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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः ।
[ १३३]
बन्द करेके उपलोंकी अग्निमें फूंक दीजिए।। साधारणतः १ गोली और बलवान पुरुषको तत्पश्चात् इस भस्ममें समान भाग रस सिन्दूर | दो, तथा निर्बलको आधी गोलीकी मात्रानुसार मिलाकर २ रत्तीको मात्रानुसार सेवन करनेसे सेवन कराने से २१ दिनमें पित्त कुष्ठका नाश हो अर्शादि गुदरोग और भगन्दर रोग नष्ट होते हैं। जाता है। (१६४१) धनसङ्कोचनाम रसः
॥ इति घकारादिरसमकरणम् ॥ . ( रसे. मं. । अ. ३) घनस्य पिष्टिका कार्या शुल्वस्य अथवा शुभा। __ अथ धकारादिमिश्रप्रकरणम् । गन्धकान्तःस्थिता पाच्या सर्पिषा संयुतं यथा ॥ पञ्चाङ्ग निम्बचूर्णस्य विडङ्ग चित्रकं तथा ।
(१६४२) घनसारादिवत्तिः (बं. से.। मूत्रा.) कटुत्रयं वचा मुस्ता व्याधिघातं तथैव च ॥
घनसारस्य चूर्णेन वस्त्रवर्तिःकृताम्बुना। समभागानि चैतानि पथ्या च त्रिगुणा भवेत् ।
गुण्डयित्वा ध्वजे क्षिप्तः मूत्ररोधं जहाति सा ॥३१ अजामूत्रेण सम्पिष्य गुटिकाःकारयेद्भिषक् . कपूरको पानीके साथ पीसकर कपड़े पर पञ्चगुञ्जाप्रमाणेन देयैका पित्तकुष्ठहा।
लगाकर उसकी बती बनाकर इन्द्रीके छिद्रमें सवले द्वे प्रदातव्या क्षीणे चार्धा प्रदीयते ॥ रखनेसे मूत्रावरोध नष्ट होता है। एकविंशदिनैरेव पित्तकुष्ठं विनाशयेत् ॥ (१६४३) घृतावसेचनम् (धन्व. । व्रण.) अभ्रक भस्म अथवा ताम्र भस्म और पारेको
सद्यःक्षतं व्रणं वैद्यः सशूलं परिषेचयेत् भली भांति खरल करके पिष्टी (पिट्ठी) बनाकर .यष्टीमधुकयुक्तेन किश्चिदुष्णेम सर्पिषा॥६५॥ उसमें थोडासा घृत मिलाकर गन्धकके बीचमें
'शूलयुक्त तुरन्तके घावमें गर्म घीमें मुलैठीका रखकर पकाइये और फिर उसमें नीमका पञ्चाङ्ग बाय बिडङ्ग, चीता, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च पीपल),
चूर्ण मिलाकर लगाना चाहिए। (उस धीमें कपड़ा बच, मोथा, और अमलतासका समान भाग चूर्ण तथा
भिगोकर घावमें रख देना चाहिए ।) ३ गुना हर्रका चूर्ण मिलाकर बकरीके मूत्र में पीस ॥ इति घकरादिमिश्रप्रकरणम् ॥ कर ५-५ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए।
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