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[ ४९२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[ तकारादि यामं तथैकं पुटयेच्च गोमयै
(२७५६) त्रिमूर्तिरसः (वृ.नि.र.;यो.र.।मेदो.) जर्जातं सुशीतं हि विचूर्णयेत्तत् ।। सूतं गन्धमयोभस्म समं सम्मेल्य भावयेत् । तनागवल्लीदलमध्यतोऽपि
निर्गुण्डीपत्रतोयेन मुसलिकन्दवारिणा ॥ बल्लैकमात्रं सकलोदरघ्नम् ॥ ततः सिद्धममुं माषमात्र रसमनुत्तमम् । शुद्ध ताम्रपत्र और शुद्ध गन्धक ३-३ पल, लोध्रक्षौद्रेण चाश्नीयाचर्ण माषोन्मितं हितम् ॥ सञ्चल नमक ( काला नमक ) २ पल और शुद्ध षटकटु त्रिफला पश्चलवणाऽवल्गुजस्य तत् । पारा १ पल ( ५ तोले ) लेकर प्रथम पारे और मेदशोथाग्निमान्द्यामवातश्लेष्मगदप्रणुत् ॥ गन्धककी महीन कजली बनाइये और फिर उसमें ! शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और लोहभस्म समान सञ्चल लवणका चूर्ण मिलाकर उसे संभालुके रसमें भाग लेकर तीनोंकी कजली बनाकर उसे १-१ घोटकर पिट्टीसी बना लीजिये और ताम्रपत्रोंपर दिन संभालुके पत्तोंके रस और मूसलीके काथमें उसका लेप करके उन्हें सम्पुट में बन्द करके १ घोटकर १-१ माषेकी गोलियां बना लीजिये, पहर तक उपलोंकी आँचमें पकाइये । तत्पश्चात् । और पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, स्याहपुटके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकाल- मिर्च, हर, बहेड़ा, आमला, सेंधा लवण, समुद्र कर पीसकर रखिये।
लवण, विडलवण, काचलवण, सञ्चल नमक और ____इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार पानमें रखकर
बाबची, समान भाग लेकर चूर्ण कर लीजिए । खिलानेसे समस्त उदररोग नष्ट होते हैं।
प्रतिदिन उपरोक्त रसमेंसे एक एक गोली (२७५५) त्रिभुवनकीतिरसः ।
लोधके चूर्ण और शहदके साथ खाकर इस चूर्णमेंसे ( वृ. नि. र.; र. चं.; यो. र.। ज्वर.) ।१ माषा ( पानीसे ) खानेसे मेद, शोथ, अग्निमांद्य, हिङ्गलश्च विषं व्योष टङ्कणं मागधीशिफा ।
आमवात और कफविकार नष्ट होते हैं । सञ्चूर्ण्य भावयेत्त्रेधा सुरसाईकहेमभिः ॥
(व्यवहारिक मात्रा-आधी गोली) रसस्त्रिभुवनकीर्तिः सगुञ्जकाद्रवेण वै।
(२७५७) त्रियोनिरसः सर्वज्वरविनाशं च सन्निपातास्त्रयोदश ॥
(र. र. स. । उ. ख. अ. १९; र. रा. सुं. । पाण्डु) शुद्ध हिङ्गुल (शंगरफ), शुद्ध बछनाग ( मीठा तेलिया ), त्रिकुटा, सुहागेकी खील और
ताम्रस्य तुर्यभागेन रसेनोप्लत्य लेपयेत् ।।
निम्बुद्रावेण संयोज्य मूर्यतापे विनिक्षिपेत् ।। पीपलामूल । इन सबके समान भाग महीन चूर्णको
ऊर्ध्वाधो गन्धकं दत्त्वा पाचयेदति यत्नतः । तुलसी, अद्रक और धतूरेके रसकी तीन तीन भावना देकर एक एक रत्तीकी गोलियां बना लीजिये।
मत्स्याक्षीमभितो दत्वा मृत्स्नया सनिरुध्य च ॥ इन्हें अद्रकके रसके साथ सेवन करनेसे १३ यामद्वय सुपक च स्वागशति समुद्धरेत् । प्रकारके सन्निपात और अन्य समस्त प्रकारके ज्वर गुञ्जामात्रं ददीतास्य साभयगुडसंयुतम् ॥ नष्ट होते हैं।
त्रियोन्याख्यो रसो ह्येष शोफपाण्डपनोदनः॥
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