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लेपप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[ ३८९ ]
(२५१९) त्रिफलादिलेपः (वं. सेन. ।क्षुद्र.) | संपेषितं सुखोष्णं प्रलेपनं वृषणदौ स्यात् ।। धात्रीफलं द्वयं पथ्ये द्वे तथैकं विभीतकम् । त्रिफला, सोया, जौ, तिल और पुनर्नवाकी लोहचूर्णस्य कर्षन्तु दशार्द्ध चूतमज्जतः॥ जड़को काञ्जीमें पीसकर मन्दोष्ण ( कुछ गरम ) पिष्टा लोहमये पात्र स्थापयेदुषितं निशि। करके लेप करनेसे अण्डवृद्धि नष्ट होती है। लेपोऽयं हन्ति न चिरादकालपलितं महत् ॥ (२५२२) त्रिफलामषीलेपः (वृ.नि.र.।अग्निद.) ___ दो आमले, २ हर्र, १ बहेड़ा, १ कर्ष (१। अन्तमविदग्धं त्रिफलाचर्ण विमिश्रितं तैलैः। तोला) लोहेका चूर्ण और ५ आमकी गुठलीके ।
क्षौमैः शीघ्रं शमयत्यमित्रणमाशु लेपेन ॥ भीतरकी गिरी। सबको महीन पीसकर रातको लोहपात्रमें डालकर रख दीजिए । दूसरे दिन इसका
_ त्रिफला और रेशमी कपड़ेको हाण्डीके भीतर लेप लगानेसे सफेद बाल ( जो वृद्धावस्थासे पहिले ! बन्द करके भस्म करें । इसे तिलके तेल में मिलाकर सफेद हो गये हों वह ) काले हो जाते हैं।
लेप करनेसे अग्निदग्धव्रण (आगसे जलनेसे होने
वाला घाव ) अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । (प्रयोगविधि नं. २५१५ के समान है।)
( नोट-तैल इतना मिलाना चाहिये कि (२५२०) त्रिफलादिलेपः (बृ.मा.वृ.नि.र.; क्षुद्र जिससे मल्हम सा बन जाय ।) त्रिफलानीलिनीपत्रं लोहभृङ्गरजःसमम् । । अविमूत्रेण संयुक्तं कृष्णीकरणमुत्तमम् ॥
(२५२३) त्रिफलामषीलेपः ___ त्रिफला, नीलके पत्ते, लोहेका चूर्ण और
भोर (वृ.नि. र.; वृं. मा. । उपदंश.; शा. ध.खं. ३ अ. ११)
.... पण.. भंगरेका चूर्ण समान भाग लेकर भेड़के मूत्रमें दहेत् कटाहे त्रिफलां तां मषीं मधुसंयुताम् । पीसकर लेप लगानेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं। कृत्वोपदंशे लेपोऽयं सद्यो रोपयति व्रणम् ॥
(प्रयोगविधि नं. २५१५ के समान है। त्रिफलाको कढ़ाहीमें जलाकर पीसकर शहद में (२५२१) त्रिफलादिलेपः (ग.नि.|वृद्ध्य.) ।
मिलाकर लेप करनेसे उपदंश (आतशक )के घाव त्रिफलाशतपुष्परजं काञ्जिक
नष्ट होते हैं। यवतिलपुनर्नवामूलम् । इति तकारादिलेपमकरणम् ॥
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