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( मात्रा - ४ - ६ रत्ती ।)
रसप्रकरणम् ]
भाग तथा लोहभस्म इन सबके बराबर लेकर एकत्र खरल कराइये |
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करने से भस्मक रोग नष्ट होता है ।
द्वितीयो भागः ।
(२७५२) त्रिफलालौहः
( रसे. सा. सं.; र. रा. सुं.; धन्वं । शूल. रसें. चिं. । अ. ९ ) तीक्ष्णायश्चूर्णसंयुक्तं त्रिफला चूर्णमुत्तमम् । क्षीरेण पाययेद्धीमान्तयः शूलनिवारणम् ॥
तीक्ष्ण लोहभस्म और त्रिफलाचूर्ण बराबर बराबर लेकर, एकत्र मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है ।
( मात्रा - १ माषा । ) (२७५३) त्रिफलालौहम् (च. सं. 1 ग्रहणी. ) त्रिफलां कटीं चव्यं विल्वमध्यमयोरजः । रोहिणीं कटुकां मुस्तं कुष्ठं पाठाञ्च हिङ्गु च ।। मधुकं मुष्ककयवक्षारौ त्रिकटुकं वचाम् । विडङ्गं पिप्पलीमूलं स्वर्जिकां चित्रनिम्बकौ ॥ मूर्वाऽमोन्द्रयवान् गुडूचीं देवदारु च । कार्षिकं लवणानाञ्च पञ्चानां पलिकान् पृथक् भागान् दध्नि त्रिकुडवे घृततैलेन मूच्छितान् । अन्तर्धूमं शनैर्दग्ध्वा तस्मात्पाणितलं पिबेत् ।। सर्पिषा कफवातार्शो ग्रहणीपाण्डुरोगवान् । yesग्रहश्वासहिकाकासकृमिज्वरान् ॥ शोषातिसारौ श्वयथुं प्रमेहानाहहद्रहान् । हन्यात्सर्वविषञ्चैव क्षारोऽग्निजननो वरः ॥
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त्रिफला, मालकंगनी, चव्य, बेलगिरी, लोह - चूर्ण, मांसरोहिणी, कुटकी, मोथा, कूठ, पाठा, हींग,
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जवाखार, मुष्कक ( मोखावृक्ष ) का क्षार, मुलैठी, त्रिकुटा, बच, बायबिडंग, पीपलामूल, सज्जी, नीमकी छाल, चीता, मूर्वा, अजमोद, इन्द्रजौ, गिलोय और देवदारु । प्रत्येक १ - १ कर्ष ( ११ - १ | तोला); सेंधा नमक, काला नमक, खारी नमक, काचलवण और सामुद्र नमक १ - १ पल ( ५-५ तोले ) । इन समस्त ओषधियोंके चूर्ण में थोड़ा थोड़ा घी और तैल मिलाकर उसे ३ कुड़व ( ६० तोले ) दहीमें मिलाकर हाण्डीमें भरकर उसके मुखको अच्छी तरह बन्द करके और उसपर कपड़मिट्टी करके सुखाकर चूल्हे पर रखकर नीचे मन्दाग्नि जलाइये | जब समझें कि अब चूर्णकी भस्म हो गई होगी तब अग्नि बन्द करदें और हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकाल लें ।
इसे ४ माशेकी मात्रानुसार घीके साथ सेवन करनेसे कफ वातज अर्श, ग्रहणी, पाण्डु, तिल्ली, मूत्रावरोध, श्वास, हिचकी, खांसी कृमि, ज्वर, शोथ, यक्ष्मा, अतिसार, प्रमेह, अफारा, हृद्रोग और समस्त प्रकार के विषोंका नाश होता है । (२७५४) त्रिभुवनकीर्त्तिरसः
(र. प्र. सु. । अ. ६; र. चं. । उदर. ) शुद्धस्य ताम्रस्य दलानि कुर्यात् पलानि त्रीण्येव च गन्धकस्य । पद्वयं वै रुचकस्य चैकं
पलं रसस्यापि विमर्द्य खल्वे ॥ चूर्ण विधायाप्यथ सिन्दुवार
रसेन पत्राणि विलेपयेच्च । तत्सम्पुट स्यान्तरतो निधाय विमुद्र तत्सम्पुटमेव । ॥
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