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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१००] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [गकारादि शीतलं गन्धजं सत्वं गृहणीयादद्भुतं नरः॥ इस क्रियासे गन्धक पिधलकर नीचे वाली यथारोगानुपानेन गुजैका सर्वरोगजित् ॥ हांडीमें चला जायगा, उसे निकालकर धोकर शुद्ध गन्धकका चूर्ण १ पल - ( ५ तोले ) कपड़ेसे रगड़कर पानी शुष्क कर दीजिए। इस लेकर उसे बड़ी कटेली और आकाश बेलके स्वरस | प्रकार गन्धक शुद्ध और समस्त कार्योचित हो तथा गोमूत्र और श्यामवर्ण ऊंटके ६ वर्ष अवस्थाके जाता है। बच्चेके मूत्रकी २१–२१ भावना देकर सुखाकर (१५४२) गन्धकादिपोटली रसः आतशी शीशीमें भरकर ८ पहर तक बालुका (र. र. स. । उ. खं. अ० १८) यन्त्रमें पकाइये और स्वांगशीतल होनेपर औषधको गन्धं तालकं ताप्यं शिलाह पिप्पलीकृते । निकालकर चूर्ण कर लीजिए । यही गन्धक सत्व है। कषाये भावयेत्स्नुह्याः क्षीरे मूत्रे च सप्तशः ॥ ___ इसे अनुपान भेदसे १ रत्तीकी मात्रानुसार निष्कामस्याः पोटल्या स्यादधै साज्यमाक्षिकम् समस्त रोगों में देना चाहिए। प्रयोज्यं सयकृत्प्लीहि पञ्चकोलपलाशिना॥ (१४४१) गन्धकस्य कूर्मपुटेन शोधनम् शुद्ध गन्धक, हरताल भस्म, सोनामक्खी ( आ. वे. प्र. । अ०२) भस्म और मनसिल ( शुद्ध ) समान भाग लेकर साज्यभाण्डे पयःक्षिप्त्वा मुख वस्त्रेण वन्धयेत् । एकत्र करके उसे पीपलके काथ, थोहरके दृध और गन्धकं पृष्ठदेशेषु श्लक्ष्णचूर्णितमर्पयेत् ॥ गोमूत्रकी ७ भावना दीजिए । छादयेत्पृथुदीर्घेण खरेणैव गन्धकम् । इसमेंसे प्रतिदिन २-२ माशे औषध २ माशे सन्धिरोधामकर्तव्यो भाण्डखर्परयोर्मुदा॥ | धृत और २ माशे शहदमें मिलाकर ढाककी छाल भाण्डं निक्षिप्य भूगर्ने किश्चिद्रक्षेद्वहिर्मुखम्। और ) पञ्चकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, ज्वालयेत्वपरस्यो? जातवेदं वनोपलैः॥ सोंठ ) के काथके साथ सेवन करनेसे यकृत और ततःक्षीरे द्रुतं गन्धं शीतं धौतं जलेन तु। प्लीह ( तिल्ली, जिगर ) रोग नष्ट होते हैं। वस्त्रघृष्टं निजलं तु शुद्धं योगेषु योजयेत् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती ) . - एक बरतनमें घृत और दूध भरकर उसके (१५४३) गन्धकादियोगः मुखपर वस्त्र बांध दीजिए और उसपर गन्धकका (र. सा. सं. । अश्म) महीन चूर्ण बिछाकर ऊपरसे एक बड़ा और मोटा गन्धकं जीरकं क्षुद्राफलं टङ्कद्वयं सदा । खर्पर ( ठीकरा अथवा हांडी ) ढककर नीचेवाले अश्मरीं शर्करां मूत्रकृछं क्षपयति ध्रुवम् ॥ बरतन और इस खर्परकी सन्धिको गारे (कीचड़) । शुद्ध गन्धक, जीरा और कटेलीका फल से बन्द कर दीजिए । अब नीचेवाली हाष्डीको समान भाग लेकर नित्य प्रति २ टङ्क ( ८ माशे) एक गढ़े में रखकर ऊपरके खर्पर पर अरने उपलोंकी की मात्रानुसार सेवन करनेसे पथरी, शर्करा (रेत्त) आग जलाइये । । और मूत्रकृच्छ्रका अवश्य नाश होता है । For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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