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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[तकारादि
कुटा हुआ त्रिफला (बड़ी हरड़े, बहेड़ा, आमला) | (२७०२) तुत्यादिकज्वराङ्कशः भर दे । उस त्रिफलासे छोटी कड़ाही इतनी ढक
(र. रा. मुं. । ज्वर.) जायगी कि दीख नहीं पड़ेगी। फिर उस कड़ाहमें एक मन पक्का मीठा पानी भर दे और वह कड़ाह |
तुत्थशम्बूकतालानां द्विगुणानां यथोत्तरम् । ऐसी जगहमें रखा जाय जहाँ हवा भी लगे और
चूर्ण कुमारिकाद्रावैदृष्ट्वा गोलं प्रकल्पयेत् ॥ दिन भर सूर्यका ताप भी पड़े, और रात्रिमें
द्वाभ्यामेरण्डपत्राभ्यां तद्गोलं वध्यते बुधैः। चन्द्रमाकी चांदनी भी पड़ती रहे । इस प्रकार एक
सरावसम्पुटे धृत्वा पुटेद्गजपुटेन तु ।।।
| स्वाङ्गशीतं समुद्धत्य चूर्णयित्वा निधापयेत् । मास बीतने पर कड़ाह के पानीको कपड़े में छान
गुञ्जात्रयं सितायोज्या खादेत्सर्वज्वरापहम् ।। कर रख ले, यह पानी स्याहीका काम देगा ।
| पथ्यं क्षीरोदनं देयं निहन्ति विषमज्वरान् । और प्रातःकाल इस पानीका नेत्रोंमें छीटा देनेसे नेत्रका परमहित होता है । यदि स्याहीको और शुद्र तूतिया १ भाग, शंख २ भाग और भी पक्की करनी हो तो एकसेर पीपलकी लाखका शुद्ध वर्की हरताल ४ भाग लेकर सबको १ दिन काढा वो एकसेर कसीस कूटकर डालदे । और घृतकुमारी (ग्वारपाठे) के रसमें घोटकर गोला जो त्रिफला कपड़ेमें छाननेसे बच गई हो उसको बनाइये और उसे अरण्डके दो पत्तोंमें लपेटकर भी धूपमें सुखाकर रख ले । इसको जलाकर क्षार उसके ऊपर डोरा लपेट दीजिये और सम्पुटमें बनाया जायगा, जो पाचकके काम आयेगा। बन्द करके गजपुटमें फूंक दीजिए। जब स्वाङ्ग वैद्योंके यहां कोई चीज, फेंकने काबिल नहीं है। शीतल हो जाय तो निकालकर पीसकर रख
और छोटी कड़ाहीके पेंदेमें आधसेर पक्का विशुद्ध लीजिए । ताम्र जमा हुआ मिलेगा जो चाकूसे खुरच खुरच इसके सेवनसे सर्व प्रकारके विषमज्वर नष्ट के उठानेसे एक पत्र रूपमें प्राप्त होवेगा । इस होते हैं । ताम्र में उतना दोष नहीं है जितना कि नैपाली मात्रा-३ रत्ती। मिश्रीके साथ मिलाकर ताम्रमें होता है । संयोगकी महिमा अचिन्तनीय
(पानीसे) खाएं। है। देखिये तूतिया, लोह, त्रिफला, पानी, एक मास
पथ्य-दूध भात । काल, वायु, धूप, चाँदनी इन आठ पदार्थोके संयोग से विशुद्धताम्र, स्याही, नेत्रकी दवा और पाचन
| (२७०३) तुत्थोत्थताम्रशुद्धिः (रसायनसार) योग्य क्षार कैसे उत्तम पदार्थ बन जाते हैं। अर्कस्य पत्रस्वरेषु तानं तूतिया से ताम्र निकालने के और भी प्रकार हैं निष्टप्य वह्नावथ सप्तकृत्वः । पर यह सुगम होनेके कारण लिखा गया है ।- | निर्वाप्य सेटार्धकसैन्धवाढये
(रसायनसार ) चिश्चादलकाथजले पचेत ॥
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