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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[४५५]
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समस्त रोग नष्ट होकर भूख और कामशक्तिकी | एवं यामचतुष्टयेन विशदं स्याद्भस्म सर्वगदे। वृद्धि होती है।
योग्यं कुष्ठखुडोपदंशपवने नाडीव्रणे शस्यते ॥ (२६६०) तालभस्मविधिः (वृ.नि.र.। त्वद्गो.) वर्की हरतालको १-१ दिन दोलायन्त्र अपामार्गस्य भस्मन्तु घटे निक्षिप्य यत्नतः। | विधिसे काजी, लौंगके काथ और त्रिफला काथमें तन्मध्ये तालकं क्षिप्त्वा पचेद्वादशयामकम् ॥
स्वेदित करके उसे धूपमें २० बार पीपल वृक्षकी धवलं जायते भस्म सर्वकुष्ठनिवारणम् ।।
छालके काथकी भावना देकर घोटकर गोला बनासर्ववातप्रशमनं सर्वरोगनिवारणम् ॥
इये और उसे अच्छी तरह सुखाकर कपरमिट्टी की
हुई हण्डीमें आधे तक पीपलकी छालकी कपरछन ___ एक मज़बूत और कपरमिट्टी किये हुवे
राख दबा दबाकर भरकर उसपर रखदें और उसके घड़ेमें शुद्ध हरतालकी टिकियाको अपामार्ग
ऊपर पुनः वही राख खूब दबा दबाकर हाण्डीके (चिरचिटे)की सफेद राखके बीचमें रखकर घड़ेको
गले तक भरदें, तत्पश्चात् उसके मुखको शरावसे अग्निपर चढ़ाकर १२ पहर अग्नि देनेसे श्वेत
ढककर उसपर कपरौटी करके सुखाकर गजपुटके रंगकी हरतालभस्म बन जाती है।
गढेमे १ हजार बन उपलों ( अरने उपलों )में इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ, समस्त वातरोग फूंक दें। यह अग्नि लगभग ४ पहरमें शान्त हो और अन्य अनेक रोग नष्ट होते हैं ।
जायगी, तब हण्डीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे (मात्रा-२ रत्ती । अनुपान-मधु.।) सावधानी पूर्वक राखको निकालकर हरतालकी
नोट--राख छनी हुई होनी चाहिये । टिकियाको निकाल लें। यह सफेद रंगकी हरतालऔर दबा दबाकर भरनी चाहिये। हरतालकी भस्म होगी।
इसके सेवनसे कुष्ठ, उपदंश, वातव्याधि तथा टिकिया घृतकुमारी (ग्वारपाठा )के रसमें घोटकर
नाडीव्रण (नासूर) नष्ट होता है । बनानी चाहिये।
(मात्रा-२ रत्ती । अनुपान-मधु । ) (२६६१) तालभस्मविधिः
(२६६२) तालभस्मविधिः (र. रा. सुं.। हरि.प्र.; वृ. यो. त. । त. १२०)
( वैद्यामृत । वा. र.; वृ. नि. र. । वातव्या.) सम्यकाञ्जिकदेवपुष्पकवराकाथे तु दोलाभिधे।
तालं रसं तुवरिकां नयनेन्दुबाणयन्त्रेतालकशोधनं निगदितं तत्तालकं भावयेत्॥
भागैर्विशुद्धवसुजातरसे विमर्थ । वारान्विशति पिप्पळोत्थसलिलैः खल्वे
दत्त्वा शरावयुगले प्रविधाय मुद्रां निधायाऽतपे।
__ दद्याद्गजाहपुटमस्य भवेत्सुभस्म । बद्ध्वा गोलमथास्य पिप्पलजयाभूत्यर्धपूर्ण ।
दृष्टवाकृति प्रकृतिमप्यखिलामवस्थां
न्यसेत् ॥ दृश्वा पुनश्च बहुधा बहुधा विचायें। भाण्डे तत्र पुनर्विभूतिभरणं कृत्वा शरावं मुखे। दद्याच्च तन्दुलमितां हरितालमात्र दत्त्वाग्नौ विपचेद्गजाहयपुटे वन्यैः सहस्रोपलैः॥ विद्या मया यतिवरादियमापि यत्नात् ।।
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