SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [गकारादि (११०८)गङ्गाधरकाथ: (भा.प्र.,ग.नि.।अति०।)(१११३) अलम्बुपादलोद्भूतात्स्वरसावेपलेकश्चटदाडिमजम्बूशनाटकपत्रबहिष्ठम् ।। पिबेत् जलधरनागरसहितं गड़ामपि वेगवाहिनीं । अपच्चागण्डमालायाःकामलायाश्च नाशन: रुन्ध्यात ॥ बरनेकी जड़की छाल के काथमें शहद डालकर चौलाई, अनार, जामुन और सिंपाईके पत्ते अनेक बार ( बहुत समय तक ) सेवन करनेसे पुरानी तथा नेत्रबाला, नागरमोथा और सोएका काथ सेवन गण्डमाला भी शीघ्र नष्ट होजाती है । करनेसे गङ्गाके समान वेगवान् अतिसार गी रुक कचनारकी १ पल (५ तो०) अथवा अर्द्धपल जाता है। • छालको चावलों के पानीमें पीसकर सेवा करनेसे (११०९)गङ्गावतीमूलयोगः(बृ. मा.। अम०) गण्डमालाका नाश होता है। गङ्गावल्या मूलं कथितं घृततैलसैन्धवै मिश्रम् । मूत्रमतिरुद्रं वेगात्पपीतमात्र प्रवर्तयति ॥ कड़वी तूंबीके २ पल (१० तोले) स्वरसको गङ्गावतीकी जड़के काथमें घृत, तैल और (नित्य प्रति) पीनेसे अप ची, गण्डमाला और कामसेंधा नमक मिलाकर पीनेसे रुद्ध (रुका हुवा) मूत्र | लाका नाश होता है। तुरन्त आ जाता है। गन्धर्वतैलसिद्धहरीतकी (बं. से. । श्ली. चि०) (१११०)गजपिप्पल्यादि काथः (रा.मा.वा.रो.) (५७८ संख्यक प्रयोग अवलोकन कीजिए) मातङ्गपिप्पलीवारिलोध्रधातकीश्रीफलैः।। गन्धर्वादि काथ: (बं. से. । वा. र.) सर्वातिसारहृत्काथः शिशोस्तच्चूर्णमेव वा॥ (संख्या ५४६ “एरण्डादि" अवलोकन कीजिए) ___ गजपीपल, नेत्रवाला, लोध, धायके फूल और (१११४) गम्भारिकादुग्धः (यो. र. । शी. पि.) वेटगिरीका काथ अथवा चूर्ण, बालकों के समस्त गम्भारिकाफलं पक्वं शुष्कमुत्स्वेदितं पुनः । प्रकारके अतिसारोंका नाश करता है। | क्षीरेण शीतपित्तघ्नं खादितं पथ्यसेविना ॥ - (प्रयोग विधिः .-आठ, दस वर्ष तक के बाल ___ गम्भारीके पके और शुष्क फोको दुग्धमें कोंको आधेसे एक माशे तक चूर्ण प्रातः सायं शरबत पकाकर सेवन करने तथा पत्र्यपूर्वक रहनेसे शीतपित्त रोग नष्ट होता है। हब्बुलास या शहदमें मिलाकर चटाना चाहिए ।) (१११५) गरुडीमलयोगः--- (११११) गण्डमालाहरकषायाः (रा. मा.। अ. मा. अ. २८, ग. नि. । सर्प. चि.) (बृ. यो. त.। त. १०८; यो. त. । त. ५) पुष्यनिपीतं गरुडीसमुत्थं मूलं नृणां पन्नगदंशमाक्षिकाव्यः सकृत्पीत काथो वरुणमलजः।। भीतिम् । गण्डमालां निहन्त्याशु चिरकालानुवन्धिनीम् ।। संवत्सरार्ध हरति प्रसह्य का वृश्चिकाद्यैर्गणनैव तेषां॥ (१११२)पलमर्धपलं वापि पिष्ट्वा तण्डुलवारिणा। नस्याञ्जनालेपनपानयोगैर्भुजङ्गदष्टस्य विषंनिहन्ति। काञ्चनारत्वचं पीत्वा गण्डमालां व्यपोहति मूलं गरुड्याः परिघृष्यमाणं' न श्यामलत्वं पतिप यते चेत् ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy