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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[चकारादि
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अथ चकारादिकषायप्रकरणम्
(१६४४) चणकयोगः (वृ. नि. र. । प्रमेह.) ६ मास तक सेवन करने से अनेक प्रकार के द्विनिशात्रिफलाकल्कमातपे धारयेत्त्यहम्। पित्तज और कफज रोग तथा कुष्ठ और प्रमेहरोग मृद्भाण्डे दोलिकायन्त्रे चणकान्मुष्टिमात्रकान् ॥ नष्ट होते हैं । अहोरात्रोषितान्खादेद्वर्धमानं दिने दिने । (१६४६) चतुःषष्ठिककाथ: असाध्यं साधयेन्मेहं सिद्धयोगःउदाहृतः ॥ (यो. र.; वृ. नि. र. । ज्वर.)
हल्दी, दारुहल्दी, हरी, बहेड़ा और आमला शृङ्गीरामठरामसेनरजनीरुद्रेणुकारोहिणी । समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकर एक
रास्नैरण्डरसोनदारुरजनीराजद्रुराजीफलैः ।।
समाजातील कपड़ेकी पोटलीमें बांधकर उसे दोलायन्त्र विधि
त्रायंतीत्रिवृताहुताशनलतानन्तामृतामुद्रिता। से जलसे भरे हुवे मिट्टीके पात्रमें लटका कर धूप | दन्तीतुम्बरुचित्रतण्डुलत्रुटित्वतिक्तनक्तंचरैः॥ में रख दीजिए और रात्रिके समय उस जलमें १ | वासावत्सकबीजवासवसरावल्यावरीवेल्लजम् । मुद्री चने भिगो दीजिए फिर २४ घन्टे पश्चात्
ब्राह्मीब्राह्मणयष्टिवारणकणाविश्वावयस्थाः ॥ निकालकर रोगीको खिलाइये । इसी प्रकार प्रति-. मामालविकासमूलमगधामुस्ताजमोदाद्वयैः। दिन १-१ मुट्ठी. चने बढ़ाकर सेवन करने से मिश्रेयागरुचन्दनेन्द्रचविकास्फोतावचाकटफलैः।। असाध्य प्रमेह भी नष्ट हो जाता है। यह एक इत्येतैर्दशमलयुङनिगदितःकाथश्चतुषधिकः। सिद्ध प्रयोग है।
शृङ्गयादिर्मदनागसिंहभिषजा सर्वामयोन्मूलने॥ (१६४५) चणकरसायनम्
पुंसामष्टविधज्वरार्तिशमने वाताग्निसन्धुक्षणे। (र. र. स. । उ. ख. अ. २६) सर्वाङ्गेच समीरणद्विपघटे शार्दूलविक्रीडितम् ।। रात्रीकान्तशरावकेसुचणकाभिन्नाजलैःस्वादुभिः काकड़ा सिंगी, हींग, कायफल, हल्दी, कूठ, प्रातमुष्टिमिताःखलुप्रतिदिनं षण्मासमासेविताः। रेणुका, कुटकी,रास्ना, अरण्डमूल, ल्हसन, दारु हल्दी, हन्युःपित्तकफामयान्वहुविधं कुष्ठं प्रमेहांस्तथा।। अमलतासका गूदा, पटोल, वायमाणा ( बनफशा) ___ प्रतिदिन रात्रिको चनेकी १ मुट्ठी (रोगीकी निसोत, चीता, लताकस्तूरी, अनन्तमूल, गिलोय, अपनी मुट्ठी) दाल कान्तलोहके पात्रमें मीठे जलमें मुद्रिता, दन्तीमूल, तुम्बुरु, बायबिडंग, छोटी इला(जल खारी न हो) भिगो दीजिए और प्रातःकाल | यची, दाल चीनी, चिरायता, गूगल, वासा, इन्द्रजौ उसे खाकर वह पानी भी पी लिजिए। इस प्रकार | काली मंग, खरैटीकी जड़, शतावर, कालीमिर्च,
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