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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[४५३ ]
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कीजिये । इससे वह निर्विष हो जायगी । अब शुद्ध पारद और शुद्ध हरताल १-१ भाग इसे ४ दिन कुम्हेड़े ( पेठे )के रसमें घोटकर तथा शुद्ध गन्धक २ भाग लेकर सबकी कजली टिकिया बनाकर सुखालें और फिर चावलोंको करके उसे १ दिन घृतकुमारी (ग्वारपाठा )के पानीके साथ पीसकर उनकी २ टिकिया बनाकर | रसमें घोटकर उसमें उसके बराबर बाबचीका चूर्ण उनके बीचमं उपरोक्त हरतालकी टिकियाको रख- मिलाएं और फिर कठूमर, चीता, त्रिफला, अमलकर १-१ दिन दोलायन्त्र विधिसे महानिम्ब तासकी छाल, बाबची, और बायबिडंग समान ( बकायन ), और बड़के अङ्कुरोंके क्वाथ तथा | | भाग लेकर एकत्र मिलाकर आठ गुने पानीमें काञ्जीमें स्वेदित करके संहजनेकी जड़के काथ, पकाकर अष्टावशेष काथ बनाएं, फिर यह क्वाथ, त्रिफलाक्काथ, भंगरेके स्वरस, बकरी और भेड़के खैरका काथ और केलेकी जड़का रस बराबर बराबर दूध तथा अशोककी छालके क्वाथमें कईबार घोटकर मिलाकर उसमें २४ घण्टे उपरोक्त कजलीको उर्दके बराबर गोलियां बना लीजिये। मन्दाग्नि पर पकाएं और अन्तमें गाढ़ा करके
. इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे श्वेतकुष्ठ, ११-१। तोलेकी गोलियां बना लें। दाद, छाजन, घाववाला कुष्ठ, गजचर्म, विचर्चिका और जिसमें शरीर और नेत्र सूख गये हों, नासिका |
इन गोलियोंको सेवन करनेसे तीसरे दिन
श्वेत कुष्ठके स्थान पर छाला पड़ कर वह नष्ट और शरीर लाल हो गया हो तथा जिसे असाध्य
हो जाता है। समझकर वैद्योंने छोड़ दिया हो वह भी अवश्य नष्ट हो जाता है।
इस औषधके सेवन कालमें प्यास में त्रिफलाका (२६५६) सालकेश्वरो रसः (वृद्धाद्यः) १७
काथ देना चाहिये । (र. चि. म. । स्त. २. कुष्ट.)
नोट-जब छाला पड़ जाय तो उसे फोड़ गृहकन्यारसैः शुद्धं मूतं तालं विमर्दयेत् । कर पानी निकाल दें और उस स्थानपर घावके द्विगुणं गन्धकं दत्त्वा कदलीकन्दवारिणा ॥ आराम होने तक धी या कोई सादा मल्हम काकोदुम्बरिका वह्नित्रिफलाराजवृक्षकः।
- लगाते रहें। सोमराजी विडङ्गानि काथमेषां प्रसाधयेत् ॥ (व्यवहारिक मात्रा ३ माषे ) खदिरकाथतुल्यांशं वाकुचीचूर्णमेव च।। पचेदेकमहोरात्रं गुटिका कर्षमात्रिका ॥
(२६५७) तालचन्द्रोदयः ( रसा. सा.) श्वेतकुष्ठविनाशाय तृषिते त्रिफला जलम् । कुष्माण्डसंस्वेदनजातशुद्धि पाययेद्रोगिणे वैद्यः श्वित्रिणे च विचक्षणः॥ तालं सुपत्रं परिकुट्टय वस्त्रे । त्रिरात्रादूर्ध्वतस्तस्य श्वेते स्फोटश्च जायते। चागाल्य मत्समपारदेन सन्देहो नात्र कर्तव्यो मिपग्भिः श्वित्रनाशने ॥ बुभुक्षुणा जीर्णसुवर्णकेन ।
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