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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः ।
( ताम्रमारणम् सं. २५९१ देखिये । ) उसमें बालुकायन्त्र में पकानेके पश्चात् भी १ पुट लिखी है परन्तु इसमें नहीं है । शेष प्रयोग लगभग समान है । यदि पुट दी जाय तो कुछ हानि नहीं, अपितु लाभ ही हो सकता है। (२७५८) त्रिवङ्गभस्म ( रसायनसार । ) जसदं वङ्गनागौ च समसूतेन मेलयेत्
खाली त्रिवङ्गभस्म सेवन करें । इसका अनुपान अडूसा काथको ठंडा करके ६ मा० सहद डालकर सेवन करते हैं; यदि काथ करनेमें परिश्रम मालूम हो तो तीन माशे चूर्ण ही ले । इस रसकी मात्रा एक रत्तीसे ४ रत्ती तक देते हैं । अरसा साथ प्रयोग करनेसे बहुत शीघ्र फल होता है, क्योंकि " वासायां विद्यमानायाघृष्ट्वा निम्ब्वम्बुना ताले गन्धं दत्त्वा विमर्दयेत् ॥ १॥ माशायां जीवितस्य च । रक्तपित्ती क्षयी रोगी खाङ्गलिकायन्त्रे मन्दादिक्रमवह्निना । धूमनिर्गमनस्याऽन्ते पक्ता शीतं समुद्धरेत् ॥ aarti तालसिन्दूरं वङ्गं तलसंस्थितम् । सगृहीतं पृथग् वाऽपि वासाक्षौद्रेण सेव्यताम् ॥ कासः श्वासः क्षयो रक्तपित्तं कुष्ठं प्रमेहकः । अबल्यं वह्निमान्धं च मुक्ता गच्छन्ति रोगिणम् ॥ तारस्य जसदस्याने योजनेनाऽपि सिध्यति । fasser रसस्तस्य बलीयासो 'गुणास्ततः॥॥ अर्थ ---- पाँच तोले जस्ता, पाँच तोले राँगा, पाँच तोले शीशा, इन तीनोंको गलाकर पन्द्रह तोले, हिङ्गुलोत्थ पारदमें मिलादें । इन चारों चीजों की पीठीको नींबूके रसके साथ घोटकर पानी से धो डालें । इस पिट्टी में कपड़छन की हुई पन्द्रह तोले तब किया हरताल और १ तोला गन्धक डालकर कजली करलें । इस कज्जलीको नलिकाडमरूयन्त्रमें रखकर मन्द मध्यादि क्रमसे दो दिन तक आँच दें । जब नलीसे धूम निकलना बन्द हो जाय तब यन्त्रके ठण्डे होनेपर नलीके चारों तरफ तालसिन्दूर मिलेगा और नीचेकी हाण्डीमें बङ्गभस्म मिलेगी। तालसिन्दूर और त्रिवङ्गभस्म इन दोनोंको मिलाकर घोटकर सेवन करें। अथवा
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किमर्थमवसीदति ? ” यह सिद्धान्त प्रसिद्ध है । त्रिवङ्गके सेवन करनेसे खांसी, श्वास (दमा) क्षयरोग, रक्तपित्त, कुष्ट, प्रमेह, दुर्बलता, मन्दाग्नि नष्ट हो जाते हैं । इस त्रिवङ्गके बनाने के लिए जस्तेकी जगह ५ तोले शुद्ध की हुई चाँदीको डालने से भी पूर्वोक्तविधिसे त्रिवङ्गभस्म तैयार हो जाती है । परन्तु पूर्व त्रिवङ्गकी अपेक्षा चांदी की त्रिवङ्गमें प्रबल गुण होते हैं ।
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( रसायनसारसे ) (२७५९) त्रिविक्रमो रसः (र. रा. सुं.; यो. र. र. चं.; रसें. सा. सं.; धन्वं. र. र. । अश्मरी. र. चिं. । स्तव. ११; शां. सं. । म. अ. १२; रसें. चिं. । अ. ९; वृ. यो. त. । त. १०२; यो त । त. ५०; र. प्र. सु. ।
अ. ८; र. स. क. । उल्ला. ५ ) मृतताम्रमजाक्षीरैः पाच्यं तुल्यं गते द्रवे । ताम्र शुद्धसूतञ्च गन्धकं च समं समम् ॥ निर्गुण्डीस्वरसैर्मद्यं दिनं तद्गोलकीकृतम् । यामैकं बालुकायन्त्रे पक्त्वा योज्यं द्विगुञ्जकम् ।। बीजपूरस्य मूलश्च सजलं चानुपाययेत् । रसस्त्रिविक्रमो नाम शर्करामत्रमरीं जयेत् ॥