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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५०२] भारत भैषज्य-रत्नाकरः [तकारादि . शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, वङ्गभस्म, शिलाजीत इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं । और मोती समान भाग लेकर सबको एकत्र ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती । अनुपानखरल करके चूर्ण बनाएं फिर उसे पखानभेदके । बाबची या त्रिफलेका काथ । ) काथ, घृतकुमारी, (ग्वारपाठा )के स्वरस और (२७७३) त्रैलोक्यविजयरसः मूर्वा, गिलोय तथा त्रिफलाके काथमें पृथक् पृथक् । (र. र. स. । उ. ख. अ. २०) ५-५ दिन घोटकर धूपमें सुखाकर, कपड़मिट्टी रसं गन्धं विषं तालं स्वर्णक्षीरी रुदन्तिका। की हुई आतशी शीशीमें भरकर उसके मुखपर वरुणाम्लेन सचूर्ण्यप्रतिनिष्कद्वयं द्वयम् ।। खिडियामिट्टी आदिकी डाट लगाकर उसपर उर्दका त्रैलोक्यविजयः सर्वकुष्ठनो निष्कमात्रया ॥ आटा, बछनागकाचूर्ण और चूना पानीमें मिलाकर । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्र बछनाग अच्छी तरह लगा दीजिये कि जिससे धुंवां न ( मीठा तेलिया ) शुद्ध हरताल, स्वर्णक्षीरी निकल सके । इस शीशीको बालुकायन्त्रमें रखकर ( सत्यानाशी )को जड़ और रुद्रवन्तीका पञ्चाङ्ग ४ पहरकी अग्नि दीजिये, और यन्त्रके स्वांगशीतल समान भाग लेकर प्रथम पार गन्धककी कजली होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर पीस लीजिये। बनाइये और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण ____ इसमें से १ रत्ती रस १ माषा चोपचीनी मिलाकर सबको, बरनेकी छालको काखीमें पकाकर चूर्णके साथ मिलाकर पानमें रखकर खानेसे प्रमेह उसके साथ घोटकर चूर्ण करके रखिये। रोग नष्ट होता है। ___इसके सेवनसे समस्त कुष्ट नष्ट होते हैं। (२७७२) त्रैलोक्यविजयरसः | (२७७४) त्रैलोक्यसुन्दररसः (१) (र. र. स. । उ. ख. अ. २०) (र. र. स. । उ. खं. अ. १९; रसें. चि. म.। अ. मूतभस्म समं गन्धं मृतायस्ताम्रगुग्गुलुः।। ९; र. का. धे.; र. चं.; र. र.; र. रा. सुं. । उदर) त्रिफलाविषमुष्टी च चित्रकश्च शिलाजतु ॥ शुद्धमूतं तथा गन्धं मृता, सैन्धवं विषम् । वरुणाम्लेन सञ्चूर्ण्य प्रतिनिष्कद्वयं द्वयम्। कृष्णजीरं विडङ्गं च गुडूचीसत्त्वचित्रकम् ॥ क्षिपेत्तस्मिन्विशोष्याथ क्रमानिष्कं सदा लिहेत॥ एला चैव यवक्षारं प्रत्येकं स्याद्रसार्धकम् । त्रैलोक्यविजयश्चासौ सर्वकुष्ठहरो रसः ॥ दिनं निर्गुण्डिकाद्रावैर्वीजपूररसैदिनम् ॥ पारदभस्म ( अभावमें रससिन्दूर ), शुद्ध मर्दयेच्छोषयेत्सम्यक् रसत्रैलोक्यसुन्दरः। गन्धक, लोहभस्म, ताम्रभस्म, गूगल, त्रिफलाका | गुञ्जाद्वयं घृतैर्लेह्यो वातोदरकुलान्तकः॥ चूर्ण, शुद्ध कुचलाका चूर्ण, चीतेका चूर्ण और पलमेकं चित्रमूलं द्विगोमूत्रैश्चतुर्जलैः । शिलाजीत समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल पाच्यं यावद्भवेत्कल्कंघृतं कल्कं च योजयेत् ॥ करके बरनेकी छालको काञ्जीमें पकाकर उसके साथ पलैकश्च यवक्षारं क्षिप्त्वा पक्त्वाऽवतारयेत् । घोटकर सुखाकर सुरक्षित रक्खें । | तत्कर्षेकं पिवेच्चानु स्निग्धमुष्णं च भोजयेत् ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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