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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[तकारादि
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द्विवृत्तगन्धेन पलङ्कषायां
। (२६५८) तालभस्मप्रकारः ( रसायनसार।) - शुद्धेन सर्पिः पयसोरुतापि । अश्वत्थचिश्चाऽरुणपुष्पकाणां दिनत्रयं काचमयीं भरेत
___जीर्णास्त्वचोऽग्नौ परिदह्य कुर्यात् । शीशी चतुर्थाशतले मसीं ताम् ॥ भस्मानु कन्याद्रवभावितं तत् प्रारम्भतीनं कुरु हव्यवाहं ।
पुटेत् त्रिरस्यार्थमनल्पवह्नौ । तालादिभस्मार्थविधातृकोष्ठयां। __अर्थ—पीपल, इमली, पलाश इन तीनोंमेंसे चन्द्रोदयित्र्यां विनिधाय यन्त्र
किसीकी गली सड़ी मुरदार छाल (बक्कल) वृक्षसे सर्वार्थकर्यामुत बालुकाख्यम् । उतार उतार कर संग्रह करले फिर उसको खूब दिनैकमात्रेण भवेद्विशुद्ध
सुखाकर अग्निमें जलाकर भस्म करले । इस भस्म में - श्चन्द्रोदयो नाम च तालपूर्वः। घृतकुमारी (ग्वारपाठा)के रसकी भावना देकर कुष्ठादिरोगेष्वतुलप्रभावः
तीनबार गजपुटमें फूंक कर इस भस्मके बीच में स्वास्थ्यप्रचारक्रमसत्स्वभावः॥ हरितालकी टिकियाको रखकर पाँच दिन अग्नि हरताल शुद्धिके क्रमानुसार तबकिया हर- देनेसे उसकी भस्म हो जाती है। तालको तीन बार पेठेमें शुद्ध करके सुखाकर कूटकर (२६५९) तालभस्मप्रयोगः (र. चं. । रसा.) कपरछन करलें; और उसमें स्वर्णजीर्ण बुभुक्षित हिङ्गुलं हरितालं कपिलापयसि पेषयेत् । पारद १ भाग ( हरतालके बराबर ) और घी, अष्टयामेन पर्यन्तं गुटिकां कारयेद बुधः ॥ दूधादिमें शुद्ध किया हुआ गन्धक २ भाग मिला- छायाशुष्कं तथा कृत्वा मृत्तिकासम्पुटे पचेत् । कर कज्जली बनाएं। इसे कपरमिट्टी की हुई आतशी | अग्निगजपुटं दद्याद् श्वेतभस्म प्रजायते ॥ शीशीमें भरदें। जिस शीशीमें २ सेर कज्जली | ताम्रपात्रे विन्दुमात्रं सुवर्ण च प्रजायते । आती हो उसमें केवल आधा 'सेर ही भरनी ताम्बूले विन्दुमात्रं स्याद्भक्षितं शृणु तत्फलम् ॥ चाहिये । अब शीशीके मुखपर खिड़िया मिट्टीका क्षुधागजसमो भूत्वा नारीशतरति तथा।। डाट लगाकर, उसे बालुकायन्त्रमें रखकर ताल- नाशनं सर्वरोगाणां कथ्यते धन्वन्तरिः॥ भस्मकरी या 'सर्वार्थकरी' भट्टी पर रखकर १ दिन शुद्ध हिङ्गुल, और शुद्ध हरिताल समान भाग प्रारम्भसे ही तीवाग्नि दें और यन्त्रके स्वांगशीतल लेकर दोनोंको कपिला गाय के दूध ८ पहर होने पर शीशीको तोड़कर उसके गले में लगे हुवे | घोटकर उसकी गोली बना लीजिये और छायामें 'ताल चन्द्रोदय 'को निकाल लें।
सुखाकर मिट्टीके सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें इसे १-२ रत्ती मात्रानुसार उचितानुपानके फूंक दीजिये तो श्वेत भस्म बन जायगी। साथ सेवन करनेसे कुष्ठादि रोगोंमें यह अपना इस भस्मसे ताम्रका सोना बन जाता है अद्भुत प्रभाव दिखलाता है।
और इसे १ रत्ती मात्रानुसार पानमें रखकर खानेसे
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