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रसप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः।
[४२३] ४ पहर की अग्नि दीजिये एवं हण्डीके स्वांगशीतल । (२५९४) ताम्रयोगः (च. द. । प्र.) होनेपर उसमें से ताम्र भस्म को निकाल लिजिये। स्थाल्यां सम्मध दातव्यौ माषिकौ रसगन्धको।
इस प्रकार ताम्रकी वान्ति, भ्रान्ति आदि नखक्षुण्णं तदुपरि तण्डुलीयकं द्विमाषिकम् ॥ पञ्चदोषोंसे रहित उत्तम भस्म बन जाती है। ततो नैपालताम्रस्य पिधाय सुकपालकम् । (२५९३) ताम्रमारणम् (३) (रसेन्द्र. चिं.अ.६) पांशुना पूरयेदृर्व सौं स्थालों ततोऽनलः ॥ गन्धेन ताम्रतुल्येन घम्लपिष्टेन लेपयेत् । स्थाल्यधो नालिकां यावद्देयस्तेन मृतस्य च । कण्टवेध्यं ताम्रपत्रं मूषामध्ये पुटे पचेत् ॥ ताम्री ताम्रस्य रक्त्यैका त्रिफलाचूर्णरक्तिकाम् ।। उद्धत्य चूर्णयेत्तस्मिन् पादांशं गन्धकं क्षिपेत् । त्र्यूषणस्य च रक्त्येका विडङ्गस्य च तन्मधु पाच्यं जम्भाम्भसा पिष्टं समो गन्धश्चतुःपुटे।। घृतेनालोड्य लेढव्यं प्रथमे दिवसे ततः ॥ मातुलुङ्गरसैः पिष्ट्वा पुटमेकं प्रदापयेत् । रक्तिद्धिं प्रतिदिनं कुर्यात्ताम्रादिषु त्रिषु । सितशर्करयाप्येवं पुटदाने मृतिर्भवेत् ॥ स्थिरा विडङ्गरक्तिस्तु यदा भेदो विवक्षितः ।।
कण्टकवेधी शुद्ध ताम्रपत्रों पर उनके बराबर तदा विडङ्गं त्वधिकं दद्याद्रक्तिद्वयं पुनः। गन्धकको नीबूके रसमें पीसकर लेप कर दीजिये। द्वादशाहं योगवृद्धिस्ततो हासक्रमोप्यऽयम् ॥
और उन्हें मूषामें बन्द करके पुट दीजिये । इसके । ग्रहणीमम्लपित्तश्च क्षयं शूलश्च सर्वदा । पश्चात् उन्हें पीसकर और चतुर्थांश गन्धक मिला ताम्रयोगो जयत्येष बलवर्णाग्निवर्धनः ॥ कर जम्बीरी नीबूके रसमें घोटिये और टिकिया एक हाण्डीपर कपरौटी करके उसमें १-१ बनाकर सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी मापे पारद और गन्धककी कजली रखकर उसपर अग्नि दीजिये, इसी प्रकार चार पुट देनेके पश्चात् ।
२ माघे चौलाई नाखूनसे छीलकर डालदें और सफेद खांडके साथ १ पुट देनेसे ताम्र भस्म बन
उसके ऊपर ( ४ माषे वजनी ) शुद्ध नैपाली जाती है।
ताम्रकी कटोरी ढककर जोड़को गुड़ चूनेसे बन्द ताम्रयोगः ( र. र.; र. चं. । ग्रहणी.) करदें और हाण्डीको रेतसे मुंह तक भरदें। अब उसे
लगभग “ ताम्रद्रुति " सं. २५६७ के समान भट्टीपर चढ़ाकर ( ४ पहरकी ) अग्नि दीजिये है, केवल इतना अन्तर है कि इसमें पारा १ कर्ष। और फिर हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसके
और ताम्रपत्र ४ कर्ष लिखे हैं और उसमें तीनों भीतरसे ताम्बेकी कटोरीको निकालकर पीस लीजिये। चीजें बराबर हैं । दूसरे इसमें नीबूका रस डालकर प्रथम दिन १ रत्ती यह ताम्र और १-१ धूपमें रखनेको लिखा है पर उसमें रस का विधान रत्ती त्रिफला, त्रिकुटा और बायबिडंगका चूर्ण नहीं है । इसमें अनुपानमें जीर धनियेका योग है एकत्र मिलाकर घी और शहदके साथ खिलाइये और उसमें मधुघृतादिका। शेष प्रयोग लगभग | और फिर प्रतिदिन बायबिडंगके अतिरिक्त अन्य समान है।
तीनों ओषधियोंकी मात्रा १-१ रत्ती बढ़ाते हुवे
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