालेखसे । २०८७ जातिपत्ररसाजनम् नक्तान्थ्य (रतौंधा) प्राप्त ) २०८८ जातिपुष्पादिगुटी काच,अन्धता,तिमिर २०८९ जातीपुष्पाद्यञ्जनम् तन्द्रा १८४७चन्दनाञ्जनम् तिमिर २०९० .. नेत्रपाक १८४८ चन्दनादिचूर्णा २०९१ जात्यादिवतिः नेत्रोंसे रक्त निकलना जनम् शुक्र (फूला), अर्म २०९२ जात्याद्याश्च्योतनम् शुक्र (फूला) १८४९ चन्दनादिवर्तिः शिरोपात २२०० टकनाद्यमञ्जनम् पलकोंके रोग, खाज तिमिर रक्तस्राव। १८५१ चन्दनाद्यञ्जनम् नेत्रत्रण, शुक्र(फूला) । २५२६ तन्द्राहरीवर्तिः तन्द्रा For Private And Personal Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५५० ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी wwwvvvvvvvvvvxv. .. ', vvvv. ....-----vvvvvvvvvvvvvvvvvv ........... Muviaawwvi Mum संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २५२७ तमालपत्रादिवर्तिः शुक्र (फूला) भिष्यन्द ( आंख २५२८ ताप्याद्यञ्जनम् आना ), शूल। २५२९ ताम्बूलादियोगः नवीन नेत्राभिष्यन्द २५४४ तुलस्याद्यञ्जनम् आंख आना, नेत्रोंकी (आंख आना ) पीड़ा ( खड़क ) २५३० ताम्रद्रुतिः समस्त नेत्ररोग २५४५ त्रिकटवाद्यञ्जनम् तिमिर, पटल, शुक्र २५३१ , काच, अर्म, पिल्ल, २५४६ त्रिफलादिरसक्रिया कृमिग्रन्थि अभिष्यन्द,व्रण,शुक्र २५४७ त्र्यषणादिवर्तिः कफ, क्लेद, कण्डू । २५३२ तालकादिप्रयोगः पिल्ल २५३३ तालकाद्यञ्जनम् किनवम • रसप्रकरणम् २५३४ तिमिरनाशिनीवर्तिः काच, तिमिर, पटल १५३६ गन्धकरसायनम् दिव्यदृष्टि प्राप्त २५३५ तुत्थकाद्यञ्जनम् बहुत पुराना पिल्लरोग होती है। अश्रु, खुजला, सूजन २७४१ त्रिफलादि चूर्णम् समस्त नेत्ररोग तथा २५३६ तुत्थप्रयोगः शुक्र (फूला) ऊर्ध्वजत्रुगत रोग। २५३७ , , पलकोंके रोग | २७४४ त्रिफलादि योगः समस्त नेत्ररोग २५३८ तुत्थादिचूर्णाञ्जनम् नवीन नेत्राभिष्यन्द । २७४९ त्रिफलारसायन दृष्टिको स्वच्छ ( आंख आना ) करता है। २५३९ तुःथादिप्रयोगः २५४० तुत्थादिवर्तिः पिल्ल, अर्म, पोथकी, मिश्रप्रकरणम् पूयालस। । २८०३ तिलस्नानम् दृष्टिवर्द्धक २५४१ तुत्थाद्यञ्जनम् बहुत पुराना फूला पिलाठिसेक. रक्ताभिष्यन्द २५४२ , , समस्त प्रकारके अ- ! २७ पाण्डुरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् चूर्णप्रकरणम् १२२३ गोमयरसादियोगः पाण्डु । १२९४ गोमूत्रहरीतकी पाण्डु २२८६ त्रिफलादि काथः कामला, पाण्डु । २२९३. " कामला । २३७९ त्र्यूषणादि चूर्णम् कामला दपि For Private And Personal Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५५१] - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण गुटिकाप्रकरणम् २१२४ जीवननामा रसः पाण्डु, हलीमक, का१३१० गुडादिमण्डूरम् पाण्डु मला, शोथ २५६२ ताप्यादिचूर्णम् कामला घृतप्रकरणम् २४६१ त्र्यूषणादि घृतम् पाण्ड,हलीमक,खांसी २७०७ त्रिकटुकादिलौहम् .. कामला, पाण्डु, ज्वर तैलमकरणम् । २७३२ त्रिनेत्रायो रसः पाण्डु १७९२ चन्दनादि तैलम् पाण्डु, मन्दवर, २७४५ त्रिफलादि लेहः पाण्डु, कामला, शोथ आसवारिष्टप्रकरणम् २७४६ त्रिफलादि लोहम् पाण्डु, हलीमक, १४०९ गुडारिष्टः पाण्डुरोग शोथ, ज्वर २४८७ त्रिफलारिष्टः पाण्ड, सूजन, अ २७४७ , कामला रुचि खांसी। ,, २७५७ त्रियोनि रसः पाण्डु, शोथ अञ्जनप्रकरणम् २७६१ त्रिसङ्घटो रसः पाण्डु १८५४ चन्द्रप्रभागुटी कामला २७७० तैलोक्यनाथ पाण्डु, शोथ २७७५ त्रैलोक्यसन्दर पाण्ड, शोथ नस्यप्रकरणम् २७७६ ., ,. पाण्डु, शोथ, क्षय, २०९८ जालिनीफलादि कामला २७८३ त्र्यूषणादिगुटिका पाण्डु, कृमि आदि रसप्रकरणम् | २७८६ , मण्डरम् पाण्डु, कामला,शोथ १८९८ चन्द्रसूर्यात्मको रसः पाण्डु, कामला, ह लीमक,वर, अरुचि २८ प्रमेह, मधुमेह तथा मूत्रातिसाराधिकारः कषायप्रकरणम् १६५८ चन्दनादि काथः ओजोमेह ११६८ गुड़ची स्वरसः प्रमेह १६७१ चम्पकमूलकषायः मूत्रातिसार । १६७५ चव्यादि काथः कफजप्रमेह १२१७ गोक्षुरादि काथः पित्तज प्रमेह १९४७ छिन्नादिकषायः सर्पिमेह १६४४ चणकयोगः असाध्य, प्रमेहनाशक २२२६ तिन्दुकादि क्वाथः उपद्रवयुक्त लसिका सरल प्रयोग। और माञ्जिष्ठ मेह। उवर For Private And Personal Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ५५२ ] संख्या प्रयोगनाम २२७२ त्रिफलादि कषायः फेनप्रमेह ૨૨૮૨ काथः सर्व प्रमेह ૨૧૮૮ २२९५ " " "" १७३९ "" १२२९ गगनायस चूर्णम् १२३८ गन्धकयोगः १६९६ चन्दनादिचूर्णम् " " 11 १३१५ गोक्षुरादिवटी १७३६ चन्द्रप्रभा गुटिका - १७३७ चूर्णप्रकरणम् ܕܪ १६९९ चन्दनादिचूर्णम २३०६ तालकन्दादि योग: मूत्रातिसार २३५५ त्रिफलादि चूर्णम् सर्व प्रमेह गुटिकाप्रकरणम् वटी मुख्य गुण बहुमूत्र प्रमेह चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी www.kobatirth.org प्रमेह, अश्मरी, मू त्रकृच्छ्र, ज्वर, कास प्रमेहfपडिका लसिका मेह, और रक्तवाला प्रमेह पीप ( सोजाक ), तृष्णा, ज्वर शुक्रमेह, खांसी, ज्वर, अर्श वातजप्रमेह, मूत्राघात प्रबलप्रमेह प्रमेह, निर्बलता, ज्वर, अश्मरी, शुक्रविकारादि प्रमेह, मूत्रकृच्छू अ श्मरी, शुक्रतारल्य, अण्डवृद्रयादि अनेक रोग (प्रमेही प्रसिद्ध औषध है ) संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २३९७ त्रिकटुकादिमोदकः भयङ्कर प्रमेह २४१७ त्रोटहरीगुटिका १३३७ गोक्षुरादि गुग्गुलु Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुग्गुलु प्रकरणम् १३४९ गोक्षुरपाकः १३५० गोक्षुरपाकः प्रदर, वायु २४२८ त्र्यूषणादिगुटिका प्रमेह, मूत्राघात, उदररोग. वाजप्रमेह, कफरोग अवलेहमकरणम् १३४४ गोकण्टकाद्यवलेह : मधुप्रमेह, मूत्रकी दाह, मूत्ररुधिर, शु For Private And Personal १८११ चन्दनासवः १८१२ प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अमरो, 33 घृतप्रकरणम् २४४२ त्रिकण्टकादिघृतम् पित्तप्रमेह । कस्राव प्रमेह, अर्श, क्षीणता, ( वाजीकरण है | ) प्रमेहनाशक, वीर्यस्तम्भक, वाजीकरण आसवारिष्टप्रकरणम् शुक्रमेह शुक्रदोष, सर्वप्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, औपसर्गिक मेह Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५५३] - vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvn/nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnAAAAAAAAAAAAN संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण रसप्रकरणम् १८८९ चन्द्रप्रभारसः दुस्साध्य प्रमेह १४९६ गगनायसरसायन सर्व प्रकारके प्रमेह १८९३ चन्द्रप्रभावटी समस्त प्रमेह (अत्यन्त बलवर्द्धक) | १९०६ चन्द्रोदयो रसः २० प्रकारके प्रमेह, १५२५ गन्धक प्रयोगः प्रमेहके लिये अद्भुत पित्त १५२९ गन्धकयोगः २० प्रकारके प्रमेह, २११२ जलजामृतरसः सर्वप्रमेह प्रमेहपिडिका २६१२ तारकेश्वरो रसः प्रमेह, बहुमूत्र १५६५ गुडूच्यादिमोदकः रक्तपित्त, प्रमेह, मूत्र- २६१४ , , बहुमूत्र कृच्छ, मूत्राघात, पाद- २६१५ , , , दाह, प्रदर, सोमरोग २७७१ त्रैलोक्यमोहन . प्रमेह १८८६ चन्द्रकलावटी सर्वप्रमेह २९ बालरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् गुटिकाप्रकरणम् १११० गजपिप्पल्यादि सर्वातिसार १३१८ ग्रहनाशिनीगुटिका ग्रहनाशिनी ( पान, १६८० चिञ्चापत्रादिक्काथः शीतलाको रोकता है। अञ्जन, धूप, स्ना नादिमें प्रयुक्त) चूर्णप्रकरणम् घृतप्रकरणम् १२५८ गुडादिचूर्णम् संग्रहणी १६३२ घनादिचूर्णम् खांसी, वमन, चरा- १७७० चाङ्गेरीघृतम् ग्रहणी, अतिसार तिसार १७७१ , , गुदभ्रंश १६३३ , , वमन, ज्वर १७१३ चतुर्जातादि-- तैलप्रकरणम् अजीर्ण, श्वास, खांसम्भारकः सी, निर्बलता, कृशता २४८२ त्वगादितैलम् अजीर्ण, विचिका १९८७ जम्बूकपुष्पादि हिक्का ( हिचकी) २३२७ तूगाचूर्णम् खांसी, श्वास धूपप्रकरणम् २३ ४२ त्रिकट्वादिचूर्णम् स्वरको सुधारता है । १४५६ ग्रहप्नधूपः स्कन्दोन्माद, पिशाचादि भा०७० For Private And Personal Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५५४ ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३० भगन्दराधिकारः गुग्गुलुप्रकरणम् २५०१ तिलादिकल्कः । भगन्दर, नासूर, उप१३२४ गुग्गुलुप्रयोगः । भगन्दर दंश और घावोंका १३३४ गुग्गुल्वादियोगः भगन्दर, कुष्ठ, गुल्म, शोधन रोपण। नाडीव्रण २५०३ तिलादिलेपः भगन्दर २४२३ त्रिफलागुग्गुलुः भगन्दर, शोथ, अर्श, । २५०५ ,, , रक्तस्राव और वेदनागुल्म युक्त भगन्दर तैलप्रकरणम् १८०६ चित्रकाद्यं तैलम् भगन्दरके लिए शोधन रसप्रकरणम् और रोपण है, घावके १६४० घनगर्भरसः भगन्दर स्थान का रंग पूर्ववत् १९२० चित्रविभाण्डको , कर देता है। २५७५ ताम्रभस्म प्रयोगः सर्वदोषज भगन्दर, लेपप्रकरणम् २०८१ ज्योतिष्मत्यादि भगन्दरके धावको २८१६ त्रिगुणाख्यं ताम्र · भगन्दर ___ शुद्ध करता है। ३१ भग्नाधिकारः चूर्णप्रकरणम् तैलप्रकरणम् १२८८ गोधूमचूर्णम् सन्धिभग्न, अस्थिभग्न । १३८१ गन्धतैलम् भग्नरोग ३२ मसूरिकाधिकारः कषायप्रकरणम् गुडूच्यादि मसूरिकाको जल्दी ११७९ गुडूच्यादिकाथः उपद्रवयुक्त वातपित्तज पकाता है। मसूरिका । १६५० चन्दनादि कल्कः मसूरिकाकी प्रारम्भिक दशामें उपयोगी है। ११८६ गुडूच्यादिक्काथः वातजमसूरिका के पाककालमें उप | १६५९ चन्दनादिकाथः शीतलाका ज्वर योगी है। १९७८ जातिपत्रादि , मुखपाक, कण्ठरोग व्रण For Private And Personal Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५५५] vvvvvvv vvvv...... .......vvvvvvv.......... - - ...vauvvvvvvvvvvvwww...ivanvvvvvvvvvvwne संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण चूर्णप्रकरणम् मिश्रमकरणम् १७१६ चिञ्चाबीजादि चू. शीतलाको निकलनेसे २७९८ तण्डुलाम्बुसेकः पैरोंकी पिडिकाओंकी रोकता है। दाह ३३ मस्तिष्करोगाधिकारः कषायप्रकरणम् तैलपकरणम् १६५६ चन्दनादिकाथः मस्तिष्कका छोटा होजाना २०६२ ज्योतिष्मतितला. बुद्धिवर्द्धक चूर्णप्रकरणम् २४६७ ताम्रगर्मतैलम् , (३वर्षका १२७५ गुडूच्यादिरसा.चू० स्मरणशक्ति वईक है । प्रयोग) ३४ मुखरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् । २३३१ तेजोहादि- मसूढोंका रक्तसाव, उपजिह्वा दन्तधावन १२०९ गृहधूमादिकाथः खुजली, पीड़ा ( मञ्जन) १९७७ जातिपत्रादि ,, मुखपाक २२८५ त्रिफलादि ,, ,, गुटिकापकरणम् चूर्णपकरणम् | २०१८ जात्यादि गुटिका दन्त, ओष्ठ, जीभ और तालुके रोग। १९९४ जरणादि चूर्णम् मसूढोंके घाव, पीड़ा, ( सुगन्धित है) सूजन, खून निकलना, २३९४ तेजोवत्यादि , समस्त गलरोग दांतोंका हिलना। । २४०२ त्रिफलादि , गलरोहिणी, मुख१९९५ जातिपत्रादि , मुखकी दुर्गन्ध, शोष, मुंहकी दुर्गन्ध । दांतोंकी पीड़ा, मसू इत्यादि ढोंकी खाज, दन्तकृमि, आदि अवलेहप्रकरणम् १३१३ तितकं , मसूढे, गले और २०२८ जातिपत्रादिलेहः स्वरको सुधारता है। मुखके रोग (मञ्जन) For Private And Personal Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir . [ ५५६] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण घृतप्रकरणम् २०७२ जातीफलादि लेपः यौवनपिडिका(मुंहासे १३६३ गडच्यादिघृतम वाणीकी विकलता. २०७३ जोरकादि . व्यङ्ग, लाञ्च्छन हकलाना। २०७५ जीवन्त्यादि ,, होठ फटना २०७६ , , गालफटना तैलप्रकरणम् | २५१२ तैलादि , मसूढोंके घाव १३७६ गण्डीरादि तैलम् समस्त मुखरोग २०५२ जात्यादि , दांतका नासूर रसप्रकरणम् . २४६८ ताम्रादि , मुंहकी झांई, व्यङ्ग, १८८० चतुर्मुखो रसः जिह्वा, दन्त और कलौंस, बली (झुर्रियां) मुखरोग आदि नाशक सौन्दर्य मिश्रप्रकरणम् वद्धक । १६१७ गुञ्जादिमूलयोगः चबानेसे दन्तपीड़ा - लेपप्रकरणम् . नष्ट होती है। १४५० गोरोचनादिलेपः मुखदूषिका (मुंहासे) २१९० जातीपत्रयोगः मुखपाकादि, दांत१८३१ चन्दनादि , व्यङ्गनाशक,सौन्दर्य हिलना वर्द्धक । | २८०४ तिलादिकवलः मसूढोंकी सूजन २०६९ जातीपत्रादि ,, व्यङ्ग, लाञ्च्छन गण्डूप मुंह जल जाय तो ( कलौंस) उसकी दाह ३५ मूत्रकृच्छ्रमूत्राघाताधिकारः कषायप्रकरणम् १२१६ गोक्षुरक्काथः मूत्रकृच्छ्, मूत्राघात, ११०९ गङ्गावतीमूलयोगः मूत्रावरोध । मूत्रशुक्र ११६० गुडदुग्धयोगः मूत्रकृच्छू, शर्करा, १२१९ गोधापदीमूलयोगः भयङ्कर मूत्राघात उष्णवात | १२२० गोधावन्यादि मूत्राघातको तुरन्त नष्ट १२१४ गोक्षुरक्वाथः मूत्रकृच्छू, उष्णवात करता है। ( सोज़ाक ) २२३५ तृणपञ्चमूलादि पित्तज मूत्रकृच्छ्र, १२१५. " मल रोकनेसे उत्पन्न मूत्रमार्गसे होनेवाला मूत्रकृच्छू रक्तस्राव For Private And Personal Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २२६१ त्रिफलाकल्कः २२९४ त्रिफलादिकाथः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २२५६ त्रिकण्टकादिकाथ: मूत्रकृच्छू, अश्मरी २२५८ त्रिकण्टकादिसिद्धपयः १२५१ गुडक्षारयोगः १२६४ गुडामलकयोगः - १७०६ चम्पकादिचूर्णम् २३३२ पुषीवीजादि २३३४. २३५० त्रिफलाचूर्णम् 11 चूर्णप्रकरणम् "" मूत्रकृच्छ्र २४२० त्रिकण्टकादि गुग्गुलुः www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ मूत्रकृच्छ्र, शर्करा " गुग्गुलुप्रकरणम् श्रम, शूल मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह, रक्तपित्त, रक्तपित्त, पित्तज मूत्रकृच्छ्र, अ श्मरी, शर्करा, बस्ति शूल । 11 १३ प्रकारके मूत्राघात २४४३ त्रिकण्टकाद्यं घृतम् मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अश्मरी मूत्रकृच्छ्र मूत्राघात (पेशाब वन्द होना ) चूर्णप्रकरणम् २३६१ त्रिफलादीनां योगः मूर्च्छा मूत्राघात, वातज मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, प्रमेह । - प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम १७७७ चित्रकादिघृतम् घृतमकरणम् २५१३ पुषीवीजादि २११२ जलजामृतरस: २६१३ तारकेश्वरो रसः ३६ मूर्च्छाधिकारः " " २६१४ २७३० त्रिनेत्राख्यो रसः For Private And Personal लेपप्रकरणम् १६४२ घनसारादिवर्तिः " Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् २५७६. ताम्र भस्म प्रयोगः २५७९ योगः मुख्य गुण मूत्राघात, मूत्रग्रन्थि, उष्णवात, बस्ति कुण्डली " [ ५५७ ] मूत्रकृच्छ्र मिश्रप्रकरणम् मूत्रकृच्छ्र रसप्रकरणम् ܕܕ मूत्राघात मूत्रकृच्छ्र मूत्रमार्ग में लगाने से मूत्रावरोध नष्ट होता है । मूर्च्छा, भ्रम मूर्च्छा Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ५५८ ] संख्या प्रयोगनाम कषायप्रकरणम् १९८५ गुडूच्यादिकाथ: मेदवृद्धि चूर्ण प्रकरणम् १२७४ गुडूच्यादियोगः मेदोरोग १७०९ चव्यादिचूर्णम् २३०७ तालपत्रक्षारः २३८५ त्र्यूषणाद्यं चूर्णम् मुख्य गुण १३०८ २३१९ तिलादिक्षारः चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी 53 www.kobatirth.org गुग्गुलुमकरणम् १३२७ गुग्गुलु रसायनम् मेदरोग, कफज और वातज रोग 19 ३७ मेदोरोगाधिकारः मेदरोग, अग्निमांद्य मेदोवृद्धि स्थूलता, कफ, अग्निमांद्य चूर्णप्रकरणम् १२७२ गुडूच्यादि चूर्णम् यकृत, प्लीह, पाण्डु, अग्निमांद्य, अरुचि, परदेश के पानी से उत्पन्न हुवा ज्वरादि गुटिकाप्रकरणम् १३०७ गुडपिप्पलीमोदकः प्लीहा, यकृत् बालकों के लिए विशेष उपयोगी ! प्लीहा, ज्वर यकृत, प्लीह, गुल्म, अग्निमांद्य २३८१ त्र्यूषणादिचूर्णम् लीहा संख्या प्रयोगनाम ३८ कुलीहाधिकारः २४२६ यूषणादि गुग्गुलुः कफवायु और मेदज दुस्साध्य रोग । २४७७ त्रिफलादितैलम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तैलमकरणम् रसप्रकरणम् २७५६ त्रिमूर्तिरसः मेद, शोथ, आमबात २७८७ त्र्यूषणादिलौहम् स्थूलता मुख्य गुण अवलेहप्रकरणम् १७५७ चित्रकादिलौहम् प्लीहा, यकृत, ज्वर, शोथ, १७७५ चित्रकघृतम् ------ २६०८ ताम्रेश्वरगुटिका For Private And Personal मेद, आलस्य, कफ प्लीह, ज्वर, अफारा, गुल्म, अरुचि, पा पीड़ा, यकृत् १७७६ चित्रपिप्पली घृ. यकृत, प्लीहा रसप्रकरणम् १५४२ गन्धकादिपोटली यकृत, प्लीहा २५६६ ताम्रकल्पः घृतप्रकरणम् दुस्साध्य प्लीहा, यकृत्, ज्वर, प्लीहा, यकृत् पाण्डु Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम १२१२ गोकण्टकादिसिद्धयः १६५३ चन्दनादिपेया १६५४ काथ: १६५५ १६६२ " " कषायप्रकरणम् "" " 37 २२३७ तृणपञ्चमूलीपयः २२८९ त्रिफलादिकाथः मुख्य गुण चूर्णप्रकरणम् www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी १२३९ गन्धकयोगः १२७१ गुडूच्यादिचूर्णम् मूत्रमार्गगत रक्तपित्त रक्तपित्त अत्यधिक रक्त जाना रक्तपित्त कफजरक्तपित्त, तृष्णा, खांसी, ज्वर । मूत्रमार्गगत रक्तपित्त दाह, पित्तशूल चूर्णप्रकरणम् ३९ रक्तपित्ताधिकारः १२२१ गोधूमादियोगः बलवर्द्धक १६४५ चणकरसायन पित्तकफरोग, प्रमेह १६२९ घृतदध्यादियोगः वृद्धावस्था को रोकता है संख्या प्रयोगनाम देहको सुन्दर करता है | वाजीकरण २३०९ तालीस चूर्णम् १८३२ चन्दनादिलेप: गुटिकाप्रकरणम् २४१२ त्रिवृतादिमोदक: रक्तपित्त, सन्निपात ज्वर १५४४ गन्धकादिरस: १८८५ चन्द्रकलारसः १६३१ घननादादियोगः रक्तप्रवाह १७१७ चित्रकचूर्णयोगः नकसीर (नाकसे रक्त आना ) ४० रसायनवाजीकरण तथा नपुंस्कताधिकारः कषायप्रकरणम् लेपप्रकरणम् १२७५ गुडूच्यादि २. चू. १२८२ गोक्षुरचूर्णम् १२८४ गोक्षुरादिचूर्णम् १२८५ १७१८ चित्रकप्रयोग: " For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् १७३० चूर्णरत्नम मुख्य गुण रक्तपित्त, कफपित्तज ग्वांसी, स्वरभेद, श्वास ܕܕ [ ५५९] रक्तपित्त रक्तपित्त ऊर्ध्व तथा अधोगत रक्तपित्त, विशेषतः रक्तकी वमन और स्त्रियोंका रक्तस्राव स्मरणशक्ति वर्द्धक कुप्रयोगजनित नपुंसकता अत्यन्त वाजीकरण " " बल, कान्ति, आयु और मेधावर्द्धक वीर्यवर्द्धक Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५६. चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण - २३१२ तालीसायंचूर्णम् क्षय, खांसी, ज्वर, १३४८ गोक्षुरपाकः अत्यन्त वाजीकरण रक्तपित्त, अतिसार, १९६० छोहारापाकः वाजीकरण, पौष्टिक हाथ पैरोंकी दाह, घृतप्रकरणम् इत्यादि २०४० जीवन्तीयमकः शुक्रवईक (अनु२३४४ त्रिकण्टकादि '५० अत्यन्त वाजीकरण है २३४५ वासन योग्य , प्रयोग, २३५९ त्रिफलादियोगः आयुवर्द्धक, रसायन। १५१ - १२६९ गोधूमाय घृतम् लिङ्गशैथिल्य,शुक्रक्षय २३६५ त्रिफलायोगः वाक्यहर तैलप्रकरणम् १७९० चन्दनादितैलम् वीर्य और कामशक्ति गुटिकाप्रकरणम् वर्द्धक २०१६ जातिफलादिवटी शुक्रस्तम्भक आसवारिष्टप्रकरणम् २०१७ , " " " २३९८ त्रिकण्टकाद्योमोदकः वाजीकरण - २४८५ ताम्बूलासवः रसायन २४.०६ त्रिफलादिवटी शुक्रतारल्य, इन्द्री रसप्रकरणम् शैथिल्य १४९७ गगनेश्वररसः आयुवर्द्धक १५१० गन्धककपः यौवन देता है। गुगुलुप्रकरणम् रोगनाशक, आयुवर्द्ध. १३२६ गुग्गुलरसायनम् कान्ति, बल, बुद्धि । १५१२ , .. शौर्य, वीर्य, दीर्घायु, और आयुवर्द्धक दिव्यदृष्टि और सुरूप प्राप्त होता है। अवलेहप्रकरणम् जरा(वृद्धावस्था)नाशक १३३८ गुडकुष्माण्डका । १५२१ गन्धकतैलपातनम् कामोत्तेजक, अग्निचलेहः कृशता, अग्निमांद्य, वर्द्धक वीर्यकी कमी, क्षय- १५३४ गन्धकरसायनम् सर्वरोग रोग । १५३५ , . वलिपलितनाशक, १३४५ गोक्षुरादिलेहः वाजीकरण अग्निवर्द्धक १३४७ गोक्षुरपाकः वीर्यस्तम्भक, वाजी- १९०७ चन्द्रोदयरसः सर्वरोग करण, पौष्टिक । । १९०८ , , For Private And Personal Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५६१] - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २११० जरामरणहरोरसः रसायन मिश्रप्रकरणम् । २१११ जराहरोरसः जरा ( १ मासका १६२१ गोधूमाद्यापूपलिका अत्यन्त वाजीकरण प्रयोग) पूरियां। २५६३ ताप्यादिरसायनम् समस्तरोग २१८६ जलनस्यम् दृष्टिवर्द्धक । २६३२ तारसुन्दरीवटी अत्यन्त वाजीकरण । २१८७ जलप्रयोगः खांसी, स्वास, ज्वर, २६३४ तालकराजरसः वृद्धावस्थाको रोकता है। (उषापान) अतिसार, कुष्ट, मूत्र२६६९ तालवटिका बल, वीर्य, दृष्टि विकार, नजला, शक्तिवर्द्धक जुकाम, नेत्ररोगादि २७२९ त्रिनेत्ररसः बलवीर्यवर्द्धक, सर्व- | २१८८ जलप्रयोगः बुद्धि और दृष्टिवर्धक रोग नाशक २१९४ ज्योतिष्मतीरसा० मेधा और दृष्टिवर्धक। ४१ राजयक्ष्मा तथा क्षीणताधिकारः चूर्णप्रकरणम् अवलेहप्रकरणम् १२७० गुडूच्यादिगणः राजयक्ष्मा १७६१ च्यवनप्राशावलेहः राजयक्ष्मा, क्षीणता। १६९२ चतुर्दशाङ्गलौहः खांसी,ज्वर, स्वास,क्षय १७११ चव्यादिचूर्णम् क्षय घृतप्रकरणम् २००५ जीवकादि ,, रक्तक्षीणतासे उत्पन्न | १७६६ चव्यादिघृतम् क्षय की खांसी कृशता १७९८ चन्दनाद्यं तैलम् ज्वर, क्षय, (शरीरको २००६ जीवन्त्याद्यं , बलपुष्टिवर्द्धक पुष्ट करता है।) ( उबटन) । २०४१ जीवन्त्यादिकं घृतम् राजयक्ष्मा, शिरशूल २३०५ तवराजादिचूर्णम् क्षय, भ्रम, दाह, २०४२ जीवन्याय , एकादशरूप क्षय शिरपीड़ा २३२२ तिलादि , क्षय नस्यप्रकरणम् २३२६ तिलाचं , शोष | २५५० तालकादिनस्यम् कफज क्षय गुटिकामकरणम् रसप्रकरणम् २४०७ त्रिफलाद्यागुटिका राजयक्ष्मा, ज्वर, । १९०० चन्द्रामृतरसः राजयक्ष्मा ___ खांसी, रक्तपित्त, वमन १९०१ चन्द्रामृतवटी भा० ७१ For Private And Personal Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५६२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - v/ novinvvv शोथ संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १९३२ चिन्तामणिरसः क्षय,खांसी,अरुचि,ज्वर २७०९ त्रिकटादिलौहम् क्षय, खांसी, ज्वर, १९३९ चूडामणिरसः क्षयरोग २५५९ तरुणानन्दरसः ।। अत्युग्र राजयक्ष्मा, | २७६५ त्रैलोक्य चिन्ता- क्षय, कास, तृषा, क्षय, उरःक्षत, खांसी, अरुचि, जीर्ण मणि रसः शोथ, ज्वर, शोथ,अतिसार। ४२ वातरक्ताधिकारः कषायप्रकरणम् १३५९ गुडूचीघृतम् वातरक्त ११६९ गुडूचीस्वरसादि वातरक्त | १३६० , , ११७५ गुडूच्यादिक्काथः वातरक्त, खाज, कुष्ट । २०३९ जीवनीयघृतम् , २२६८ त्रिफलादिकल्कः शूलयुक्त वातरक्त तैलपकरणम् चूर्णप्रकरणम् | १३९३ गुडूचीतैलम् वातरक्तकी हर अव१२६८ गुडूचीलौहम् वातरक्त स्थामें उपयोगी है। २३७० त्रिवृतादिचूर्णम् पित्तयुक्त वातरक्त स्वेद, खुजली, पीड़ा १३९५ , , वातरक्त गुग्गुलुप्रकरणम् १३३० गुग्गुलुवटी भयङ्कर वातरक्त, पैर लेपप्रकरणम् और समस्त अङ्गका १४४१ गृहधूमादिलेपः वातकफ प्रधान, फट जाना वातरक्त २४२१ त्रिफलागुग्गुलुः । दुस्साध्य वातरक्त, १४५२ गौरसर्षपलेपः वातरक्तकी पीड़ा कुष्ठ, व्रण (३ सप्ताहका प्रयोग है।) - रसपकरणम् . २४२५ त्रिफलाधोगुग्गुलुः वातरक्त, कुष्ट, श्वित्र । २६४० तालकेश्वररसः वातरक्त २६४१ घृतप्रकरणम् २६४३ १३५६ गुडघृतम् वातरक्त, वीसर्प, २६४५ २६४४ " " कफरक्त For Private And Personal Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५६३] AAAAAM MVAAAAAAAAAAAAAAMANA/ - - AWAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA संख्या प्रयोगमाम २६४७ तालकेश्वररसः २७२२ त्रिनेत्ररसः मुख्य गुण वातरक्त गलिताङ्ग वातरक्त, आमवात । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण मिश्रप्रकरणम् १९४५ चोपचीनीवाष्पः वातरक्त ४३ वातव्याध्यधिकारः कषायप्रकरणम् २४२७ त्र्यूषणादि सन्धि, अस्थि और ११६६ गुडूचीकाथः आमवात गुटिकागु० मज्जागत आमवात १२२५ प्रन्थिकादिक्काथः ऊरुस्तम्भ घृतप्रकरणम् १६८८ चोपचीनीप्रयोगः वातव्याधि २२०७ तगरमूलादिकाथः आमवात २४३५ तिल्वकघृतम् एकाङ्गगत तथा सा गगत वातरोग, चूर्णप्रकरणम् २४३६ , , वातव्याधिमें विरेचनो १७२० चित्रकादिचूर्णम् आमाशयगतवायु उपयोगी है। १७२२ ,, आमवात तैलप्रकरणम् २३४९ त्रिफला , ऊरुस्तम्भ । १३८१ गन्ध तैलम् पक्षाघात, आक्षेपक, २३५३ त्रिफलादि ,, , अर्दित, तालुशोष, २३६२ त्रिफलाद्यं , सुप्तिवात मन्यास्तम्भ । (छाती, ___ गुटिकाप्रकरणम् कन्धे और ग्रीवाको २०२५ ज्योतिष्मतीगुटिका समस्तवातरोग पुष्ट करता है।) - १३९४ गुडूची , वातव्याधिमें अनुगुग्गुळुप्रकरणम् वासन योग्य है। १३३६ गुडूच्यादिगुग्गुलुः क्रोष्टुशीर्ष १३९७ गृध्रसीहर , गृध्रसी, उरुग्रह २४१९ त्रयोदशङ्गगुग्गुलुः गृध्रसि, कटिग्रह, १४०२ ग्रन्थिकादि ,, पक्षाघात ___ हनुग्रह, योनिरोग। १७९१ चन्दनादि , ८० प्रकारके वात२४२२ त्रिफलागुग्गुलुः आमवात, सूजन, ज्वर रोग, वातरक्त, मर्म २४२४ , , ऊरुस्तम्भ और अस्थिकी चोट, १ अरुस्तम्भ और आमवात इसीमें सम्मिलित हैं। For Private And Personal Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६६४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २४८० त्रिशतीप्रसारिणी सन्धि, अस्थि और १५६४ गुजागर्भरसायनम् ऊरुस्तम्भ तैल शिरागतवायु। १८७९ चतुर्भुजरसः समस्त वातव्याधि विशेषतः कम्पवात। लेपप्रकरणम् १८८१ चतुर्मुखरसः ऊरुस्तम्भादि १४२९ गुञ्जाफललेपः अपबाहुक, विश्वाची, | १८८४ चतुःसुधारसः समस्त वातव्याधि गृध्रसी १९२६ चिन्तामणि रसः कफान्वितवायु,पित्त युक्तवायु नस्यप्रकरणम् २७१८ त्रिगुणाख्योरसः कम्पवात २०९९ जिङ्गिन्यादिनस्यम् मन्यास्तम्भ, अप- | २७३४ त्रिपुरभैरवः समस्त वातव्याधि बाहुक . २७६४ त्रैलोक्य चिं. म. , २७८० त्र्यम्बकेश्वर अङ्गवात, कम्पवात रसप्रकरणम् १४८७ गगनगर्भरसः कफयुक्त वायु मिश्रप्रकरणम् १४८८ गगनगर्भावटी वातकफजरोग | १९४५ चोपचीनीवाष्पः समस्त वातजरोग, १४९४ गगनादि ,, वातपित्तजरोग विशेषतः सन्धिपीड़ा १५४९ गन्धाश्मगर्भरसः स्पर्शवात २७९९ तर्कार्यादिसेचन ऊरुस्तम्भ १५५० ,,,, कम्पवात, स्पर्शवात ४४ विषाधिकारः कषायप्रकरणम् चूर्णप्रकरणम् १९१५ गरुडीमूलयोगः सर्पविष १२४७ गवाक्षीचूर्णम् मूषकविष सर्पविष १६५१ चन्दनादिकल्कः मकड़ी (लता)का | १३७९ गृहधूमादि विष १२९५ गोरोचनचूर्णम् शृगाल,बिलाव,मण्डूक १६६९ चन्दनादिप्रयोगः सर्व प्रकारके विष और सांपका विष १९७४ जलवेतसादियोगः विष १७०५ चन्द्रोदयोऽगदः सर्वविष २२०९ तण्डुलीयकमूलयोगः सर्पविष | १७१४ चिञ्चादिचूर्णम् मूषकविष २२७७ त्रिफलादिक्वाथः पारदविष . । १७३१ चूर्णागदः स्थावर, जङ्गम और कृत्रिम विष For Private And Personal Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५६५] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण घृतप्रकरणम् धूपप्रकरणम् १३५१ गरविषहरघृतम् गरविष १४५४ गुग्गुलुधूपनम् रक्तकोटदंश १६३८ घृतसैन्धवयोगः वृश्चिकदंशकी तीव्र २५२५ तालनिम्बादियोगः वृश्चिकदंश पीड़ा २४३१ तण्डुलीयकं घृतम् समस्तविष अञ्जनप्रकरणम् तैलप्रकरणम् २०९३ जैपालाञ्जनम् सर्पदष्टकी मूर्छा १८०३ चित्रकमूलतैलम् मूषकविष रसप्रकरणम् लेपप्रकरणम् १५५२ गरनाशनरसः गरविष १४२३ गिरिकादिलेपः मकड़ीका विष २६०३ ताम्रसुवर्णयोगः स्थावरविष १४४६ गोजिह्वायोगः दन्त और नखका विष १८२३ चन्दनादिलेपः लूता (मकड़ी)का विष मिश्रप्रकरणम् २०७४ जीरकादिलेपः वृश्चिक विष २८०० तार्योऽगदः सर्पविष २०७९ जयपाललेपः , , २८०७ त्रिवृताधगदः सर्वविष ४५ विसाधिकारः कषायप्रकरणम् | १३७३ गौर्यादिघृतम् पित्तज विसर्प, ११५६ गायत्र्यादिक्काथः विसर्प, दाह, ज्वर, नासूर, शिरोरोग, वमन, मूर्छा. मुखपाकादि। २२४९ त्रायमाणादिकाथः उपद्रवयुक्त विसर्प २२६४ त्रिफलाकाथः विसर्प ज्वरके लिएरेचन तैलप्रकरणम् चूर्णप्रकरणम् १७८६ चणकादितैलम् विसर्प २३७७ त्रिवृतादिशोधनम् विसर्पमें विरेचन । लेपप्रकरणम् घृतप्रकरणम् | १४१९ त्रायन्त्र्यादिलेपः कफज विसर्प १३७२ गौराद्यं सर्पिः विसर्प, मकड़ी आ- २५१७ त्रिफलादिलेपः , , दिका विष, व्रण। For Private And Personal Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ५६६ ] संख्या प्रयोगनाम १३२३ गुग्गुलुप्रयोगः कषायप्रकरणम् २२५२ त्रिकङ्घादिकाथः कफवातजवृद्धि २३०३ त्र्यूषणादिकाथः १३५२ गव्यघृतादियोगः २४५८ त्रिवृतादिघृतम् २२८३ गुग्गुलुप्रकरणम् २२७६ त्रिफलादिकाथः "" घृतप्रकरणम् मुख्य गुण ܕܕ चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी चूर्णमकरणम् २१९८ टङ्कणप्रयोगः www.kobatirth.org वातकफज अण्डवृद्धि ४६ वृद्धयधिकारः अण्डवृद्धि अन्त्रवृद्धि, व्रण, शोथ और समस्त अन्त्र - विकार कषायप्रकरणम् ११५५ गाङ्गेरुकी स्वरसः शत्रादिके ताजे घावकी १३२२ गुग्गुलुगुटिका वेदना तुरन्त नष्ट करता है । दुर्गन्धित और पीड़ा युक्त व्रण । व्रणशोधक संख्या प्रयोगनाम आसवारिष्टप्रकरणम् पुरानीवातज अण्डवृद्धि १८१३ चविकासव अन्त्रवृद्धि १२८० गृहधूमादिचूर्णम् मेदसे दुष्ट व्रणको सुखाता है 1 कुनख १ - प्रन्थ्यर्बुद भी इसीमें सम्मिलित हैं । ४७ व्रणाधिकारः तैलमकरणम् १३८३ गन्धर्वहस्ततैलम् अन्त्रवृद्धि १८२६ चन्दनादिलेपः २४९० तर्कारिकादिलेप: २५२१ त्रिफलादिलेप: १३२८ लेपप्रकरणम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal चटक: १३२९ गुग्गुलुवटिका १३७१ गौराधं घृतम् मुख्य गुण गुग्गुलुमकरणम् घृतप्रकरणम् पित्तजवृद्धि अण्ड " ܕܪ ܕܕ दुष्ट व्रण, भगन्दर, अर्श, पिडिका व्रणशोधन, रोपण, मलशोधक नाडीव्रणको शुद्ध करता है । नासूर तथा सब प्रकारके व्रणोंको शुद्ध करता है । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम १३७४ गौर्यायं घृतम् २०३२ जात्यादि घृतम् २०३३ जात्यादिघृतम् २०३७ जीरकघृतम् २४३३ तिक्तादिघृतम् "" १७९५ चन्दनादितैलम् १७९६ यमकः तैलप्रकरणम् १७९७ "' २०५३ जात्यादि - २४६९ ताली साद्यं www.kobatirth.org 99 चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी मुख्य गुण गहरे, पुराने, गले सड़े तथा पीड़ा, दाह और स्राववाले घावों भरता है। सूक्ष्म मुखवाले, गहरे, और पीडायुक्त मर्माश्रित व्रण भरते और सूख जाते हैं । पीड़ा और रक्तस्राव अग्नि वाला नासूर, दग्ध व्रण । अग्निदग्ध व्रण घाववाले स्थानके रंगको सुधारता है। संख्या प्रयोगनाम सिम, पामा, विचचिका । अत्यन्त कठिन व्रणको भी पकाकर फोड़ देता है | १८४१ चिरविल्वादिलेपः व्रणको शीघ्र पकाकर फोड़ देता है | araणको भरता है २०६६ जम्ब्वाम्रपल्ल्वादि व्रणवाले स्थानका रंग ठीक करता अग्निदग्ध व्रणको है तुरन्त भरता २०७० जातीपुष्पादिलेप: बढ़े हुवे मांसको है 1 रोपणतैलम् व्रणरोपण है । कता है। 1 " विषजव्रण, कटिदंश, २०७८ जैपाललेपः शस्त्रत्रण, अग्निदग्ध, दन्तनखादिका घाव, कील इत्यादि से बिंध २४९७ तालादिलेपनम् जाना आदि समस्त प्रकारके घाव । तुरन्तका घाव (क्षत) १४१० गदादिलेपः १४१३ गन्धकादिलेप: १४३४ गुडगृहधूमलेपः १४३७ गुणवतीवर्तिः १४३९ गृहधूमादिलेपः १४४० २५०२ For Private And Personal लेपप्रकरणम् " १४४७ गोदन्तलेपः " "" Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लेपः [ ५६७ ] मुख्य गुण गाता है अर्बुद ( रसौली ) अत्यन्त पीड़ा और सूजनवाले, पुराने कफवातज व्रण और लिए उत्तम मल्हम सर्व प्रकार बढ़े हुवे मांसको काटता है। पीपवाले और कृमि युक्त हर प्रकारके व्रण, उपदंश । व्रणकी सूजन, दाह, पीड़ा और रक्तस्रुति । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५६८ ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २५०४ तालादिलेपः वातज व्रणकी दाह मिश्रप्रकरणम् और पीड़ा १६४३ धृतावसेचनम् ताजे घावका उपाय २५०६ तिलाष्टकम् व्रणशोधक २१९१ जात्यादिवर्तिः नासूर २८०१ तालकाद्यामषी दुष्ट नाडीव्रण २५०७ तुगाक्षीर्यादिलेपः अग्निदग्धव्रण | २८११ तृवृतादिवर्तिः सूक्ष्म मुखवाले व्रणोंको २५२२ त्रिफलामषीलेपः .. , शुद्ध करती है। नेत्रशूल ४८ शिरोरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् २४७४ त्रिफलातैलम् अरुषिका ७ दिनके प्रयोगसे १९५१ छिन्नादिक्काथः शिरशूल, आधासीसी, २४७६ त्रिफलादि ,, आयुभरके लिए बाल काले हो जाते हैं। २२५३ त्रिकट्वादि शिरशूल २४७९ त्रिफलायं , अरुषिका तैलप्रकरणम् २४८१ त्वगादि , शिरोरोग (नस्य) १३८६ गुञ्जातैलम् केशवर्द्धक है। लेपपकरणम् १३८७ , , आधाशीशी, शिरशूल, १४२८ गुजापत्रादिलेपः केश गिरना भौं, कनपटी और १४३० गुञ्जाफललेपः दारुण कानकी पीड़ा १४३२ गुञ्जालेपः केशवर्धक दारुण, खुजली, शि १४४५ गोक्षुरादिलेपः रका कुष्ट १८२१ चण्ड्यादिलेपः दारुण १३८९ , , अरुषिका ( शिरकी १८२४ चन्दनादिलेपः पित्तज शिरोरोग १८२९ , १७९४ चन्दनादितैलम् शङ्खक केशवर्द्धक, पलित , १८३३ , पित्तज शिगेरोग नाशक, २०६५ जपाकुसुमलेपः इन्द्रलुप्त १८०५ चित्रकादि ,, यूका (जू)को नष्ट २४९८ तिक्तपटोलीपत्रयोगः , करता है। २४९९ तिलपर्णीवीजलेपः शिरपीडा २०५६ जात्यादि , इन्द्रलुप्त २५१५ तिलपुष्पादिलेपः इन्द्रलुप्तके लिए २०५८ जीवकाचं , वातपित्तज शिरोरोग अत्यन्त प्रशंसित। पुंसी) For Private And Personal Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम २५१५ त्रिफलादियोगः 27 २५१६ २५१९ त्रिफलादिलेप: २५२० 99 "" " " "" नस्यप्रकरणम् १४७६ गान्धार्यादिघृतनस्य आधासीसी १४७७ गिरिकर्णिकानस्य मुख्य गुण केशरञ्जक (५ मास तक बाल काले रहते हैं ।) " अकालपलित केशरञ्जन चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी " १४७९ गुडनागरादिनस्य मस्तकशूल १४८० गुडादिनस्यम् आधाशीशी १४८१ ऊर्ध्वजत्रुगत समस्त रोग ४९ शीतपितोदर्दाधिकारः कषायप्रकरणम् १९१४ गम्भारीदुग्धयोगः शीतपित्त २२९७ त्रिफलादिविरेचनम् शीतपित्तनाशक विरेचन कषायप्रकरणम् १२६१ गुडादिमण्डूरम भा० ७२ चूर्ण प्रकरणम् www.kobatirth.org १६८२ चित्रकादिकाथः आमशूल २२९२ त्रिफलादिकाथः शूल, दाह [ ५६९ ] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २०९७ जपापुष्परसनस्यम् सात दिनमें बाल काले हो जाते हैं । २५४९ ताम्बूलादिनस्यम् और कनपटीकी पीड़ा तथा मस्तक भ्र और नाक कृमि । २५५१ त्वक्पत्रादिनस्यम् पित्तज शिरोरोग परिणामशूल १४८९ गगनमुखरसः १८८८ चन्द्रकान्तरस: ५० शूलाधिकारः Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् २७८४ त्र्यूषणादिगुटिका शिरोव्यथा १२५४ गुडदीप्यक योगः १६९४ चन्दनयोगः For Private And Personal सूर्यावर्त सात दिन में सूर्यावर्तादि को नष्ट करता है । चूर्णप्रकरणम् उदर्द शीतपित्त १२६९ गुडूच्यादिचूर्णम् वातशूल, हृदयशूल १२९३ गोमूत्रसिद्ध मण्डूरम् सन्निपातज शूल १६९० चतुस्समचूर्णम् १७२५ चित्रकादि,, शूल, अग्निमांद्य सर्वशूल, विशेषतः परिणामशूल, यकृत् शूल, प्लीहशूल, Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५७० ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम . मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २२४८ त्रायमाणादिक्वाथः पित्तशूल रसप्रकरणम् २३३० तुम्बादि चूर्णम् कफजशूल १५०१ गजकेशरी भयङ्करशूल २३३६ त्रिकटुकादिचूर्णम् कफवायु, शूल। १५०४ गदमददहनो रसः पसलीशूल, अग्निमांद्य, ... (दीपन है) अरुचि २३५४ त्रिफलादि , सर्व प्रकारके शूल: १५३२ गन्धकरसायनम् सर्वशूल २३६८ त्रिलवणादि ., कफजशूल ! १५८५ गौडो रसः , दाह । । १८८३ चतुःसमलौहम् हृदय पसली कमर गुटिकाप्रकरणम् यकृत् , प्लीहा और १७४० चपलामण्डूरम् पक्तिशूल शिरका शूल १७४५ चित्रकादिमोदकः परिणामशूल २५६५ ताम्रकः परिणामशूल, अजीर्ण १७४६ , वटकः आमशूल, पसलीका २५७३ ताम्रभस्मप्रयोगः शूल, अम्लपित्त दर्द, हृदयशूल। २६०४ ताम्रादिप्रयोगः । उपद्रवयुक्त शूल १७४७ चतु:सममण्डूरम् शूल, अग्निमांद्य, २६०६ ताम्राष्टकम् तीबशूलको शीघ्र नष्ट अम्लपित्त करता है। २३९१ तिलादिगुटिका शूल ( उत्तम बाह्यो- २६३३ तारामण्डूरम् पक्तिशूल, मन्दाग्नि, पचार | २७१४ त्रिकत्रयाचंलौहम् भयङ्कर शूल २३९२ तिलादिवटी पुराना परिणामशूल २७२१ त्रिदोषशूलहरः त्रिदोषज शूल २७२३ त्रिनेत्ररसः पक्तिशूल . अवलेहप्रकरणम् २७२८ , , १३४१ गुडाद्यं मण्डूरम् १ वर्षका पुराना २७३५ त्रिपुरभैरवरसः परिणामशूल परिणामशूल २७४८ त्रिफलामण्डूरम् अम्लपित्तज शूल । २७५२ ,, लौहः शूलको तुरन्त हरता है घृतप्रकरणम् १३५७ गुडपिप्पलीवृतम् परिणामशूल, अम्ल मिश्रप्रकरणम् | २८०२ तिलकाथधारा शूलहर बाह्योपचार - - पित्त For Private And Personal Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५७१1 MANANARAANARAAWwwwvvvvvvvwn.vivnwwvvvvwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwAnd संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण __५१ शोथाधिकारः गुटिकाप्रकरणम् आसवारिष्टप्रकरणम् ११६२-६४ गुडाईकादि १४०५ गण्डीरावरिष्टः शोथ, हिक्का, अर्श योगः शोथ २२७५ त्रिफलादिकाथः , रसप्रकरणम् २२७८ , , शोथ, व्रण, भगन्दर १९४१ चूलिकावटी उदरशोथ चूर्णप्रकरणम् २१२७ जैपालरसः शोथ, पाण्ड, (विरे१२५९ गुडादिचूर्णम् शोथ, शूल, आमा चक है) जीर्ण २५५५ तक्रमण्डूरम् शोथ, पाण्डु १२६० , , सर्व प्रकारके शोथ १२६५ गुडाईकयोगः शोथ, श्वास, खांसी, २५७३ ताम्रभस्मप्रयोगः शोथ, ग्रहणी ज्वर, संग्रहणी। २७०८ त्रिकटुकादिलौहम् शोथ १२६६ , , शोथ २७१० त्रिकट्वायलौहम् १२९२ गोमूत्रमण्डूरम् सर्वाङ्गगतशोथ | २७११ , , भयङ्कर शोथ, २३०१ त्रिवृतादिक्काथः पित्तजशोथ स्थूलता उदर२४०५ त्रिफलादिवटिका शोथ, पाण्डु, शोथ । भगन्दर २७३१ त्रिनेत्राख्योरसः दुस्साध्यशोथ गुग्गुलप्रकरणम् : २७३२ , , , , गुल्म १३२५ गुग्गुलुप्रयोगः शोथ १३३३ गुग्गुल्वादियोग ४. , मिश्रप्रकरणम् घृतप्रकरणम् १६२० गोधूमादिपोलिका शोथ १७८० चित्रकादिघृतम् शोथ, अर्श, गुल्म २७८८ त्र्यूषणायलौहम् शोथको शीघ्र १७८२ चित्रकोत्थितंवृतम् शोथ, अर्श, अतिसार For Private And Personal Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५७२ ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी v vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvwwwvain. संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ५२ इलीपदाधिकारः कषायप्रकरणम् लेपप्रकरणम् ११७२ गुडूच्यादिकल्कः श्लीपद १४३६ गुडूच्यादिलेपः स्लीपद २२१३ ताम्बूलपत्रयोगः , १८३९ चित्रकादिलेपः , चूर्णप्रकरणम् रसप्रकरणम् १२७३ गुडूच्यादिचूर्णम् स्लीपद | १८७० चक्रेश्वरो रसः स्लीपद ५३ श्वासाधिकारः चूर्णप्रकरणम् | १३४३ गुडावलेहः श्वासको समूल नष्ट २३३७ त्रिकटुकादिचूर्णम् स्वासको शीघ्र नष्ट करता है । ३ सप्ताहका सरल प्रयोग है। करता है गुटिकाप्रकरणम् घृतप्रकरणम् १३०९ गुडादिगुटिका श्वास, खांसी २४३४ तिक्ताचं घृतम् श्वास, खांसी, २४०१ त्रिपुरभैरवीवटी कफको नष्ट करती है। रसप्रकरणम् अवलेहप्रकरणम् २५९७ ताम्ररसायनम् श्वास, खांसी, प्रवृद्ध कफ । १३४० गुडादिलेहः वातज तीव्र श्वास | २६१० ताम्रेश्वरोरसः श्वास, सूतिकारोग १३४२ गुडाद्यवलेहः श्वास ५४ स्त्रीरोगाधिकारः कषायप्रकरणम् | ११२८-११३५ गर्भरक्षक १११६-११२७ गर्भरक्षक योगाः प्रथम माससे आठवें योगाः गर्भके प्रथम माससे मास तक गर्भपात, ११३६-११५३ गर्भचलन और शूल १२ ३ मास तक गर्भिणीशूलहराः प्रथम माससे ११ प्रत्येक मासका शूल वें मास तक होनेऔर गर्भका हिलना। वाली गर्भिणीकी पीड़ा For Private And Personal Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम ११९८ गुडूच्यादिकाथः १६३० घोषकस्वरसः १६५२ चन्दनादिकल्कः पैत्तिक प्रदरको ३ दिनमें नष्ट करता है "" "" १६६१ गर्भिणीका ज्वर गर्भरोधक १९६२ जपाकुसुमयोगः १९६३ जपादियोगः गर्भपोषक १९८१ जीवकपुत्रकवीज- बच्चोंका अल्पायुमें योगः मर जाना १९८४ ज्योतिष्मतीप्रयोगः रजप्रवर्तक है । २२१० तण्डुलीयकल्कः रक्तप्रदर २२१२ तण्डुलीयमूलप्रयोगः बन्ध्याकरणम् २२३० तिलादिकाथ: २२३१ काथः " चिकित्सा- - पथ-प्रदर्शिनी २२५० त्रायमाणादिकाथः मुख्य गुण योनिकी खाज योनिकन्द २२३२ 11 २२३४ तुलसी पत्रस्वरसः प्रसवके पश्चात्का शूल स्तन्यशोधक "" रक्तप्रदर, दाह नष्टार्तव चूर्ण प्रकरणम् " १२४५ गर्भस्तम्भनयोगः गर्भरक्षक है । १२४६ १२४९ गाढीकरणयोगः १२७८ गुदौर्गन्ध्यनाशक www.kobatirth.org 11 योनिसङ्कोचक 99 योगः १२८१ गैरिकादिचूर्णम् १६९८ चन्दनादिचूर्णम् चार प्रकारका प्रदर, रक्तातिसार, रक्तार्श, रक्तपित्त । योनिदुर्गन्ध योनिकन्द २०१३ जयादिवटी २०१९ जीरकादिमोदकः - २०२२ संख्या प्रयोगनाम १७०३ चन्दनाद्यं चूर्णम् २००४ जीर्णचेलीभस्म २१९९ टङ्गनादिचूर्णम् २३०८ तालीसगैरिकयोगः वन्ध्याकरणम् २३१७ तिलमूलादिचूर्णम् पुष्परोध, वातगुल्म २३३८ त्रिकटुकादियोगः मक्कलशूल गुटिकाप्रकरणम् 27 29 २०३१ जीरकाद्यलेहः For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir " [ ५७३ ] मुख्य गुण गर्भाशयविकार अवलेहप्रकरणम् " पीडित योनिकी खाज जरायुशूल, ऋतुदोष, कटिशूल | योनिरोग सूतिकारोग, ग्रहणी में विशेष उपयोगी घृतप्रकरणम् १३६१ गुडूच्यादिघृतम् योनिगत वातविकार नाशक, गर्भस्थापक २०३४ जात्यादि योनिकी दुर्गन्ध वन्ध्यत्व २४३८ तुरङ्गगन्धा " २४५९ त्रिवृतादिमिश्रकः योनिशूल प्रदर, ज्वर, दाह, क्षय तैलप्रकरणम् १३८४ गर्भविलासतैलम् गर्भशूल, शोणितस्राव १३९६ गुडूच्यादि २४७० तिलतैलादियोगः पुत्रोत्पादक वातज योनिशूल Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५७४ ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - -- - - रोग. संख्या प्रयोगनाम - मुख्य गुण · संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण आसवारिष्टप्रकरणम् १५५७ गर्भपालरसः गर्भके प्रथम माससे २०६४ जीरकाद्योऽरिष्टः सूतिकारोग, ग्रहणी, नवम मास तकके अतिसार । समस्त रोग। १५५८ गर्भविनोदरसः गर्भिणीके समस्त लेपप्रकरणम् १४१८ गाढीकरणलेपः योनिसङ्कोचक १५५९ गर्भविलासरसः गर्भिणीका शूल, ज्वर, १८३४ चन्दनादिलेपः गर्भिगीकाशोथ विष्टम्भ, अजीर्ण। २५११ तुम्बीपत्रादियोगः प्रसवके पश्चात् भगको १५७२ गुल्मगजारातीरसः स्त्रियोंका जलोदर सङ्कुचित करता है । १५७७ गुहयरोगारिरसः स्त्रि पुरुषोंके गु हयरोग धूपप्रकरणम् १८६७ चक्रिकावन्धरसः नागोदर, जलकूर्म, २०८२ जग्ब्यादिधूपः योनिदोष उपविष्टक, गुल्मादि २५२४ तण्डुलकण्डनधूपः . योनितोद १८८५ चन्द्रकलारसः रक्तस्रावमें विशेष उपयोगी। रसमकरणम् १९०३ चन्द्रांशुरसः जरायुदोष, भयङ्कर १४९३ गगनादिलौहम् सोमरोग(अवश्य नष्ट योनिशूल, योनि. करता है) कण्डु, स्मरोन्माद, १५५४ गर्भचिन्तामणि गर्भिणीका ज्वर, दाह, योनिविक्षेप सन्निपात, प्रदर, सू- २१०८ जयसुन्दरो रसः वन्ध्यत्व तिका रोग। २६३६ तालकादिगुटिका प्रसूताके वातजरोग १५५५ गर्भिगीके समस्त रोग | २७६९ त्रैलोक्यतिलक भयङ्कर रजःशूल १५५६ , , ५५ स्नायुकरोगाधिकारः चूर्णप्रकरणम् १२५१ गोधूमादिचूर्णम् नहरुवा For Private And Personal Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५७५ संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ५६ स्वरभेदाधिकारः चूर्णपकरणम् रसप्रकरणम् १७०७ चव्यादिचूर्णम् कफज स्वरभंग, १५८४ गोरक्षवटी स्वरभङ्ग पीनस २७७९ त्र्यम्बकाभ्रम् हरप्रकारके स्वरभङ्ग २३५८ त्रिफलादि प्रयोगः स्वरभेद में अत्युत्तम । ५७ हिक्काधिकारः कषायप्रकरणम् हृदय और पार्श्वकी १६७० चन्द्रसूरक्काथः वेगवती हिक्का पीड़ा । रसप्रकरणम् चूर्णप्रकरणम् १५२४ गन्धकपिष्टिरसः ५ प्रकारकी हिक्का २३६४ त्रिफलाप्रयोगः हिचकी, श्वास । २२०६ डामरेश्वराभ्रम् भयङ्करहिचकी,श्वास २५७२ ताम्रभस्मप्रयोगः हिचकी घृतप्रकरणम् २६७८ तालेश्वररसः हिचकी, स्वरभङ्ग, २४४० तेजोवत्यादिघृतम् हिमा, श्वास, कास ५८ हृद्रोगाधिकारः चूर्णप्रकरणम् अवलेहप्रकरणम् १७५१ चन्द्रावलेहः हृद्रोग, भ्रम, मूर्छा, १२८९ गोधूमपार्थ चूर्णम् समस्तहृद्रोग प्रबलदाह, वमन रसप्रकरणम् १२९० गोधूमादि , प्रवृद्रोग । १९२७ चिन्तामणिरसः समस्त हृद्रोग,फुप्फुस २३१४ तिक्ताख्यं , हृद्रोग, शूल रोग, श्वास, ज्वर। २७२६ त्रिनेत्ररसः समस्तहृद्रोग २३७५ त्रिवृतादि , कफजहृद्रोग । २७६० त्रिविष्टपरसः हृदयशूल For Private And Personal Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट १-धातुशोधनमारणाद्यधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण - संख्या प्रयोगनाप मुख्य गुण १५१५ गन्धक गन्धनाशनम् १९१० चपललक्षणगुणाः १५१६ , गन्धहरणम् १९३७ चुम्बकः १५१८ , ग्रासविधिः २१२६ जयपालगुणशोधने १५१९ ., जारणम् २१२८ जयपालशोधनम् १५२० ,, , २२०२ टङ्कणक्षारः १५२२ गन्धकदोषाः २२०३ टऋणशोधनम् १५२३ गन्धकद्रुतिः २२०४ , , १५२८ गन्धक भेदाः २५७१ ताम्रभस्मनिरुत्थी१९३७ , शुद्धिः करणम् १५३८ ., शोधनम् २५८१ ताम्रभस्मविधिः लोणी रसेन १५३९ , , २५८२ , ३ पुटी, १ पुटी, १५४१ कूर्मपुटेन गन्धक ४पहर (पारदयोगसे) शोधनम् २५८३ , , ४ अहोरात्र । रस१५४५ गन्धपिष्टिः (बन्धनम्) सिन्दूर भी साथ में १५४६ , बन जाता है। १५६२ गिरिसिन्दूरगुणाः (पारदयोगसे) १५६३ गिरिसिन्दूरोत्पत्तिः ४ पहरी। गन्धक १५७८ गैरिकगुणाः १५७९ गैरिकभेदाः २५८५ , " अधिक परिमाण में १५८० गैरिकशोधनम् बनानेके लिए उप१५८२ गोमेदगुणाः योगी । रस सिन्दूर १५८३ गोमेदलक्षणम् भीसाथमें बनता है। १५८६ गौरीपाषाणभेदाः २ दिन लगते हैं। १५८७ गोरीपाषाणशोधनम् (पारदेन) २५८४ २५८४ . योगेन For Private And Personal Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [५७७] Nan....AAAAAPPhoranAAAAAAAAAAAAAAPr... AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २५८६ ताम्र भस्मविधिः ३पहर अग्नि । १ २६२४ तार मारणम् १२ पुटी। पारद बराहपुट तालयोगसे। तालेन। २५८७ , , सोमनाथी । गमेयन्त्र २६२५ , , ३० पुटी । माक्षिक पाचित ।१ पहरी । योगसे पारद, हरताल और २६२६ माक्षिकयोगसे शिलायोगसे । | २६२७ । " १४ पुटी। माक्षिक२५८८ ताम्रभस्मशुद्धिः योगसे २५८९ ताम्रभस्मामृतीकरण २६२८ १४ पुटी। हरताल२५९१ ताम्रमारणम् पारद योगसे योगसे २५९२ , , पारद योगसे ४ पहरी २६२९ , शोधनम् २५९३ ,, गन्धक योगसे ६ पुटी २६३० , " २५९८ ताम्रविकारशान्तिः अशुद्ध ताम्र भक्षण २६३१ तारस्य विशेषशोधनम् विकार २६५८ तालभस्मप्रकारः कुष्ठ २५९९ ताम्रशुद्धिः २५५९ तालभस्मप्रयोगः , २६०० , " २६६० तालभस्मविधिः , २६६१ , , २६०२ , शोधनम् २६६२ " , वातव्याधि २६१६ तारक्रियाप्रकारः चान्दी बनाना २६६३ , , कुष्ठादि २६१७ , " " " वातरक्त २६१८ , , " " २६१९ , , २६६७ , मारणम् कुष्ठ, वातरक्त, फिरङ्ग२६२० तारमारणम् ३ पुटी चांदीभस्म रोग (वनस्पति योगसे) २६६८ , सिद्धमते । अनेकरोग २६२१ , , पारद योगसे चांदी २६७० तालशुद्धिः भस्म (८ पहरी) | २६७१ तालशोधनम् २६२२ , , पारदगन्धतालेन । । २६७२ , , (२ पुटी ) २६७३ तालसत्वपातनम् तालयोगसे। १ पुटी २६७४ " व्रण २६६५ " २६२३ " " For Private And Personal Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५७८ ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम २६७५ तालसत्वपातनम् २६९६ तुत्थशोधनम् २६७६ २६९७. , . २६९८ ,, , २६९१ तुत्थनिर्माणविधिः २६९.९ " " २६९२ तुत्थभस्मविधिः २७०० तुत्थसत्वपातनम् २६९३ तुत्थमारणम् २७०१ तुत्थात्ताम्रनिस्सा२६९४ तुत्थमुद्रिका छुनेसे ही विष नष्ट रणविधिः करती है। . २७०३ तुत्थोत्थताम्रशुद्धिः २६९५ तुत्थविकारशान्तिः | २७५८ त्रिवङ्गभस्म १४८४ गुडूचीकल्पः २ ओषधिकल्पाधिकारः २१८२ ज्योतिष्मतोकल्पः २५५२ तुवरक " २५५३ त्रिफला , २५५४ , , १८६३ चतुरङ्गुलकल्पः १८६४ चित्रक , ३ मिश्राधिकारः कषायप्रकरणम् १२८६ गोक्षुरादिपञ्चमूलम् ११७१ गुडूच्यनुपानम् १७१२ चातुर्जातम् १६४७ चतुरम्लम् २३४६ त्रिगन्धम् १९८२ जीवनीयकषायदशकः २३७१ त्रिवृतादिचूर्णम् ग्रीष्म कालीन विरेचन २२३८ तृप्तिन्नोकषायदशकः २३७२ " , वर्षा , २२५१ त्रिकटुकादिगणः २३७३ , , शरत् , " २२६० त्रिफला २३७४ , , हेमन्त ,, ,, चूर्णप्रकरणम् ... गुटिकाप्रकरणम् १२४३ गन्धद्रव्याणि . विष्णु तैलादिमें पड़ते है। १३१२ गुडादिमोदकः विरेचक १२४४ , , , , , २४०३ त्रिफलादिगुटिका योगवाही For Private And Personal Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम २४१३ त्रिवृतादिमोदकः घृतप्रकरणम् मुख्य गुण राजाओंके योग्य विरेचन २४१६ त्रिवृदष्टकमोदकः पित्तप्रकृतिके लिए उत्तम विरेचन १६३६ घृतधोनेकीविधिः तैलप्रकरणम् २०४९ जयपालतैलम् www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी तीव्ररेचक संख्या प्रयोगनाम २५७४ ताम्र भस्मप्रयोगः इत्यो ३ म् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पकरणम् २४९२ तालकादियोगः लोमनाशक २१८९ जलमज्जनमृत प्रतिकारः For Private And Personal रसमकरणम् [ ५७९ ] मुख्य गुण विरेचक पानी में डूबना Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वैद्यक-शब्दनिधिः = यह वैद्यक शब्दोंका एक अत्युपयोगी कोष है । इसमें प्रत्येक संस्कृत शब्दके हिन्दी, गुजराती और मराठी पर्याय बहुत खोजके साथ लिखे गए हैं। गुजराती शब्द गुजराती विद्वानों द्वारा लिखित निघन्टुओंसे और मराठी शब्द मराठी विद्वानोंद्वारा लिखित निघन्टु-ग्रन्थोंसे अत्यन्त शुद्धतापूर्वक लिखे गए हैं। एक एक शब्द कई कई कोषोंसे जांच करके लिखा गया है, इस लिए अन्य वैद्यक कोषोंकी अपेक्षा यह कोष अधिक विश्वस्त है। ___ यह कोष हिन्दी भाषाभाषी, गुजराती और मराठी वैद्योंके लिए समान उपयोगी है । इससे केवल संस्कृत शब्दोंके ही अर्थ ज्ञात नहीं होते बल्कि इसकी सहायतासे एक मान्तवासी दूसरे प्रान्तकी वैद्यक पुस्तकोंको भी आसानीसे समझ सकते हैं, . क्योंकि प्रत्येक भाषाके शब्दोंकी सूची पृथक् पृथक् अकारादि क्रमसे दी गई है। पता १-ऊंझाआयुर्वैदिक फार्मसी, रीचीरोड अहमदाबाद. २-ऊंझा आयुर्वेदिक फार्मसी विट्ठलवाडीका नाका कालबादेवी बम्बई २ ३-स्वास्थ्य-सदन, हल्दौर (बिजनौर) For Private And Personal Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private And Personal चिकित्सकका पता प्रयागका नाम और पता निर्माणविधि सम्बन्धी विशेष सूचना अनुभवपत्रक संख्या १ ( प्रयोग विषयक किस सन्दिग्धोषधिक किस रोगकी किस दशा में या किन स्थानमें क्या लेते हैं। लक्षणोंमें अधिक गुणकारी है इस फार्मको यथावसर लिखते रहिए और भरकर आरोग्यदर्पण कार्यालय, रीचीरोड-अहमदाबाद के पते पर भेजनेकी कृपा कीजिए । किसदशामें कमगुण करता है। या निष्फल होता है मात्रा, अनुपान विशेष सूचना (किस रोगक कितने रोगियोंको आराम हुवा) Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगका नाम और पता निर्माणविधि सम्बन्धी विशेष सूचना किस सन्दिग्धोषधिके किस रोगकी किस दशामें या किन किसदशामें कमगुण करता है विशेष सूचना (किस रोगके स्थानमें क्या लेते हैं | लक्षणोंमें अधिक गुणकारी है या निष्फल होता है मात्रा, अनुपान कितने रोगियोंको आराम हुवा) Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra For Private And Personal www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सकका पता ) अनुभवपत्रक संख्या २ ( इस फार्मको बथावसर लिखते रहिए और भरकर (रोग विषयक) आरोग्यदपेण-कायोलय, रीचारोड-अहमदाबाद (अनुभवबिना कोई बात न लिखिए) के पते पर भेजनेकी कृपा कीजिए। Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रागका नाम वह खास लक्षण जिनसे रोगकी भ्रमरहित पहिचान हो सके। इस रोगके सर्वोत्कृष्ट प्रयोगका किस उपद्रवका क्या उपाय करते हैं नाम व पता ( संक्षेपसे) | चिकित्सा सम्बन्धी सङ्केत (भेदकी बात) For Private And Personal www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रोगका नाम वह खास लक्षण जिनसे रोगकी भ्रमरहित पहिचान हो सके इस रोगके सर्वोत्कृष्ट प्रयोगका किस उपद्रवका क्या उपाय करते हैं रते हैं । चिकित्सा सम्बन्धी सङ्केत (भेदकी बातें) नाम व पता ( संक्षेपसे) For Private And Personal www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Serving Jinshasan 045706 gyanmandir@kobatirth or tris oyens For Private And Personal