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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [४९५] ANN/Avvavvvvh/mVvvvm/AI चालयेल्लोहदण्डेन अवतार्य विभावयेत् । लेकर सबको घीकुमारके रसमें घोटकर ( ३-३ त्रिदिनं जीरककाथैौर्षकं भक्षयेत्सदा॥ रत्तोकी ) गोलियां बनाकर छायामें सुखा लीजिये। ग्रहणी शान्तिमायाति सर्वोपद्रवसंयुता ॥ इन्हें बकरीके दूधके साथ सेवन करनेसे शुद्ध पारा, अभ्रकभस्म और शुद् गन्धक क्षय, खांसी, गुल्म, प्रमेह, जीर्णज्वर, उन्माद और समान भाग लेकर तीनोंकी कजली बनाकर जलदोषादि अनेकों रोग नष्ट होते हैं। एक लोहपात्रमें जरासा घृत लगाकर उसमें इस (२७६४) त्रैलोक्यचिन्तामणिरसः (२) कजलीको डालकर मन्दाग्निपर पकाइये। और । (र. चं.; र. सा. स.; र. रा. सु.; धन्व.; आ. लोहे की मूसली आदिसे चलाते रहिए । जब कजली वे. वि. । वातव्या. ) पिघल जाय तो पात्रको अग्निसे नीचे उतार हीरं सुवर्ण सुमृतं च तारलीजिये और औषधको खरलमें डालकर तीन दिन - मेषां समं तीक्ष्णरजश्चतुर्णाम् । तक जीरेके काथमें घोटिये । समं मृताभ्रं रससिन्दूरश्च इसे एक माषेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे निष्पिष्टतीक्ष्णस्य तथाऽश्मनो वा॥ उपद्रवयुक्त ग्रहणी भी शान्त हो जाती है। खल्ले द्रवेणैव कुमारिकायाः (व्यवहारिक मात्रा-४-५ रत्ती। अनुपान | गुञ्जापमाणां वटिकां प्रकुर्यात् । त्रैलोक्यचिन्तामणिरेष नाम्ना जीरेका काथ ।) (२७६३) त्रैलोक्यचिन्तामणिरसः (१) सम्पूज्य सम्यग्गिरिजां दिनेशम् ॥ (र. सा. सं.; र. चं. । ज्व. ) हन्त्यामयान् योगशतैर्विवा नथ प्रणाशाय मुनिप्रणीतः । भागत्रय स्वर्णभस्म द्विभागं तारमभ्रकम् । अस्य प्रसादेन गदानशेषान् लौहात्पञ्च प्रवालं च मौक्तिकं त्रयसम्मितम् ॥ जरां विनिर्जित्य सुखं विभाति ॥ भस्मसूतं सप्तकं च सर्व मद्ये तु कन्यया । हीराभस्म, स्वर्णभस्म और चांदी भस्म १--१ छायाशुष्का वटी कार्या छागीदुग्धानुपानतः॥ भाग, तीक्ष्ण लोहभस्म ३ भाग तथा अभ्रकभस्म क्षयं हन्ति तथा कासं गुल्मं चापि प्रमेहनुत् । और रससिन्दूर ६-६ भाग लेकर सबको पत्थर जीर्णज्वरहरश्चायं उन्मादस्य निकृन्तनः॥ या लोहेके चिकने खरल में धीकुमार (ग्वारपाठा)के सर्वरोगहरश्चापि वारिदोषनिवारणः॥ रसमें मर्दन करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना स्वर्णभस्म ३ भाग, चांदीभस्म और अभ्रक- लीजिये। भस्म २-२ भाग, लोहभस्म ५ भाग, प्रवाल । ___ इनके सेवनसे समस्त रोग नष्ट होते हैं । जो ( मंगा ) और मोती भस्म ३-३ भाग तथा । रोग अन्य सैकड़ों औषधोंसे नष्ट नहीं होते वह भी पारदभस्म ( अभावमें रससिन्दूर ) सात भाग इससे नष्ट हो जाते हैं। १ भागद्वयमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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