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रसमकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[२३३]
अथ गुणाः
शिरोरोगं कर्णशूलं दन्तशूलं गलग्रहम् । चुम्बको लेखनः शीतो मेदोविषजरापहः। वातपित्तसमुद्भूतं ग्रहणी सर्वसम्भवाम् ॥ कण्डूपाण्डूदरर॑ण्यमोहमूर्छादिरोगहृत् ॥ आमवातं कटीशूलमग्निमान्यं विचिकाम् । अथास्य शोधनमुपयोगश्च
अजैसि कामलां मेहं मूत्रकृच्छ्रादिकश्च यत् ।। सौभाजनरसे साम्लवर्गे दोलागतो दिनम्। तत्सर्व नाशयत्याशु विष्णुचक्रमिवासुरान् । पाचितःशुध्यते कान्तपाषाण पारदोपकृत् ॥ चूडामणिरसो ह्येष शिवेन परिकीर्तितः॥
' चुम्बक ' एक प्रकारका पत्थर होता है, | पारद भस्म ( रस सिन्दूर ) मूंगा भस्म, जैसा कि कहा गया है कि " कान्तलोह, चुम्बक, स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म, वङ्ग भस्म, ताम्र भस्म, और भ्रामक आदि पाषाण भेद हैं । चुम्बक, कान्त- मोती भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म और अभ्रक भस्म पाषाण, अयस्कान्त और लोहकर्षक, यह सब एक समान भाग लेकर पानीसे घोटकर २-२ या ही पदार्थके नाम हैं।
३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए । गुण----चुम्बक लेखन, शीतल, भेदन विष श्री शिवोक्त यह चूडामणि रस धातुगतज्वर, और जरानाशक, तथा खुजली, पाण्डु, उदररोग, । सन्निपातज्वर, विषमज्वर, काम और शोकजनितक्षीणता, मोह और मूर्छानाशक है । ज्वर, खांसी, श्वास, सर्वांगमें उत्पन्न होने वाले __ शोधन-चुम्बक पत्थरको १ दिन दोला- नाना प्रकारके शूल, शिरो रोग, कर्ण शूल, दन्त यन्त्र विधिसे अम्लवर्ग ( अम्लबेत, जम्बीरी नींबू , शूल, गलग्रह, वातपित्तज तथा सन्निपातज संग्रहणी, विजौरा नींबू , चूका, नारंगी, तिन्तडीक, इमलीका आमवात, कटिशूल, अग्निमांद्य, विषूचिका, बवासीर, फल, कागजी नीबू , दाडिम और करोंदा )युक्त कामला, प्रमेह और मूत्रकृच्छ्रादि समस्त रोगोंको सहंजनेके रसमें पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है। अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता है। ___कान्त पाषाण ( चुम्बक ) पारदकी शक्तिको (१९३९) चूडामणिरसः (भै. र. । यक्ष्मा.) बढ़ाता है।
द्विनिष्कं रससिन्दूरं तददै हेमजारितम् । (१९३८) चूडामणिरसः (र.चं.र.सा.सं.।ज्वर.) निष्कद्वयं गन्धकश्च मर्दयेच्चित्रकद्वैः॥ मृतं मूतं प्रवालश्च स्वर्ण तारं च वङ्गकम् । कुमारिकाद्रवैर्यामं छागदुग्धे त्रियामकम् । भुल्वं मुक्तां तीक्ष्णमभ्रं सर्वमेकत्र योजयेत् ॥ मुक्ताविद्रुमवङ्गानां निष्कं निष्कं विमिश्रयेत् ॥ जलेन पिष्ट्वा वटिका कार्या वल्लप्रमाणतः। गोलकं पूरयेद्भाण्डे रुवा गजपुटे पचेत् । धातुस्थं सन्निपातोत्थं ज्वरं विषमसम्भवम् ॥ स्वाङ्गशीतं विचूाथ भक्षयेद्रक्तिका द्वयम् ॥ कामशोकसमुद्भतं त्रिदोषजनितं तथा । मधुना क्षयरोगघ्नं वातपित्तसमुद्भवम् । फास भासश्च विविधं शूलं सर्वाङ्गसम्भवम् ॥ अजातश्चानु पिबेच्छर्करामधुसंयुतम् ।।
भा० ३०
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