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रसमकरणम् ] द्वितीयो भागः।
[ ५०५] (२७७९) त्र्यम्बकाभ्रम् (भै. र. । स्वरभेद.) नामवल्लीदलैः पिष्टं ताम्रपिष्टिं प्रकल्पयेत् । अभ्रं मेचकमारित पल मितं व्याघ्रीबलागोक्षुरम्। रुध्वा लघुपुटैः पच्याभूधरे यामपञ्चकम् ॥ कन्यापिप्पलिमूलभृङ्गषकाः पत्रं तथा वादरम् ॥ आदाय चूर्णयेत्तुल्यैस्त्र्यूषणैः सममिश्रितैः । धात्रीरात्रिगुडूचिकाः पृथगतः सत्वैः पलांशैर्युतम्। अर्धाङ्गकम्पवाता” भक्षयेच्च द्विगुञ्जकम् ॥ सम्मोति मनोरमं सुवलितं कृत्वा यदासेवितम्॥ शुद्ध पारा और गन्धक ५-५ पल तथा वातोत्थं कफपित्तजं स्वरगतं यच्च त्रिदोषात्मक- शुद्ध ताम्रचूर्ण १ पल ( ५ तोले ) लेकर प्रथम मत्युच्चैर्वदतो हतं बहुविधं पानीयदोषोद्भवम् ॥ ताम्र और पारेको एकत्र खरल करें जब ताम्र कासंश्वासमुरोग्रहं सयकृतं हिक्कां तृषां कामला- पारेमें मिल जाय तो गन्धक मिलाकर कजली मीसि ग्रहणी ज्वरं बहुविधं शोथं क्षयञ्चाबुंदम् ॥ बनावें और फिर उसे १-१ दिन जम्बीरी नीबू हन्ति त्र्यम्बकमभ्रमद्भुततरं वृष्यातिवृष्यं परम् । तथा पानके रसमें घोटकर गोला बनाकर उसे वर्वृद्धिकरं रसायनवरं सर्वामयध्वंसि तत् ॥ शरावसम्पुट में बन्द करके लघुपुटमें फूकिये और
१ पल ( ५ तोले ) निश्चन्द्र अभ्रकभस्ममें फिर नीबूके रस और पानके रसमें घोटकर ५ कटेली, बला, गोखरु, घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ), . पहर तक भूधरयन्त्रमें पकाइये । तत्पश्चात् यन्त्रके पीपलामूल, भांगरा, बासा, बेरीके पत्ते, आमला, स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर हल्दी और गिलोयमेंसे प्रत्येकका ५-५ तोले पीसकर उसमें उसके बराबर त्रिकुटाका चूर्ण स्वरस मिलाकर अच्छी तरह धोटकर ( ३-४ मिला लीजिये। रत्तीकी ) गोलियां बना लीजिये ।
___इसे २ रत्ती मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्द्धाङ्ग ___इनके सेवनसे वातज, पित्तज, कफज, सन्नि- और कम्पवात नष्ट होता है। पातज और अधिक बोलने या खराब पानीके। (२७८१)त्र्याहिकारिरसः (भै. र. ज्वर.) उपयोगसे उत्पन्न स्वरभङ्ग तथा खांसी, श्वास, रसगन्धशिलातालं सर्वैरतिविषा समा। उरोग्रह, यकृत् , हिक्का ( हिचकी ), तृषा, कामला, रसस्य द्विगुणं लौहं रौप्यं लौहाघ्रि सम्मितम्॥ अर्श, संग्रहणी, ज्वर अनेक प्रकारका शोथ, क्षय, पिचुमदरसेनापि विष्णुक्रान्तारसेन च । अर्बुद और अन्य कितने ही रोग नष्ट होते हैं। सर्व सम्मघु वटिकाः कुर्याद् गुञ्जात्रयोन्मिताः॥ ___यह अद्भुत गुणकारी गोलियां अत्यन्त वृष्य हन्यादतिविषाकाथसंयुतोऽयं रसोत्तमः। ( वीर्यवर्द्धक ), अग्निवर्द्धक और रसायन हैं। व्याहिकादीज्वरान् सर्वान् रक्षांसीव रघूद्वहः॥ (२७८०) त्र्यम्बकेश्वररसः
___ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मनसिल और ( र. र. स. । उ. ख. अ. २१) | शुद्ध हरताल १-१ भाग, अतीसका चूर्ण इन मूतकस्य पलं पञ्च पलैकं ताम्रचूर्णकम् । . । सबके बराबर, लौहभस्म २ भाग और चांदीभस्म जम्बीराणां द्रवैः पिष्टं मूततुल्यं च गन्धकम् ॥ आधा भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली
भा० ६४
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