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[४५२]
भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
|तकारादि
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यान्यन्यान्यपि कुष्ठानि तानि सर्वाणि नाशयेत्।। (२६५५) तालकेश्वरो रसः (वृद्धाद्य) (१६) पुनर्नव्यौऽसौ देहं कुर्यात् कल्पस्थितं नृणाम् ॥ (र. चि. म. । स्त. २; र. का. धे. । कुष्ट.)
सात पल ( ३५ तोले ) शुद्ध वर्की हरताल काकजङ्घारसैः स्वेद्यं तालं पलचतुष्टयम् । लेकर उसे २-२ दिन तण्डुलजल (चावलोंके नैर्मल्यं यात्यनेनाऽथ कुलत्थपलषोडश-॥ धोवन ) और दूधमें स्वेदित करें फिर उसे महीन जलेनाष्टावशेषेण तत्संस्वेद्यश्च तालकम् । पीसकर उसमें २ पल शुद्ध पारा मिलाकर कजली लघुक्षुद्राजलेनाथ स्वेद्यं दुग्धेन तावता ॥ बनावें और उसे १-१ दिन पुनर्नवा, हल्दी, निविषं जायते तेन कूष्माण्डरसमर्दितम् । कटैली, गिलोय, नीम, चीता और दो प्रकारके वेदवासरमानेन पश्चात्सूक्ष्म विधीयते ॥ रोहितककी छालके काथ या स्वरसमें घोटकर | तत्पोलिकासमं कुर्यात् पश्चात्तन्दुलपोलिके। टिकिया बनाकर सुखालें, फिर उसे कपरमिट्टी की तदन्तस्थं ततः कुर्यादोलायन्त्रे विलम्बितम् ।। हुई मज़बूत हाण्डीमें भरकर उसमें नीम और दिनमेकमिदं पच्यान्महानिम्बस्य वारिणा। रोहीतक ( रुहेड़े )की छालका काथ भर दीजिये वटारोहाम्भसा पश्चात्ततःपच्याच काञ्जिके॥
और उसका मुख बन्द करके १ दिन मन्दाग्निपर सौभाञ्जनस्य काथेन त्रिफलावारिणा तथा। पकाइये' । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर | पुनस्तद्धृङ्गराजेन छागीदुग्धेन तद्यथा ॥ शिव, पार्वती, भैरवादिकी पूजा करके हाण्डीसे भावयेत्मेषिकादुग्धाऽशोकजाभ्यां भृशं च तत्।
औषधको निकालकर उसमें १-१ पल (५-५ | माषमात्र दिने देयं मधुना सह भक्षणे॥ तोले ) ताम्रभस्म, शुद्ध बछनाग, सोनामक्खीभस्म, श्वित्रं कुष्ठं तथा दद्रच्छदन सत्रणं महत् । हरतालभस्म, शुद्ध गन्धक, श्वेतापराजिता और | गजचर्म विचर्चीश्च नाशयेदुग्रकुष्ठकम् ।। कुटकीका महीन चूर्ण मिलाकर खरल करके रखिये। शुष्काङ्गं शुष्कनेत्रं च रक्ताङ्गं रक्तनासिकम् ।
इसमेंसे यथोचित मात्रानुसार रस, प्रातःकाल अपि वर्षसहस्रस्य कष्टं कुष्ठं विनाशयेत् ॥ शहद और बेलपत्रके रसके साथ खाकर ऊपरसे वैद्यन्दैः परित्यक्तमसाध्यं यच्च विद्यते। थोडेसे चावल चबाने चाहिये और भोजनमें दूध- तन्नूनं नाशयत्येवासाध्यमेवापि यद्भवेत् ॥ भात खाना चाहिये।
४ पल (२० तोले ) वर्की हरतालके बारीक इसी प्रकार इसे प्रतिदिन सेवन करनेसे सब बारीक टुकड़े करके उन्हें ४ तह किये हुवे कपड़ेकी प्रकारके कुष्ठ कि जिनमें नासा और अंगुलि इत्यादि भी पोटलीमें बांधकर उसे दोलायन्त्र विधिसे (१-१ गल गई हों नष्ट होकर पुनः नवीन शरीर प्राप्त । पहर ) काकजंघाके क्वाथ; १६ पल कुलथीको हो जाता है।
८ गुने पानीमें पकाकर आठवां भाग शेष रहे हुवे ( मात्रा–३ रत्ती।)
क्वाथ, छोटी कटेलीके काथ और दूधमें खेदित
१-यदि १ दिनकी अशिमें सब रस न सूखे तो पनः अग्नि देकर सुखा देना चाहिये।
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