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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [२७५] (२१००) ज्योतिष्मतीतैलनस्यम् ब्रह्मवीजं समुद्रस्य फलं जातीफलन्तथा । ( वं. से. । ज्वरा.) विषतिन्दुकवीजश्च ताप्यं सर्व समांशकम् ॥ ज्योतिष्मत्यास्तथा तैलं मूलं पिण्डारकस्य च। विडङ्ग समभेतैश्च सूक्ष्मचूर्ण प्रकल्पयेत् । तन्द्राविनाशनं श्रेष्ठं नस् कर्मणि योजितम् ॥ रसतुल्यं हि तचूर्ण रसेन सह मेलयेत् ॥ वासा च निम्बत्वग्वंशो वेल्लव्योषाम्बुदं तथा। ___ पिण्डाराकी जड़को ज्यो तेष्मती (मालकंगनी) के तै ठमें घिसकर नस्य देनेसे ज्वरमें होनेवाली एषां काथेन सप्ताह व्यहं मूदियोः रसे। भावयित्वा चणप्रायाः कर्तव्याः वटिकाःशुभाः। तन्द्राका नाश होता है। अश्वनिम्बादिजकाथे प्रदतैका वटी शुभा॥ (२१०१) ज्वरनाशकनस्यम् (र.सा.सं.परि.) पातयेज्जठराजन्तून्सर्वदेहगदान्हरेत् । शुद्धतुत्यं पलैकश्च भावयेजालिनीरसैः ।। कुष्ठं जन्तूनिहन्त्याशु द्वित्रिवारप्रयोगतः। सप्तविशतिवारांश्च निम्बनीरे तथैव च ॥ शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १-१ भाग, शुष्कनस्थं प्रदातव्यं सर्वज्वरविनाशनम् ।। मण्डूर भस्म दोनोंका सातवां भाग। तीनोंको यस्मिन्नासापुटे दतं ह्यांगज्वरनाशनम् ॥ घोटकर कजली बना लीजिए और फिर दो दिन शुद्ध नीले थोथेको बिंडाल और नीमके स्व- तक मूषा कर्णांके रसमें घोटिए । तत्पश्चात् मण्डू. रसकी २७-२७ भावना देकर मुखाकर रख रके समान छोटी अजवायनका चूर्ण मिलाकर एक लीजिए। दिन भिलावेके काथमें धोटिये। इसके पश्चात् नाकके जिस सुर (छिद्र) में इसकी नस्य पलाश (ढाक) के बीज, समुद्रफल, जायफल, दी जाती है उसी ओरके आधे शरीरका ज्वर नष्ट कुचला, और सोनामक्खी भस्म । इनका चूर्ण १-१ हो जाता है। भाग तथा बायबिडंगका चूर्ण इन सबके बराबर इति जकारादिनस्यपकरणम् लेकर सबको एकत्र मिलाइये और उपरोक्त कजलीमें इस चूर्णमेंसे पारेके समान मिलाकर बांसेके स्वरस, नीमकी छालके रस, बांसके रस, बायअथ जकारादिरसप्रकरणम् । विडङ्गके क्वाथ तथा सोंठ, मिर्च, पीपल और मोथेके (२१०२) जन्तुघ्नी गुटिका (रसः) काथ में सात सात दिन और मूर्वा तथा अद्रकके (र. र. स. । उ. खं. अ. २०) रसमें ३-३ दिन घोटकर चनेके बराबर गोलियां बना लीजिए। सूतगन्धौ समौ ताभ्यां मण्डूरं सप्तमांशतः।। इनमेंसे १-१ गोली अश्वगन्धादि या विधाय कजलीमाखुका सम्मदयेद् द्वयहम्॥ निम्बादि गणके क्वाथके साथ सेवन करनेसे २-३ ततो मण्डूरमानेन क्षुद्रदीप्यं विनिक्षिपेत् ।। । बारमें ही उदरसे समस्त कृमि निकलकर कुष्ट और आरुष्करकषायेण दिनमेकं विमर्दयेत् ॥ अन्य रोग शीघ्रही शान्त हो जाते हैं। For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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