________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
गुटिकाप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः।
[३३] अथ गकारादि गुटिकाप्रकरणम् त्रिफला, चित्रक ( चीता ) केलेकी जड़,
चनाके क्षुपक ( वृक्ष ), मन्दारका पञ्चाङ्ग । इनके गगनगर्भा वटी (र. र. स. उ. ख. । अ. २१) जुदे जुदे क्षार बनाले । और नवसादरको डमरु (रस प्रकरणमें देखिए ।)
यन्त्रमें रखकर दो पहरकी अग्निसे उसका फूल गगनगर्भिता वटी (र. का. धे. । अ. ३७) उड़ाले । इन सब क्षारोंको समान समान लेकर (रस प्रकरणमें देखिए ।)
प्रतिसारणीय क्षारके साथ घोटकर हंडिया के गगनादि वटी (र. सा. सं. वातव्या.)
संपुटमें रखकर कुक्कुट पुट में फूंकदे तो अपूर्व क्षार. (रस प्रकरणमें देखिए ।
बन जायगा । इस क्षारके समान पाँचों नमक (१३०१) गन्धकवटी (र. सा. सं. । अजीर्ण.) (सेंवानोन, कालानोन सांभरनोन, खारीनोन, सा'शुद्धगन्धकं भागैकं सत्वं शुण्ठयाश्चतुर्गुणम् ।
मुद्रनोन ) डालकर और कुल चीजोंसे आधी शुद्ध निम्बुनीरेण समर्थ सप्तवारं विशेषतः ॥
गन्धक डालकर बिजौरे नीबूके रस के साथ घोटे। पुनश्च सैन्धवं क्षेप्यं यथारुचि भिषग्वरैः।
| बाद सोंठ, मिर्च, पोपल, चित्रक, घीमें भुनी हुई चणकपमिता कुर्याद्वटिकां रुचिदायिनीम् ॥
हींग और घोमें भुना हुवा सफेद जीरा, ये सब भोजनान्ते सदा देया गन्धकाख्या वटी शुभा।।
औषधे गन्धकसे चतुर्गुण लेकर अम्लबेतके काथके ....शुद्ध गन्धक १ भाग और सोंठका सत ४ भाग
साथ और घीमें छौके हुवे लशुनके रसके साथ लेकर दोनोंको नीबूके रसकी सात भावना देकर
घोटकर गोलियां बनाले । ये गोलियां अजीर्ण, यथारुचि सेंधानमक मिलाकर चने के बराबर
अतिसार, हैजा, संग्रहणी आदि अनेक रोगोंके नष्ट गोलियां बना लीजिए।
करने वाली हैं और बहुत स्वादिष्ट हैं । __ यह “ गन्धकवटी " नित्य भोजनके अन्तमें
___ (मूल पुस्तकसे उद्धृत) सेवन करनेसे रुचि और अग्निवृद्धि करती है। (१३०३) गन्धकवटी (वै. र. । अग्नि. मां.) (१३०२) गन्धकवटी (रसायनसार पृ. ५१०) | गन्धकं मरिचं चुकं सौवर्चलसमन्वितम् । चराग्निरम्भाचणकार्कजातं,
टङ्कप्रमाणगुटिकां बद्धकोष्ठेऽग्निदीपनी ॥ क्षारश्च पुष्पं नवसादरस्य । - गन्धक, स्याहमिर्च, और सौंचल नमक को सुधाम्बुघृष्टं पुटितं वितस्तो,
चुक्र में पीसकर एक एक टङ्क (४ माशे ) की पुटे समानं पटुपञ्चकश्च ॥ गोलियां बना लीजिए। यह कोष्ठ बद्धता नाशिनी तदर्धगन्धं च चतुर्गुणाश्च,
और अग्नि दीपिनी हैं। व्योषाग्निसंभर्जितजीरवाहीः। (१३०४) गन्धकवटी (वै. र. । अग्नि मां.) घृष्ट्वाज्यभृष्टे लशुनेऽम्लजीरे,
गन्धकं मरिचं शुण्ठी सैन्धवं यवजं लवम् । वटी:करोत्वग्निमयीरजीणे॥ । निम्बूरसेन वटिका चणमात्राग्निदीपिनी॥ भा० ५
For Private And Personal