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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् द्वितीयो भागः। [ १२७] करके ऊपरसे कपर मिट्टी कर दीजिए और उसे | द्विपलं जीरकं काथमनुपानं प्रदापयेत् । सम्पुट में रखकर पुट लगा दीजिए । स्वांग शीतल श्वासज्वरामशूलास्रमतिसारं चिरन्तनम् ।। होनेपर निकालकर चूर्ण करके रख लीजिए। अरुचिं राजयक्ष्माणं मन्दाग्निं च विनाशयेत् ॥ इसे प्रातःकाल पांच रत्तीकी मात्रानुसार सेवन - शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म करनेसे सूतिका रोग और ग्रहणीरोग अवश्य नष्ट १-१ भाग लेकर सबको एकत्र. खरल करके होता है तथा बवासीर खांसी, श्वास, अतिसार, ७ बार बिजौरे नीबूके रसमें धोटिए । और फिर कष्टसाध्य संग्रहणी और आम, शूलका नाश होता उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, नीलकी जड़ और तथा बल वीर्य और अग्निकी वृद्धि होती है। धतूरेके बीजोंका चूर्ण १-१ भाग मिलाकर (१६१४) ग्रहणीहररसः (र.र.स. उ.ख.अ.१६) भांग, सफेदकोयल, घृतकुमारी, मत्स्याक्षी (मछली) रसाभ्रगन्धाः क्रमवृद्धभागाः मकोय, अद्रक, पित्तपापड़ा, चीता, केला और काली जयारसेन त्रिदिनं विमः । मूसलीके रसमें ३ दिन घोटकर सुखा लीजिए । गद्याणकाध मधुना समेत इसे १ माषेकी मात्रानुसार १० तोले जीरके ददीत पथ्यं दधिभक्तकश्च ॥ काथके साथ सेवन करनेसे असाध्य संग्रहणी शुद्ध पारद १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग | भी अवश्य नष्ट हो जाती है और श्वास, ज्वर, और गन्धक ३ भाग लेकर कजली करके ३ दिन । आम, शूल, पुराना रक्तातिसार, अरुचि, राज यक्ष्मा, तक जयाके रसमें खरल कीजिए । और मन्दाग्निको आराम होता है। इसे ३ माशे की मात्रानुसार शहद में मिला- इति गकारादि रस प्रकरणम् कर सेवन करना और दहीभात खाना चाहिए। । अथ गकारादिमिश्रप्रकरणम् ( व्यवहारिक मात्रा--२-३ रत्ती।) (१६१५) ग्रहण्यारिरसः (र. रा. सुं.। संग्र.) (१६१६) गिरिकर्णिमूलयोगः (ग. नि. । अप.) शुद्धमूतं समं गन्धं मूतांशं मृतमभ्रकम् ।। पुष्ये गृहीतं गिरिकणिकायाः । मर्दयेन्मातुलुङ्गाम्लैः शोष्यं पेष्यं च सप्तधा । ___ मूलं सिताया गलके निबद्धम् । व्यूषणं नीलिकामूलं धत्तुरस्य च वीजकम् । गव्येन लीढं यदि वा घृतेन एकैकं मृततुल्यं स्यात् सर्व तद्विजयाद्रवैः ।। निहन्ति घोरामपची तदैव ॥ श्वेतापराजिताकन्यामत्स्याक्षीकाकमाचिका। सफेद गिरिकर्णी (कोयल) की जड़को पुष्य आर्द्रकापर्पटोवह्निः कदल्या तालमूलिका ॥ | नक्षत्र में निकालकर गले में बांधनेसे अथवा गायके द्रवैर्दिनत्रयं भाव्यं माषमात्रं च भक्षयेत् । धीमें मिलाकर चाटनेसे भयङ्कर अपची रोग भी ग्रहण्यारिरसो नाम असाध्यं साधयेध्रुवम् ॥ नष्ट हो जाता है। For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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